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महाभारत काल के चार रहस्यमय पक्षी जिन्हें अपना पूर्वजन्म याद था!!!!!!!

संजय गुप्ता

एक बार महर्षि जैमिनी को महाभारत में आये कुछ तथ्यों से सम्बंधित कुछ संदेह उत्पन्न हो गया। मन में चल रही उहापोह के बीच उन्हें मार्कंडेय मुनि का ध्यान आया। वे उनके पास गए और उनसे अपने संदेह निवारण के लिए आग्रह किया।

उस समय तक सांझ हो चली थी और मार्कंडेय मुनि के संध्या वन्दन का समय हो रहा था लेकिन उन्होंने महर्षि जैमिनी की बातें सुनी और सब सुनने के बाद उन्होंने महर्षि जैमिनी को विंध्य पर्वत की एक कन्दरा में रहने वाले 4 पक्षियों के पास जाने को कहा |

महर्षि जैमिनी द्वारा उन पक्षियों के बारे में पूछे जाने पर मारकंडे जी ने बतलाया कि वह मुनिवर समीक के द्वारा पालित पक्षी है | महर्षि मार्कंडेय जी ने उन्हें पूरी कथा बतायी जिसके अनुसार एक समय दुर्वासा ऋषि ने क्रोधित हो कर वपु नामक अप्सरा को तिर्यक योनी में जन्म लेने का श्राप दिया जिसके फलस्वरूप वपु नामक उस अप्सरा ने, गरुड़ वंशीय कंधर नामक पक्षी की पत्नी मदनिका के गर्भ से तार्क्षी नामक पक्षिणी के रूप में जन्म लिया था।

वही तार्क्षी द्रोण नामक एक ब्राह्मण को ब्याही गई थी, जिससे गर्भधारण करने पर साढ़े तीन महीने के बाद वह तार्क्षी, जब महाभारत युद्ध हो रहा था, उड़ती हुई उस क्षेत्र से निकली | उसी समय अर्जुन ने अपने किसी शत्रु के ऊपर बाण का संधान किया था जिसके प्रभाव से उसका शरीर छिल गया और वह अपने गर्भस्थ अंडों को गिराकर स्वयं भी मृत्यु को प्राप्त हो गयी।

संयोगवश उसी समय युद्ध लड़ रहे भगदत्त के सुप्रवीक नामक गजराज का विशालकाय गलघंट भी बाण लगने से टूटकर गिरा और उसने अंडों को आच्छादित (ढक लिया) कर दिया | युद्ध समाप्त होने के पश्चात्, शिष्यों के साथ उधर की तरफ विचरण करते हुए समीक मुनि ने उन अण्डों को देखा और वे उनको उठा लाए।

आश्रम के पवित्र वातावरण में उन चारों अण्डों से कुल चार पक्षी निकले और कुछ समय बाद परिपुष्ट होकर एक दिन वे पक्षी मनुष्य की वाणी बोलते हुए अपने गुरु यानि समीक मुनि को प्रणाम करने गए। मुनिवर समीक ने विस्मित होकर उनसे उनके पूर्व जन्म का वृतांत पूछा। उन्होंने बतलाया कि ‘हम चारों भाई पूर्व जन्म में सुक्रष नामक ब्राह्मण के ज्ञानी पुत्र थे।

लेकिन एक दिन हमने अपने पिता की आज्ञा का उल्लंघन करके उनका अपमान कर दिया। इससे उन्होंने क्रोधित होकर हमें तिर्यक योनि में जाने का शाप दे दिया। अतः हे गुरुदेव ! हम वही चारों ब्राम्हण कुमार हैं, जो अब पक्षी होकर तार्क्षी के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं। हमारी माता महाभारत के युद्ध में मारी गई है। हे गुरु ! अब हमें आप आज्ञा दीजिए, हम विंध्य पर्वत की इसी मनोहर कंदरा में निवास करेंगे”।

यह कथा सुनाने के बाद मार्कंडेय जी ने कहा- हे मुनिवर ! आप वहीँ जाइए | वे वेद ज्ञान संपन्न चारो पक्षी आपको उपदेश करेंगे और आपकी शंका का समाधान करेंगे। तब महर्षि जैमिनी समीक मुनि के आश्रम की उसी मनोहर कन्दरा में गए और पूर्व ज्ञान की स्मृति से संपन्न उन पक्षियों ने उनके सारे संदेहों का निवारण कर दिया।

इस प्रकार हमारे धर्म ग्रंथों तथा इतिहास और पुराण आदि के अध्ययन से पता लगता है कि इस धरा पर पशु-पक्षी तक भी जातिस्मर होते रहे हैं और उन्हें भी पूर्व जन्म का ज्ञान होता है। और प्राचीन काल के ऋषि-मुनि, भले ही वो ब्रह्मर्षि रहे हों लेकिन अगर उन्हें किसी तिर्यक योनि के पशु-पक्षी से उन्हें ज्ञान मिल रहा हो तो उन्होंने कभी संकोच नहीं किया बल्कि उसे आदर पूर्वक ग्रहण किया।

धन्य है यह सनातन धर्म और धन्य है यह भारत भूमि।

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स्वस्तिक के टोटके एवं उपाय

देव शर्मा
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स्वस्तिक और वास्तु :वास्तुशास्त्र में स्वस्तिक को वास्तु का प्रतीक मान गया है। इसकी बनावट ऐसी होती है कि यह हर दिशा से एक समान दिखाए देता है। घर के वास्तु को ठीक करने के लिए स्वस्तिक का प्रयोग किया जाता है।

घर के मुख्य द्वार के दोनों और अष्‍ट धातु और उपर मध्य में तांबे का स्वस्तिक लगाने से सभी तरह का वस्तुदोष दूर होता है।

पंच धातु का स्वस्तिक बनवा के प्राण प्रतिष्ठा करने के बाद चौखट पर लगवाने से अच्छे परिणाम मिलते हैं। चांदी में नवरत्न लगवाकर पूर्व दिशा में लगाने पर वास्तु दोष दूर होकर लक्ष्मी प्रप्ति होती है।

पहला उपाय👉 वास्तुदोष दूर करने के लिए 9 अंगुल लंबा और चौड़ा स्वस्तिक सिंदूर से बनाने से नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मकता में बदल जाती है।

दूसरा उपाय👉 मांगलिक, धार्मिक कार्यों में बनाएं स्वस्तिक :धार्मिक कार्यों में रोली, हल्दी या सिंदूर से बना स्वस्तिक आत्मसंतुष्‍टी देता है। त्योहारों पर द्वार के बाहर रंगोली के साथ कुमकुम, सिंदूर या रंगोली से बनाया गया स्वस्तिक मंगलकारी होता है। इसे बनाने से देवी और देवता घर में प्रवेश करते हैं। गुरु पुष्य या रवि पुष्य में बनाया गया स्वस्तिक शांति प्रदान करता है।

तीसरा उपाय👉 व्यापार वृद्धि हेतु :यदि आपके व्यापार या दुकान में बिक्री नहीं बढ़ रही है तो 7 गुरुवार को ईशान कोण को गंगाजल से धोकर वहां सुखी हल्दी से स्वस्तिक बनाएं और उसकी पंचोपचार पूजा करें। इसके बाद वहां आधा तोला गुड़ का भोग लगाएं। इस उपाय से लाभ मिलेगा। कार्य स्थल पर उत्तर दिशा में हल्दी का स्वस्तिक बनाने से बहुत लाभ प्राप्त होता है।

चौथा उपाय👉 स्वस्तिक बनाकर उसके ऊपर जिस भी देवता की मूर्ति रखी जाती है वह तुरंत प्रसन्न होता है। यदि आप अपने घर में अपने ईष्‍टदेव की पूजा करते हैं तो उस स्थान पर उनके आसन के उपर स्वस्तिक जरूर बनाएं।

पांचवां उपाय👉 देव स्थान पर स्वस्तिक बनाकर उसके ऊपर पंच धान्य या दीपक जलाकर रखने से कुछ ही समय में इच्छीत कार्य पूर्ण होता है। इसके अलावा मनोकामना सिद्धी हेतु मंदिर में गोबर या कंकू से उलटा स्वस्तिक बनाया जाता है। फिर जब मनोकामना पूर्ण हो जाती है तो वहीं जाकर सीधा स्वस्तिक बनाया जाता है।

छठा उपाय👉 सुख की नींद सोने हेतु :यदि आप रात में बैचेन रहते हैं। नींद नहीं आती या बुरे बुरे सपने आते हैं तो सोने से पूर्व स्वस्तिक को तर्जनी से बनाकर सो जाएं। इस उपाय से नींद अच्छी आएगी।

सातवां उपाय👉 संजा में स्वस्तिक :पितृ पक्ष में बालिकाएं संजा बनाते समय गोबर से स्वस्तिक बनाती है। इससे घर में शुभता, शां‍ति और समृद्धि आती है और पितरों की कृपा भी प्राप्त होती है।

आठवां उपाय धनलाभ हेतु👉 प्रतिदिन सुबह उठकर विश्वासपूर्वक यह विचार करें कि लक्ष्मी आने वाली हैं। इसके लिए घर को साफ-सुथरा करने और स्नान आदि से निवृत्त होने के बाद सुगंधित वातावरण कर दें। फिर भगवान का पूजन करने के बाद अंत में देहली की पूजा करें।

देहली के दोनों ओर स्वस्तिक बनाकर उसकी पूजा करें। स्वस्तिक के ऊपर चावल की एक ढेरी बनाएं और एक-एक सुपारी पर कलवा बांधकर उसको ढेरी के ऊपर रख दें। इस उपाय से धनलाभ होगा।

नौवां उपाय👉 बेहद शुभ है लाल और पीले रंग का स्वस्तिक :अधिकतर लोग स्वस्तिक को हल्दी से बनाते हैं। ईशान या उत्तर दिशा की दीवार पर पीले रंग का स्वस्तिक बनाने से घर में सुख और शांति बनी रहती है। यदि कोई मांगलिक कार्य करने जा रहे हैं तो लाल रंग का स्वस्तिक बनाएं। इसके लिए केसर, सिंदूर, रोली और कुंकुम का इस्मेमाल करें।
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Posted in संस्कृत साहित्य

वेदों में बलिप्रथा

देव शर्मा
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आज कल बहुत से लोग ऑडियो और वीडियो तथा बातचीत में यह बताने का प्रयास करते है कि बलि प्रथा या मांस भक्षण वेदकाल से होता रहा है। जानकारी के अभाव में या तो हम चर्चा नही करते या कन्नी काटने लगते है। ब्राह्मण होंने पर धर्म है की हम कुछ बाते जो आधार है अवश्य जाने और निश्चय ही उनका निवारण भी करें।

हिन्दू -धर्म में सर्वत्र निर्दोषों के प्रति अहिंसा बरतने का ही प्रतिपादन किया गया है और सर्वत्र हिंसा का निषेध। वेदों से लेकर पुराणों तक में पशु-बलि का कहीं भी समर्थन नहीं मिलता। कुछ महाज्ञानी जिव्हा के प्रभाव में वैदिक साहित्य की ऐसी व्याख्या कर देते है कि अर्थ का अनर्थ हो जाता है, वैदिक साहित्य की जानकारी न होने की वजह से सामान्य जन उनकी बातों को सत्य मान लेते है।

हम भारत मे प्रचलित बली प्रथा को समझने से पहले हम पहले ये देख लेते है कि क्या वास्तव में वैदिक साहित्यो में जीव हिंसा बलि प्रथा आदि बाते है ।।

जब कोई अंधा होता है तो सोचता है कि सभी अंधे हो जाये और यही कारण था कि पश्चिमी सभ्यता ने जब भारतीय सभ्यता पर अतिक्रमण करना शुरू किया तो सबसे पहले उसने हमारी संस्कृति और सभ्यता को दूषित करना शुरू किया। पश्चिमी सभ्यता में बलिदान या बलि प्रथा का मतलब होता है sacrifice करना जबकि वैदिक साहित्य में आपको बलि का मतलब उपहार देना या कर देना मिलेगा।

संस्कृत में बलि शब्द का अर्थ सर्वथा मार देना ऐसा नहीं होता। उसका अर्थ दान के रूप में भी उल्लेखित किया गया है।

कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंशम् में ये बलि शब्द को दान के रूप में प्रयुक्त किया है।

प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिम् अग्रहीत्।
सहस्रगुणमुत्स्रष्टुम् आदत्ते हि रसं रविः।।

अर्थात्: प्रजा के क्षेम के लिये ही वह राजा दिलीप उन से कर लेता था, जैसे कि सहस्रगुणा बरसाने के लिये ही सूर्य जल लेता है।

मतलब साफ है कि बली देना उपहार देने से आशय था लोगों के किसी को मार देने से नही ।

वैदिक साहित्यों में पशुबलि या हिंसा निषेध का उल्लेख और अहिंसा को पुष्ठ करते वेदमंत्र और शास्त्र श्लोक —

ऋग्वेद-

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि स इद देवेषु गच्छति (ऋग्वेद- 1:1:4)

-हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त ‘हिंसा रहित’ यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य गुणों से युक्त है तथा विद्वान मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है |

ऋग्वेद संहिता के पहले ही मण्डल के प्रथम सुक्त के चौथे ही मंत्र में यह साफ साफ कह दिया गया है कि यज्ञ हिंसा रहित ही हों। ऋग्वेद में सर्वत्र यज्ञ को हिंसा रहित कहा गया है इसी तरह अन्य तीनों वेदों में भी अहिंसा वर्णित हैं | फिर यह कैसे माना जा सकता है कि वेदों में हिंसा या पशु वध की आज्ञा है ?

अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय (ऋग्वेद- 1:164:26)

अर्थ: अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं |

सूयवसाद भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम
अद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती (ऋग्वेद 1:164:40)

अर्थ: अघ्न्या गौ- जो किसी भी अवस्था में नहीं मारने योग्य हैं, हरी घास और शुद्ध जल के सेवन से स्वस्थ रहें जिससे कि हम उत्तम सद् गुण,ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त हों।

सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्य: (ऋग्वेद- 5:83:8)

अर्थ : अघ्न्या गौ के लिए शुद्ध जल अति उत्तमता से उपलब्ध हो |

क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः ।
एहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन ।। (ऋग्वेद- 7:6:21:9)

अर्थात: “मैं मांस भक्षी या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ, यह पाप का भार ढोने वाली है ; अतः यमराज के घर में जाए. इससे भिन्न जो यह दूसरे पवित्र और सर्वज्ञ अग्निदेव है, इनको ही यहाँ स्थापित करता हूँ. ये इस शक्तिशाली हविष्य को देवताओं के समीप पहुँचायें ; क्योंकि ये सब देवताओं को जानने वाले है.”

आरे गोहा नृहा वधो वो अस्तु (ऋग्वेद 7:56:17)

अर्थात: ऋग्वेद गौ- हत्या को जघन्य अपराध घोषित करते हुए मनुष्य हत्या के तुल्य मानता है और ऐसा महापाप करने वाले के लिये दण्ड का विधान करता है |

वैदिक कोष निघण्टु में गौ या गाय के पर्यायवाची शब्दों में अघ्न्या, अहि- और अदिति का भी समावेश है। निघण्टु के भाष्यकार यास्क इनकी व्याख्या में कहते हैं -अघ्न्या – जिसे कभी न मारना चाहिए। अहि – जिसका कदापि वध नहीं होना चाहिए | अदिति – जिसके खंड नहीं करने चाहिए। इन तीन शब्दों से यह भलीभांति विदित होता है कि गाय को किसी भी प्रकार से पीड़ित नहीं करना चाहिए । प्राय: वेदों में गाय इन्हीं नामों से पुकारी गई है।

घृतं वा यदि वा तैलं, विप्रोनाद्यान्नखस्थितम !
यमस्तदशुचि प्राह, तुल्यं गोमासभक्षण: !!
माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि!
प्र नु वोचं चिकितुपे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट !! (ऋग्वेद- 8:101:15)

अर्थात- रूद्र ब्रह्मचारियों की माता, वसु ब्रह्मचारियों के लिए दुहिता के समान प्रिय, आदित्य ब्रह्मचारियों के लिए बहिन के समान स्नेहशील, दुग्धरूप अमृत के केन्द्र इस (अनागम) निर्दोष (अदितिम) अखंडनीया (गाम) गौ को (मा वधिष्ट) कभी मत मार. ऎसा मैं (चिकितेषु जनाय) प्रत्येक विचारशील मनुष्य के लिए (प्रनुवोचम) उपदेश करता हूँ.

यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च (ऋग्वेद-10:87:16)

-मनुष्य, अश्व या अन्य पशुओं के मांस से पेट भरने वाले तथा दूध देने वाली अघ्न्या गायों का विनाश करने वालों को कठोरतम दण्ड देना चाहिए ।

अथर्ववेद-

वत्सं जातमिवाघ्न्या (अथर्ववेद- 3:30:1)

-आपस में उसी प्रकार प्रेम करो, जैसे अघ्न्या – कभी न मारने योग्य गाय – अपने बछड़े से करती है |

ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम् एष वां भागो निहितो
रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च (अथर्ववेद- 6:140:2)

-हे दंतपंक्तियों! चावल, जौ, उड़द और तिल खाओ। यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं| उन्हें मत मारो जो माता–पिता बनने की योग्यता रखते हैं|

शिवौ ते स्तां ब्रीहीयवावबलासावदोमधौ !
एतौ यक्ष्मं विबाधेते एतौ मुण्चतौ अंहस: !! (अथर्ववेद- 8:2:18)

-हे मनुष्य ! तेरे लिए चावल, जौं आदि धान्य कल्याणकारी हैं. ये रोगों को दूर करते हैं और सात्विक होने के कारण पाप वासना से दूर रखते हैं.

य आमं मांसमदन्ति पौरूषेयं च ये क्रवि: !
गर्भान खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि !! (अथर्ववेद- 8:6:23)

-जो कच्चा माँस खाते हैं, जो मनुष्यों द्वारा पकाया हुआ माँस खाते हैं, जो गर्भ रूप अंडों का सेवन करते हैं, उन के इस दुष्ट व्यसन का नाश करो !

अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये मा नो गामश्वं पुरुषं वधीः (अथर्ववेद-10:1:29)

-निर्दोषों को मारना निश्चित ही महापाप है | हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार |

धेनुं सदनं रयीणाम् (अथर्ववेद- 11:1:4)

-गाय सभी ऐश्वर्यों का उद्गम है |

“मा हिंस्यात सर्व भूतानि ”

-किसी भी प्राणी की हिंसा ना करे.

पुष्टिं पशुनां परिजग्रभाहं चतुष्पदां द्विपदां यच्च धान्यम !
पय: पशुनां रसमोषधीनां बृहस्पति: सविता मे नियच्छात !! (अथर्ववेद- 19:31:5)

इस मन्त्र में भी यही कहा है कि- मैं पशुओं की पुष्टि वा शक्ति को अपने अन्दर ग्रहण करता हूं और धान्य का सेवन करता हूँ. सर्वोत्पादक ज्ञानदायक परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बनाया है कि (पशुनां पय:) गौ, बकरी आदि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण किया जाये न कि मांस तथा औषधियों के रस का आरोग्य के लिए सेवन किया जाए. यहां भी “पशुनां पयइति बृहस्पति: मे नियच्छात:” अर्थात- ज्ञानप्रद परमेश्वर नें मेरे लिए यह नियम बना दिया है कि मैं गवादि पशुओं का दुग्ध ही ग्रहण करूँ, स्पष्टतया मांसनिषेधक है !

यजुर्वेद-

अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि (यजुर्वेद-1:1)

-हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |

पशूंस्त्रायेथां (यजुर्वेद- 6:11)

-पशुओं का पालन करो |

ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे (यजुर्वेद-11:83)

-सभी दो पाए और चौपाए प्राणियों को बल और पोषण प्राप्त हो |

विमुच्यध्वमघ्न्या देवयाना अगन्म (यजुर्वेद-12:73)

-अघ्न्या गाय और बैल तुम्हें समृद्धि प्रदान करते हैं |

घृतं दुहानामदितिं जनायाग्ने मा हिंसी: (यजुर्वेद-13:49)

-सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत मार |

द्विपादव चतुष्पात् पाहि (यजुर्वेद-14:8)

-हे मनुष्य ! दो पैर वाले की रक्षा कर और चार पैर वाले की भी रक्षा कर |

अन्तकाय गोघातं (यजुर्वेद-30:18)

-गौ हत्यारों का अंत हो |

यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: (यजुर्वेद- 40:7)

-जो सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भी शोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं | जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे कैसे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी सकते हैं ? वे तो अपने पिछले दिनों के प्रिय और निकटस्थ लोगों को उन जिन्दा प्राणियों में देखते हैं |

वेदों में पशुओं की हत्या का विरोध तो है ही बल्कि गौ- हत्या पर तो तीव्र आपत्ति करते हुए उसे निषिद्ध माना गया है | यजुर्वेद में गाय को जीवनदायी पोषण दाता मानते हुए गौ हत्या को वर्जित किया गया है |

महाभारत –

अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो तपः।
अहिंसा परमो सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते॥
अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो दमः।
अहिंसा परम दानं, अहिंसा परम तपः॥
अहिंसा परम यज्ञः अहिंसा परमो फलम्‌।
अहिंसा परमं मित्रः अहिंसा परमं सुखम्‌॥ (महाभारत/अनुशासन पर्व-115:23/116:28,29)

“अहिंसा सकलो धर्मः।” (अनुशासन पर्व- महाभारत)
भावार्थ:- सभी प्रकार की धार्मिक और सात्विक प्रवृत्तियों का समावेश केवल अहिंसा में हो जाता है।

अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः। (आदिपर्व- 11:13)

-किसी भी प्राणी को न मारना ही परमधर्म है ।

प्राणिनामवधस्तात सर्वज्यायान्मतो मम ।
अनृतं वा वदेद्वाचं न हिंस्यात्कथं च न ॥ (कर्णपर्व-69:23)

-मैं प्राणियों को न मारना ही सबसे उत्तम मानता हूँ । झूठ चाहे बोल दे, पर किसी की हिंसा न करे ।

सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवकृसरौदनम् ।
धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् ॥ (शान्तिपर्व- 265:9)

-सुरा, मछली, मद्य, मांस, आसव, कृसरा आदि भोजन, धूर्त प्रवर्तित है जिन्होनें ऐसे अखाद्य को वेदों में कल्पित कर दिया है।

मनुस्मृति –

यद्ध्यायति यतकुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च ।
तद्वाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किञ्चन ॥ (मनुस्मृति- 5:47)

-ऐसा व्यक्ति जो किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि वह जो चिंतन या कर्म करता है तथा जिसमें एकाग्र होकर ध्यान करता है वह उसको बिना किसी प्रयत्न के प्राप्त हो जाता है

नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित ।
न च प्राणिवशः स्वर्ग् यस्तस्मान्मांसं क्विर्जयेत् ॥ (मनुस्मृति- 5:48)

-किसी दूसरे जीव का वध किया जाये तभी मांस की प्राप्ति होती है इसलिए यह निश्चित है कि जीव हिंसा से कभी स्वर्ग नही मिलता, इसलिए सुख तथा स्वर्ग को पाने की कामना रखने वाले लोगों को मांस भक्षण वर्जित करना चाहिए।

अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥ (मनुस्मृति- 5:51)

अर्थ – अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले – ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं ।

मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद् म्यहम्।
एतत्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः॥ (मनुस्मृति- 5:55)

अर्थ – जिस प्राणी को हे मनुष्य तूं इस जीवन में खायेगा, अगामी जीवन मे वह प्राणी तुझे खायेगा।

“अहिंसया च भूतानानमृतत्वाय कल्पते।” (मनु-स्मृति)
भावार्थ:- अहिंसा के फल स्वरूप, प्राणियों को अमरत्व पद की प्राप्ति होती है।

अन्य_ग्रंथ-

“अहिंसा परमं दानम्।” (पद्म-पुराण)
भावार्थ:- अहिंसा स्वरूप अभयदान ही परम दान है।

“अहिंसा परमं तपः।” (योग-वशिष्ट)
भावार्थ:- अहिंसा ही सबसे बड़ी तपस्या है।

“अहिंसा परमं ज्ञानम्।” (भागवत-स्कंध)
भावार्थ:- अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है।

“अहिंसा परमं पदम्।” (भागवत-स्कंध)
भावार्थ:- अहिंसा ही सर्वोत्तम आत्मविकास अवस्था है।

“अहिंसा परमं ध्यानम्।” (योग-वशिष्ट)
भावार्थ:- अहिंसा की परिपालना ही उत्कृष्ट ध्यान है।

“अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारणिः।” (योग-शास्त्र)
भावार्थ:- अहिंसा ही संसार रूप मरूस्थल में अमृत का मधुर झरना है।

“रूपमारोग्यमैश्वर्यमहिंसाफलमश्नुते।” (बृहस्पति स्मृति)
भावार्थ:- सौन्दर्य, नीरोगता एवं ऐश्वर्य सभी अहिंसा के फल है।

“ये न हिंसन्ति भूतानि शुद्धात्मानो दयापराः।” (वराह-पुराण)
भावार्थ:- जो प्राण-भूत जीवों की हिंसा नहीं करते, वे ही आत्माएं पवित्र और दयावान है।

विशेष –
अक्सर लोगों द्वारा दुर्भावनाओं के वशीभूत, हिन्दुत्व पर हिंसक और माँसाहारी होने के आरोपण किए जाते है। किन्तु हिन्दुत्व अपने आदि-काल से ही अहिंसा प्रधान धर्म रहा है।अहिंसा परमो धर्मः ही इसका आदि-अनादि परम् उपदेश उपदेश रहा है। उतरोत्तर निम्न काल प्रभाव से कुछ विकृतियों का पनपना सामान्य है पर इस दर्शन की यह विशेषता है कि सिद्धांतो को प्रमुखता देकर यह स्व-सुधार में सक्षम है। जैसे गंगा अपने उद्भव पर परम शुद्ध रहते हुए अपने परिचालन मार्ग में अस्वच्छ हो जाती है। किन्तु इसका जल अपनी पावनता सुरक्षित रखता है। उसी तरह वैदिक धर्म के मूल सिद्धान्त पावन और प्रवर्तमान रहते है। यही अहिंसा का मूल सिद्धांत वेद-उपदेशों में ग्रंथित है। अर्थात अहिंसा गुण ही वेदों की गंगोत्री है।

नोट – वेदों, पुराणों और अन्य वैदिक साहित्य में कही भी अकारण हिंसा निषेध है किंतु हर जगह धर्म रक्षण और मानवता की भलाई के लिए तैयार रहने और शस्त्रों के प्रयोग की बात कही गयीं है , अहिंसा कायरता नही होती ।।अहिंसा परमो धर्मः -धर्म हिंसा तथीव च। “अहिंसा परम धर्म है परन्तु हिंसा का, धर्म के अनुसार प्रतिकार करना भी उतना ही परम धर्म है “।
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विद्वता और मानवता

ज्योति अग्रवाल

एक बहुत बड़ा मंदिर था। उसमें हजारों यात्री दर्शन करने आते थे। सहसा मंदिर का प्रबंधक प्रधान पुजारी मर गया। मंदिर के महंत को दूसरे पुजारी की आवश्यकता हुई और उन्होंने घोषणा करा दी कि जो कल सवेरे पहले पहर आकर यहां पूजा संबंधी जांच में ठीक सिद्ध होगा, उसे पुजारी रखा जाएगा।

बहुत से विद्वान सवेरे पहुंचने के लिए चल पड़े। मंदिर पहाड़ी पर था। एक ही रास्ता था। उस पर भी कांटे और कंकड़-पत्थर थे। विद्वानों की भीड़ चली जा रही थी मंदिर की ओर। किसी प्रकार कांटे और कंकड़ों से बचते हुए लोग जा रहे थे।

सब विद्वान पहुंच गए। महंत ने सबको आदरपूर्वक बैठाया। सबको भगवान का प्रसाद मिला। सबसे अलग-अलग कुछ प्रश्र और मंत्र पूछे गए। अंत में परीक्षा पूरी हो गई। जब दोपहर हो गई और सब लोग उठने लगे तो एक नौजवान वहां आया। उसके कपड़े फटे थे। वह पसीने से भीग गया था और बहुत गरीब जान पड़ता था।

महंत ने कहा- ‘‘तुम बहुत देर से आए।’’

वह बोला- ‘‘मैं जानता हूं। मैं केवल भगवान का दर्शन करके लौट जाऊंगा।’’

महंत उसकी दशा देखकर दयालु हो रहे थे। बोले- ‘‘तुम जल्दी क्यों नहीं आए?’’

उसने उत्तर दिया- ‘‘घर से बहुत जल्दी चला था। मंदिर के मार्ग में बहुत कांटे थे और पत्थर भी थे। बेचारे यात्रियों को उनसे कष्ट होता। उन्हें हटाने में देर हो गई।’’

महंत ने पूछा- ‘‘अच्छा, तुम्हें पूजा करना आता है?’’

उसने कहा- ‘‘भगवान को स्नान कराके चंदन-फूल चढ़ा देना, धूप-दीप जला देना तथा भोग सामने रखकर पर्दा गिरा देना और शंख बजाना तो जानता हूं।’’

महंत ने पूछा- ‘‘और मंत्र?’’

वह उदास होकर बोला- ‘‘भगवान से नहाने-खाने को कहने के लिए मंत्र भी होते हैं, यह मैं नहीं जानता।’’

अन्य सब विद्वान हंसने लगे कि यह मूर्ख भी पुजारी बनने आया है। महंत ने एक क्षण सोचा और कहा- ‘‘पुजारी तो तुम बन गए। अब मंत्र सीख लेना, मैं सिखा दूंगा। मुझसे भगवान ने स्वप्न में कहा है कि मुझे मनुष्य चाहिए।’’

‘‘हम लोग मनुष्य नहीं हैं?’’ दूसरे आमंत्रितों ने पूछा।

वे लोग महंत पर नाराज हो रहे थे। इतने पढ़े-लिखे विद्वानों के रहते महंत एक ऐसे आदमी को पुजारी बना दे जो मंत्र भी न जानता हो, यह विद्वानों को अपमान की बात जान पड़ती थी।

महंत ने विद्वानों की ओर देखा और कहा- ‘‘अपने स्वार्थ की बात तो पशु भी जानते हैं। बहुत से पशु बहुत चतुर भी होते हैं लेकिन सचमुच मनुष्य तो वही है जो दूसरों को सुख पहुंचाने का ध्यान रखता है, जो दूसरों को सुख पहुंचाने के लिए अपने स्वार्थ और सुख को छोड़ सकता है।’’

विद्वानों के सिर नीचे झुक गए। उन लोगों को बड़ी लज्जा आई। वे धीरे-धीरे उठे और मंदिर में भगवान को और महंत जी को नमस्कार करके उस पर्वत से नीचे उतरने लगे।

दोस्तों!! सोचने की बात है कि हममें से कौन मनुष्य है?

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(((( निमित्त मात्र ))))

ज्योति अग्रवाल
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उस दिन सबेरे 6 बजे मैं अपने शहर से दूसरे शहर जाने के लिए निकला, मैं रेलवे स्टेशन पहुचा, पर देरी से पहुचने कारण मेरी ट्रेन निकल चुकी थी,
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मेरे पास 9.30 की ट्रेन के आलावा कोई चारा नही था
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मैंने सोचा कही नाश्ता कर लिया जाए, बहुत जोर की भूख लगी थी मैं होटल की ओर जा रहा था।
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अचानक रास्ते में मेरी नजर फुटपाथ पर बैठे दो बच्चों पर पड़ी, दोनों लगभग 10 साल के रहे होंगे बच्चों की हालत बहुत खराब हो चुकी थी। कमजोरी के कारण अस्थिपिंजर साफ दिखाई दे रहे थे, वे भूखे लग रहे थे।
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छोटा बच्चा बड़े को खाने के बारे में कह रहा था, बड़ा उसे चुप करा ने कोशिश कर रहा था, मैं अचानक रुक गया दौड़ती भागती जिंदगी में यह ठहर से गये।
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जीवन को देख मेरा मन भर आया
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सोचा इन्हें कुछ पैसे दे दिए जाए, मैंने उन्हें 10 रु दे कर आगे बढ़ गया। तुरंत मेरे मन में एक विचार आया कितना कंजूस हूँ मैं, 10 रु क्या मिलेगा, चाय तक ढंग से न मिलेगी, स्वयं पर शर्म आयी फिर वापस लौटा।
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मैंने बच्चों से कहा: कुछ खाओगे ?
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बच्चे थोड़े असमंजस में पड़े मैंने कहा बेटा मैं नाश्ता करने जा रहा हु, तुम भी कर लो, वे दोनों भूख के कारण तैयार हो गए।
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उनके कपड़े गंदे होने से होटल वाले डाट दिया भगाने लगा, मैंने कहा भाई साहब उन्हें जो खाना है वो उन्हें दो पैसे मैं दूंगा।
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होटल वाले ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा.. उसकी आँखों में उसके बर्ताव के लिए शर्म साफ दिखाई दी। बच्चों ने नाश्ता मिठाई व् लस्सी मांगी। सेल्फ सर्विस के कारण मैंने नाश्ता बच्चों को लेकर दिया बच्चे जब खाने लगे, उनके चेहरेवकी ख़ुशी कुछ निराली ही थी।
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मैंने बच्चों को कहा बेटा अब जो मैंने तुम्हे पैसे दिए है उसमे 1 रु का शैम्पू ले कर हैण्ड पम्प के पास नहा लेना।
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और फिर दोपहर शाम का खाना पास के मन्दिर में चलने वाले लंगर में खा लेना, और मैं नाश्ते के पैसे दे कर फिर अपनी दौड़ती दिनचर्या की ओर बढ़ निकला।
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वहा आसपास के लोग बड़े सम्मान के साथ देख रहे थे होटल वाले के शब्द आदर मे परिवर्तित हो चुके थे।
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मैं स्टेशन की ओर निकला, थोडा मन भारी लग रहा था मन थोडा उनके बारे में सोच कर दुखी हो रहा था।
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रास्ते में मंदिर आया मैंने मंदिर की ओर देखा और कहा हे भगवान ! आप कहा हो ? इन बच्चों की ये हालत ये भुख, आप कैसे चुप बैठ सकते है।
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दूसरे ही क्षण मेरे मन में विचार आया, पुत्र अभी तक जो उन्हें नाश्ता दे रहा था वो कौन था ??
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क्या तुम्हें लगता है तुमने वह सब अपनी सोच से किया।
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मैं स्तब्ध हो गया, मेरे सारे प्रश्न समाप्त हो गए, लगा जैसे मैंने ईश्वर से बात की हो।
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मेरे समझ आ चूका था हम निमित्त मात्र है उसके कार्य कलाप के वो महान है।
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भगवान हमे किसी की मदद करने तब ही भेजता है जब वह हमे उस काम के लायक समझता है, किसी मदद को मना करना वैसा ही है जैसे भगवान के काम को मना करना।
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अतः आपको कोई भुखा या लाचार मिले या आप से कुछ खाने के लिये मांगे तो आप अपनी सार्मथ्य अनुसार मदद जरूर करे।
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क्योकि… स्वयं भगवान ने आप को इस काम के लिये चुना है।

((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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आज का प्रेरक प्रसंग

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|| कर्मो की दौलत||

एक राजा था जिसने ने अपने राज्य में क्रूरता से बहुत सी दौलत इकट्ठा करके( एकतरह शाही खजाना ) आबादी से बाहर जंगल एक सुनसान जगह पर बनाए तहखाने मे सारे खजाने को खुफिया तौर पर छुपा दिया था खजाने की सिर्फ दो चाबियां थी एक चाबी राजा के पास और एक उसकेएक खास मंत्री के पास थी इन दोनों के अलावा किसी को भी उस खुफिया खजाने का राज मालूम ना था एक रोज़ किसी को बताए बगैर राजा अकेले अपने खजाने को देखने निकला , तहखाने का दरवाजा खोल कर अंदर दाखिल हो गया और अपने खजाने को देख देख कर खुश हो रहा था , और खजाने की चमक से सुकून पा रहा था।

उसी वक्त मंत्री भी उस इलाके से निकला और उसने देखा की खजाने का दरवाजा खुला है वो हैरान हो गया और ख्याल किया कि कही कल रात जब मैं खजाना देखने आया तब शायद खजाना का दरवाजा खुला रह गया होगा, उसने जल्दी जल्दी खजाने का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया और वहां से चला गया . उधर खजाने को निहारने के बाद राजा जब संतुष्ट हुआ , और दरवाजे के पास आया तो ये क्या …दरवाजा तो बाहर से बंद हो गया था . उसने जोर जोर से दरवाजा पीटना शुरू किया पर वहां उनकी आवाज सुननेवाला उस जंगल में कोई ना था ।

राजा चिल्लाता रहा , पर अफसोस कोई ना आया वो थक हार के खजाने को देखता रहा अब राजा भूख और पानी की प्यास से बेहाल हो रहा था , पागलो सा हो गया.. वो रेंगता रेंगता हीरो के संदूक के पास गया और बोला ए दुनिया के नायाब हीरो मुझे एक गिलास पानी दे दो.. फिर मोती सोने चांदी के पास गया और बोला ए मोती चांदी सोने के खजाने मुझे एक वक़्त का खाना दे दो..राजा को ऐसा लगा की हीरे मोती उसे बोल रहे हो की तेरे सारी ज़िन्दगी की कमाई तुझे एक गिलास पानी और एक समय का खाना नही दे सकती..राजा भूख से बेहोश हो के गिर गया ।

जब राजा को होश आया तो सारे मोती हीरे बिखेर के दीवार के पास अपना बिस्तर बनाया और उस पर लेट गया , वो दुनिया को एक पैगाम देना चाहता था लेकिन उसके पास कागज़ और कलम नही था ।

राजा ने पत्थर से अपनी उंगली फोड़ी और बहते हुए खून से दीवार पर कुछ लिख दिया . उधर मंत्री और पूरी सेना लापता राजा को ढूंढते रहे पर बहुत दिनों तक राजा ना मिला तो मंत्री राजा के खजाने को देखने आया , उसने देखा कि राजा हीरे जवाहरात के बिस्तर पर मरा पड़ा है , और उसकी लाश को कीड़े मोकड़े खा रहे थे . राजा ने दीवार पर खून से लिखा हुआ था…ये सारी दौलत एक घूंट पानी ओर एक निवाला नही दे सकी…

यही अंतिम सच है |आखिरी समय आपके साथ आपके कर्मो की दौलत जाएगी , चाहे आप कितनी बेईमानी से हीरे पैसा सोना चांदी इकट्ठा कर लो सब यही रह जाएगा |इसीलिए जो जीवन आपको प्रभु ने उपहार स्वरूप दिया है , उसमें अच्छे कर्म लोगों की भलाई के काम कीजिए बिना किसी स्वार्थ के ओर अर्जित कीजिए अच्छे कर्मो की अनमोल दौलत |जो आपके सदैव काम आएगी |
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🌹 सुप्रभातम्

ज्योति अग्रवाल

🌸 माँ की वाणी 🌸

🍀 सब कुछ मन में ही है — पवित्रता एवं अपवित्रता भी मन में ही है ।
🍀 तुम्हारे मन में पाप है । इसलिए तुम्हें शान्ति नहीं मिलती ।

🌼 राम के नाम सबन्हि कै दूर करे सब सूल 🌼

🍀 किंवदन्ति है कि एक बार कबीर पुत्र कमाल, जिसकी आयु १२ वर्ष की थी, गंगा किनारे खड़े यह सोच रहा था कि ‘ब्रह्म राम तें नाम बड़ बरदायक बरदानि’— क्या सचमुच सार्थक है ? इतने में वहाँ बहुतसे लोग आते दिखायी दिये । पूछने पर पता चला कि बिकानेर के किसी सेठ कौ श्वेत-कुष्ठ हो गया है । वह सौ ब्राह्मणों के साथ राम-नाम का जाप करते हुए यज्ञ करने वहाँ आ रहा है । साथ ही उसकी समाधी लेने की भी इच्छा है । कमाल ने सेठ को रोककर कहा, “तुम समाधी न लो । मैं अभी तुमको चंगा कर दूँगा ।” सेठ भला इससे इन्कार क्यों करता ? तब कमाल ने उससे कहा, “तुम कपड़े उतारकर नाक को पकड़कर नदी में गोता लगाओ । तली में पहुँचने पर राम का नाम लो, तुम्हारा कोढ़ दूर हो जायगा ।” सेठ ने वैसा ही किया, किन्तु कोढ़ दूर न हुआ । तब कमाल ने उससे कहा, “तुम श्रद्धा और प्रेम से ‘राम’ का नाम लो और फिरसे डुबकी लगाओ, रोग निश्चय ही दूर हो जायगा ।” लेकिन इस बार भी कोई फायदा नहीं हुआ । तब कमाल ने उसे फिर से गोता लगाने के लिए कहा । जब सेठ डुबकी लगाने लगा, तो कमाल ने पास ही पड़े एक लकड़ी से उसके सिर पर प्रहार किया । ‘हाय राम’ कहकर सेठ चिल्ला उठा, और जब डुबकी लगाकर उसने सिर उपर उठाया, तो सिर से एक रक्त की धारा बह रही थी, मगर कोढ़ दूर हो गया था । सेठ धन्यवाद देकर वहाँ से चला गया ।

      घर आकर कमाल ने सारी बात कबीरदासजी को बतायी । उन्होंने जान लिया कि बेटे को घमण्ड हो गया है । बिना कोई टिप्पणी किये, एक चिट्ठी में कुछ लिखकर उसे कमाल को देते हुए उन्होंने कहा, "जाओ, इसे गोस्वामी तुलसीदासजी के पास दे आओ, जो इस समय सामने के राम मन्दिर में ठहरे हुए हैं ।"

    कमाल चिट्ठी लेकर तुलसीदासजी के पास गया और उसने चिट्ठी उन्हें दे दी । उन्होंने चिट्ठी पढ़ी, उसमें लिखा था ।

डूबा बंस कबीर का, उपजे पूत कमाल ।
तीन राम के नाम को, कोढ़ी कियो बहाल ।।

    गोस्वामीजी के समझ में कुछ न आया । पूछने पर सारा वृत्तान्त कमाल ने कह सुनाया । वे समझ गये कि कबीरदासजी अपने पुत्र का घमण्ड दूर करना चाहते हैं । उन्होंने उससे कहा, "जाओ, नगर में ढिंढोरा पिटवा दो कि काशी में जितने भी कोढ़ी हैं, वे यहाँ आकर मुझसे मिलेँ, मैं उनका कोढ़ दूर कर दूँगा ।"

        ढिंढोरा सुनकर मध्याह्न समय लगभग पाँच सौ कोढ़ी गोस्वामीजी के पास पहुँचे ।  तुलसीदासजी ने एक तुलसी पत्र मँगवाकर उस पर 'राम' लिखा और उसको नदी में बहा दिया । फिर सब कोढ़ियों पर थोड़ा-सा जल छिड़ककर उन्हें नदी में गोता लगाने के लिए कहा । जब वे गोता लगाकर उठे, तो उन्होंने देखा कि उनका कोढ़ चला या है ।

     कमाल ने यह देखा तो वह दंग रह गया । उसने वापस आकर कबीरदासजी से इस घटना का वर्णन किया, किन्तु वे सन्तुष्ट नहीं हुए । उन्होंने पुनः एक चिट्ठी लिखकर कमाल से सूरदासजी को देने के लिए कहा ।

      कमाल ने जाकर चिट्ठी सूरदासजी को दे दी । उसमें लिखा था —

तुलसीदास ने पाँच सौ कोढ़ी किये बहाल ।
कितनी कम कीमत हुई, बस एक नाम का कमाल ।।

     सूरदासजी ने उससे पूछा, तो उसने सारा वृत्तान्त कह सुनाया । वे कमाल से बोले, "देख, सामने एक शव बह रहा है, उसे पकड़कर ले आ ।"

      कमाल ने सामने देखा, तो उसे सामने ए शव बहता दिखायी दिया । मगर वह यह देख चकित रह गया कि अन्धे होकर भी सूरदासजी शव को कैसे दिखायी दिया और चिट्ठी का अंश वे कैसे पढ़ पाये ! वह नदी में कूद पड़ा और शव को पकड़कर सूरदासजी के पास ले आया । उन्होंने शव का एक कान पकड़कर 'राम' के 'रा' का उच्चारण किया ही था कि वह मृतक मनुष्य जी उठा और उसने सूरदास को प्रणाम किया । यह देखते ही कमाल के तो होश उड़ गये । वापस लौटकर उसने पिता से सारी बात बतायी, तब वे उससे बोले, "बेटे, राम का नाम पारस, कामधेनु और कल्पतरू के समान है । जो जैसा साधक है, उसके लिए यह वैसाही प्रभावकारी और फलदायी है । मगर इसके लिए घमण्ड करना उचित नहीं ।" बात कमाल की समझ में आ गयी और उसने पिता से क्षमा माँगी ।