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मुकेश अग्नि

शुकदेव जी का जन्म
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एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से ऐसे गूढ़ ज्ञान देने का अनुरोध किया जो संसार में किसी भी जीव को प्राप्त न हो. वह अमरत्व का रहस्य प्रभु से सुनना चाहती थीं.
अमरत्व का रहस्य किसी कुपात्र के हाथ न लग जाए इस चिंता में पड़कर महादेव पार्वती जी को लेकर एक निर्जन प्रदेश में गए.

उन्होंने एक गुफा चुनी और उस गुफा का मुख अच्छी तरह से बंद कर दिया. फिर महादेव ने देवी को कथा सुनानी शुरू की. पार्वती जी थोड़ी देर तक तो आनंद लेकर कथा सुनती रहीं.

जैसे किसी कथा-कहानी के बीच में हुंकारी भरी जाती है उसी तरह देवी काफी समय तक हुंकारी भरती रहीं लेकिन जल्द ही उन्हें नींद आने लगी.

उस गुफा में तोते यानी शुक का एक घोंसला भी था. घोसले में अंडे से एक तोते के बच्चे का जन्म हुआ. वह तोता भी शिव जी की कथा सुन रहा था.

महादेव की कथा सुनने से उसमें दिव्य शक्तियां आ गईं. जब तोते ने देखा कि माता सो रही हैं. कहीं महादेव कथा सुनाना न बंद कर दें इसलिए वह पार्वती की जगह हुंकारी भरने लगा.

महादेव कथा सुनाते रहे. लेकिन शीघ्र ही महादेव को पता चल गया कि पार्वती के स्थान पर कोई औऱ हुंकारी भर रहा है. वह क्रोधित होकर शुक को मारने के लिए उठे.

शुक वहां से निकलकर भागा. वह व्यास जी के आश्रम में पहुंचा. व्यास जी की पत्नी ने उसी समय जम्हाई ली और शुक सूक्ष्म रूप धारण कर उनके मुख में प्रवेश कर गया.

महादेव ने जब उसे व्यास की शरण में देखा तो मारने का विचार त्याग दिया. शुक व्यास की पत्नी के गर्भस्थ शिशु हो गए. गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो प्राप्त था.

शुक ने सांसारिकता देख ली थी इस लिए वह माया के पृथ्वी लोक की प्रभाव में आना नहीं चाहते थे इसलिए ऋषि पत्नी के गर्भ से बारह वर्ष तक नहीं निकले.

व्यास जी ने शिशु से बाहर आने को कहा लेकिन वह यह कहकर मना करता रहा कि संसार तो मोह-माया है मुझे उसमें नहीं पड़ना. ऋषि पत्नी गर्भ की पीड़ा से मरणासन्न हो गईं.

भगवान श्री कृष्ण को इस बात का ज्ञान हुआ. वह स्वयं वहां आए और उन्होंने शुक को आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा.

श्री कृष्ण से मिले वरदान के बाद ही शुक ने गर्भ से निकल कर जन्म लिया. जन्म लेते ही शुक ने श्री कृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम किया और तपस्या के लिये जंगल चले गए.

व्यास जी उनके पीछे-पीछे ‘पुत्र !, पुत्र कह कर पुकारते रहे, किन्तु शुक ने उस पर कोई ध्यान न दिया. व्यास जी चाहते थे कि शुक श्रीमद्भागवत का ज्ञान प्राप्त करें.

किन्तु शुक तो कभी पिता की ओर आते ही न थे. व्यास जी ने एक युक्ति की. उन्होंने श्री कृष्ण लीला का एक श्लोक बनाया और उसका आधा भाग शिष्यों को रटा कर उधर भेज दिया जिधर शुक ध्यान लगाते थे.

एक दिन शुकदेव जी ने भी वह श्लोक सुना. वह श्री कृष्ण लीला के आकर्षण में खींचे सीधे अपने पिता के आश्रम तक चले आए.

पिता व्यास जी से ने उन्हें श्रीमद्भागवत के अठारह हज़ार श्लोकों का विधि वत ज्ञान दिया. शुकदेव ने इसी भागवत का ज्ञान राजा परीक्षित को दिया, जिस के दिव्य प्रभाव से परीक्षित ने मृत्यु के भय को जीत लिया
जय श्री नारायण

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संजय गुप्ता

पत्नी के धोखे से आहत राजा भरथरी के साधू बनने कि कथा ,,,,,

उज्जैन में भरथरी की गुफा स्थित है। इसके संबंध में यह माना जाता है कि यहां भरथरी ने तपस्या की थी। यह गुफा शहर से बाहर एक सुनसान इलाके में है। गुफा के पास ही शिप्रा नदी बह रही है।

गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है। जब हम इस गुफा के अंदर जाते हैं तो सांस लेने में भी कठिनाई महसूस होती है। गुफा की ऊंचाई भी काफी कम है, अत: अंदर जाते समय काफी सावधानी रखनी होती है। यहाँ पर एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से छोटी है। यह गोपीचन्द कि गुफा है जो कि भरथरी का भतीजा था।

यहां प्रकाश भी काफी कम है, अंदर रोशनी के लिए बल्ब लगे हुए हैं। इसके बावजूद गुफा में अंधेरा दिखाई देता है। यदि किसी व्यक्ति को डर लगता है तो उसे गुफा के अंदर अकेले जाने में भी डर लगेगा।

यहां की छत बड़े-बड़े पत्थरों के सहारे टिकी हुई है। गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है। गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है।

गौर से देखने पर आपको गुफा के अंत में एक गुप्त रास्ता दिखाई देगा जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ से चारो धामों को रास्ता जाता है।

त्नी के धोखे से आहत राजा भरथरी के साधू बनने कि कहानी :-

उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से भी जाना जाता था। उज्जयिनी शहर के परम प्रतापी राजा हुए थे विक्रमादित्य। विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि।

गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ, क्योंकि भरथरी विक्रमादित्य से बड़े थे। राजा भर्तृहरि धर्म और नीतिशास्त्र के ज्ञाता थे। प्रचलित कथाओं के अनुसार भरथरी की दो पत्नियां थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने तीसरा विवाह किया पिंगला से। पिंगला बहुत सुंदर थीं और इसी वजह से भरथरी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित हो गए थे।

कथाओं के अनुसार भरथरी अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर काफी मोहित थे और वे उस पर अंधा विश्वास करते थे। राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे। उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ।

गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे। भरथरी ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया। इससे तपस्वी गुरु अति प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।

यह चमत्कारी फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए। राजा ने फल लेकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। चूंकि राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी।

यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया। रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा।

रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया। ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे।

वैश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी। इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेगा तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा। यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए।

राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भरथरी ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है।

जब भरथरी को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गया कि पिंगला उसे धोखा दे रही है। पत्नी के धोखे से भरथरी के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। इसी गुफा में भरथरी ने 12 वर्षों तक तपस्या की थी।

राजा भरथरी की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए। इंद्र ने सोचा की भरथरी वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे। यह सोचकर इंद्र ने भरथरी पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भरथरी ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे।

इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भरथरी के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भरथरी की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भरथरी की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।

भरथरी ने वैराग्य पर वैराग्य शतक की रचना की, जो कि काफी प्रसिद्ध है। इसके साथ ही भरथरी ने श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की। यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं और पढ़ने योग्य है।

उज्जैन के राजा भरथरी के पास 365 पाकशास्त्री यानि रसोइए थे, जो राजा और उसके परिवार और अतिथियों के लिए भोजन बनाने के लिए। एक रसोइए को वर्ष में केवल एक ही बार भोजन बनाने का मोका मिलता था। लेकिन इस दौरान भरथरी जब गुरु गोरखनाथ जी के चरणों में चले गये तो भिक्षा मांगकर खाने लगे थे।

एक बार गुरु गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहा, ‘देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।‘ शिष्यों ने कहा, ‘गुरुजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहां 365 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आए हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभ रहित हो गए?’

गुरु गोरखनाथ जी ने राजा भरथरी से कहा, ‘भरथरी! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियां ले आओ।’ राजा भरथरी नंगे पैर गए, जंगल से लकड़ियां एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे।

गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहा, ‘जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझ गिर जाए।‘ चेले गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और भरथरी गिर गए। भरथरी ने बोझ उठाया, लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आंखों में आग के गोले, न होंठ फड़के। गुरु जी ने चेलों से क, ‘देखा! भरथरी ने क्रोध को जीत लिया है।’

शिष्य बोले, ‘गुरुजी! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।’ थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भरथरी को महल दिखा रहे थे। युवतियां नाना प्रकार के व्यंजन आदि से सेवक उनका आदर सत्कार करने लगे। भरथरी युवतियों को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गए।

गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहा, अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भरथरी काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है।

शिष्यों ने कहा, गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिए। गोरखनाथजी ने कहा, अच्छा भरथरी हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरुभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।’

भरथरी अपने निर्दिष्ट मार्ग पर चल पड़े। पहाड़ी इलाका लांघते-लांघते राजस्थान की मरुभूमि में पहुंचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप मरुभूमि में पैर रखो तो बस जल जाए। एक दिन, दो दिन यात्रा करते-करते छः दिन बीत गए।

सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से अपने प्रिय चेलों को भी साथ लेकर वहां पहुंचे। गोरखनाथ जी बोले, ‘देखो, यह भरथरी जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूं। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।’ अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भरथरी का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े, मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो।

‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया? छाया वाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया? गुरु जी की आज्ञा थी ,मरुभूमि में यात्रा करने की।’ कूदकर दूर हट गए। गुरु जी प्रसन्न हो गए कि देखो! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।’

गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए, लेकिन और शिष्यों के मन में ईर्ष्या थी। शिष्य बोले, ‘गुरुजी! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।’ गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) भर्तृहरि से मिले और बोले, ‘जरा छाया का उपयोग कर लो।’ भरथरी बोले, ‘नहीं, मेरे गुरुजी की आज्ञा है कि नंगे पैर मरुभूमि में चलूं।’

गोरखनाथ जी ने सोचा, ‘अच्छा! कितना चलते हो देखते हैं।’ थोड़ा आगे गए तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कांटे पैदा कर दिए। ऐसी कंटीली झाड़ी कि कंथा (फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भरथरी ने ‘आह’ तक नहीं की।

भरथरी तो और अंतर्मुख हो गए, ’यह सब सपना है, गुरु जी ने जो आदेश दिया है, वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है’।

अंतिम परीक्षा के लिए गुरु गोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भरथरी के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी।

एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरु आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है। उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिए।

भरथरी ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोले, ”शाबाश भरथरी, वर मांग लो। अष्टसिद्धि दे दूं, नवनिधि दे दूं। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिए, युवतियां तुम्हारे चरण पखारने के लिए तैयार थीं, लेकिन तुम उनके चक्कर में नहीं आए। तुम्हें जो मांगना है, वो मांग लो।

भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है। आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गए।’ गोरखनाथ बोले, ‘नहीं भरथरी! अनादर मत करो। तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ मांगना ही पड़ेगा।’ इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सूई दिखाई दी। उसे उठाकर भरथरी बोले, ‘गुरुजी! कंठा फट गया है, सूई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंठा सी लूं।’

गोरखनाथ जी और खुश हुए कि ’हद हो गई! कितना निरपेक्ष है, अष्टसिद्धि-नवनिधियां कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया। कोई अपेक्षा नहीं? भर्तृहरि तुम धन्य हो गए! कहां उज्जयिनी का सम्राट नंगे पैर मरुभूमि में। एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गए।’

    ✴✴जय गुरू गोरखनाथ जी की✴✴
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संजय गुप्ता

👉एक महात्मा बहुत ज्ञानी थे, अपनी ही साधना में लीन रहते थे। एक बार एक लड़का उनके पास आया। उसने उनसे अपना चेला बना लेने की पुरजोर प्रार्थना की। महात्मा जी ने सोचा, बुढ़ापा आ रहा है। एक चेला पास में होगा, तो सहारा बनेगा। यह सोचकर उन्होंने उसे चेला बना लिया। चेला बहुत चंचल प्रकृति का था। ज्ञान-ध्यान में उसका मन नहीं लगता था। दिन-भर आने-जाने वालों से बातें करने और मस्ती करने में उसका समय व्यतीत होता। गुरु ने कई बार उसे समझाने की चेष्टा की। पर सफलता नहीं मिली।

एक दिन चेला महात्माजी से बोला -गुरुदेव! मुझे कोई चमत्कार सिखा दें। गुरु ने कहा, वत्स! चमत्कार कोई काम की वस्तु नहीं है। उससे एक बार भले ही व्यक्ति प्रसिद्धि पा ले, लेकिन अंततोगत्वा उसका परिणाम अच्छा नहीं होता।
पर चेला अपनी बात पर अड़ा रहा। बालहठ के सामने गुरुजी को झुकना पड़ा। उन्होंने अपने झोले में से एक पारदर्शी डंडा निकाला और चेले के हाथ में उसे थमाते हुए कहा, यह लो चमत्कार। इस डंडे को तुम जिस किसी की छाती के सामने करोगे, उसके दोष इसमें प्रकट हो जाएंगे। चेला डंडे को पाकर बहुत प्रसन्न हुआ। गुरु ने चेले के हाथ में डंडा क्या थमाया, मानो बंदर के हाथ में तलवार थमा दी। कोई भी व्यक्ति आश्रम में आता, चेला हर आगंतुक के सीने के सामने उस डंडे को घुमा देता। फलत: उसकी कमजोरियां उसमें प्रकट हो जातीं और चेला उनका दुष्प्रचार शुरू कर देता। गुरुजी सारी बात समझ गए। एक दिन उन्होंने चेले से कहा, एक बार डंडा अपनी ओर भी घुमाकर देख लो, इससे स्वयं का परीक्षण हो जाएगा कि आश्रम में आ कर अपनी साधना से तुमने कितनी प्रगति की है। चेले को बात जंची, उसने फौरन डंडा अपनी ओर किया। लेकिन देखा कि उसके भीतर तो दोषों का अंबार लगा है। शर्म से उसका चेहरा लटक गया। वह तत्काल गुरु के चरणों में गिर पड़ा और अपनी भूल की क्षमा मांगते हुए बोला, आज से मैं दूसरों के दोष देखने की भूल नहीं करूंगा।
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देव शर्मा

“पॉश किचन”
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रीमा नेआज किचन से सभी पुराने बर्तन निकाले।
पुराने डिब्बे.. प्लास्टिक के डिब्बे…पुराने डोंगे,कटोरियां प्याले, थालियां…
सबकुछ काफी पुराना हो चुका था।
सभी पुराने बर्तन उसने एक कोने मे रख दिये और नये लाये बर्तन करीने से रखकर सजा दिये।
बड़ा ही पॉश लग रहा था अब किचन…
अब ये जूनापुराना सामान भंगारवालेको दे दिया तो समझो हो गया काम…

इतने मे रीमा की कामवाली राधा आयी।
दुपट्टा खोंसकर वो फर्श साफ करनेवाली ही थी कि उसकी नजर कोने मे पडे बर्तनों पर गयी,
“बापरे !! आज इतने सारे बर्तन घिसने होगे मैडम ?”…
उसका चेहरा जरा तनावग्रस्त हुआ।
रीमा बोली “अरी नही… भंगारवाले को देने है ”
राधा ने ये सुना और उसकी आँखे एक आशासे चमक उठी….
“मैडम , …आपको ऐतराज ना हो तो ये एक पतीला मै ले लूं ?..(राधा की आँखौंके सामने उसका तलहटी मे पतला हुआ और किनारे से चीर पड़ा इकलौता पतीला आ रहा था।)
रीमा बोली “अरी एक क्यों ?
जितना रखा है कोने मे, वो सबकुछ ले जा,उतना ही पसारा कम होगा”
“सब कुछ!!”…..सब कुछ ? राधा की आँखे फैली… उसे तो जैसे अलीबाबा की गुफा ही मिली….
उसने अपना काम फटाफट खत्म किया …
सभी पतीली….डिब्बे …प्याले सबकुछ थैले मे भर लिया…
और बडे उत्साहसे घर के ओर निकली…
आज जैसे उसे चार पांव लग गये थे …
घर आते ही उसने पानी भी न पिया अपना जूना पुराना टूटने के कगार पर आया पतीला … टेढा मेढा चमचा… सब एक कोने मे जमा किया,
और अभी लाया हुआ खजाना ठीक से जमा दिया ….
आज उसके एक कमरेवाला किचन का कोना पॉश दिख रहा था….

तभी उसकी नजर अपने जूने पुराने बरतनों पर गिरी … और खुद ही से बुदबुदायी “अब ये जूना सामान भंगारवाले को दे दिया कि समझो हो गया काम”…

तभी दरवाजे पर एक भिखारी पानी मांगता हुआ हाथोंकी अजुंल कर खडा था …
“माँ पानी दे”
राधा उसके हाथों की अंजुल मे पानी देने ही जा रही थी कि उसे अपना पुराना पतीला नजर आया। राधा ने वो पतीला भर पानी भिखारी को दिया।
पानी पीकर तृप्त हो वह बरतन वापिस करने लगा ….
राधा बोली. …”फेंक दो कहीं भी”
वो भिखारी बोला “तुम्हे नहीं चाहिये??? मै रख लूँ मेरे पास?”
राधा बोली” रख लो…और ये बाकी बचा भी ले जाओ ”
और उसने जो जो भंगार समझा वो उस भिखारी के झोलेमे डाल दिया।
वो भिखारी खुश हो गया…
पानी पीने को पतीला…. किसी ने दिया तो चावल, सब्जी, दाल लेने के लिये अलग अलग छोटे बड़े बर्तन… और कभी मन हुआ कि चम्मच से खाये तो एक टेढा मेढा चम्मच भी था….

आज ऊसकी फटी झोली पॉश दिख रही थी .. .!!!!

“पॉश” इस शब्द की व्याख्या

सुख किसमें माने, ये हर किसीकी परिस्थिति पर अवलंबित होता है ।

हमें हमेशा अपने छोटे को देखकर खुश होना चाहिए कि हमारी स्थिति इससे से तो अच्छी है ।
जबकि हम हमेशा अपनो से बड़ों को देखकर दुखी होते है।

यह हमारे दुःख का सबसे बड़ा कारण है ।
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धीरज सुक्ला

एक गरीब परिवार में एक सुन्दर सी बेटी👰 ने जन्म लिया..
बाप दुखी हो गया बेटा पैदा होता तो कम से कम काम में तो हाथ बटाता,,
उसने बेटी को पाला जरूर,
मगर दिल से नही….
वो पढने जाती थी तो ना ही स्कूल की फीस टाइम से जमा करता,
और ना ही कापी किताबों पर ध्यान देता था…
अक्सर दारू पी कर घर में कोहराम मचाता था……..
उस लडकी की मॉ बहुत अच्छी व बहुत भोली भाली थी वो अपनी बेटी को बडे लाड प्यार से रखती थी..
वो पति से छुपा-छुपा कर बेटी की फीस जमा करती
और कापी किताबों का खर्चा देती थी..
अपना पेट काटकर फटे पुराने कपडे पहन कर गुजारा कर लेती थी,
मगर बेटी का पूरा खयाल रखती थी…
पति अक्सर घर से कई कई दिनों के लिये गायब हो जाता था.
जितना कमाता था दारू मे ही फूक देता था…
वक्त का पहिया घूमता गया




बेटी धीरे-धीरे समझदार हो गयी..
दसवीं क्लास में उसका एडमीसन होना था.
मॉ के पास इतने पैसै ना थे जो बेटी का स्कूल में दाखिला करा पाती..
बेटी डरडराते हुये पापा से बोली:
पापा मैं पढना चाहती हूं मेरा हाईस्कूल में एडमीसन करा दीजिए मम्मी के पास पैसै नही है…
बेटी की बात सुनते ही बाप आग वबूला हो गया और चिल्लाने लगा बोला: तू कितनी भी पड लिख जाये तुझे तो चौका चूल्हा ही सम्भालना है क्या करेगी तू ज्यादा पड लिख कर..
उस दिन उसने घर में आतंक मचाया व सबको मारा पीटा
बाप का व्यहार देखकर बेटी ने मन ही मन में सोच लिया कि अब वो आगे की पढाई नही करेगी….
एक दिन उसकी मॉ बाजार गयी
बेटी ने पूछा:मॉ कहॉ गयी थी
मॉ ने उसकी बात को अनसुना करते हुये कहा :
बेटी कल मै तेरा स्कूल में दाखिला कराउगी
बेटी ने कहा: नही़ं मॉ मै अब नही पडूगी मेरी वजह से तुम्हे कितनी परेशानी उठानी पडती है पापा भी तुमको मारते पीटते हैं कहते कहते रोने लगी..
मॉ ने उसे सीने से लगाते हुये कहा: बेटी मै बाजार से कुछ रुपये लेकर आयी हूं मै कराउगी तेरा दखिला..
बेटी ने मॉ की ओर देखते हुये पूछा: मॉ तुम इतने पैसै कहॉसे लायी हो??
मॉ ने उसकी बात को फिर अनसुना कर दिया…
वक्त वीतता गया



“मॉ ने जी तोड मेहनत करके बेटी को पढाया लिखाया
बेटी ने भी मॉ की मेहनत को देखते हुये मन लगा कर दिन रात पढाई की
और आगे बडती चली गयी…….
“”””
“””””””
“”””””””””
इधर बाप दारू पी पी कर बीमार पड गया
डाक्टर के पास ले गये
डाक्टर ने कहा इनको टी.बी. है
“””
“””””
एक दिन तबियत ज्यादा गम्भीर होने पर बेहोशी की हालत में अस्पताल में भर्ती कराया..
दो दिन बाद उस जबे होश आया तो डाक्टरनी का चेहरा देखकर उसके होश उड गये
वो डाक्टरनी कोई और नही वल्कि उसकी
अपनी बेटी थी..
शर्म से पानी पानी बाप
कपडे से अपना चेहरा छुपाने लगा
और रोने लगा हाथ जोडकर बोला: बेटी मुझे माफ करना मैं तुझे समझ ना सका…
दोस्तों बेटी आखिर बेटी होती है
बाप को रोते देखकर बेटी ने बाप को गले लगा लिया..
एक दिन बेटी माँ से बोली: माँ तुमने मुझे आजतक नहीं बताया कि मेरे हाईस्कूल के एडमीसन के लिये पैसै कहाँ से लायी थी??
बेटी के बार बार पूछने पर
माँ ने जो बात बतायी
उसे सुनकर
बेटी की रूह काँप गयी….
माँ ने अपने शरीर का खून बेच कर बेटी का एडमीसन कराया था….
दोस्तों तभी तो मॉ को भगवान का दर्जा दिया गया है
माँ जितना औलाद के लिये त्याग कर सकती है
उतना दुनियाँ में कोई और नही……!!!
…… Dev Jangid…….

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संजय गुप्ता

रक्षा बंधन ,,,,

रक्षा बंधन का त्यौहार बहन और भाई के प्रेम का प्रतीक है। इस दिन बहनें अपने भाइयो को राखी बांधती है। तिलक लगाती है और साथ में मिठाई खिलाती है।यह विश्वास प्रतीक रूप में भले ही रेशम की कच्ची डोर से बँधा होता है परंतु दोनों के मन की भावनाएँ प्रेम की एक पक्की डोर से बँधी रहती है, जो रिश्तों की हर डोर से मजबूत डोर होती है।

यही प्रेम रक्षाबंधन के दिन भाई को अपनी लाड़ली बहन के पास खीच लाता है। राखी बाँधने के साथ ये वचन लेती है की भाई , जीवन भर मेरी रक्षा करना। फलस्वरूप, भाई भी अपनी प्यारी बहन को वचन देता है की में तेरी रक्षा करुगा।

जब तुझे जरुरत होगी मैं तेरे साथ रहुगा। और साथ में बहन को उपहार देता है। रुपैये, चॉक्लेट, घडी और ड्रेस इत्यादि! राखी का त्योहार हिंदू कैलेंडर की श्रावण माह की पूर्णिमा के दिन (श्रावण पूर्णिमा) पड़ता है।

रक्षा बंधन हमारे देश में कई कारणों से मनाया जाता है। इसके संदर्भ में कई आध्यात्मिक, सामाजिक पौराणिक, धार्मिक तथा ऐतिहासिक कथाये मिलती है।

द्रोपती ने भगवान श्री कृष्ण को राखी बाँधी थी। भगवान कृष्ण ने शिशुपाल को मारा था। युद्ध के बीच में भगवान की बांये ऊँगली से रक्त बहन रहा था। और जब वो रथ में घोड़ो की रास पकड़ रहे थे तब खून और तेज बहनें लगा।

जब द्रोपती को पता चल की मेरे प्रभु के हाथ से खून बह रहा है। एक पल के लिए भी नही सोचा। झट अपनी साडी का टुकड़ा चीरकर श्री कृष्ण की ऊँगली में बाँध दिया। और खून बहना बंद हो गया। तब भगवान ने वचन दिया की द्रोपती में तेरी आजीवन लाज बचाऊगा।यह भी श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था।

और आप सभी जानते है की जब पांडव जुए में हार गए थे। दुर्योधन ने दुःशाशन को द्रोपती के चीर हरण के लिए कहा। और दुःशाशन द्रोपती को बालो से खीच कर चीर हरण करने के लिए लाया था। द्रोपती ने सभी को पुकारा।

युधिस्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव , भीष्म , धृतराष्ट्र और गुरु द्रोणाचार्ये। लेकिन कोई भी द्रोपती की रक्षा नही कर पाया। अंत में द्रोपती ने भगवान श्री कृष्ण को याद किया। भगवान ने एक पल नही लगाया। और द्रोपती की लाज बचाइए।

सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांध कर अपना मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी का और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवदान दिया।

ऐतिहासिक युग में भी सिंकदर व पोरस ने युद्ध से पूर्व रक्षा-सूत्र की अदला-बदली की थी। युद्ध के दौरान पोरस ने जब सिकंदर को मारने के लिए हाथ उठाया तो तो रक्षा-सूत्र को देखकर उसके हाथ रूक गए और वह बंदी बना लिया गया। सिकंदर ने भी पोरस के रक्षा-सूत्र की लाज रखते हुए और एक योद्धा की तरह व्यवहार करते हुए उसका राज्य वापस लौटा दिया।

राजा बलि और माँ लक्ष्मी रक्षा बंधन !!!!!!

जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया तो राजा बलि के द्वार पर गए और 3 पग धरती मांगी थी। राजा बलि ने 3 पग धरती दान दी तो भगवान वामन ने तीन पग में आकाश-पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। उसने अपनी भक्ति के बल पर विष्णु जी से हर समय अपने सामने रहने का वचन ले लिया। लक्ष्मी जी इससे चिंतित हो गईं। नारद जी की सलाह पर लक्ष्मी जी बलि के पास गई और रक्षासूत्र बांधकर उसे अपना भाई बना लिया। बदले में वे विष्णु जी को अपने साथ ले आईं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।

इंद्र इन्द्राणी और रक्षा बंधन कहानी !!!!!

एक बार देवताओ और देत्यो के बीच में युद्ध हुआ। देत्ये विजय की और बढ़ रहे थे। ये देख इंद्र बहुत चिंतित थे। अपने पति को दिन-परेशान देख कर इंद्राणी(शशिकला) ने भगवान की पूजा की। भगवान पूजा से खुश हुए और एक मंत्रसिद्ध धागा दिया। इंद्राणी ने इंद्र की कलाई पर बांध दिया। इस प्रकार इंद्राणी ने पति को विजयी कराने में मदद की। इस धागे को रक्षासूत्र का नाम दिया गया और बाद में यही रक्षा सूत्र रक्षाबंधन हो गया।

चंद्रशेखर आज़ाद और रक्षा बंधन कहानी!!!!

एक बार चंद्रशेखर आज़ाद अंग्रेजो से बचते हुए एक घर में घुसे। घर में एक विधवा और उसकी बेटी थी। उस विधवा औरत ने सोचा की ये कोई चोर या डाकू है। लेकिन बाद में पता चला क्रांतिकारी आज़ाद है।

वो विधवा गरीब थी। आज़ाद को पता चला की इस विधवा को अपनी बेटी की शादी में दिकत आ रही है। तब आज़ाद ने कहा आप मुझे अंग्रेजो को पकड़वा दीजिये और मुझ पर 5000 रुपैये का इनाम है आप वो रख लेना। इससे आपकी बेटी की शादी हो जाएगी।

वो माँ रो पड़ी और बोली,”भैया, तुम देश की आजादी हेतु अपनी जान हथेली पर रखे घूमते हो और न जाने कितनी बहू-बेटियों की इज्जत तुम्हारे भरोसे है। मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती।” चाहे मेरी बेटी की शादी हो या न हो। ये बात कहते कहते उसने आज़ाद की कलाई पर रक्षा सूत्र(राखी) बाँध दी। और देश सेवा का वचन भी ले लिया। रात जैसे तैसे बीत गई और आज़ाद चले गए। सुबह जब विधवा की आँखें खुली तो आजाद जा चुके थे और तकिए के नीचे 5000 रूपये पड़े थे। उसके साथ एक पर्ची पर लिखा था- “अपनी प्यारी बहन हेतु एक छोटी सी भेंट- आज़ाद

बात उस समय की है जब चंद्रशेखर आज़ाद झांसी में थे। आज़ाद की कोठरी के पास रामदयाल नाम का एक अन्य ड्राइवर सपरिवार रहता था। वैसे तो अच्छा आदमी था लेकिन रोज रात को शराब पीके हंगामा किया करता और अपनी पत्नी से मार पीट। इससे पूरा महोल्ला परेशान था। लेकिन कोई कुछ बोलता नहीं था।

आज़ाद ने अपना नाम बदलकर हरी शंकर रख लिए था आज़ाद जब कारखाने जा रहे थे तो रामदयाल ने पूछा आजकल आप बहुत रात जागकर कुछ ठोंका–पीटी किया करते हैं। आपकी ठुक–ठुक से हमारी नींद हराम हो जाती है। इस बात में एक व्यंग्य था। आज़ाद ने उत्तर देना उचित समझा।

“रामदयाल भाई! मैं तो कल–पुरज़ों की ही ठोंका–पीटी करता हूँ, पर तुम तो शराब के नशे में अपनी गऊ जैसी पत्नी की ही ठोंका–पीटी करके मोहल्ले भर की नींद हराम करते रहते हो।”

रामदयाल को गुस्सा आ गया और बोला,”साले तू हम पति-पत्नी के बीच बोलने वाला होता कोन है?मैं उसे मारूँगा और खूब मारूँगा। देखता हूँ कौन साला बचाएगा।

आज़ाद ने शांत भाव से जवाब दिया-
आज़ाद ने शान्त भाव से उसे उत्तर दिया –
“जब तुमने मुझे साला कहा है, तो तुमने यह स्वीकार कर ही लिया है कि मैं तुम्हारी पत्नी का भाई हूँ।

एक भाई अपनी बहन को पिटते हुए नहीं देख सकता है। अब कभी शराब के नशे में रात को मारा तो ठीक नहीं होगा।”
रामदयाल अपने गुस्से को काबू में नही कर सका। दौड़कर अपने मकान में गया और अपनी पत्नी को बालों से खींचकर भर ले आया।और मारने के लिए हाथ उठाया।

जैसे ही उसने हाथ उठाया तभी आज़ाद ने एकदम से उसका हाथ पकड़ लिया और झटका देकर अपनी और खींचा। उसकी पत्नी इस झटके के कारण उसके हाथ से पत्नी के बाल छूट गए और वह मुक्त हो गई। तब आज़ाद ने एक जोरदार चांटा जड़ दिया रामदयाल के गाल पर।

तमाचा इतना तेज था की उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। और वह अपने दोनों हाथों से अपना सिर थामकर बैठ गया। इतने में पडोसी लोग वहां आ गए और आज़ाद को साइड में ले गए। इस घटना के बाद कुछ दिन तक आज़ाद और रामदयाल की बोलचाल बन्द हो गई, पर आज़ाद ने स्वयं ही पहल करके उससे अपने सम्बन्ध मधुर बना लिए तथा अब उसे “जीजा जी” कहकर पुकारने लगे।

रामदयाल ने अपनी पत्नी को फिर कभी नहीं पीटा। आज़ाद की धाक पूरे मोहल्ले में जम गई। इसी से मिलती–जुलती एक अन्य घटना भी थोड़े ही अन्तराल से हो गई। जिसने पूरे झाँसी में आज़ाद की धाक जमा दी।

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संजय गुप्ता

अमरनाथ धाम से जुड़ी ,शिव पार्वती जी की पावन कथा!!!!!!

एक बार देवी पार्वती ने देवों के देव महादेव से पूछा, ऐसा क्यों है कि आप अजर हैं, अमर हैं ,लेकिन मुझे हर जन्म के बाद नए स्वरूप में आकर, फिर से बरसों तप के बाद आपको प्राप्त करना होता है । जब मुझे आपको पाना है ,तो मेरी तपस्या और इतनी कठिन परीक्षा क्यों? आपके कंठ में पडी़ नरमुंड माला और अमर होने के रहस्य क्या हैं?

महादेव ने पहले तो देवी पार्वती के उन सवालों का जवाब देना उचित नहीं समझा, लेकिन पत्नी हठ के कारण कुछ गूढ़ रहस्य उन्हें बताने पडे़। शिव महापुराण में मृत्यु से लेकर अजर-अमर तक के कर्इ प्रसंंग हैं, जिनमें एक साधना से जुडी अमर कथा बडी रोचक है। जिसे भक्तजन अमरत्व की कथा के रूप में जानते हैं।

हर वर्ष हिम के आलय (हिमालय) में अमरनाथ, कैलाश और मानसरोवर तीर्थ स्थलों में लाखों श्रद्घालु पहुंचते हैं। सैकडों किमी की पैदल यात्रा करते हैं, क्यों? यह विश्वास यूं ही नहीं उपजा। शिव के प्रिय अधिकमास, अथवा आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावण मास तक की पूर्णिमा के बीच अमरनाथ की यात्रा भक्तों को खुद से जुडे रहस्यों के कारण और प्रासंगिक लगती है।

पौराणिक मान्याताओं के अनुसार, अमरनाथ की गुफा ही वह स्थान है जहां भगवान शिव ने पार्वती को अमर होने के गुप्त रहस्य बतलाए थे, उस दौरान उन ‘दो ज्योतियों’ के अलवा तीसरा वहां कोर्इ प्राणी नहीं था । न महादेव का नंदी और नही उनका नाग, न सिर पे गंगा और न ही गनपति, कार्तिकेय….!

गुप्त स्थान की तलाश में महादेव ने अपने वाहन नंदी को सबसे पहले छोड़ा, नंदी जिस जगह पर छूटा, उसे ही पहलगाम कहा जाने लगा। अमरनाथ यात्रा यहीं से शुरू होती है। यहां से थोडा़ आगे चलने पर शिवजी ने अपनी जटाओं से चंद्रमा को अलग कर दिया, जिस जगह ऐसा किया वह चंदनवाडी कहलाती है। इसके बादगंगा जी को पंचतरणी में और कंठाभूषण सर्पों को शेषनाग पर छोड़ दिया, इस प्रकार इस पड़ाव का नाम शेषनाग पड़ा।

अमरनाथ यात्रा में पहलगाम के बाद अगला पडा़व है गणेश टॉप, मान्यता है कि इसी स्थान पर महादेव ने पुत्र गणेश को छोड़ा। इस जगह को महागुणा का पर्वत भी कहते हैं। इसके बाद महादेव ने जहां पिस्सू नामक कीडे़ को त्यागा, वह जगह पिस्सू घाटी है।

इस प्रकार महादेव ने अपने पीछे जीवनदायिनी पांचों तत्वों को स्वंय से अलग किया। इसके पश्चात् पार्वती संग एक गुफा में महादेव ने प्रवेश किया। कोर्इ तीसरा प्राणी, यानी कोर्इ कोई व्यक्ति, पशु या पक्षी गुफा के अंदर घुस कथा को न सुन सके इसलिए उन्होंने चारों ओर अग्नि प्रज्जवलित कर दी। फिर महादेव ने जीवन के गूढ़ रहस्य की कथा शुरू कर दी।

कहा जाता है कि कथा सुनते-सुनते देवी पार्वती को नींद आ गर्इ, वह सो गर्इं और महादेव को यह पता नहीं चला, वह सुनाते रहे। यह कथा इस समय दो सफेद कबूतर सुन रहे थे और बीच-बीच में गूं-गूं की आवाज निकाल रहे थे। महादेव को लगा कि पार्वती मुझे सुन रही हैं और बीच-बीच में हुंकार भर रही हैं। चूंकि वैसे भी भोले अपने में मग्न थे तो सुनाने के अलावा ध्यान कबूतरों पर नहीं गया।

दोनों कबूतर सुनते रहे, जब कथा समाप्त होने पर महादेव का ध्यान पार्वती पर गया तो उन्हें पता चला कि वे तो सो रही हैं। तो कथा सुन कौन रहा था? उनकी दृष्टि तब दो कबूतरों पर पड़ी तो महादेव को क्रोध आ गया। वहीं कबूतर का जोड़ा उनकी शरण में आ गया और बोला, भगवन् हमने आपसे अमरकथा सुनी है। यदि आप हमें मार देंगे तो यह कथा झूठी हो जाएगी, हमें पथ प्रदान करें। इस पर महादेव ने उन्हें वर दिया कि तुम सदैव इस स्थान पर शिव व पार्वती के प्रतीक चिह्न में निवास करोगे। अंतत: कबूतर का यह जोड़ा अमर हो गया और यह गुफा अमरकथा की साक्षी हो गर्इ। इस तरह इस स्थान का नाम अमरनाथ पड़ा।

मान्यता है कि आज इन दो कबूतरों के दर्शन भक्तों को होते हैं। अमरनाथ गुफा में यह भी प्रकृति का ही चमत्कार है कि शिव की पूजा वाले विशेष दिनों में बर्फ के शिवलिंग अपना आकार ले लेते हैं। यहां मौजूद शिवलिंग किसी आश्चर्य से कम नहीं है। पवित्र गुफा में एक ओर मां पार्वती और श्रीगणेश के भी अलग से बर्फ से निर्मित प्रतिरूपों के भी दर्शन किए जा सकते हैं।

Har Har Mahadev

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संजय गुप्ता

महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर हस्तिनापुर के राजा बने लेकिन इन्द्रप्रस्थ का क्या हुआ, जानिए रहस्य!!!!!!!!

मोसुल युद्ध के कारण जब श्रीकृष्ण के कुल के अधिकांश लोग मारे गए तो श्रीकृष्ण ने प्रभाष क्षेत्र में एक वृक्ष के नीचे विश्राम किया। वहीं पर उनको एक भील ने भूलवश तीर मार दिया, जो कि उनके पैरों में जाकर लगा। इसको बहाना बनाकर श्रीकृष्ण ने देह को त्याग दिया। उसके बाद द्वारिका नगरी समुद्र में डूब जाती है। हस्तिनापुर के राजा युधिष्ठिर बनते हैं लेकिन इन्द्रप्रस्थ का क्या होता है?

द्वारिका के समुद्र में डूबने के दौरान अर्जुन यदुवंश की सभी स्त्रियों और द्वारिकावासियों को वहां से निकालकर तेजी से हस्तिनापुर की ओर ले जाने के लिए चलने लगते हैं। जैसे मथुरा से 18 यदुकुल के साथ अधिकांश द्वारिकावासियों को पलायन करना पड़ा था उसी तरह यह भी एक बहुत बड़ा पलायन था। अर्जुन हजारों लोगों को साथ लेकर हस्तिनापुर की ओर रवाना हो जाते हैं।

रास्ते में भयानक जंगल आदि को पार करते हुए वे पंचनद देश में पड़ाव डालते हैं। वहां रहने वाले लुटेरों को जब यह खबर मिलती है कि अर्जुन अकेले ही इ‍तने बड़े जनसमुदाय को लेकर हस्तिनापुर जा रहे हैं, तो वे धन के लालच में वहां धावा बोल देते हैं। अर्जुन चीखकर लुटेरों को चेतावनी देते हैं, लेकिन लुटेरों पर उनकी चीख का कोई असर नहीं होता है और वे लूट-पाट करने लगते हैं। वे सिर्फ स्वर्ण आदि ही नहीं लूटते हैं बल्कि सुंदर महिलाओं को भी लूटते हैं। चारों ओर हाहाकार मच जाता है।

ऐसे में अर्जुन अपने दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने के लिए स्मरण करते हैं लेकिन उनकी स्मरण शक्ति लुप्त हो जाती है। कुछ ही देर में उनके तरकश के सभी बाण भी समाप्त हो जाते हैं। तब अर्जुन बिना शस्त्र से ही लुटेरों से युद्ध करने लगते हैं लेकिन देखते ही देखते लुटेरे बहुत सा धन और स्त्रियों को लेकर भाग जाते हैं। खुद को असहाय पाकर अर्जुन को बहुत दुख होता है। वे समझ नहीं पाते हैं कि क्यों और कैसे मेरी अस्त्र विद्या लुप्त हो गई?

जैसे-तैसे अर्जुन यदुवंश की बची हुईं स्त्रियों व बच्चों को लेकर कुरुक्षेत्र पहुंचते हैं। यहां आकर अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के पोते वज्र को इन्द्रप्रस्थ का राजा बना देते हैं। बूढ़ों, बालकों व अन्य स्त्रियों को अर्जुन इन्द्रप्रस्थ में रहने के लिए कहते हैं। लेकिन कहते हैं कि रुक्मिणी, शैब्या, हेमवती तथा जाम्बवंती आदि रानियां अग्नि में प्रवेश कर जाती हैं व शेष वन में तपस्या के लिए चली जाती हैं।

वज्र को इन्द्रप्रस्थ का राजा बनाने के बाद अर्जुन महर्षि वेदव्यास के आश्रम पहुंचते हैं। यहां आकर अर्जुन ने महर्षि वेदव्यास को बताया कि श्रीकृष्ण, बलराम सहित सारे यदुवंशी कैसे और किस तरह समाप्त हो चुके हैं। तब महर्षि ने कहा कि यह सब इसी प्रकार होना था इसलिए इसके लिए शोक नहीं करना चाहिए। अर्जुन यह भी बताते हैं कि किस प्रकार साधारण लुटेरे उनके सामने यदुवंश की स्त्रियों का हरण करके ले गए और वे कुछ भी न कर पाए।

अर्जुन की बात सुनकर महाभारत लिखने वाले दिव्य पुरुष महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि वे दिव्य अस्त्र जिस उद्देश्य से तुमने प्राप्त किए थे, वह उद्देश्य पूरा हो गया अत: वे पुन: अपने स्थानों पर चले गए हैं। तुम लोगों ने अपना कर्तव्य पूर्ण कर लिया है अत: अब तुम्हारे परलोकगमन का समय आ गया है। महर्षि वेदव्यास की बात सुनकर अर्जुन उनकी आज्ञा से हस्तिनापुर जाकर महाराज युधिष्ठिर को सारा वृत्तांत सुनाते हैं।

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आश्चर्यजनक सत्य कथा

महाभारत के युद्ध में भोजन प्रबंधन

महाभारत को हम सही मायने में विश्व का प्रथम विश्वयुद्ध कह सकते हैं क्योंकि शायद ही कोई ऐसा राज्य था जिसने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।
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आर्यावर्त के समस्त राजा या तो कौरव अथवा पांडव के पक्ष में खड़े दिख रहे थे। श्रीबलराम और रुक्मी ये दो ही व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।
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कम से कम हम सभी तो यही जानते हैं। किन्तु एक और राज्य ऐसा था जो युद्ध क्षेत्र में होते हुए भी युद्ध से विरत था। वो था दक्षिण के “उडुपी” का राज्य।
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जब उडुपी के राजा अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुँचे तो कौरव और पांडव दोनों उन्हें अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न करने लगे।
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उडुपी के राजा अत्यंत दूरदर्शी थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछा – “हे माधव ! दोनों ओर से जिसे भी देखो युद्ध के लिए लालायित दिखता है किन्तु क्या किसी ने सोचा है कि दोनों ओर से उपस्थित इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध कैसे होगा ?
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इस पर श्रीकृष्ण ने कहा – महाराज ! आपने बिलकुल उचित सोचा है। आपके इस बात को छेड़ने पर मुझे प्रतीत होता है कि आपके पास इसकी कोई योजना है। अगर ऐसा है तो कृपया बताएं।
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इसपर उडुपी नरेश ने कहा – “हे वासुदेव ! ये सत्य है। भाइयों के बीच हो रहे इस युद्ध को मैं उचित नहीं मानता इसी कारण इस युद्ध में भाग लेने की इच्छा मुझे नहीं है।
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किन्तु ये युद्ध अब टाला नहीं जा सकता इसी कारण मेरी ये इच्छा है कि मैं अपनी पूरी सेना के साथ यहाँ उपस्थित समस्त सेना के भोजन का प्रबंध करूँ।
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इस पर श्रीकृष्ण ने हर्षित होते हुए कहा – “महाराज ! आपका विचार अति उत्तम है। इस युद्ध में लगभग ५०००००० (५० लाख) योद्धा भाग लेंगे और अगर आप जैसे कुशल राजा उनके भोजन के प्रबंधन को देखेगा तो हम उस ओर से निश्चिंत ही रहेंगे।
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वैसे भी मुझे पता है कि सागर जितनी इस विशाल सेना के भोजन प्रबंधन करना आपके और भीमसेन के अतिरिक्त और किसी के लिए भी संभव नहीं है।
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भीमसेन इस युद्ध से विरत हो नहीं सकते अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप अपनी सेना सहित दोनों ओर की सेना के भोजन का भार संभालिये।” इस प्रकार उडुपी के महाराज ने सेना के भोजन का प्रभार संभाला।
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पहले दिन उन्होंने उपस्थित सभी योद्धाओं के लिए भोजन का प्रबंध किया। उनकी कुशलता ऐसी थी कि दिन के अंत तक एक दाना अन्न का भी बर्बाद नहीं होता था।
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जैसे-जैसे दिन बीतते गए योद्धाओं की संख्या भी कम होती गयी। दोनों ओर के योद्धा ये देख कर आश्चर्यचकित रह जाते थे कि हर दिन के अंत तक उडुपी नरेश केवल उतने ही लोगों का भोजन बनवाते थे जितने वास्तव में उपस्थित रहते थे।
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किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें ये कैसे पता चल जाता है कि आज कितने योद्धा मृत्यु को प्राप्त होंगे ताकि उस आधार पर वे भोजन की व्यवस्था करवा सकें।
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इतने विशाल सेना के भोजन का प्रबंध करना अपने आप में ही एक आश्चर्य था और उसपर भी इस प्रकार कि अन्न का एक दाना भी बर्बाद ना हो, ये तो किसी चमत्कार से कम नहीं था।
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अंततः युद्ध समाप्त हुआ और पांडवों की जीत हुई। अपने राज्याभिषेक के दिन आख़िरकार युधिष्ठिर से रहा नहीं गया और उन्होंने उडुपी नरेश से पूछ ही लिया
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हे महाराज ! समस्त देशों के राजा हमारी प्रशंसा कर रहे हैं कि किस प्रकार हमने कम सेना होते हुए भी उस सेना को परास्त कर दिया जिसका नेतृत्व पितामह भीष्म, गुरु द्रोण और हमारे ज्येष्ठ भ्राता कर्ण जैसे महारथी कर रहे थे।
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किन्तु मुझे लगता है कि हम सब से अधिक प्रशंसा के पात्र आप है जिन्होंने ना केवल इतनी विशाल सेना के लिए भोजन का प्रबंध किया अपितु ऐसा प्रबंधन किया कि एक दाना भी अन्न का व्यर्थ ना हो पाया। मैं आपसे इस कुशलता का रहस्य जानना चाहता हूँ।
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इसपर उडुपी नरेश ने हँसते हुए कहा – “सम्राट ! आपने जो इस युद्ध में विजय पायी है उसका श्रेय किसे देंगे ?
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इसपर युधिष्ठिर ने कहा “श्रीकृष्ण के अतिरिक्त इसका श्रेय और किसे जा सकता है ? अगर वे ना होते तो कौरव सेना को परास्त करना असंभव था।
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तब उडुपी नरेश ने कहा “हे महाराज ! आप जिसे मेरा चमत्कार कह रहे हैं वो भी श्रीकृष्ण का ही प्रताप है।” ऐसा सुन कर वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए।
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तब उडुपी नरेश ने इस रहस्य पर से पर्दा उठाया और कहा – “हे महाराज! श्रीकृष्ण प्रतिदिन रात्रि में मूँगफली खाते थे।
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मैं प्रतिदिन उनके शिविर में गिन कर मूँगफली रखता था और उनके खाने के पश्चात गिन कर देखता था कि उन्होंने कितनी मूंगफली खायी है।
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वे जितनी मूँगफली खाते थे उससे ठीक १००० गुणा सैनिक अगले दिन युद्ध में मारे जाते थे। अर्थात अगर वे ५० मूँगफली खाते थे तो मैं समझ जाता था कि अगले दिन ५०००० योद्धा युद्ध में मारे जाएँगे।
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उसी अनुपात में मैं अगले दिन भोजन कम बनाता था। यही कारण था कि कभी भी भोजन व्यर्थ नहीं हुआ।” श्रीकृष्ण के इस चमत्कार को सुनकर सभी उनके आगे नतमस्तक हो गए।
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ये कथा महाभारत की सबसे दुर्लभ कथाओं में से एक है। कर्नाटक के उडुपी जिले में स्थित कृष्ण मठ में ये कथा हमेशा सुनाई जाती है।
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ऐसा माना जाता है कि इस मठ की स्थापना उडुपी के सम्राट द्वारा ही करवाई गयी थी जिसे बाद में ‌श्री माधवाचार्य जी ने आगे बढ़ाया।

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