Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक दूजे के लिए

संजय गुप्ता
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4 दिनों की लंबी छुट्टियां पल्लवी को 4 युगों के समान लग रही थीं. पहला दिन घर के कामकाज में निकल गया. दूसरा दिन आराम करने और घर के लिए जरूरी सामान खरीदने में बीत गया. लेकिन आज सुबह से ही पल्लवी को बड़ा खालीपन लग रहा था. खालीपन तो वह कई महीनों से महसूस करती आ रही थी, लेकिन आज तो सुबह से ही वह खासी बोरियत महसूस कर रही थी.
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बाई खाना बना कर जा चुकी थी. सुबह के 11 ही बजे थे पल्लवी का नहाना धोना, नाश्ता भी हो चुका था. झाड़ूपोंछा और कपड़े धोने वाली बाइयां भी अपना अपना काम कर के जा चुकी थीं. यानी अब दिन भर न किसी का आना या जाना नहीं होना था.
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टीवी से भी बोर हो कर पल्लवी ने टीवी बंद कर दिया.
पिछले 4 साल से घर में अकेली ही रह रही थी। माँ बाप भाई बहिन और पति सब कोई साथ छोड़ गए थे ,,, थी तो उसके साथ उसकी महत्वकांक्षाये , उसका अहम , ऐसा अहम जो स्वाभिमान का विकृत रूप बन गया था। आज बोरियत से टालने के लिए अपनी प्यारी सहेली अंजलि को फ़ोन किया ,, “हे अंजलि चल ना मूवी देखने चलते है ? ,, नहीं यार आज पीहू की तबियत ठीक नहीं है। हिम्मत करके मूवी
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अकेले देखने गयी तो देखा अंजलि अपने पति के साथ मूवी देखने आयी हुई थी ,, पीहू चहक रही थी। दिल पर लगी बात अंजलि की ,,, जब जाना ही था मुझे मना क्यों किया ? मन ही मन सोचा पल्लवी ने।
इसी तरह उसकी सारी सहेलिया उस से कन्नी काटने लगी थी ,, जो कभी उसके इर्द गिर्द मंडराती रहती थी। भौरे जब तक पास रहते है जब तक फूल में रस उपलब्ध होता है। सभी सहेलिया किसी न किसी बात पर मिलने से अवॉयड करने लग गयी थी। जब से पल्लवी ने सुमित से तलाक लिया था… शुरू शुरू में उसे आजादी महसूस हुई ,, लेकिन 1 साल बाद अकेलापन खाने को दौड़ता ,, सब भाई बहिन ,, माँ बाप सभी ने उस से रिश्ता तोड़ दिया था। पल्लवी ने किसी की सुनी भी कहाँ थी ,, सबने बहुत समझाया ,, सुमित अच्छा लड़का है तुमसे बहुत प्यार करता है।
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लेकिन स्वाभिमान और अहंकार के बीच महीन दीवार होती है ,, इंसान कब उस दीवार को लांघ जाता है पता नहीं चलता। और अक्सर लांघने वाले गिर कर चोट खाते है। यही पल्लवी के साथ हुआ ,, अच्छे घर से आयी ,, पढ़ी लिखी मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर के तौर पर कार्यरत थी। सुमित उसका पति बैंक में मैनेजर की पोस्ट पर था। ज्यादा पढाई भी कभी कभार मूल संस्कार नष्ट कर देती है ,, सुमित और उसके परिवार की दिली इच्छा एक बच्चे की थी तो क्या गलत थी?
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ऑफिस में सहेलिया उसको भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी ,, “रहने दे पल्लवी , अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है ? अभी बच्चा पैदा करेगी तो फिगर खराब हो जायेगा। हर पति की कुछ छोटी छोटी अपेक्षाएं होती है ,, सुमित को भी रहती थी जैसे कभी पकोड़े खाने का मन होता था। कभी शर्ट का बटन टूट जाता उसको टांकने को कहता। एक दिन जब सुमित ने बाजार से ताजा टिंडे ला कर अपने हाथ के मसाले वाले भरवां टिंडे बनाने का अनुरोध किया, तो पल्लवी बुरी तरह बिफर गई कि वह अभी औफिस से थकीमांदी आई है और सुमित उस से चूल्हे-चौके का काम करने को कह रहा है. उस दिन पल्लवी ने न सिर्फ सुमित को बहुत कुछ उलटासीधा कहा, बल्कि साफसाफ यह भी कह दिया कि वह अब और अधिक उस की गुलामी नहीं करेगी. आखिर वह भी इंसान है, कोई खरीदी हुई बांदी नहीं है कि जबतब सिर झुका कर उस का हुकुम बजाती रहे. उसे इस गुलामी से छुटकारा चाहिए.
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सुमित सन्न सा खड़ा रह गया. एक छोटी सी बात इतना बड़ा मुद्दा बनेगी, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. इस के बाद वह बारबार माफी मांगता रहा, पर पल्लवी न मानी ,, हर बार उसको जवाब ना में ही मिलता ,, सुमित के माता पिता तो अपने कसबे में ही रहते थे। 2 जीव भी एक छत के नीचे प्रेम से निर्वाह न कर सके तो बड़ी विडंबना है।
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पल्लवी की सखिया श्वेता , पूनम ,,अंजलि और प्रेरणा ,, सभी शादी शुदा थी बाल बच्चे दार थी… मगर किसी के घर में झगडे नहीं थे ,, सब की सब स्वार्थी सिर्फ उसका फायदा उठाती थी। उसके पैसे चाहिए होते थे ,, उनसे मस्ती करती थी सब। पल्लवी की मम्मी पापा ने बहुत समझाया बेटा ,, अभी भी वक़्त है सुधर जाओ ,, लेकिन पल्लवी पर सखियों का गहरा रंग चढ़ा था। 2 साल गुजर गए शादी को ,, छोटी छोटी बात पर झगडे होने लगे। सुमित बहुत प्यार करता था हर चीज बर्दाश्त कर जाता था। काम में बहुत मदद कर देता था ,, लेकिन जब अहम सर से ऊपर चला जाता है ,, तो विनाश काले विपरीत बुद्धि।
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आखिर पल्ल्वी ने अपने पति से छुटकारा लेने का फैसला किया ,, सुमित ने पल्लवी की ख़ुशी के लिए चुप चाप कागजात पर हस्ताक्षर कर दिए। पल्लवी बड़ी खुश थी आजादी मिल गयी थी सब से,, अलग फ्लैट लेकर अकेली रहने लगी। शुरू में बहुत खुश थी लेकिन धीरे धीरे तन्हाई ने घेरे डालने शुरू कर दिए। पति नाम का सुरक्षा कवच नारी को भेडियो से बचाता है। ऑफिस में मोहल्ले में जब से लोगों को पता लगा,, अकेली औरत रहती है तो बदजात मर्द सूंघते मिल जाते थे। हर कोई खुली तिजोरी लूटने को त्यार रहता है
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धीरे धीरे उसकी सहेलिया भी कन्नी काटने लगी ,, उनको यह भय सताता कहीं हमारे पतियों को ना फसा ले। जिसको भी मिलने के लिए बुलाती वही कुछ न कुछ बहाना बनाकर टाल जाती थी। कभी बच्चो का कभी पति का बहाना लगाकर सब पीछे हट जाती।
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4 साल गुजर गए आज बिलकुल अकेली तन्हाई में रोती पल्लवी ,, “काश सुमित मेने तुम्हे समझा होता ,, काश में सहेलियों की बातो में न आयी होती। काश माँ बाप की बात सुनी होती। पिछली जिंदगी को याद कर कर के सुबक सुबक कर रोने लगी ,, आज उसे किसी काँधे की जरुरत थी ,, जो उसके पास नहीं था।
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एक दिन पल्ल्वी ऑफिस जा रही थी उसको पूर्णिमा मिली जो सुमित की दफ्तर में काम करती थी ,, जिसको लेकर भी पल्लवी और उसकी सहेलियों ने शक जताया था। जबकि दोनों के बीच कुछ रिश्ता नहीं था ,, लेकिन तलाक के बाद सुमित और पूर्णिमा दोस्त बन गए थे। उसे सुमित के दिल के हाल पता थे
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“आओ पूर्णिमा कैसी हो ? ” में अच्छी हूँ आप कैसी हो ? चलो कही कैफ़े में बैठते है ,,, पल्लवी ने कहा। “कैसी हो पल्ल्वी ? सुमित के बिना कैसी कट रही है ,, दोबारा शादी की ? सब बाते सुनते सुनते पल्ल्वी अचानक फफक फफक कर रो पड़ी। “मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई ,,सहेलियों के भड़कावे में आकर मेने सुमित से तलाक लेकर बहुत बड़ी गलती की। बरसो से रुका हुआ सैलाब आज बह निकला ,, पूर्णिमा ने हाथ पकड़ते हुए कहा ,, पललवी हौसला रखो तुम बहादुर हो।
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सुमित के क्या हाल है ? पल्लवी ने आंसू पोंछते हुए पूछा। ठीक है बस ज़िंदा है,, आज भी तुम्हारी याद में सुलग रहा है ,, ऐसा सुलग रहा है ना धुआं ना राख।
पूर्णिमा की भी आँखे नाम हो आयी ,,, पल्लवी तुम ही पहला और आखिरी प्यार हो उसका। आज भी उसने शादी नहीं की ,, अगर तुम कहो तो में उस से बात करू ? नहीं में खुद ही जाउंगी।
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उसी दिन शाम को पल्लवी ने घंटी बजाई ,, अंदर से सुमित निकल कर आया। कितनी देर तक दोनों एक दूसरे की आँखों में आँखे डाल कर अश्रुधारा प्रवाहित करते रहे। जब थोड़ा सम्भले तब ” अंदर आने के लिए नहीं कहोगे ? “आ जाओ तुम ही छोड़ कर गयी थी ,, मेने तुम्हे जाने को कभी नहीं कहा। कान पकड़ते हुए पल्ल्वी में माफ़ी मांगी ,, “मुझे माफ़ करदो सुमित ” रोते रोते सुमित ने बाहें फैलाई ,, पल्लवी अपने साजन की बाहों में समां गयी। सुमित ने उसे कस कर अपने बाहुपाश में बांध लिया. दोनों देर तक आंसू बहाते रहे. मनों का मैल और 4 सालों की दूरियां आंसुओं से धुल गईं.

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खाना खाकर दोनों बात करते रहे ,, अच्छा सो जाओ पल्लवी तुम्हे सुबह ऑफिस के लिए निकलना है। “मेने नौकरी छोड़ दी है” क्यों,, अब मुझे तुम्हारे बच्चो की परवरिश करनी है ,, शरमाते हुए सुमित की बाहों में समां गयी,, सुमित हंस पड़ा. फिर दोनों एकदूसरे की बांहों में खोए हुए अपने कमरे की ओर चल पड़े.

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निओ दिप

#स्वयंकोसंगठनसेजोड़िये


एक वन में बहुत बडा अजगर रहता था। वह बहुत अभिमानी और अत्यंत क्रूर था। जब वह अपने बिल से निकलता तो सब जीव उससे डरकर भाग खड़े होते। उसका मुंह इतना विकराल था कि खरगोश तक को निगल जाता था। एक बार अजगर शिकार की तलाश में घूम रहा था। सारे जीव अजगर को बिल से निकलते देखकर भाग चुके थे । जब अजगर को कुछ न मिला तो वह क्रोधित होकर फुफकारने लगा और इधर-उधर खाक छानने लगा। वहीं निकट में एक हिरणी अपने नवजात शिशु को पत्तियों के ढेर के नीचे छिपाकर स्वयं भोजन की तलाश में दूर निकल गई थी। अजगर की फुफकार से सूखी पत्तियां उडने लगी और हिरणी का बच्चा नजर आने लगा। अजगर की नजर उस पर पड़ी हिरणी का बच्चा उस भयानक जीव को देखकर इतना डर गया कि उसके मुंह से चीख तक ना निकल पाई। अजगर ने देखते-ही-देखते नवजात हिरण के बच्चे को निगल लिया। तब तक हिरणी भी लौट आई थी, पर वह क्या करती ? आंखों में आंसू भरके दूर से अपने बच्चे को काल का ग्रास बनते देखती रही। हिरणी के शोक का ठिकाना न रहा। उसने किसी-न किसी तरह अजगर से बदला लेने की ठान ली। हिरणी की एक नेवले से दोस्ती थी। शोक में डूबी हिरणी अपने मित्र नेवले के पास गई और रो-रोकर उसे अपनी दुखभरी कथा सुनाई। नेवले को भी बहुत दु:ख हुआ। वह दुख-भरे स्वर में बोला मित्र, मेरे बस में होता तो मैं उस नीच अजगर के सौ टुकडे कर डालता। पर क्या करें, वह छोटा-मोटा सांप नहीं है, जिसे मैं मार सकूं वह तो एक अजगर है। अपनी पूंछ की फटकार से ही मुझे अधमरा कर देगा। लेकिन यहां पास में ही चीटिंयों की एक बांबी हैं। वहां की रानी मेरी मित्र हैं। उससे सहायता मांगनी चाहिए। हिरणी निराश स्वर में विलाप किया “पर जब तुम्हारे जितना बडा जीव उस अजगर का कुछ बिगाडने में समर्थ नहीं हैं तो वह छोटी-सी चींटी क्या कर लेगी?” नेवले ने कहा ‘ऐसा मत सोचो। उसके पास चींटियों की बहुत बडी सेना हैं। संगठन में बडी शक्ति होती हैं।’ हिरणी को कुछ आशा की किरण नजर आई। नेवला हिरणी को लेकर चींटी रानी के पास गया और उसे सारी कहानी सुनाई। चींटी रानी ने सोच-विचार कर कहा ‘हम तुम्हारी सहायता अवश्य करेंगे । हमारी बांबी के पास एक संकरीला नुकीले पत्थरों भरा रास्ता है। तुम किसी तरह उस अजगर को उस रास्ते पर आने के लिए मजबूर करो। बाकी काम मेरी सेना पर छोड़ दो। नेवले को अपनी मित्र चींटी रानी पर पूरा विश्वास था इसलिए वह अपनी जान जोखिम में डालने पर तैयार हो गया। दूसरे दिन नेवला जाकर सांप के बिल के पास अपनी बोली बोलने लगा। अपने शत्रु की बोली सुनते ही अजगर क्रोध में भरकर अपने बिल से बाहर आया। नेवला उसी संकरे रास्ते वाली दिशा में दौड़ाया। अजगर ने पीछा किया। अजगर रुकता तो नेवला मुड़कर फुफकारता और अजगर को गुस्सा दिलाकर फिर पीछा करने पर मजबूर करता। इसी प्रकार नेवले ने उसे संकरीले रास्ते से गुजरने पर मजबूर कर दिया। नुकीले पत्थरों से उसका शरीर छिलने लगा। जब तक अजगर उस रास्ते से बाहर आया तब तक उसका काफ़ी शरीर छिल गया था और जगह-जगह से ख़ून टपक रहा था। उसी समय चींटियों की सेना ने उस पर हमला कर दिया। चींटियां उसके शरीर पर चढकर छिले स्थानों के नंगे मांस को काटने लगीं। अजगर तडप उठा। अपने शरीर से खुन पटकने लगा जिससे मांस और छिलने लगा और चींटियों को आक्रमण के लिए नए-नए स्थान मिलने लगे। अजगर चींटियों का क्या बिगाडता? वे हजारों की गिनती में उस पर टूट पढ़ रही थीं। कुछ ही देर में क्रूर अजगर तडप-तडपकर दम तोड दिया।
सीख- संगठन शक्ति बड़े-बड़ों को धूल चटा देती है। क्योंकि
संगठन में – कायदा नहीं, व्यवस्था होती है।
संगठन में – सुचना नहीं, समझ होती है।
संगठन में – क़ानून नहीं, अनुशासन होता है।
संगठन में – भय नहीं, भरोसा होता है।
संगठन में – शोषण नहीं, पोषण होता है।
संगठन में – आग्रह नहीं, आदर होता है।
संगठन में – संपर्क नहीं, सम्बन्ध होता है।
संगठन में – अर्पण नहीं, समर्पण होता है।

इस लिए स्वयं को संगठन से जोड़े रखें।
संगठन सामूहिक हित के लिए होता है। ✍
🌹🙏🌹Jai hind
🤝🤝🤝🤝🤝🤝🤝

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

बात 1947 से पहले की है…..यह कहानी एक जर्मन महिला की है, जिनका नाम था (Emilie_Schenkl) एमिली शेंकल ……

मुझे नहीं पता आपमें से कितनों ने ये नाम सुना है….और अगर नहीं सुना है तो आप दोषी नहीं । इस नाम को इतिहास से खुरच कर निकाल फेंका गया…..

श्रीमती एमिली शेंकल ने 1937 में भारत माँ के लाड़ले बेटे “सुभाष चन्द्र बोस” से विवाह किया और एक ऐसे देश को ससुराल के रूप में चुना जिसने कभी इस बहू का स्वागत नहीं किया….न बहू के आगमन में किसी ने मंगल गीत गाये और न उसकी बेटी के जन्म पर कोई सोहर गायी गयी…….कभी कहीं जन मानस में चर्चा तक नहीं हुई कि वो कैसे जीवन गुजार रही हैं…….

सात साल के कुल वैवाहिक जीवन में सिर्फ 3 साल ही उन्हें अपने पति के साथ रहने का अवसर मिला फिर उन्हें और नन्हीं सी बेटी को छोड़ पति देश के लिए लड़ने चला आए…….. इस वायदे के साथ कि पहले देश को आज़ाद करा लूँ…………… फिर तो सारा जीवन तुम्हारे साथ बिताना ही है…..

पर ऐसा हुआ नहीं औऱ 1945 में एक कथित विमान दुर्घटना में वो लापता हो गए……!

उस समय एमिली शेंकल बेहद युवा थीं ………….चाहतीं तो यूरोपीय संस्कृति के हिसाब से दूसरा विवाह कर सकतीं थीं……… पर उन्होंने ऐसा नहीं किया और सारा जीवन बेहद कड़ा संघर्ष करते हुए बिताया….एक तारघर की मामूली क्लर्क की नौकरी और बेहद कम वेतन के साथ वो अपनी बेटी को पालती रहीं……….ऋ… न किसी से शिकायत की न कुछ माँगा…….

भारत भी तब तक आज़ाद हो चुका था ………….और वे चाहतीं थीं कि कम से कम एक बार उस देश में आएँ जिसकी आजादी के लिए उनके पति ने जीवन न्योछावर कर दिया था………..

भारत का एक अन्य राजनीतिक (नेहरू/गाँधी) परिवार इतना भयभीत था ……… इस एक महिला से कि जिसे सम्मान सहित यहाँ बुलाकर देश की नागरिकता देनी चाहिए थी………. उसे कभी भारत का वीज़ा तक नहीं दिया गया…….

आखिरकार बेहद कठिनाइयों भरे और किसी भी तरह की चकाचौंध से दूर रहकर बेहद साधारण जीवन गुजार कर श्रीमती एमिली शेंकल बोस ने मार्च 1996 में गुमनामी में ही जीवन त्याग दिया……
जो इस देश के सबसे लोकप्रिय जन नेता नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की धर्मपत्नी थीं ! और जिन्हें नेहरू/ गाँधी कुनबे ने कभी इस देश में पैर नहीं रखने दिया……….नेहरू/गाँधी परिवार यह जानता था कि ये देश सुभाष बाबू की पत्नी को सर आँखों पर बिठा लेगा…………इसीलिए उन्हें एमिली बोस का इस देश में पैर रखना अपनी सत्ता के लिए चुनौती लगा…..

काँग्रेसी और उनके जन्मजात अंध चाटुकार, कुछ पत्रकार, और इतिहासकार (?) अक्सर विदेशी मूल की राजीव की बीबी सोनिया गाँधी को देश की बहू का ख़िताब दे डालते हैं……….उसकी कुर्बानियों का बखान बेहिसाब कर डालते हैं……

क्या एंटोनिया माइनो (सोनिया गाँधी ) कभी भी श्रीमती एमिली बोस की मौन कुर्बानियों के सामने कहीं भी ठहर सकती हैं……..!!!!

कोटिशः नमन

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परमात्मा ने तुम्हारे भीतर आनंदमग्न होने की पूरी क्षमता दी है। मगर तुम्हारा समादर गलत है, रुग्ण है। उस कारण सुख कैसे हो!

तुम कृपण हो, कंजूस हो। और सुखी तो वही हो सकता है, जिनको बांटने में आनंद आता हो। तुम्हें तो इकट्ठा करने में आनंद आता है! हम तो कंजूसों को कहते हैं–सरल लोग हैं, सीधे-सादे लोग हैं!

मैं एक गांव में एक कंजूस के घर में मेहमान हुआ। महाकंजूस! मगर सारे गांव में उसका आदर यह कि सादगी इसको कहते हैं! सादा जीवन–ऊंचे विचार! क्या ऊंचा जीवन और ऊंचा विचार साथ-साथ नहीं हो सकता? और सादा जीवन ही जीना हो, तो यह तिजोड़ी को काहे के लिए भर कर रखे हुए हो! मगर हर गांव में तुम पाओगे: कंजूसों को लोग कहते हैं–सादा-जीवन! कि है लखपति, लेकिन देखो, कपड़े कैसे पहनता है!

सेठ धन्नालाल की पुत्री जब अट्ठाइस वर्ष की हो गई, और आसपास के लोग ताना देने लगे कि यह कंजूस दहेज देने के भय से अपनी बेटी को कंवारी रखे हुए है, तो सेठजी ने सोचा कि अब जैसे भी हो लड़की का विवाह कर ही देना चाहिए, क्योंकि जिन लोगों के बीच रहना है, उठना-बैठना है, धंधा-व्यापार करना है, उनकी नजरों में गिरना ठीक नहीं। उन्होंने लड़के की खोज शुरू कर दी। पड़ोस के ही गांव के एक मारवाड़ी धनपति का बेटा चंदूलाल उन्हें पसंद आया। जब वे लोग सगाई करने के लिए धन्नाालाल के यहां आए तो चंदूलाल के बाप ने पूछा–आपकी बेटी बुद्धिहीन अर्थात फिजूलखर्ची व्यक्ति तो नहीं है? और हम नहीं चाहते कि कोई आकर हमारी परंपरा से जुड़ती चली आ रही संपत्ति को नष्ट करे;बाप-दादों की जमीन-जायदाद हमें जान से भी ज्यादा प्यारी है। यह देखिए मेरी पगड़ी; मेरे बाप को मेरे दादा ने दी थी; दादा को उनके बाप ने; उन्हें उनके पितामह ने; और उनके पितामह ने अपने एक बजाज दोस्त से उधार खरीदी थी। क्या आपके पास भी ऐसा फिजूलखर्ची न होने का कोई ठोस प्रमाण है?

धन्नालाल जी बोले–क्यों नहीं, क्यों नहीं। हम भी पक्के मारवाड़ी हैं, कोई ऐरे-गैरे नत्थू खैरे नहीं। फिर उन्होंने जोर से भीतर की ओर आवाज दे कर कहा–बेटी धन्नो, जरा मेहमानों के लिए सुपाड़ी वगैरह तो ला।

चंद क्षणोपरांत ही धन्नालाल की बेटी सुंदर अल्युमीनियम की तश्तरी में एक बड़ी-सी सुपाड़ी लेकर हाजिर हुई; सबसे पहले उसने अपने बाप के सामने प्लेट की। धन्नालाल ने सुपाड़ी को उठा कर मुंह में रखा; आधे मिनट तक यहां-वहां मुंह में घुमाया, फिर सुपाड़ी बाहर निकाल कर सावधानीपूर्वक रूमाल से पोंछकर तश्तरी में रख अपने भावी समधी की ओर बढ़ाते हुए कहा–लीजिए, अब आप सुपाड़ी लीजिए!

चंदूलाल और उसका बाप दोनों यह देखकर ठगे से रह गए। उन्हें हतप्रभ देखकर धन्नालाल बोले–अरे संकोच की क्या बात, अपना ही घर समझिए। तकल्लुफ की कतई जरूरत नहीं। यह सुपाड़ी तो हमारी पारंपरिक संपदा है। पिछली चार शताब्दियों से हमारे परिवार के लोग इसे खाते रहे हैं। मेरे बाप, मेरे बाप के बाप, मेरे बाप के दादा, मेरे दादा के दादा सभी के मुंहों में यह रखी रही है। मेरे दादा के दादा के दादा के बादशाह अकबर के राजमहल के बाहर यह पड़ी मिली थी!

ऐसा-ऐसा सादा जीवन जीया जा रहा है! सुख हो तो कैसे हो!

सुखी होने के लिए जीवन के सारे आधार बदलने आवश्यक हैं! कृपणता में सुख नहीं हो सकता। सुख बांटने में बढ़ता है; न बांटने से घटता है। संकोच से मर जाता है; सिकोड़ने से समाप्त हो जाता है। फैलने दो–बांटो।

जो बोले सो हरि कथा

ओशो

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“भक्त के आगे हारे प्रभु राम”

संजय गुप्ता

उत्तर रामायण के अनुसार अश्वमेघ यज्ञ पूर्ण होने के पश्चात भगवान श्रीराम ने बड़ी सभा का आयोजन कर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों, किन्नरों, यक्षों व राजाओं आदि को उसमें आमंत्रित किया। सभा में आए नारद मुनि के भड़काने पर एक राजन ने भरी सभा में ऋषि विश्वामित्र को छोड़कर सभी को प्रणाम किया। ऋषि विश्वामित्र गुस्से से भर उठे और उन्होंने भगवान श्रीराम से कहा कि अगर सूर्यास्त से पूर्व श्रीराम ने उस राजा को मृत्यु दंड नहीं दिया तो वो राम को श्राप दे देंगे।

इस पर श्रीराम ने उस राजा को सूर्यास्त से पूर्व मारने का प्रण ले लिया। श्रीराम के प्रण की खबर पाते ही राजा भागा-भागा हनुमान जी की माता अंजनी की शरण में गया तथा बिना पूरी बात बताए उनसे प्राण रक्षा का वचन मांग लिया। तब माता अंजनी ने हनुमान जी को राजन की प्राण रक्षा का आदेश दिया। हनुमान जी ने श्रीराम की शपथ लेकर कहा कि कोई भी राजन का बाल भी बांका नहीं कर पाएगा परंतु जब राजन ने बताया कि भगवान श्रीराम ने ही उसका वध करने का प्रण किया है, तो हनुमान जी धर्म संकट में पड़ गए, कि राजन के प्राण कैसे बचाएं और माता का दिया वचन कैसे पूरा करें तथा भगवान श्रीराम को श्राप से कैसे बचाएं।

धर्म संकट में फंसे हनुमानजी को एक योजना सूझी। हनुमानजी ने राजन से सरयू नदी के तट पर जाकर राम नाम जपने के लिए कहा। हनुमान जी खुद सूक्ष्म रूप में राजन के पीछे छिप गए। जब राजन को खोजते हुए श्रीराम सरयू तट पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि राजन राम-राम जप रहा है।

प्रभु श्रीराम ने सोचा, “ये मेरा तो भक्त है, मैं अपने भक्त के प्राण कैसे ले सकता हूं”।

श्री राम ने राज भवन लौटकर ऋषि विश्वामित्र से अपनी दुविधा कही। विश्वामित्र अपनी बात पर अड़े रहे और जिस पर श्रीराम को फिर से राजन के प्राण लेने हेतु सरयू तट पर लौटना पड़ा। अब श्रीराम के समक्ष भी धर्मसंकट खड़ा हो गया, कि कैसे वो राम नाम जप रहे अपने ही भक्त का वध करें। राम सोच रहे थे कि हनुमानजी को उनके साथ होना चाहिए था परंतु हनुमानजी तो अपने ही आराध्य के विरुद्ध सूक्ष्म रूप से एक धर्मयुद्ध का संचालन कर रहे थे। हनुमानजी को यह ज्ञात था कि राम नाम जपते हु‌ए राजन को कोई भी नहीं मार सकता, खुद मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी नहीं।
श्रीराम ने सरयू तट से लौटकर राजन को मारने हेतु जब शक्ति बाण निकाला तब हनुमानजी के कहने पर राजन राम-राम जपने लगा। राम जानते थे राम-नाम जपने वाले पर शक्तिबाण असर नहीं करता। वो असहाय होकर राजभवन लौट गए। विश्वामित्र उन्हें लौटा देखकर श्राप देने को उतारू हो गए और राम को फिर सरयू तट पर जाना पड़ा।

इस बार राजा हनुमान जी के इशारे पर जय जय सियाराम जय जय हनुमान गा रहा था। प्रभु श्री राम ने सोचा कि मेरे नाम के साथ-साथ ये राजन शक्ति और भक्ति की जय बोल रहा है। ऐसे में कोई अस्त्र-शस्त्र इसे मार नहीं सकता। इस संकट को देखकर श्रीराम मूर्छित हो गए। तब ऋषि व‌शिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र को सलाह दी कि राम को इस तरह संकट में न डालें। उन्होंने कहा कि श्रीराम चाह कर भी राम नाम जपने वाले को नहीं मार सकते क्योंकि जो बल राम के नाम में है, वो खुद राम में नहीं है। संकट बढ़ता देखकर ऋषि विश्वामित्र ने राम को संभाला और अपने वचन से मुक्त कर दिया। मामला संभलते देखकर राजा के पीछे छिपे हनुमान वापस अपने रूप में आ गए और श्रीराम के चरणों मे आ गिरे।

तब प्रभु श्रीराम ने कहा कि, “हनुमानजी ने इस प्रसंग से सिद्ध कर दिया है कि भक्ति की शक्ति सैदेव आराध्य की ताकत बनती है” तथा सच्चा भक्त सदैव भगवान से भी बड़ा रहता है। इस प्रकार हनुमानजी ने राम नाम के सहारे श्री राम को भी हरा दिया। धन्य है राम नाम और धन्य है प्रभु श्री राम के भक्त हनुमान।

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संजय गुप्ता

यह कहानी एक कल्पना मात्र नहीं है। यह एक ऐसी लड़की की सच्चाई है, जिसने जीवन भर संघर्ष ही किया। जिसने अपनी जिंदगी को सफल बनाने के लिए अपने आप से समाज से झगड़ा किया।
जबलपुर!!! वह शहर है, जहां पर उस लड़की का जन्म हुआ था। उसका नाम बड़े प्यार से रखा गया था, पूजा पर कोई नहीं जानता था वह लड़की अपनी किस्मत में क्या लेकर आई है। जब वह 2 साल की हुई तो कोई भी बात को समझा नहीं करती थी।
उसकी मां हर दिन उस लड़की में परिवर्तन देखा करती थी। वह छोटी सी बच्ची के मुंह से मां शब्द सुनने के लिए तरसा करती थी। पर उसकी मां को यह नहीं पता था, कि उसकी लड़की में कुछ कमी है। एक दिन अचानक से उस लड़की को दौरे पड़े, और वह जमीन में लोटने लगी। यह देखकर उसकी मां घबरा गई और भागकर डॉक्टर के पास ले गई।
डॉक्टर ने चेक किया पर उस लड़की की परेशानी को समझ नहीं पाया और दूसरे डॉक्टर के पास भेज दिया। इसी तरह उसकी मां ने कई डॉक्टर के पास जाकर अपनी बेटी का इलाज कराने की कोशिश की। सभी डॉक्टर यह बात समझ नहीं पाए कि बेटी को क्या हुआ है। वह लड़की बोल नहीं पाती थी, ना कुछ समझ पाती थी।
मां बड़ी परेशान हो गई थी, बेचारी घर घर में बर्तन मांज कर और इडली की दुकान लगाकर अपने बेटी का इलाज कराया करती थी। क्योंकि उसका पति निकम्मा था। कोई काम काज नहीं किया करता था। माँ ने हिम्मत नहीं हारी और फिर डॉक्टर के पास ले गई। डॉक्टर बोला- “आप की लड़की पागल है!! इसे पागलखाने में भेज दो!
मां गुस्सा कर बोली- “डॉक्टर साहब मेरी लड़की पागल नहीं है” और फिर वह वहां से घर चली आई। लड़की 4 साल की हुई उसके स्कूल जाने का समय आ गया था। लेकिन उस लड़की को दौरे पड़ना कभी बंद नहीं हुए। उसे स्कूल में भी दौरे पड जाया करते थे। वह जमीन भी लोटने लगती थी। कभी-कभी जब वह अपने दिमाग पर काबू नहीं कर पाती थी। उसे अंदर से कई प्रकार की तकलीफ होती थी।
उसे स्कूल के बच्चे हमेशा परेशान करते थे। सीधी साधी भोली भाली सी लड़की! उसे क्या पता था कि उसके दिमाग में परेशानी है। हम तो तब हो गई जब 1 दिन स्कूल की टीचर ने उसकी मां को बुलाई बोली _”आपकी लड़की तो पागलों जैसी हरकतें करती है “! उसकी मां बोली- “टीचर जी! मेरी बेटी पागल नहीं है।
वह बस बीमार है, पर स्कूल की टीचर कहां मानने वाली थी, उस लड़की को स्कूल से निकाल दिया गया।
मां परेशान रहने लगी फिर दूसरी स्कूल में दाखिला कराया गया। वहां एक टीचर थी, बहुत अच्छी टीचर! उसने उस लड़की को पढ़ाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। कुछ समय बाद मां को एक नामी डॉक्टर का पता चला वह अपनी बच्ची को उस डॉक्टर के पास ले गई।
डॉक्टर ने चेक किया और बताया कि– “आप की लड़की पागल” नहीं है, नाम बताओ जिसने इस लड़की को पागल कहा है मैं इसे ठीक करूंगा। बस इसके पेट में एक पटार है जो धीरे-धीरे इसके दिमाग में चढ़ने की कोशिश कर रही है। जिसकी वजह से इसको दौरे आते हैं। मैं इस पटार को निकालकर नए तरीके से इलाज करूंगा”!
डॉक्टर की मेहनत सफल हुई, वह लड़की ठीक हो गई। लेकिन डॉक्टर ने बताया– “यह लड़की अपने दिमाग से और अपनी उम्र से दो-तीन साल पीछे चलेगी, पर यह जरूर पढेंगी और लिखेगी और बोलेगी भी”! फिर स्कूल में टीचर की मेहनत रंग लाई धीरे-धीरे वह लड़की पढ़ने लिखने लगी। इस तरह उस लड़की ने अपने जीवन के कई उतार-चढ़ाव देखें और बीए पास कर ली।
लेकिन लड़की के भाई बहन उसके ठीक हो जाने पर भी उसे पागल बनाना नहीं छोड़ते थे। आसपास के मोहल्ले के कई लोग उसे पागल पागल कह कर बुलाया करते थे। वह लड़की हिम्मत नहीं हारी। जब वह पूरी तरह ठीक हो गई तो उसके बड़े भाई ने उसके ऊपर पहरा लगाना शुरु कर दिया। उसे बाहर छज्जे में खड़े होने नहीं देते थे और उसकी पढ़ाई लिखाई पर मैं भी पाबंदी लगा दी गई।
वह लड़की पढ़ना लिखना चाहती थी और आईपीएस अफसर बनना चाहती थी, परंतु उसकी मां और भाई ने उसकी कोई इच्छा पूरी नहीं की और उसकी शादी कर दी। शादी होने के बाद भी उसके ससुराल में उसके सास-ससुर ने उसे आगे पढ़ने लिखने नहीं दिया। घर की जिम्मेदारियों का बोझ उस पर डाल दिए। वह लड़की अपनी इच्छाओं को मारकर अंदर ही अंदर घुटती चली गई।
उस समय टेलीफोन का जमाना था, इसलिए वो चाहकर भी इंटरनेट में पढ़ाई नहीं कर पाती थी, और जब मोबाइल का जमाना आया तब तक उसकी पढ़ने-लिखने की उम्र निकल चुकी थी। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। फिर आया फेसबुक! उसने उस के माध्यम से अपनी पहचान बनाने की ठानी। उसे कविता, शायरी, लेख लिखने का काफी शौक था। ग्यारह और बारह क्लास में स्कूल की पत्रिका में अक्सर उसकी कविताएं और लेख छपा करते थे।
इसी में वह खुश हो जाया करती थी। लेकिन शादी के बाद उसकी इच्छा दफन हो कर रह गई थी। फेसबुक के माध्यम से उसने अपनी कविताओं और अपने विचारों को लोगो के सामने रखा, जिसमें उसको बड़ा मान-सम्मान मिलने लगा था। अब मैं आप लोगों से सवाल करती हूं!! ना जाने उसके जैसे कितनी हजारों लड़कियां हैं, जो अपनी इच्छाओं को पारिवारिक मजबूरी या आर्थिक मजबूरी के कारण दबा दिया करती हैं।
क्या? लड़कियों की इच्छाओं का कोई वजूद नहीं होता है! क्या? लड़की की इच्छा का इस तरह अंत किया जाना ठीक है? अब मैं आपको यह बताना चाहती हूं कि वह विक्षिप्त लड़की कौन थी। वह और कोई नहीं थी वह मैं थी, जी हां!! ” मेरी पडोसी पूजा गुप्ता थी”!! (वो पागल लड़की)

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संजय गुप्ता

शादी की सुहागसेज पर बैठी
एक स्त्री का पति जब भोजन
का थाल लेकर अंदर आया
तो पूरा कमरा उस स्वादिष्ट
भोजन की खुशबू से भर गया।
रोमांचित उस स्त्री ने अपने
पति से निवेदन किया कि
मांजी को भी यहीं बुला लेते
तो हम तीनों साथ बैठकर
भोजन करते।
पति ने कहा छोड़ो उन्हें वो
खाकर सो गई होंगी आओ
हम साथ में भोजन करते
है प्यार से,
उस स्त्री ने पुनः अपने पति से
कहा कि नहीं मैंने उन्हें खाते हुए
नहीं देखा है, तो पति ने जवाब
दिया कि क्यों तुम जिद कर रही
हो शादी के कार्यों से थक गयी
होंगी इसलिए सो गई होंगी,
नींद टूटेगी तो खुद भोजन कर
लेंगी। तुम आओ हम प्यार से
खाना खाते हैं।
उस स्त्री ने तुरंत तलाक लेने का
फैसला कर लिया और तलाक
लेकर उसने दूसरी शादी कर ली
और इधर उसके पहले पति ने
भी दूसरी शादी कर ली।
दोनों अलग- अलग सुखी घर
गृहस्ती बसा कर खुशी खुशी
रहने लगे।
इधर उस स्त्री के दो बच्चे हुए जो
बहुत ही सुशील और आज्ञाकारी
थे। जब वह स्त्री ६० वर्ष की हुई
तो वह बेटों को बोली में
चारो धाम की यात्रा करना
चाहती हूँ ताकि तुम्हारे सुखमय
जीवन के लिए प्रार्थना कर सकूँ।
बेटे तुरंत अपनी माँ को लेकर
चारों धाम की यात्रा पर निकल
गये। एक जगह तीनों माँ बेटे
भोजन के लिए रुके और बेटे
भोजन परोस कर मां से खाने
की विनती करने लगे।
उसी समय उस स्त्री की नजर
सामने एक फटेहाल, भूखे
और गंदे से एक वृद्ध पुरुष
पर पड़ी जो इस स्त्री के
भोजन और बेटों की तरफ
बहुत ही कातर नजर से देख
रहा था। उस स्त्री को उस पर
दया आ गईं और बेटों को
बोली जाओ पहले उस वृद्ध
को नहलाओ और उसे वस्त्र
दो फिर हम सब मिलकर
भोजन करेंगे।
बेटे जब उस वृद्ध को नहलाकर
कपड़े पहनाकर उसे उस स्त्री
के सामने लाये तो वह स्त्री
आश्चर्यचकित रह गयी वह
वृद्ध वही था जिससे उसने
शादी की सुहागरात को ही
तलाक ले लिया था। उसने
उससे पूछा कि क्या हो गया
जो तुम्हारी हालत इतनी
दयनीय हो गई तो उस वृद्ध
ने नजर झुका के कहा कि
सब कुछ होते ही मेरे बच्चे
मुझे भोजन नहीं देते थे,
मेरा तिरस्कार करते थे, मुझे
घर से बाहर निकाल दिया।
उस स्त्री ने उस वृद्ध से कहा कि
इस बात का अंदाजा तो मुझे
तुम्हारे साथ सुहागरात को ही
लग गया था जब तुमने पहले
अपनी बूढ़ी माँ को भोजन
कराने के बजाय उस स्वादिष्ट
भोजन की थाल लेकर मेरे
कमरे में आ गए और मेरे
बार-बार कहने के बावजूद भी
आप ने अपनी माँ का
तिरस्कार किया। उसी का फल
आज आप भोग रहे हैं।
जैसा व्यहवार हम अपने
बुजुर्गों के साथ करेंगे उसी
देखा-देख कर हमारे बच्चों
में भी यह गुण आता है कि
शायद यही परंपरा होती है।
सदैव माँ बाप की सेवा ही
हमारा दायित्व बनता है।
जिस घर में माँ बाप हँसते है,
वहीं प्रभु बसते है।
🙏

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।।पुष्टि भक्ति में प्रभु और भक्त के दुर्लभ प्रेम का सुंदर प्रसंग।।

संजय गुप्ता

~~~~~~~~~~~ 🌹👣🌹 ~~~~~~~~~~~~~~
पुष्टि मार्ग में भक्त और भगवान का प्रेम बहुत ही अदभुत और हदय स्पर्शी बताया गया है।
जो वैष्णव सामाजिक रूप में तिलक लगावे वंडी पहरे अपरस रखे दूसरे को देख वैभव सो सेवा करे सगरी झांकी मनोरथ भी करे भोग

लगावे परंतु समर्पण भाव ना होय तो भक्ति नहीं मिले प्रभु आरोगे नहीं और जो प्रेम सो जो बने सबरो समर्पण करे दुसरो का करे याको ध्यान ना रखे वो ही पुष्टि सेवा करे पुष्टि सेवा भाव और समर्पण की सेवा है जामे भक्त और भगवान को एक ही मानो है ..
याकि एक वार्ता श्री कुंम्भन दास की या प्रकार सो है ..
एक बार कुंभनदास जी बड़ी आतुरता पूर्वक प्रभु की राह देख रहे थे। और उस दीन प्रभु को आने में कुछ विलंब हुआ।
प्रभु आए और उन्हें देख कर कुंभनदास जी उत्सुक्ता पूर्वक पूछने लगे। अरे लाल आज तो बड़ी देर है गइ ?
तब प्रभु बोले क्या बताऊँ कुंभना (प्रभु कुंभनदास को सखा भावते कुंभना कहेते) आजतो चतुरानन ने परिक्रमा करते करते रोटी और बरी को साग आरोगायो। पर वो कम पड़ गयो और मे तो भुखो ही रहेगो।

और दूसरी तरफ माधवानंद ने भोग भी सराय लियो। माधवानंद को फिरसे भोग लगायवे को कह्यो। पर वह पंडित..। उसमें भाव नहीवत हो।सो वाके संतोष प्राप्त नाय भयो। दुसरी बार भी भुखो ही रहे गयो।
या लिए में तेरे पास आयो हो। कुंभना कछु होय तो मोको आरोगाव।
तब कुंभनदास दास शीध्र गए और अपनी रोटी की पोटली ले कर आए। पोटली देखकर प्रभु बोले,
अरे कुंभना तेने कछु खायो नाय भुखो है अभी ? तब कुंभनदास बडेही दीनता सो बोले अरे लाला अैसो कभु भयो हे जब मेने बिना तेरे भोजन कीयो होय ?
प्रभु बोले कुंभना आजतो तेरी गोदी में बैठकर अारोगवे को मन है। और प्रभु कुंभनदास की गोद में बीराजमान हो गए। कुंभनदास प्रभु के मस्तक पे हाथ फेरते हुए बड़े भाव से आरोगाने लगे। बैजर की रोटी और टेंटी को साग।

कुंभनदास ने कहा लाला बैर को संधानो मत खाइयों। तु बडोही नाजुक है। तेरे गले में अटक जाएगो। गोरस भी है वाय पीले।
वाह प्रभु स्वयं भक्त सखा की गोद में बीराजमान हो कर आरोग रहे हैं। भक्त और प्रभु दोनों की अांखे स्नेह अश्रू से छलकने लगी। अैसो स्नेह अैसो अदभुत अलौकिक सुख प्रभु ने कुंभनदास को दियो।
प्रभु जितनी बार गोरस को पीवें उतनी बार कुंभनदास की बंडी से अपने मुख को पोंछते जामे।और कुंभनदास प्रभु का मस्तक चुमकर स्नेह पूर्वक आरोगामे।
प्रभु बोले बस कुंभना मोय संतोष भयो। अब तु भी भोजन आरोग ले। प्रभु कुंभनदास की गोद से उतर कर सन्मुख बैठ गए। परंतु कुंभनदास तो भाव विभोर हो कर प्रभु को एक टक निहारते रहे…निहारते रहे।

तब प्रभु बोले कुंभना तु अैसे ना खा पाएगो। मे तेरी गोदी में बैठ जाओ। प्रभु कुंभनदास की गोद में बीराजमान हो कर कुंभनदास को अपने श्री हस्त से आरोगाने लगे।
अैसो है पुष्टि में भक्त को भगवान के प्रति और भगवान को भक्त के प्रति भाव और स्नेह।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
सभी वैष्णव जन को ~~~~

🌹 जय श्री राधे कृष्णा 🌹
🌿🙏🌿

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विरोध का सामना कैसे करें?


गंगा के तट पर एक संत अपने शिष्यों को शिक्षा दे रहे थे, तभी एक शिष्य ने पुछा, “ गुरू जी, यदि हम कुछ नया… कुछ अच्छा करना चाहते हैं पर समाज उसका विरोध करता है तो हमें क्या करना चाहिए?”

गुरु जी ने कुछ सोचा और बोले ,” इस प्रश्न का उत्तर मैं कल दूंगा।”

अगले दिन जब सभी शिष्य नदी के तट पर एकत्रित हुए तो गुरु जी बोले, “ आज हम एक प्रयोग करेंगे… इन तीन मछली पकड़ने वाली डंडियों को देखो, ये एक ही लकड़ी से बनी हैं और बिलकुल एक समान हैं।”

उसके बाद गुरु जी ने उस शिष्य को आगे बुलाया जिसने कल प्रश्न किया था।
गुरु जी ने निर्देश दिया – “ पुत्र, ये लो इस डंडी से मछली पकड़ो।”

शिष्य ने डंडी से बंधे कांटे में आंटा लगाया और पानी में डाल दिया। फ़ौरन ही एक बड़ी मछली कांटे में आ फंसी…

गुरु जी बोले-” जल्दी…पूरी ताकत से बाहर की ओर खींचो।“

शिष्य ने ऐसा ही किया ,उधर मछली ने भी पूरी ताकत से भागने की कोशिश की…फलतः डंडी टूट गयी।

गुरु जी बोले- “कोई बात नहीं; ये दूसरी डंडी लो और पुनः प्रयास करो…।”

शिष्य ने फिर से मछली पकड़ने के लिए काँटा पानी में डाला।

इस बार जैसे ही मछली फंसी, गुरु जी बोले, “आराम से… एकदम हल्के हाथ से डंडी को खींचो।”

शिष्य ने ऐसा ही किया, पर मछली ने इतनी जोर से झटका दिया कि डंडी हाथ से छूट गयी।

गुरु जी ने कहा, “ओह्हो, लगता है मछली बच निकली, चलो इस आखिरी डंडी से एक बार फिर से प्रयत्न करो।”

शिष्य ने फिर वही किया।

पर इस बार जैसे ही मछली फंसी गुरु जी बोले, “

सावधान! इस बार न अधिक जोर लगाओ न कम.. बस जितनी शक्ति से मछली खुद को अंदर की ओर खींचे उतनी ही शक्ति से तुम डंडी को बाहर की ओर खींचो.. कुछ ही देर में मछली थक जायेगी और तब तुम आसानी से उसे बाहर निकाल सकते हो”

शिष्य ने ऐसा ही किया और इस बार मछली पकड़ में आ गयी।

“ क्या समझे आप लोग?”
गुरु जी ने बोलना शुरू किया…” ये मछलियाँ उस समाज के समान हैं जो आपके कुछ करने पर आपका विरोध करता है।
यदि आप इनके खिलाफ अधिक शक्ति का प्रयोग करेंगे तो आप टूट जायेंगे, यदि आप कम शक्ति का प्रयोग करेंगे तो भी वे आपको या आपकी योजनाओं को नष्ट कर देंगे…

लेकिन यदि आप उतने ही बल का प्रयोग करेंगे जितने बल से वे आपका विरोध करते हैं तो धीरे-धीरे वे थक जाएंगे…
हार मान लेंगे…
और तब आप जीत जायेंगे…

इसलिए कुछ उचित करने में जब ये समाज आपका विरोध करे तो समान बल प्रयोग का सिद्धांत अपनाइये और अपने लक्ष्य को प्राप्त कीजिये।”

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भारत दर्शन

रात भीग चुकी थी। मैं बरामदे में खड़ा था। सामने अमीनुद्दौला पार्क नींद में डूबा खड़ा था । सिर्फ एक औरत एक तकियादार बेंच पर बैठी हुई थी । पार्क के बाहर सड़क के किनारे एक फ़कीर खड़ा राहगीरों को दुआयें दे रहा था – खुदा और रसूल का वास्ता… राम और भगवान का वास्ता – इस अन्धे पर रहम करो ।

सड़क पर मोटरों और सवारियों का तांता बन्द हो चुका था । इक्के-दुक्के आदमी नजर आ जाते थे । फ़कीर की आवाज जो पहले नक्कारखाने में तूती की आवाज थी, जब खुले मैदानों की बुलन्द पुकार हो रही थी । एकाएक वह औरत उठी और इधर-उधर चौकन्नी आंखों से देखकर फ़कीर के हाथ में कुछ रख दिया और फिर बहुत धीमे से कुछ कहकर एक तरफ़ चली गई । फ़कीर के हाथ में कागज का एक टुकड़ा नजर आया जिसे वह बार-बार मल रहा था । क्या उस औरत ने यह कागज दिया है ?

यह क्या रहस्य है? उसको जानने के कुतूहल से अधीर होकर मैं नीचे आया और फ़कीर के पास जाकर खड़ा हो गया ।

मेरी आहट आते ही फ़कीर ने उस कागज के पुर्जे को उंगलियों से दबाकर मुझे दिखाया और पूछा – बाबा, देखो यह क्या चीज है ?

मैंने देखा-दस रुपये का नोट था । बोला- दस रुपये का नोट है, कहाँ पाया ?

मैंने और कुछ न कहा । उस औरत की तरफ़ दौड़ा जो अब अन्धेरे में बस एक सपना बनकर रह गई थी । वह कई गलियों में होती हुई एक टूटे-फूटे मकान के दरवाजे पर रुकी, ताला खोला और अन्दर चली गई ।

रात को कुछ पूछना ठीक न समझकर मैं लौट आया ।

रात भर जी उसी तरफ़ लगा रहा । एकदम तड़के फ़िर मैं उस गली में जा पहुंचा । मालूम हुआ, वह एक अनाथ विधवा है । मैंने दरवाजे पर जाकर पुकारा- देवी, मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूँ ।

औरत बाहर निकल आई – गरीबी और बेकसी की जिन्दा तस्वीर ।

मैंने हिचकते हुए कहा- रात आपने फ़कीर…….

देवी ने बात काटते हुए कहा-” अजी, वह क्या बात थी, मुझे वह नोट पड़ा मिल गया था, मेरे किस काम का था ।

मैंने उस देवी के कदमों पर सिर झुका दिया ।

                                                                 - प्रेमचंद