ऋंगी ऋषि ने सोचा कि यदि यह राजा जीवित रहेगा तो इसी प्रकार ब्राह्मणों का अपमान करता रहेगा। इस प्रकार विचार करके उस ऋषिकुमार ने कमण्डल से अपनी अंजुली में जल ले कर तथा उसे मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके राजा परीक्षित को यह श्राप दे दिया कि जा तुझे आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा।
परीक्षित को श्रृंगी ऋषि का श्राप
डारि नाग ऋषि कंठ में, नृप ने कीन्हों पाप।
होनहार हो कर हुतो, ऋंगी दीन्हों शाप॥
जब शमीक ऋषि समाधि से उठे तो उनके पुत्र श्रृंगी ने सभी बातें अपने पिता को बताई। ऋषि बोले की बेटा तूने यह अच्छा नही किया। वो एक राजा है। और राजा में रजो गुण आ सकता है पर तू एक संत का बेटा है। तेरे अंदर क्रोध क्यू आया जो तूने श्राप दे दिया। कलयुग के प्रभाव के कारण उस राजा को क्रोध आ गया और उसने सर्प डाल दिया। राजा ने जान बूझ कर नहीं किया है। संत बोले बेटा अब तो श्राप वापिस हो नही सकता। तुम राजा के पास जाओ और इस बात की खबर दो की सातवें दिन तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।
ऋषि शमीक को अपने पुत्र के इस अपराध के कारण अत्यन्त पश्चाताप होने लगा।
जब परीक्षित महाराज अपने महल में पहुंचे और वो सोने का मुकुट उतारा तो कलयुग का प्रभाव समाप्त हो गया। अब परीक्षित जी महाराज सोच रहे है ये मैंने क्या कर दिया। एक संत के ब्राह्मण के, ऋषि के गले में सर्प डाल दिया। मैंने तो महापाप कर दिया। बहुत दुखी हो रहे है।
उसी समय ऋषि शमीक का भेजा हुआ एक गौरमुख नाम के शिष्य ने आकर उन्हें बताया कि ऋषिकुमार ने आपको श्राप दिया है कि आज से सातवें दिन तक्षक सर्प आपको डस लेगा। राजा परीक्षित ने शिष्य को प्रसन्नतापूर्वक आसन दिया और बोले – “ऋषिकुमार ने श्राप देकर मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। मेरी भी यही इच्छा है कि मुझ जैसे पापी को मेरे पाप के लिय दण्ड मिलना ही चाहिये। आप ऋषिकुमार को मेरा यह संदेश पहुँचा दीजिये कि मैं उनके इस कृपा के लिये उनका अत्यंत आभारी हूँ।” उस शिष्य का यथोचित सम्मान कर के और क्षमायाचना कर के राजा परीक्षित ने विदा किया।
अब परीक्षित जी महाराज ने तुरंत अपने पुत्रो जनमेजय आदि को बुलाया और राज काज का भार उनको सौंप दिया। और खुद सब कुछ छोड़ कर केवल एक लंगोटी में निकल गए है। और संकल्प ले लिया की अब ये जीवन भगवान की भक्ति में ही बीतेगा। अब तक मैंने भगवान को याद नही किया लेकिन अब और इस संसार में नही रहना है। वैराग्य हो गया।
परीक्षित का वैराग्य
परीक्षित जी महाराज गंगा नदी के तट पर पहुंचे है। जहाँ पर अत्रि, वशिष्ठ, च्यवन, अरिष्टनेमि, शारद्वान, पाराशर, अंगिरा, भृगु, परशुराम, विश्वामित्र, इन्द्रमद, उतथ्य, मेधातिथि, देवल, मैत्रेय, पिप्पलाद, गौतम, भारद्वाज, और्व, कण्डव, अगस्त्य, नारद, वेदव्यास आदि ऋषि, महर्षि और देवर्षि अपने अपने शिष्यों के साथ पहले से ही बैठे है।
राजा परीक्षित ने उन सभी का यथोचित समयानुकूल सत्कार करके उन्हें आसन दिया, उनके चरणों की वन्दना की और कहा – “यह मेरा परम सौभाग्य है कि आप जैस देवता तुल्य ऋषियों के दर्शन प्राप्त हुये। मैंने सत्ता के मद में चूर होकर परम तेजस्वी ब्राह्मण के प्रति अपराध किया है फिर भी आप लोगों ने मुझे दर्शन देने के लिये यहाँ तक आने का कष्ट किया यह आप लोगों की महानता है। मेरी इच्छा है कि मैं अपने जीवन के शेष सात दिनों का सदुपयोग ज्ञान प्राप्ति और भगवत्भक्ति में करूँ। अतः आप सब लोगों से मेरा निवेदन है कि आप लोग वह सुगम मार्ग बताइये जिस पर चल कर मैं भगवान को प्राप्त कर सकूँ?” परीक्षित जी महाराज पूछते है जिसकी मृत्यु निकट है ऐसे जीव को क्या करना चाहिए?
उसी समय वहाँ पर व्यास ऋषि के पुत्र, जन्म मृत्यु से रहित परमज्ञानी श्री शुकदेव जी पधारे। समस्त ऋषियों सहित राजा परीक्षित उनके सम्मान में उठ कर खड़े हो गये और उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद अर्ध्य, पाद्य तथा माला आदि से सूर्य के समान प्रकाशमान श्री शुकदेव जी की पूजा की और बैठने के लिये उच्चासन प्रदान किया। उनके बैठने के बाद अन्य ऋषि भी अपने अपने आसन पर बैठ गये। सभी के आसन ग्रहण करने के पश्चात् राजा परीक्षित ने मधुर वाणी मे कहा – “हे ब्रह्मरूप योगेश्वर! हे महाभाग! भगवान नारायण के सम्मुख आने से जिस प्रकार दैत्य भाग जाते हैं उसी प्रकार आपके पधारने से महान पाप भी अविलंब भाग खड़े होते हैं। आप जैसे योगेश्वर के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है पर आपने स्वयं मेरी मृत्यु के समय पधार कर मुझ पापी को दर्शन देकर मुझे मेरे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दिया है। आप योगियों के भी गुरु हैं, आपने परम सिद्धि प्राप्त की है। अतः कृपा करके यह बताइये कि मरणासन्न प्राणी के लिये क्या कर्तव्य है? उसे किस कथा का श्रवण, किस देवता का जप, अनुष्ठान, स्मरण तथा भजन करना चाहिये और किन किन बातों का त्याग कर देना चाहिये?
शुकदेव कहते है की ये प्रश्न केवल परीक्षित का नही है प्रत्येक जीव का है। क्योंकि हम सब मृत्य के निकट है। हमारी मृत्यु कभी ही हो सकती है। राजा को तो 7 दिन का समय भी मिल गया लेकिन हमें तो ये भी नही पता की हम किस दिन मरेंगे।
तो जवाब में शुकदेव कहते है जीवन के सात ही दिन है भैया! सोमवार से लेकर रविवार तक। और इन्ही सात दिनों में एक दिन हमारा दिन भी निश्चित है। इसलिए प्रत्येक दिन भगवान का स्मरण, कीर्तन और भजन करो।
परीक्षित की मुक्ति
इस प्रकार शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को श्रीमद् भागवत कथा का रस पान करवाया और इन्हे मुक्ति मिली। भगवान का लोक मिला है।
संजय गुप्ता