Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

राजा परीक्षित ने पूछा – भगवन! कालिय नाग ने नागों के निवास स्थान रमणक द्वीप को क्यों छोड़ा था? और उस अकेले ने ही गरुड़ जी का कौन-सा अपराध किया था?

श्री शुकदेव जी ने कहा – परीक्षित! पूर्वकाल में गरुड़ जी को उपहार स्वरूप प्राप्त होने वाले सर्पों ने यह नियम कर लिया था कि प्रत्येक मास में निर्दिष्ट वृक्ष के नीचे गरुड़ को एक सर्प की भेंट दी जाय।

इस नियम के अनुसार प्रत्येक अमावस्या को सारे सर्प अपनी रक्षा के लिये महात्मा गरुड़ जी को अपना-अपना भाग देते रहते थे। उन सर्पों में कद्रू का पुत्रकालिय नाग अपने विष और बल के घमण्ड से मतवाला हो रहा था।
उसने गरुड़ का तिरस्कार करके स्वयं तो बलि देना दूर रहा – दूसरे साँप जो गरुड़ को बलि देते, उसे भी खा लेता।

परीक्षित! यह सुनकर भगवान के प्यारे पार्षद शक्तिशाली गरुड़ को बड़ा क्रोध आया।
इसलिये उन्होंने कालिय नाग को मार डालने के विचार से बड़े वेग से उस पर आक्रमण किया।
विषधर कालिय नाग ने जब देखा कि गरुड़ बड़े वेग से मुझ पर आक्रमण करने आ रहे हैं, तब वह अपने एक सौ एक फण फैलाकर डसने के लिए उनपर टूट पड़ा।
उसके पास शस्त्र थे केवल दाँत, इसलिये अपने दाँतों से गरुड़ को डस लिया। उस समय वह अपनी भयावनी जीभें लपलपा रहा था, उसकी साँस लंबी चल रही थी और आँखें बड़ी डरावनी जान पड़ती थीं।

ताक्षर्यनन्दन गरुड़ जी विष्णुभगवान के वाहन हैं और उनका वेग तथा पराक्रम भी अतुलनीय है।
कालिय नाग की यह ढिठाई देखकर उनका क्रोध और भी बढ़ गया तथा उन्होंने अपने शरीर से झटककर फ़ेंक दिया एवं अपने सुनहले बायें पंख से कालिय नाग पर बड़े जोर से प्रहार किया। उनके पंख की चोट से कालिय नाग घायल हो गया।
वह घबड़ाकर वहाँ से भगा और यमुनाजी के इस कुण्ड में चला आया।

यमुना जी का यह कुण्ड गरुड़ के लिये अगम्य था।
साथ ही वह इतना गहरा था कि उसमें दूसरे लोग भी नहीं जा सकते थे।
इसी स्थान पर एक दिन क्षुधातुर गरुड़ ने तपस्वी सौभरि के मना करने पर भी अपने अभीष्ट भक्ष्य मत्स्य को बलपूर्वक पकड़कर खा लिया।
अपने मुखिया मत्स्यराज के मारे जाने के कारण मछलियों को बड़ा कष्ट हुआ। वे
अत्यन्त दीन और व्याकुल हो गयीं। उनकी यह दशा देखकर महर्षि सौभरि को बड़ी दया आयी।
उन्होंने उस कुण्ड में रहने-वाले सब जीवों की भलाई के लिये गरुड़ को यह शाप दे दिया।
यदि गरुड़ फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खायेंगे, तो उसी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। मैं यह सत्य-सत्य कहता हूँ।’

परीक्षित! महर्षि सौभरि के इस शाप की बात कालिय नाग के सिवा और कोई साँप नहीं जानता था।
इसलिये वह गरुड़ के भय से वहाँ रहने लगा था और अब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे निर्भय करके वहाँ से रमण द्वीप में भेज दिया।

परीक्षित! इधर भगवान श्रीकृष्ण दिव्य माला, गन्ध, वस्त्र, महामूल्य मणि और सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित हो उस कुण्ड से बाहर निकले।

संजय गुप्ता

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#संजू

लखनऊ में एक तवायफ थी #जद्दनबाई।
नामचीन हस्तियों की रातें गुलज़ार होतीं थीं उसके कोठे पर।

ये भारत की आज़ादी के पहले की बात है।
आते रहे नवाबज़ादे, सेठ, ठाकुर, अंग्रेज साहब और देखते ही देखते जद्दनबाई की गोद में तीन फूल खिला गए।
जद्दनबाई तवायफ थी मगर दूरदर्शी महिला थी। उसने वक्त की नब्ज़ पढ़ ली कि दो बेटे और एक बेटी के साथ इस कोठे पर कोई भविष्य नहीं है। कल बेटी तवायफ बनेगी और उसके भाई उसकी दलाली खाएंगे। जद्दनबाई ने मुंबई की गाड़ी पकड़ ली और बच्चों के साथ मुंबई आ गई। स्थानीय मुस्लिम समाज की सहायता से उसे सर छुपाने की जगह मिल गई और धंधा भी, वही पुराना वाला।

बेटी नरगिस को उसने फिल्मों में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी और अपने पहचान के लोगों से मदद लेकर उभरते हुए बॉलीवुड में प्रवेश करवा दिया।
नरगिस एक प्रतिभाशाली अभिनेत्री साबित हुई और नई दूकान अच्छी तरह चल निकली। भाई लोगों को भी जूनियर आर्टिस्ट टाइप रोल मिलने लगे।
इसी समय लाहौरी लाला राज कपूर के नैना नरगिस से लड़ गए और फिर ये कहानी लंबी चली।
पृथ्वीराज कपूर को तवायफ की बेटी अपनी बहू के रूप में स्वीकार नहीं हुई और ये इश्क आधे रास्ते में ही निपट गया। तबतक राज कपूर और नरगिस के संबंध में बस विवाह की औपचारिकता बाकी थी। बाकी सब कुछ हो चुका था।
जबलपुर की घरेलू लड़की कृष्णा से विवाह कर राज कपूर ने कल्टी मार ली। नरगिस फोकट में लुटीपिटी भौंचक्की देखती रही।
इसके बाद उसका कैरियर ढलान पर आने लगा । अपनी संध्या वेला में उसने ख़्वाजा अहमद अब्बास की कालजयी रचना #मदरइंडिया की। इसमें उसके पुत्र की भूमिका निभाई थी तब के दमदार अभिनेता #सुनीलदत्त ने। फिल्म के एक दृश्य में आग में घिरने का सीन शूट करते हुए नरगिस सचमुच आग में घिर गई।
तब सुनील दत्त ने जान पर खेल कर उसको बचाया। इसके बाद परदे पर मां बेटे को प्यार हुआ और फिर उन्होंने शादी कर ली। नरगिस सुनील दत्त से उम्र में खासी बड़ी थी।

सुनील दत्त पंजाब के हुसैनी ब्राह्मण परिवार से हैं। हुसैनी ब्राह्मण वो लोग हैं जो कर्बला के युद्ध में हसन हुसैन की तरफ से वीरता से लड़े थे। ये भारत से वहाँ गए थे।

सुनील दत्त के परिवार को ये बेहूदा रिश्ता हजम नहीं हो सका होगा इसलिये आजतक उनके बारे में कोई चर्चा नहीं होती।
दो मुसलमान मामाओं और उनके मित्रों की परवरिश से सुनील दत्त का बेटा #संजय_दत्त हिंदुओं के प्रति घृणा पालते हुए बड़ा हुआ। नरगिस की मौत पर इन लोगों ने उसे हिंदू सुहागिन की तरह अंत्येष्टि प्राप्त नहीं होने दी और जद्दनबाई की कब्र के पास दफनाने को लेकर शवयात्रा में ही बवाल खड़ा कर दिया।
संजय दत्त अपने मामाओं के साथ था।

बाबरी विध्वंस के समय संजय दत्त के मन में हिंदुओं के लिए घृणा का उफान था और उसने दाउद इब्राहिम के विस्फोटक सामग्री से लदे दो ट्रक एक रात भर के लिए अपने यहाँ छुपाए। बदले में उसे दो ए.के. 47 गिफ्ट दी गई।
बमकाण्ड में गिरफ्तारी के बाद जेलयात्रा के लंबे अनुभव से उसे कुछ अकल आई होगी ऐसा सोचना मूर्खता होगी।

अभी जम्मू के कठुआ में एक मुस्लिम बच्ची के पाशविक बलात्कार पर जम्मू कश्मीर पुलिस के हिंदुओं पर थोपे झूठे केस में ये महान अभिनेता हिंदू होने पर शर्मसार होता दिखाई दिया था।
किंतु मंदसौर में साफ साफ इस्लामी बलात्कार के खिलाफ बोलने की न इसमें हिम्मत है और न इसे कोई संवेदना है।

ऐसे लोगों पर फिल्में बन रही हैं और हम मरे जा रहे हैं देखने के लिए। फिल्म बनाने वाले #राजकुमार_हीरानी की तारीफ़ में क्या कहें??? इतना ही पर्याप्त है कि इनकी पिछली फिल्म #पीके हिंदू धर्म का मजाक उड़ाने के लिए ही बनी थी और हमने उसे भी ५००+ करोड़ की कमाई दी थी।
राष्ट्रवादी भविष्य में संन्यासी ही होंगे। दीमक अंदर तक घुस गई है। अब इस वृक्ष को आग लगा कर ही समस्त वन को बचाया जा सकता है।
#BoycottMovie”SANJU”

निओ डीप

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एक भोला-भाला आदमी संत-महापुरुष के पास जाकर बोलाः “मुझे गुरु बना दो।”
गुरुजीः “बेटा ! पहले शिष्य तो बन !”
“शिष्य-विष्य नहीं बनना, मुझे गुरु बनाओ। तुम जो भी कहोगे, वह सब करूँगा।”
गुरुजी ने देखा कि यह आज्ञा पालने की तो बात करता है।
बोलेः “बेटा ! मैं तेरे को कैसा लगता हूँ ?”
वह लड़का गाय-भैंस चराता था, गडरिया था। बोलाः “बापजी ! आपके तो बड़े-बड़े बाल हैं, बड़ी-बड़ी जटाएँ हैं। आप तो मुझे ढोर (पशु) जैसे लगते हो।”
बाबा ने देखा, निर्दोष-हृदय तो हैं पर ढोर चराते-चराते इसकी ढोर बुद्धि हो गयी है। बोलेः “जाओ, तीर्थयात्रा करो, भिक्षा माँग के खाओ। कहीं तीन दिन से ज्यादा नहीं रहना।”
ऐसा करते-करते सालभर के बाद गुरुपूनम को आया। गुरु जीः “बेटा ! कैसा लगता हूँ ?”
बोलेः “आप तो बहुत अच्छे आदमी लग रहे हो।”
बाबा समझ गये कि अभी यह अच्छा आदमी हुआ है इसीलिए मैं इसे अच्छा आदमी दिख रहा हूँ। सालभर का और नियम दे दिया। फिर आया।
गुरुजीः “अब कैसा लगता हूँ ?”
“बाबाजी ! आप तो देवता हो, देवता !”
बाबा ने देखा, इसमें सात्त्विकता आयी है, देवत्त्व आया है। बाबा ने अब मंत्र दिया। बोलेः “इतना जप करना।”
जप करते-करते उसका अंतःकरण और शुद्ध हुआ, और एकाग्रता हुई। कुछ शास्त्र पढ़ने को गुरु जी ने आदेश दिया। घूमता-घामता, तपस्या, साधन-भजन करता-करता सालभर के बाद आया।
गुरु जी ने पूछाः “बेटा ! अब मैं कैसा लग रहा हूँ ?”
“गुरु जी ! आप देवता हैं – यह मेरी अल्प बुद्धि थी। देवता तो पुण्य का फल भोगकर नीचे आ रहे हैं और आप तो दूसरों के भी पाप-ताप काटकर उनको भगवान से मिला रहे हैं। आप तो भगवान जैसे हैं।”
गुरु ने देखा, अभी इसका भाव भगवदाकार हुआ है। बोलेः “ठीक है। बेटा ! ले, यह वेदान्त का शास्त्र। भगवान किसे कहते हैं और जीव किसको कहते हैं, यह पढ़ो। जहाँ ऐसा ज्ञान मिले वहीं रहना और इस ज्ञान का अनुसंधान करना।”
वह उसी ज्ञान का अनुसंधान करता लेकिन ज्ञान का अनुसंधान करते-करते आँखें, मन इधर-उधर जाते तो गुरुमूर्ति को याद करता। गुरुमूर्ति को याद करते-करते गुरु तत्त्व के साथ तादात्म्य होता और गुरु-तत्त्व के साथ तादात्म्य करते-करते सारे देवी-देवताओं का जो सारस्वरूप है – गुरु तत्त्व, उसमें उसकी स्थिति होने लगी। आया गुरुपूनम को।
गुरु ने कहाः “बेटा ! मैं कैसा लगता हूँ ?”
अब उसकी आँखें बोल रही हैं, वाणी उठती नहीं। पर गुरु जी को जवाब तो देना है, बोलाः “गुरु जी ! आप पशु लग रहे थे, यह मेरी दुष्ट दृष्टि थी। अच्छे मनुष्य, देवता या भगवान लग रहे थे, यह सारी मेरी अल्प मति थी। आप तो साक्षात् परब्रह्म हैं। भगवान तो कर्मबंधन से भेजते हैं और आप कर्मबंधन को काटते हैं। देवता राजी हो जाता है तो स्वर्ग देता है, भगवान प्रसन्न हो जायें तो वैकुंठ देते हैं लेकिन आप प्रसन्न हो जाते हैं तो अपने आत्मस्वरूप का दान करते हैं। जीव जिससे जीव है, ईश्वर जिससे ईश्वर है, उस परब्रह्म-परमात्मा का स्पर्श और अनुभव कराने वाले आप तो साक्षात् परब्रह्म-परमात्मा हैं।”
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
साक्षात् अठखेलियाँ करता जो निर्गुण-निराकार परब्रह्म है, वही तुम सगुण-साकार रूप लेकर आये हो मेरे कल्याण के लिए।
इसी प्रकार भागवत में आता है कि जब रहूगण राजा से जड़भरत की भेंट हुई तो उसने जड़भरत को पहले डाँटा, अपमानित किया पर बाद में जब पता चला कि ये कोई महापुरुष हैं तो रहूगण राजा उनको प्रणाम करता है। तब जड़भरत ने बतायाः “अहं पुरा भरतो नाम राजा….अजनाभ खंड का नाम जिसके नाम से ʹभारतवर्षʹ पड़ा, वह मैं भरत था। मैं तपस्या करके तपस्वी तो हो गया लेकिन तत्त्वज्ञानी सदगुरु का सान्निध्य और आत्मज्ञआन न होने से हिरण के चिंतन में फँसकर हिरण बन गया और हिरण में से अभी ब्राह्मण-पुत्र जड़भरत हुआ हूँ।” इतना सुनने के बाद भी रहूगण कहता हैः “महाराज ! आप तो साक्षात् परब्रह्म हैं। मेरे कल्याण के लिए ही आपने लीला की है।” वह यह नहीं कहता कि ʹहिरण में से अभी साधु बने हो। मैं आपको प्रणाम करता हूँ।ʹ नहीं, आप साक्षात परब्रह्म हैं। मेरे कल्याण के लिए ही हिरण बनने की और ये जड़भरत बनने की आपकी लीला है।ʹ ऐसी दृढ़ श्रद्धा हुई तब उसको ज्ञान भी तो हो गया !
गुरु को पाना यह तो सौभाग्य है लेकिन उनमें श्रद्धा टिकी रहना यह परम सौभाग्य है। कभी-कभी तो नजदीक रहने से उनमें देहाध्यास दिखेगा। उड़िया बाबा कहते हैं- “गुरु को शरीर मानना श्रद्धा डगमग कर देगा।” गुरु का शरीर तो दिखेगा लेकिन ʹशरीर होते हुए भी वे अशरीरी आत्मा हैंʹ – इस प्रकार का भाव दृढ़ होगा तभी श्रद्धा टिकेगी व ज्ञान की प्राप्ति होगी।

ज्योति अग्रवाल

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एक भोला-भाला आदमी संत-महापुरुष के पास जाकर बोलाः “मुझे गुरु बना दो।”
गुरुजीः “बेटा ! पहले शिष्य तो बन !”
“शिष्य-विष्य नहीं बनना, मुझे गुरु बनाओ। तुम जो भी कहोगे, वह सब करूँगा।”
गुरुजी ने देखा कि यह आज्ञा पालने की तो बात करता है।
बोलेः “बेटा ! मैं तेरे को कैसा लगता हूँ ?”
वह लड़का गाय-भैंस चराता था, गडरिया था। बोलाः “बापजी ! आपके तो बड़े-बड़े बाल हैं, बड़ी-बड़ी जटाएँ हैं। आप तो मुझे ढोर (पशु) जैसे लगते हो।”
बाबा ने देखा, निर्दोष-हृदय तो हैं पर ढोर चराते-चराते इसकी ढोर बुद्धि हो गयी है। बोलेः “जाओ, तीर्थयात्रा करो, भिक्षा माँग के खाओ। कहीं तीन दिन से ज्यादा नहीं रहना।”
ऐसा करते-करते सालभर के बाद गुरुपूनम को आया। गुरु जीः “बेटा ! कैसा लगता हूँ ?”
बोलेः “आप तो बहुत अच्छे आदमी लग रहे हो।”
बाबा समझ गये कि अभी यह अच्छा आदमी हुआ है इसीलिए मैं इसे अच्छा आदमी दिख रहा हूँ। सालभर का और नियम दे दिया। फिर आया।
गुरुजीः “अब कैसा लगता हूँ ?”
“बाबाजी ! आप तो देवता हो, देवता !”
बाबा ने देखा, इसमें सात्त्विकता आयी है, देवत्त्व आया है। बाबा ने अब मंत्र दिया। बोलेः “इतना जप करना।”
जप करते-करते उसका अंतःकरण और शुद्ध हुआ, और एकाग्रता हुई। कुछ शास्त्र पढ़ने को गुरु जी ने आदेश दिया। घूमता-घामता, तपस्या, साधन-भजन करता-करता सालभर के बाद आया।
गुरु जी ने पूछाः “बेटा ! अब मैं कैसा लग रहा हूँ ?”
“गुरु जी ! आप देवता हैं – यह मेरी अल्प बुद्धि थी। देवता तो पुण्य का फल भोगकर नीचे आ रहे हैं और आप तो दूसरों के भी पाप-ताप काटकर उनको भगवान से मिला रहे हैं। आप तो भगवान जैसे हैं।”
गुरु ने देखा, अभी इसका भाव भगवदाकार हुआ है। बोलेः “ठीक है। बेटा ! ले, यह वेदान्त का शास्त्र। भगवान किसे कहते हैं और जीव किसको कहते हैं, यह पढ़ो। जहाँ ऐसा ज्ञान मिले वहीं रहना और इस ज्ञान का अनुसंधान करना।”
वह उसी ज्ञान का अनुसंधान करता लेकिन ज्ञान का अनुसंधान करते-करते आँखें, मन इधर-उधर जाते तो गुरुमूर्ति को याद करता। गुरुमूर्ति को याद करते-करते गुरु तत्त्व के साथ तादात्म्य होता और गुरु-तत्त्व के साथ तादात्म्य करते-करते सारे देवी-देवताओं का जो सारस्वरूप है – गुरु तत्त्व, उसमें उसकी स्थिति होने लगी। आया गुरुपूनम को।
गुरु ने कहाः “बेटा ! मैं कैसा लगता हूँ ?”
अब उसकी आँखें बोल रही हैं, वाणी उठती नहीं। पर गुरु जी को जवाब तो देना है, बोलाः “गुरु जी ! आप पशु लग रहे थे, यह मेरी दुष्ट दृष्टि थी। अच्छे मनुष्य, देवता या भगवान लग रहे थे, यह सारी मेरी अल्प मति थी। आप तो साक्षात् परब्रह्म हैं। भगवान तो कर्मबंधन से भेजते हैं और आप कर्मबंधन को काटते हैं। देवता राजी हो जाता है तो स्वर्ग देता है, भगवान प्रसन्न हो जायें तो वैकुंठ देते हैं लेकिन आप प्रसन्न हो जाते हैं तो अपने आत्मस्वरूप का दान करते हैं। जीव जिससे जीव है, ईश्वर जिससे ईश्वर है, उस परब्रह्म-परमात्मा का स्पर्श और अनुभव कराने वाले आप तो साक्षात् परब्रह्म-परमात्मा हैं।”
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
साक्षात् अठखेलियाँ करता जो निर्गुण-निराकार परब्रह्म है, वही तुम सगुण-साकार रूप लेकर आये हो मेरे कल्याण के लिए।
इसी प्रकार भागवत में आता है कि जब रहूगण राजा से जड़भरत की भेंट हुई तो उसने जड़भरत को पहले डाँटा, अपमानित किया पर बाद में जब पता चला कि ये कोई महापुरुष हैं तो रहूगण राजा उनको प्रणाम करता है। तब जड़भरत ने बतायाः “अहं पुरा भरतो नाम राजा….अजनाभ खंड का नाम जिसके नाम से ʹभारतवर्षʹ पड़ा, वह मैं भरत था। मैं तपस्या करके तपस्वी तो हो गया लेकिन तत्त्वज्ञानी सदगुरु का सान्निध्य और आत्मज्ञआन न होने से हिरण के चिंतन में फँसकर हिरण बन गया और हिरण में से अभी ब्राह्मण-पुत्र जड़भरत हुआ हूँ।” इतना सुनने के बाद भी रहूगण कहता हैः “महाराज ! आप तो साक्षात् परब्रह्म हैं। मेरे कल्याण के लिए ही आपने लीला की है।” वह यह नहीं कहता कि ʹहिरण में से अभी साधु बने हो। मैं आपको प्रणाम करता हूँ।ʹ नहीं, आप साक्षात परब्रह्म हैं। मेरे कल्याण के लिए ही हिरण बनने की और ये जड़भरत बनने की आपकी लीला है।ʹ ऐसी दृढ़ श्रद्धा हुई तब उसको ज्ञान भी तो हो गया !
गुरु को पाना यह तो सौभाग्य है लेकिन उनमें श्रद्धा टिकी रहना यह परम सौभाग्य है। कभी-कभी तो नजदीक रहने से उनमें देहाध्यास दिखेगा। उड़िया बाबा कहते हैं- “गुरु को शरीर मानना श्रद्धा डगमग कर देगा।” गुरु का शरीर तो दिखेगा लेकिन ʹशरीर होते हुए भी वे अशरीरी आत्मा हैंʹ – इस प्रकार का भाव दृढ़ होगा तभी श्रद्धा टिकेगी व ज्ञान की प्राप्ति होगी।

ज्योति अग्रवाल

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3 जुलाई/पुण्य-तिथि

विरक्त सन्त स्वामी रामसुखदास जी

धर्मप्राण भारत में एक से बढ़कर एक विरक्त सन्त एवं महात्माओं ने जन्म लिया है। ऐसे ही सन्तों में शिरोमणि थे परम वीतरागी स्वामी रामसुखदेव जी महाराज। स्वामी जी के जन्म आदि की ठीक तिथि एवं स्थान का प्रायः पता नहीं लगता; क्योंकि इस बारे में उन्होंने पूछने पर भी कभी चर्चा नहीं की। फिर भी जिला बीकानेर (राजस्थान) के किसी गाँव में उनका जन्म 1902 ई. में हुआ था, ऐसा कहा जाता है।

उनका बचपन का नाम क्या था, यह भी लोगों को नहीं पता; पर इतना सत्य है कि बाल्यवस्था से ही साधु सन्तों के साथ बैठने में उन्हें बहुत सुख मिलता था। जिस अवस्था में अन्य बच्चे खेलकूद और खाने-पीने में लगे रहते थे, उस समय वे एकान्त में बैठकर साधना करना पसन्द करते थे। बीकानेर में ही उनका सम्पर्क श्री गम्भीरचन्द दुजारी से हुआ। दुजारी जी भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार एवं सेठ जयदयाल गोयन्दका के आध्यात्मिक विचारों से बहुत प्रभावित थे। इस प्रकार रामसुखदास जी भी इन महानुभावों के सम्पर्क में आ गये।

जब इन महानुभावों ने गोरखपुर में ‘गीता प्रेस’ की स्थापना की, तो रामसुखदास जी भी उनके साथ इस काम में लग गये। धर्म एवं संस्कृति प्रधान पत्रिका ‘कल्याण’ का उन्होंने काफी समय तक सम्पादन भी किया। उनके इस प्रयास से ‘कल्याण’ ने विश्व भर के धर्मप्रेमियों में अपना स्थान बना लिया। इस दौरान स्वामी रामसुखदास जी ने अनेक आध्यात्मिक ग्रन्थों की रचना भी की। धीरे-धीरे पूरे भारत में उनका एक विशिष्ट स्थान बन गया।

आगे चलकर भक्तों के आग्रह पर स्वामी जी ने पूरे देश का भ्रमणकर गीता पर प्रवचन देने प्रारम्भ किये। वे अपने प्रवचनों में कहते थे कि भारत की पहचान गाय, गंगा, गीता, गोपाल तथा गायत्री से है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जब-जब शासन ने हिन्दू कोड बिल और धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हिन्दू धर्म तथा संस्कृति पर चोट करने का प्रयास किया, तो रामसुखदास जी ने डटकर शासन की उस दुर्नीति का विरोध किया।

स्वामी जी की कथनी तथा करनी में कोई भेद नहीं था। सन्त जीवन स्वीकार करने के बाद उन्होंने जीवन भर पैसे तथा स्त्री को स्पर्श नहीं किया। यहाँ तक कि अपना फोटो भी उन्होंने कभी नहीं खिंचने दिया। उनके दूरदर्शन पर आने वाले प्रवचनों में भी केवल उनका स्वर सुनाई देता था; पर चित्र कभी दिखायी नहीं दिया।

स्वामी जी ने अपनी कथाओं में कभी पैसे नहीं चढ़ने दिये। उनका कोई बैंक खाता भी नहीं था। उन्होंने अपने लिए आश्रम तो दूर, एक कमरा तक नहीं बनाया। उन्होंने किसी पुरुष या महिला को अपना शिष्य भी नहीं बनाया। यदि कोई उनसे शिष्य बना लेने की प्रार्थना करता था, तो वे ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम’ कहकर उसे टाल देते थे।

तीन जुलाई, 2005 (आषाढ़ कृष्ण 11) को ऋषिकेश में 103 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना शरीर छोड़ा। उनकी इच्छानुसार देहावसान के बाद गंगा के तट पर दो चिताएँ बनायी गयीं। एक में उनके शरीर का तथा दूसरी पर उनके वस्त्र, माला, पूजा सामग्री आदि का दाह संस्कार हुआ। इस प्रकार परम वीतरागी सन्त रामुसखदास जी ने देहान्त के बाद भी अपना कोई चिन्ह शेष नहीं छोड़ा, जिससे कोई उनका स्मारक न बना सके।

चिताओं की अग्नि शान्त होने पर अचानक गंगा की एक विशाल लहर आयी और वह समस्त अवशेषों को अपने साथ बहाकर ले गयी। इस प्रकार माँ गंगा ने अपने प्रेमी पुत्र को बाहों में समेट लिया।

ज्योति अग्रवाल

Posted in संस्कृत साहित्य

क्या ऐसा ग्रंथ किसी अन्य धर्म मैं है ?
मेरे विचार से तो यह सात आश्चर्यों में से पहला आश्चर्य है —

” दक्षिण का एक ग्रन्थ ”

क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो रामायण की कथा पढ़ी जाए और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े
तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे।

जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ “राघवयादवीयम्” ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ को
‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे
पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और
विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक।

पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है ~ “राघवयादवीयम।”

उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो
जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

विलोमम्:

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के
चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ
विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

” राघवयादवीयम” के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं:-

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्:
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्:
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्:
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्:
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥

विलोमम्:
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्:
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्:
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्:
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्:
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥

विलोमम्:
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्:
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्:
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्:
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्:
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥

विलोमम्:
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७ विलोमम्:
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्:
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्:
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्:
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।

हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि ॥ २१॥

विलोमम्:
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्:
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्:
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्:
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्:
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्:
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्:
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्:
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।स
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥

॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री ।।

कृपया अपना थोड़ा सा कीमती वक्त निकाले और उपरोक्त श्लोको को गौर से अवलोकन करें की दुनिया में कहीं भी ऐसा नही पाया गया ग्रंथ है ।

शत् शत् प्रणाम 🙏 ऐसे रचनाकार को।

निओ डीप

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शमार्थं सर्वशास्त्राणि विहितानि मनीषिभिः।
स एव सर्वशास्त्रज्ञः यस्य शान्तं मनः सदा॥

महाभारतम्

शम pacification calming
अर्थ intention, objective
शमार्थ objective of pacification (of mind) द्वितीयैकवचनान्तः
→ शमार्थं

सर्व all
शास्त्र treatise, scripture
सर्वशास्त्र all treatises प्रथमाबहुवचनान्त:
→ सर्वशास्त्राणि

विहित contrived, prescribed प्रथमाबहुवचनान्त:
→ विहितानि

मनीषिन् wise, contemplative तृतीयाबहुवचनान्तः
→ मनीषिभिः

तद् that प्रथमैकवचनान्तः
→ स:

एव alone

सर्व all
शास्त्र treatise, scripture
ज्ञ (समासान्ते) one who knows, cognizant
सर्वशास्त्रज्ञ cognizant of all treatises प्रथमैकवचनान्तः
→ सर्वशास्त्रज्ञः

यद् who षष्ठ्येकवचनान्तः
→ यस्य

शान्त calm प्रथमैकवचनान्तः
→ शान्तं

मनस् mind प्रथमैकवचनान्तः
→ मनः

सदा always

मनाला शांत ठेवण्याच्या हेतुने चिंतनशील ऋषींनी शास्त्रे रचली. या शास्त्रांच्या अभ्यासाने ज्याचे मन नेहमीच शांत रहाते त्यानेच या सर्व शास्त्रांना खरोखर समजून घेतलेले असते.

The contemplative sages contrived all the treatises with objective of pacification of mind. He, whose mind always remains calm on account of learning them, has indeed cognized all these treatises.

चिंतनशील ऋषियों ने मन को शांत रखने हेतु शास्त्रों को रचाया हैं। इन शास्त्रों को पढने से जिसका मन नित्य शांत रहता हैं, उसी ने उन सभी शास्त्रों को सहि मायने में समझ लिया हैं।
विजय भाते

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एक पंडित एक होटल में जाता है
और वहा पर मैनेजर को बुलाता है
और कहता है कि “क्या रूमनंबर 39 खाली है?

मैनेजर:- हा वो खाली है आप वो रूम ले सकते है,,,

पंडित:- ठीक है मुझे वो रूम दे दो
और
मुझे एक चाकू,
एक 3 इंच का काला धागा
और
एक 79 ग्राम का संतरा भी दे दो,,,

मैनेजर:- ठीक है
और हा मेरा कमरा आपके कमरे के ठीक सामने है
अगर आपको कोई दिक्कत होती है तो तुम मुझे आवाज दे देना,,,

पंडित:- ठीक है,,,

रात को…………….

पंडित के कमरे से तेजी से

चीखने चिल्लाने की

और

प्लेटो के टूटने की आवाज आने लगती है

इन आवाजो के कारण मैनेजर सो भी नही पाता

और वो रात भर इस ख्याल से बैचेन होने लगता है
कि आकिर उस कमरे में हो क्या रहा है?

अगली सुबह………….

जैसे ही मैनेजर पंडित के कमरे में जाता है

वहाँ पर उसे पता चलता है

कि पंडित होटल से चला गया है

और कमरे में सब कुछ वैसे का वैसा ही है

और टेबल पर चाकू रखा हुआ है,,

मैनेजर ये सोचने लगता है

कि जो उसने सुना
कही उसका मात्र वहम तो नही था,,

और ऐसे ही एक साल बीत जाता है,,,

एक साल बाद……..

वही पंडित फिर से उसी होटल में आता है

और रूम नंबर 39 के बारे में पूछता है,,

मैनेजर:- हा रूम 39 खाली है आप उसे ले सकते हो,,,

पंडित:- मुझे एक चाकू,
एक 3 इंच का धागा और
एक 79 ग्राम का संतरा भी चाहिए होगा,,,

मैनेजर:- ठीक है,,,

उस रात में मैनेजर रात को सोया नही

वो जानना चाहता था कि

आखिर रात में उस कमरे में होता क्या है

तभी वो आवाजे फिर से आनी चालू हो जाती है और

मैनेजर पंडित के कमरे के पास जाता है

चूंकी उसका और पंडित का कमरा आमने-सामने था

इस लिए वहाँ पहुचने में उसे ज्यादा समय नही लगा

लेकिन दरवाजा लॉक था

यहाँ तक कि मैनेजर की वो मास्टर चाभी जिससे हर रूम खुल जाता था

वो भी उस रूम 39 में काम नही करी

आवाजो से उसका सिर फटा जा रहा था

आखिर दरवाजा खुलने के इंतजार में वो दरवाजे के पास ही सो गया,,,

अगली सुबहा………..

जब मैनेजर उठा

तो उसने देखा

कि कमरा तो खुल गया है

लेकिन पंडित उसमे नही है

वो जल्दी से गेट के पास भा गा

लेकिन उसके आने से चंद मिनट पहले ही
पंडित जा चुका था,,,

उसने वेटर से पूछा

तो वेटर ने बताया कि कुछ समय पहले ही पंडित यहाँ से चला गया

और जाते वक्त

उनसे होटल के सभी वेटरों को अच्छी खासी टिप भी दी,,

मैनेजर बिलबिला के रह गया

उसने निश्चय कर लिया

की मार्च में वो पता करके रहेगा

कि आखिर ये पंडित और रूम 39 का राज क्या है…

मार्च वही महीना था

जिस महीने में हर साल पंडित एक दिन के लिए उस होटल आता था,,

अगले साल……..

अगले साल फिर
वही पंडित आता है और रूमनंबर 39 मांगता है,,

मैनेजर:- हा आपको वो रूम मिल जाएगा

पंडित:- मुझे एक 3 इंच का धा गाएक 79 ग्राम का संतरा और एक धार दार चाकू भी चाहिए,,,

मैनेजर:- जी ठीक है,,,

रात को…..

इस बार
मैनेजर रात में बिल्कुल नही सोया

और वो लगातार उस कमरे से आती हुई आवाजो को सुनता रहा

जैसी ही सुबह हुई

और पंडित ने कमरा खोला

मैनेजर कमरे में घुस गया

और पंडित से बोला

आखिर तुम रात को इन सब चीजों के साथ इस कमरे में क्या करते हो..?

ये आवाजे कहा से अति है..?

जल्दी बताओ..?

पंडितने कहा कि मैं तुम्हे ये राज

तो बता दुगा लेकिन

एक शर्त है

तुम ये राज किसी को नही बताओगे,,,

चुँकी मैनेजर एक ईमानदार आदमी था

तो उसने वो राज आज तक किसी को नही बताया

और अगर ये राज
वो किसी को बताएगा
औऱ मुझे पता चलेगा
तो मैं आपको मेसेज कर दुँगा,,,

ध्यान से पढ़ने के लिए धन्यवाद

🤣🤣🤣🤣🤣🤣

रीस तो मने भी गणी अई ओ message पढ़ न । पर आगे भेज ने कालजो ठंडो वेइग्यो है 😷