मित्रोआज शनिवार है, आज हम आपको हनुमान जी द्वारा शनिदेव को दण्ड,देने की कथा बतायेगें!!!!!!!
एक बार की बात है। शाम होने को थी। शीतल मंद-मंद हवा बह रही थी। हनुमान जी रामसेतु के समीप राम जी के ध्यान में मग्न थे। ध्यानविहीन हनुमान को बाह्य जगत की स्मृति भी न थी।
उसी समय सूर्य पुत्र शनि समुद्र तट पर टहल रहे थे। उन्हें अपनी शक्ति एवं पराक्रम का अत्यधिक अहंकार था। वे मन-ही-मन सोच रहे थे-‘मुझमें अतुलनीय शक्ति है। सृष्टि में मेरा सामना करने वाला कोई नहीं है। टकराने की बात ही क्या, मेरेे आने की आहट से ही बड़े-बड़े रणधीर एवं पराक्रमशील मनुष्ट ही नहीं, देव-दैत्य तक काँप उठते हैं। मैं क्या करूं, किसके पास जाऊँ, जहाँ दो-दो हाथ कर सकूं। मेरी शक्ति का कोई ढंग से उपयोग ही नहीं हो पा रहा है।’
जब शनिदेव यह विचार कर रहे थे, उनकी दृष्टि श्रीराम भक्त हनुमान पर पड़ी। उन्होंने हनुमान जी से ही दो हाथ करने की सोची। युद्ध का निश्चय कर शनि उनके पास पहुँचे।
हनुमान के समीप पहुँच कर अत्यधिक उद्दण्डता का परिचय देते हुए शनि ने अत्यन्त कर्कश आवाज़ में कहा-‘बंदर! मैं महाशक्तिशाली शनि तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हूँं। मैं तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ। अपना फालतू का पाखण्ड त्याग कर खड़े हो जाओ, और युद्ध करो।’
तिरस्कार करने वाली अत्यन्त कड़वी वाणी सुनकर भक्तराज हनुमान ने अपने नेत्र खोले और बड़ी ही शालीनता एवं शान्ति से पूछा-‘महाराज! आप कौन हैं और यहाँ पधारने का आपका क्या उद्देश्य है?’
शनि ने अहंकारपूर्वक कहा-‘मैं परम तेजस्वी सूर्य का परम पराक्रमी पुत्र शनि हूँ। जगत मेरा नाम सुनते ही काँप उठता है। मैंने तुम्हारे बल-पौरुष की कितनी गाथाएँ सुनी हैं। इसलिये मैं तुम्हारी शक्ति की परीक्षा करना चाहता हूँ। सावधान हो जाओ, मैं तुम्हारी राशि पर आ रहा हूँ।’
हनुमान जी ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक कहा-‘शनिदेव! मैं काफी थका हूँ और अपने प्रभु का ध्यान कर रहा हूँ। इसमें व्यधान मत डालिये। कृपापूर्वक अन्यत्र चले जाइये।’
घमण्डी शनि ने अहंकारपूर्वक कहा-‘मैं कहीं जाकर लौटना नहीं जानता और जहाँ जाता हूँ, वहाँ अपना प्रभाव तो स्थापित कर ही देता हूँ।’
हनुमान जी ने बार-बार प्रार्थना की-‘देव! मैं थका हुआ हूँ। युद्ध करने की शक्ति मुझमें नहीं है। मुझे अपने भगवान श्रीराम का स्मरण करने दीजिए। आप यहाँ से जाकर किसी और वीर को ढूँढ लीजिए। मेरे भजन ध्यान में विध्न उपस्थिति मत कीजिए।’
‘कायरता तुम्हें शोभा नहीं देता।’घमण्ड से भरे शनि ने हनुमान की अवमानना के साथ व्यंगपूर्वक तीक्ष्ण स्वर मे कहा-‘तुम्हारी स्थिति देखकर मुझे तुम पर दया तो आ रही है, किंतु युद्ध तो तुमसे मैं अवश्य करूंगा।’ इतना ही नहीं, शनि ने हनुमान का हाथ पकड़ लिया और उन्हें युद्ध के लिये ललकारने लगे।
हनुमान ने झटक कर अपना हाथ छुड़ा लिया। शनि ने पुनः हनुमान का हाथ जकड़ लिया और युद्ध के लिये खींचने लगे।
‘आप नहीं मानेंगे’ धीरे से कहते हुए हनुमान ने अपनी पूंछ बढ़ाकर शनि को उसमें लपेटना शुरू कर दिया। शनि ने अपने को छुड़ाने का भरसक प्रयास किया। उनका अहंकार, शक्ति एवं पराक्रम व्यर्थ सिद्ध होने लगा। वे असहाय होकर बंधन की पीड़ा से छटपटा रहे थे।
‘अब राम-सेतु की परिक्रमा का समय हो गया।’ हनुमान उठे और दौड़ते हुए सेतु की परिक्रमा करने लगे। शनिदेव की सम्पूर्ण शक्ति से भी उनका बन्धन शिथिल न हो सका। हनुमान की विशाल पूंछ दौड़ने से वानर-भालुओं द्वारा रखे गये पत्थरों पर टकराती जा रही थी। वीरवर हनुमान जानबूझकर भी अपनी पूँछ पत्थरों पर पटक देते थे।
अब शनि की दशा बहुत दयनीय हो गयी थी। पत्थरों पर पटके जाने से उनका शरीर रक्त से लथपथ हो गया। उनकी पीड़ा की सीमा न थी और उग्रवेग हनुमान की परिक्रमा में कहीं विराम नहीं दिख रहा था। पीड़ा से व्याकुल शनि अब बहुत ही दुःखीत स्वर में प्रार्थन करने लगे-‘करुणामय भक्तराज! मुझ पर दया कीजिए। अपनी बेवकूफी का दण्ड में पा गया। आप मुझे मुक्त कीजिए। मेरे प्राण छोड़ दीजिए।’
दयामूर्ति हनुमान खड़े हुए। शनि का अंग-अंग लहुलुहान हो गया था। उनके रग-रग में असहनीय पीड़ा हो रही थी। हनुमान ने शनि से कहा-‘यदि तुम मेरे भक्त की राशि पर कभी न जाने का वचन दो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ और यदि तुमने ऐसा किया तो मैं तुम्हें कठोरतम दण्ड प्रदान करूँगा।’
‘वीरवर! निश्चय ही मैं आपके भक्त की राशि पर कभी नहीं जाऊँगा।’ पीड़ा से छटपटाते हुए शनि ने अत्यन्त आतुरता से प्रार्थना की-‘अब आप कृपापूर्वक मुझे शीघ्र बन्धन-मुक्त कीजिए।’
भक्तवर हनुमान ने शनि को छोड़ दिया। शनि ने अपना चोटिल शरीर को सहलाते हुए हनुमान जी के चरणों में सादर प्रणाम किया और चोट की पीड़ा से व्याकुल होकर अपनी देह पर लगाने के लिये तेल माँगने लगे। उन्हें तब जो तेल प्रदान करता, उसे वे सन्तुष्ट होकर आशीष देते। कहते हैं, इसी कारण अब भी शनि देव को तेल चढ़ाया जाता है।
संजय गुप्य