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ये कहानी के साथ साथ अपील भी है…..
……… भारतीय रेल से एक विनती :-

जैसे ही ट्रेन रवाना होने को हुई, एक औरत और उसका पति एक ट्रंक लिए डिब्बे में घुस पडे़।दरवाजे के पास ही औरत तो बैठ गई पर आदमी चिंतातुर खड़ा था।जानता था कि उसके पास जनरल टिकट है और ये रिज़र्वेशन डिब्बा है।टीसी को टिकट दिखाते उसने हाथ जोड़ दिए।
” ये जनरल टिकट है।अगले स्टेशन पर जनरल डिब्बे में चले जाना।वरना आठ सौ की रसीद बनेगी।” कह टीसी आगे चला गया।
पति-पत्नी दोनों बेटी को पहला बेटा होने पर उसे देखने जा रहे थे।सेठ ने बड़ी मुश्किल से दो दिन की छुट्टी और सात सौ रुपये एडवांस दिए थे। बीबी व लोहे की पेटी के साथ जनरल बोगी में बहुत कोशिश की पर घुस नहीं पाए थे। लाचार हो स्लिपर क्लास में आ गए थे। ” साब, बीबी और सामान के साथ जनरल डिब्बे में चढ़ नहीं सकते।हम यहीं कोने में खड़े रहेंगे।बड़ी मेहरबानी होगी।” टीसी की ओर सौ का नोट बढ़ाते हुए कहा।
” सौ में कुछ नहीं होता।आठ सौ निकालो वरना उतर जाओ।”
” आठ सौ तो गुड्डो की डिलिवरी में भी नहीं लगे साब।नाती को देखने जा रहे हैं।गरीब लोग हैं, जाने दो न साब।” अबकि बार पत्नी ने कहा।
” तो फिर ऐसा करो, चार सौ निकालो।एक की रसीद बना देता हूँ, दोनों बैठे रहो।”
” ये लो साब, रसीद रहने दो।दो सौ रुपये बढ़ाते हुए आदमी बोला।
” नहीं-नहीं रसीद दो बनानी ही पड़ेगी।देश में बुलेट ट्रेन जो आ रही है।एक लाख करोड़ का खर्च है।कहाँ से आयेगा इतना पैसा ? रसीद बना-बनाकर ही तो जमा करना है।ऊपर से आर्डर है।रसीद तो बनेगी ही।
चलो, जल्दी चार सौ निकालो।वरना स्टेशन आ रहा है, उतरकर जनरल बोगी में चले जाओ।” इस बार कुछ डांटते हुए टीसी बोला।
आदमी ने चार सौ रुपए ऐसे दिए मानो अपना कलेजा निकालकर दे रहा हो। पास ही खड़े दो यात्री बतिया रहे थे।” ये बुलेट ट्रेन क्या बला है ? ”
” बला नहीं जादू है जादू।बिना पासपोर्ट के जापान की सैर। जमीन पर चलने वाला हवाई जहाज है, और इसका किराया भी हबाई सफ़र के बराबर होगा, बिना रिजर्वेशन उसे देख भी लो तो चालान हो जाएगा। एक लाख करोड़ का प्रोजेक्ट है। राजा हरिश्चंद्र को भी ठेका मिले तो बिना एक पैसा खाये खाते में करोड़ों जमा हो जाए।
सुना है, “अच्छे दिन ” इसी ट्रेन में बैठकर आनेवाले हैं। ”
उनकी इन बातों पर आसपास के लोग मजा ले रहे थे। मगर वे दोनों पति-पत्नी उदास रुआंसे
ऐसे बैठे थे मानो नाती के पैदा होने पर नहीं उसके सोग में जा रहे हो। कैसे एडजस्ट करेंगे ये चार सौ रुपए? क्या वापसी की टिकट के लिए समधी से पैसे मांगना होगा? नहीं-नहीं। आखिर में पति बोला- ” सौ- डेढ़ सौ तो मैं ज्यादा लाया ही था। गुड्डो के घर पैदल ही चलेंगे। शाम को खाना नहीं खायेंगे। दो सौ तो एडजस्ट हो गए। और हाँ, आते वक्त पैसिंजर से आयेंगे। सौ रूपए बचेंगे। एक दिन जरूर ज्यादा लगेगा। सेठ भी चिल्लायेगा। मगर मुन्ने के लिए सब सह लूंगा।मगर फिर भी ये तो तीन सौ ही हुए।”
” ऐसा करते हैं, नाना-नानी की तरफ से जो हम सौ-सौ देनेवाले थे न, अब दोनों मिलकर सौ देंगे। हम अलग थोड़े ही हैं। हो गए न चार सौ एडजस्ट।” पत्नी के कहा। ” मगर मुन्ने के कम करना….””
और पति की आँख छलक पड़ी।
” मन क्यूँ भारी करते हो जी। गुड्डो जब मुन्ना को लेकर घर आयेंगी; तब दो सौ ज्यादा दे देंगे। “कहते हुए उसकी आँख भी छलक उठी।
फिर आँख पोंछते हुए बोली-” अगर मुझे कहीं मोदीजी मिले तो कहूंगी-” इतने पैसों की बुलेट ट्रेन चलाने के बजाय, इतने पैसों से हर ट्रेन में चार-चार जनरल बोगी लगा दो, जिससे न तो हम जैसों को टिकट होते हुए भी जलील होना पड़े और ना ही हमारे मुन्ने के सौ रुपये कम हो।” उसकी आँख फिर छलके पड़ी।
” अरी पगली, हम गरीब आदमी हैं, हमें
मोदीजी को वोट देने का तो अधिकार है, पर सलाह देने का नहीं। रो मत
विनम्र प्राथना है जो भी इस कहानी को पढ चूका है उसने इस घटना से शायद ही इत्तिफ़ाक़ हो पर अगर ये कहानी शेयर करे कॉपी पेस्ट करे पर रुकने न दे शायद रेल मंत्रालय जनरल बोगी की भी परिस्थितियों को समझ सके। उसमे सफर करने वाला एक गरीब तबका है जिसका शोषण चिर कालीन से होता आया है

 

Dhiraj Sukla

 

Dhiraj Sukla

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“क्या है भगवान गणेश की बुधवार की कथा”

प्राचीन काल की बात है एक व्यक्ति अपनी पत्नी को लेने के लिए ससुराल गया। कुछ दिन अपने ससुराल में रुकने के बाद व्यक्ति ने अपने सास-ससुर से अपनी पत्नी को विदा करने को कहा। लेकिन सास-ससुर ने कहा कि आज बुधवार है और इस दिन हम गमन नहीं करते हैं। लेकिन व्यक्ति ने उनकी बात को मानने से साफ इनकार कर दिया। आखिरकार लड़की के माता-पिता को अपने दामाद की बात माननी पड़ी और अपनी बेटी को साथ भेज दिया। रास्ते में जंगल था, जहां उसकी पत्नी को प्यास लग गई। पति ने अपना रथ रोका और जंगल से पानी लाने के लिए चला गया। थोड़ी देर बाद जब वो वापस अपनी पत्नी के पास लौटा तो देखकर हैरान हो गया कि बिल्कुल उसी के जैसा व्यक्ति उसकी पत्नी के पास रथ में बैठा था।

ये देखकर उसे गुस्सा आ गया और कहा कि कौन है तू और मेरी पत्नी के पास क्यों बैठा है। लेकिन दूसरे व्यक्ति को जवाब सुनकर वो हैरान रह गया। व्यक्ति ने कहा कि मैं अपनी पत्नी के पास बैठा हूं। मैं इसे अभी अपने ससुराल से लेकर आया हूं। अब दोनों व्यक्ति झगड़ा करने लगे। इस झगड़े को देखकर राज्य के सिपाहियों ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया।

यह सब देखकर व्यक्ति बहुत निराश हुआ और कहा कि हे भगवान, ये कैसा इंसाफ है, जो सच्चा है वो झूठा बन गया है और जो झूठा है वो सच्चा बन गया है। ये कहते है कि फिर इसके बाद आकाशवाणी हुई कि ‘हे मूर्ख आज बुधवार है और इस दिन गमन नहीं करते हैं। तूने किसी की बात नहीं मानी और इस दिन पत्नी को ले आया।’ ये बात सुनकर उसे समझ में आया की उसने गलती कर दी। इसके बाद उसने बुधदेव से प्रार्थना की कि उसे क्षमा कर दे।

इसके बाद दोनों पति-पत्नि नियमानुसार भगवान बुध की पूजा करने लग गए। ज्योतिषियों के मुताबिक जो व्यक्ति इस कथा को याद रखता उसे बुधवार को किसी यात्रा का दोष नहीं लगता है और उसे सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है। बुधवार के दिन अगर कोई व्यक्ति किसी नए काम की शुरुआत करता है तो उसे भी शुभ माना जाता है।

 

Santosh Chaturvedi

Posted in संस्कृत साहित्य

भारतीय गणित का इतिहास★

गणित के महत्व को प्रतिपादित
करने वाला एक श्लोक प्राचीन
काल से प्रचलित है।

यथा शिखा मयूराणां
नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदांगशास्त्राणां
गणितं मूर्धनि स्थितम्‌।।
(याजुष ज्योतिषम)

अर्थात्‌ जैसे मोरों में शिखा और
नागों में मणि सबसे ऊपर रहती
है,उसी प्रकार वेदांग और शास्त्रों
में गणित सर्वोच्च स्थान पर स्थित
है।

सभी प्राचीन सभ्यताओं में गणित
विद्या की पहली अभिव्यक्ति गणना
प्रणाली के रूप में प्रगट होती है।

अति प्रारंभिक समाजों में संख्यायें
रेखाओं के समूह द्वारा प्रदर्शित की
जातीं थीं।

यद्यपि बाद में,विभिन्न संख्याओं को
विशिष्ट संख्यात्मक नामों और चिह्नों
द्वारा प्रदर्शित किया जाने लगा,
उदाहरण स्वरूप भारत में ऐसा
किया गया।

रोम जैसे स्थानों में उन्हें वर्णमाला के
अक्षरों द्वारा प्रदर्शित किया गया।

यद्यपि आज हम अपनी दशमलव
प्रणाली के अभ्यस्त हो चुके हैं,किंतु
सभी प्राचीन सभ्यताओं में संख्याएं
दशमाधार प्रणाली(decimal system
पर आधारित नहीं थीं।

प्राचीन बेबीलोन में 60 पर आधारित
संख्या-प्रणाली का प्रचलन था।

भारत में गणित के इतिहास को मुख्यता
५ कालखंडों में बांटा गया है-

१. आदि काल(500 इस्वी पूर्व तक)

(क) वैदिक काल (१००० इस्वी पूर्व तक)
-शुन्य और दशमलव की खोज
(ख) उत्तर वैदिक काल (१००० से ५००
इस्वी पूर्व तक) इस युग में गणित का
भारत में अधिक विकास हुआ।

इसी युग में बोधायन शुल्व सूत्र की
खोज हुई जिसे हम आज पाइथागोरस
प्रमेय के नाम से जानते है।

२. पूर्व मध्य काल–sine,cosine
की खोज हुई।

३. मध्य काल – ये भारतीय गणित
का स्वर्ण काल है।
आर्यभट्ट,श्रीधराचार्य,महावीराचार्य
आदि श्रेष्ठ गणितज्ञ हुए।

४. उत्तर-मध्य काल(१२०० इस्वी से
१८०० इस्वी तक)-नीलकंठ ने १५००
में sin r का मान निकालने का सूत्र
दिया जिसे हम ग्रेगरी श्रेणी के नाम
से जानते है।

५. वर्तमान काल – रामानुजम आदि
महान गणितज्ञ हुए।

भारतीय गणित :
एक सूक्ष्मावलोकन★

गणित मूलतः भारतीय उपमहाद्वीप
में विकसित हुआ।

शून्य एवं अनन्त की परिकल्पना,
अंकों की दशमलव प्रणाली,ऋणात्मक
संख्याएं,अंकगणित,बीजगणित,ज्यामिति
एवं त्रिकोणमिति के विकास के लिए संपूर्ण
विश्व भारत का कृतज्ञ है।

वेद विश्व की पुरातन धरोहर है एवं
भारतीय गणित उससे पूर्णतया
प्रभावित है।

वेदांग ज्योतिष में गणित की महत्ता
इस प्रकार व्यक्त की गई है :

जिस प्रकार मयूरों की शिखाएं और
सर्पों की मणियां शरीर के उच्च स्थान
मस्तिष्क पर विराजमान हैं,उसी प्रकार
सभी वेदांगों एवं शास्त्रों में गणित का
स्थान सर्वोपरि है।

सिंधु घाटी की सभ्यता भारतीय
उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भागों
में फैली थी।

इतिहासकार इसे ईसा पूर्व 3300
-1300 का काल मानते हैं।

मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई
से प्राप्त अवशेषों एवं शिलालेखों से
उस समय की प्रयुक्त गणित की
जानकारी प्राप्त होती है।

उस समय की ईंटों एवं भिन्न-भिन्न
भार के परिमाप के विविध आकारों
से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतीयों
को ज्यामिति की प्रारंभिक जानकारी थी।

लंबाई के परिमाप की विशिष्ट विधि थी
जिससे ठीक-ठीक ऊंचाई ज्ञात हो सके।

ईंटों के निर्माण की विधि, शुद्धमाप के
लिए भार के विविध आकार एवं लंबाई
के विविध परिमापों से स्पष्ट है कि सिंधु
घाटी की सभ्यता परिष्कृत एवं विकसित थी।

उस समय अंकगणित,ज्यामिति
एवं प्रारंभिक अभियांत्रिकी का
ज्ञान था।

वेद विश्व का सबसे पुराना ग्रंथ है।

बाल गंगाधर तिलक ने खगोलीय
गणना के आधार पर इसका काल
ईसा पूर्व 6000-4500 वर्ष निर्धारित
किया है।

ऋग्वेद की ऋचाओं में 10 पर आधारित
विविध घातों की संख्याओं को अलग-अलग
संज्ञा दी गई है,यथा एक (100 ),दश(101)
शत(102 ) सहस्त्र (103 ),आयुत (104 ),
लक्ष (105 ),प्रयुत (106 ),कोटि (107 ),
अर्बुद (108 ),अब्ज (109 ),खर्ब (1010 ),
विखर्ब (1011 ),महापदम(1012 ),शंकु
(1013 ),जलधि(1014 ),अन्त्य(1015 ),
मध्य(1016)और परार्ध (1017)।

इन संख्याओं से स्पष्ट है कि वैदिक
काल से ही अंकों की दशमलव प्रणाली
प्रचलित है।

यजुर्वेद में गणितीय संक्रियाएं- योग,
अंतर,गुणन,भाग तथा भिन्न आदि का
समावेश है,उदाहरणार्थ यजुर्वेद की निम्न
ऋचाओं पर ध्यान दें।

एका च मे तिस्त्रश्च मे तिस्त्रश्च मे पञ्च
च मे पञ्च च मे सप्त च मे सप्त च मे
नव च मे नव च मऽएकादश च में त्रयोदश
च मे त्रयोदश च मे पञचदश च मे पञ्चदश
च मे सप्तदश च मे सप्तदश च मे नवदश च
मे नवदश च मे एक विंशतिश्च मे त्रयास्त्रंशच्च
मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥ (18.24)

अर्थात् यज्ञ के फलस्वरूप हमारे निमित्त
एक-संख्यक स्तोम(यज्ञ कराने वाले),तीन,
पांच,सात,नौ,ग्यारह,तेरह,पन्द्रह,सत्रह,
उन्नीस, इक्कीस,तेईस,पच्चीस,सत्ताइस, उनतीस,इकतीस और तैंतीस संख्यक
स्तोम सहायक होकर अभीष्ट प्राप्त कराएं।

इस श्लोक में विषम संख्याओं की
समांतर श्रेणी प्रस्तुत की गई है-

(1,3,5,7,9,11,13,15,17,19, 21,23,25,27,29,31,33)

यज्ञ का अर्थ संगतिकरण से है।

अंकों के अंकों की संगति से
अंक विद्या बनती है।

श्लोक में प्रत्येक संख्या के साथ
‘च’ जुड़ा है जिसका अर्थ ‘और’ से है।

इसका अर्थ +1 जोड़ने से सम अथवा
विषम राशियां बन जाती हैं।
इसी से पहाड़ा एवं वर्गमूल के सिद्धांतों
का प्रतिपादन होता है।

इस अध्याय का अगला श्लोक (18.25)
सम संख्याओं के समांतर श्रेणी प्रस्तुत
करता है।

(4,8,12,16,20,24,28,32,36,40,44)
अतः निश्चित रूप से कहा जा सकता है
कि वैदिक काल में-

(क) एक अंकीय संख्याएं 1,
2, 3, ..9;
(ख) शून्य और अनंत;
(ग) क्रमागत संख्याएं एवं भिन्नात्मक
संख्याएं; तथा (घ) गणितीय संक्रियाओं
का उल्लेखनीय ज्ञान था।

धार्मिक अनुष्ठानों में वेदियों की रचना
के लिए ज्यामिति का आविष्कार हुआ।

शतपथ ब्राह्मण एवं तैत्तरीय संहिता में
ज्यामिति की संकल्पना प्रस्तुत है।

पर सामान्यतयाः ऐसा विचार है कि
वेदांग ज्योतिष के शुल्वसूत्र से आधुनिक
ज्यामिति की नींव पड़ी।

वेदांग ज्योतिष के अनुसार सूर्य की
संक्रांति एवं विषुव की स्थितियां कृतिका
नक्षत्र के वसंत विषुव के आस-पास हैं।

यह स्थिति ईसा पूर्व 1370 वर्ष के
लगभग की है।

अतः वेदांग ज्योतिष की रचना संभवतः
ईसा पूर्व वर्ष 1300 के आस-पास हुई होगी।

इस युग के महान गणितज्ञ लगध,बौधायन,
मानव,आपस्तम्ब,कात्यायन रहे हैं।

इन सभी ने अलग-अलग सूल्व सूत्र
की रचना की।

बोधायन का सूल्व सूत्र इस प्रकार है-

दीर्घस्याक्षणया रज्जुः
पार्श्वमानी तिर्यकं मानी च।
यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयाङ्करोति॥

अर्थात् दीर्घ चतुरस (आयत) के विकर्ण
(रज्जू) का क्षेत्र (वर्ग) का मान आधार
(पार्श्वमानी) एवं त्रियंगमानी (लंब) के
वर्गों का योग होता है।

सूल्व सूत्र आधुनिक काल में ‘पाइथागोरस
का सूत्र’ के नाम से प्रचलित है।

पैथागोरस ने ईसा पूर्व 535 में मिस्र
की यात्रा की थी।

संभव है कि पैथागोरस को मिस्र में
सूल्व सूत्र की जानकारी प्राप्त हो चुकी हो।

बोधायन ने अपरिमेय राशि 20.5 का
मान इस प्रकार दिया हैः

20.5=1 + 1/3 + 1/3.4-1/3.4.3.4
महर्षि लगध ने ऋग्वेद एवं यजुर्वेद की
ऋचाओं से वेदांग ज्योतिष संग्रहीत किया।

वेदांग ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति,काल
एवं गति की गणना के सूत्र दिए गए हैं।

तिथि मे का दशाम्य स्ताम्
पर्वमांश समन्विताम्।
विभज्य भज समुहेन तिथि
नक्षत्रमादिशेत॥

अर्थात् तिथि को 11 से गुणा कर
उसमें पर्व के अंश जोड़ें और फिर
नक्षत्र संख्या से भाग दें।

इस प्रकार तिथि के नक्षत्र बतावें।

नेपालमें इसी ग्रन्थके आधारमे विगत
६ सालसे “वैदिक तिथिपत्रम्” व्यवहार
मे लाया गया है।

हमारे ऋषि,महर्षियों को बड़ी संख्याओं
में अपार रुचि थी।

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गौतम बुद्ध
की जीवनी पर आधारित ‘ललितविस्तार’
की रचना हुई।

उसमें गौतम बुद्ध के गणित कौशल
की परीक्षा का प्रसंग आता है।

उनसे कोटि (107 ) से ऊपर संख्याओं
के अलग-अलग नाम के बारे में पूछा गया।

युवा सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध का बचपन
का नाम) ने कोटि के बाद 1053 की
संख्याओं का अलग-अलग नाम दिया
और फिर 1053 को आधार मान कर
10421 तक की संख्याओं को उनके
नामों से संबोधित किया।

गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे।

उन्हीं के समकक्ष महावीर स्वामी का
भी पदार्पण हुआ।

जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।

जैन महापुरुषों की गणित में भी रुचि थी।

उनकी प्रसिद्ध रचनाएं-
-‘सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र’,’वैशाली गणित’,
‘स्थानांग सूत्र’, ‘अनुयोगद्वार
सूत्र’ एवं ‘शतखण्डागम’ है।

भद्रवाहु एवं उमास्वति प्रसिद्ध
जैन गणितज्ञ थे।

वैदिक परंपरा में गुरु अपना ज्ञान
मौखिक रूप से अपने योग्य शिष्य
को प्रदान करता था पर ईसा पूर्व
5वीं शताब्दी में ब्राह्मी लिपि का
आविष्कार हुआ।

गणित की पुस्तकों की पांडुलिपियां
ब्राह्मी लिपि में तैयार हुईं।

‘बख्शाली पाण्डुलिपि’ पहली पुस्तक
थी जिसके कुछ अंश पेशावर के एक
गांव वख्शाली में प्राप्त हुए।

ईसा पूर्व 3 शताब्दी की लिखी यह
पुस्तक एक प्रमाणिक ग्रंथ है।

इसमें गणितीय संक्रियाओं-दशमलव प्रणाली,भिन्न,वर्ग,घन,ब्याज,क्रय एवं
विक्रय आदि विषयों पर विस्तृत चर्चा
हुई है।

आधुनिक गणित के त्रुटि स्थिति
(False Position) विधि का
भी यहां समावेश है।

ज्योतिष की एक अन्य पुस्तक ‘सूर्य
सिद्धान्त’ की भी रचना संभवतः इसी
दौरान हुई।

वैसे इसके लेखक के बारे में कोई
जानकारी नहीं है।

पर मयासुर को सूर्यदेव की आराधना
के फलस्वरूप यह ज्ञान प्राप्त हुआ था।

निःसंदेह यह आर्यों की कृति नहीं है।

सूर्य सिद्धांत में बड़ी से बड़ी संख्याओं
को व्यक्त करने की विधि वर्णित है।

गिनती के अंकों को संख्यात्मक शब्दो
में व्यक्त किया गया है,यथा रूप (1),
नेत्र (2),अग्नि(3),युग (4), इन्द्रिय (5),
रस (6),अद्रि(7 – पर्वत शृंखला),बसु (8),
अंक(9), रव (0)।

इन शब्दों के पर्यायवाची शब्द अथवा
हिंदू देवी-देवताओं के नाम से भी व्यक्त
किया गया है।

पंद्रह को तिथि से तथा सोलह
को निशाकर से।

अंकों को दाएं से बाएं की तरफ रख
कर बड़ी से बड़ी संख्या व्यक्त की गई है।

सूर्य सिद्धांत में विविध गणितीय
संक्रियाओं का वर्णन है।

आधुनिक त्रिकोणमिति का आधार
भी सूर्य सिद्धांत के तीसरे अध्याय
में विद्यमान है।

ज्या, उत्क्रम ज्या एवं कोटि ज्या
परिभाषित किया गया है।

यहां ध्यान देने योग्य बात है कि ज्या
शब्द अरबी में जैब से बना, जिसका
लैटिन रूपांतरण Sinus में किया
गया और फिर यह वर्तमान ‘Sine’
में परिवर्तित हुआ।

सूर्य सिद्धांत में π का मान 101/2
दिया गया है।

भारतीय इतिहास में गुप्त काल
‘स्वर्ण युग’ के रूप में माना जाता है।

महाराजा श्रीगुप्त द्वारा स्थापित गुप्त
साम्राज्य पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में
फैला था।

सन् 320-550 के मध्य इस साम्राज्य
में ज्ञान की हर विद्या में महत्त्वपूर्ण
आविष्कार हुए।

इस काल में आर्यभट(476)का
आविर्भाव हुआ।

उनके जन्म स्थान का ठीक-ठीक
पता नहीं है पर उनका कार्यक्षेत्र
कुसुमपुर (वर्तमान पटना) रहा।

121 श्लोकों की उनकी रचना
आर्यभटीय के चार खंड हैं-
-गितिका पद (13),गणित
पद (33), कालकृपा पद
(25) और गोल पद (50)।

प्रथम खंड में अंक विद्या का वर्णन
है तथा द्वितीय एवं तृतीय खंड में
बीजगणित,त्रिकोणमिति,ज्यामिति
एवं ज्योतिष पर विस्तारपूर्वक वर्णन
किया गया है।

उन्होंने π का 4 अंकों तक शुद्ध मान
ज्ञात किया- π = 3.4161।

संख्याओं को व्यक्त करने के लिए
उन्होंने देवनागरी वर्णमाला के पहले
25 अक्षर (क-म) तक 1-25,य-ह
(30, 40, 50, ..100) और स्वर
अ-औ तक 100,1002,1008
से प्रदर्शित किया।

उदाहरण के लिए :

जल घिनि झ सु भृ सृ ख
(8 + 50) (4 + 20) (9 + 70)
(90 + 9) 2 = 299792458
यहां भी संख्याएं दाएं से बाएं की
तरफ लिखी गई हैं।

आधुनिक बीज लेख (Cryptolgy)
के लिए इससे अच्छा उदाहरण क्या
हो सकता है।

आर्यभट की समृति में भारत सरकार
ने 19 अपै्रल 1975 को प्रथम भारतीय
उपग्रह आर्यभट को पृथ्वी की निम्न कक्षा
में स्थापित किया।

आर्यभट के कार्यों को भास्कराचार्य
(600 ई) ने आगे बढ़ाया।

उन्होंने महाभास्करीय,आर्यभटीय
भाष्य एवं लघुभास्करीय की रचना की।

महाभास्करीय में कुट्टक (Indeterminate) समीकरणों की विवेचना की गई है।

भास्कराचार्य की स्मृति में द्वितीय
भारतीय उपग्रह का नाम ‘भास्कर’
रखा गया।

भास्कराचार्य के समकालीन भारतीय
गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त(598 ई) थे।

ब्रह्मगुप्त की प्रसिद्ध कृति ब्राह्मस्फुट
सिद्धान्त है।

इसमें 25 अध्याय हैं।

बीजगणित के समीकरणों के हल की
विधि एवं द्विघातीय कुट्टक समीकरण,
X2 = N.y2 + 1 का हल इसमें दिया
गया है।

जोशेफ लुईस लगरेंज (सन् 1736 –
1813) ने कुट्टक समीकरण का हल
पुनः ज्ञात किया।

भास्कराचार्य ने प्रिज्म एवं शंकु के
आयतन ज्ञात करने की विधि बताई
तथा गुणोत्तर श्रेणी के योग का सूत्र दिया।

‘‘किसी राशि को शून्य से विभाजित
करने पर अनंत प्राप्त होता है’’,कहने
वाले वह प्रथम गणितज्ञ थे।

महावीराचार्य (सन् 850) ने संख्याओं
के लघुतम मान ज्ञात करने की विधि
प्रस्तुत की।

गणितसारसंग्रह उनकी कृति है।

श्रीधराचार्य (सन् 850) ने द्विघाती
समीकरणों के हल की विधि दी जो
आज ‘श्रीधराचार्य विधि’ के नाम से
ज्ञात है।

उनकी रचनाएं -‘नवशतिका’,
‘त्रिशतिका’,एवं ‘पाटीगणित’ हैं।

‘पाटीगणित’ का अरबी भाषा में
अनुवाद ‘हिजाबुल ताराप्त’ शीर्षक
से हुआ।

आर्यभट द्वितीय (सन् 920 -1000)
ने महासिद्धान्त की रचना की जिसमें
अंकगणित एवं बीजगणित का उल्लेख है।

उन्होंने π का मान 22/7 निर्धारित किया।

श्रीपति मिश्र(सन् 1039)ने ‘सिद्धान्तशेषर’
एवं ‘गणिततिलक’ की रचना की जिसमें
क्रमचय एवं संचय के लिए नियम दिए गए हैं।

नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (सन् 1100)
समुच्चय सिद्धांत को प्रतिपादित करने
वाले प्रथम गणितज्ञ थे।

उन्होंने सार्वभौमिक समुच्चय एवं सभी
प्रकार के मानचित्रण (Mapping) एवं
सुव्यवस्थित सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।

गैलीलियो एवं जार्ज कैंटर ने इस विधि
का ‘एक से एक’ (वन-टू-वन)मानचित्रण
में उपयोग किया।

भास्कराचार्य द्वितीय (सन् 1114) ने ‘सिद्धान्तशिरोमणि’,‘लीलावती’,‘बीजगणित’
‘गोलाध्याय’, ‘ग्रहगणितम’ एवं ‘करणकौतुहल’
की रचना की।

बीजगणित के कुट्टक समीकरणों के हल
की चक्रवाल विधि दी।

यह विधि जर्मन गणितज्ञ हरमन हेंकेल
(सन् 1839-73) को बहुत पसंद आई।

हेंकल के अनुसार लगरेंज से भी पूर्व
संख्या सिद्धांत में चक्रवाल विधि एक
उल्लेखनीय खोज है।

पीयरे डी फरमेट (सन् 1601-1665)
ने भी कुट्टक समीकरणों के हल के लिए
चक्रवाल विधि का प्रयोग किया था।

भास्कराचार्य द्वितीय के पश्चात् गणित
में अभिरुचि केरल के नम्बुदरी ब्राह्मणों
ने प्रकट की।

‘आर्यभटीय’ की एक पांडुलिपि
मलयालम भाषा में केरल में प्राप्त हुई।

केरल के विद्वानों में नारायण पण्डित
(सन् 1356) का विशेष योगदान है।

उनकी रचना-‘गणितकौमुदी’ में क्रमचय
एवं संचय,संख्याओं का विभागीकरण
तथा ऐन्द्र जालिक (Magic) वर्ग की
विवेचना है।

नारायण पंडित के छात्र परमेश्वर
(सन् 1370 – 1460) ने मध्यमान
सिद्धांत (Mean Value theorem)
स्थापित किया तथा त्रिकोणमितीय
फलन ज्या का श्रेणी-हल दिया :

ज्या (x) = x – x3/3 +
परमेश्वर के छात्र नीलकण्ठ सोमयाजि
(सन् 1444-1544) ने ‘तंत्रसंग्रह’ की
रचना की।

उन्होंने व्युतक्रम स्पर्श ज्या का श्रेणी
हल प्रस्तुत किया :

tan\-1 (x) = x – x3/3 + x5/5
इसके साथ ही गणितीय विश्लेषण,
संख्या सिद्धांत,अनंत श्रेणी,सतत
भिन्न पर भी उनका अमूल्य योगदान है।

व्युतक्रम स्पर्श ज्या का उनका श्रेणी
हल वर्तमान में ग्रीगरीज श्रेणी के नाम
से प्रचलित है।

सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के
प्राचार्य रहे सुधाकर द्विवेदी(सन् 1860
-1922) ने दीर्घवृतलक्षण,गोलीय रेखागणित,
समीकरण मीमांशा एवं चलन-कलन पर मौलिक
पुस्तकें लिखीं।

आधुनिक गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन्
(सन् 1887-1920)ने लगभग 50 गणितीय
सूत्रों का प्रतिपादन किया।

स्वामी भारती तीर्थ जी महाराज
(सन् 1884-1960) ने वैदिक गणित
के माध्यम से गुणा,भाग, वर्गमूल एवं
घनमूल की सरल विधि प्रस्तुत की।

हाल ही में अमेरिकी अंतरिक्ष केंद्र
के वैज्ञानिक रीक वृग्स के अनुसार
पाणिनि की अष्टाध्यायी व्याकरण
कम्प्यूटर आधारित भाषा प्रोगामर
के लिए बहुत ही उपयुक्त है।

ईसा पूर्व 650 में लिखी इस पुस्तक
में 4000 बीजगणित जैसे सूत्र हैं।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है
कि विविध आयामों में भारतीय
गणित बहुत ही समृद्ध है।

कम्प्यूटर-भाषाओं के साथ-साथ
आधुनिक गणित प्राचीन भारतीय
गणित का ऋणी है।
#साभार_संकलित💐💐
★★★★★★★★★★★

जयति पुण्य सनातन संस्कृति,
जयति पुण्य भूमि भारत,,

सदा सर्वदा सुमङ्गल,
हर हर महादेव,
ॐ विष्णवे नम:
ॐ सूर्याय नमः,
जय भवानी,
जय श्रीराम,

B R Yadav
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भगवान श्री कृष्ण की मालिन पर कृपा
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मथुरा से गोकुल में सुखिया नाम की मालिन फूल फल बेचने आया करती थी। जब वह गोकुल में गोपियों के घर जाया करती तो हमेशा गोपियों से कन्हैया के बारे में सुना करती थी, गोपिया कहती नन्दरानी माता यशोदा जी अपनी मधुर स्वर गाकर अपने लाला कन्हैया को आँगन में नचा रही थी। कन्हैया के सुन्दर-सुन्दर कोमल चरणों के नूपुर के स्वर इतने मधुर थे, कि कन्हैया के लालिमा को ही देखने का मन करता है। मालिन को भी कन्हैया के बारे मे सुन मन को एक सुन्दर अनुभूति महसूस होने लगी थी। जब गोपिया मालिन को कन्हैया की बातें नहीं सुनते तो उसे अच्छा नही लगता था। मालिन के मन में भी कन्हैया प्रेम जागृत होने लग गया था।

वह मालिन गोपियों से कहती है, गोपियों तुम कहती हो कृष्ण के भीतर अपार प्रेम है, तो मुझे आज तक क्यों कृष्ण के दर्शन नहीं हुए। गोपियों मै भी कृष्ण के दर्शन करना चाहती हूॅ। मुझे भी कोई ऐसा उपाय बताओं जिससें मुझे भी कन्हैया के दर्शन हो सके। गोपिया कहती है अरे मालिन यदि तुम्हें लाला के दर्शन करने है तो तुम्हें भी कोई संकल्प लेना होगा। गोपियों की बात सुन मालिन कहती है – मै तो बहुत गरीब हूँ। मैं क्या संकल्प करू यदि कोई संकल्प है जो मैं पूरा सकू तो ऐसा कोई संकल्प बताओं।

गोपिया मालिन से कहती है तुम प्रतिदिन नंदबाबा के द्वारा पर खडे रहकर कान्हा की प्रतीक्षा करती हो। उससे अच्छा तुम नंदभवन की एक सौ आठ प्रदक्षिणा का संकल्प ले लों। जैसे ही तुम अपनी प्रदक्षिणा पूरी करोगी। तुम्हें अवश्य कन्हैया के दर्शन हो जायेंगे। और प्रदक्षिणा करते हुए कन्हैया से प्रार्थना करो कि मुझे भी दर्शन दे।।

गोपियों के कहे अनुसार मालिन नंदभवन की एक सौ आठ प्रदक्षिणा की संकल्प ली करती है, और प्रदक्षिणा करते कन्हैया का स्मरण करने लगी – हे कन्हैया मुझे दर्शन दो। इस तरह उस मालिन का मन धीरे-धीरे कृष्ण प्रेम जागृत होने लगा। भगवान कन्हैया के दर्शन के लिए उस मालिन के मन में एक भाव पैदा होने लगा।
वैसे तो मालिन रोज फल-फूल बेचकर मथुरा चली जाती थी। लेकिन उसका मन हर पल नंदभवन के तरफ ही लगा रहता और कान्हा का ही स्मरण करते रहती। कान्हा के दर्शन के लिए उसका मन व्याकुल होने लगा। अब तो उसके मन में एक ही आस रह गयी थी । मन की तड़प इतनी बढ गई कि उस मालिन ने यह प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक कन्हैया के दर्शन नहीं होंगे। तब तक मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगी। और प्रण कर फल की टोकरी उठाकर कन्हैया के छवि का ध्यान करते हुए गोकुल की ओर चल पड़ी। जैसे ही मालिन नंदभवन पहुंची ओर जोर-जोर से फल ले लो री फल कहने लगी। मालिन की आवाज सुन कान्हा ने सोचा इस मालिन की दृढ़ भक्ति ने मुझे आज इसे दर्शन देने हेतु विवश कर दिया है। भगवान कृष्ण उस मालिन के उपासना और कर्म का फल देने के लिए अपने छोटे-छोटे हाथों में अनाज के कुछ दाने ले घर से बाहर आये। भगवान का स्वरूप पीताम्बर पहने, कमर में स्वर्ण करधन, बाजूबन्द पहन, कानों में मकराकृति कुण्डल धारण कर, माथे में तिलक लगा मोर मुकुट धारण कर कन्हैया छोटी सी बासुरी धर छमछम करके दौड घर से बाहर आये। कन्हैया ने अपनी हाथों में रखे अनाज को उस मालिन के टोकरी में डाल दिये। और कन्हैया मालिन से फल लेने को अधीर थे । मालिन का मन कान्हा को देख प्रेम से ओत-प्रोत हो गया।

मालिन की आठ पुत्रियां थीं, पर पुत्र एक भी ना था। कान्हा को देख उसके मन में पुत्र भाव जागने लगा था, और मन ही मन मे सोचने लगी कि मेरा भी ऐसा पुत्र होता तो कितना अच्छा होता। माता यशोदा जब कन्हैया को गोद में खिलाती होगी तो उन्हें कितना आनंद होता होगा? मुझे भी ऐसा आनंद मिलता। मालिन के हृदय में जिज्ञासा हुई कि कन्हैया मेरी गोद में आ जाए । भगवान श्रीकृष्ण तो अन्तर्यामी हैं, वे मालिन के हृदय के भाव जान गए और मालिन की गोद में जाकर बैठ गये।

अब मालिन के मन में ऐसा पुत्र प्रेम जागा कि कन्हैया मुझे एकलबार माँ कहकर बुलाए। कन्हैया को उस मालिन पर दया आ गयी। कान्हा ने सोचा जो जीव जैसा भाव रखता है, मैं उसी भाव के अनुसार उससे प्रेम करता हूँ। कान्हा ने उसे कहकर कहा- माँ, मुझे फल दे। माँ सुनकर मालिन को अतिशय आनंदित हो गई । और सोची लाला को क्या दूँ? कि कान्हा के मन को पसंद आये।
भगवान के दुर्लभ करकमलों के स्पर्श का सुख प्राप्त कर मालिन ने उनके दोनों हाथ फल दिया। कन्हैया के हाथों में फल आते ही वे नंदभवन की ओर दौड़ अन्दर चले गये। और साथ ही मालिन का मन को भी चोरी करके ले गये हैं।

उस मालिन ने कान्हा के लिए उसने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। अब मालिन के मन मे घर जाने की भी इच्छा नहीं हो रही थी । लेकिन जाना भी आवश्यक था, इसलिये उसने टोकरी सिर पर रख कान्हा का स्मरण करते-करते घर पहुँच गयी। जैसे ही वे घर पहुच तो देखता है कि कन्हैया ने तो उसकी सम्पूर्ण अभिलाषाओं को पूर्ण कर दिया है | भगवान श्रीकृष्ण ने प्रेम के अमूल्य रत्नों–हीरे-मोतियों से उसकी खाली टोकरी भर दी। मालिन की टोकरी कान्हा ने रत्नों से भर दी और उसका प्रकाश चारों ओर उसके प्रकाश से मालिन को सिर्फ कान्हा ही दिखायी दे रहे हैं। आगे श्रीकृष्ण, पीछे श्रीकृष्ण, दांये श्रीकृष्ण, बांये श्रीकृष्ण, भीतर श्रीकृष्ण, बाहर श्रीकृष्ण। सब तरफ श्रीकृष्ण ही कृष्ण है उनके अलावा उसे और कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। इधर कान्हा भी मालिन द्वारा दिये फल सभी गोप-गोपियों को बांट रहे थे, फिर भी फल खत्म नही हो रही है। यह देख नाता यशोदा सोचने लगी कि आज कान्हा को आशीर्वाद देने माँ अन्नपूर्णा मेरे घर आयीं हैं। इस प्रकार सुखिया मालिन का जीवन सफल हुआ, उसने साधारण लौकिक फल देकर फलों का भी फल श्रीकृष्ण का दिव्य-प्रेम प्राप्त किया। श्रीकृष्ण का ध्यान करते-करते वह उन्हीं की नित्यकिंकरी गोलोक में सखी हो गयी।

मनुष्य की बुद्धि भी उस टोकरी जैसी है, भक्ति रत्न सदृश्य है। मनुष्य जब अपने सत्कर्म श्रीकृष्ण को अर्पण करता है, तो उसकी टोकरी रूपी बुद्धि रत्न रूपी भक्ति से भर जाती है।

 

Dev Shrma

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पुस्तकों के बिना घर ऐसे लगता है जैसे आत्मा के बिना शरीर हो। अपने महान सद्ग्रन्थों का घर में होना बहुत आवश्यक है। उन ग्रन्थों को एक अलमारी में सजा देना मात्र पर्याप्त नहीं होता, उन्हें पढ़ने का अभ्यास भी करना चाहिए। अपने ग्रन्थों का स्वाध्याय करने से मनुष्य को आत्मिक बल मिलता है। उतना समय दुनिया के झमेलों से वह दूर रहता है और कुछ-न-कुछ नया सीखता है। ये पुस्तकें मनुष्य की अभिन्न मित्र होती हैं।
पुस्तक एक प्रकाशमान दीपक की भाँति होती है जो सर्वत्र प्रकाश प्रसरित करती है। जो भी ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से उसका वाचन करता है, वह कदापि निराश नहीं हो सकता। वह उसे सफलता की सीढ़ी पर चढ़ने की दिशा दिखाती है। उसका अनुसरण करता हुआ मनुष्य कभी ठगा नहीं जाता बल्कि वह अपनी उन्नति के द्वार खोल देता है। वहाँ से आगे बढ़ता हुआ वह सफलता के मीठे फल खाता है।
आजकल हम देखते हैं कि विश्व में सर्वत्र मौत का ताण्डव हो रहा है। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं। बात-बात पर गोलियाँ चलने लगती है। ऐसा लगता है कि दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी है। इस बारूद के स्थान पर लोगों के हाथ यदि पुस्तक थमा दी जाए तो उनका जीवन नरक बनने से बच सकता है। जो ज्ञान उन्हें उन पुस्तकों से मिलेगा उससे उनका उद्धार हो जाएगा। उनके साथ-साथ उनकी आने वाली पीढ़ियाँ भी तर सकती हैं।
इस पुस्तकीय ज्ञान के अर्जन के विषय में कवि भर्तृहरि ने कहा है-
न चोरहार्यं न च राजहार्यं
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी ।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं
विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥
अर्थात विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहीं सकता, राजा उसका हरण नहीं कर सकता, भाइयों में उसका बंटवारा नहीं होता, उसका कोई भार नहीं होता। खर्च करने पर यह बढती रहती है। सचमुच, विद्यारूपी धन सर्वश्रेष्ठ है।
कवि भर्तृहरि ने बड़े सुन्दर शब्दों में समझने का प्रयास किया है कि पुस्तकों में छुपे हुए खजाने को कोई लुटेरा कभी लूट नहीं सकता। अन्य भौतिक धन-सम्पदा की तरह भाइयों में उसका बंटवारा नहीं हो सकता। जिसके पास यह खजाना होता है, केवल वही मालामाल बनता हैं, कोई और नहीं। इस धन की विशेषता है कि जितना इसे लोगों में बाँटो यह उतना ही अधिक बढ़ता रहता है। इसलिए जितना भी हो सके इसे परिश्रमपूर्वक पाने का प्रयास करना चाहिए।
यदि किसी पुस्तक को बार-बार पढने का आनन्द न लिया जाए तो उसे पढने का कोई औचित्य नहीं होता। एक अच्छी पुस्तक पढने का पता तभी चलता हैं, जब आखिरी पृष्ठ पलटते हुए मनुष्य को यह लगे कि वह अपने एक अच्छे दोस्त से दूर हो रहा है। ऐसे व्यक्ति पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए जिसके पास पुस्तकें न हों या जो पुस्तकों से दूर रहता हो।
पुस्तकें नष्ट करने अथवा उन्हें जलाने से भी बड़ा अपराध हैं, न उन्हें स्वयं पढना और न ही किसी अन्य को पढने के लिए देना। प्रयास करना चाहिए कि हमारा सद्साहित्य अधिक-से-अधिक लोग पढें और अपने जीवनमूल्यों को समझकर अपना लोक-परलोक सुधारें। अपनी आत्मिक भूख को शान्त करने के लिए इनका वाचन करना बहुत आवश्यक होता है। इस ज्ञानधन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह केवल इसी जन्म में साथ नहीं निभाता अपितु जन्म-जन्मान्तरों तक हमारा पथपर्दाशन करता है। इसका कारण यह है कि शरीर के नष्ट हो जाने के साथ यह नष्ट नहीं होता। इस जन्म के संचित ज्ञान में आने वाले जन्मों का ज्ञान जुड़ता जाता है।
इस पुस्तकीय ज्ञान को अर्जित करना किसी भी तरह से घाटे का सौदा नहीं है। इससे मनुष्य का लोक और परलोक दोनों ही संवर जाते हैं। इसकी बदौलत वह समाज में एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना सकता है। यह मनुष्य को ज्ञान के साथ-साथ अकेलेपन के दंश और अवसाद से भी बचाती हैं। अतः प्रयत्नपूर्वक पुस्तकों को अपना मित्र बनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp

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गजेन्द्र मोक्ष💐

क्षीरसागर में स्थित त्रिकूट पर्वत पर लोहे, चांदी और सोने की तीन विशाल चोटियां थीं. उनके बीच विशाल जंगल में गजेंद्र हाथी अपनी असंख्य पत्नियों के साथ रहता था.

एक बार गजेंद्र अपनी पत्नियों के साथ प्यास बुझाने के लिए एक तालाब पर पहुंचा. प्यास बुझाने के बाद गजेंद्र की जल-क्रीड़ा करने की इच्छा हुई. वह पत्नियों के साथ तालाब में क्रीडा करने लगा.

दुर्भाग्यवश उसी समय एक अत्यंत विशालकाय ग्राह(मगरमच्छ) वहां पहुंचा. उसने गजेंद्र के दाएं पैर को अपने दाढ़ों में जकड़कर तालाब के भीतर खींचना शुरू किया.

गजेंद्र पीड़ा से चिंघाड़ने लगा. उसकी पत्नियां तालाब के किनारे अपने पति के दुख पर आंसू बहाने लगीं. गजेंद्र अपने पूरे बल के साथ ग्राह से युद्ध कर रहा था.

परंतु वह ग्राह की पकड़ से मुक्त नहीं हो पा रहा था. गजेंद्र अपने दाँतों से मगरमच्छ पर वार करता तो ग्राह उसके शरीर को अपने नाखूनों से खरोंच लेता और खून की धारा निकल आतीं. ग्राह और हाथी के बीच बहुत समय तक युद्ध हुआ. पानी के अंदर ग्राह की शक्ति ज़्यादा होती है. ग्राह गजेंद्र का खून चूसकर बलवान होता गया जबकि गजेंद्र के शरीर पर मात्र कंकाल शेष था.
गजेंद्र दुखी होकर सोचने लगा- मैं अपनी प्यास बुझाने यहां आया था. प्यास बुझाकर मुझे चले जाना चाहिए था. मैं क्यों इस तालाब में उतर पड़ा? मुझे कौन बचायेगा?

उसे अपनी मृत्यु दिख रही थी. फिर भी मन के किसी कोने में यह विश्वास था कि उसने इतना लंबा संघर्ष किया है, उसकी जान बच सकती है. उसे ईश्वर का स्मरण हुआ तो नारायण की स्तुति कर उन्हें पुकारने लगा.

सारा संसार जिनमें समाया हुआ है, जिनके प्रभाव से संसार का अस्तित्व है, जो इसमें व्याप्त होकर इसके रूपों में प्रकट होते हैं, मैं उन्हीं नारायण की शरण लेता हूं. हे नारायण मुझ शरणागत की रक्षा करिए.

विविधि लीलाओं के कारण देवों, ऋषियों के लिए अगम्य अगोचर बने जिन श्रीहरि की महिमा वर्णन से परे है. मैं उस दयालु नारायण से प्राण रक्षा की गुहार लगाता हूं.

नारायण के स्मरण से गजेंद्र की पीड़ा कुछ कम हुई. प्रभु के शरणागत को कष्ट देने वाले ग्राह के जबड़ों में भयंकर दर्द शुरू हुआ फिर भी वह क्रोध में जोर से उसके पैर चबाने लगा. छटपटाते गजेंद्र ने स्मरण किया- मुझ जैसे घमण्डी जब तक संकट में नहीं फंसते, तब तक आपको याद नहीं करते. यदि दुख न हो तो हमें आपकी ज़रूरत का बोध नहीं होता.
आप जब तक प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते, तब तक प्राणी आपका अस्तित्व तक नहीं मानता लेकिन कष्ट में आपकी शरण में पहुंच जाता है. जीवों की पीड़ा को हरने वाले देव आप सृष्टि के मूलभूत कारण हैं.

गजेंद्र ने श्रीहरि की स्तुति जारी रखी- मेरी प्राण शक्ति जवाब दे चुकी हैं. आंसू सूख गए हैं. मैं ऊंचे स्वर में पुकार भी नहीं सकता. आप चाहें तो मेरी रक्षा करें या मेरे हाल पर छोड़ दें.

सब आपकी दया पर निर्भर है. आपके ध्यान के सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं. मुझे बचाने वाला भी आपके सिवाय कोई नहीं है. यदि मृत्यु भी हुई तो आपका स्मरण करते मरूंगा.

पीड़ा से तड़पता गजेंद्र सूंड उठाकर आसमान की ओर देखने लगा. मगरमच्छ को लगा कि उसकी शक्ति जवाब देती जा रही है. उसका मुंह खुलता जा रहा है.

भक्त की करूणाभरी पुकार सुनकर नारायण आ पहुंचे. गजेंद्र ने उस अवस्था में भी तालाब का कमलपुष्प और जल प्रभु के चरणों में अर्पण किया. प्रभु भक्त की रक्षा को कूद पड़े.

उन्होंने ग्राह के जबड़े से गजेंद्र का पैर निकाला और चक्र से ग्राह का मुख चीर दिया. ग्राह तुरंत एक गंधर्व में बदल गया. दरअसल वह ग्राह हुहू नामक एक गंधर्व था.

एक बार देवल ऋषि पानी में खड़े होकर तपस्या कर रहे थे. गंधर्व को शरारत सूझी. उसने ग्राह रूप धरा और जल में कौतुक करते हुए ऋषि के पैर पकड़ लिए. क्रोधित ऋषि ने उसे शाप दिया कि तुम मगरमच्छ की तरह इस पानी में पड़े रहो किंतु नारायण के प्रभाव से वह शापमुक्त होकर अपने लोक को चला गया.
श्रीहरि के दर्शन से गजेंद्र भी अपनी खोई हुई ताक़त और पूर्व जन्म का ज्ञान भी प्राप्त कर सका. गजेंद्र पिछले जन्म में इंद्रद्युम्न नामक एक विष्णुभक्त राजा थे.

श्रीविष्णु के ध्यान में डूबे राजा ने एक बार ऋषि अगस्त्य के आगमन का ख़्याल न किया. राजा ने युवावस्था में ही गृहस्थ आश्रम को त्यागकर वानप्रस्थ ले लिया.

राजा ब्रह्मा द्वारा प्रतिपादित आश्रम व्यवस्था को भंग कर रहा था, ऋषि इससे भी क्षुब्ध थे. उन्होंने शाप दिया- तुम किसी व्यवस्था को नहीं मानते इसलिए अगले जन्म में मत्त हाथी बनोगे.

राजा ने शाप स्वीकार करते हुए ऋषि से अनुरोध किया कि मैं अगले जन्म में भी नारायण भक्त रहूं. अगस्त्य उसकी नारायण भक्ति से प्रसन्न हुए और तथास्तु कहा.

श्रीहरि की कृपा से गजेंद्र शापमुक्त हुआ. नारायण ने उसे अपना सेवक पार्षद बना लिया. गजेंद्र ने पीड़ा में छटपटाते हुए नारायण की स्तुति में जो श्लोक कहे थे उसे गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र कहा जाता है।

कर्ज से मुक्ति पाने के लिए गजेन्द्र-मोक्ष स्तोत्र का सूर्योदय से पूर्व प्रतिदिन पाठ करना चाहिए। यह ऐसा अमोघ उपाय है जिससे बड़ा से बड़ा कर्ज भी श‍ीघ्र उतर जाता है।

गजेंद्र मोक्ष स्त्रोत्र हिंदी अनुवाद सहित
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श्रीमद्भागवतान्तर्गत
गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन

श्री शुक उवाच – श्री शुकदेव जी ने कहा

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥

बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन पाठ करने लगा ॥

गजेन्द्र उवाच गजराज ने (मन ही मन) कहा –

ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥१॥

जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भांति व्यवहार करने लगते हैं), ‘ओम’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन ही मन नमन करते हैं ॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥

जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है , जिन्होने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं – फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं इसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण ) एवं श्रेष्ठ हैं – उन अपने आप – बिना किसी कारण के – बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूं ॥

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम ।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोवतु मां परात्परः ॥४॥

अपने संकल्प शक्ति के द्वार अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य कारण रूप जगत को जो अकुण्ठित दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं उनसे लिप्त नही होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें ॥

कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
तमस्तदाsssसीद गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥

समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्वपर्यंत सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकरुणारूप प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अंधकाररूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अंधकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान सब ओर प्रकाशित रहते हैं वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥

भिन्न भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नही जान पाते , उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता तथा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नही जानते , फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है – वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ।

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥

आसक्ति से सर्वदा छूटे हुए , सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले , सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रह कर अखण्ड ब्रह्मचार्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं , वे प्रभु ही मेरी गति हैं ।

न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा
न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः
स्वमायया तान्युलाकमृच्छति ॥८॥

जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी समयानुसार जगत की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ।।

तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेsनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥

उन अन्नतशक्ति संपन्न परं ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है । उन प्राकृत आकाररहित एवं अनेको आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान को बारंबार नमस्कार है

नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥

स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है । उन प्रभु को जो नम, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार बार नमस्कार है ॥

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥

विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुणविशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष सुख की अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है ॥

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥

सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त , रजोगुण को स्वीकर करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ से प्रतीत होने वाले, भेद रहित, अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है ॥

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥

शरीर इन्द्रीय आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है । सबके अन्तर्यामी , प्रकृति के भी परम कारण, किन्तु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है ॥

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः ॥१४॥

सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले आपको नमस्कार है ॥

नमो नमस्ते खिल कारणाय
निष्कारणायद्भुत कारणाय ।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥

सबके कारण किंतु स्वयं कारण रहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण, अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है । सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य , मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान को नमस्कार है ॥

गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥

जो त्रिगुणरूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानरूप अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्य वृत्ति जागृत हो उठती है तथा आत्म तत्त्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥

मुझ जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवों की अविद्यारूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्याधिक दयालू एवं दया करने में कभी आलस्य ना करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है । अपने अंश से संपूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्व नियन्ता अनन्त परमात्मा आप को नमस्कार है ॥

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥

शरीर, पुत्र, मित्र, घर, संपंत्ती एवं कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरूप , सर्वसमर्थ भगवान को नमस्कार है ॥

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम ॥१९॥

जिन्हे धर्म, अभिलाषित भोग, धन तथा मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ती से सदा के लिये उबार लें ॥

एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥

जिनके अनन्य भक्त -जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान के ही शरण है-धर्म , अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नही चाह्ते, अपितु उन्ही के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥

तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥

उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये प्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले , इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥

ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा संपूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं ॥

यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः ।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥

जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार बार निकलती है और पुनः अपने कारण मे लीन हो जाती है उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर – यह गुणमय प्रपंच जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्ही में लीन हो जात है ॥

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥

वे भगवान न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक (मनुष्य से नीची – पशु , पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी है । न वे स्त्री हैं न पुरुष और नपुंसक ही हैं । न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही । सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ है । ऐसे भगवान मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों ॥

जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥

मैं इस ग्राह के चंगुल से छूट कर जीवित नही रहना चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर – सब ओर से अज्ञान से ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है । मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने आप नाश नही होता , अपितु भगवान की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है ॥

सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम ॥२६॥

इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचियता, स्वयं विश्व के रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मरूप से व्याप्त , अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवान को केवल प्रणाम ही करता हूं, उनकी शरण में हूँ ।।

योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम ॥२७॥

जिन्होने भगवद्भक्ति रूप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हे प्रकट हुआ देखते हैं उन योगेश्वर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥

जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप ) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरूप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची पची रहती हैं-ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असंभव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपारशक्तिशाली आपको बार बार नमस्कार है ॥

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम ॥२९॥

जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरूप अहंकार से ढंके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नही पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण आया हूँ ॥

श्री शुकदेव उवाच – श्री शुकदेवजी ने कहा –

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात
तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत ॥३०॥

जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था , उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नही आये, जो भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब सक्षात श्री हरि- जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-वहाँ प्रकट हो गये ॥

तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान –
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥

उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देख कर तथा उसके द्वारा पढी हुई स्तुति को सुन कर सुदर्शनचक्रधारी जगदाधार भगवान इच्छानुरूप वेग वाले गरुड जी की पीठ पर सवार होकर स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान अपर पहुँच गये जहाँ वह हाथी था ।

सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा –
न्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते ॥३२॥

सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकडे जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड की पीठ पर सवार चक्र उठाये हुए भगवान श्री हरि को देखकर अपनी सूँड को -जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रक्खा था-ऊपर उठाया और बडी ही कठिनाई से “सर्वपूज्य भगवान नारायण आपको प्रणाम है” यह वाक्य कहा ॥

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम ॥३३॥

उसे पीडित देख कर अजन्मा श्री हरि एकाएक गरुड को छोडकर नीचे झील पर उतर आये । वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते देखते चक्र से मुँह चीर कर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥

 

Dev Sharma

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भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में क्यों बांधा?

गंगा, जाह्नवी और भागीरथी कहलानी वाली ‘गंगा नदी’ भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में से एक है। यह मात्र एक जल स्रोत नहीं है, बल्कि भारतीय मान्यताओं में यह नदी पूजनीय है जिसे ‘गंगा मां’ अथवा ‘गंगा देवी’ के नाम से सम्मानित किया जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार गंगा पृथ्वी पर आने से पहले सुरलोक में रहती थी।

तो क्या कारण था जो यह पवित्र नदी धरती पर आई। इसे यहां कौन लाया? गंगा नदी के पृथ्वी लोक में आने के पीछे कई सारी लोक कथाएं प्रचलित हैं, लेकिन इस सबसे अहम एवं रोचक कथा है पुराणों में। एक पौराणिक कथा के अनुसार अति प्राचीन समय में पर्वतराज हिमालय और सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना की अत्यंत रूपवती एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएं थीं।

दो कन्याओं में से बड़ी थी गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम था उमा। कहते हैं बड़ी पुत्री गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवीय गुणों से सम्पन्न थी। लेकिन साथ ही वह किसी बन्धन को स्वीकार न करने के लिए भी जानी जाती थी। हर कार्य में अपनी मनमानी करना उसकी आदत थी।

हिमालय से बेहद ऊंचाई पर सुरलोक में रहने वाले देवताओं की दृष्टि गंगा पर पड़ी। उन्होंने उसकी असाधारण प्रतिभा को सृष्टि के कल्याण के लिए चुना और उसे अपने साथ स्वर्गलोक ले गए। अब पर्वतराज के पास एक ही कन्या शेष थी, उमा। उमा ने भगवान शिव की तपस्या की और तप पूर्ण होने पर भगवान शंकर को ही वर के रूप में मांग लिया।

इस तरह से दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ। शिव और उमा के विवाह के वर्षों बाद भी दोनों को सन्तान प्राप्ति ना हुई। एक दिन भगवान शिव के मन में सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। जब उनके इस विचार की सूचना सृष्टि के रचनाकर ब्रह्मा जी तक पहुंची तो उनके सहित सभी देवता चिंता में पड़ गए।

उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि महादेव जैसे अत्यंत तेजस्वी देव के सन्तान के तेज को कौन सम्भाल सकेगा? इसका जवाब उन्हें स्वयं भगवान शंकर के अलावा कोई नहीं दे सकता था। तो सभी अपनी पुकार लेकर उनके पास पहुंच गए। उनके कहने पर अग्नि ने यह भार ग्रहण किया और परिणामस्वरूप अग्नि के समान महान तेजस्वी स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ।

देवताओं के इस षड़यंत्र से उमा के सन्तान होने में बाधा पड़ी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि भविष्य में वे कभी पिता नहीं बन सकेंगे। इस बीच सुरलोक में विचरण करती हुई गंगा से उमा की भेंट हुई। गंगा ने उमा को बताया कि अब वह सुरलोक में और नहीं रहना चाहती और अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर जाना चाहती हैं।

जिस पर उमा ने गंगा को आश्वासन दिया कि वे भविष्य में उसकी इस प्रार्थना का कोई ना कोई समाधान आवश्य निकालेंगी। यहीं से गंगा के पृथ्वी पर आने की कथा का एक नया अध्याय शुरू होता है जो कि भगवान राम की नगरी अयोध्या से जुड़ा है जिसे पुराणों में अयोध्यापुरी के नाम से जाना जाता था।

वहां सगर नाम के एक राजा थे जिनकी कोई सन्तान नहीं थी। सगर राजा की दो रानियां थी – केशिनी तथा सुमति, किन्तु दोनों से ही राजा को पुत्र की उत्पत्ति नहीं हो रही थी। जिसके फलस्वरूप उन्होंने दोनों पत्नियों को साथ लेकर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में तपस्या करने का फैसला किया।

एक लंबी तपस्या के बाद महर्षि भृगु राजा और उनकी पत्नियों से प्रसन्न हुए और वरदान देने के लिए प्रकट हुए। उन्होंने कहा, “हे राजन! तुम्हारी तपस्या से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं और तुम्हारी दोनों पत्नियों को पुत्र का वरदान देता हूं। लेकिन दोनों में से एक पत्नी को केवल एक पुत्र की प्राप्ति होगी, जो वंश को आगे बढ़ाने में सहायक साबित होगा। तथा दूसरी पत्नी को 60 हज़ार पुत्रों का वर हासिल होगा। अब तुम यह फैसला कर लो कि किसे कौन सा वरदान चाहिए।“

इस पर राजा की पहली पत्नी केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की और रानी सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की। उचित समय पर रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। दूसरी ओर रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला जिसे फोड़ने पर कई सारे छोटे-छोटे पुत्र निकले, जिनकी संख्या साठ हजार थी। उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया।

समय बीतने पर सभी पुत्र बड़े हो गए। महाराज सगर का ज्येष्ठ एवं वंश को आगे बढ़ाने वाला पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था। उसके कहर से सारी प्रजा परेशान थी, इसीलिए परिणामस्वरूप राजा ने उसे नगर से बाहर कर दिया। कुछ समय बाद असमंजस के यहां अंशुमान नाम का एक पुत्र हुआ। वह अपने पिता से बिल्कुल विपरीत स्वभाव का था।

अंशुमान अत्यंत सदाचारी, पराक्रमी एवं लोगों की सहायता करने वाला था। एक दिन राजा सगर ने महान अश्वमेघ यज्ञ करवाने का फैसला किया जिसके लिए उन्होंने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरी भरी भूमि को चुना और वहां एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। इसके बाद अश्वमेघ यज्ञ के लिए श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे पीछे भेज दिया।

यज्ञ सफलतापूर्वक बढ़ रहा था जिसे देख इन्द्र देव काफी भयभीत हो गए। तभी उन्होंने एक राक्षस का रूप धारण किया और हिमालय पर पहुंचकर राजा सगर के उस घोड़े को चुरा लिया। घोड़े की चोरी की सूचना पाते ही राजा सगर के होश उड़ गए। उन्होंने शीघ्र ही अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को किसी भी अवस्था (जीवित या मृत) में पकड़कर लेकर आओ।

आदेश सुनते ही सभी पुत्र खोजबीन में लग गए। जब पूरी पृथ्वी खोजने पर भी घोड़ा नहीं मिला तो उन्होंने पृथ्वी को खोदना शुरू कर दिया, यह सोच कर कि शायद पाताल लोक में उन्हें घोड़ा मिल जाए। अब पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुंच गए।

वहां उन्होंने देखा कि कपिलमुनि आंखें बन्द किए बैठे हैं और ठीक उनके पास यज्ञ का वह घोड़ा बंधा हुआ है जिसे वह लंबे समय से खोज रहे थे। इस पर सभी मंदबुद्धि पुत्र क्रोध में कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उन्हें अपशब्द कहने लगे। उनके इस कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। आंखें खुलती ही उन्होंने क्रोध में सभी राजकुमारों को अपने तेज से भस्म कर दिया। लेकिन इसकी सूचना राजा सगर को नहीं थी।

जब लंबा समय बीत गया तो राजा फिर से चिंतित हो गए। अब उन्होंने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिए आदेश दिया। आज्ञा का पालन करते हुए अंशुमान उस रास्ते पर निकल पड़ा जो रास्ता उसके चाचाओं ने बनाया था। मार्ग में उसे जो भी पूजनीय ऋषि मुनि मिलते वह उनका सम्मानपूर्वक आदर-सत्कार करता। खोजते-खोजते वह कपिल आश्रम में जा पहुंचा।

वहां का दृश्य देख वह बेहद आश्चर्यचकित हुआ। उसने देखा कि भूमि पर उसके साठ हजार चाचाओं के भस्म हुए शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था। यह देख वह निराश हो गया। अब उसने राख को विधिपूर्वक प्रवाह करने के लिए जलाशय खोजने की कोशिश की लेकिन उसे कुछ ना मिला। तभी उसकी नजर अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी।

उसने गरुड़ से सहायता मांगी तो उन्होंने उसे बताया कि किस प्रकार से कपिल मुनि द्वारा उसके चाचाओं को भस्म किया गया। वह आगे बोले कि उसके चाचाओं की मृत्यु कोई साधारण नहीं थी इसीलिए उनका तर्पण करने के लिए कोई भी साधारण सरोवर या जलाशय काफी नहीं होगा। इसके लिए तो केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करना सही माना जाएगा।

गरुड़ द्वारा राय मिलने पर अंशुमान घोड़े को लेकर वापस अयोध्या पहुंचा और राजा सगर को सारा वाकया बताया। राजा काफी दुखी हुए लेकिन अपने पुत्रों का उद्धार करने के लिए उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने का फैसला किया लेकिन यह सब होगा कैसे, उन्हें समझ नहीं आया। कुछ समय पश्चात् महाराज सगर का देहान्त हो गया जिसके बाद अंशुमान को राजगद्दी पर बैठाया गया।

आगे चलकर अंशुमान को दिलीप नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। उसके बड़े होने पर अंशुमान ने उसे राज्य सौंप दिया और स्वयं हिमालय की गोद में जाकर गंगा को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने लगे। उनके लगातार परिश्रम के बाद भी उसे सलता हासिल ना हुई और कुछ समय बाद अंशुमान का देहान्त हो गया। अंशुमान की तरह ही उसके पुत्र दिलीप ने भी राज्य अपने पुत्र भगीरथ को सौंपकर गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या शुरू कर दी।

लेकिन उन्हें भी कोई फल हासिल ना हुआ। दिलीप के बाद भगीरथ ने भी गंगा तपस्या का फैसला किया लेकिन उनकी कोई संतान ना होने के कारण उन्होंने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर हिमालय जाने का फैसला किया। उनकी कठोर तपस्या से आखिरकार भगवान ब्रह्मा प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हुए और मनोवांछित फल मांगने के लिए कहा।

भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा, “हे प्रभु! मैं आपके दर्शन से अत्यंत प्रसन्न हूं। कृपया आप मुझे सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिए गंगा का जल प्रदान कर दीजिए तथा साथ ही मुझे एक सन्तान भी दें ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो जाए।“ भगीरथ की प्रार्थना सुन ब्रह्मा जी मुस्कुराए और बोले, “हे वत्स! मेरे आशीर्वाद से जल्द ही तुम्हारे यहां एक पुत्र होगा किन्तु तुम्हारी पहली मांग गंगा का जल देना, यह मेरे लिए कठिन कार्य है। क्योंकि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगी तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी।

ब्रह्मा जी आगे बोले, “यदि गंगा के वेग को संभालने की किसी में क्षमता है तो वह हैं केवल महादेव जी। इसीलिए तुम्हें पहले भगवान शिव को प्रसन्न करना होगा।“ यह बोल ब्रह्मा जी वापस ब्रह्म लोक की ओर प्रस्थान कर गए। उनके जाते ही अगले एक वर्ष तक भगीरथ ने पैर के अंगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या की। इस दौरान उन्होंने वायु के अलावा अन्य किसी भी चीज़ का ग्रहण नहीं किया।

उनकी इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव जी ने उन्हें दर्शन दिए और बोले, “हे परम भक्त! तुम्हारी भक्ति से मैं बेहद प्रसन्न हुआ। मैं अवश्य तुम्हारी मनोकामना को पूरा करूंगा, जिसके लिए मैं अपने मस्तक पर गंगा जी को धारण करूंगा।“ इतना कहकर भगवान शिव वापस अपने लोक चले गए। यह सूचना जब गंगा जी तक पहुंची तो वह चिंतित हो गईं, क्योंकि वह सुरलोक छोड़ कहीं जाना नहीं चाहती थीं।

उन्होंने योजना बनाई कि वह अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाएंगी। परिणामस्वरूप गंगा जी भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं लेकिन शिव जी गंगा की मंशा को समझ चुके थे। गंगा को अपने साथ बांधे रखने के लिए महादेव जी ने गंगा धाराओं को अपनी जटाओं में धीरे-धीरे बांधना शुरू कर दिया। अब गंगा जी इन जटाओं से बाहर निकलने में असमर्थ थीं। गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की।

भगीरथ के इस तपस्या से शिव जी फिर से प्रसन्न हुए और आखिरकार गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ दिया। छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बंट गईं। इन धाराओं में से पहली तीन धाराएं ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। अन्य तीन सुचक्षु, सीता और सिन्धु धाराएं पश्चिम की ओर बहीं और आखिरी एवं सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे-पीछे चल पड़ी। महाराज जहां भी जाते वह धारा उनका पीछा करती।

एक दिन गलती से चलते-चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुंचीं जहां ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा जी बहते हुए अनजाने में उनके यज्ञ की सारी सामग्री को अपने साथ बहाकर ले गईं, जिस पर ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे।

अंत में ऋषि जह्नु ने अपने कानों से गंगा जी को बहा दिया और उसे अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया। तब से गंगा जी का नाम जाह्नवी भी पड़ा। इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते-चलते उस स्थान पर पहुंचीं, जहां उसके चाचाओं की राख पड़ी थी। उस राख का गंगा के पवित्र जल से मिलन होते ही सगर के सभी पुत्रों की आत्मा स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर गई। इस स्थान पर आज भी गंगासागर मेला लगता है।

 

Sanjay Gupta

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(((( बेलपत्र का महत्व ))))
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प्राचीन काल में एक शिकारी जानवरों का शिकार करके अपने कुटुम्ब का पालन पोषण करता था।
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एक रोज वह जंगल में शिकार के लिए निकला लेकिन दिन भर भागदौड़ करने पर भी उसे कोई शिकार प्राप्त न हुआ।
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वह भूख-प्यास से व्याकुल होने लगा। शिकार की बाट निहारता निहारता वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर अपना पड़ाव बनाने लगा।
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बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्व पत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को इस बात का ज्ञात न था। पड़ाव बनाते बनाते उसने जो टहनियां तोड़ी, वे संयोग से शिवलिंग पर जा गिरी।
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शिकार की राह देखता देखता वह बिल्व पेड़ से पत्ते तोड़ तोड़ कर शिवलिंग पर अर्पिक करता गया। दिन भर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। इस तरह वह अनजाने में पुण्य का भागी बन गया।
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रात्रि का एक पहर व्यतीत होने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने आई। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, ‘शिकारी मुझे मत मारो मैं गर्भिणी हूं।
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शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे पास वापिस आ जाऊंगी, तब तुम मुझे मार लेना।’
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शिकारी को हिरणी सच्ची लगी उसने तुरंत प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।
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कुछ समय उपरांत एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी बहुत खुश हुआ की अब तो शिकार मिल गया। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया।
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मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘हे शिकारी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।’
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शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार अपने शिकार को उसने स्वयं खो दिया उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया।
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रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, ‘हे शिकारी ! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे मत मार।’
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शिकारी हंसा और बोला, ‘सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।’
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उत्तर में मृगी ने फिर कहा, ‘जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे शिकारी ! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।’
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मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था।
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पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा।
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शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,’ हे शिकारी भाई ! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े।
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मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊंगा।’
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मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ‘मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी।
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अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।’
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उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए।
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भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।
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थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेम भावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई।
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उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।
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देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए

 

Sanjay Gupta

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

थोड़ा झुककर विनम्र बनें

एक संत अपने शिष्य के साथ जंगल में जा रहे थे. ढलान पर से गुजरते अचानक शिष्य का पैर फिसला और वह तेजी से नीचे की ओर लुढ़कने लगा.
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वह खाई में गिरने ही वाला था कि तभी उसके हाथ में बांस का एक पौधा आ गया. उसने बांस के पौधे को मजबूती से पकड़ लिया और वह खाई में गिरने से बच गया.
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बांस धनुष की तरह मुड़ गया लेकिन न तो वह जमीन से उखड़ा और न ही टूटा. वह बांस को मजबूती से पकड़कर लटका रहा. थोड़ी देर बाद उसके गुरू पहुंचे.
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उन्होंने हाथ का सहारा देकर शिष्य को ऊपर खींच लिया. दोनों अपने रास्ते पर आगे बढ़ चले. राह में संत ने शिष्य से कहा- जान बचाने वाले बांस ने तुमसे कुछ कहा, तुमने सुना क्या ?
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शिष्य ने कहा- नहीं गुरुजी, शायद प्राण संकट में थे इसलिए मैंने ध्यान नहीं दिया और मुझे तो पेड-पौधों की भाषा भी नहीं आती. आप ही बता दीजिए उसका संदेश.
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गुरु मुस्कुराए- खाई में गिरते समय तुमने जिस बांस को पकड़ लिया था, वह पूरी तरह मुड़ गया था. फिर भी उसने तुम्हें सहारा दिया और जान बची ली.
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संत ने बात आगे बढ़ाई- बांस ने तुम्हारे लिए जो संदेश दिया वह मैं तुम्हें दिखाता हूं. गुरू ने रास्ते में खड़े बांस के एक पौधे को खींचा औऱ फिर छोड़ दिया. बांस लचककर अपनी जगह पर वापस लौट गया.
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हमें बांस की इसी लचीलेपन की खूबी को अपनाना चाहिए. तेज हवाएं बांसों के झुरमुट को झकझोर कर उखाड़ने की कोशिश करती हैं लेकिन वह आगे-पीछे डोलता मजबूती से धरती में जमा रहता है.
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बांस ने तुम्हारे लिए यही संदेश भेजा है कि जीवन में जब भी मुश्किल दौर आए तो थोड़ा झुककर विनम्र बन जाना लेकिन टूटना नहीं क्योंकि बुरा दौर निकलते ही पुन: अपनी स्थिति में दोबारा पहुंच सकते हो.
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शिष्य बड़े गौर से सुनता रहा. गुरु ने आगे कहा- बांस न केवल हर तनाव को झेल जाता है बल्कि यह उस तनाव को अपनी शक्ति बना लेता है और दुगनी गति से ऊपर उठता है.
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बांस ने कहा कि तुम अपने जीवन में इसी तरह लचीले बने रहना. गुरू ने शिष्य को कहा- पुत्र पेड़-पौधों की भाषा मुझे भी नहीं आती. बेजुबान प्राणी हमें अपने आचरण से बहुत कुछ सिखाते है।

Sanjay Gupta

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मेरेपापाकी_औकात
पाँच दिन की छूट्टियाँ बिता कर जब ससुराल पहुँची तो पति घर के सामने स्वागत में खड़े थे।
अंदर प्रवेश किया तो छोटे से गैराज में चमचमाती गाड़ी खड़ी थी स्विफ्ट डिजायर!

मैंने आँखों ही आँखों से पति से प्रश्न किया तो उन्होंने गाड़ी की चाबियाँ थमाकर कहा:-“कल से तुम इस गाड़ी में कॉलेज जाओगी प्रोफेसर साहिबा!”

“ओह माय गॉड!!”

ख़ुशी इतनी थी कि मुँह से और कुछ निकला ही नही। बस जोश और भावावेश में मैंने तहसीलदार साहब को एक जोरदार झप्पी देदी और अमरबेल की तरह उनसे लिपट गई। उनका गिफ्ट देने का तरीका भी अजीब हुआ करता है।

सब कुछ चुपचाप और अचानक!!

खुद के पास पुरानी इंडिगो है और मेरे लिए और भी महंगी खरीद लाए।

6 साल की शादीशुदा जिंदगी में इस आदमी ने न जाने कितने गिफ्ट दिए।
गिनती करती हूँ तो थक जाती हूँ।
ईमानदार है रिश्वत नही लेते । मग़र खर्चीले इतने कि उधार के पैसे लाकर गिफ्ट खरीद लाते है।

लम्बी सी झप्पी के बाद मैं अलग हुई तो गाडी का निरक्षण करने लगी। मेरा फसन्दीदा कलर था। बहुत सुंदर थी।

फिर नजर उस जगह गई जहाँ मेरी स्कूटी खड़ी रहती थी।
हठात! वो जगह तो खाली थी।

“स्कूटी कहाँ है?” मैंने चिल्लाकर पूछा।

“बेच दी मैंने, क्या करना अब उस जुगाड़ का? पार्किंग में इतनी जगह भी नही है।”

“मुझ से बिना पूछे बेच दी तुमने??”

“एक स्कूटी ही तो थी; पुरानी सी। गुस्सा क्यूँ होती हो?”

उसने भावहीन स्वर में कहा तो मैं चिल्ला पड़ी:-“स्कूटी नही थी वो।

मेरी जिंदगी थी। मेरी धड़कनें बसती थी उसमें। मेरे पापा की इकलौती निशानी थी मेरे पास।

मैं तुम्हारे तौफे का सम्मान करती हूँ मगर उस स्कूटी के बिना पे नही। मुझे नही चाहिए तुम्हारी गाड़ी। तुमने मेरी सबसे प्यारी चीज बेच दी। वो भी मुझसे बिना पूछे।'”

मैं रो पड़ी।
शौर सुनकर मेरी सास बाहर निकल आई।

उसने मेरे सर पर हाथ फेरा तो मेरी रुलाई और फुट पड़ी।

“रो मत बेटा, मैंने तो इससे पहले ही कहा था।

एक बार बहु से पूछ ले। मग़र बेटा बड़ा हो गया है।

तहसीलदार!! माँ की बात कहाँ सुनेगा?

मग़र तू रो मत।

और तू खड़ा-खड़ा अब क्या देख रहा है वापस ला स्कूटी को।”
तहसीलदार साहब गर्दन झुकाकर आए मेरे पास।

रोते हुए नही देखा था मुझे पहले कभी।
प्यार जो बेइन्तहा करते हैं।

याचना भरे स्वर में बोले:- सॉरी यार! मुझे क्या पता था वो स्कूटी तेरे दिल के इतनी करीब है। मैंने तो कबाड़ी को बेचा है सिर्फ सात हजार में। वो मामूली पैसे भी मेरे किस काम के थे? यूँ ही बेच दिया कि गाड़ी मिलने के बाद उसका क्या करोगी? तुम्हे ख़ुशी देनी चाही थी आँसू नही। अभी जाकर लाता हूँ। ”
फिर वो चले गए।

मैं अपने कमरे में आकर बैठ गई। जड़वत सी।

पति का भी क्या दोष था।

हाँ एक दो बार उन्होंने कहा था कि ऐसे बेच कर नई ले ले।

मैंने भी हँस कर कह दिया था कि नही यही ठीक है।
लेकिन अचानक स्कूटी न देखकर मैं बहुत ज्यादा भावुक हो गई थी। होती भी कैसे नही।

वो स्कूटी नही #”औकात” थी मेरे पापा की।

जब मैं कॉलेज में थी तब मेरे साथ में पढ़ने वाली एक लड़की नई स्कूटी लेकर कॉलेज आई थी। सभी सहेलियाँ उसे बधाई दे रही थी।
तब मैंने उससे पूछ लिया:- “कितने की है?
उसने तपाक से जो उत्तर दिया उसने मेरी जान ही निकाल ली थी:-” कितने की भी हो? तेरी और तेरे पापा की औकात से बाहर की है।”

अचानक पैरों में जान नही रही थी। सब लड़कियाँ वहाँ से चली गई थी। मगर मैं वही बैठी रह गई। किसी ने मेरे हृदय का दर्द नही देखा था। मुझे कभी यह अहसास ही नही हुआ था कि वे सब मुझे अपने से अलग “गरीब”समझती थी। मगर उस दिन लगा कि मैं उनमे से नही हूँ।
घर आई तब भी अपनी उदासी छूपा नही पाई। माँ से लिपट कर रो पड़ी थी। माँ को बताया तो माँ ने बस इतना ही कहा” छिछोरी लड़कियों पर ज्यादा ध्यान मत दे! पढ़ाई पर ध्यान दे!”
रात को पापा घर आए तब उनसे भी मैंने पूछ लिया:-“पापा हम गरीब हैं क्या?”
तब पापा ने सर पे हाथ फिराते हुए कहा था”-हम गरीब नही हैं बिटिया, बस जरासा हमारा वक़्त गरीब चल रहा है।”
फिर अगले दिन भी मैं कॉलेज नही गई। न जाने क्यों दिल नही था। शाम को पापा जल्दी ही घर आ गए थे। और जो लाए थे वो उतनी बड़ी खुशी थी मेरे लिए कि शब्दों में बयाँ नही कर सकती। एक प्यारी सी स्कूटी। तितली सी। सोन चिड़िया सी। नही, एक सफेद परी सी थी वो। मेरे सपनों की उड़ान। मेरी जान थी वो। सच कहूँ तो उस रात मुझे नींद नही आई थी। मैंने पापा को कितनी बार थैंक्यू बोला याद नही है। स्कूटी कहाँ से आई ? पैसे कहाँ से आए ये भी नही सोच सकी ज्यादा ख़ुशी में। फिर दो दिन मेरा प्रशिक्षण चला। साईकिल चलानी तो आती थी। स्कूटी भी चलानी सीख गई।
पाँच दिन बाद कॉलेज पहुँची। अपने पापा की “औकात” के साथ। एक राजकुमारी की तरह। जैसे अभी स्वर्णजड़ित रथ से उतरी हो। सच पूछो तो मेरी जिंदगी में वो दिन ख़ुशी का सबसे बड़ा दिन था। मेरे पापा मुझे कितना चाहते हैं सबको पता चल गया।
मग़र कुछ दिनों बाद एक सहेली ने बताया कि वो पापा के साईकिल रिक्सा पर बैठी थी। तब मैंने कहा नही यार तुम किसी और के साईकिल रिक्शा पर बैठी हो। मेरे पापा का अपना टेम्पो है।
मग़र अंदर ही अंदर मेरा दिमाग झनझना उठा था। क्या पापा ने मेरी स्कूटी के लिए टेम्पो बेच दिया था। और छः महीने से ऊपर हो गए। मुझे पता भी नही लगने दिया।
शाम को पापा घर आए तो मैंने उन्हें गोर से देखा। आज इतने दिनों बाद फुर्सत से देखा तो जान पाई कि दुबले पतले हो गए है। वरना घ्यान से देखने का वक़्त ही नही मिलता था। रात को आते थे और सुबह अँधेरे ही चले जाते थे। टेम्पो भी दूर किसी दोस्त के घर खड़ा करके आते थे।
कैसे पता चलता बेच दिया है।
मैं दौड़ कर उनसे लिपट गई!:-“पापा आपने ऐसा क्यूँ किया?” बस इतना ही मुख से निकला। रोना जो आ गया था।
” तू मेरा ग़ुरूर है बिटिया, तेरी आँख में आँसू देखूँ तो मैं कैसा बाप? चिंता ना कर बेचा नही है। गिरवी रखा था। इसी महीने छुड़ा लूँगा।”
“आप दुनिया के बेस्ट पापा हो। बेस्ट से भी बेस्ट।इसे सिद्ध करना जरूरी कहाँ था? मैंने स्कूटी मांगी कब थी?क्यूँ किया आपने ऐसा? छः महीने से पैरों से सवारियां ढोई आपने। ओह पापा आपने कितनी तक़लीफ़ झेली मेरे लिए ? मैं पागल कुछ समझ ही नही पाई ।” और मैं दहाड़े मार कर रोने लगी। फिर हम सब रोने लगे। मेरे दोनों छोटे भाई। मेरी मम्मी भी।
पता नही कब तक रोते रहे ।
वो स्कूटी नही थी मेरे लिए। मेरे पापा के खून से सींचा हुआ उड़नखटोला था मेरा। और उसे किसी कबाड़ी को बेच दिया। दुःख तो होगा ही।
अचानक मेरी तन्द्रा टूटी। एक जानी-पहचानी सी आवाज कानो में पड़ी। फट-फट-फट,, मेरा उड़नखटोला मेरे पति देव यानी तहसीलदार साहब चलाकर ला रहे थे। और चलाते हुए एकदम बुद्दू लग रहे थे। मगर प्यारे

 

Sanjay Gupta