Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

(((( असली पारस ))))
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संत नामदेव की पत्नी का नाम राजाई था और परीसा भागवत की पत्नी का नाम था कमला। कमला और राजाई शादी के पहले सहेलियाँ थीं।
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दोनों की शादी हुई तो पड़ोस-पड़ोस में ही आ गयीं। राजाई नामदेव जी जैसे महापुरुष की पत्नी थी और कमला परीसा भागवत जैसे देवी के उपासक की पत्नी थी।
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कमला के पति ने देवी की उपासना करके देवी से पारस माँग लिया और वे बड़े धन-धान्य से सम्पन्न होकर रहने लगे।
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नामदेव जी दर्जी का काम करते थे। वे कीर्तन-भजन करने जाते और पाँच- पन्द्रह दिन के बाद लौटते। अपना दर्जी का काम करके आटे-दाल के पैसे इकट्ठे करते और फिर चले जाते।
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वे अत्यन्त दरिद्रता में जीते थे लेकिन अंदर से बड़े सन्तुष्ट और खुश रहते थे।
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एक दिन नामदेव जी कहीं कीर्तन-भजन के लिए गये तो कमला ने राजाई से कहा कि ‘तुम्हारी गरीबी देखकर मुझे तरस आता है। मेरा पति बाहर गया, तुम यह पारस ले लो, थोड़ा सोना बना लो और अपने घर को धन धान्य से सम्पन्न कर लो।‘
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राजाई ने पारस लिया और थोड़ा सा सोना बना लिया। संतुष्ट व्यक्ति की माँग भी आवश्यकता की पूर्ति भर होती है। ऐसा नहीं कि दस टन सोना बना ले, एक दो पाव बनाया बस।
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नामदेव जी ने आकर देखा तो घर में बहुत सारा सामान, धन-धान्य…. भरा-भरा घर दीखा। शक्कर, गुड़, घी आदि जो भी घर की आवश्यकता थी वह सारा सामान आ गया था।
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नामदेव जी ने कहाः “इतना सारा वैभव कहाँ से आया ? “
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राजाई ने सारी बात बता दी कि “परीसा भागवत ने देवी की उपासना की और देवी ने पारस दिया। वे लोग खूब सोना बनाते हैं और इसीलिए दान भी करते हैं, मजे से रहते हैं। हम दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। मेरा दुःख देखकर उसको दया आ गयी।“
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नामदेव जी ने कहाः “मुझे तुझ पर दया आती है कि सारे पारसों के पारस ईश्वर है, उसको छोड़कर तू एक पत्थर लेकर पगली हो रही है। चल मेरे साथ, उठा ये सामान !”
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नामदेव जी बाहर गरीबों में सब सामान बाँटकर आ गये। घर जैसे पहले था ऐसे ही खाली-खट कर दिया।
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नामदेव जी ने पूछाः “वह पत्थर कहाँ है ? लाओ !” राजाई पारस ले आयी। नामदेव जी ने उसे ले जाकर नदी में फेंक दिया और कहने लगे ‘मेरे विट्ठल, पांडुरंग ! हमें अपनी माया से बचा। इस धन दौलत, सुख सुविधा से बचा, नहीं तो हम तेरा, अंतरात्मा का सुख भूल जायेंगे।‘ – ऐसा कहते कहते वे ध्यान मग्न हो गये।
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स्त्रियों के पेट में ऐसी बड़ी बात ज्यादा देर नहीं ठहरती। राजाई ने अपनी सहेली से कहा कि ऐसा-ऐसा हो गया। अब सहेली कमला तो रोने लगी।
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इतने में परीसा भागवत आया, पूछाः “कमला ! क्या हुआ, क्या हुआ ? “
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वह बोलीः “तुम मुझे मार डालोगे ऐसी बात है।“ आखिर परीसा भागवत ने सारा रहस्य समझा तो वह क्रोध से लाल-पीला हो गया।
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बोलाः “कहाँ है नामदेव, कहाँ है ? कहाँ गया मेरा पारस, कहाँ गया ? “ और इधर नामदेव तो नदी के किनारे ध्यानमग्न थे।
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परीसा भागवत वहाँ पहुँचाः “ओ ! ओ भगत जी ! मेरा पारस दीजिये।“
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नामदेवः “पारस तो मैंने डाल दिया उधर (नदी में)। परम पारस तो है अपना आत्मा। यह पारस पत्थर क्या करता है ? मोह, माया, भूत-पिशाच की योनि में भटकाता है। पारस-पारस क्या करते हो भाई ! बैठो और पांडुरंग का दर्शन करो।“
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“मुझे कोई दर्शन-वर्शन नहीं करना।“
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“हरि हरि बोलो , और आत्मविश्रांति पाओ !!
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“नहीं चाहिए आत्मविश्रान्ति, आप ही पाओ। मेरे जीवन में दरिद्रता है, ऐसा है वैसा है… मुझे मेरा पारस दीजिये।“
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“पारस तो नदी में डाल दिया।“
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“नदी में डाल दिया ! नहीं, मुझे मेरा वह पारस दीजिये।“
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“अब क्या करना है….. सच्चा पारस तो तुम्हारी आत्मा ही है। अरे, सत्य आत्मा है….“
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“मैं आपको हाथ जोड़ता हूँ मेरे बाप ! मुझे मेरा पारस दो…. पारस दो…..।“
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“पारस मेरे पास नही है, वह तो मैंने नदी में डाल दिया।“
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“कितने वर्ष साधना की, मंत्र-अनुष्ठान किये, सिद्धि आयी, अंत में सिद्धिस्वरूपा देवी ने मुझे वह पारस दिया है। देवी का दिया हुआ वह मेरा पारस….“
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नामदेव जी तो संत थे, उनको तो वह मार नहीं सकता था। अपने-आपको ही कूटने लगा।
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नामदेव जी बोलेः “अरे क्या पत्थर के टुकड़े के लिए आत्मा का अपमान करता है !”
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‘जय पांडुरंगा !’ कहकर नामदेव जी ने नदीं में डुबकी लगायी और कई पत्थर ला के रख दिये उसके सामने।
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“आपका पारस आप ही देख लो।“
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देखा तो सभी पारस ! “इतने पारस कैसे !”
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“अरे, कैसे-कैसे क्या करते हो, जैसे भी आये हों ! आप ले लो अपना पारस !”
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“ये कैसे पारस, इतने सारे !”
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नामदेव जी बोलेः “अरे, आप अपना पारस पहचान लो।“
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अब सब पारस एक जैसे, जैसे रूपये-रूपये के सिक्के सब एक जैसे। आपने मुझे एक सिक्का दिया, मैंने फेंक दिया और मैं वैसे सौ सिक्के ला के रख दूँ और बोलूँ कि आप अपना सिक्का खोज लो तो क्या आप खोज पाओगे ?
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उसने एक पारस उठाकर लोहे से छुआया तो वह सोना बन गया। लोहे की जिस वस्तु को लगाये वह सोना !
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“ओ मेरी पांडुरंग माऊली (माँ) ! क्या आपकी लीला है ! हम समझ रहे थे कि नामदेव दरिद्र हैं। बाप रे ! हम ही दरिद्र हैं। नामदेव तो कितने वैभवशाली हैं। नहीं चाहिए पारस, नहीं चाहिए, फेंक दो। ओ पांडुरंग !”
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परीसा भागवत ने सारे-के-सारे पारस नदी में फेंक दिये और परमात्म- पारस में ध्यान मग्न हो गये।
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ईश्वर जिस ध्यान में हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश जिस ध्यान में हैं, तुम वहाँ पहुँच सकते हो। अपनी महिमा में लग जाओ। आपका समय कितना कीमती है और आप कौन से कूड़-कपट जैसी क्रिया-कलापों में उलझ रहे हो !
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अभी आप बन्धन में हो, मौत कभी भी आकर आपको ले जा सकती है और भी किसी के गर्भ में ढकेल सकती है। गर्भ न मिले तो नाली में बहने को आप मजबूर होंगे।
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चाहे आपके पास कितने भी प्रमाण पत्र हों, कुछ भी हो, आपके आत्मवैभव के आगे यह दुनिया कोई कीमत नहीं रखती।
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“जब मिला आत्म हीरा, जग हो गया सवा कसीरा।”

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संजय गुप्ता

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#एकसच्चीकहानी..

व्हीलचेअर पर आया था दूल्हा, MBA दुल्हन ने डाली वरमाला

इंदौर. सजा हुआ मंच, सुंदर-सी दुल्हन… सब खुश। पर यह क्या? हैंडसम सा दूल्हा घोड़ी पर नहीं व्हीलचेयर पर आया। गर्दन के नीचे शरीर का हिलना-डुलना भी मुश्किल, मगर इससे दुल्हन के चेहरे की खुशी कम नहीं हुई। 16 साल से वह उससे प्यार जो करती है। दुर्घटना में, प्रेमी लकवाग्रस्त हो भी गया तो क्या फर्क पड़ता है।

गौरव कहते हैं, 1998 में सविता से साकेत नगर में एक दोस्त के घर के नीचे दोनों मिले। मिलने का सिलसिला बढ़ा। करीब सात साल तक ऐसे ही चलता रहा।
मैं कंस्ट्रक्शन का बिजनेस करने लगा। दोनों ने शादी के बारे में सोचा और 2005 में घरवालों को बता दिया। अलग-अलग समाज के होने के कारण दोनों के घरवालों ने इनकार कर दिया। मगर हम दोनों कहां मानने वाले थे। एक-दो साल बाद जब दोनों परिवारों को लगा कि ये नहीं मानेंगे तो वो थोड़ा तैयार हुए। जन्म कुंडलियां मिलाई तो सविता मंगली निकली। इस पर जो बात बनी थी वो भी बिगड़ गई। दोनों परिवारों ने साफ इनकार कर दिया। दोनों परिजनों को मनाने में लगे रहे।

सविता कहती हैं, इसी बीच 17 अगस्त 2008 को गौरव अपने तीन दोस्तों के साथ महू के पास वांचू पाइंट गए थे। उनकी कार खाई में गिर गई। जब गौरव को दोस्तों ने बाहर निकाला तो उनका शरीर काम नहीं कर पा रहा था। अस्पताल गए तो डॉक्टरों ने बताया कि स्पाइनल इंज्युरी होने के कारण शरीर को लकवा हो गया है। सभी के पैरों तले जमीन खिसक गई, लेकिन तब भी प्यार कम नहीं हुआ।

परिवारवालों ने इस दुर्घटना के पीछे मेरे मंगली होने को जिम्मेदार ठहराया। गौरव से मिलने घर जाती तो घरवाले मिलने नहीं देते। घंटों घर के बाहर ही बैठी रहती। कुछ समय बाद, आखिर हमारे प्रेम और समर्पण को गौरव के परिवार ने भी समझा और मुझ पर लगाई रोक हटा दी। गौरव ने मुझसे कहीं और शादी करने के लिए कहा। मेरे परिवार ने लड़का भी देख लिया, लेकिन जल्दी ही हमारी समझ मे आ गया कि एक-दूसरे के बिना नहीं जी सकते। तय हो गया कि कुछ भी हो, शादी करेंगे।

सविता जैसा समर्पण कोई नहीं कर सकता। सविता का प्यार मुझे जल्द ठीक होने के लिए प्रेरित करता है। डॉक्टर कहते हैं, दो-तीन साल में मैं ठीक हो जाऊंगा।
सविता के लिए हेट्स-ऑफ। -गौरव
सविता की तारीफ में हमारे पास शब्द नहीं है। उसने वो किया है, जो दुनिया में कोई नहीं कर सकता।
#दीप 👏⚘⚘

संजय गुप्ता

Posted in भारतीय मंदिर - Bharatiya Mandir

मित्रो आज भूतभावन भोलेनाथ का दिन सोमवार है, आज हम आपको द्वादस ज्योतिर्लिंगों में एक त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा बतायेंगे!!!!!

त्रयम्बकेश्वर एक प्राचीन हिन्दू मंदिर है जो भारत के महाराष्ट्र के नासिक जिले की त्रयम्बकेश्वर तहसील के त्रिम्बक शहर में स्थित है। ये मंदिर नासिक शहर से 28km और नासिक रोड से 40km की दुरी पर स्थित है। त्रयम्बकेश्वर मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। ये मंदिर शिव जी के उन 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है जिन्हे भारत में सबसे पवित्र और वास्तविक माना जाता है।

मंदिर परिसर में एक कुंड है, कुशावर्त जो गोदावरी नदी, भारत की सबसे लम्बी नदी, का एक स्त्रोत्र है। वर्तमान मंदिर का निर्माण पेशवा बालाजी बजी राव (नानासाहेब) ने करवाया था। शिवपुराण के अनुसार, ब्रह्मगिरि पर्वत के शीर्ष तक पहुंचने के लिए सात सौ चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों पर चढ़ने के उपरांत ‘रामकुण्ड’ और ‘लष्मणकुण्ड’ मिलते हैं और शिखर के ऊपर पहुँचने पर गोमुख से निकलती हुई भगवती गोदावरी के दर्शन प्राप्त होते हैं।

ज्योतिर्लिंग : शिव महापुराण के मुताबिक, एक बार ब्रह्मा (सृष्टि के हिंदू देवता) और विष्णु (मुक्ति के हिन्दू देवता) के मध्य सृष्टि के वर्चस्व को लेकर एक विवाद हो गया। उनकी परीक्षा लेने के लिए, शिव जी ने एक विशाल अंतहीन प्रकाश स्तम्भ, ज्योतिर्लिंग को सृष्टि के तीनो लोको से पार कर दिया।

ब्रह्मा और विष्णु दोनों अपने अपने मार्ग चुनकर इस प्रकाश के अंत को खोजने के लिए ऊपर और नीचे की ओर चल दिए। ब्रह्मा ने झूठ कहा की उन्हें प्रकाश का अंत मिल गया जबकि विष्णु ने अपनी हार स्वीकार कर ली। उसके पश्चात शिव जी एक दूसरे प्रकाश स्तंभ के रूप में प्रकट हुए और ब्रह्मा को श्राप दिया की तुम्हे किसी भी समारोह में स्थान नहीं मिलेगा जबकि विष्णु अनंतकाल तक पूजे जायेंगे।

ज्योतिर्लिंग एक महान वास्तविकता है जिसमे से शिव जी आंशिक रूप से प्रकट होते है। तब से ये माना जाता है की ज्योतिर्लिंग मंदिर वे स्थान है जहां से शिव जी प्रकाश के एक तेजस्वी स्तंभ के रूप में प्रकट हुए थे। मूल रूप से शिव जी के 64 ज्योतिर्लिंग है जिनमे से 12 को बहुत शुभ और पवित्र माना जाता है। इन बारह ज्योतिर्लिंग में प्रत्येक का नाम इनके इष्ट देव पर रखा गया है जो शिव के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन करते है।

इन सभी स्थलों पर, मुख्य छवि शिवलिंग की है जो अनादि और अनन्त के प्रकाश स्तंभ को दर्शाती है और शिव जी की अनंत प्रकृति का वर्णन करती है।

इन बारह ज्योतिर्लिंगों में गुजरात के सोमनाथ, आंध्र प्रदेश के श्रीसैलम में स्थित मल्लिकार्जुन, मध्य प्रदेश के उज्जैन में स्थित महाकालेश्वर, मध्य प्रदेश के ओम्कारेश्वर, हिमालय के केदारनाथ, महारष्ट्र के भीमाशंकर, उत्तर प्रदेश की वाराणसी में स्थित विश्वनाथ, महाराष्ट्र के त्रयम्बकेश्वर, वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग, देवघर में देवगढ़, झारखण्ड, गुजरात के द्वारका में स्थित नागेश्वर, तमिलनाडु के रामेश्वरम में स्थित रामेश्वर और महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित गृष्णेश्वर शामिल है।

इसका निर्माण शुद्ध पत्थरो से किया गया है और मंदिर के भीतर भगवान शिव विराजमान है। ये मंदिर महाराष्ट्र के नासिक में स्थित है।

पौराणिक इतिहास : त्रयम्बकेश्वर एक धर्मिक केंद्र है जो शिव जी के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इस ज्योतिर्लिंग की सबसे असाधारण विशेषता ये है की इसके तीन मुख्य है एक भगवान् ब्रह्मा, एक भगवान् विष्णु और एक भगवान् रूद्र।

पानी के ज्यादा उपयोग के कारण ये शिवलिंग नष्ट होने लगा है। कहा जाता है ये नष्टता मानव समाज की बदलती प्रकृति का प्रतीक है। इस लिंग के चारो ओर एक रत्नजड़ित मुकुट रखा गया है जिसे त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) के सोने के मुखोटे के ऊपर रखा गया है।

कहा जाता है इस मुकुट को पांडवो के समय से है जिसमे हीरे, पन्ने और कई कीमती रत्न जड़े गए है। इस मुकुट को केवल सोमवार के दिन 4 से 5 pm बजे तक दिखाया जाता है। ये मंदिर ब्रह्मगिरि पर्वत की तलहटी में स्थित है। ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी तीन स्रोतों द्वारा निकलती है।

विशेषता : त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग में ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश तीनों ही एक साथ विराजमान हैं जो यहाँ की सबसे अनोखी और असामान्य विशेषता है। क्योकि अन्य सभी ज्योतिर्लिंगों में भगवान शिव ही विराजमान है।

निर्माण : गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्रिमबकेश्वर मंदिर का निर्माण काले पत्थरो से किया गया है। मंदिर की वास्तुकला बहुत की आकर्षक है। इस मंदिर के पंचक्रोशी में कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि आदि की पूजाएं कराइ जाती है। जिनका आयोजन भक्तगण अलग-अलग मनोकामनाओं को पूर्ण करवाने के लिए करवाते हैं।

इस प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण तीसरे पेशवा बालाजी अर्थात नाना साहब पेशवा ने करवाया था। इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1755 में शुरू हुआ था जिसका अंत 31 साल के बाद सं 1786 में सम्पूर्ण हुआ। तथ्यों के मुताबिक इस भव्य प्राचीन मंदिर के निर्माण कार्य में लगभग 16 लाख रुपए खर्च किए गए थे, जिसे उस समय काफी बड़ी रकम माना जाता था।

मंदिर : कुछ दूर पैदल यात्रा करने के पश्चात मंदिर का मुख्य द्वार नजर आने लगता है। त्र्यंबकेश्वर मंदिर की भव्य इमारत सिंधु-आर्य शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। मंदिर के भीतर एक गर्भगृह है जिसमे प्रवेश करने के पश्चात शिवलिंग की केवल आर्घा दिखाई देती है, लिंग नहीं।

यदि ध्यान से देखा जाए तो आर्घा के भीतर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। इन लिंगों को त्रिदेव- ब्रह्मा-विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है। प्रातः काल में होने वाली पूजा के बाद इस आर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है।

दंतकथाओं के मुताबिक त्रिम्बक गौतम ऋषि की तपोभूमि हुआ करती थी। उनके ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने शिव जी का कठोर तप किया और उनसे ये वरदान माँगा की वे यहाँ गंगा अवतरित कर दे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने दक्षिण की गंगा अर्थात गोदावरी नदी को यहाँ अवतरित कर दिया।

गोदावरी के आने के साथ ही गौतम ऋषि द्वारा प्रार्थना करने के बाद शिवजी ने इस मंदिर में विराजमान होना स्वीकार कर लिया। क्योकि शिव को त्रिनेत्र भी कहा जाता है उनके यहाँ विराजमान होने के कारण इस जगह को त्रिम्बक (तीन नेत्रों वाले) के नाम से जाना जाने लगा। उज्जैन और ओंकारेश्वर की ही भांति त्र्यंबकेश्वर महाराज को भी इस गाँव का राजा माना जाता है, इसलिए हर सोमवार को त्रयम्बकेश्वर के राजा अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं।

इस भ्रमण के दौरान त्रयम्बकेश्वर महाराज के पंचमुखी सोने के मुखौटे को पालकी में बैठाकर गाँव में घुमाया जाता है। फिर कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान कराया जाता है। इसके बाद मुखौटे को वापस मंदिर में लाकर हीरेजड़ित स्वर्ण मुकुट पहना दिया जाता है।

कहा जाता हैं ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाया करती थी। गोदावरी के पलायन को रोकने के लिए गौतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंधन में बाँध दिया। उसके बाद से ही इस कुंड में हमेशा पानी रहता है। इसी कुंड को ही कुशावर्त तीर्थ के नाम से जाना जाता है। कुंभ स्नान के समय शैव अखाड़े इसी कुंड में शाही स्नान करते हैं।

संजय गुप्ता

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भाईजी चरितामृत”
“प्रतिकूलतामें भगवत्कृपाकी अनुभूतियाँ”
मुझे बहुत अच्छी तरह याद है, मेरी एक बुआ थी। विवाह के थोड़े ही दिन बाद वह विधवा हो गई। उनकी एक लड़की थी, वह मर गई। वे स्वयं कहीं गिर गई तो उनका पैर टूट गया एवं काट देना पड़ा। घर में पैसा रहा नहीं। वे रामगढ़ में रहती थी।
जब मैं राजस्थान जाता तो उनसे प्राय: मिलने जाता। मैं कुछ देना चाहता तो लेती नहीं, बड़ी मुश्किल से कुछ लेतीं। बस, केवल इतना पूछती– तुम प्रसन्न हो उसके बाद केवल भगवच्चर्चा करती। हंसती रहती और बड़ी प्रसन्नता से कहती कि भैया ! मेरे समान सुखी संसार में कोई है ही नहीं। मुझे किसी तरह की न कोई बाधा है, मैं न विध्न है, न मुझे कोई बंधन है, न मेरी कहीं ममता है, न अंहता है, न मुझे कुछ चाहिए मैं तो अत्यंत प्रसन्न हूँ।
बस, ब्याज का पन्द्रह-बीस रुपया महीने का आता, उससे काम चल जाता। आर्यसमाजी विचार-धारा की थीं। लेकिन संतोषवृर्ति अद्भुत थी। मैं तो उनके दर्शन करके कृतकृत्यता का अनुभव करता। जितने अभाव जगत् में हो सकते हैं, वे सारे अभाव उनके पास थे। संतान नहीं, पुत्र नहीं, स्वास्थ नहीं, पैसा नहीं, घर में कोई नहीं। सब तरह के अभाव, पर कहती थीं कि मुझे किसी वस्तु का अभाव नहीं है। भगवान् मेरे साथ है, मुझे क्या कमी है? अब देखिये, मनुष्य कैसे प्रतिकूल परिस्थिति में भी प्रसन्न रह सकता है।
परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार भाईजी
“जय जय श्री राधे”

संजय गुप्ता

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ब्राह्मणों ने क्षत्रियों ने पुत्र से भी बढकर माना है

इस प्रसंग में रघुवंश और महाभारत से एक-एक प्रसंग रखना चाहूँगा। “एक ब्राह्मण के घर पर क्षत्रिय बालक नीति ज्ञान ले रहा था। उस ब्राह्मण देव के घर पङा अन्न तेज बारिश में बह जाता है। जिसके कारण उस ब्राह्मण का बच्चा और क्षत्रिय बालक भूख से व्याकुल हो उठते हैं। उन दोनों बालकों को भूखा देखकर ब्राह्मण भिक्षा मांगकर दो रोटी लाते हैं। तभी उनको याद आता है कि आज घर पर भोजन नहीं पका है, इसलिए गो-ग्रास भी नही दिया है। तो वे एक रोटी अपनी गैय्या को खिला देते हैं। बाकी एक रोटी अपनी पत्नी के हाथ पर रख देते हैं। दोनों पति-पत्नी विचार करते हैं दोनों बच्चों को ही खिला दिया जाए। पत्नी जब पहले अपने पुत्र को रोटी खिलाने लगती है तभी वह ब्राह्मण कहते हैं- “रुको देवी! यह अधर्म है इस पूरी रोटी पर अधिकार उस क्षत्रिय बालक का है। क्योंकी वह एक भविष्य का राजा है। वह भूख का शिकार हो जाएगा तो राज्य अनाथ रहेगा। राजसिंहासन सूना रहेगा। वही हमारा बालक शिकार होगा तो केवल यह हमारे लिए। यह कहकर उस रोटी को अपनी पत्नी से छीन लेते हैं और जाकर उस क्षत्रिय बालक को खिला देते हैं। आगे चलकर वह बालक राजा दिलीप बनते हैं और ब्राह्मण के उस परोपकारी रोटी का कमाल यह था कि राजा दिलीप इतने परोपकारी होते हैं कि एक गाय को बचाने के लिए अपना शरीर शेर को देने के लिए तैयार हो जाते हैं।

दूसरा प्रसंग महाभारत का है –” एक बार अश्वथामा अपने पिता गुरू द्रोणाचार्य के पास यह कहने लगता है पिता जी आप महर्षि परशुराम के बाद सबसे अच्छा धनुर्धारी है यदि सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी आपको बनाना ही है तो अर्जुन के बजाए मुझे बनाइये तब द्रोणाचार्य बोलते हैं, “अश्वत्थामा तुम तो केवल मेरे पुत्र हो। लेकिन अर्जुन समूचे हस्तिनापुर का पुत्र है। तुम सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन भी जाओगे तो क्या करोगे? किंतु अर्जुन बनेगा तो वह देश और धर्म की रक्षा करेगा।

जब कभी क्षत्रिय वंश के आस्तित्व खतरे में पङा तब ब्राह्मणों ने आगे आकर रक्षा की

(1) सूर्यवंश के राजा वेन जो निःसंतान ही परलोक सुधार गये तो ऋषियों ने उनके शरीर को मंथन कर मंत्रबल से पृथु को प्रकट किया जिन्होने पूरी पृथ्वी पर शासन किया था।

(2) ठीक इसी तरह सूर्यवंश के दूसरे धरा के निःसंतान राजा के शरीर को मथ कर ऋषियों ने मिथि को उत्पन्न किया गया जिन्होनें मिथिला राज्य की स्थापना की।

(3) राजा दशरथ को पुत्र नहीं हो रहा था तो ब्राह्मण जमाता मुनि की युक्ति से वंश की रक्षा हुई।

(4) चंद्र वंश क्षत्रियों की तो उत्पति ही एक ब्राह्मण तपस्वी से हुई है। महर्षि अत्रि के पुत्र हुए चंद्र और उनसे जो वंश चला वह चंद्रवंश के रूप में ख्यात हुआ।

(5) भीष्म के ब्रह्मचर्य रहने के प्रतिज्ञा के कारण जब भरत वंश के आस्तित्व पर संकट आया तो महर्षि वेदव्यास ने उस वंश की रक्षा की।

राजपूत भी ब्राह्मणों को रक्षा करने के लिए खुद के जान दांव पर लगा देते थे

वें ब्राह्मणों के रक्षा के लिए प्राथमिकता देते थे। ग्रंथो में तो अनेक वृतांत है किंतु इस पर मध्यकालीन इतिहास से चर्चा करना चाहुंगा।

(1) एक बार महाराणा प्रताप और शक्ति सिंह लङ रहे थे तभी बिच बचाव करने राजपुरोहित नारायणदास पालीवाल को शक्ति सिंह की तलवार लग गई इस घटना से महाराणा प्रताप इतने नाराज हो गये कि उन्होने तत्काल अपने भाई सिंह को राज्य से निकाल दिया।

(2) राजा कान्हङदेव अपने पुत्र विरमदेव की शादी खिलजी के बेटी फिरोजा से करने को इंकार कर दिया तो खिलजी ने 1310 बाङमेर पर आक्रमण कर भव्य महावीर मंदिर को तोङ दिया और भीनमाल से 45 हजार श्री माली वेद पाठी ब्राह्मणों को बंदी बना कर मेवाङ के खुडाला गांव में बंद कर दिया। तब उन ब्राह्मणों को छुङाने के लिए राजा कान्हङदेव चौहान ने आस-पास के सभी राजाओं को निमंत्रण भेजा जिसमें सोलंकी, गोहिल, राठौर ,परमार चंदेल और चावङा राजाओं ने राजा कान्हङदेव के साथ मिलकर खुडाला गांव में खिलजी के सेना पर आक्रमण कर 45 हजार ब्राह्मणों को छुङवाया। इस युद्ध में साल्हा सिंह ,शोभीत लाखन सिंह और अजय सिंह मोल्हावाल मारे गये थे।

(3) मेवाङ से हार के बाद लौटते समय महमूद ने 30 नवम्बर 1442 को कुंभलगढ के पास केलवाङा गांव के निकट बाणमाता मंदिर पर आक्रमण कर मंदिर तोङ डाला और मंदिर के पास रहने वाले 50 ब्राह्मण परिवारों के 140 लोगों को बंदी बना लिया। तब दो राजपूत सरदार भाला सिंह परिहार और वीर दीप सिंह ने घनघोर युद्ध कर ब्राह्मणों को तो छुङा लिया लेकिन इतने घायल हो गये थे कि वीरगति प्राप्त हो गये।

(4) 16 अगस्त 1679 को औरंगजेब के फौजदार तहवार खां ने जब पुष्कर तिर्थ पर आक्रमण कर दिया और वहां रहने वाले 80 ब्राह्मण परिवारों को बंदी बना लिया तो आलणियावास के राज सिंह राठौङ ,हरि सिंह राठौङ तथा केसरी सिंह राठौङ ने तीन दिनों तक घोर युद्ध कर पुष्कर तिर्थ की रक्षा की और 80 ब्राह्मण परिवारों को छुङवाया।

(5) 1679 में कारतलब खां और दराब खां ने खण्ठोले मंदिर पर जब आक्रमण कर मंदिर के 11 पूजारीयों को बंदी बनाकर खजाने के लिए पूछताछ करने लगा तो सुजान सिंह शेखावट, इंद्रभाण सुजान सिंह आदी ने अपना बलिदान देकर आक्रमण को निष्फल किया और ब्राह्मणों को छुङवाया।

अतः संक्षेप रूप से यह कहना चाहुंगा ब्राह्मण और क्षत्रिय के बीच अन्योनाश्रय संबध है दोनों ने एक-दूसरे को मान-सम्मान दिया है जो क्षत्रिय इतिहास और राजाओं के वीरता पर अंगुली उठा रहा है उसका DNA कदापि ब्राह्मण का नहीं हो सकता और जो क्षत्रिय ब्राह्मणों का मान-सम्मान और निरादर कर रहा हो उसका DNA एक क्षत्रिय का नही हो सकता।

राजेन्द्र सिंह राठौड़ बालवा
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Posted in कविता - Kavita - કવિતા

मोको कहां ढूँढे रे बन्दे
मैं तो तेरे पास में
ना तीरथ मे ना मूरत में
ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बन्दे
मैं तो तेरे पास में
ना मैं जप में ना मैं तप में
ना मैं बरत उपास में
ना मैं किरिया करम में रहता
नहिं जोग सन्यास में
नहिं प्राण में नहिं पिंड में
ना ब्रह्याण्ड आकाश में
ना मैं प्रकुति प्रवार गुफा में
नहिं स्वांसों की स्वांस में
खोजि होए तुरत मिल जाउं
इक पल की तालास में
कहत कबीर सुनो भई साधो
मैं तो हूं विश्वास में

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक, श्रीमद्‍भगवद्‍गीता

“उद्धव-गीता”

उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी न तो कोई इच्छा जताई और न ही कोई वरदान माँगा।
जब कृष्ण अपने अवतार काल को पूर्ण कर गौलोक जाने को तत्पर हुए, तब उन्होंने उद्धव को अपने पास बुलाया और कहा-
“प्रिय उद्धव मेरे इस ‘अवतार काल’ में अनेक लोगों ने मुझसे वरदान प्राप्त किए, किन्तु तुमने कभी कुछ नहीं माँगा! अब कुछ माँगो, मैं तुम्हें देना चाहता हूँ।
तुम्हारा भला करके, मुझे भी संतुष्टि होगी।
उद्धव ने इसके बाद भी स्वयं के लिए कुछ नहीं माँगा। वे तो केवल उन शंकाओं का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओं, और उनके कृतित्व को, देखकर उठ रही थीं।
उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा-
“भगवन महाभारत के घटनाक्रम में अनेक बातें मैं नहीं समझ पाया!
आपके ‘उपदेश’ अलग रहे, जबकि ‘व्यक्तिगत जीवन’ कुछ अलग तरह का दिखता रहा!
क्या आप मुझे इसका कारण समझाकर मेरी ज्ञान पिपासा को शांत करेंगे?”

श्री कृष्ण बोले-
“उद्धव मैंने कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह “भगवद्गीता” थी।
आज जो कुछ तुम जानना चाहते हो और उसका मैं जो तुम्हें उत्तर दूँगा, वह “उद्धव-गीता” के रूप में जानी जाएगी।
इसी कारण मैंने तुम्हें यह अवसर दिया है।
तुम बेझिझक पूछो।
उद्धव ने पूछना शुरू किया-

“हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है?”
कृष्ण ने कहा- “सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, मदद करे।”
उद्धव-
“कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीय प्रिय मित्र थे। आपाद बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया।
कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं। आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता हैं।
किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया?
आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं?
चलो ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा!
आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे!
आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक सकते थे!
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे! आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए द्रौपदी को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया, और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे!
अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे!
इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!
लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?
उसे एक आदमी घसीटकर हॉल में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है!
एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है?
बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा?
क्या यही धर्म है?”
इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!
उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए।
भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले-
“प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।
उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं।
यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।”

उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- “दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसाऔर धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा।
जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?
पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की!
और वह यह-
उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!
क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।
वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!
इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!
अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही!
तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा!
उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया!
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर-
‘हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम’
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला।
जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया।
अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?”
उद्धव बोले-
“कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई!
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?”
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
“इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?”
कृष्ण मुस्कुराए-
“उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।
न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ।
मैं केवल एक ‘साक्षी’ हूँ।
मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ।
यही ईश्वर का धर्म है।”

“वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण!
तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?
हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?”
उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा!

तब कृष्ण बोले-
“उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।
जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?
तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे।
जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो! धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है!
अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?”

भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्रमुग्ध हो गये और बोले-
प्रभु कितना गहरा दर्शन है। कितना महान सत्य। ‘प्रार्थना’ और ‘पूजा-पाठ’ से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो महज हमारी ‘पर-भावना’ है। मग़र जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि ‘ईश्वर’ के बिना पत्ता भी नहीं हिलता! तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगती है।
गड़बड़ तब होती है, जब हम इसे भूलकर दुनियादारी में डूब जाते हैं।
सम्पूर्ण श्रीमद् भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।
सारथी का अर्थ है- मार्गदर्शक।
अर्जुन के लिए सारथी बने श्रीकृष्ण वस्तुतः उसके मार्गदर्शक थे।
वह स्वयं की सामर्थ्य से युद्ध नहीं कर पा रहा था, लेकिन जैसे ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का एहसास हुआ, वह ईश्वर की चेतना में विलय हो गया!
यह अनुभूति थी, शुद्ध, पवित्र, प्रेममय, आनंदित सुप्रीम चेतना की!
तत-त्वम-असि!
अर्थात…
वह तुम ही हो।।
🙏🔔🙏
इसे ज़रूर पढ़ें।। धर्म की मानसिकता से अलग करके पढें।। जिंदगी की बहुत बड़ी सीख है इसमें।।-
🔅वंदेश्रीकृष्णम् 🔅