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शादी हुई …

दोनों बहुत खुश थे..!

स्टेज पर फोटो सेशन शुरू हुआ..!

दूल्हे ने अपने दोस्तों का परिचय साथ
खड़ी अपनी साली से करवाया ~
“ये है मेरी साली, आधी घरवाली”

दोस्त ठहाका मारकर हंस दिए !

दुल्हन मुस्कुराई और अपने देवर का परिचय अपनी सहेलियो से करवाया ~
“ये हैं मेरे देवर.. आधे पति परमेश्वर”

ये क्या हुआ..?

अविश्वसनीय…
अकल्पनीय…!

भाई समान देवर के कान सुन्न हो गए…!
पति बेहोश होते होते बचा…!

दूल्हे, दूल्हे के दोस्तों, रिश्तेदारों सहित सबके चेहरे से मुस्कान गायब हो गयी…!

लक्ष्मन रेखा नाम का एक गमला अचानक स्टेज से नीचे टपक कर फूट गया…!

स्त्री की मर्यादा नाम की हेलोजन लाईट
भक्क से फ्यूज़ हो गयी…!

थोड़ी देर बाद एक एम्बुलेंस तेज़ी से सड़कों पर भागती जा रही थी…!

जिसमे दो स्ट्रेचर थे…!

एक स्ट्रेचर पर भारतीय संस्कृति कोमा में पड़ी थी…

शायद उसे हार्ट अटैक पड़ गया था…!

दुसरे स्ट्रेचर पर पुरुषवाद घायल अवस्था में पड़ा था…!

उसे किसी ने सर पर गहरी चोट मारी थी…!

ये व्यंग उस ख़ास पुरुष वर्ग के लिए है जो खुद तो अश्लील व्यंग करना पसंद करते हैँ पर जहाँ महिलाओं कि बात आती हैं वहाँ संस्कृति कि दुहाई देते फिरते हैं…!
😔

आदर पाने के लिए आदर दीजिये
महिलाओं का मजाक बनाना बंद कीजिए…… ♥️

समीर शर्मा

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भैंस की मौत


(((((((((( भैंस की मौत ! ))))))))))
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एक दार्शनिक अपने एक शिष्य के साथ कहीं से गुजर रहा था।
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चलते-चलते वे एक खेत के पास पहुंचे। खेत अच्छी जगह स्थित था लेकिन उसकी हालत देखकर लगता था मानो उसका मालिक उस पर जरा भी ध्यान नहीं देता है।
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खैर, दोनों को प्यास लगी थी सो वे खेत के बीचो-बीच बने एक टूटे-फूटे घर के सामने पहुंचे और दरवाज़ा खटखटाया।
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अन्दर से एक आदमी निकला, उसके साथ उसकी पत्नी और तीन बच्चे भी थे। सभी फटे-पुराने कपड़े पहने हुए थे।
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दार्शनिक बोला, “ श्रीमान, क्या हमें पानी मिल सकता है ? बड़ी प्यास लगी है !”
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“ज़रूर!”, आदमी उन्हें पानी का जग थमाते हुए बोला।
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“मैं देख रहा हूँ कि आपका खेत इनता बड़ा है पर इसमें कोई फसल नही बोई गयी है, और ना ही यहाँ फलों के वृक्ष दिखायी दे रहे हैं…तो आखिर आप लोगों का गुजारा कैसे चलता है?”, दार्शनिक ने प्रश्न किया।
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“जी, हमारे पास एक भैंस है, वो काफी दूध देती है उसे पास के गाँव में बेच कर कुछ पैसे मिल जाते हैं और बचे हुए दूध का सेवन कर के हमारा गुजारा चल जाता है।”, आदमी ने समझाया।
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दार्शनिक और शिष्य आगे बढ़ने को हुए तभी आदमी बोला, “ शाम काफी हो गयी है, आप लोग चाहें तो आज रात यहीं रुक जाएं!” दोनों रुकने को तैयार हो गए।
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आधी रात के करीब जब सभी गहरी नींद में सो रहे थे तभी दार्शनिक ने शिष्य को उठाया और बोला, “चलो हमें अभी यहाँ से चलना है, और चलने से पहले हम उस आदमी की भैंस को चट्टान से गिराकर मार डालेंगे।”
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शिष्य को अपने गुरु की बात पर यकीन नहीं हो रहा था पर वो उनकी बात काट भी नहीं सकता था।
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दोनों भैंस को मार कर रातों-रात गायब हो गए !
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यह घटना शिष्य के जेहन में बैठ गयी और करीब 10 साल बाद जब वो एक सफल उद्यमी बन गया तो उसने सोचा क्यों न अपनी गलती का पश्चाताप करने के लिए एक बार फिर उसी आदमी से मिला जाए और उसकी आर्थिक मदद की जाए।
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अपनी चमचमाती कार से वह उस खेत के सामने पहुंचा।
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शिष्य को अपनी आँखों पे यकीन नहीं हो रहा था। वह उजाड़ खेत अब फलों के बागीचे में बदल चुका था…
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टूटे-फूटे घर की जगह एक शानदार बंगला खड़ा था और जहाँ अकेली भैंस बंधी रहती थी वहां अच्छी नस्ल की कई गाएं और भैंस अपना चारा चर रही थीं।
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शिष्य ने सोचा कि शायद भैंस के मरने के बाद वो परिवार सब बेच-बाच कर कहीं चला गया होगा और वापस लौटने के लिए वो अपनी कार स्टार्ट करने लगा कि तभी उसे वो दस साल पहले वाला आदमी दिखा।
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ह“ शायद आप मुझे पहचान नहीं पाए, सालों पहले मैं आपसे मिला था।”, शिष्य उस आदमी की तरफ बढ़ते हुए बोला।
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“नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है, मुझे अच्छी तरह याद है, आप और आपके गुरु यहाँ आये थे… कैसे भूल सकता हूँ उस दिन को;
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उस दिन ने तो मेरा जीवन ही बदल कर रख दिया। आप लोग तो बिना बताये चले गए पर उसी दिन ना जाने कैसे हमारी भैंस भी चट्टान से गिरकर मर गयी।
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कुछ दिन तो समझ ही नहीं आया कि क्या करें, पर जीने के लिए कुछ तो करना था, सो लकड़ियाँ काट कर बेचने लगा, उससे कुछ पैसे हुए तो खेत में बोवाई कर दी…
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सौभाग्य से फसल अच्छी निकल गयी, बेचने पर जो पैसे मिले उससे फलों के बागीचे लगवा दिए और यह काम अच्छा चल पड़ा और इस समय मैं आस-पास के हज़ार गाँव में सबसे बड़ा फल व्यापारी हूँ…
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सचमुच, ये सब कुछ ना होता अगर उस भैंस की मौत ना हुई होती !
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“लेकिन यही काम आप पहले भी कर सकते थे ?”, शिष्य ने आश्चर्य से पूछा।
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आदमी बोला, “ बिलकुल कर सकता था ! पर तब ज़िन्दगी बिना उतनी मेहनत के आराम से चल रही थी,
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कभी लगा ही नहीं कि मेरे अन्दर इतना कुछ करने की क्षमता है सो कोशिश ही नहीं की पर जब भैंस मर गयी तब हाथ-पाँव मारने पड़े और मुझ जैसा गरीब-बेहाल इंसान भी इस मुकाम तक पहुँच पाया।”
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आज शिष्य अपने गुरु के उस निर्देश का असली मतलब समझ चुका था और बिना किसी पश्चाताप के वापस लौट पा रहा था।
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मित्रो, कई बार हम परिस्थितियों के इतने आदि हो जाते हैं कि बस उसी में जीना सीख लेते हैं, फिर चाहे वो परिस्थितियां बुरी ही क्यों न हों!
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हम अपनी जॉब से नफरत करते हैं पर फिर भी उसे पकड़े-पकड़े ज़िन्दगी बिता देते हैं, तो कई बार हम बस इसलिए नये बिजनैस के बारे में नहीं सोचते क्योंकि हमारा मौजूदा बिजनेस दाल-रोटी भर का खर्चा निकाल देता है !
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पर ऐसा करने में हम कभी भी अपनी पूरी क्षमता को यूज़ नहीं कर पाते हैं और बहुत सी ऐसी चीजें करने से चूक जाते हैं जिन्हें करने की हमारे अन्दर क्षमता है और जो हमार जीवन को कहीं बेहतर बना सकती हैं।
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सोचिये, कहीं आपकी ज़िन्दगी में भी तो कोई ऐसी भैंस नहीं जो आपको एक बेहतर ज़िन्दगी जीने से रोक रही है…
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कहीं ऐसा तो नहीं कि आपको लग रहा है कि आपने उस भैंस को बाँध कर रखा है जबकि असलियत में उस भैंस ने आपको बाँध रखा है !
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और अगर आपको लगे कि ऐसा है, तो आगे बढिए… हिम्मत करिए, अपनी रस्सी को काटिए; आजाद होइए… आपके पास खोने के लिए बहुत थोड़ा है पर पाने के लिए पूरा जहान है ! जाइए उसे पाकर दिखाइए !

(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))

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संजय गुप्ता

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(((((((((((( सुदर्शन चक्र )))))))))))
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प्राचीनकाल के समय की बात है, दैत्य और दानव प्रबल और शक्तिशाली होकर सभी मनुष्यों और ऋषिगणों को पीड़ा देने लगे और धर्म का लोप करने लगे |
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इससे परेशान होकर सभी ऋषि और देवगण भगवान विष्णु के पास पहुंचे | विष्णु भगवान ने पूछा — देवताओं !! इस समय आपके आने का क्या कारण है ? में आप लोगों के किस काम आ सकता हूँ । नि: संकोच होकर आप अपनी समस्या बताइये
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देवताओं ने कहा – ‘हे देव रक्षक हरि’! हम लोग दैत्यों के अत्याचार से अत्यंत दुखी हैं | शुक्राचार्य की दुआ और तपस्य से वें बहुत ही प्रबल हो गए हैं । हम सभी देवतां और ऋषि उन पराक्रमी दैत्यों के सामने विवश होकर उनसे परास्त हो गए हैं |
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स्वर्ग पर भी उन अत्त्यचारी दैत्यों का राज्य हो गया है । इस समय आप ही हमारे रक्षक हैं | इसलिए हम आपकी शरण में आये हैं | हे देवेश ! आप हमारी रक्षा करें”|
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भगवान विष्णु ने कहा- ऋषिगणों हम सभी के रक्षक भगवान शिव हैं | उन्हीं की कृपा से में धर्म की स्थापना तथा असुरों का विनाश करता हूँ |
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आप लोगों का दुख दूर करने के लिए में भी शिव महेश्वर की उपासना करूँगा | और मुझे पूरा विश्वास है की शिव शंकर जरुर प्रसन्न होंगे और आप लोगों का दुःख दूर करने के लिए कोई न कोई उपाय अवश्य ढूंढ लेंगे |
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विष्णु भगवन ऋषिगणों और देवताओं से ऐसा कहकर शिवा की भक्ति करने के लिए कैलाश पर्वत चले गए | वंहा पहुंचकर वो विधिपूर्वक भगवान शिव की तपस्या करने लगे |
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श्री विष्णु भगवान नित्य कई हज़ार नामों से शिवा की स्तुति करते तथा प्रत्त्येक नामोच्चारण के साथ एक- एक कमल पुष्प आपने अराध्या को अर्पित करते | इस प्रकार भगवान विष्णु की यह उपासना कई वर्षों तक निर्बाध चलती रही |
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एक दिन भगवान शिवा परमात्मा ने श्री विष्णु भक्ति की परीक्षा लेनी चाही | भगवान विष्णु हर बार की तरह एक सहस्त्र कमल पुष्प शिवजी को अर्पित करने के लिए लेकर आये | तब भगवान शिवा ने उसमे से एक कमल पुष्प कहीं छिपा दिया |
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शिव माया के द्वारा इस घटना का पता भगवान विष्णु को भी नहीं लगा | उन्होंने गिनती में एक पूष्प कम पाकर उसकी खोज आरम्भ कर दी | श्री विष्णु ने पुरे ब्रह्माण्ड का भ्रमण कर लिया परन्तु उन्हें कहीं वह पुष्प नहीं मिला
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तदन्तर दृढ वृत्त का पालन करने वाले श्री विष्णु ने आपने एक कमलवत नेत्र ही उस कमल पुष्प के स्थान पर अर्पित कर दिया
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श्री भगवान विष्णु के इस त्याग से महेश्वर तत्काल प्रसन्न हो गए और प्रकट होकर बोले– विष्णु !- में तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ | इच्छा अनुसार वार मांग सकते हो| में तुम्हारी प्रत्येक कामना पूरी करूँगा | तुम्हारे लिए मेरे पास कुछ भी अदेय नहीं है |
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श्री विष्णु ने कहा- ‘हे नाथ ! आपसे में क्या कहूँ ? आप तोह स्वयं अन्तर्यामी हैं | ब्रह्माण्ड की कोई भी बात आपसे छिपी नहीं है | आप सब कुछ जानते हैं। फिर भी अगर आप मेरे मुख से सुनना चाहते है तो सुनिए |
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प्रभु ! दैत्यों ने समूचे संसार को प्रताड़ित और दुखी किया हुआ है | धर्म की मर्यादा और विश्वास को नष्ट करने में लगे हैं और कर चुके हैं । धर्म की मर्यादा नष्ट हो चुकी है
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अतः धर्म की स्थापना और ऋषिगणों और देवताओं के संरक्षण के लिए दैत्यों का वध आवश्यक है | मेरे अस्त्र शास्त्र उन दैत्यों के विनाश में असमर्थ हैं | इसलिए में आपकी शरण में आया हूँ
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भगवान विष्णु की स्तुति सुनकर तब देवाधिदेव महादेव नें उन्हें आपना सुदर्शन चक्र दिया | उस चक्र के द्वारा श्री हरी भगवान विष्णु ने बिना किसी श्रम के समस्त प्रबल दैत्यों का संहार कर डाला |
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सम्पूर्ण जगत का संकट समाप्त हो गया | देवता और ऋषिगण सब ही सुखी हो गए | इस प्रकार भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र के रूप में एक दिव्य आयुध की प्राप्ति भी हो गयी |

संजय गुप्ता

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‘भगवान श्री कृष्ण किसी का उधार नहीं रखते..!!’


एक बार की बात है। वृन्दावन में एक संत रहा करते थे। उनका नाम था कल्याण बाँके बिहारी जी के परमभक्त थे, एक बार उनके पास एक सेठ आया अब था, तो सेठ लेकिन कुछ समय से उसका व्यापार ठीक नही चल रहा था, उसको व्यापार में बहुत नुकसान हो रहा था, अब वो सेठ उन संत के पास गया और उनको अपनी सारी व्यथा बताई और कहा: महाराज आप कोई उपाय करिये, उन संत ने कहा देखो, अगर मैं कोई उपाय जनता तो तुम्हे अवश्य बता देता, मैं तो ऐसी कोई विद्या जनता नही, जिससे मैं तेरे व्यपार को ठीक कर सकु, ये मेरे बस में नही है, हमारे तो एक ही आश्रय है बिहारी जी इतनी बात हो ही पाई थी कि बिहारी जी के मंदिर खुलने का समय हो गया.. अब उस संत ने कहा तू चल मेरे साथ ऐसा कहकर वो संत उसे बिहारी जी के मंदिर में ले आये और अपने हाथ को बिहारी जी की ओर करते हुए उस सेठ को बोले: तुझे जो कुछ मांगना है, जो कुछ कहना है, इनसे कह दे, ये सबकी कामनाओ को पूर्ण कर देते है, अब वो सेठ बिहारी जी से प्रार्थना करने लगा, दो चार दिन वृन्दावन में रुका फिर चला गया, कुछ समय बाद उसका सारा व्यापार धीरे-धीरे ठीक हो गया, फिर वो समय समय पर वृन्दावन आने लगा, बिहारी जी का धन्यवाद करता.. फिर कुछ समय बाद वो थोड़ा अस्वस्थ हो गया, वृन्दावन आने की शक्ति भी शरीर मे नही रही, लेकिन उसका एक जानकार एक बार वृन्दावन की यात्रा पर जा रहा था तो उसको बड़ी प्रसन्नता हुई कि ये बिहारी जी का दर्शन करने जा रहा है.. तो उसने उसे कुछ पैसे दिए 750 रुपये और कहा कि ये धन तू बिहारी जी की सेवा में लगा देना और उनको पोशाक धारण करवा देना
अब बात तो बहुत पुरानी है ये, अब वो भक्त जब वृन्दावन आया तो उसने बिहारी जी के लिए पोशाक बनवाई और उनको भोग भी लगवाया, लेकिन इन सब व्यवस्था में धन थोड़ा ज्यादा खर्च हो गया, लेकिन उस भक्त ने सोचा कि चलो कोई बात नही, थोड़ी सेवा बिहारी जी की हमसे बन गई कोई बात नही, लेकिन हमारे बिहारी जी तो बड़े नटखट है ही, अब इधर मंदिर बंद हुआ तो हमारे बिहारी जी रात को उस सेठ के स्वप्न में पहुच गए अब सेठ स्वप्न में बिहारी जी की उस त्रिभुवन मोहिनी मुस्कान का दर्शन कर रहा है.. उस सेठ को स्वप्न में ही बिहारी जी ने कहा: तुमने जो मेरे लिए सेवा भेजी थी, वो मेने स्वीकार की, लेकिन उस सेवा में 249 रुपये ज्यादा लगे है, तुम उस भक्त को ये रुपय लौटा देना, ऐसा कहकर बिहारी जी अंतर्ध्यान हो गए, अब उस सेठ की जब आँख खुली तो वो आश्चर्य चकित रह गया कि ये कैसी लीला है, बिहारी जी की.. अब वो सेठ जल्द से जल्द उस भक्त के घर पहुच गया तो उसको पता चला कि वो तो शाम को आयगे, जब शाम को वो भक्त घर आया तो सेठ ने उसको सारी बात बताई.. तो वो भक्त आश्चर्य चकित रह गया कि ये बात तो मैं ही जनता था और मैने तो किसी को यह बताई भी नही, सेठ ने उनको वो 249 रुपये दिए और कहा मेरे सपने में श्री बिहारी जी आए थे, वो ही मुझे ये सब बात बता कर गए है, ये लीला देखकर वो भक्त खुशी से मुस्कुराने लगा और बोला जय हो बिहारी जी की, इस कलयुग में भी बिहारी जी की ऐसी लीला तो भक्तो ऐसे है, हमारे बिहारी जी ये किसी का कर्ज किसी के ऊपर नही रहने देते, जो एक बार उनकी शरण ले लेता हैं.. फिर उसे किसी से कुछ भी माँगना नही पड़ता, उसको सब कुछ अपने आप ही मिलता चला जाता है..!!
“श्री वृन्दावन बिहारी लाल की जय”
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. ||🏵”जय श्री कृष्ण”🏵||


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संजय गुप्ता

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🐢एक कछुआ भगवान विष्णु का बड़ा अनन्य भक्त था. एक बार गंगासागर स्नान को आए कुछ ऋषियों के मुख से उसने श्रीहरि के चरणों की महिमा सुनी. कछुए के मन में प्रभु चरणों के दर्शन की तीव्र इच्छा हुई.
उसने ऋषियों से पूछा कि उसे प्रभु चरणों के दर्शन कैसे हो सकते हैं. ऋषियों ने बताया कि प्रभु के चरणों के दर्शन का सौभाग्य उन्हीं पुण्यात्माओं को मिलता है जिन पर वह प्रसन्न होते हैं.कछुए पूरी निष्ठा से प्रभु की भक्ति करता था. लेकिन उसे यज्ञ-हवन आदि तो करने आते नहीं थे, इसलिए उसे लगा कि उसकी भक्ति तो पूरी है नहीं. लेकिन जंतु रूप में तो श्रीहरि ने ही भेजा है, इसलिए मेरी क्या गलती! उसने ऋषियों से पूछा कि प्रभु कहां वास करते हैं? ऋषियों ने कहा- वैसे तो प्रभु सब जगह हैं लेकिन उनका निवास पाताल लोक से भी आगे बैकुंठधाम में है. क्षीर सागर में वह शेषनाग की शय्या पर विराजते हैं.कछुआ चल पड़ा श्रीहरि के धाम.
एक तो बेचारा ठहरा कछुआ – कछुए की चाल से ही चल पड़ा | चलते चलते – चलते चलते …. सागर तट तक भी पहुँच ही गया – फिर तैरने लगा
| बढ़ता गया – बढ़ता गया ….और
आखिर पहुँच गया वहां जहां प्रभु शेष शैया पर थे – शेष जी उन को अपने तन पर सुलाए आनन्द रत थे और लक्ष्मी मैया भक्ति स्वरूप हो प्रभु के चरण दबा रही थीं |कछुए ने प्रभु चरण छूने चाहे – पर शेष जी और लक्ष्मी जी ने उसे ऐसा करने न दिया – बेचारा तुच्छ अशुद्ध प्राणी जो ठहरा (कहानी है – असलियत में प्रभु इतने करुणावान हैं – तो उनके चिर संगी ऐसा कैसे कर सकते हैं? )बेचारा – उसकी सारी तपस्या – अधूरी ही रह गयी |
प्रभु सिर्फ मुस्कुराते रहे – और यह सब देखते नारद सोचते रहे कि प्रभु ने अपने भक्त के साथ ऐसा क्यों होने दिया?
फिर समय गुज़रता रहा, एक जन्म में वह कछुआ केवट बना – प्रभु श्री राम रूप में प्रकटे, मैया सीता रूप में और शेष जी लखन रूप में प्रकट हुए | …………….. प्रभु आये और नदी पार करने को कहा – पर केवट बोला ……….. पैर धुलवाओगे हमसे , तो ही पार ले जायेंगे हम , कही हमारी नाव ही नारी बन गयी अहिल्या की तरह , तो हम गरीबों के परिवार की रोटी ही छिनजायेगी |………. और फिर शेष जी और लक्ष्मी जी के सामने ही केवट ने प्रभु के चरण कमलों को धोने, पखारने का सुख प्राप्त किया …
और समय गुज़रा …
कछुआ अब सुदामा हुआ – प्रभु कान्हा बने , मैया बनी रुक्मिणी और शेष जी बल दाऊ रूप धर आये
दिन गुज़रते रहे – और एक दिन सुदामा बना वह नन्हा कछुआ – प्रभु से मिलने आया |धूल धूसरित पैर, कांटे लगे, बहता खून , कीचड सने …………..और क्या हुआ ?प्रभु ने अपने हाथों अपने सुदामा के पैर धोये , रुक्मिणी जल ले आयीं, और बलदाऊ भी वहीँ बालसखाओं के प्रेम को देख आँखों से प्रेम अश्रु बरसाते खड़े रहे ….

हरि अनन्त , हरि कथा अनन्ता🐢 ……..jai shree hari

संजय गुप्ता

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रावण पुत्र मेघनाद की पत्नी सती सुलोचना की कथा,,,,

सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री और लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी थी। लक्ष्मण के साथ हुए एक भयंकर युद्ध में मेघनाद का वध हुआ। उसके कटे हुए शीश को भगवान श्रीराम के शिविर में लाया गया था। अपने पती की मृत्यु का समाचार पाकर सुलोचना ने अपने ससुर रावण से राम के पास जाकर पति का शीश लाने की प्रार्थना की।

किंतु रावण इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने सुलोचना से कहा कि वह स्वयं राम के पास जाकर मेघनाद का शीश ले आये। क्योंकि राम पुरुषोत्तम हैं, इसीलिए उनके पास जाने में तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं करना चाहिए।

रावण के महापराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाद) का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर लक्ष्मण जिस समय युद्ध भूमि में जाने के लिये प्रस्तुत हुए, तब राम उनसे कहते हैं- “लक्ष्मण, रण में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावण-पुत्र मेघनाद का वध कर दोगे, इसमें मुझे कोर्इ संदह नहीं है। परंतु एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे।

क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है। ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और हमें युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी। लक्ष्मण अपनी सैना लेकर चल पड़े। समरभूमि में उन्होंने वैसा ही किया। युद्ध में अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को रघुनंदन के पास ले आये।

मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुर्इ उसकी पत्नी सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी। दूसरे ही क्षण अन्यंत दु:ख से कातर होकर विलाप करने लगी। पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यकित की हो। ऐसी दशा में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष मुझे लगेगा।

निर्णय करने के लिये उसने भुजा से कहा- “यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृत्तांत लिख दे। भुजा में दासी ने लेखनी पकड़ा दी। लेखिनी ने लिख दिया- “प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है। युद्ध भूमि में श्रीराम के भार्इ लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कर्इ वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में उनके साथ मेरी एक नहीं चली। अन्त में उन्हीं के बाणों से विद्ध होने से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश श्रीराम के पास है।

पति की भुजा-लिखित पंकितयां पढ़ते ही सुलोचना व्याकुल हो गयी। पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावणने आकर कहा- ‘शोक न कर पुत्री। प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर लोट जाऐंगे। मैं रक्त की नदियां बहा दूंगा। करुण चीत्कार करती हुर्इ सुलोचना बोली- “पर इससे मेरा क्या लाभ होगा, पिताजी। सहस्त्रों नहीं करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के आभाव की पूर्ती नहीं कर सकेंगे।

सुलोचना ने निश्चय किया कि ‘मुझे अब सती हो जाना चाहिए।’ किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती? जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दिया- “देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो। जिस समाज में बालब्रह्मचारी हनुमान, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण तथा एकपत्नीव्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।”

सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही श्रीराम खड़े हो गये और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आये और बोले- “देवी, तुम्हारे पति विश्व के अन्यतम योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत-से सदगुण थे; किंतु विधी की लिखी को कौन बदल सकता है। आज तुम्हें इस तरह देखकर मेरे मन में पीड़ा हो रही है। सुलोचना भगवान की स्तुति करने लगी। श्रीराम ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा- “देवी, मुझे लज्जित न करो। पतिव्रता की महिमा अपार है, उसकी शक्ति की तुलना नहीं है। मैं जानता हूँ कि तुम परम सती हो। तुम्हारे सतित्व से तो विश्व भी थर्राता है।

अपने स्वयं यहाँ आने का कारण बताओ, बताओ कि मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ? सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली- “राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहाँ पर आर्इ हूँ। श्रीराम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मंगवाया और सुलोचना को दे दिया।

पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। उसकी आंखें बड़े जोरों से बरसने लगीं। रोते-रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा- “सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना की मेघनाथ का वध मैंने किया है। मेघनाद को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी।

यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखने वाली उनकी अनन्य उपसिका हूँ। पर मेरे पति देव पतिव्रता नारी का अपहरण करने वाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिये युद्ध में उतरे थे, इसी से मेरे जीवन धन परलोक सिधारे।

सभी योद्धा सुलोचना को राम शिविर में देखकर चकित थे। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि सुलोचना को यह कैसे पता चला कि उसके पति का शीश भगवान राम के पास है। जिज्ञासा शान्त करने के लिये सुग्रीव ने पूछ ही लिया कि यह बात उन्हें कैसे ज्ञात हुर्इ कि मेघनाद का शीश श्रीराम के शिविर में है।

सुलोचना ने स्पष्टता से बता दिया- “मेरे पति की भुजा युद्ध भूमि से उड़ती हुर्इ मेरे पास चली गयी थी। उसी ने लिखकर मुझे बता दिया। व्यंग्य भरे शब्दों में सुग्रीव बोल उठे- “निष्प्राण भुजा यदि लिख सकती है फिर तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है। श्रीराम ने कहा- “व्यर्थ बातें मन करो मित्र। पतिव्रता के महाम्तय को तुम नहीं जानते। यदि वह चाहे तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है।

श्रीराम की मुखकृति देखकर सुलोचना उनके भावों को समझ गयी। उसने कहा- “यदि मैं मन, वचन और कर्म से पति को देवता मानती हूँ, तो मेरे पति का यह निर्जीव मस्तक हंस उठे। सुलोचना की बात पूरी भी नहीं हुर्इ थी कि कटा हुआ मस्तक जोरों से हंसने लगा। यह देखकर सभी दंग रह गये। सभी ने पतिव्रता सुलोचना को प्रणाम किया। सभी पतिव्रता की महिमा से परिचित हो गये थे।

चलते समय सुलोचना ने श्रीराम से प्रार्थना की- “भगवन, आज मेरे पति की अन्त्येष्टि क्रिया है और मैं उनकी सहचरी उनसे मिलने जा रही हूँ। अत: आज युद्ध बंद रहे। श्रीराम ने सुलोचना की प्रार्थना स्वीकार कर ली। सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गर्इ।

लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी। पति का शीश गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई।

संजय गुप्ता

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(((((((((( असली पारस ))))))))))
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संत नामदेव की पत्नी का नाम राजाई था और परीसा भागवत की पत्नी का नाम था कमला। कमला और राजाई शादी के पहले सहेलियाँ थीं।
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दोनों की शादी हुई तो पड़ोस-पड़ोस में ही आ गयीं। राजाई नामदेव जी जैसे महापुरुष की पत्नी थी और कमला परीसा भागवत जैसे देवी के उपासक की पत्नी थी।
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कमला के पति ने देवी की उपासना करके देवी से पारस माँग लिया और वे बड़े धन-धान्य से सम्पन्न होकर रहने लगे।
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नामदेव जी दर्जी का काम करते थे। वे कीर्तन-भजन करने जाते और पाँच- पन्द्रह दिन के बाद लौटते। अपना दर्जी का काम करके आटे-दाल के पैसे इकट्ठे करते और फिर चले जाते।
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वे अत्यन्त दरिद्रता में जीते थे लेकिन अंदर से बड़े सन्तुष्ट और खुश रहते थे।
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एक दिन नामदेव जी कहीं कीर्तन-भजन के लिए गये तो कमला ने राजाई से कहा कि ‘तुम्हारी गरीबी देखकर मुझे तरस आता है। मेरा पति बाहर गया, तुम यह पारस ले लो, थोड़ा सोना बना लो और अपने घर को धन धान्य से सम्पन्न कर लो।‘
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राजाई ने पारस लिया और थोड़ा सा सोना बना लिया। संतुष्ट व्यक्ति की माँग भी आवश्यकता की पूर्ति भर होती है। ऐसा नहीं कि दस टन सोना बना ले, एक दो पाव बनाया बस।
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नामदेव जी ने आकर देखा तो घर में बहुत सारा सामान, धन-धान्य…. भरा-भरा घर दीखा। शक्कर, गुड़, घी आदि जो भी घर की आवश्यकता थी वह सारा सामान आ गया था।
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नामदेव जी ने कहाः “इतना सारा वैभव कहाँ से आया ? “

राजाई ने सारी बात बता दी कि “परीसा भागवत ने देवी की उपासना की और देवी ने पारस दिया। वे लोग खूब सोना बनाते हैं और इसीलिए दान भी करते हैं, मजे से रहते हैं। हम दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। मेरा दुःख देखकर उसको दया आ गयी।“
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नामदेव जी ने कहाः “मुझे तुझ पर दया आती है कि सारे पारसों को पारस ईश्वर है, उसको छोड़कर तू एक पत्थर लेकर पगली हो रही है। चल मेरे साथ, उठा ये सामान !”
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नामदेव जी बाहर गरीबों में सब सामान बाँटकर आ गये। घर जैसे पहले था ऐसे ही खाली-खट कर दिया।
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नामदेव जी ने पूछाः “वह पत्थर कहाँ है ? लाओ !” राजाई पारस ले आयी। नामदेव जी ने उसे ले जाकर नदी में फेंक दिया और कहने लगे ‘मेरे विट्ठल, पांडुरंग ! हमें अपनी माया से बचा। इस धन दौलत, सुख सुविधा से बचा, नहीं तो हम तेरा, अंतरात्मा का सुख भूल जायेंगे।‘ – ऐसा कहते कहते वे ध्यान मग्न हो गये।
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स्त्रियों के पेट में ऐसी बड़ी बात ज्यादा देर नहीं ठहरती। राजाई ने अपनी सहेली से कहा कि ऐसा-ऐसा हो गया। अब सहेली कमला तो रोने लगी।
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इतने में परीसा भागवत आया, पूछाः “कमला ! क्या हुआ, क्या हुआ ? “
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वह बोलीः “तुम मुझे मार डालोगे ऐसी बात है।“ आखिर परीसा भागवत ने सारा रहस्य समझा तो वह क्रोध से लाल-पीला हो गया।
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बोलाः “कहाँ है नामदेव, कहाँ है ? कहाँ गया मेरा पारस, कहाँ गया ? “ और इधर नामदेव तो नदी के किनारे ध्यानमग्न थे।
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परीसा भागवत वहाँ पहुँचाः “ओ ! ओ भगत जी ! मेरा पारस दीजिये।“
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नामदेवः “पारस तो मैंने डाल दिया उधर (नदी में)। परम पारस तो है अपना आत्मा। यह पारस पत्थर क्या करता है ? मोह, माया, भूत-पिशाच की योनि में भटकाता है। पारस-पारस क्या करते हो भाई ! बैठो और पांडुरंग का दर्शन करो।“
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“मुझे कोई दर्शन-वर्शन नहीं करना।“
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“हरि हरि बोलो , और आत्मविश्रांति पाओ !!
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“नहीं चाहिए आत्मविश्रान्ति, आप ही पाओ। मेरे जीवन में दरिद्रता है, ऐसा है वैसा है… मुझे मेरा पारस दीजिये।“
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“पारस तो नदी में डाल दिया।“
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“नदी में डाल दिया ! नहीं, मुझे मेरा वह पारस दीजिये।“
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“अब क्या करना है….. सच्चा पारस तो तुम्हारी आत्मा ही है। अरे, सत्य आत्मा है….“
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“मैं आपको हाथ जोड़ता हूँ मेरे बाप ! मुझे मेरा पारस दो…. पारस दो…..।“
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“पारस मेरे पास नही है, वह तो मैंने नदी में डाल दिया।“
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“कितने वर्ष साधना की, मंत्र-अनुष्ठान किये, सिद्धि आयी, अंत में सिद्धिस्वरूपा देवी ने मुझे वह पारस दिया है। देवी का दिया हुआ वह मेरा पारस….“
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नामदेव जी तो संत थे, उनको तो वह मार नहीं सकता था। अपने-आपको ही कूटने लगा।
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नामदेव जी बोलेः “अरे क्या पत्थर के टुकड़े के लिए आत्मा का अपमान करता है !”
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‘जय पांडुरंगा !’ कहकर नामदेव जी ने नदीं में डुबकी लगायी और कई पत्थर ला के रख दिये उसके सामने।
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“आपका पारस आप ही देख लो।“
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देखा तो सभी पारस ! “इतने पारस कैसे !”
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“अरे, कैसे-कैसे क्या करते हो, जैसे भी आये हों ! आप ले लो अपना पारस !”
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“ये कैसे पारस, इतने सारे !”

नामदेव जी बोलेः “अरे, आप अपना पारस पहचान लो।“
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अब सब पारस एक जैसे, जैसे रूपये-रूपये के सिक्के सब एक जैसे। आपने मुझे एक सिक्का दिया, मैंने फेंक दिया और मैं वैसे सौ सिक्के ला के रख दूँ और बोलूँ कि आप अपना सिक्का खोज लो तो क्या आप खोज पाओगे ?
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उसने एक पारस उठाकर लोहे से छुआया तो वह सोना बन गया। लोहे की जिस वस्तु को लगाये वह सोना !
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“ओ मेरी पांडुरंग माऊली (माँ) ! क्या आपकी लीला है ! हम समझ रहे थे कि नामदेव दरिद्र हैं। बाप रे ! हम ही दरिद्र हैं। नामदेव तो कितने वैभवशाली हैं। नहीं चाहिए पारस, नहीं चाहिए, फेंक दो। ओ पांडुरंग !”
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परीसा भागवत ने सारे-के-सारे पारस नदी में फेंक दिये और परमात्म- पारस में ध्यान मग्न हो गये।
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ईश्वर जिस ध्यान में हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश जिस ध्यान में हैं, तुम वहाँ पहुँच सकते हो। अपनी महिमा में लग जाओ। आपका समय कितना कीमती है और आप कौन से कूड़-कपट जैसी क्रिया-कलापों में उलझ रहे हो !
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अभी आप बन्धन में हो, मौत कभी भी आकर आपको ले जा सकती है और भी किसी के गर्भ में ढकेल सकती है। गर्भ न मिले तो नाली में बहने को आप मजबूर होंगे।
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चाहे आपके पास कितने भी प्रमाण पत्र हों, कुछ भी हो, आपके आत्मवैभव के आगे यह दुनिया कोई कीमत नहीं रखती।

“जब मिला आत्म हीरा, जग हो गया सवा कसीरा।”
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संजय गुप्ता।

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

💥“वैष्णव जन तो तेने रे कहीए जे पीड़ पराई जाणे रे…….बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख जरूर पढे।

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आत्म का कल्याण मनुष्य के मन और विचारों पर निर्भर है !
जब तक मन साफ नहीं,भक्ति का भी कोई महत्व नहीं।
जैसे पानी के हिलते रहने से उसमें सूर्य का प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं पड़ता है,
उसी प्रकार जब तक मन में कामनाओं और वासनाओं की चंचलता रहती है, तब तक उसमें ईश्वर का प्रतिबिम्ब नहीं ठहर सकता है।
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एक संत को सुबह-सुबह सपना आया। सपने में सब तीर्थों में चर्चा चल रही थी की कि इस कुंभ के मेले में सबसे अधिक किसने पुण्य अर्जित किया।

श्री प्रयागराज ने कहा कि ” सबसे अधिक पुण्य तो रामू मोची को ही मिला हैं।”

गंगा मैया ने कहाः ” लेकिन रामू मोची तो गंगा में स्नान करने ही नहीं आया था।”
देवप्रयाग जी ने कहाः ” हाँ वो यहाँ भी नहीं आया था।”
रूद्रप्रयाग ने भी बोला “हाँ इधर भी नहीं आया था।”

फिर प्रयागराज ने कहाः ” लेकिन फिर भी इस कुंभ के मेले में जो कुंभ का स्नान हैं उसमे सबसे अधिक पुण्य रामू मोची को मिला हैं।

सब तीर्थों ने प्रयागराज से पूछा
“रामू मोची किधर रहता हैं और वो क्या करता हैं?

श्री प्रयागराजजी ने कहाः “वह रामू मोची जूता की सिलाई करता हैं और केरल प्रदेश के दीवा गाँव में रहता हैं।”

इतना स्वप्न देखकर वो संत नींद से जाग गए। और मन ही मन सोचने लगे कि क्या ये भ्रांति है या फिर सत्य हैं!

सुबह प्रभात में सपना अधिकतर सच्चे ही होते हैं। इसलिए उन्ह संत ने इसकी खोजबीन करनी की सोची।
जो जीवन्मुक्त संत महापुरूष होते हैं वो निश्चय के बड़े ही पक्के होते है,

और फिर वो संत चल पड़े केरल दिशा की ओर। स्वंप्न को याद करते और किसी किसी को पूछते – पूछते वो दीवा गाँव में पहुँच ही गये। जब गावं में उन्होंने रामू मोची के बारे में पूछा तो, उनको रामू मोची मिल ही गया। संत के सपने की बात सत्य निकली।

वो संत उस रामू मोची से मिलने गए। वह रामू मोची संत को देखकर बहुत ही भावविभोर हो गया और कहा

“महाराज! आप मेरे घर पर? मै जाति तो से चमार हूँ, हमसे तो लोग दूर दूर रहते हैं, और आप संत होकर मेरे घर आये। मेरा काम तो चमड़े का धन्धा हैं।

मै वर्ण से शूद्र हूँ। अब तो उम्र से भी लाचार हो गया हूँ। बुद्धि और विद्धा से अनपढ़ हूँ मेरा सौभाग्य हैं की आप मेरे घर पधारे.”

संत ने कहा “हाँ” मुझे एक स्वप्न आया था उसी कारण मै यहाँ आया और संत तो सबमे उसी प्रभु को देखते हैं इसलिए हमें किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नहीं हैं किसी की घर जाने में और मिलने में।

संत ने कहा आपसे से एक प्रश्न था की “आप कभी कुम्भ मेले में गए हो”? और इतना सारा पुण्य आपको कैसे मिला?

वह रामू मोची बोला ” नहीं महाराज! मै कभी भी कुंभ के मेले में नहीं गया, पर जाने की बहुत लालसा थी इसलिए मै अपनी आमदनी से रोज कुछ बचत कर रहा था।

इस प्रकार महीने में करीब कुछ रूपया इकट्ठा हो जाता था और बारह महीने में कुम्भ जाने लायक और उधर रहने खाने पीने लायक रूपये हो गए थे।

जैसे ही मेरे पास कुम्भ जाने लायक पैसे हुए मुझे कुम्भ मेले का शुरू होने का इंतज़ार होने लगा और मै बहुत ही प्रसन्न था की मै कुंभ के मेले में गंगाजी स्नान करूँगा.

लेकिन उस समय मेरी पत्नी माँ बनने वाली थी। अभी कुछ ही समय पहले की बात हैं।

एक दिन मेरी पत्नी को पड़ोस के किसी घर से मेथी की सब्जी की सुगन्ध आ गयी। और उसने वह सब्जी खाने की इच्छा प्रकट की। मैंने बड़े लोगो से सुना था कि गर्भवती स्त्री की इच्छा को पूरा कर देना चाहिए। मै सब्जी मांगने उनके घर चला गया और उनसे कहा

“बहनजी, क्या आप थोड़ी सी सब्जी मुझको दे सकते हो। मेरी पत्नी गर्भवती हैं और उसको खाने की इच्छा हो रही हैं।
“हाँ रामू भैया! हमने मेथी की सब्जी तो बना रखी हैं”

वह बहन हिचकिचाने लग गई। और फिर उसने जो कहा उसको सुनकर मै हैरान रह गया ” मै आपको ये सब्जी नहीं दे सकती क्योंकि आपको देने लायक नहीं हैं।”

“क्यों बहन जी?”
“आपको तो पता हैं हम बहुत ही गरीब हैं और हमने पिछले दो दिन से कुछ भी नहीं खाया। भोजन की कोई व्यवस्था नही हो पा रही थी। आपके जो ये भैया वो काफी परेशान हो गए थे।
मसबसे कर्जा भी ले लिया था। उनको जब कोई उपाय नहीं मिला तो भोजन के लिए घूमते – घूमते शमशान की ओर चले गए। उधर किसी ने मृत्य की बाद अपने पितरों के निमित्त ये सब्जी रखी हुई थी।

ये वहां से छिप – छिपाकर गए और उधर से ये सब्जी लेकर आ गए। अब आप ही कहो मै किसी प्रकार ये अशुद्ध और अपवित्र सब्जी दे दूं?”

उस रामू मोची ने फिर बड़े ही भावबिभोर होकर कहा “यह सब सुनकर मुझको बहुत ही दुःख हुआ कि इस संसार में केवल मै ही गरीब नहीं हूँ, जो टका-टका जोड़कर कुम्भ मेले में जाने को कठिन समझ रहा था।

जो लोग अच्छे कपडे में दिखते है वो भी अपनी मुसीबत से जूझ रहे हैं और किसी से कह भी नहीं सकते, और इस प्रकार के दिन भी देखने को मिलता हैं

और खुद और बीबी बच्चो को इतने दिन भूख से तड़फते रहते हैं! मुझे बहुत ही दुःख हुआ की हमारे पड़ोस में ऐसे लोग भी रहते हैं, और मै टका-टका बचाकर गंगा स्नान करने जा रहा हूँ ?

उनकी सेवा करना ही मेरा कुम्भ मेले जाना हैं। मैंने जो कुम्भ मेले में जाने के लिए रूपये इकट्ठे किये हुए थे वो घर से निकाल कर ले आया। और सारे पैसे उस बहन के हाथ में रख दिए।
उस दिन मेरा जो ये हृदय है बहुत ही सन्तुष्ट हो गया।
प्रभु जी! उस दिन से मेरे हृदय में आनंद और शांति आने लगी।”
वो संत बोलेः ” हाँ इसलिए जो मैने सपना देखा, उसमें सभी तीर्थ मिलकर आपकी प्रशंसा कर रहे थे।”

इसलिए संतो ने सही कहा
“वैष्णव जन तो तेने रे कहीए जे पीड़ पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे।।“

नारायण नारायण
लक्ष्मीनारायण भगवान की जय

संजय गुप्ता

Posted in भारतीय मंदिर - Bharatiya Mandir

^ पुरी में जगन्नाथ मंदिर केे कुछ आश्चर्यजनक तथ्य:-1. मन्दिर के ऊपर स्थापित ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है।2. पुरी में किसी भी स्थान से आप मन्दिर के ऊपर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा।3. सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है, और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है ।4. पक्षी या विमानों को मंदिर के ऊपर उड़ते हुए नहीं पायेगें।5. मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है ।6. मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, चाहे हजार लोगों से 20 लाख लोगों को खिला सकते हैं ।7. मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखा जाता है और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है । इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है।8. मन्दिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि नहीं सुन सकते, आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें जब आप इसे सुन सकते हैं, इसे शाम को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।साथ में यह भी जाने:------------------मन्दिर का रसोईघर दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर है।प्रति दिन सांयकाल मन्दिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़ कर बदला जाता है।मन्दिर का क्षेत्रफल चार लाख वर्ग फिट में है।मन्दिर की ऊंचाई 214 फिट है।विशाल रसोई घर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाने वाले महाप्रसाद का निर्माण करने हेतु 500 रसोईये एवं उनके 300 सहायक-सहयोगी एक साथ काम करते है। सारा खाना मिट्टी के बर्तनो मे पकाया जाता है !हमारे पूर्वज कितने बढे इंजीनियर रहें होंगेअपनी भाषा अपनी संस्कृति अपनी सभ्यता पर गर्व करोगर्व से कहो हम हिन्दुस्तानी हैॐ ॐ
^ पुरी में जगन्नाथ मंदिर केे कुछ आश्चर्यजनक तथ्य:-

1. मन्दिर के ऊपर स्थापित ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है।

2. पुरी में किसी भी स्थान से आप मन्दिर के ऊपर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही

लगा दिखेगा।

3. सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है, और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में

इसका उल्टा होता है ।

4. पक्षी या विमानों को मंदिर के ऊपर उड़ते हुए नहीं पायेगें।

5. मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है ।

6. मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ

नहीं जाती, चाहे हजार लोगों से 20 लाख लोगों को खिला सकते हैं ।

7. मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखा जाता है और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया

जाता है । इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती

जाती है।

8. मन्दिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि

नहीं सुन सकते, आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें जब आप इसे सुन सकते हैं, इसे शाम को स्पष्ट

रूप से अनुभव किया जा सकता है।

साथ में यह भी जाने:-
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मन्दिर का रसोईघर दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर है।

प्रति दिन सांयकाल मन्दिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़ कर बदला जाता है।

मन्दिर का क्षेत्रफल चार लाख वर्ग फिट में है।

मन्दिर की ऊंचाई 214 फिट है।

विशाल रसोई घर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाने वाले महाप्रसाद का निर्माण करने हेतु 500 रसोईये एवं उनके 300

सहायक-सहयोगी एक साथ काम करते है। सारा खाना मिट्टी के बर्तनो मे पकाया जाता है !

हमारे पूर्वज कितने बढे इंजीनियर रहें होंगे

अपनी भाषा अपनी संस्कृति अपनी सभ्यता पर गर्व करो
गर्व से कहो हम हिन्दुस्तानी है

ॐ ॐ

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

मेगास्थनीज के नाम पर जो कुछ लिखा गया है वह मेगास्थनीज का बिल्कुल उलटा है या निराधार है। स्वयं ग्रीक लेखकों ने कई प्रकार की जालसाजी की है। प्रायः ३०० ई.पू. में सुमेरियन लेखक बेरोसस ने लिखा है कि हेरोडोटस आदि इतिहास न जानते हैं न जानना चाहते हैं। वे केवल अपनी प्रशंसा के लिये झूठ और जालसाजी करते रहते हैं। आज तक यूरोपीय लेखकों की यही आदत है कि वे हर ज्ञान का केन्द्र ग्रीस को सिद्ध करना चाहते हैं। स्वयं हेरोडोटस अपोलोनियस आदि भारत में पढ़े थे। युक्लिड, टालेमी हिप्पार्कस आदि मिस्र में पढ़े थे। पर ग्रीस किसी भी काल में इतना सभ्य नहीं था कि वहां बाहर का कोई पढ़ने जाय। बाहरी व्यक्ति केवल गुलाम हो कर ही जा सकता था। आज भी यूरोपीय लेखक इतिहास के नाम पर केवल जालसाजी करते हैं कि ब्रिटेन आदि बहुत अच्छे हैं, केवल भारत को सभ्य बनाने के लिये पूरे संसार को लूटते रहे। हर जगह भेद पैदा कर कब्जा और लूटने की कोशिश करते रहे पर कैम्ब्रिज का भारत इतिहास, भाग ५ में लिखा है कि माउण्टबेटन का एकमात्र उद्देश्य था भारत को स्वतन्त्र करना और उसके विभाजन को रोकना। आधुनिक युग में भी ब्रिटेन, अमेरिका के अनुसार केवल इराक में ही संहार के शस्त्र हैं। ब्रिटेन अमेरिका के अणु बम केवल फूलों की वर्षा करते हैं (एक शस्त्र का नाम Daisy-cutter है)। केवल अमेरिका ने ही जापान के २ नगरों के लाखों निरपराध लोगों की हत्या की जब जापान समर्पण का निर्णय बता चुका था।
(१) मेगास्थनीज ने लिखा है कि विश्व में भारत एकमात्र देश है जहां कोई भी बाहर से नहीं आया है। पर अंग्रेजों को यह सिद्ध करना था कि उनकी तरह भारतीय लोग भी मध्य एशिया के आर्य थे जो बाहर से आये थे। कम से कम ३०० ई.पू. तक तो सभी पारसी, ग्रीक लेखकों को पता था कि भारतीय बाहर से नहीं आये थे। अतः अंग्रेजों ने इसको झूठा सिद्ध करने के लिये पश्चिमोत्तर भारत में खुदाई शुरु कर दी। वहां का इतिहास भी स्पष्ट रूप से मालूम था। ३०४२ ई.पू. में परीक्षित की हत्या तक्षक ने की जो तक्षशिला का नागवंशी राजा था। २७ वर्ष बाद इसका बदला उसके पुत्र जनमेजय ने लिया। जहां उसने पहली बार नागों को पराजित किया वहां लाहौर के निकट गुरु गोविन्द सिंह जी ने एक राम मन्दिर बनवाया था जिसमें यह घटना लिखी हुयी थी। दो नगरों को उसने श्मशान बना दिया जिसके कारण उनका नाम मोइन-जो-दरो = मुर्दों का स्थान, और हडप्पा = हड्डियों का ढेर पड़ गया। किसी भी अपराध के लिये भारत के लोग नरसंहार उचित नहीं समझते अतः सन्तों ने युद्ध बन्द कर प्रायश्चित्त करने का आदेश दिया उसके बाद अगला सूर्य ग्रहण पुरी में हुआ जब जयाभ्युदय युधिष्ठिर शक ८९ प्लवङ्ग सम्वत्सर पौष अमावास्या सोमवार को व्यतीपात योग था। उस समय जनमेजय ने ५ स्थानों पर दानपत्र दिये जिनमें केदारनाथ का पट्टा अभी तक चल रहा है। ये सभी जनवरी १९०० में मैसूर ऐण्टीकुअरी में प्रकाशित हुये थे। इनका समय २७-११-३०१४ ई.पू. आता है पर कोलब्रुक ने इसको ४५०० वर्ष बाद १५२६ ई. दिखाने की चेष्टा की। भारत के सेवकों में किसी ने इस चेष्टा का विरोध नहीं किया। इसके अनुसार मुगल काल में पाण्डवों का शासन चल रहा था। इन पट्टों के प्रकाशन के बाद खुदाई बहुत जरूरी थी अतः मोइन-जो-दरो और हड़प्पा में खुदाई कर मनमाना निष्कर्ष निकालने की चेष्टा हुई। आज तक वहां कोई लेख नहीं मिला है पर कई लोग लिपि पढ़ने का दावा कर चुके हैं। मिट्टी की कुछ मूर्त्तियों को लेख कह उसे वेद पुराण की कहानियों से जोड़ते रहते हैं। वेद नहीं पढ़ने पर भी कोई लड़का घोड़े की मूर्त्ति को घोड़ा ही कहेगा। जो लेख नहीं पढ़ा जा सका वह बिलकुल ठीक है। किन्तु जिस भागवत पुराण को लोग ५१०० वर्षों से पढ़ रहे हैं वह गलत है। अंग्रेजों के सहायक आर्यसमाजी मिल गये जिन्होंने बिना पढ़े ब्राह्मण ग्रन्थों और पुराणों को ब्राह्मणों की जालसाजी कह दिया। ब्राह्मण ग्रन्थॊं का ब्राह्मण जाति से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह वेदों का व्याख्या भाग है पर ब्राह्मण घृणा के कारण यह वेद नहीं माना गया। पुराण भी नैमिषारण्य में रोमहर्षण सूत द्वारा सम्पादित हुये थे। महाभारत युद्ध का वर्णन करने वाला सञ्जय भी सूत जाति का था जिनपर आर्यसमाजियों वामपन्थियों के अनुसार ब्राह्मणों ने बहुत अत्याचार किये। पर ब्राह्मण इनके ग्रन्थों को ५००० वर्षों तक श्रद्धापूर्वक पढ़ते रहे।
(२) मेगास्थनीज ने लिखा है कि भारत सभी चीजों में स्वावलम्बी है अतः पिछ्ले १५००० वर्षों (१५३०० ई.पू. से पहले) भारत ने किसी देश पर कब्जा करने की चेष्टा नहीं की। इसका सम्बन्ध कार्त्तिकेय द्वारा १५८०० ई.पू. में क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) पर आक्रमण से है जब महाभारत, वन पर्व २३०/८-१० के अनुसार उत्तर ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया था और धनिष्ठा से वर्षा शुरु होती थी। भारत का इतना पुराना इतिहास मान्य नहीं था, अतः १५००० में एक शून्य कम कर मैक्समूलर ने वैदिक काल का इतिहास १५०० ई.पू. कर दिया जिसका आजतक और कोई आधार नहीं मिला है। इस सन्दर्भ को नकल करने के बाद नष्ट करना जरूरी था अतः १८८७ के श्वानबेक संस्करण को पुनः १९२७ में मैकक्रिण्डल ने प्रकाशित किया जिसमें नया वाक्य लिखा-भारत ने कभी दूसरे देशों पर आक्रमण नहीं किया(टिप्पणी-कायरता के कारण)। मेगाथनीज के लेख से दो बातें स्पष्ट थीं, भारतीय सभ्यता कम से कम १८००० वर्ष पुरानी है तथा सिकन्दर से अंग्रेजों तक सभी आक्रमण केवल लूटने के लिये हुये थे, भारत को सभ्य और शिक्षित बनाने के लिये नहीं।
Megasthenes: Indika
http://projectsouthasia.sdstate.edu/…/Megasthenes-Indika.htm
(36.) The inhabitants, in like manner, having abundant means of subsistence, exceed in consequence the ordinary stature, and are distinguished by their proud bearing….
(38.) It is said that India, being of enormous size when taken as a whole, is peopled by races both numerous and diverse, of which not even one was originally of foreign descent, but all were evidently indigenous; and moreover that India neither received a colony from abroad, nor sent out a colony to any other nation. .
(40 …. The land, thus remaining unravaged, and producing heavy crops, supplies the inhabitants with all that is requisite to make life very enjoyable.
BOOK IV. FRAGM. XLVI. Strab. XV. (6) … Its people, he says, never sent an expedition abroad, nor was their country ever invaded and conquered except by Herakles and Dionysos in old times, and by the Makedonians in our own.
(३) १८००० वर्ष पुराना इतिहास का उल्लेख नष्ट करने के बाद भी एक उल्लेख बच जाता है कि भारत पर पहला यवन आक्रमण डायोनिसस या फादर बाक्कस के द्वारा हुआ था। वह उस स्थान तक आया था, जहां मेगास्थनीज के समय स्तम्भ था। मेगास्थनीज ने इसे हरकुलस स्तम्भ कहा है, जो विष्णुध्वज का अनुवाद है। इसकी कुतुप काल की छाया से उत्तर दिशा का ज्ञान होता है अतः दिशा निर्देशक चुम्बक को भी कुतुबनुमा कहते थे तथा इसके लिये स्तम्भ को कुतुब मीनार कहा गया। पलिबोथ्रि उसने यमुना के किनारे लिखा है जिसके बाद यह् नदी गंगा में मिलती है। इसे लोगों ने पटना बना दिया। यह प्रभद्रक smile emoticon देहली) नगर था जहां श्रीहर्ष शक के आरम्भ ४५६ ई.पू. में स्तम्भ बना था। इब्न बतूता (१२०० ई) ने भी लिखा है कि उसके समय से १५०० वर्ष पहले से कुतुब मीनार है। बाक्कस ने सिकन्दर से ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व (भारतीय गणना के अनुसार, अर्थात् अप्रैल ६७७७ ई.पू.) आक्रमण किया था जिसमें पुराणों के अनुसार सूर्यवंशी राजा बाहु मारा गया था। १५ वर्ष बाद उसके पुत्र सगर ने इनको बाहर खदेड़ा और यवनों को भारत की पश्चिमी सीमा से ग्रीस भगा दिया। हेरोडोटस के अनुसार यवनों के आने के बाद ग्रीस का नाम इयोनिया (यूनान) हो गया। आज भी अरबी चिकित्सा को यूनानी कहते हैं। राजा बाहु से चन्द्रगुप्त-१ तक भारतीय राजाओं की १५४ पीढ़ी हुयी। चन्द्रगुप्त के पिता के नाम घटोत्कच का अनुवाद ग्रीक लोगों ने नाई किया है। गंजे आदमी को घटोत्कच कहते थे-घट = सिर, उत्कच = बिना केश का। पर इसको अंग्रेजों ने मौर्य काल के साथ मिला दिया और भारतीय इतिहास के १३०० वर्ष गायब करदिये। मौर्य से गुप्त काल के राजाओं की सूची का एकमात्र स्रोत पुराण ही हैं, पर उनकी नकल करने के बाद कालक्रम में मनमानी जालसाजी करते रहते हैं और पुराणों को झूठा बताते हैं। कुछ अन्य लेखकों ने लिखा है कि इस अवधि में दो बार प्रजातन्त्र था-(१) पहला ३ पीढ़ी या १२० वर्ष का। भारतीय परम्परा के अनुसार यह परशुराम काल में था। १२० वर्ष में २१ प्रजातन्त्र हुये जिनको २१ बार क्षत्रियों का विनाश कहा जाता है। परशुराम के देहान्त के बाद ६१७७ ई.पू. में कलम्ब सम्वत् आरम्भ हुआ जो आज भी केरल में कोल्लम के नाम से चल रह है। (२) दूसरा १० पीढ़ी अर्थात् ३०० वर्ष तक चला अर्थात् ७५६ ई.पू. के शूद्रक शक से ४५६ ई.पू. के श्रीहर्ष शक तक का मालव गण। चूंकि मालव गण की राजधानी उज्जैन शून्य देशान्तर था अतः यहीं के राजा नया कैलेण्डर चलाते थे। अतः अंग्रेजों ने सभी शककर्ता (वर्ष गणना चलाने वाले) राजाओं का नाम काल्पनिक कह कर मिटा दिया जिससे कालक्रम नष्ट किया जा सके। आज भी मनमानी विधियों से गणना नष्ट करने का काम चल रहा है।
FRAGM. LVI. Plin. Hist. Nat. VI. 21. 8-23 (22) …. The river Jomanes flows through the Palibothri into the Ganges between the towns Methora and Carisobora…
FRAGM. L. C. Plin. Hist. Nat.VI. xxi. 4-5. Of the Ancient History of the Indians.
For the Indians stand almost alone among the nations in never having migrated from their own country. From the days of Father Bacchus to Alexander the Great, their kings are reckoned at 154, whose reigns extend over 6451 years and 3 months.
Solin. 52. 5.– Father Bacchus was the first who invaded India, and was the first of all who triumphed over the vanquished Indians. From him to Alexander the Great 6451 years are reckoned with 3 months additional, the calculation being made by counting the, kings who reigned in the intermediate period, to the number of 153.
(४) विश्वविद्यालयों पर सिकन्दर के आक्रमण के ३ उद्देश्य थे-(१) भारत पढ़ने के लिये हेरोडोटस अपोलोनियस आदि आये थे वे तक्षशिला ही आये होंगे। पारसी इतिहास पुस्तक (१२वीं सदी का मुज़मा-ए-तवारीख Mujma-e-Tawarikh जो किसी लुप्त संस्कृत ग्रन्थ का अनुवाद कहा जाता है) के अनुसार महाभारत के पूर्व राजा दुर्योधन ने अपने ३६ वर्ष के शासन काल में यहां विश्वविद्यालय बनाया था जहां भारत के सभी भागों से ३०००० पण्डित अपने परिवार के साथ आये थे। इसमें ३००० शिक्षक और ३०,००० छात्रों के रहने की व्यवस्था थी। दुर्योधन द्वारा स्थापित होने के कारण यहां के नागवंशी राजाओं की पाण्डवों से शत्रुता चल रही होगी जो तक्षक द्वारा परीक्षित के वध का कारण हो सकता है। सिकन्दर काल में भी यहां के राजा द्वारा पुरुवंशी राजा का विरोध हुआ होगा। अधिकतर ग्रीक लोगों ने लिखा है कि पुरु (ग्रीक में पोरस) ७ फीट ६ इंच का था और हाथी पर बैठने पर ऐसा दीखता था जैसे अन्य लोग घोड़े पर दीखते हैं। उसे देखते ही बिना लड़ाई के सिकन्दर की सेना भाग गयी थी जिसे सिकन्दर की उदारता के रूप में बाद के लेखकों ने वर्णन किया। विश्वविद्यालयों से पुराना परिचय होने के कारण यहां का रास्ता ठीक मालूम था और यहां सम्पर्क के लोग भी रहे होंगे। (२) अन्य कारण है कि विश्वविद्यालय और पुस्तकालय नष्ट करने से वहां की सभ्यता नष्ट हो जायेगी और ग्रीस को ज्ञान का केन्द्र कहा जा सकता है। (३) सबसे बड़ा कारण है कि मन्दिर और विश्वविद्यालय में सेना नहीं रहती बल्कि सरकारी हस्तक्षेप से बचने के लिये उसे दूर रखा जाता है। अतः निहत्थे लोगों की हत्या कर युद्ध जीतने का सबसे सहज तरीका है। सभी मुस्लिम आक्रमणकारियों का भी मुख्य केन्द्र मन्दिर और विद्यालय ही थे।
(५) अन्य कई स्पष्ट रूप से मूर्खतापूर्ण वर्णन हैं जिनको वैज्ञानिक इतिहास कहा जाता है-(१) पाण्ड्य लड़कियां ६ वर्ष में बच्चे पैदा करती हैं, (२) एक आंख वाली जाति भारत में थी, (३) हेरोडोटस, मेगास्थनीज आदि के अनुसार भारत में सोने की खुदाई कर निकालने वाली चींटियां हैं।