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जड़ भरत और राजा रहूगण की कथा !!!!!

कल की कथा में हमने आपको बताया था कि जड़ भरत जी महाराज के तीन जन्मों का वर्णन श्रीमद भागवत पुराण में आया है। भरत जी की माँ काली ने रक्षा की थी। फिर भरत जी महाराज अब यहाँ से भी आगे चल दिए। एक बार सिन्धुसौवीर देश का स्वामी राजा रहूगण पालकी पर सवार होकर कपिल भगवान के आश्रम पर जा रहा था। मार्ग में उन्हें पालकी उड़ाने वाले एक कहार की कमी महसूस हुई। जब सेवक कहार की खोज करने निकले तो उन्हें यही भरत जी मिल गए। और इन्हें पकड़कर पालकी उठाने में लगा दिया। वे बिना कुछ बोले ही चुपचाप पालकी को उठाकर चलने लगे।

अब संत की अपनी मस्ती होती है। कभी तो भरत जी महाराज तेज चलते, कभी धीरे चलते। इस प्रकार से राजा की पालकी हिलने डुलने लगी। राजा रहूगण ने पालकी उठाने वालों से कहा—‘अरे कहारों! अच्छी तरह चलो, पालकी को इस प्रकार ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो ?’

कहारों ने सोचा अगर हमने ये नही बताया की जो नया पालकी उठाने वाला है उसके कारण सब गड़बड़ हो रही है तो राजा हमे जरूर दंड देगा। उन्होंने राजा से कहा की- ‘महाराज! अभी नया कहार पालकी में लगाया है जो कभी धीरे चलता है और कभी जल्दी। हम लोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते’।

राजा रहूगण ने सोचा, ‘संसर्ग से उत्पन्न होने वाला दोष एक व्यक्ति में होने पर भी उससे सम्बन्ध रखने वाले सभी पुरुषों में आ सकता है। इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया जाय तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेंगे।’ ऐसा सोचकर राजा रहूगण को कुछ क्रोध हो आया।

राजा गुस्से में कहने लगा – “बड़े दुःख की बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। इतनी दूर से तुम अकेले ही बड़ी देर से पालकी ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं है और मित्र! बुढ़ापे ने अलग तुम्हें दबा रखा है।’

ऐसा सुनकर भी भरत जी ने राजा का कुछ भी बुरा न माना। और चुपचाप पालकी को लेकर चलते रहे। लेकिन भरत जी महाराज अब भी अपनी मस्ती में चले जा रहे थे। संत जन बताते हैं की चलते चलते रस्ते में एक लंबी चींटियों की लाइन भरत जी को दिखाई दी। कहीं चींटियों पर पैर न पड़ जाये उन्होंने एक छोटी सी छलांग लगाई। और जैसे ही छलांग लगाई तो राजा का सर पालकी से टकराया। और राजा गुस्से से आग बबुला हो गया। राजा कहता है -“तू जीते जी मरे के सामान है। तू सर्वथा प्रमादी है। तुझसे ये पालकी का भार नही उठाया जा रहा है। जैसे यमराज जन-समुदाय को उसके अपराधों के लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ। तब तेरे होश ठिकाने आ जायँगे”। अपने अभिमान के कारण राजा अनाप शनाप बकने लगा।

भरत जी ने सोचा की एक तो ये मुझसे सेवा करवा रहा है और दूसरा गाली भी दे रहा है। तो मैं इसे थोड़ा ज्ञान दे दूं। जड भरत ने कहा—राजन्! तुमने जो कुछ कहा वह एकदम सच है। लेकिन यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोने वाले के लिये है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलने वाले के लिये है। मोटापन भी उसी का है, यह सब शरीर के लिये कहा जाता है, आत्म के लिये नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते।

आधि, व्याधि, भूख, प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शोक—ये सब शरीर को लगते हैं इसका आत्मा से कोई लेना देना नहीं है। भूख और प्यास प्राणों को लगती है। शोक और मोह मन में होता है।

तुम राजा हो और मैं प्रजा। प्रजा का काम है वो राजा की आज्ञा का पालन करे लेकिन तुम सदा के लिए राजा नही रहोगे और मैं सदा के लिए प्रजा नही रहूँगा? तुम कह रहे हो की मैं पागल हूँ और मेरा इलाज तुम कर दोगे। मुझे शिक्षा देना ऐसे होगा जैसे कोई किसी वस्तु को पीस दे और तुम आकर उसे दोबारा पीस दो। मैं तो पहले ही पिसा हुआ हूँ तू मुझे क्या पीसेगा?

जब जड भरत यथार्थ तत्व का उपदेश करते हुए इतना उत्तर देकर मौन हो गये। फिर राजा ने सोचा ये कोई ज्ञानी पुरुष है और राजा पालकी से उतर पड़ा। उसका राजमद सर्वथा दूर हो गया और वह उनके चरणों में सिर रखकर अपना अपराध क्षमा कराते हुए इस प्रकार कहने लगा।

आप कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं? क्या आप दत्तात्रेय आदि अवधूतों में से कोई हैं ? आप किसके पुत्र हैं, आपका कहाँ जन्म हुआ है और यहाँ कैसे आपका पदार्पण हुआ है ? यदि आप हमारा कल्याण करने पधारे हैं, तो क्या आप साक्षात् सत्वमूर्ति भगवान् कपिलजी ही तो नहीं हैं ?

मुझे इन्द्र के वज्र का कोई डर नहीं है, न मैं महादेवजी के त्रिशूल से डरता हूँ और न यमराज के दण्ड से। मुझे अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेर के अस्त्र-शस्त्रों का भी कोई भय नहीं है; परन्तु मैं ब्राम्हण कुल के अपमान से बहुत ही डरता हूँ। मेरे द्वारा किसी ब्राह्मण का अपमान न हो जाये। आप कृपा करके बताइये की आप कौन हैं।

मैंने आप जैसे संत-पुरुष का अपमान किया। मैंने आपकी अवज्ञा की। अब आप ऐसी कृपा दृष्टि कीजिये, जिससे इस साधु-अवज्ञा रूप अपराध से मैं मुक्त हो जाऊँ।

जड़ भरत का राजा रहूगण को ज्ञान देना :- संत भरत कहते हैं की यह मायामय मन संसार चक्र में छलने वाला है। जब तक यह मन रहता है, तभी तक जाग्रत् और स्वप्नावस्था का व्यवहार प्रकाशित होकर जीव का दृश्य बनता है। इसलिये पण्डितजन मन को ही संसार में बंधने का और मोक्ष पद का कारण बताते हैं । विषयासक्त मन जीव को संसार-संकट में डाल देता है, विषयहीन होने पर वही उसे शान्तिमय मोक्ष पद प्राप्त करा देता है।

जिस तरह घी से भीगी हुई बत्ती को खाने वाले दीपक से तो धुंएँ वाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है—उसी प्रकार विषय और कर्मों से आसक्त हुआ मन तरह-तरह की वृत्तियों का आश्रय लिये रहता है और इनसे मुक्त होने पर वह अपने तत्व में लीन हो जाता है।

पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार—ये ग्यारह मन की वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकार के कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर—ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं । गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं; मल त्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार—ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय हैं तथा शरीर को ‘यह मेरा है’ इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है। कुछ लोग अहंकार को मन की बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीर को बारहवाँ विषय मानते हैं । ये मन की ग्यारह वृतियाँ द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और काल के द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदों में परिणत हो जाती हैं। किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्मा की सत्ता से ही है, स्वतः या परस्पर मिलकर नहीं है।

जब तक मनुष्य ज्ञान के द्वारा इस माया का तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम-क्रोधादि छः शत्रुओं को जीतकर आत्मतत्व को नहीं जान लेता और जब तक वह आत्मा के उपाधि रूप मन को संसार-दुःख का क्षेत्र नहीं समझता, तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है, क्योंकि चित्त उसके शोक, मोह, रोग, राग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि करता रहता है। यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारी उपेक्षा करने से इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरि के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार डालो।

राजा रहूगण ने कहा-“मैं आपको नमस्कार करता हूँ।” जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित रोगी के लिये मीठी ओषधि और धूप से तपे हुए पुरुष के लिये शीतल जल अमृत तुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेक बुद्धि को देहाभिमान रूप विषैले सर्प ने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधि के समान हैं। आपने कहा की भार नाम की अगर कोई चीज है तो उसका सम्बन्ध केवल देह तक ही सिमित है उसका आत्मा से कोई सम्बन्ध नही है। ये बात मेरी समझ में नही आई है। आपके ऊपर पालकी रखी हुई हुई है तो आपको भार लगेगा , और यदि आपके शरीर को भार का अनुभव होगा तो उसे आत्मा भी अनुभव करती होगी ना?

फिर राजा कहता है की तुमने कहा की सुख दुःख का अनुभव आत्मा नही करती है लेकिन मैंने युद्ध में खुद को थकते हुए देखा है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ। एक पात्र(बर्तन) है, बर्तन में पानी है और पानी में चावल है। अगर हम उसे अग्नि पर चढ़ाएंगे तो पहले अग्नि पात्र को गर्म करेगी फिर पानी गर्म होगा और फिर चावल गल जायेगा। क्योकि सभी एक दूसरे के संपर्क में है। आप समझे की इस देह का सम्बन्ध इन्द्रियों से है, इन्द्रियों का सम्बन्ध मन से है, और मन का सम्बन्ध बुद्धि और बुद्धि का सम्बन्ध आत्मा से है। एक दूसरे के संपर्क होने के कारण सुख दुःख का अनुभव आत्मा भी करती होगी ना?

राजा की इस बात को सुनकर संत भरत हँसे और बोले-“राजन! एक ओर तू तत्व को जानना चाहता है और दूसरी ओर इस व्यवहार जगत को सत्य मान बैठा है। जैसे तूने अपनी बात रखी है , इसी तरह से मैं भी अपनी बात रख देता हूँ। तूने कहा की एक बर्तन है, बर्तन में जल है, जल में चावल हैं, और जब हम अग्नि पर उसे चढ़ाते हैं तो पहले अग्नि उस पात्र को गर्म करती है, फिर पानी गर्म होता है और फिर चावल गल जाते हैं। लेकिन अगर उस पात्र में चावल की जगह एक पत्थर का टुकड़ा डाल दें तो क्या वह अग्नि उस पत्थर को जल सकती है? गला सकती है?

राजा ने कहा की-नही जल सकती है और ना ही गला सकती है।

भरत जी बोले इसी प्रकार आत्मा भी निर्लेप है, आत्मा को कोई सुख दुःख का अनुभव नही होता। ना ही इस पर जल का प्रभाव है और ना ही अग्नि का। ना अस्त्र का और ना ही शस्त्र का। इस आत्मा का वस्त्र ये देह है।

इस प्रकार जड़ भरत जी ने बड़ा ही सुंदर ज्ञान राजा रहूगण को दिया है। इसके बाद भरत जी ने भवाटवी का वर्णन किया है जिसका श्रीमद भगवत पुराण में सुंदर वर्णन है। अंत में भरत जी कहते हैं की अपने मन को संसार से हटाकर भगवान के चरणों में लगाओ। ये मन काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ, परिवार और विषयों आदि में फसाये रहता है। अब तुम प्रजा को दण्ड देने का काम छोड़कर समस्त प्राणियों के सुह्रद् हो जाओ और विषयों में अनासक्त होकर भगवत्सेवा से तीक्ष्ण किया हुआ ज्ञान रूप खड्ग लेकर इस मार्ग को पार कर लो ।

राजा रहूगण ने कहा- : आपके चरणकमलों की रज का सेवन करने से जिनके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये हैं, उन महानुभावों को भगवान् विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है। मेरा तो आपके दो घड़ी के सत्संग से ही सारा कुतर्क मूलक अज्ञान नष्ट हो गया है । इस तरह से जड़ भरत ने इन्हें ज्ञान दिया ।

राजा रहूगण उस ज्ञान को पाकर इस प्रकार तृप्त हो गए जैसे कोई निर्धन धन पाकर तृप्त हो जाता है।

संजय गुप्ता

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भगवान विष्णु के अंशावतार की कथा,,,

ध्रुव के वनगमन के पश्चात उनके पुत्र उत्कल को राजा सिंहासन पर बैठाया गया लेकिन वह ज्ञानी और विरक्त पुरुष थे अत: प्रजा ने उन्हें मूढ़ एवं पागल समझकर राजगद्दी से हटा दिया और उनके छोटे भाई भ्रमिपुत्र वत्सर को राजगद्दी पर बिठाया | उन्होंने तथा उनके पुत्रो ने लम्बी अवधि तक शाशन किया |उनकी ही वंश में एक राजा हुए – अंग | उनके यहाँ वेन नामक पुत्र हुआ।

वेन की निर्दयता से दुखी होकर राजा अंग बन को चले गये | वेन ने राजगद्दी सम्भाल ली | अत्यंत दुष्ट प्रकृति का होने के कारण अंत में ऋषियों ने उसे शाप देकर मार डाला | वेन के कोई सन्तान नही थी अत: उसकी दाहिनी भुजा का मंथन हुआ तब राजा पृथु का जन्म हुआ | ध्रुव के वंश में वेन जैसा क्रूर जीव क्यों पैदा हुआ ? इसके पीछे क्या रहस्य है ? यह जानने की इच्छा बड़ी स्वाभाविक है।

अंग राजा ने अपनी प्रजा को सुखी रखा था। एक बार उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया था | उस समय देवताओ ने अपना भाग ग्रहण नही किया क्योंकि अंग राजा के कोई सन्तान नही थी | मुनियों के कथनानुसार अंग राजा ने उस यज्ञ को अधुरा छोडकर पुत्र प्राप्ति के लिए दूसरा यज्ञ किया | आहुति देते ही यज्ञ में से एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ | उसने राजा को खीर से भरा पात्र दिया।

राजा ने खीर का पात्र लेकर सुंघा और फिर अपनी पत्नी को दे दिया | पत्नी ने उसी खीर को ग्रहण किया | समय आने पर उनके गर्भ से एक पुत्र हुआ किन्तु माता अधर्मी की पुत्री थी इस कारण वह सन्तान अधर्मी हुयी | यही अंग राजा का पुत्र वेन था | वेन के अंश से राजा पृथु की हस्तरेखाओ तथा पाँव में कमल चिन्ह था |हाथ में चक्र का चिन्ह था | वे विष्णु भगवान के ही अंश थे | ब्राह्मणों ने राजा पृथु का राज्याभिषेक करके सम्राट बना दिया | उस समय पृथ्वी अन्नहीन थी और प्रजा भूखो मर रही थी।

प्रजा का करुण क्रन्दन सुनकर राजा पृथु अति दुखी हुयी। जब उन्हें मालुम हुआ कि पृथ्वी माता ने अन्न ,औषधि आदि को अपने उदर में छुपा लिया है तो वह धनुष बाण लेकर पृथ्वी को मारन के लिए दौड़ पड़े | पृथ्वी ने जब देखा कि अब उनकी रक्षा कोई नही कर सकता तो वह राजा पृथु की शरण में आयी | जीवनदान की याचिका करती हुयी वह बोली “मुझे मारकर अपनी प्रजा को सिर्फ जल पर ही कैसे जीवित रख पाओगे ?”|

पृथु ने कहा “स्त्री पर हाथ उठाना अवश्य ही अनुचित है लेकिन जो पालनकर्ता अन्य प्राणियों के साथ निर्दयता का व्यवहार करता है उसे दंड अवश्य ही देना चाहिए “| पृथ्वी ने राजा को नमस्कार करके कहा “मेरा दोह्न करके आप सब कुछ प्राप्त करे | आपको मेरे योग्य बछड़ा और दोहन पात्र का प्रबंध करना पड़ेगा | मेरी सम्पूर्ण सम्पदा दुराचारी चोर लुट रहे थे इसलिए मैंने वह सामग्रीया अपने गर्भ में सुरक्षित रखी है मुझे आप समतल बना दीजिये “|

राजा पृथु संतुष्ट हुए | उन्होंने मनु को बछड़ा बनाया और स्वयं अपने हाथो से पृथ्वी का दोहन करके अपार धन धान्य प्राप्त किया | फिर देवताओं और महर्षियों को भी पृथ्वी के योग्य बछड़ा बनाकर विभिन्न वनस्पति ,अमृत ,सुवर्ण आदि इच्छित वस्तुए प्राप्त की।

पृथ्वी के दोहन से विपुल सम्पति एमव धन धान्य पाकर राजा पृथु अत्यंत प्रसन्न हुए | उन्होंने पृथ्वी को अपनी कन्या के रूप में स्वीकार किया | पृथ्वी को समतल बनाकर पृथु ने स्वयम पिता की भांति प्रजाजनों के कल्याण एवं पालन पोषण का कर्तव्य पूरा किया |

राजा पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञ किये | स्वयं भगवान यज्ञेश्वर उन यज्ञो में आये और साथ ही सब देवता भी आये | पृथु के इस उत्कर्ष को देखकर इंद्र को इर्ष्या हुयी | उनको संदेह हुआ कि कही राजा पृथु इन्द्रपुरी न प्राप्त कर ले | उन्होंने सौवे यज्ञ का घोडा चुरा लिया | जब इंद्र घोडा लेकर आकाश मार्ग से भाग रहे थे तो अत्री ऋषि ने उन्हें देख लिया | उन्होंने रजा को बताया और इंद्र को पकड़ने के लिए कहा| राजा ने अपने पुत्र को आदेश दिया | पृथुकुमार ने भागते हुए इंद्र का पीछा किया | इंद्र ने वेश बदल रखा था |

पृथु के पुत्र ने जब देखा कि भागने वाला जटाजूट एवं भस्म लगाये हुए है तो उसे धार्मिक व्यक्ति समझकर बाण चलाना उपयुक्त नही समझा | वह लौट आया तब अत्रि मुनि ने उसे पुनः पकड़ने के लिए भेजा | फिर से पीछा करते हुए पृथु कुमार को देखकर इंद्र घोड़े को वही छोडकर अंतर्धयान हो गये | पृथु कुमार अश्व को यज्ञशाला में आये | सभी ने उनके पराक्रम की प्रशंशा की।

अश्व को पशुशाळा में बाँध दिया गया | इंद्र ने छिप कर पुनः अश्व को चुरा लिया | अत्रि ऋषि ने जब देखा तो पृथु कुमार को बताया | पृथु कुमार ने इंद्र को बाण का लक्ष्य बनाया तो इंद्र ने अश्व को छोड़ दिया और भाग गये | इंद्र के षड्यंत्र का पता जब पृथु को चला तो उन्हें बहुत क्रोध आया | ऋषियों ने राजा को शांत किया और कहा “आप वर्ती है आप किसी का भी वध नही कर सकते है लेकिन हम मन्त्र द्वारा इंद्र को हवन कुण्ड में भस्म किये देते है “|

यह कहकर ऋषियों ने मन्त्र से इंद्र का आह्वान किया | वे आहुति डालना ही चाहते थे कि वहा ब्रह्मा प्रकट हुए | उन्होंने सबको रोक दिया | उन्होंने पृथु से कहा “तुम और इंद्र दोनों ही परमात्मा का अंश हो | तुम तो मोक्ष के अभिलाषी हो | इन यज्ञो की क्या आवश्यकता है ? तुम्हारा यह सौवा यज्ञ पूर्ण नही हुआ है इसकी चिंता मत करो | यज्ञ को रोक दो | इंद्र के पाखंड से जो अधर्म उत्पन्न हो रहा है उसका नाश करो

भगवान विष्णु स्वयं इंद्र को साथ लेकर पृथु की यज्ञ शाळा में प्रकट हुए | उन्होंने पृथु से कहा “मै तुम पर प्रसन्न हु | यज्ञ में विघ्न डालने वाले इस इंद्र को तुम क्षमा कर दो | राजा का धर्म प्रजा की रक्षा करना है तुम तत्वज्ञानी हो | भगवत प्रेमी शत्रु को भी समभाव से देखते है | तुम मेरे परमभक्त हो तुम्हारी जो इच्छा हो वह वर मांग लो “|

राजा पृथु भगवान के प्रिय वचनों से प्रस्सन थे | इंद्र लज्जित होकर राजा पृथु के चरणों में गिर पड़े | पृथु ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया | राजा पृथु ने भगवान से कहा “भगवान ! सांसारिक भोगो का वरदान मुझे नही चाहिए यदि आप देना ही चाहते है तो मुझे शहस्त्र कान दिजीये जिससे आपका कीर्तन ,कथा एवं गुणानुवाद हजारो कानो से श्रवण करता रहू इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नही चाहिए “|

भगवान श्री हरी ने कहा “राजन ! तुम्हारी अविचल भक्ति से मै अभिभूत हु तुम धर्म से प्रजा का पालन करो “| राजा पृथु ने पूजा करके उनका चरणोदक सिर पर चढ़ा लिया | राजा पृथु की जब अवस्था ढलने लगी तो उन्होंने अपने पुत्र को राज्य भार सौंप कर पत्नी अर्ची के साथ वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश लिया | अंत में तप के प्रभाव से चित्त स्थिर करके उन्होंने देह को त्याग कर दिया। उनकी पतिव्रता पत्नी महारानी अर्ची पति के साथ ही अग्नि में भस्म हो गयी | दोनों को परमधाम प्राप्त हुआ।

संजय गुप्ता

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आचार्य सुश्रुत शल्य चिकित्सा (सर्जरी) के जनक
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शल्य चिकित्सा (सर्जरी) के पितामह और सुश्रुतसंहिता के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व काशी में हुआ था। सुश्रुत का जन्म विश्वामित्र के वंश में हुआ था। इन्होंने धन्वन्तरि से शिक्षा प्राप्त की थी।

सुश्रुतसंहिता को भारतीय चिकित्सा पद्धति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसमें शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे। ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे। इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियां आदि हैं। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। आठवीं शताब्दी में सुश्रुतसंहिता का अरबी अनुवाद किताब-इ-सुश्रुत के रूप में हुआ। सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी।

एक बार आधी रात के समय सुश्रुत को दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। उन्होंने दीपक हाथ में लिया और दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही उनकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी। उस व्यक्ति की आंखों से अश्रु-धारा बह रही थी और नाक कटी हुई थी। उसकी नाक से तीव्र रक्त-स्राव हो रहा था। व्यक्ति ने आचार्य सुश्रुत से सहायता के लिए विनती की। सुश्रुत ने उसे अन्दर आने के लिए कहा। उन्होंने उसे शांत रहने को कहा और दिलासा दिया कि सब ठीक हो जायेगा। वे अजनबी व्यक्ति को एक साफ और स्वच्छ कमरे में ले गए। कमरे की दीवार पर शल्य क्रिया के लिए आवश्यक उपकरण टंगे थे। उन्होंने अजनबी के चेहरे को औषधीय रस से धोया और उसे एक आसन पर बैठाया। उसको एक गिलास में शोमरस भरकर सेवन करने को कहा और स्वयं शल्य क्रिया की तैयारी में लग गए। उन्होंने एक पत्ते द्वारा जख्मी व्यक्ति की नाक का नाप लिया और दीवार से एक चाकू व चिमटी उतारी। चाकू और चिमटी की मदद से व्यक्ति के गाल से एक मांस का टुकड़ा काटकर उसे उसकी नाक पर प्रत्यारोपित कर दिया। इस क्रिया में व्यक्ति को हुए दर्द का शौमरस ने महसूस नहीं होने दिया। इसके बाद उन्होंने नाक पर टांके लगाकर औषधियों का लेप कर दिया। व्यक्ति को नियमित रूप से औषाधियां लेने का निर्देश देकर सुश्रुत ने उसे घर जाने के लिए कहा।

सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे। सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ऑपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डी का पता लगाने और उनको जोड़ने में विशेषज्ञता प्राप्त थी। शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियां देते थे। सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे।
उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया। प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। मानव शरीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे। सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया। उन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर संरचना, काया-चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी। कई लोग प्लास्टिक सर्जरी को अपेक्षाकृत एक नई विधा के रूप में मानते हैं। प्लास्टिक सर्जरी की उत्पत्ति की जड़ें भारत की सिंधु नदी सभ्यता से 4000 से अधिक साल से जुड़ी हैं। इस सभ्यता से जुड़े श्लोकों को 3000 और 1000 ई.पू. के बीच संस्कृत भाषा में वेदों के रूप में संकलित किया गया है, जो हिन्दू धर्म की सबसे पुरानी पवित्र पुस्तकों में में से हैं। इस युग को भारतीय इतिहास में वैदिक काल के रूप में जाना जाता है, जिस अवधि के दौरान चारों वेदों अर्थात् ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद को संकलित किया गया। चारों वेद श्लोक, छंद, मंत्र के रूप में संस्कृत भाषा में संकलित किए गए हैं और सुश्रुत संहिता को अथर्ववेद का एक हिस्सा माना जाता है।

सुश्रुत संहिता, जो भारतीय चिकित्सा में सर्जरी की प्राचीन परंपरा का वर्णन करता है, उसे भारतीय चिकित्सा साहित्य के सबसे शानदार रत्नों में से एक के रूप में माना जाता है। इस ग्रंथ में महान प्राचीन सर्जन सुश्रुत की शिक्षाओं और अभ्यास का विस्तृत विवरण है, जो आज भी महत्वपूर्ण व प्रासंगिक शल्य चिकित्सा ज्ञान है। प्लास्टिक सर्जरी का मतलब है- शरीर के किसी हिस्से की रचना ठीक करना। प्लास्टिक सर्जरी में प्लास्टिक का उपयोग नहीं होता है। सर्जरी के पहले जुड़ा प्लास्टिक ग्रीक शब्द प्लास्टिको से आया है। ग्रीक में प्लास्टिको का अर्थ होता है बनाना, रोपना या तैयार करना। प्लास्टिक सर्जरी में सर्जन शरीर के किसी हिस्से के उत्तकों को लेकर दूसरे हिस्से में जोड़ता है। भारत में सुश्रुत को पहला सर्जन माना जाता है। आज से करीब 2500 साल पहले युद्ध या प्राकृतिक विपदाओं में जिनकी नाक खराब हो जाती थी, आचार्य सुश्रुत उन्हें ठीक करने का काम करते थे।
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देव शर्मा

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😎 एक बार अवश्य पढे.

एक सेठ जी थे – 🍆🍀🌺🍆🌺
जिनके पास काफी दौलत थी. 🍆🍀🌺🍆🍀🌺
सेठ जी ने अपनी बेटी की शादी एक बड़े घर में की थी.
परन्तु बेटी के भाग्य में सुख न होने के कारण उसका पति जुआरी, शराबी निकल गया. 🍆🍀🌺🍆🍀🌺
जिससे सब धन समाप्त हो गया.
🍆🍀🌺🍆🍀🌺🍆🍀🌺
बेटी की यह हालत देखकर सेठानी जी रोज सेठ जी से कहती कि आप दुनिया की मदद करते हो, 🌺🍀🍆🍀🌺
मगर अपनी बेटी परेशानी में होते हुए उसकी मदद क्यों नहीं करते हो?
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सेठ जी कहते कि 🍆🍀🌺
“जब उनका भाग्य उदय होगा तो अपने आप सब मदद करने को तैयार हो जायेंगे…”
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एक दिन सेठ जी घर से बाहर गये थे कि, तभी उनका दामाद घर आ गया. 🌺🍀🍆🌺🍀
सास ने दामाद का आदर-सत्कार किया और बेटी की मदद करने का विचार उसके मन में आया कि क्यों न मोतीचूर के लड्डूओं में अर्शफिया रख दी जाये…
🍀🍆🌺🍆🌺🍆🍀🌺
यह सोचकर सास ने लड्डूओ के बीच में अर्शफिया दबा कर रख दी और दामाद को टीका लगा कर विदा करते समय पांच किलों शुद्ध देशी घी के लड्डू, जिनमे अर्शफिया थी, दिये…
🍀🍀🍀
दामाद लड्डू लेकर घर से चला, 🍆🍀🌺🍆🍀🌺🍆🍀🌺
दामाद ने सोचा कि इतना वजन कौन लेकर जाये क्यों न यहीं मिठाई की दुकान पर बेच दिये जायें और दामाद ने वह लड्डुयों का पैकेट मिठाई वाले को बेच दिया और पैसे जेब में डालकर चला गया.
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उधर सेठ जी बाहर से आये तो उन्होंने सोचा घर के लिये मिठाई की दुकान से मोतीचूर के लड्डू लेता चलू और सेठ जी ने दुकानदार से लड्डू मांगे…मिठाई वाले ने वही लड्डू का पैकेट सेठ जी को वापिस बेच दिया.
🍆🍀🌺🍆🍀🌺🍆🍀🌺🍆🍀🌺
सेठ जी लड्डू लेकर घर आये.. सेठानी ने जब लड्डूओ का वही पैकेट देखा तो सेठानी ने लड्डू फोडकर देखे, अर्शफिया देख कर अपना माथा पीट लिया. 🌺🌺🍀🌺🍀🍆
सेठानी ने सेठ जी को दामाद के आने से लेकर जाने तक और लड्डुओं में अर्शफिया छिपाने की बात कह डाली…
🌺🍀🌺🍆🌺🍀🌺🌺🍀
सेठ जी बोले कि भाग्यवान मैंनें पहले ही समझाया था कि अभी उनका भाग्य नहीं जागा…
देखा मोहरें ना तो दामाद के भाग्य में थी और न ही मिठाई वाले के भाग्य में… 🌺🍀🌺🍀🌺🍀🌺

इसलिये कहते हैं कि भाग्य से
ज्यादा 🍀🍆🍀🍆🍀
और…
समय 🍀🍆
से पहले न किसी को कुछ मिला है और न मीलेगा!ईसी लिये ईशवर जितना दे उसी मै संतोष करो…🍆🍀🌺🍆🍀🌺🍆🍀🌺
झूला जितना पीछे जाता है, उतना ही आगे आता है।एकदम बराबर।🌺🍀🌺🍀🌺🍀🌺🍀🌺🍀
सुख और दुख दोनों ही जीवन में बराबर आते हैं।
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जिंदगी का झूला पीछे जाए, तो डरो मत, वह आगे भी आएगा।
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बहुत ही खूबसूरत लाईनें.

.किसी की मजबूरियाँ पे न हँसिये,
कोई मजबूरियाँ ख़रीद कर नहीं लाता..!
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डरिये वक़्त की मार से,बुरा वक़्त किसीको बताकर नही आता..!
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अकल कितनी भी तेज ह़ो,नसीब के बिना नही जीत सकती..!
बीरबल अकलमंद होने के बावजूद,कभी बादशाह नही बन सका…!!
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संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

माँ मदालसा


मित्रो आज रविवार है, छुट्टी का दिन है, आज हम आपको
माँ मदालसा की कथा बतायेगें!!!!!

आज विश्व में जिस तरह की संतान का निर्माण हो रहा है, यह तो सर्वविदित ही है । आज संसार भौतिकता के चरम उत्कर्ष की ओर अँधा होकर बिना सोच विचार कर दोड़ता ही जा रहा है । मानव को सुख पहुँचाने के लिए नित्य नये आविष्कार हो रहे हैं ।

यह सत्य है की भौतिक उन्नति कर मानव ने आज अपने लिए सब प्रकार के अत्याधुनिक सुख साधनों का संग्रह कर लिया है । आज धरती तो क्या चन्द्र और मंगल तक की दूरी को कुछ घंटों में ही तय कर लिया गया है । जिन साधनों की व सुख सुविधओं की कल्पना हम पहले केवल स्वपनों में ही करते थे, वो सब सुख सुविधाएँ व साधन और उससे भी अधिक बहुत कुछ हमारे लिए सुगमता से उपलब्ध है ।

परन्तु यह भी सत्य है की इतनी सुख सुविधाओं के होते हुए भी आज मानव जाति सर्वत्र दुखी और अशांत ही नजर आती है । आज जिसके पास जो नहीं है उसी को पाने के लिए मानव जूझ रहा है । किसी के पास तो सुख सुविधाओं के सभी साधन उपलब्ध हैं , किसी के पास कुछ सीमित मात्रा में हैं और कोई तो आभाव ग्रस्त जीवन ही व्यतीत कर रहा है ।

आज मानव आधुनिकता और भौतिकता के इस युग में, समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए जिन मानवीय मूल्यों की आवश्यकता होती है, उन मूल्यों को, नैतिकता को, मानवता को, बंधुत्व को सर्वथा भूल ही गया है। जिसके फलस्वरूप संसार में समानता के स्थान पर असमानता के युग का आरम्भ हो गया है और संसार में फैली इन असमानताओं के कारण ही समाज में अत्याचार, लूट-खसोट, चोरी-जारी, अपहरण , भ्रष्टाचार व बलात्कार की घटनाएँ दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है और यह सब भौतिकता के अन्धानुकरण के कारण ही हो रहा है।

मानव जीवन का एक अटूट सत्य यह भी है कि किसी भी राष्ट्र का, समाज का और स्वयं मानव का भी निर्माण एक माता के गर्भ में ही होता है, और यह भी एक माता पर ही निर्भर करता है कि उसे किस तरह की संतान को उत्पन्न करके उसे समाज के अर्पित करना है । परन्तु आज जिस तरह के मानव का निर्माण समाज में हो रहा है, उसको देख कर तो लगता है कि आज की माताओं को उनके कर्तव्य का ही बोध नहीं रहा । वह अनजाने में ही अपनी संतानों को एक अनिश्चित अंधकारपूर्ण भविष्य की ओर धकेलती जा रही है, जो आज प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर हो रहा है ।

माँ तो कभी ऐसी नहीं होती, जो जान बूझ कर अपनी संतानों को अन्धकार में धकेल दे, वह तो ममता की मूर्त होती है । माँ तो वह होती है जो एक क्या हजारों जन्म भी अपनी संतानों पर न्योछावर कर दे । आज जो कुछ भी अनहोनी समाज में हो रही है उसका कारण एक मात्र अज्ञान और अज्ञान ही है। आज आप के सामने एक माँ की सच्ची कहानी प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो भारतीय इतिहास में कहीं दबी पड़ी लुप्त प्राय ही थी ।

जिसे शायद हम कभी देख ना पाये, कभी सुन ना पाये, कभी समझ ना पाये । एक ऐसी माँ की कहानी जिसने अपनी संतानों को अपनी मीठीं – मीठीं लोरियां सुना सुना कर ब्रह्मज्ञानी बना दिया। उसने ब्रह्मज्ञान का उपदेश लोरियों के रूप में अपनी संतानों को दिया और जैसा चाहा अपनी संतान को बना दिया। वह माँ थी माँ मदालसा। आयें मर्गदर्शन हेतु इस कहानी पर दृष्टिपात कर विचार करें और एक उन्नत, सुसंस्कारी , सुखी , शांत व आनंदित संसार के निर्माण के सूत्रधार बनें ।

” हे पुत्र, तू शुद्ध आत्मा है। तेरा कोई नाम नहीं है। इस शरीर के लिए कल्पित नाम तो तुझे अभी इसी जीवन में मिला है। यह शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना हुआ है। कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है तो कोई पुत्र कहलाता है। कोई स्त्री माता है तो कोई प्राणप्रिया पत्नी।” कोई “यह मेरा है” ऎसा कहकर अपनाया जाता है तो कोई “यह मेरा नहीं है” ऎसा कहकर ठुकराया जाता है। सांसारिक पदार्थ नाना रूपों को धारण करते हैं, जिन्हें तुम पहचान लो। ”

यह प्रवचन किसी गुरू का अपने शिष्य को नहीं बल्कि बेटे के लिए उसकी माता का है। ऎसी सच्ची माता थी मदालसा। मदालसा महाराज ऋतुध्वज की पटरानी थी। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार मदालसा गंधर्वराज विश्वावसु की पुत्री थी।

माता मदालसा के तीन पुत्र हुए। ऋतुध्वज ने उनके नाम विक्रांत, सुबाहु और अरिमर्दन रखे। मदालसा इन नामों को सुनकर हंसती थी और ऋतुध्वज से कहती थी कि आवश्यक नहीं कि नाम के गुण व्यक्ति में आए ही। भला इस तरह के नाम रखकर आप इन्हें सांसारिक क्यों बनाना चाहते हैं ? मदालसा ने तीनों पुत्रों को ज्ञान-वैराग्य-भक्ति का प्रवचन कर संन्यासी बना दिया। वे तीनों भाई राज्य छोड़कर कठोर साधना करने लगे।

ऋतुध्वज ने मदालसा से कहा कि एक पुत्र राज्य को संभालने के लिए होना चाहिए। मदालसा ने कहा कि उसका नाम मैं रखूंगी। मदालसा के चौथा पुत्र हुआ। उसने इस पुत्र का नाम “अलर्क” रखा। ऋतुध्वज ने इसका अर्थ मदालसा से पूछा तो मदालसा ने कहा कि अलर्क नाम का अर्थ मदोन्मत्त व्यक्ति और पागल कुत्ता होता है। यह राज्य करेगा इसलिए यह राज के मद में उन्मत्त होगा व प्रजाजनों के कर से प्राप्त होने वाले संसाधनों को भोगेगा इससे पागल कुत्ते की तरह भोगी होगा।

मदालसा का यही पुत्र अलर्क ने एक भोगी व अत्याचारी राजा के रूप में वर्षों अपनी प्रजा का शोषण करके राज्य की और परिणाम स्वरूप अंत में एक शत्रु राजा से पराजित हो दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हुआ। इस तरह माता मदालसा अपने पुत्रों को वैराग्य मार्ग पर ले जाने वाली अनुपम माता हुई।

उसी महान माता मदालसा का महान उपदेश ज्यो का त्यों नीचे लिखी पंक्तियों में दिया जा रहा है । हम सभी को इससे शिक्षा ले कर एक ऐसी संतान का निर्माण करना चाहिए ।

मदालसा का अपने पुत्रों को ब्रह्मज्ञान का उपदेश !!!!!

पुत्र यह संसार परिवर्तनशील और स्वप्न के सामान है इसलिये मॊहनिद्रा का त्याग कर क्योकि तू शुद्ध ,बुद्ध और निरंजन है।

हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?

अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?

जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत, अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।

तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदि से बंधा हुआ है, तू तो सर्वथा इससे मुक्त है ।

कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई “यह मेरा है” कहकर अपनाया जाता है और कोई “मेरा नहीं है”, इस भाव से पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये ।

यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।

स्त्रियों की हँसी क्या है, हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष जिस पर अनुराग करता है, वह युवती स्त्री क्या नरक की जीती जागती मूर्ति नहीं है?

पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।

बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन ब्राह्मणों को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना ।

अपने मन में सदा भगवान का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना, परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना।

संजय गुप्ता

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राजा जनमेजय का नाग यज्ञ!!!!!

जनमेजय अर्जुन के पौत्र राजा परीक्षित के पुत्र थे। जनमेजय की पत्नी वपुष्टमा थी, जो काशीराज की पुत्री थी। बड़े होने पर जब जनमेजय ने पिता परीक्षित की मृत्यु का कारण सर्पदंश जाना तो उसने तक्षक से बदला लेने का उपाय सोचा। जनमेजय ने सर्पों के संहार के लिए सर्पसत्र नामक महान यज्ञ का आयोजन किया। नागों को इस यज्ञ में भस्म होने का शाप उनकी मां कद्रू ने दिया था।

नागगण अत्यंत त्रस्त थे। समुद्र मंथन में रस्सी के रूप में काम करने के उपरान्त वासुकी ने सुअवसर पाकर अपने त्रास की गाथा ब्रह्मा से कही। उन्होंने कहा कि ऋषि जरत्कारू का पुत्र धर्मात्मा आस्तीक सर्पों की रक्षा करेगा, दुरात्मा सर्पों का नाश उस यज्ञ में अवश्यंभावी है। अत: वासुकि ने एलायत्र नामक नाग की प्रेरणा से अपनी वहन जरत्कारू का विवाह ब्राह्मण जरत्कारू से कर दिया था। उनके पुत्र का नाम ‘आस्तीक’ रखा गया।

ब्राह्मण काल के अंत में उत्पन्न कुरु वंश के राजा जनमेजय को अनेक अश्वों का स्वामी बताया गया है। आसंदीवत्र उसकी राजधानी थी। पापमुक्त होने के लिए उसके पौत्रों ने अश्वमेध यज्ञ किया था। शौनक ऋषि इस यज्ञ के पुरोहित थे।

वैदिक साहित्य में अनेक जनमेजयों का उल्लेख मिलता है। इनमें प्रमुख जनमेजय कुरु वंश का राजा था। महाभारत युद्ध में अर्जुनपुत्र अभिमन्यु जिस समय मारा गया, उसकी पत्नी उत्तरा गर्भवती थी। उसके गर्भ में राजा परीक्षित का जन्म हुआ जो युद्ध के बाद हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठा। जनमेजय इसी परीक्षित का पुत्र था।

उपलब्ध विवरण के अनुसार एक बार परीक्षित ने शिकार खेलते समय एक मौन ध्यानस्थ ऋषि शमीक से पानी मांगा। मौन साधना के कारण कोई उत्तर न पाकर क्रुद्ध राजा ने उन्हें ढोंगी समझा और एक मरा हुआ सर्प उनके गले में डाल दिया। ऋषि शमीक के पुत्र श्रृंगी ऋषि को इसका पता चला तो उसने शाप दे दिया जिससे सातवें दिन तक्षक सर्प के काटने से राजा परीक्षित की मृत्यु हो गई। इसी का बदला लेने के लिए जनमेजय ने पहले तक्षशिला को जीता, फिर नाग-यज्ञ किया जिसमें सर्प यज्ञकुंड में पड़ कर मरने लगे।

राजा परिक्षित् एक बार शिकार खेलने जाकर एक ऋषि का अपराध कर बैठे। इसके फल-स्वरूप उन्हें साँप से डसे जाकर मरने का शाप मिला। शाप का हाल सुनकर काश्यप नामक एक सर्प-विष-चिकित्सक (ओझा) राजा से मिलने को चला। उसने सोचा कि राजा को साँप के डँसते ही, मैं मंत्र और ओषधि के द्वारा चंगा करके मालामाल हो जाऊँगा।

रास्ते में उससे तक्षक की भेंट हो गई। उसने ओझा के मंत्र की परीक्षा की और उसे ठीक पाया। तब उसने काश्यप से कहा कि राजा का विष उतारने के झगड़े में तुम क्यों पड़ते हो। तुम्हें सम्पदा चाहिए सो मैं यहीं दिये देता हूँ। तक्षक ने बहुत-सी सम्पत्ति देकर काश्यप को लौटा दिया और जाकर राजा को डँस लिया।

जनमेजय को ऋषि के शाप से किसी प्रकार की कुढ़न न थी। उन्हें दुख इस बात का था कि दुष्ट तक्षक ने काश्यप को रास्ते से ही क्यों लौटा दिया। उसके इस अपराध से चिढ़कर जनमेजय ने सारी सर्पजाति को नष्ट कर देने के लिए सर्पयज्ञ अनुष्ठान ठान दिया। अब क्या था, लगातार सर्प आ-आकर हवन-कुण्ड में गिरने लगे। अपराधी तक्षक डर के मारे इन्द्र की शरण में पहुँचा। अंत में अपनी रक्षा न देख इन्द्र ने भी उसका साथ छोड़ दिया।

इधर वासुकी ने जब अपने भानजे, जरत्कारु मुनि के पुत्र, आस्तीक से नाना के वंश की रक्षा करने का अनुरोध किया तब वे जनमेजय के यज्ञस्थल में जाकर यज्ञ की बेहद प्रशंसा करने लगे। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उनको मुँहमाँगी वस्तु देने का वचन दिया। इस पर आस्तीक ने प्रार्थना की कि अब आप इस यज्ञ को यहीं समाप्त कर दें। ऐसा होने पर सर्पों की रक्षा हुई। राजा जनमेजय की रानी का नाम वसुष्टमा था। यह काशिराज सुवर्णवर्मा की राजकुमारी थी।

वास्तव में अपराधी तक्षक नाग था, उसी को दण्ड देना राजा जनमेजय का कर्तव्य था। किंतु क्रोध में आकर उन्होंने सारी सर्पजाति को नष्ट कर देने का बीड़ा उठाया जो अनुचित था। एक के अपराध के लिए बहुतों को दण्ड देना ठीक नहीं। जिसने अपराध किया था और जिस दण्ड देने के लिए इतनी तैयारियाँ की गई थीं वह तक्षक अंत में बेदाग़ बच गया। यह आश्चर्य की बात है।

जनमेजय ने सर्पसत्र प्रारंभ किया। अनेक सर्प आह्वान करने पर अग्नि में गिरने प्रारंभ हो गये, तब भयभीत तक्षक ने इन्द्र की शरण ग्रहण की। वह इन्द्रपुरी में रहने लगा। वासुकि की प्रेरणा से आस्तीक परीक्षित के यज्ञस्थल भी पहुंचा तथा भांति-भांति से यजमान तथा ऋत्विजों की स्तुति करने लगा। उधर ऋत्विजों ने तक्षक का नाम लेकर आहुति डालनी प्रारंभ की। इन्द्र तक्षक को अपने उत्तरीय में छिपाकर वहां तक आये।

यज्ञ का विराट रूप देखकर वे तक्षक को अकेला छोड़कर अपने महल में चले गये। विद्वान ब्राह्मण बालक, आस्तीक, से प्रसन्न होकर जनमेजय ने उसे एक वरदान देने की इच्छा प्रकट की तो उसने यज्ञ की तुरंत समाप्ति का वर मांगा, अत: तक्षक बच गया क्योंकि उसने अभी अग्नि में प्रवेश नहीं किया था। नागों ने प्रसन्न होकर आस्तीक को वर दिया कि जो भी इस कथा का स्मरण करेगा- सर्प कभी भी उसका दंशन नहीं करेंगे।

जनमेजय को अनजाने में ही ब्रह्म-हत्या का दोष लग गया था। उसका सभी ने तिरस्कार किया। वह राज्य छोड़कर वन में चला गया। वहां उसका साक्षात्कार इन्द्रोत मुनि से हुआ। उन्होंने भी उसे बहुत फटकारा। जनमेजय ने अत्यंत शांत रहते हुए विनीत भाव से उनसे पूछा कि अनजाने में किये उसके पाप का निराकरण क्या हो सकता है तथा उसे सभी ने वंश सहित नष्ट हो जाने के लिए कहा है, उसका निराकरण कैसे होगा? इन्द्रोत मुनि ने शांत होकर उसे शांतिपूर्वक प्रायश्चित्त करने के लिए कहा। उसे ब्राह्मणों की सेवा तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिए कहा। जनमेजय ने वैसा ही किया तथा निष्पाप, परम् उज्ज्वल हो गया।

परीक्षित-पुत्र जनमेजय सुयोग्य शासक था। बड़े होने पर उसे उत्तंक मुनि से ज्ञात हुआ कि तक्षक ने किस प्रकार परीक्षित को मारा था जिस प्रकार रूरू ने अपनी भावी पत्नी को आधी आयु दी थी वैसे परीक्षित को भी बचाया जा सकता था। मन्त्रवेत्ताकश्यप कर्पंदंशन का निराकरण कर सकते थे पर तक्षक ने राजा को बचाने जाते हुए मुनि को रोककर उनका परिचय पूछा। उनके जाने का निमित्त जानकर तक्षक ने अपना परिचय देकर उन्हें परीक्षा देने के लिए कहा। तक्षक ने न्यग्रोध (बड़) के वृक्ष को डंस लिया।

कश्यप ने जल छिड़ककर वृक्ष को पुन: हरा-भरा कर दिया। तक्षक ने कश्यप को पर्याप्त धन दिया तथा जाने का अनुरोध किया। कश्यप ने योगबल से जाना कि राजा की आयु समाप्त हो चुकी है, अत: वे धन लेकर लौट गये। यह सब जानकर जनमेजय क्रुद्ध हो उठा तथा उत्तंक की प्रेरणा से उसने सर्पसत्र नामक यज्ञ किया जिससे समस्त सर्पों का नाश करने की योजना थी।

तक्षक इन्द्र की शरण में गया। उत्तंक ने इन्द्र सहित तक्षक का आवाहन किया। जरत्कारू के धर्मात्मा पुत्र आस्तीक ने राजा का सत्कार ग्रहण कर मनवांक्षित फल मांगा, फलत: राजा को सर्पसत्र नामक यज्ञ को समाप्त करना पड़ा। राजा ने उसे तो संतुष्ट किया किंतु स्वयं अशांत चित्त हो गया। व्यास से उसने समस्त महाभारत सुनी तथा जाना कि आस्तीक ने सर्पों की रक्षा क्यों की।

आजमगढ़ के अविन्तिकापुरी का ऐतिहासिक महत्व है, जो हजारों साल पूर्व का है। यह एक बड़ा तीर्थ स्थल है, जहां सर्प विनाश के लिए त्रेता युग में राजा जनमेजय ने यज्ञ किया था। इस क्षेत्र में किसी को सर्प नही काटता है, यदि किसी को काट लिया तो वह व्यक्ति यदि इस सरोवर में स्नान कर लेता है तो उसे विष नही चढ़ता है। यही नही यदि कोई विषैला सर्प रास्ते में आते-जाते किसी व्यक्ति को मिल जाता है तो वह सिर्फ राजा जनमेजय का नाम ले लेता है तो वह विषैला सर्प रास्ता बदल देता है।

इसी लिए लोग यहां साल में एक बार आकर सरोवर में स्नान कर लेते है जिससे उनका पूरा साल हर प्रकार के दुखों से दूर रहता है। जानकार बताते है कि सभी तीर्थ करने के पहले यहां का तीर्थ करना जरूरी होता है और लोग साल में एक बार यहां जरूर आते है। यहां का सरोवर 84 बीघे में फैला हुआ है. पूर्वकाल में यह यज्ञ स्थल था, जिसमें राजा जनमेजय ने सर्प विनाश के लिए एक विशाल यज्ञ कराया था।

यहां पर आते ही शांति की अनुभूति होती है और कुछ नया करने की ललक महसूस होती है। यहां कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु पूरे देश से आते है। यह टीला जिस पर मंदिर स्थापित है पूर्वकाल में यह राजा जनमेजय का किला था, जो धीरे-धीरे टीले का रूप धारण कर लिया है. इस टीले के चारों तरफ घनघोर जंगल है। इस सरोवर में स्नान करने से चर्म सम्बन्धी रोग दूर होता है।जब महाराजा जनमेजय ने यज्ञ की अंतिम आहूति दी तो वह सर्प भी इन्द्र के साथ यज्ञ कुण्ड के पास आ गया।

अपने पुत्र का प्राण जाता देख उसकी माता जरत्कारू ने यज्ञकर्ताओं से निवेदन किया कि अब मेरे पुत्रों में से यह तक्षक (सर्प) ही अकेले बचा है इसका विनाश न किया जाए। यज्ञकर्ताओं ने कहा कि तक्षक यह वचन दे कि भविष्य में राजा जनमेजय का नाम सुनते ही यह किसी व्यक्ति या जीव को न काटे और यदि भूलवश किसी को काट भी ले तो उसे न विष का असर होगा और न उसकी मृत्यु होगी।

प्राण जाता देख तक्षक ने राजा जनमेजय को यह वचन दिया कि जो भी व्यक्ति जनमेजय का नाम लेगा उन्हें देख सर्प मार्ग बदल देंगे और किन्ही भी स्थितियों में उन्हें नही काटेंगे, यदि काट भी लिया तो सरोवर में स्नान करने पर विष का असर उस पर नही होगा।

सर्प द्वारा यह वचन देते ही राजा ने तक्षक को मुक्त कर दिया। प्रत्येक साल सावन मास के पूर्णमासी के दिन यहां विशाल मेला लगता है. लोग यहां देवी-देवताओं का दर्शन व पूजा-पाठ करते है। यहां 84 बीघे में राजा जनमेजय का यज्ञ कुण्ड था जो अब सरोवर का रूप ले चुका है । यह विश्व के प्राचीनतम स्थलों में से है।

संजय गुप्ता

Posted in भारतीय मंदिर - Bharatiya Mandir

मित्रोआज सोमवार है, आज हम आपको पशुपतिनाथ मंदिर, काठमांडू, नेपाल और भूकंप के बारे में बतायेगें !!!!!!

यूनेस्को विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थल में सूचीबद्ध नेपाल की राजधानी काठमांडू मे बागमती नदी के तट पर स्थित पशुपतिनाथ मंदिर सनातनधर्म के आठ सर्वाधिक पवित्र स्थलों में से एक है। पौराणिक काल मे काठमांडू का नाम कांतिपुर था। मान्यतानुसार मंदिर का ढांचा प्रकृतिक आपदाओं से कई बार नष्ट हुआ है। परंतु इसका गर्भगृह पौराणिक काल से अबतक संपूर्ण रूप से सुरक्षित है । लोग इसे पहली शताब्दी का मानते हैं तो इतिहास इसे तीसरी शताब्दी का मानता हैं।

शनिवार दिनांक 25.04.15 को सुबह 11 बजकर 41 मिनट पर आए 7.9 तीव्रता के भीषण भूकंप से पूरे नेपाल मे तबाही मच गई है। जहां एक ओर हजारों की तादात मे लोगों की मृत्यु हुई है वहीं दूसरी ओर विज्ञानिक तकनीक से बनी असंख्य इमारतें भी धराशाई हुई। परंतु पशुपतिनाथ मंदिर का गर्भग्रह कल भी विधमान था व आज भी विधमान है।

आइए जानते हैं इसके पीछे विज्ञान है या शिवज्ञान। हिमवतखंड किंवदंती अनुसार एक समय मे भगवान शंकर चिंकारे का रूप धारण कर काशी त्यागकर बागमती नदी के किनारे मृगस्थली वन चले गए थे।

देवताओं ने उन्हें खोजकर पुनः काशी लाने का प्रयास किया परंतु शिव द्वारा नदी के दूसरे छोर पर छलांग लगाने के कारण उनका सींग चार टुकडों में टूट गया जिससे भगवान पशुपति चतुर्मुख लिंग के रूप में प्रकट हुए। ज्योतिर्लिंग केदारनाथ की किंवदंती अनुसार पाण्डवों के स्वर्गप्रयाण के दौरान भगवान शंकर ने पांडवों को भैंसे का रूपधर दर्शन दिए थे जो बाद में धरती में समा गए परंतु भीम ने उनकी पूंछ पकड़ ली थी। जिस स्थान पर धरती के बाहर उनकी पूंछ रह गई वह स्थान ज्योतिर्लिंग केदारनाथ कहलाया, और जहां धरती के बाहर उनका मुख प्रकट हुआ वह स्थान पशुपतिनाथ कहलाया। इस कथा की पुष्टि स्कंदपुराण भी करता है।

वास्तु विज्ञान अनुसार पशुपतिनाथ गर्भगृह में एक मीटर ऊंचा चारमुखी लिंग विग्रह स्थित है। प्रत्येक मुखाकृति के दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला व बाएं हाथ में कमंडल है। प्रत्येक मुख अलग-अलग गुण प्रकट करता है। पहले दक्षिण मुख को अघोर कहते है। दूसरे पूर्व मुख को तत्पुरुष कहते हैं। तीसरे उत्तर मुख को अर्धनारीश्वर या वामदेव कहते है। चौथे पश्चिमी मुख को साध्योजटा कहते है तथा ऊपरी भाग के निराकार मुख को ईशान कहते है।

मान्यतानुसार पशुपतिनाथ चतुर्मुखी शिवलिंग चार धामों और चार वेदों का प्रतीक माना जाता है। मंदिर एक मीटर ऊंचे चबूतरे पर स्थापित है। पशुपतिनाथ शिवलिंग के सामने चार दरवाज़े हैं। जो चारों दिशाओं को संबोधित करते हैं । यहां महिष रूपधारी भगवान शिव का शिरोभाग है, जिसका पिछला हिस्सा केदारनाथ में है। इस मंदिर का निर्माण वास्तु आधारित ज्ञान पर पगोडा़ शैली के अनुसार हुआ है। पगोडा़ शैली मूलरूप से उत्तरपूर्वी भारत के क्षेत्र से उदय हुई थी जिसे चाईना व पूर्वी विश्व ने आपनाया और नाम दिया फेंगशुई।

24 जून 2013, उत्तर भारत में भारी बारिश के कारण उत्तराखण्ड में बाढ़ और भूस्खलन की स्थिति पैदा हो गई तथा इस भयानक आपदा में 5000 से ज्यादा लोग मारे गए थे। सर्वाधिक तबाही रूद्रप्रयाग ज़िले में स्थित शिव की नगरी केदारनाथ में हुई थी। परंतु इतनी भारी प्रकृतिक आपदा के बाद भी केदारनाथ मंदिर सुरक्षित रहा था और आज भी अटल है। शनिवार दिनांक 25.04.15 को सुबह 11 बजकर 41 मिनट पर आए 7.9 तीव्रता के भीषण भूकंप के उपरांत भी पशुपतिनाथ गर्भग्रह पूरी तरह सुरक्षित है।

स्कंदपुराण अनुसार यह दोनों मंदिर एकदूसरे से मुख और पूंछ से जुड़े हुए हैं तथा इन दोनों मंदिरों मे परमेश्वर शिव द्वारा रचित वास्तु ज्ञान का उपयोग किया गया है। मूलतः सभी शिवालयों के निर्माण मे शिवलिंग जितना भूस्थल से ऊपर होते हैं उतना ही भूस्थल के नीचे समाहित होते हैं। यहां विज्ञान का एक सिद्धांत उपयोग मे लिया जाता है जिसे “सेंटर ऑफ ग्रेविटी” “गुरत्वाकर्षण केंद्र” कहते है। विज्ञान ने इस सिद्धांत को वास्तु से ही लिया है।

वैदिक पद्धति अनुसार शिवालयों का निर्माण सैदेव वहीं किया जाता हैं जहां पृथ्वी की चुम्बकीय तरंगे घनी होती हैं। शिवालयों में शिवलिंग ऐसी जगह पर स्थापित किया जाता है जहां चुम्बकीय तरंगों का नाभिकीय क्षेत्र विद्धमान हो। तथा स्थापना के समय गुंबद का केंद्र शिवलिंग के केंद्र के सीधे आनुपातिक तौर पर स्थापित किया जाता है। यह शिव का ही ज्ञान है जिसे कुछ लोग विज्ञान और भूतत्त्व विज्ञान के नाम से जानते हैं

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

लस्सी !!

लस्सी का ऑर्डर देकर हम सब आराम से बैठकर एक दूसरे की खिंचाई और हंसी-मजाक में लगे ही थे कि एक लगभग 70-75 साल की माताजी कुछ पैसे मांगते हुए मेरे सामने हाथ फैलाकर खड़ी हो गईं….!

उनकी कमर झुकी हुई थी,. चेहरे की झुर्रियों में भूख तैर रही थी… आंखें भीतर को धंसी हुई किन्तु सजल थीं… उनको देखकर मन मे न जाने क्या आया कि मैने जेब मे सिक्के निकालने के लिए डाला हुआ हाथ वापस खींचते हुए उनसे पूछ लिया……

“दादी लस्सी पियोगी ?”

मेरी इस बात पर दादी कम अचंभित हुईं और मेरे मित्र अधिक… क्योंकि अगर मैं उनको पैसे देता तो बस 5 या 10 रुपए ही देता लेकिन लस्सी तो 35 रुपए की एक है… इसलिए लस्सी पिलाने से मेरे गरीब हो जाने की और उस बूढ़ी दादी के द्वारा मुझे ठग कर अमीर हो जाने की संभावना बहुत अधिक बढ़ गई थी!

दादी ने सकुचाते हुए हामी भरी और अपने पास जो मांग कर जमा किए हुए 6-7 रुपए थे वो अपने कांपते हाथों से मेरी ओर बढ़ाए… मुझे कुछ समझ नही आया तो मैने उनसे पूछा…

“ये किस लिए?”

“इनको मिलाकर मेरी लस्सी के पैसे चुका देना बाबूजी !”

भावुक तो मैं उनको देखकर ही हो गया था… रही बची कसर उनकी इस बात ने पूरी कर दी!

एकाएक मेरी आंखें छलछला आईं और भरभराए हुए गले से मैने दुकान वाले से एक लस्सी बढ़ाने को कहा… उन्होने अपने पैसे वापस मुट्ठी मे बंद कर लिए और पास ही जमीन पर बैठ गईं…

अब मुझे अपनी लाचारी का अनुभव हुआ क्योंकि मैं वहां पर मौजूद दुकानदार, अपने दोस्तों और कई अन्य ग्राहकों की वजह से उनको कुर्सी पर बैठने के लिए नहीं कह सका!

डर था कि कहीं कोई टोक ना दे…..कहीं किसी को एक भीख मांगने वाली बूढ़ी महिला के उनके बराबर में बिठाए जाने पर आपत्ति न हो जाये… लेकिन वो कुर्सी जिसपर मैं बैठा था मुझे काट रही थी……

लस्सी कुल्लड़ों मे भरकर हम सब मित्रों और बूढ़ी दादी के हाथों मे आते ही मैं अपना कुल्लड़ पकड़कर दादी के पास ही जमीन पर बैठ गया क्योंकि ऐसा करने के लिए तो मैं # स्वतंत्र था… इससे किसी को # आपत्ति नही हो सकती थी… हां! मेरे दोस्तों ने मुझे एक पल को घूरा… लेकिन वो कुछ कहते उससे पहले ही दुकान के मालिक ने आगे बढ़कर दादी को उठाकर कुर्सी पर बैठा दिया और मेरी ओर मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा…….

“ऊपर बैठ जाइए साहब! मेरे यहां ग्राहक तो बहुत आते हैं किन्तु इंसान कभी-कभार ही आता है”

अब सबके हाथों मे लस्सी के कुल्लड़ और होठों पर सहज मुस्कुराहट थी, बस एक वो दादी ही थीं जिनकी आंखों मे तृप्ति के आंसूं… होंठों पर मलाई के कुछ अंश और दिल में सैकड़ों दुआएं थीं!

न जानें क्यों जब कभी हमें 10-20-50 रुपए किसी भूखे गरीब को देने या उसपर खर्च करने होते हैं तो वो हमें बहुत ज्यादा लगते हैं लेकिन सोचिए कि क्या वो चंद रुपए किसी के मन को तृप्त करने से अधिक कीमती हैं?

क्या कभी भी उन रुपयों को बीयर , सिगरेट ,पर खर्च कर ऐसी दुआएं खरीदी जा सकती हैं?

दोस्तों… जब कभी अवसर मिले ऐसे दयापूर्ण और करुणामय काम करते रहें भले ही कोई अभी आपका साथ दे या ना दे , समर्थन करे ना करें… सच मानिए इससे आपको जो आत्मिक सुख मिलेगा वह अमूल्य है ।

🙏💐 रामजी राम राम 💐🙏संजय गुप्ता

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प्रसन्नता का गेयर अपने हाथ में रखें….

वैवाहिक जीवन पर आधारित एक लाईफ स्किल सेशन में प्रस्तोता ने दर्शकों में उपस्थित एक महिला से पुछा – “क्या आपके पति आपको खुश रखते हैं?”

इस प्रश्न पर उसका पति बड़ा आश्वस्त था, क्योंकि उनका वैवाहिक जीवन काफी सफल था। उसे पता था कि उसकी पत्नी क्या बोलेगी…. क्योंकि पूरी विवाहित जिंदगी में उसकी पत्नी ने कभी भी… किसी भी बात के लिए कोई शिकायत नहीं की थी।

महिला ने गंभीर आवाज में जवाब दिया –“नहीं”…….. “मेरे पति मुझे प्रसन्न नहीं रखते”

पति चकित था… और बहुत से लोग भी ,परन्तु उसकी पत्नी ने बोलना जारी रखा – “मेरे पति ने मुझे कभी खुश नहीं किया… और न ही वे कर सकते है”…“पर मैं खुश हूँ…”

मैं खुश हूँ या नहीं यह मेरे पति पर नहीं बल्कि मुझ पर निर्भर है। मैं ही एकमात्र व्यक्ति हूं जिस पर मेरी खुशी निर्भर है….

मेरी जिन्दगी की हर परिस्थिति और हर पल में मै खुश रहना पसंद करती हूँ, क्योंकि अगर मेरी खुशी किसी दूसरे व्यक्ति… किसी वस्तु… या किसी हालात पर निर्भर करती है तो यह मुझे पसंद नहीं…और इससे मुझे बहुत तकलीफ होती है।

जीवन में जो भी है वह हर पल बदलता रहता है… व्यक्ति, समृद्धि, पैसा, शरीर, मौसम, ऑफिस में आपका बास, सुख-दुख, दोस्त और मेरी शारीरिक व मानसिक अवस्था भी. यह अन्तहीन सूची है… और ये हमें प्रभावित करना चाहती है।

“मुझे खुश रहने का फैसला करना होगा चाहे जीवन में कुछ भी हो।“ मेरे पास साडियाँ ज्यादा है या कम… पर मैं खुश हूँ। चाहे मैं घर में अकेली रहूँ या बाहर घूमने जाऊँ, मैं खुश हूँ। चाहे मेरे पास बहुत पैसा हो या नहीं पर मैं खुश हूँ। चाहे टीवी पर मेरा पसन्दीदा सीरियल आ रहा है या क्रिकेट मैच, पर मै सदा खुश हूँ।

मैं शादी-शुदा हूँ… पर मैं तब भी खुश थी जब मैं सिंगल थी। मैं अपने स्वयं के लिए खुश हूँ।

मैं अपनी लाईफ को इसलिए प्यार नहीं करती वह दूसरो से आसान है, बल्कि इसलिए कि मैने स्वयं खुश रहने का फैसला किया है।

जब प्रसन्न रहने का दायित्व मैं अपने आप पर लेती हूँ तब, मैं अपने पति के कंधों से अपनी देखभाल करने का बोझ हल्का करती हूँ। यह सोच मेरे जीवन को बहुत आसान बनाती है… और यह हर किसी को भी बना सकती है।

और यही एक मात्र कारण है… हम बहुत सालों से सफल और प्रसन्न वैवाहिक जीवन का आनन्द ले रहे है। अपनी प्रसन्नता का गियर किसी और के हाथ में मत दीजिए। प्रसन्न रहिये, चाहे जीवन में बहुत ठण्ड हो, गर्मी हो या बरसात। चाहे आपके पास बहुत पैसा न हो… चाहे कोई आपको आहत करे।
पति चाहे स्टेयरिंग सीट पर बेठे हो, और गाड़ी सपाट रोड पर दौड़ रही हो या ऊबड़खाबड़ सड़क पर हिचकोले खा रही हो, अपनी गाड़ी का गियर हमेशा प्रसन्नता का ही रखे।

आपको कोई प्यार भी नहीं करेगा… कोई भी सम्मान नहीं देगा ,जब तक आप स्वयं अपने आप को महत्व नहीं देगी।

संजय गुप्ता

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भाग्यवती यज्ञपत्नियाँ
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     वृन्दावन में कुछ याज्ञिक ब्राह्मण यज्ञ कर रहे थे। भगवान श्री कृष्ण ने अपने सखाओं को भूखा जान उनके पास अन्न के लिए भेजा। याज्ञिकों ने उन्हें फटकारकर खदेड़ दिया। तब भगवान ने याज्ञिक ब्राह्मणों की पत्नियों के पास भेजा। वे श्री कृष्ण का मधुर नाम सुनते ही विविध भोजनों के थाल सजाकर चल दीं।
      जब यज्ञशाला से सभी याज्ञिकों की पत्नियाँ  श्यामसुंदर के समीप जाने लगीं,  तब एक याज्ञिक पत्नी के पति भोजन कर रहे थे। वे बड़े ही क्रोधी और कृपण थे। उनकी पत्नी ने जब सभी को जाते देखा, तब उसका हृदय भर आया। श्यामसुंदर की सलोनी सूरत को देखने की कितने  समय की उसकी साध थी। मनमोहन की मंजुल मूर्ति का ध्यान करते-करते ही उसने अनेकों दिन तथा रात्रियों को बिताया था। वे ही घनश्याम आज समीप ही आ गये हैं और संग की सभी सहेलियाँ उस मनोहारिणी मूर्ति के दर्शन से अपने नेत्रों को सार्थक बनायेंगी। इस बात के स्मरण से उसे ईर्ष्या सी होने लगी। उसने भी जल्दी-जल्दी एक थाल सजाया।
      उसके पति ने पूछा-'क्यों,  कहाँ की तैयारी हो रही है?'
      उसने सरलता के स्वर में कहा--'सुन्दरता के सागर श्यामसुन्दर के दर्शन के लिए मैं सहेलियों के साथ जाऊँगी।'
      उसने कहा-'मैं भोजन जो कर रहा हूँ? '
      उसने अत्यन्त ही विनय और स्नेह के स्वर में कहा-'आप भोजन तो कर ही चुके हैं, अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिए। देखिये, मेरी सब सहेलियाँ आगे निकली जा रही हैं।'
     क्रोधी ब्राह्मण एकदम अग्निशर्मा बन गये और कठोर स्वर में बोले-'बड़ी उतावली लगी है, क्या धरा है वहाँ?'
     उसने कहा-'वहाँ त्रिभुवनमोहन श्याम की झाँकी है,  मेरा मन बिना गये नहीं मानता।'
    ब्राह्मण---'तब क्या तू बिना गये न मानेगी?'
    उसने कहा-हाँ, मैं उन मदनमोहन के दर्शन के लिए अवश्य जाऊँगी।' क्रोध के स्वर में ब्राह्मण ने कहा- 'न जाय तब?'
    उसने दृढ़ता से कहा-'न कैसे जाऊँगी? जरूर जाऊँगी और सबसे आगे जाऊँगी। भला, जो मेरे प्राणों के प्राण हैं,  मन के मन हैं और आत्मा के आत्मा हैं,  उन सच्चे स्वामी के पास न जाऊँगी , तो क्या जगत के झूठे--बनावटी सम्बन्धों में फँसी रहूँगी?'
     ब्राह्मण ने कहा-'तेरा स्वामी तो मैं ही हूँ । मुझे भी छोड़कर तेरा कोई दूसरा स्वामी है क्या?'
     उसने कहा---'आप मेरे शरीर के स्वामी हैं, आत्मा के प्रभु तो वे सारे जगत के समस्त प्राणियों के अधीश्वर- -सर्वलोकमहेश्वर परमात्मा श्री मदनमोहन ही हैं । उन्हीं सच्चे स्वामी के दर्शन से आज इन नेत्रों को सार्थक करूँगी ।'
     ब्राह्मण खाना-पीना भूल गए,  उन्हें पत्नी पर बड़ा क्रोध आया। मुझे स्वामी न मानकर और मेरी उपेक्षा करके यह दूसरे के पास जाती है,  इससे वे अभिमानी ब्राह्मण जल उठे। अत्यन्त ही हठ के साथ उन्होंने क्रोध और दृढ़ता के स्वर में कहा--'अच्छी बात है,  देखता हूँ  तू मेरी आज्ञा के विना कैसे जाती है।'
      उसने कहा-'आप व्यर्थ ही क्रोध करते हैं। मेरा-उनका ऐसा सम्बन्ध है कि कोई लाख प्रयत्न करे, मुझे उनके दर्शन से रोक नहीं सकता।'
     ब्राह्मण ने उसी स्वर में कहा--'हाथ कंगन को आरसी क्या! देखना है,  तू कैसे मदनमोहन के दर्शन करती है ।' यह कहकर उन क्रोधी ब्राह्मण ने पत्नी के हाथ-पैरों को कसकर बाँध दिया और  स्वयं उसके पास ही बैठ गया।
      यज्ञपत्नी ने दृढता के स्वर में कहा-'बस, इतना ही करेंगे या और भी कुछ?'
      उसने कहा--'और यह करूँगा कि जब तक वे सब लौटकर नहीं आयेंगी, तब तक यहीं बैठा-बैठा पहरा देता रहूँगा ।'
      उसने सूखी हँसी हँसकर कहा---'पहरे की अब क्या आवश्यकता है । शरीर पर आपका अधिकार है,  उसे आपने बाँध ही दिया। प्राण और आत्मा तो उन्हीं परमात्मा श्री नन्दनन्दन के हैंं,  उन पर तो उन्हीं का एक मात्र अधिकार है । शरीर से न सही, तो मेरे प्राणों के और आत्मा के साथ उनका मेल होगा।' यह कहकर उसने आँखें मूंद लीं।
      जिस सुन्दरी मालिन को मनमोहन ने अपनाकर निहाल कर दिया था, अपना यथार्थ स्वरूप ज्ञान करवाकर कृतार्थ कर दिया था, वही मालिन मथुरा में इन ब्राह्मणों के घरों में फूल माला देने जाया करती थी। वही प्रतिदिन जा जाकर इन विप्रपत्नियों के सामने श्यामसुन्दर के स्वरूप-सौन्दर्य का बखान किया करती। उसी के मुख से इसने यशोदानन्दन के स्वरूप की व्याख्या और प्रशंसा सुनी थी। उसने जिस प्रकार व्रजेन्द्रनन्दन के स्वरूप का वर्णन सुना था, उसी रूप का वह आँखें मूंद धीरे-धीरे ध्यान करने लगी।
     ध्यान में उसने देखा,  नीलमणि के समान तो शरीर की सुन्दर आभा है,  भरे हुए गोल गोल मुख के ऊपर  काली-काली घुंघराली लटें लटक रही हैं। गले मेंं  सुन्दर फूलों की माला तथा कंठे आदि आभूषण पड़े हुए हैं । कमर में सुन्दर पीली धोती बँधी है । कंधों पर जरी का दुपट्टा फहरा रहा है । हाथ में छोटी सी मुरली शोभायमान है । ऐसे मन्द-मन्द मुस्कराते हुए श्यामसुन्दर अत्यन्त ही ममता के साथ देखते हुए मेरी ओर आ रहे हैं। उन्हें देखते ही ब्राह्मणी का श्वास रुक गया। उसके नेत्रों के दोनों कोरों में से अश्रु ढलक पड़े। मुख्य प्राण उसके शरीर से निकलकर प्रियतम के शरीर में समा गये। ब्राह्मणी का बचन सत्य हुआ। उसकी आत्मा सबसे पहले श्यामसुंदर के पास पहुंच गयी। ब्राह्मण ने देखा उसकी पत्नी का प्राणहीन शरीर उसके पास पड़ा है । वह हाय-हाय करके अपने भाग्य को कोसने लगा।
     हे प्राणों के प्राण!  हे सभी के प्रिय स्वामिन्! इस ब्राह्मणी की सी उत्कट अभिलाषा और ऐसी एकाग्रता कभी इस प्रेमहीन जीवन में भी एक-आध क्षण के लिए हो सकेगी क्या?
             (भक्त चरितांक)

संजय गुप्ता