Posted in श्री कृष्णा

बहुतसुन्दरप्रसंग
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जब भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा जी को तीनों लोकों का स्वामी बना दिया तो सुदामा जी की संपत्ति देखकर यमराज से रहा न गया !

यम भगवान को नियम कानूनों का पाठ पढ़ाने के लिए अपने बहीखाते लेकर द्वारिका पहुंच गये !

भगवान से कहने लगे कि – अपराध क्षमा करें भगवन लेकिन सत्य तो ये है कि यमपुरी में शायद अब मेरी कोई आवश्यकता नही रह गयी है इसलिए में पृथ्वी लोक के प्राणियों के कर्मों का बहीखाता आपको सौंपने आया हूँ !

इस प्रकार यमराज ने सारे बहीखाते भगवान के सामने रख दिये भगवान मुस्कुराए बोले – यमराज जी आखिर ऐसी क्या बात है जो इतना चिंतित लग रहे हो ?

यमराज कहने लगे – प्रभु आपके क्षमा कर देने से अनेक पापी एक तो यमपुरी आते ही नही है वे सीधे ही आपके धाम को चले जाते हैं और फिर आपने अभी अभी सुदामा जी को तीनों लोक दान दे दिए हैं । सो अब हम कहाँ जाएं ?

यमराज भगवान से कहने लगे – प्रभु ! सुदामा जी के प्रारब्ध में तो जीवन भर दरिद्रता ही लिखी हुई थी लेकिन आपने उन्हें तीनों लोकों की संपत्ति देकर विधि के बनाये हुए विधान को ही बदलकर रख दिया है !

अब कर्मों की प्रधानता तो लगभग समाप्त ही हो गयी है !

भगवान बोले – यम तुमने कैसे जाना कि सुदामा के भाग्य में आजीवन दरिद्रता का योग है ?

यमराज ने अपना बही खाता खोला तो सुदामा जी के भाग्य वाले स्थान पर देखा तो चकित रह गए देखते हैं कि जहां श्रीक्षय’ सम्पत्ति का क्षय लिखा हुआ था !

वहां स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन्ही अक्षरों को उलटकर ‘उनके स्थान पर यक्षश्री’ लिख दिया अर्थात कुबेर की संपत्ति !

भगवान बोले – यमराज जी ! शायद आपकी जानकारी पूरी नही है क्या आप जानते हैं कि सुदामा ने मुझे अपना सर्वस्व अपर्ण कर दिया था ! मैने तो सुदामा के केवल उसी उपकार का प्रतिफल उसे दिया है !

यमराज बोले – भगवन ऐसी कौनसी सम्पत्ति सुदामा ने आपको अर्पण कर दी उसके पास तो कुछ भी नही !

भगवान बोले – सुदामा ने अपनी कुल पूंजी के रूप में बड़े ही प्रेम से मुझे चावल अर्पण किये थे जो मैंने और देवी लक्ष्मी बड़े प्रेम से खाये थे !

जो मुझे प्रेम से कुछ खिलाता है उसे सम्पूर्ण विश्व को भोजन कराने जितना पुण्य प्राप्त होता है.बस उसी का प्रतिफल सुदामा को मैंने दिया है !

ऐसे दयालु हैं हमारे प्रभु श्रीकृष्ण भगवान जिन्होंने न केवल सुदामा जी पर कृपा की बल्कि द्रौपदी की बटलोई से बचे हुए साग के पत्ते को भी बड़े चाव से खाकर दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों सहित सम्पूर्ण विश्व को तृप्त कर दिया था ओर पांडवो को श्राप से बचाया था !!

        ।। जय जय श्रीराधे ।।

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एक बेटी का पिता


💜 एक बेटी का पिता 💜

एक पिता ने अपनी बेटी की सगाई करवाई,
लड़का बड़े अच्छे घर से था
तो पिता बहुत खुश हुए। 💜
लड़के ओर लड़के के माता पिता का स्वभाव
बड़ा अच्छा था..
तो पिता के सिर से बड़ा बोझ उतर गया।💝
एक दिन शादी से पहले
लड़के वालो ने लड़की के पिता को खाने पे बुलाया।

पिता की तबीयत ठीक नहीं थी
फिर भी वह ना न कह सके। 💝
लड़के वालो ने बड़े ही आदर सत्कार से
उनका स्वागत किया।
फ़िर लडकी के पिता के लिए चाय आई..
शुगर कि वजह से लडकी के पिता को
चीनी वाली चाय से दुर रहने को कहा गया था।
.
लेकिन लड़की के होने वाली ससुराल घर में थे
तो चुप रह कर चाय हाथ में ले ली।
चाय कि पहली चुस्की लेते ही वो चोक से गये,
चाय में चीनी बिल्कुल ही नहीं थी.. 💜
और इलायची भी डली हुई थी। 💜

वो सोच मे पड़ गये
की ये लोग भी हमारी जैसी ही चाय पीते हैं।

दोपहर में खाना खाया
वो भी बिल्कुल उनके घर जैसा,
दोपहर में आराम करने के लिए दो तकिये पतली चादर।उठते ही सोंफ का पानी पीने को दिया गया।💜
.
वहाँ से विदा लेते समय उनसे रहा नहीं गया
तो पुछ बैठे – मुझे क्या खाना है,
क्या पीना है, मेरी सेहत के लिए क्या अच्छा है ?
ये परफेक्टली आपको कैसे पता है ?
.
तो बेटी कि सास ने धीरे से कहा
कि कल रात को ही आपकी बेटी का फ़ोन आ गया था।

ओर उसने कहा
कि मेरे पापा स्वभाव से बड़े सरल हैं 💜
बोलेंगे कुछ नहीं, प्लीज अगर हो सके
तो आप उनका ध्यान रखियेगा। 💜💜
.
पिता की आंखों मे वहीँ पानी आ गया था।
लड़की के पिता जब अपने घर पहुँचे
तो घर के हाल में लगी
अपनी स्वर्गवासी माँ के फोटो से हार निकाल दिया।
.
जब पत्नी ने पूछा कि ये क्या कर रहे हो ? ?
तो लडकी का पिता बोले – मेरा ध्यान रखने वाली मेरी माँ इस घर से कहीं नहीं गयी है, 💜💜
बल्कि वो तो मेरी बेटी
के रुप में इस घर में ही रहती है। 💜💜
.
और फिर पिता की आंखों से
आंसू झलक गये ओर वो फफक कर रो पड़े। 💜
.
दुनिया में सब कहते हैं ना !
कि बेटी है,
एक दिन इस घर को छोड़कर चली जायेगी। 😢
.
मगर मैं दुनिया के
सभी माँ-बाप से ये कहना चाहता हूँ
की बेटी कभी भी
अपने माँ-बाप के घर से नहीं जाती।
बल्कि वो हमेशा उनके दिल में रहती है।

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Posted in ज्योतिष - Astrology

किसी भी कार्य के लिये घर से निकलने से पूर्व, अपनी राशि के अनुसार मंत्र का २१-बार जप करने के बाद ही घर से निकलें। मंत्र के प्रभाव से कार्य में आने वाली बाधाएं समाप्त होंगी तथा सफलता के योग बनेंगे। साथ ही जो लोग आपकी राह में बाधा उत्पन्न करते हैं वह भी कमजोर हो जाते हैं।
प्रस्तुत है आपकी राशि के अनुसार अचूक दिव्य मंत्र-
मेष –चू चे चो ला ली लू ले लो अ…..ॐ ऐं क्लीं सो:
वृषभ –इ उ ए ओ वा वी वू वे वो……ॐ ऐं क्लीं श्रीं
मिथुन –का की कू घ ङ छ के को…..ॐ ओम क्लीं ऐं सो:
कर्क –ही हू हे हो डा डी डू डे डो……ॐ ऐं क्लीं श्रीं
सिंह –मा मी मू मे मो टा टी टू टे…….ॐ ह्रीं श्रीं सो:
कन्या –टो पा पी पू ष ण ठ पे पो…….ॐ क्लीं ऐं सो:
तुला –रा री रू रे रो ता ती तू ते……ॐ ऐं क्लीं श्रीं
वृश्चिक –तो ना नी नू ने नो या यी यू……ॐ ऐं क्लीं सो:
धनु –ये यो भा भी भू धा फा ढा भे……ॐ ह्रीं क्लीं सो:
मकर –भो जा जी खी खू खे खो गा ग……ॐ ऐं क्लीं श्रीं
कुंभ –गू गे गो सा सी सू से सौ दा…..ॐ ऐं क्लीं श्रीं
मीन –दी दू थ झ ञ दे दो चा ची……ॐ ह्रीं क्लीं सो:

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HAPPY EKADSHI..
BHAGWAN KA DOST
एक बच्चा जला देने वाली गर्मी में नंगे पैर गुलदस्ते बेच रहा था लोग उसमे भी मोलभाव कर रहे थे।. एक सज्जन को उसके पैर देखकर बहुत दुःख हुआ, सज्जन ने बाज़ार से नया जूता ख़रीदा और उसे देते हुए कहा “बेटा लो, ये जूता पहन लो”. लड़के ने फ़ौरन जूते निकाले और पहन लिए. उसका चेहरा ख़ुशी से दमक उठा था. वो उस सज्जन की तरफ़ पल्टा और हाथ थाम कर पूछा, “आप भगवान हैं?. “उसने घबरा कर हाथ छुड़ाया और कानों को हाथ लगा कर कहा, “नहीं बेटा, नहीं, मैं भगवान नहीं”.
लड़का फिर मुस्कराया और कहा, “तो फिर ज़रूर भगवान के दोस्त होंगे,.
क्योंकि मैंने कल रात भगवान से कहा था कि मुझे नऐ जूते देदें”.. वो सज्जन मुस्कुरा दिया और उसके माथे को प्यार से
चूमकर अपने घर की तरफ़ चल पड़ा..
अब वो सज्जन भी जान चुके थे कि भगवान का दोस्त
होना
कोई मुश्किल काम नहीं..
खुशियाँ बाटने से मिलती है मंदिर में नहीं
Jai Shyama Shyam Ki!!!

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एक प्रेरणादायक एवम ज्ञानवर्धक कहानी।

मृत्यु के देवता ने अपने एक दूत को पृथ्वी पर भेजा । एक स्त्री मर गयी थी, उसकी आत्मा को लाना था। देवदूत आया, लेकिन चिंता में पड़ गया।

क्योंकि तीन छोटी-छोटी लड़कियां जुड़वां–एक अभी भी उस मृत स्त्री के स्तन से लगी है। एक चीख रही है, पुकार रही है। एक रोते-रोते सो गयी है, उसके आंसू उसकी आंखों के पास सूख गए हैं ।

तीन छोटी जुड़वां बच्चियां और स्त्री मर गयी है, और कोई देखने वाला नहीं है। पति पहले मर चुका है। परिवार में और कोई भी नहीं है। इन तीन छोटी बच्चियों का क्या होगा?

उस देवदूत को यह खयाल आ गया, तो वह खाली हाथ वापस लौट गया। उसने जा कर अपने प्रधान को कहा कि मैं न ला सका, मुझे क्षमा करें, लेकिन आपको स्थिति का पता ही नहीं है। तीन जुड़वां बच्चियां हैं–छोटी-छोटी, दूध पीती।

एक अभी भी मृत स्तन से लगी है, एक रोते-रोते सो गयी है, दूसरी अभी चीख-पुकार रही है। हृदय मेरा ला न सका। क्या यह नहीं हो सकता कि इस स्त्री को कुछ दिन और जीवन के दे दिए जाएं? कम से कम लड़कियां थोड़ी बड़ी हो जाएं। और कोई देखने वाला नहीं है।

मृत्यु के देवता ने कहा, तो तू फिर समझदार हो गया; उससे ज्यादा, जिसकी मर्जी से मौत होती है, जिसकी मर्जी से जीवन होता है!

तो तूने पहला पाप कर दिया, और इसकी तुझे सजा मिलेगी। और सजा यह है कि तुझे पृथ्वी पर चले जाना पड़ेगा। और जब तक तू तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर, तब तक वापस न आ सकेगा।

इसे थोड़ा समझना। तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर–क्योंकि दूसरे की मूर्खता पर तो अहंकार हंसता है। जब तुम अपनी मूर्खता पर हंसते हो तब अहंकार टूटता है।

देवदूत को लगा नहीं। वह राजी हो गया दंड भोगने को, लेकिन फिर भी उसे लगा कि सही तो मैं ही हूं। और हंसने का मौका कैसे आएगा?

उसे जमीन पर फेंक दिया गया। एक मोची, सर्दियों के दिन करीब आ रहे थे और बच्चों के लिए कोट और कंबल खरीदने शहर गया था, कुछ रुपए इकट्ठे कर के। जब वह शहर जा रहा था तो उसने राह के किनारे एक नंगे आदमी को पड़े हुए, ठिठुरते हुए देखा। यह नंगा आदमी वही देवदूत था, जो पृथ्वी पर फेंक दिया गया था।

उस को दया आ गयी। और बजाय अपने बच्चों के लिए कपड़े खरीदने के, उसने इस आदमी के लिए कंबल और कपड़े खरीद लिए। इस आदमी को कुछ खाने-पीने को भी न था, घर भी न था, छप्पर भी न था जहां रुक सके। तो मोची ने कहा कि अब तुम मेरे साथ ही आ जाओ।

लेकिन अगर मेरी पत्नी नाराज हो–जो कि वह निश्चित होगी, क्योंकि बच्चों के लिए कपड़े खरीदने लाया था, वह पैसे तो खर्च हो गए–वह अगर नाराज हो, चिल्लाए, तो तुम परेशान मत होना। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा।

उस देवदूत को ले कर मोची घर लौटा। न तो मोची को पता है कि देवदूत घर में आ रहा है, न पत्नी को पता है। जैसे ही देवदूत को ले कर मोची घर में पहुंचा, पत्नी एकदम पागल हो गयी। बहुत नाराज हुई, बहुत चीखी-चिल्लायी।

और देवदूत पहली दफा हंसा। मोची ने उससे कहा, हंसते हो, बात क्या है? उसने कहा, मैं जब तीन बार हंस लूंगा तब बता दूंगा।

देवदूत हंसा पहली बार, क्योंकि उसने देखा कि इस पत्नी को पता ही नहीं है कि मोची देवदूत को घर में ले आया है, जिसके आते ही घर में हजारों खुशियां आ जाएंगी। लेकिन आदमी देख ही कितनी दूर तक सकता है! पत्नी तो इतना ही देख पा रही है कि एक कंबल और बच्चों के कपड़े नहीं बचे।

जो खो गया है वह देख पा रही है, जो मिला है उसका उसे अंदाज ही नहीं है–मुफ्त! घर में देवदूत आ गया है। जिसके आते ही हजारों खुशियों के द्वार खुल जाएंगे। तो देवदूत हंसा। उसे लगा, अपनी मूर्खता–क्योंकि यह पत्नी भी नहीं देख पा रही है कि क्या घट रहा है!

जल्दी ही, क्योंकि वह देवदूत था, सात दिन में ही उसने मोची का सब काम सीख लिया। और उसके जूते इतने प्रसिद्ध हो गए कि मोची महीनों के भीतर धनी होने लगा। आधा साल होते-होते तो उसकी ख्याति सारे लोक में पहुंच गयी कि उस जैसा जूते बनाने वाला कोई भी नहीं, क्योंकि वह जूते देवदूत बनाता था। सम्राटों के जूते वहां बनने लगे। धन अपरंपार बरसने लगा।

एक दिन सम्राट का आदमी आया। और उसने कहा कि यह चमड़ा बहुत कीमती है, आसानी से मिलता नहीं, कोई भूल-चूक नहीं करना। जूते ठीक इस तरह के बनने हैं। और ध्यान रखना जूते बनाने हैं, स्लीपर नहीं। क्योंकि रूस में जब कोई आदमी मर जाता है तब उसको स्लीपर पहना कर मरघट तक ले जाते हैं।

मोची ने भी देवदूत को कहा कि स्लीपर मत बना देना। जूते बनाने हैं, स्पष्ट आज्ञा है, और चमड़ा इतना ही है। अगर गड़बड़ हो गयी तो हम मुसीबत में फंसेंगे।

लेकिन फिर भी देवदूत ने स्लीपर ही बनाए। जब मोची ने देखे कि स्लीपर बने हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो गया। वह लकड़ी उठा कर उसको मारने को तैयार हो गया कि तू हमारी फांसी लगवा देगा! और तुझे बार-बार कहा था कि स्लीपर बनाने ही नहीं हैं, फिर स्लीपर किसलिए?

देवदूत फिर खिलखिला कर हंसा। तभी आदमी सम्राट के घर से भागा हुआ आया। उसने कहा, जूते मत बनाना, स्लीपर बनाना। क्योंकि सम्राट की मृत्यु हो गयी है।

भविष्य अज्ञात है। सिवाय उसके और किसी को ज्ञात नहीं। और आदमी तो अतीत के आधार पर निर्णय लेता है। सम्राट जिंदा था तो जूते चाहिए थे, मर गया तो स्लीपर चाहिए। तब वह मोची उसके पैर पकड़ कर माफी मांगने लगा कि मुझे माफ कर दे, मैंने तुझे मारा। पर उसने कहा, कोई हर्ज नहीं। मैं अपना दंड भोग रहा हूं।

लेकिन वह हंसा आज दुबारा। मोची ने फिर पूछा कि हंसी का कारण? उसने कहा कि जब मैं तीन बार हंस लूं…।

दुबारा हंसा इसलिए कि भविष्य हमें ज्ञात नहीं है। इसलिए हम आकांक्षाएं करते हैं जो कि व्यर्थ हैं। हम आशायें करते हैं जो कि कभी पूरी न होंगी। हम मांगते हैं जो कभी नहीं घटेगा। क्योंकि कुछ और ही घटना तय है। हमसे बिना पूछे हमारी नियति घूम रही है। और हम व्यर्थ ही बीच में शोरगुल मचाते हैं। चाहिए स्लीपर और हम जूते बनवाते हैं। मरने का वक्त करीब आ रहा है और जिंदगी का हम आयोजन करते हैं।

तो देवदूत को लगा कि वे बच्चियां! मुझे क्या पता, भविष्य उनका क्या होने वाला है? मैं नाहक बीच में आया।

और तीसरी घटना घटी कि एक दिन तीन लड़कियां आयीं जवान। उन तीनों की शादी हो रही थी। और उन तीनों ने जूतों के आर्डर दिए कि उनके लिए जूते बनाए जाएं। एक बूढ़ी महिला उनके साथ आयी थी जो बड़ी धनी थी। देवदूत पहचान गया, ये वे ही तीन लड़कियां हैं, जिनको वह मृत मां के पास छोड़ गया था और जिनकी वजह से वह दंड भोग रहा है। वे सब स्वस्थ हैं, सुंदर हैं।

उसने पूछा कि क्या हुआ? यह बूढ़ी औरत कौन है?

उस बूढ़ी औरत ने कहा कि ये मेरी पड़ोसिन की लड़कियां हैं। गरीब औरत थी, उसके शरीर में दूध भी न था। उसके पास पैसे-लत्ते भी नहीं थे। और तीन बच्चे जुड़वां। वह इन्हीं को दूध पिलाते-पिलाते मर गयी। लेकिन मुझे दया आ गयी, मेरे कोई बच्चे नहीं हैं, और मैंने इन तीनों बच्चियों को पाल लिया।

अगर मां जिंदा रहती तो ये तीनों बच्चियां गरीबी, भूख और दीनता और दरिद्रता में बड़ी होतीं। मां मर गयी, इसलिए ये बच्चियां तीनों बहुत बड़े धन-वैभव में, संपदा में पलीं। और अब उस बूढ़ी की सारी संपदा की ये ही तीन मालिक हैं। और इनका सम्राट के परिवार में विवाह हो रहा है।

देवदूत तीसरी बार हंसा। और मोची को उसने कहा कि ये तीन कारण हैं। भूल मेरी थी। नियति बड़ी है। और हम उतना ही देखते हैं, जितना देख पाते हैं। जो नहीं देख पाते, बहुत विस्तार है उसका। और हम जो देख पाते हैं उससे हम कोई अंदाज नहीं लगा सकते, जो होने वाला है, जो होगा। मैं अपनी मूर्खता पर तीन बार हंस लिया हूं। अब मेरा दंड पूरा हो गया और अब मैं जाता हूं ।

जो प्रभु करते है अच्छे के लिए करते है ।

संजय गुप्ता

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एक दिन प्रभु श्री राम जी ने हनुमान जी से कहा कि:- हनुमान, मैंने तुम्हें कोई पद नहीं दिया, मैं चाहता हूँ कि तुम्हें कोई अच्छा सा पद दू
हनुमानजी ने कहा:- प्रभु , सबसे ज्यादा लाभ में तो मैं हूँ।
भगवान राम ने पूछा:- कैसे?
हनुमान जी ने कहा:- सुग्रीव को किष्किन्धा का एक पद मिला, विभीषण को लंका का एक पद मिला और आप को भी अयोध्या एक पद ही मिला।
हनुमानजी ने भगवान के चरणों में सिर रख कर कहा कि:- प्रभु , जिसे आपके ये दो-दो पद (चरण) मिले हों, वह एक पद क्यों लेना चाहेगा।
भगवान राम हनुमानजी की बात सुनकर रघुवर के नयन सजल हो गए।
सब कै ममता ताग बटोरी, मम पद मनहि बाँधि वर डोरी..
श्री राम जय राम जय जय राम..

संजय गुप्ता

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कृष्ण हमारे लिए हमेशा सही कार्य करते हैं

एक बार नारद जी ने भगवान से प्रश्न किया कि प्रभु आपके भक्त गरीब क्यों होते हैं?
तो भगवान बोले – “नारद जी ! मेरी कृपा को समझना बड़ा कठिन है।” इतना कहकर भगवान नारद के साथ साधु भेष में पृथ्वी पर पधारे और एक सेठ जी के घर भिक्षा मांगने के लिए दरवाजा खटखटाने लगे। सेठ जी बिगड़ते हुए दरवाजे की तरफ आए और देखा तो दो साधु खड़े हैं।
भगवान बोले – “भैया ! बड़े जोरों की भूख लगी है। थोड़ा सा खाना मिल जाए।”
सेठ जी बिगड़कर बोले “तुम दोनों को शर्म नहीं आती। तुम्हारे बाप का माल है ? कर्म करके खाने में शर्म आती है, जाओ-जाओ किसी होटल में खाना मांगना।”
नारद जी बोले – “देखा प्रभु ! यह आपके भक्तों और आपका निरादर करने वाला सुखी प्राणी है। इसको अभी शाप दीजिये।” नारद जी की बात सुनते ही भगवान ने उस सेठ को अधिक धन सम्पत्ति बढ़ाने वाला वरदान दे दिया।
इसके बाद भगवान नारद जी को लेकर एक बुढ़िया मैया के घर में गए। जिसकी एक छोटी सी झोपड़ी थी, जिसमें एक गाय के अलावा और कुछ भी नहीं था। जैसे ही भगवान ने भिक्षा के लिए आवाज लगायी, बुढ़िया मैया बड़ी खुशी के साथ बाहर आयी। दोनों सन्तों को आसन देकर बिठाया और उनके पीने के लिए दुध लेकर आयीं और बोली – “प्रभु ! मेरे पास और कुछ नहीं है, इसे ही स्वीकार कीजिये।”
भगवान ने बड़े प्रेम से स्वीकार किया। तब नारद जी ने भगवान से कहा – “प्रभु ! आपके भक्तों की इस संसार में देखो कैसी दुर्दशा है, मेरे पास तो देखी नहीं जाती। यह बेचारी बुढ़िया मैया आपका भजन करती है और अतिथि सत्कार भी करती है। आप इसको कोई अच्छा सा आशीर्वाद दीजिए।”
भगवान ने थोड़ा सोचकर उसकी गाय को मरने का अभिशाप दे डाला।” यह सुनकर नारद जी बिगड़ गए और कहा – “प्रभु जी ! यह आपने क्या किया ?”
भगवान बोले – “यह बुढ़िया मैया मेरा बहुत भजन करती है। कुछ दिनों में इसकी मृत्यु हो जाएगी और मरते समय इसको गाय की चिन्ता सताएगी कि मेरे मरने के बाद मेरी गाय को कोई कसाई न ले जाकर काट दे, मेरे मरने के बाद इसको कौन देखेगा ?
तब इस मैया को मरते समय मेरा स्मरण न होकर बस गाय की चिन्ता रहेगी और वह मेरे धाम को न जाकर गाय की योनि में चली जाएगी।”
उधर सेठ को धन बढ़ाने वाला वरदान दिया कि मरने वक़्त धन तथा तिजोरी का ध्यान करेगा और वह तिजोरी के नीचे साँप बनेगा।
प्रकृति का नियम है जिस चीज मे अति लगाव रहेगा यह जीव मरने के बाद बही जनम लेता है ओर बहुत दुख भोगता है
अतः अपना चिंतन प्रभू की तरफ अधिक रखे

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।।।।।।

Shubh sandhya

संजय गुप्ता

Posted in रामायण - Ramayan

श्रीराम का कूटनीतिज्ञ स्वरूप
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प्रायः ये जनप्रवृत्ति रही है कि श्रीराम को एक सरल , करुणावत्सल और मर्यादारक्षक के रूप में देखा गया जो सदैव सामाजिक और राजनैतिक मर्यादाओं की रक्षा करते हैं जबकि श्रीकृष्ण को एक चतुर , कूटनीतिज्ञ और लीलाधर के रूप में देखा गया जो धर्मस्थापना के लिये साध्य साधन औचित्य की किसी मर्यादा को मानने के लिये तैयार नहीं हैं । इसी तुलना के चलते भावुक भक्तों द्वारा चौदह और सोलह कलाओं जैसी अवधारणायें दी गयीं जबकि वास्तविकता यह है कि श्रीराम भी उतने ही घोर राजमर्मज्ञ थे जितने श्रीकृष्ण । अंतर केवल छवि का है । श्रीराम की सरल छवि के नीचे उनका धुर राजनीतिज्ञ रूप आच्छादित हो गया है जबकि श्रीकृष्ण की चपल छवि के कारण उनका कूटनीतिज्ञ रूप जनमानस में स्थापित हो गया है ।

एक वास्तविकता यह भी है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण दोंनों की कूटनीतिक और रणनैतिक कार्यशैली एक जैसी ही थी जिसे चार प्रमुख सिद्धांत थे —

1– अपने पक्ष में सुदृढ संगठन नैतिक बल उत्पन्न करना
2– युध्द पूर्व विरोधी पक्ष में समर्थक उत्पन्न करना ।
3– सैन्य प्रयोग के लिये उचित समय का इंतजार करना
3– कम से कम प्रयत्न द्वारा अधिकतम परिणाम लेना

प्रारंभ से ही श्रीराम के अभियानों में उपरोक्त सिद्धांतों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है ।

उनके जीवन का प्रथम अभियान था विश्वामित्र के सिद्धाश्रम के नजदीक स्थित रावण के सैनिक स्कंधावार के विरुद्ध जिसका नेतृत्व कर रही थी यक्षिणी ताड़का व राक्षस सुन्द के लवजेहाद के जाल में फंसकर रक्ष धर्म में धर्मांतरण के बाद उसके पुत्र मारीच और सुबाहु जो उस क्षेत्र के स्वार्थी और शक्तिशाली आर्यों को तेजी से रक्षधर्म में धर्मांतरित कर रहे थे ।

नरमांस भक्षण , स्त्रीअपहरण व बलात्कार , लूट और शोषण के विरुद्ध विश्वामित्र के नेतृत्व में जनाक्रोश पहले से एकत्रित था और आवश्यकता थी केवल न्याय के लिये अधिकृत नेतृत्व की जो राम ने उन्हें प्रदान किया ।

इसके बाद राम ने श्रंगवेरपुर के निषादों से स्वतंत्रता व समानता के संबंध स्थापित किये और यह विशाल व स्वाभिमानी जाति सदैव के लिये राम के प्रति श्रद्धावनत हो गई ।

अपने पिता दशरथ द्वारा दक्षिण में शंबर के नेतृत्व में असुरों के विरुद्ध देव जाति के सैन्य अभियान की असफलता से राम ने वन्य जाति बहुल क्षेत्रों राजकीय सैन्य अभियान की निरर्थकता को समझ लिया था इसीलिए चित्रकूट और दंडकारण्य में राम ने वन्य जातियों यथा शबर , भील , कोल आदि के बीच में उन्हीं जैसा जीवन जीते हुये इन जातियों का संगठन किया उनमें सुधारों व सैन्यप्रशिक्षण द्वारा नैतिकता व आत्मविश्वास का संचार किया। शूर्पणखा प्रसंग से अपने समर्थकों में अपने चरित्र के प्रति अगाध विश्वास उत्पन्न किया ।

सम्यक रणनीति द्वारा खर दूषण को अपने अनुकूल भूगोल में युद्ध करने के लिये उकसाया और दंडकवन में रावण की सैन्य उपस्थिति को समूल नष्ट कर दिया ।

वानरों के संदर्भ में भी यही हुआ । उन्होंन दुर्बल सुग्रीव का पक्ष लिया जिससे उन्हें स्वतः ही सुग्रीव के प्रति सहानुभूति रखने वाली अधिसंख्य वानर प्रजा का नैतिक समर्थन प्राप्त हो गया जिसके कारण द्वंद्वयुद्ध के नियमों के विपरीत हस्तक्षेप कर बालि का वध करने पर भी वानर जाति ने उन्हें अपना मुक्तिदाता माना , आक्रांता नहीं ।

बालि के पश्चात राम ने राक्षसों के शोषण के विरुद्ध वानर जाति के आक्रोश को उभारा और सीता अनुसंधान के समय का सदुपयोग कर साथ साथ समस्त जानकारियां जुटाते रहे जिसका परिणाम था श्रीराम के नेतृत्व के प्रति असाधारण रूप से निष्ठावान सेना तथा हनुमान , जाम्बवान , नल, नील और सुहोत्र जैसे यूथपतियों की अगाध श्रद्धा । केवल अंगद की निष्ठा पर उन्हें आशंका थी जिसे लंका में रावण के दरबार में उसे दूत के रूप में भेजकर जांच लिया गया ।

लंका में विभीषण के विद्रोह व पलायन तथा उसे लंकापति के रूप में मान्यता देकर उन्होंने न केवल रावण की कमजोरियों को जान लिया बल्कि संधिप्रस्ताव भेजकर अपने व रावण दोंनों पक्षों में अपने नैतिक बल को मजबूत कर लिया और इसके बाद ही उन्होंने युद्ध प्रारंभ किया ।

युद्ध के दौरान भी उन्होंने अपनी सतर्कता बनाये रखी और विभीषण को सुरक्षा के नैतिक उत्तरदायित्व का हवाला देकर सदैव केंद्र में अपने नजदीक रखा ।

क्या पता कब भाई के प्रति मोह जाग जाये ?

और जब विभीषण की सहायता से मेघनाद का वध हो गया तो उन्होंने विभीषण को रावण से टकराने की छूट दे दी क्योंकि अब रावण द्वारा विभीषण को पुनः अपनाने की सारी सम्भावनायें नष्ट हो चुकी थीं।

सुग्रीव के राज्याभिषेक के साथ साथ अंगद के युवराज्याभिषेक व अंगद के दूतकर्म के पश्चात विभीषण के प्रसंग में श्रीराम के चरम कूटनीतिक चातुर्य के दर्शन होते हैं और यह तीन प्रसंग ही उनके राजनैतिक व्यक्तित्व को स्पष्ट करने के लिये काफी हैं ।

वनवास से लौटने के पश्चात हनुमान को अयोध्या व भरत की मनःस्थिति को भांपने के लिये अग्रिम दूत के रूप में भेजना उनकी राजोचित सतर्कता का उदाहरण है ।

राज्याभिषेक के पश्चात सीतात्याग के उपरांत भी भारतवर्ष के राजनैतिक संगठन का उनका अभियान जारी रहा ।

लंका में विभीषण और दक्षिण भारत में सुग्रीव दोंनों उनकी मैत्रीपूर्ण अधीनता स्वीकार करते ही थे और दोंनों शक्तियों में विजित और विजेता संबंध का विवाद कभी भी उत्पन्न ना हो सके और दोंनों के मध्य संतुलन बना रहे इसके लिये विभीषण के गुप्त अनुरोध पर उन्होंने अपने ही बनाये रामसेतु को मध्य से इतना भंग करवा दिया कि वानर सेनायें कभी भी लंका पर और लंका निवासी राक्षस जो अब आर्य संस्कृति को स्वीकार कर चुके थे दक्षिण भारत पर आक्रमण ना कर सकें ।

परंतु राज्याभिषेक के पश्चात राम के समक्ष सबसे पहली और नजदीकी मुसीबत थी यमुना पार मधुवन में लवणासुर के रूप में और पूर्व में प्राग्ज्योतिष में बाणासुर के रूप में स्थापित प्राचीन असुरों की पीठें ।

मधुवन की लवणासुर की पीठ अयोध्या के लिये विशेष रूप से सिरदर्द थी । इस क्षेत्र के असुरों ने ना केवल यदुओं को सौराष्ट्र की ओर धकेल दिया था बल्कि सूर्यवंश के ही प्रतापी चक्रवर्ती नरेश मांधाता की हत्या तक युद्ध में कर दी थी जिसका दंश इक्ष्वाकुओं को अब तक चुभता था ।

प्राचीन असुरों की यह पीठ इतनी शक्तिशाली थी कि रावण तक लवणासुर से कन्नी काट गया था ।

परंतु भृगुओं की एक शाखा के कुलपति च्यवन जो सौराष्ट्र छोड़कर इस क्षेत्र में आ बसे थे , उनपर आक्रमण कर असुरों ने भीषण गलती कर दी ।

अपनी देखो और इंतजार करो की नीति के कारण श्रीराम सदैव उचित समय का इंतजार करते थे। अब जबकि उनकी अपनी प्रजा और सेना का नैतिक बल उन्हें प्राप्त हो गया और महर्षि च्यवन के नेतृत्व में भृगुओं के रूप में उस क्षेत्र के भूगोल और शत्रु के बलाबल से परिचित एक जबरदस्त सहायक मिल गया तो उन्होंने शत्रुघ्न के नेतृत्व में अविलंब सेनायें भेज दीं ।

तत्कालीन लवणासुर मारा गया , असुर सेनाओं को छिन्न भिन्न कर दिया गया और श्रीराम ने मधुवन के नाम पर ‘मधुरा’ को सैन्यकेन्द्र बनाकर वहाँ नियुक्त किया शत्रुघ्न को और यही मधुरा आगे जाकर कहलाई मथुरा ।

शत्रुघ्न ने श्रीराम की आज्ञा पर दक्षिण की ओर बढ़कर विदिशा पर भी अधिकार कर लिया और वहां नियुक्त किया अपने पुत्र शत्रुघाती को ।

उन्होंने लक्ष्मण की राजसूय यज्ञ करने की सलाह के विरुद्ध भरत के मत के कारण भाइयों में मतभेद को टालने के लिये राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान के विचार को तज कर अपने पूर्वज रघु की भांति पूरे भारत के पुनः राजनैतिक एकीकरण और ‘चक्रवर्ती’ उपाधि धारण करने का विचार तो छोड़ दिया परंतु राजनैतिक स्थिरता के लिये सम्पूर्ण भारत को एक दृढ़ संगठित रूप देने की कोशिश अवश्य की ।

अश्वमेध के दौरान संधि संरक्षित राज्य के पक्ष में सहायता को आये महारुद्र शिव से एक संक्षिप्त युद्ध और संधि के पश्चात उत्तर की दिशा सुरक्षित हो गयी जिससे अयोध्या साम्राज्य रुद्रों के अधीन कश्मीर में बसे ‘यक्ष’ , ‘नाग’ और ‘पिशाच’ जातियों की अराजकता से सुरक्षित हो गया । यक्षराज कुबेर यों भी श्रीराम के प्रति अत्यंत श्रद्धा रखते ही थे ।

सर्वाधिक समस्या थी उत्तर पश्चिम में और उसके मूल में थे ‘गंधर्व’ । उन्होंने पूरे पश्चिमोत्तर क्षेत्र में आतंक मचा रखा था और यहां तक कि उन्होंने आनव नरेश और भरत के मामा युधाजित पर आक्रमण कर उनकी हत्या कर दी । अवसर की तलाश में बैठे श्रीराम ने तुरंत भरत और उनके पुत्रों तक्ष व पुष्कल के सेनापतित्व में एक विशाल सेना बाह्लीक प्रदेश में भेज दी जिनका स्वागत मुक्तिदायिनी सेना के रूप में आनवों ने किया । गंधर्वों को वापस अपने हिमाचल व पामीर की ओर भागना पड़ा ।

भरत ने आनवों और द्रुह्युओं की सहायता से सुदूर पश्चिम में सबसे अग्रिम सैन्य चौकी के रूप में अपने ज्येष्ठ पुत्र पुष्कल के नाम पर पुष्कलावती और उसके पीछे सिंधु के पूर्वी तट पर तक्ष के नाम पर तक्षशिला की स्थापना की । पुष्कल और तक्ष के राजवंशों का क्या हुआ यह स्पष्ट नहीं है । संभवतः वे स्थानीय गणक्षत्रियों में समाहित हो गये परंतु उनके नाम पर बसे ये सैन्यकेन्द्र आगे चलकर वैभवशाली नगरों के रूप में विकसित हुये ।

कालांतर में सिंधु के नीचे रावी के तट पर राम ने अपने कनिष्ठ पुत्र लव के प्रभार में लवपुर बसाया जो मद्रों व कठों के कारण विशेष विस्तृत ना हो सका लेकिन संभवतः वह एक छोटी बस्ती या गाँव के रूप में किसी तरह बना रहा और लोकस्मृति में उसके संस्थापक का नाम भी जो आगे जाकर 9वीं शताब्दी में दुर्ग रूप में लोहकोट और नगरीकृत रूप में ‘लवपुर’ या लाहौर के रूप में प्रसिद्ध हुआ जहां किसी काल में इसके संस्थापक लव की स्मृति में बनाया गया ‘लव मंदिर’ जीर्ण शीर्ण दशा में आज भी उपस्थित है ।

उधर दंडकवन प्राचीनकाल से इक्ष्वाकुओं की एक शाखा के पूर्वज राजा दंडके अधिकार में था परंतु किसी भृगु पुरोहित की पुत्री के साथ दंड द्वारा बलात्कार के कारण आर्यों में फूट पड़ गयी जिसका लाभ उठाकर राक्षसों ने इक्ष्वाकुओं को वहां से खदेड़ दिया था यद्यपि इक्ष्वाकुओं की एक शाखा का छोटा सा राज्य वहां स्थापित था जो कोशल के दक्षिणी भाग दक्षिण कोशल के नाम पर दक्षिण कोशल ही कहलाया । आज यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ कहलाता है । स्वयं श्रीराम की माँ कोशल्या दक्षिण कोशल की ही राजकुमारी थीं , इसलिये वह क्षेत्र श्रीराम की ननिहाल भी था । खर दूषण के नेतृत्व वाले राक्षस स्कंधावार के विध्वंस के पश्चात ही वहां शक्ति शून्य पैदा हो चुका था , इसलिये उन्होंने वहां भी सेनायें भेज दीं और वहाँ पहले से बसे इक्ष्वाकुओं की मदद से अयोध्या के दक्षिण में बसाये गये कुशावती के नाम पर दक्षिण कोशल में भी कुशावती के नाम पर एक और सैन्यकेंद्र बनाया गया और कालांतर में उसका प्रभारी कुश को बनाया । कुछ लोग कुशावती को द्वारका मानते हैं जहाँ शार्यातों के रूप में बसी हुई इक्ष्वाकुओं की एक शाखा को असुरों ने अपदस्थ कर रखा था । परंतु कुशावती का दक्षिण कोशल अर्थात छत्तीसगढ़ में होना अधिक समीचीन प्रतीत होता है ।

अब पश्चिमोत्तर से दक्षिण में कुशावती तक एक सशक्त प्रतिरक्षा पंक्ति तैयार हो चुकी थी परंतु अभी भी श्रीराम संतुष्ट नहीं थे क्योंकि मथुरा और तक्षशिला के बीच में एक बड़ी दरार थी उसे भरने के लिये उन्होंने चुना अपने सर्वाधिक विश्वासपात्र अनुज लक्ष्मण की संतानों अंगद और चित्रकेतु को जो पहले ही अयोध्या के उत्तर में अंगदीयापुरी और पूर्व में मल्लजाति के क्षेत्र में कारूपथ नामक नगर के प्रभारी थे ।
चित्रकेतु मल्लों में इस कदर लोकप्रिय हो चुके थे कि उनका दूसरा नाम ” मल्ल ” ही लोकप्रिय हो गया ।
कारूपथ की स्थापना संभवतः पूर्व में असम की ओर से बाणासुर पीठ व उसके सहयोगियों के किसी संभावित अभियान को रोकने के लिए और कोशल के मित्र राज्य काशी , अंग व बंग को सहायता प्रदान करने के लिये की गयी ।

श्रीराम ने लवपुर और मधुरा के बीच में पूर्व की अंगदीयपुरी और कारूपथ के नाम पर ही पंजाब में भी अंगदीयपुरी और कारुपथ के नाम से दो और सैन्य केंद्रों की स्थापना की । अंगदीयपुरी का अस्तित्व अधिक नहीं चल सका लेकिन चित्रकेतु के साथ गये उनके निष्ठावान “मल्ल” जनों ने वहां अपने पैर जमा लिये और कहलाये मालव । कालांतर में इनकी नगरी जिसे कालिदास ने “कारापथ” कहा , वह पीछे छूट गयी और मालव रावी और चेनाब के उपरले काठे में बस गये । निचले काठे या क्षुद्र भाग में बसे आर्यजन अपनी बस्ती की भौगोलिक स्थिति के कारण कहलाये क्षुद्रक अर्थात ‘निचले’ ।

अब उत्तर पश्चिम दिशा एक प्रतिरक्षा रेखा द्वारा सुरक्षित थी जिसका एक बिंदु पुष्कलावती था और दूसरा बिंदू था दक्षिण कोशल में कुशावती में ।

केंद्र में अयोध्या चारों ओर से लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) , अंगदीयपुरी , कारूपथ, मथुरा और श्रंगवेरपुर द्वारा सुरक्षित थी

इस प्रकार श्रीराम ने अयोध्या साम्राज्य को दोहरी सुरक्षापंक्ति से घेर दिया । साम्राज्य के रूप में भारत का राजनैतिक संगठन पूराकर उन्होंने इस राष्ट्र को एक बार फिर एकीकृत कर राजनैतिक स्थिरता की नींव डाली ।

स्वयं के प्रभार वाली सदृढ़ गुप्तचर व्यवस्था , शत्रुघ्न के सेनापतित्व में विशालशक्तिशाली सेना व लक्ष्मण के प्रभार में उदार परंतु सचेत निगरानी वाले आर्थिक तंत्र के आधार पर उन्होंने उस प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की जिसे इतिहास में एक ऐसे मानक के रूप में देखा गया जो अब तक रामराज्य के रूप में यूटोपिया बना हुआ है और जिसे केवल गुप्त सम्राट ही कुछ हद तक प्राप्त कर पाये।
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देव शर्मा

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

मुंबई मे एक सेठ सेठानी में बहस हो गई कि उनके एक मात्र लड़के के लिये गाँव की बहू लाऐं या शहर की.

सेठानी कहती कि गाँव की लाऐंगे क्योंकि वह घर काम संभाल लेगी.

सेठजी कहते कि वे गँवार होती हैं.उन्हे शहर के तौर तरीके नही आते हैं.

आखिर सेठानी कि जिद पर एक गाँव पहुंचे. सेठजी ने कहा बेटी जरा चीकू शेक (Chickoo Shake) ले आओ.बेचारी लड़की को कुछ समझ नही आया.वह रसोईघर मे गई. चार चीकू लिये. तवे पर सेका.मसाला डाला और प्लेट मे चीकू सेक कर ले आई.

सेठ सेठानी वापस आ गये.

अब सेठजी के कहने पर शहर मे लड़की देखने गये. सेठानी ने सोचा नई बहू की परीक्षा पापड़ सेका कर की जाती है सो बोली बेटी जरा पापड़ सेक लाओ l

लड़की किचन मे गई. चार पापड़ लिए.मिक्सर मे डाले.पानी मिलाया और गिलास मे भर कर ले आई।

सेठ सेठानी पापड़ शेक देखते ही रह गए!!!

छोरा अभी भी कुंवारा ही है🧐🔫