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JAI SHRI RAM JAI VEER HANUMAN

तपस्विनी स्वयंप्रभा

“ते प्रविष्टास्तु वेगेन तद्
बिलं कपिकुञ्जरा:।
प्रकाशं चाभिरामं च
ददृशुदेर्शमुत्तमम्।।”
(बाल्मीकिरचित ‘रामायण’| सर्ग-50| किष्किन्धाकाण्ड)

वे वानर उस बिल में वेगपूर्वक प्रविष्ट हो गये। भीतर जाकर उन्होंने देखा वह स्थान बहुत ही उत्तम, प्रकाशमान और मनोहर है।
सीता जी खोज में भटकते भूखे-प्यासे वानरों को विन्ध्याँचल पर ‘ऋक्षबिल’ नामक वह गुफा दृष्टिगत हुई, जिसका द्वार बंद नहीं था। भूख प्यास से अति त्रस्त होने के उपरांत भी, गुफा की भयावहता को देख उसमें प्रवेश करना, वानर दल को कष्टसाध्य व अनिष्टकारी प्रतीत हो रहा था, किन्तु इसके उपरांत भी हनुमानजी ने उसमें प्रवेश करने का असीम साहस किया।

अंदर से अत्यधिक मनोरम गुफा में विचरण करते, उन्होंने तपस्या में संलग्न अपने ही अलौकिक तेज से दीप्त एक तपस्विनी को देखा। हनुमानजी ने अति विनम्रता से उस तापसी से प्रश्न किया-
” हे देवी ! आप कौन हैं, यह गुफा, यह भवन, ये रत्न किसके हैं।”
तापसी ने अपना नाम स्वयंप्रभा एवं अपना सम्पूर्ण परिचय-वृतांत हनुमानजी व बानरों को बताया।स्वयंप्रभा इन्द्र लोक की अप्सरा हेमा की सबसे प्रिय सखी थी।दिव्य सुवर्णमय भवन के निर्माता असुरों के विश्वकर्मा मायासुर के ऐश्वर्य पर अप्सरा हेमा मुग्ध हो गई।जब इन्द्र को पता चला कि हेमा को मायासुर से प्रेम हो गया है तब मायासुर से युद्ध करने आये।दोनों में भयंकर युद्ध हुआ और इन्द्र के वज्र से मायासुर का अंत हो गया।
इन्द्र के इस आचरण से हेमा को बहुत आघात लगा और देवकन्या होने के उपरांत भी हेमा ने देवलोक जाने से इन्कार कर दिया।तब ब्रह्मा जी ने यह सुवर्णमय वन हेमा को दे दिया। हेमा सुरक्षित रहे इसकी भी ब्रह्मा जी ने व्यवस्था की।यह स्थान हेमा के अधीन रहा और हेमा ने अपनी सबसे प्रिय सखी स्वयंप्रभा को इस स्थान पर नियुक्त कर दिया।तभी से स्वयंप्रभा इस सुवर्णमय वन का संक्षरण करने लगी।

सम्पूर्ण वृतांत बताने के पश्चात उसने वानरों से उस गुफा में प्रविष्ट होने का कारण पूछा। हनुमानजी जी ने उसे सारी कथा सुना दी।स्वयंप्रभा सर्वज्ञ थी एवं संसार से विमुख, मोक्ष-प्राप्ति की कामना से निरंतर भगवान विष्णु की उपासना में संलग्न रहती थी। श्री राम का नाम सुनते ही तापसी स्वयंप्रभा भाव-विभोर हो गई, भगवान श्री राम? वे ही तो उसके अराध्य हैं, उन्हीं की कृपा-प्राप्ति के लिये तो वह तप-संलग्न है। उसने हनुमान जी से कहा-
“इस ‘ऋक्षबिल’ में एक बार प्रवेश कर लेने पर कोई जीवित नहीं लौटता”
किन्तु सीता-हरण व भगवान श्री राम का प्रसँग सुन कर स्वयंप्रभा तपस्विनी ने न केवल वानरों को निर्भय किया, अपितु उसने हनुमानजी जी को सीता-अन्वेषण सम्बन्धी उचित निर्देश भी दिये व यौगिक अविस्मरणीय सहायता भी की। उसने सभी बानरों को आँखें बंद कर लेने को कहा और अपनी यौगिक शक्ति से उन्हें गुफा से बाहर निकाल कर समुद्र तट पर पहुँचा दिया।

तत्पश्चात तपस्विनी स्वयंप्रभा ने एक क्षण भी नहीं गँवाया। वह तुरन्त उसी क्षण अपनी गुफा को छोड़ कर तत्काल श्री राम जी के सम्मुख आईं। भक्ति से ओतप्रोत भाव-विह्वल हो, उनके दर्शन किये, गुणानुवाद स्तुति करते हुये उनसे उनकी अविचल भक्ति का वरदान माँगा। प्रसन्न होकर श्री राम ने उन्हें वरदान दिया-
“हे महाभागे ! ऐसा ही होगा। अब तू बदरिकाश्रम जा, वहाँ मेरा स्मरण करती हुई शीघ्र ही तू पंचभौतिक शरीर छोड़ मुझ परमात्मा में विलीन हो जायेगी”
स्वयंप्रभा पुण्यक्षेत्र बदरिकाश्रम में आई। अपने अंत:करण में श्री राम का अंतिम समय तक स्मरण करती हुई अंत में वह परमपद को प्राप्त हुई।

संजय गुप्ता

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महाभारत की सबसे चर्चित द्रौपदी स्वयंवर की कथा,,,,

द्रोपदी के स्वयंवर सभा में अनेक देशों के राजा-महाराजा एवं राजकुमार पधारे हुये थे। एक ओर श्री कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम तथा गणमान्य यदुवंशियों के साथ विराजमान थे। वहाँ वे ब्राह्मणों की पंक्ति में जा कर बैठ गये। कुछ ही देर में राजकुमारी द्रौपदी हाथ में वरमाला लिये अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ उस सभा में पहुँचीं।

धृष्टद्युम्न ने सभा को सम्बोधित करते हुये कहा, हे विभिन्न देश से पधारे राजा-महाराजाओं एवं अन्य गणमान्य जनों इस मण्डप में बने स्तम्भ के ऊपर बने हुये उस घूमते हुये यंत्र पर ध्यान दीजिये। उस यन्त्र में एक मछली लटकी हुई है तथा यंत्र के साथ घूम रही है।

आपको स्तम्भ के नीचे रखे हुये तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुये बाण चला कर मछली की आँख को निशाना बनाना है। मछली की आँख में सफल निशाना लगाने वाले से मेरी बहन द्रौपदी का विवाह होगा। एक के बाद एक सभी राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया किन्तु सफलता हाथ न लगी और वे कान्तिहीन होकर अपने स्थान में लौट आये।

इन असफल लोगों में जरासंघ, शल्य, शिशुपाल तथा दुर्योधन दुशासन आदि कौरव भी सम्मिलित थे। कौरवों के असफल होने पर दुर्योधन के परम मित्र कर्ण ने मछली को निशाना बनाने के लिये धनुष उठाया किन्तु उन्हें देख कर द्रौपदी बोल उठीं, यह सूतपुत्र है इसलिये मैं इसका वरण नहीं कर सकती। द्रौपदी के वचनों को सुन कर कर्ण ने लज्जित हो कर धनुष बाण रख दिया। उसके पश्चात् ब्राह्मणों की पंक्ति से उठ कर अर्जुन ने निशाना लगाने के लिये धनुष उठा लिया।

एक ब्राह्मण को राजकुमारी के स्वयंवर के लिये उद्यत देख वहाँ उपस्थित जनों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ किन्तु ब्राह्मणों के क्षत्रियों से अधिक श्रेष्ठ होने के कारण से उन्हें कोई रोक न सका। अर्जुन ने तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुये एक ही बाण से मछली की आँख को भेद दिया। द्रौपदी ने आगे बढ़ कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दिया। एक ब्राह्मण के गले में द्रौपदी को वरमाला डालते देख समस्त क्षत्रिय राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने क्रोधित हो कर अर्जुन पर आक्रमण कर दिया।

अर्जुन की सहायता के लिये शेष पाण्डव भी आ गये और पाण्डवों तथा क्षत्रिय राजाओं में घमासान युद्ध होने लगा। श्री कृष्ण ने अर्जुन को पहले ही पहचान लिया था, इसलिये उन्होंने बीच बचाव करके युद्ध को शान्त करा दिया। दुर्योधन ने भी अनुमान लगा लिया कि निशाना लगाने वाला अर्जुन ही रहा होगा और उसका साथ देने वाले शेष पाण्डव रहे होंगे।

वारणावत के लाक्षागृह से पाण्डवों के बच निकलने पर उसे अत्यन्त आश्चर्य होने लगा। पाण्डव द्रौपदी को साथ ले कर वहाँ पहुँचे जहाँ वे अपनी माता कुन्ती के साथ निवास कर रहे थे। द्वार से ही अर्जुन ने पुकार कर अपनी माता से कहा, माते आज हम लोग आपके लिये एक अद्भुत् भिक्षा ले कर आये हैं।

उस पर कुन्ती ने भीतर से ही कहा, पुत्रों तुम लोग आपस में मिल-बाँट उसका उपभोग कर लो। बाद में यह ज्ञात होने पर कि भिक्षा वधू के रूप में हैं, कुन्ती को अत्यन्त पश्चाताप हुआ किन्तु माता के वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिये कुन्ती ने पाँचों पाण्डवों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया।

पाण्डवों के द्रौपदी को साथ ले कर अपने निवास पर पहुँचने के कुछ काल पश्चात् उनके पीछे-पीछे कृष्ण भी वहाँ पर आ पहुँचे। कृष्ण ने अपनी बुआ कुन्ती के चरणस्पर्श कर के आशीर्वाद प्राप्त किया और सभी पाण्डवों से गले मिले। औपचारिकताएँ पूर्ण होने के पश्चात् युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा, हे द्वारिकाधीश आपने हमारे इस अज्ञातवास में हमें पहचान कैसे लिया?

कृष्ण ने उत्तर दिया, भीम और अर्जुन के पराक्रम को देखने के पश्चात् भला मैं आप लोगों को कैसे न पहचानता। सभी से भेंट मुलाकात करके कृष्ण वहाँ से अपनी नगरी द्वारिका चले गये। फिर पाँचों भाइयों ने भिक्षावृति से भोजन सामग्री एकत्रित किया और उसे लाकर माता कुन्ती के सामने रख दिया। कुन्ती ने द्रौपदी से कहा, देवि इस भिक्षा से पहले देवताओं के अंश निकालो।

फिर ब्राह्मणों को भिक्षा दो। तत्पश्चात् आश्रितों का अंश अलग करो। उसके बाद जो शेष बचे उसका आधा भाग भीम को और शेष आधा भाग हम सभी को भोजन के लिये परोसो। पतिव्रता द्रौपदी ने कुन्ती के आदेश का पालन किया। भोजन के पश्चात् कुशासन पर मृगचर्म बिछा कर वे सो गये। द्रौपदी माता के पैरों की ओर सोई।

द्रौपदी के स्वयंवर के समय दुर्योधन के साथ ही साथ द्रुपद, धृष्तद्युम्न एवं अनेक अन्य लोगों को संदेह हो गया था कि वे ब्राह्मण पाण्डव ही हैं। उनकी परीक्षा करने के लिये द्रुपद ने धृष्टद्युम्न को भेज कर उन्हें अपने राजप्रासाद में बुलवा लिया।

राजप्रासाद में द्रुपद एवं धृष्टद्युम्न ने पहले राजकोष को दिखाया किन्तु पाण्डवों ने वहाँ रखे रत्नाभूषणों तथा रत्न-माणिक्य आदि में किसी प्रकार की रुचि नहीं दिखाई। किन्तु जब वे शस्त्रागार में गये तो वहाँ रखे अस्त्र-शस्त्रों उन सभी ने बहुत अधिक रुचि प्रदर्शित किया और अपनी पसंद के शस्त्रों को अपने पास रख लिया। उनके क्रिया-कलाप से द्रुपद को विश्वास हो गया कि ये ब्राह्मण के रूप में योद्धा ही हैं।

द्रुपद ने युधिष्ठिर से पूछा, हे आर्य आपके पराक्रम को देख कर मुझे विश्वास हो गया है कि आप लोग ब्राह्मण नहीं हैं। कृपा करके आप अपना सही परिचय दीजिये। उनके वचनों को सुन कर युधिष्ठिर ने कहा, राजन् आपका कथन अक्षर सत्य है। हम पाण्डु-पुत्र पाण्डव हैं। मैं युधिष्ठिर हूँ और ये मेरे भाई भीमसेन, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव हैं। हमारी माता कुन्ती आपकी पुत्री द्रौपदी के साथ आपके महल में हैं।

युधिष्ठिर की बात सुन कर द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न हुये और बोले, आज भगवान ने मेरी सुन ली। मैं चाहता था कि मेरी पुत्री का विवाह पाण्डु के पराक्रमी पुत्र अर्जुन के साथ ही हो। मैं आज ही अर्जुन और द्रौपदी के विधिवत विवाह का प्रबन्ध करता हूँ। इस पर युधिष्ठिर ने कहा, राजन् द्रौपदी का विवाह तो हम पाँचों भाइयों के साथ होना है। यह सुन कर द्रुपद आश्चर्यचकित हो गये और बोले, यह कैसे सम्भव है?

एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ अवश्य हो सकती हैं, किन्तु एक स्त्री के पाँच पति हों ऐसा तो न कभी देखा गया है और न सुना ही गया है। युधिष्ठिर ने कहा, राजन् न तो मैं कभी मिथ्या भाषण करता हूँ और न ही कोई कार्य धर्म या शास्त्र के विरुद्ध करता हूँ। हमारी माता ने हम सभी भाइयों को द्रौपदी का उपभोग करने का आदेश दिया है और मैं माता की आज्ञा की अवहेलना कदापि नहीं कर सकता।

इसी समय वहाँ पर वेदव्यास जी पधारे और उन्होंने द्रुपद को द्रौपदी के पूर्व जन्म में तपस्या से प्रसन्न हो कर शंकर भगवान के द्वारा पाँच पराक्रमी पति प्राप्त करने के वर देने की बात बताई। वेदव्यास जी के वचनों को सुन कर द्रुपद का सन्देह समाप्त हो गया और उन्होंने अपनी पुत्री द्रौपदी का पाणिग्रहण संस्कार पाँचों पाण्डवों के साथ बड़े धूमधाम के साथ कर दिया। इस विवाह में विशेष बात यह हुई कि देवर्षि नारद ने स्वयं पधार कर द्रौपदी को प्रतिदिन कन्यारूप हो जाने का आशीर्वाद दिया।

पाण्डवों के जीवित होने तथा द्रौपदी के साथ विवाह होने की बात तेजी से सभी ओर फैल गई। हस्तिनापुर में इस समाचार के मिलने पर दुर्योधन और उसके सहयोगियों के दुःख का पारावार न रहा। वे पाण्डवों को उनका राज्य लौटाना नहीं चाहते थे किन्तु भीष्म, विदुर, द्रोण आदि के द्वारा धृतराष्ट्र को समझाने तथा दबाव डालने के कारण उन्हें पाण्डवों को राज्य का आधा हिस्सा देने के लिये विवश होना पड़ गया।

विदुर पाण्डवों को बुला लाये, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विकर्ण, चित्रसेन आदि सभी ने उनकी अगवानी की और राज्य का खाण्डव वन नामक हिस्सा उन्हें दे दिया गया। पाण्डवों ने उस खाण्डव वन में एक नगरी की स्थापना करके उसका नाम इन्द्रप्रस्थ रखा तथा इन्द्रप्रस्थ को राजधानी बना कर राज्य करने लगे। युधिष्ठिर की लोकप्रियता के कारण कौरवों के राज्य के अधिकांश प्रजाजन पाण्डवों के राज्य में आकर बस गये।

संजय गुप्ता

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सपने में पानी देखना: जानिए इसके शुभ और अशुभ परिणाम
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इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा जिसको सपने नहीं आते होंगे. सपने आना मनुष्य के दिमाग की एक उपज या कल्पना भी हो सकती है. अक्सर हम अपनी रोजाना जिंदगी में कुछ ऐसी स्तिथियों या घटनायों से गुजरते हैं, जो ना चाहते हुए भी हमारे मस्तिष्क पर गहरा असर छोड़ जाती है और यही घटनाएं एक ना एक दिन सपनो का रूप धारण करके हमें रात भर परेशान करती हैं. बहुत सारे लोगो को एक ही सपना बार बार भी दिखाई दे सकता है. यदि आपके साथ भी ऐसा हो रहा है तो इसका मतलब उस सपने से जुडी कोई ना कोई घटना आपकी असल जिंदगी से ताल्लुक रखती है. हिन्दू धर्म के शास्त्रों और ज्योतिष विज्ञान के अनुसार हर सपने का कोई ना कोई अर्थ जरुर होता है. अगर बात सपने में पानी देखना (sapne me pani dekhna) की करें तो इसके शुभ और अशुभ दोनों परिणाम हो सकते हैं. क्यूंकि, बहुत सारे सपने हमे हमारे भविष्य में आने वाली परेशानियों से आगाह करते हैं. चलिए आज के इस आर्टिकल में जानते है कि सपने में पानी देखना (sapne me pani dekhna) इसका आखिर क्या अर्थ हो सकता है.

सपने में (बाढ़ का) पानी देखना
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बाढ़ को अंग्रेजी भाषा में “Flood” भी कहा जाता है. ये सबसे खातीं कुदरती विपदायों में से एक माना जाता है. जब भी बाढ़ आता है तो हस्ते खेलते घरों को तबाह कर जाता है. ऐसे में यदि आपको सपने में बाढ़ का पानी दिखाई देता है तो ये आपके लिए परेशानी और आने वाले समय में दुखों का संकेत है. सपने में बाढ़ देखने का मतलब आपको बहुत जल्द कोई बुरा समाचार सुनने को मिलने वाला है.

बारिश की बूंदों का दिखाई देना
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सपने में बारिश की बूंदे दिखाई देना आपके लिए बेहद शुभ संकेत हो सकता है. अगर आपको सपने में हलकी बारिश की बूंदे दिखाई देती हैं तो इसका मतलब आप काफी क्षमाशील व्यक्ति हैं. इसके इलावा अगर आपको सपने में भारी मात्रा में बारिश की बूंदे नज़र तो इसका मतलब है कि आपकी पिछली समस्यायों से आपको बहुत जल्द छुटकारा मिलने वाला है.

सपने में नदी का पानी देखना
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यदि आपको सपने में नदी का पानी दिखाई दे तो ये आपके लिए काफी अच्छा संकेत सिद्ध हो सकता है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सपने में पानी देखना या सपने में नदी का पानी दिखाई दे तो उस इंसान की इच्छाएं और आकांक्षाएं बहुत जल्द पूरी होने वाली हैं और उसकी किस्मत बदलने वाली है.

समुद्र का पानी देखना
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समुद्र दिखने में काफी विशाल होते हैं. मगर यदि आपको सपने में समुद्र का पानी दिखाई दे तो इसका मतलब आपको आपकी गलतियों में जल्द ही सुधार करना होगा अन्यथा आपको उसका बुरा परिणाम झेलना पड़ सकता है.

सपने में स्वच्छ पानी देखना
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ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सपने में पानी देखना या स्वच्छ पानी को सबसे उत्तम पानी माना जाता है. ऐसे में अगर आपके सपने में आपको स्वच्छ पानी दिखाई दे तो इसका मतलब आपको जल्दी ही अच्छे कार्यों के अवसर मिलने वाले हैं और सफलता आपके क़दमों को छूने वाली है.

गंदा पानी नज़र आना
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सपनो में गंदा एवं दूषित पानी नज़र आने का मतलब है कि आपकी जिंदगी में बहुत जल्द कोई मुसीबत आने वाली है. इसके इलावा अगर आप किसी शुभ कार्य की शुरुआत करने की सोच रहे हैं तो उसको कुछ समय के लिए टाल दें वरना आपको उस कार्य में कभी सफलता नही मिल पाएगी.

खौलता हुआ गरम पानी देखना
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अगर आपके सपने में आपको खौलता हुआ गरम पानी दिख जाए तो इसका मतलब आपके अंदर भावनायों का सैलाब चल रहा है. ऐसे में आप अपनी भावनायों पर काबू रखें और उन्हें स्थिर बनाने की कोशिश करें वरना आपको कोई बड़ा नुक्सान झेलना पड़ सकता है.

ऊँची जगह से पानी में गिरना
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अगर सपने में आप खुद को किसी ऊंची जगह से नीचे पानी में गिरते हुए देख लेते हैं तो इसका मतलब आपकी बिमारी से जुड़ा हो सकता है. अगर आप काफी समय से किसी बिमारी से पीड़ित हैं तो ये सपना उस बिमारी के और बढने का संकेत देता है.

लहरों की आवाज़
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अगर आपको सपने में पानी देखना या सपने में लहरों की आवाज़ सुनाई दे तो इसका मतलब आपकी जिंदगी सुकून और चैन से चल रही है और आपको किसी प्रकार की कोई पीड़ा नहीं है.

सुनामी दिखाई देना
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सुनामी का दूसरा नाम तबाही है. ऐसे में अगर आपके सपने में सुनामी की आपदा दिखाई पड़े तो इसका मतलब आपे सामने जल्दी ही कोई बहुत बुरी स्तिथि आने वाली है और आप उस स्तिथि का सामना करने के लिए अभी पूरी तरह से तैयार नहीं हैं।
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸देव शर्मा

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राम नाम का मोल


राम नाम का मोल,,,,,,,,

आज ऐसी कथा लेकर आया हूं जिसे आपने सुना भी होगा, तो फिर से क्यों सुनें! आपने अभी तक कथा बस सुनी है लेकिन आज इसे समझेंगे कि कैसे यह कथा हमारी आपकी ही है, फिर शायद आप इसे दस बार और पढ़ें।

एक पहुंचे हुए महात्माजी थे। उनके पास एक शिष्य भी रहता था।एक बार महात्माजी कहीं गए हुए थे उस दौरान एक व्यक्ति आश्रम में आया। आगंतुक ने कहा- मेरा बेटा बहुत बीमार है। इसे ठीक करने का उपाय पूछने आया हूं।

शिष्य ने बताया कि महात्माजी तो नहीं हैं, आप कल आइए। आगंतुक बहुत दूर से और बड़ी आस लेकर आया था। उसने शिष्य से ही कहा- आप भी तो महात्माजी के शिष्य हैं। आप ही कोई उपाय बता दें बड़ी कृपा होगी। मुझे निराश न करें, दूर से आया हूं।

उसकी परेशानी देखकर शिष्य ने कहा- सरल उपाय है, किसी पवित्र चीज पर राम नाम तीन बार लिख लो, फिर उसे धोकर अपने पुत्र को पिला दो,ठीक हो जाएगा।

दूसरे दिन वह व्यक्ति फिर आया, उसके शिष्य के बताए अनुसार कार्य किया था तो उसके पुत्र को आऱाम हो गया था। वह आभार व्यक्त करने आया था।

महात्माजी कुटिया पर मौजूद थे। आगंतुक ने महात्माजी के दर्शन किए और सारी बात कही- बड़े आश्चर्य की बात है, मेरे बेटा ऐसे उठ बैठा जैसे कोई रोग ही न रहा हो।

यह सब जानकर महात्माजी शिष्य से नाराज हुए,वह बोले- साधारण सी पीड़ा के लिए तूने राम नाम का तीन बार प्रयोग कराया,तुम्हें राम नाम की महिमा ही नहीं पता, इसके एक उच्चारण से ही अनंत पाप कट जाते हैं, तुम इस आश्रम में रहने योग्य नहीं हो,जहां इच्छा है वहां चले जाओ।

शिष्य ने उनके पैर पकड़ लिए, माफी मांगने लगा। महात्माजी ने क्षमा भी कर दिया पर उन्होंने सोचा कि शिष्य को यह समझाना भी जरूरी है आखिर उसने गलती क्या की।

महात्माजी ने एक चमकता पत्थर शिष्य को दिया और बोले- शहर जाकर इसकी कीमत करा लाओ,ध्यान रहे बेचना नहीं है,बस लिखते जाना कि किसने कितनी कीमत लगाई।

यहां रूकना नहीं है, कथा पढ़ते रहिए, यह तो भूमिका है, असली बात तो अभी आऩी बाकी है।

शिष्य पत्थर लेकर चला, उसे सबसे पहले सब्जी बेचने वाली मिली,पत्थर की चमक देखकर उसने सोचा यह सुंदर पत्थर बच्चों के खेलने के काम आ सकता है, उसके बदले वह ढेर सारी मूली और साग देने को तैयार हो गई।

शिष्य आगे बढ़ा तो उसकी भेंट एक बनिए से हुई. उसने पूछा कि इसका क्या मोल लगाओगे, उसने कहा- पत्थर तो सुंदर और चमकीला है, इससे तोलने का काम लिया जा सकता है।

इसलिए मैं तुम्हें एक रूपया दे सकता हूं।

शिष्य आगे चला और सुनार के यहां पहुंचा, सुनार ने कहा- यह तो काम का है,इसे तोड़कर बहुत से पुखराज बन जाएंगे, मैं इसके एक हजार रुपए तक दे सकता हूं।

फिर शिष्य रत्नों का मोल लगाने वाले जौहरी के पास पहुंचा,अभी तक पत्थर की कीमत साग-मूली और एक रुपए लगी थी इसलिए उसकी हिम्मत बड़े दुकान में जाने की नहीं पड़ी थी।

पर हजार की बात से हौसला बढ़ा,जौहरी ठीक से पत्थर को परख नहीं पाया लेकिन उसने अंदाजा लगाया कि यह कोई उच्च कोटि का हीरा है। वह लाख रूपए तक पर राजी हुआ।

शिष्य एक के बाद एक बड़ी दुकानों में पहुंचा। कीमत बढ़ती-बढ़ती करोड़ तक हो गई। वह घबराया कि कहीं उसे अब भी सही कीमत न पता चली हो।हारकर वह राजा के पास चला गया।

राजा ने जौहरियों को बुलाया, सबने कहा ऐसा पत्थर तो कभी देखा ही नहीं,इसकी कीमत आंकना हमारी बुद्धि से परे हैं। इसके लिए तो सारे राज्य की संपत्ति कम पड़ जाए।

महात्माजी की प्रसिद्धि से सब परिचित थे। राजा ने कहा- गुरूजी से कहना कि यदि वह इसे बेचना चाहें तो मैं उन्हें सारा राज्य देने को तैयार हूं। शिष्य ने कहा कि नहीं सिर्फ कीमत पता करनी है।

वह वापस आश्रम पर चला आया और सारी कहानी सुना दी, फिर बोला कि जब राजा पत्थर के बदले अपनी सारी संपत्ति देने को राजी है तो इसे बेच ही देना चाहिए।

गुरुजी ने कहा- अभी तक इसकी कीमत नहीं आंकी जा सकी है।शिष्य ने पूछा- गुरुजी राजा अपना पूरा राज्य देने को राजी है।इससे अधिक इसकी क्या कीमत हो सकती है?

गुरु ने उसे एक लोहा लेकर आने को कहा। वह लोहे के दो चिमटे लेकर आया।गुरु ने चिमटों से पत्थर का स्पर्श कराया तो वे सोने के हो गए। शिष्य की तो जैसे आंखें फटी ही रह गईं।

गुरूजी ने पूछा- तुमने इस पत्थर का चमत्कार देखा,अब बोलो इसकी क्या कीमत होनी चाहिए।शिष्य बोला- संसार में हर चीज की कीमत सोने से लगती है, पर जो स्वयं सोना बनाता हो उसका मोल कैसे लगे!

महात्माजी बोले- यह पारस है,इससे स्पर्श करते ही लोहे जैसी कुरुप और कठोर चीज सोने जैसी लचीली और चमकदार हो जाती है। भगवान के नाम का महिमा भी कुछ ऐसी ही है।

इस पारस के प्रयोग से तो केवल जड़ पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं जो नश्वर हैं, परमात्मा तक तो यभी नहीं पहुंचा सकता। लेकिन राम नाम तो सच्चित आनंद का मार्ग है। इसका मोल पहचानो।

जिस नाम के प्रभाव से इंसान भव सागर पार करता है उस प्रभु को मामूली सी परेशानी में बुला लेना उचित नहीं।राम नाम का प्रयोग सोच-समझ कर करना चाहिए।

इसी तरह है तुम्हारी अपनी कीमत,इंसान को अपनी कीमत का तब तक पता नहीं चलता जब तक उसे सही पहचानने वाला न मिले।

सोचें कितनी बड़ी बात कही महात्माजी ने, आपकी क्या कीमत है उसे सही-सही पहचानने वाला नहीं मिला। जैसे पारस पत्थक साग बेचने वाले के लिए बस कुछ मूली के बराबर मोल का था।

बनिए के लिए एक रूपए और सुनार के लिए हजार रुपए की कीमत वाला जबकि राजा अपना पूरा राज-पाट इसके बदले देने को राजी हो गया।

भगवान का नाम सर्वश्रेष्ठ है और आप यदि भगवान के बताए मार्ग पर चल रहे हैं तो उनके प्रिय भक्त. भगवान के प्रियभक्त का मोल समझ लेना किसी ऐरे गैरे के बस की बात तो है नहीं।

यदि आप सत्य के मार्ग पर हैं और कोई आपकी कद्र नहीं कर रहा तो कमी आपमें नहीं है, कमी तो उसमें है जिसे आपका मोल नहीं पता।वह आपके योग्य नहीं।कोई आपको नहीं पहचान पा रहा तो आप हताश न हों, बल्कि पहले से ज्यादा नेक कार्य आरंभ कर दें।

आप सही मार्ग पर चल रहे हैं, किसी का अहित नहीं करते, किसी से द्वेष नहीं रखते, शत्रुता नहीं रखते तो आप ही ईश्वर के प्रिय अनुचर हैं।स्वयं से प्रेम कीजिए। अपना मोल पहले आप तो समझिए, संसार तो बाद में समझेगा।

आपके लिए आप बहुत अहम है फिर संसार. परंतु ऐसा सोचने का अधिकार केवल उनको ही प्राप्त है जो सचमुच ईश्वर के मार्ग पर हैं. जिनमें सच्चाई, सद्भाव, दया और क्षमाशीलता जैसे गुण हैं. यदि इऩ गुणों से विहीन होकर यह भावना रखेंगे तो सावधान करता हूं, ईश्वर आपको कभी फलते नहीं देख सकते।

आप यदि अवगुणों से भरे किसी व्यक्ति को बहुत फलते-फूलते देख रहे हैं तो निराश न हों. आपको नहीं पता कि अंदर से वह कितना भयभीत कितना खोखला है।वह तो पूर्वजन्म के संचित पुण्यकर्मों के बैंक बैलेस में से दोनों हाथ उड़ा रहा है। जिस दिन वह बैलेंस समाप्त हुआ उसका बुरा हश्र होगा।

बुरी राह पर चलने वाले लोगों की संताने क्यों दुखी रहती हैं. माता-पिता के पूर्वजन्म से संचित कर्मों से बच्चों को अंश मिलता है।अब पापी उस बैंलेस को लुटा रहा है तो बच्चों के लिए बचाएगा ही क्या? इसी कारण उनकी संतानें कष्ट भोगती हैं।

भगवान के नाम का प्रभाव और उसका रहस्य जब तक हम नहीं समझेंगे तब तक किसी भी शिक्षा का कोई मोल नहीं।

आत्मबोध करें, दूसरों के ज्ञान और उपदेश को ग्रहण करें, कहीं ऐसा न हो कि किसी अभिमान में आप ऐसे जौहरी को ठुकरा रहे हों जो आपमें पारस देखता है। आपको कथा कैसी लगी, बताइएगा।

संजय गुप्ता

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एक और एक ग्यारह
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एक बडे अस्पताल के प्रतीक्षालय में दो औरतें बैठी थी ।

दोनों ने बातचीत शुरू करने के उद्देश्य से यहाँ आने का कारण पूछा तो पता चला

नयना जो कि विधवा है उसका बेटा कैंसर से पीडित है कई अस्पताल घूमने के बाद यहाँ आज घर गिरवी रख कर आई है

लेकिन रकम कम पड गई है तो डाक्टर इलाज करने से मना कर रहा है ।

आज उसके गोद से लाल ही नहीं सर से छत भी छिनने वाली है ।

वहीं सुनयना
जिसके पेट में दो महीने से एक बच्चा पल रहा है अपने शराबी पति के लिए आई है जिसकी किडनी फेल है दोनों

धन दौलत तो अथाह है उनके पास

और यही समस्या का मूल भी है जिसने पति को शराबी बना दिया और रिश्तेदारों को लोभी ।

कुछ देर के बातचीत में ही दोनों ने एक दूसरे की समस्या के समाधान के लिए प्रस्तुत कर दिया ।

नयना अपनी किडनी देने के लिए तैयार हो गई

और

सुनयना अखिरी दम तक उसके बेटे का इलाज कराने और गिरवी घर छुडाने के लिए ।

दो इकाईयां मिलकर अब दहाई को भी पीछे छोड चुकी थी good evening
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संजय गुप्ता

Posted in संस्कृत साहित्य

शालिग्राम


शालिग्राम

नेपाल में गंडकी नदी के तल में पाए जाने वाले काले रंग के चिकने, अंडाकार पत्थर को कहते हैं। ये भगवान विष्णु का ही एक स्वरुप कहलाते है। तुलसी के श्राप स्वरुप भगवान विष्णु को शालिग्राम बनना पड़ा था। अधिकतर घरों में पूजा के लिए शालिग्राम रखे जाते है। आइये जानते है शालिग्राम से जुडी कुछ ख़ास बातें-
1. स्वयंभू होने के कारण शालिग्राम की प्राण प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती और भक्त जन इन्हें घर या मंदिर में सीधे ही पूज सकते हैं।
2. शालिग्राम अलग-अलग रूपों में पाए जाते हैं, कुछ मात्र अंडाकार होते हैं तो कुछ में एक छिद्र होता है ये पत्थर के अंदर शंख, चक्र, गदा या पद्म खुदे होते हैं।
3. भगवान शालिग्राम का पूजन तुलसी के बिना पूर्ण नहीं होता और तुलसी अर्पित करने पर वे तुरंत प्रसन्न हो जाते हैं।
4. श्री शालिग्राम और भगवती स्वरूपा तुलसी का विवाह करने से सारे अभाव, कलह, पाप ,दुःख और रोग दूर हो जाते हैं।
5. तुलसी शालिग्राम विवाह करवाने से वही पुण्य फल प्राप्त होता है जो कन्यादान करने से मिलता है।
4. पूजन में श्री शालिग्राम जी को स्नान कराकर चंदन लगाकर तुलसी दल अर्पित करना और चरणामृत ग्रहण करना चाहिए। यह उपाय मन, धन व तन की सारी कमजोरियों व दोषों को दूर करने वाला माना गया है।
5. पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि जिस घर में भगवान शालिग्राम हो, वह घर सारे तीर्थों से भी श्रेष्ठ है। इनके दर्शन व पूजन से समस्त भोगों का सुख मिलता है।
6. भगवान शिव ने भी स्कंदपुराण के कार्तिक माहात्मय में भगवान शालिग्राम की स्तुति की है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड अध्याय में उल्लेख है कि जहां भगवान शालिग्राम की पूजा होती है वहां भगवान विष्णु के साथ भगवती लक्ष्मी भी निवास करती है।
7. पुराणों में यह भी लिखा है कि शालिग्राम शिला का जल जो अपने ऊपर छिड़कता है, वह समस्त यज्ञों और संपूर्ण तीर्थों में स्नान के समान फल पा लेता है।
8. जो निरंतर शालिग्राम शिला का जल से अभिषेक करता है, वह संपूर्ण दान के पुण्य व पृथ्वी की प्रदक्षिणा के उत्तम फल का अधिकारी बन जाता है।
9. मृत्युकाल में इनके चरणामृत का जलपान करने वाला समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक चला जाता है।
10. जिस घर में शालिग्राम का रोज पूजन होता है उसमें वास्तु दोष और बाधाएं अपने आप समाप्त हो जाती हैं।

           !!!   हरि ओंम   !!!

संजय गुप्ता

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व्रज के भक्त…
(((( जीवन ठाकुर ))))
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जीवन ठाकुर बड़े धर्मात्मा व्यक्ति थे। पर उनका सारा जीवन दरिद्रता से जूझते बीता था।
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अब वृद्धावस्था में उससे जूझते नहीं बन रहा था। हारकर एक दिन उन्होंने विश्वनाथ बाबा से प्रार्थना की-
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बाबा, अब कृपा करो। दारूण दरिद्रता के थपेड़े झेलने में मैं अब बिलकुल असमर्थ हूँ। ऐसी कृपा करो जिससे दरिद्रता का मुख मुझे और न देखना पड़े।
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विश्वनाथ बाबा ने प्रार्थना सुन ली। स्वप्न में आदेश दिया- तू व्रज जाकर सनातन गोस्वामी की शरण ले। उनकी कृपा से तेरा सब दु:ख दूर हो जायगा।
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जीवन ठाकुर ने व्रज जाकर सनातन गोस्वामी से अपना रोना रोया। सनातन गोस्वामी को उनकी सब बात सुनकर बड़ा विस्मय हुआ।
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वे सोचने लगे-मैं स्वयं, डौर-कौपीनधारी कंगाल वैष्णव हूँ। एक कंगाल दूसरे कंगाल की क्या सहायता कर सकता है ?
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फिर विश्वनाथ बाबा ने उसे आश्वासन दे मेरे पास क्यों भेजा ? हठात् उनके स्मृति-पटल पर जाग गयी एक पुरानी घटना।
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एक बार भावमग्न अवस्था में जमुनातट पर टहलते समय उनके पैर से टकरा गया था एक स्पर्शमणि।
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उसे उन्होंने अपने भजन –पथ में विघ्न जान जमुना में फेंक देना चाहा थां पर यह सोचकर कि शायद कभी किसी दरिद्र व्यक्ति के काम आये वहीं एक गुप्त स्थान में रख दिया था।
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जीवन ठाकुर को उस गुप्त स्थान का संकेत करते हुए उन्होंने कहा- तुम जाकर उस मणि को ले लो। तुम्हारा दारिद्रय दूर हो जायगा।
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जीवन ठाकुर वहाँ गये। स्पर्शमणि को प्राप्त कर उनके आनन्द की अवधि न रही। आनन्दाश्रु से नेत्र भर आये। मन तरह-तरह की उड़ाने भरने लगा। वे अब दरिद्र नहीं रहे।
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अब वे स्पर्शमणि के सहारे इतना धन प्राप्त कर लेंगे कि राजा भी उनके ईर्षा करने लग जायेंगे।
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मन ही मन विश्वनाथ बाबा की जय बोलते हुए और सनातन गोस्वामी के प्रति कृतज्ञता अनुभव करते हुए वे आनन्दाम्बुधि में तैरते चले जा रहे थे।
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हठात् एक नयी तरंग उनके मस्तिष्क से जा टकराई। बिजली-की सी एक करेंट ने उनकी चेतना को झकझोर दिया। विस्मय के साथ लगे सोचने-
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जिस धन के लोभ से काशी से पैदल भागता आया हूँ, उसके प्रति सनातन गोस्वामी की ऐसी उदासीनता !
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इतने दिन से उसे एक जगह पटककर ऐसे भूल जाना, जैसे वह कोई वस्तु ही नहीं।
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जिस रत्न का लोभ राजाओं तक को उन्मत्त कर दे, उसका उनके द्वारा ऐसा तिरस्कार !
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निश्चय ही वे किसी ऐसे धन के धनी हैं, जिसकी तुलना में यह राजवाञ्छित रत्न इतना तुच्छ है। तभी तो वे इतना वैभव और राज-सम्मान त्याग कर करूआ-कंथाधारी त्यागी बाबाजी बने हैं।
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और एक मैं हूँ, जो उस तुच्छ वस्तु को प्राप्त कर अपने को धन्य मान रहा हूँ।
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जिस वैषयिक जीवन को त्यागकर वे इस प्रकार आप्तकाम और आनन्दमग्न हैं, उसी में मैं एक विषयकीट के समान और अधिक लिप्त होता जा रहा हूँ। धिक्कार है मुझे और मेरी विषयलिप्सा को।
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मैंने जब विश्वनाथ बाबा की कृपा से ऐसे महापुरुष का सान्निध्य नाभ किया है, तो क्यों न उनसे उस परमधन को प्राप्तकर अपना जीवन सार्थक करूँ, जिसे प्राप्त कर वे इतना सुखी हैं ?
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सनातन गोस्वामी के क्षणभर के संग से जीवन ठाकुर के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ।
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वह अमूल्य रत्न, जो अभी थोड़ी देर पहले उनके मृतदेह में नयी जान डालता लग रहा था, अब उन्हें साँप-बिच्छू की तरह काटने लगा।
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उसे जमुना में फेंक उन्होंने उस यंत्रणा से अपने को मुक्त किया। फिर तुरन्त सनातन गोस्वामी के पास जाकर उनके प्रति आत्म-समर्पण करते हुए आर्त स्वर से प्रार्थना की-
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प्रभु, आपकी अहैतुकी कृपा से मेरा मोहाधंकार जाता रहा। अब आप मुझे लौकिक धन के बजाय उस अलौकिक धन का धनी बनने की कृपा करें, जिसके आप स्वयं धनी हैं।
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मैं आज से आपके चरणों में पूर्णरूप से समर्पित हूँ।
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सनातन गोस्वामी से दीक्षा लेकर जीवन ठाकुर ने आरम्भ किया अपने जीवन का एक नया अध्याय और उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर चलकर प्राप्त किया वह अलौकिक धन।
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इन्हीं जीवन ठाकुर के वंशज हुए हैं काठ-मागुण के प्रसिद्ध गोस्वामी परिवार के गोस्वामीगण।
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प्रवाद है कि जीवन ठाकुर ने जब स्पर्शमणि जमुना में फेंक दिया, तो दिल्ली के बादशाह को इसका पता चला।
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उसने अपने आदमियों को भेजा उसकी खोज करने। उन्होंने हाथियों को जमुना में उतारकर उसकी खोज आरम्भ की।
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मणि तो उन्हें मिला नहीं। पर दैवयोग से एक हाथी के पैर की जंजीर मणि से टकराकर सोने की हो गयी।

संजय गुप्ता

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भगवान विष्णु के कूर्म अवतार की कथा,,,,

समुद्रमंथन हिन्दू पुराणों का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है जिसे भगवतपुराण ,महाभारत और विष्णु पुराण में बताया गया है कि किस तरह समुद्र मंथन से अमृत निकलता है और देवताओ की असुरो पर जीत होती है | आइये आपको समुद्र मंथन और भगवान विष्णु के कुर्म अवतार की कथा बतातेहैं!!!!!

सतयुग की बात है एक दिन देवो के राजा इंद्र अपने हाथी एरावत पर सवारी कर रहे थे | उनको मार्ग में ऋषि दुर्वासा मिले जिन्होंने इंद्र को भगवान शिव की दी हुयी एक विशेष माला पहनाने का प्रस्ताव दिया | इंद्र के स्वयं को अहंकारी देवता की बात को गलत बताने के लिए , प्रस्ताव स्वीकार करते हुए माला को अपने हाथी की सूंड को पहना दी।

हाथी ने ये सोचकर माला को जमीन पर गिरा दी कि इंद्र को अपने अहंकार पर काबू नही रहा | ये देखकर ऋषि क्रोधित हो गये क्योंकि वो माला अच्छे भविष्य के लिए प्रसाद के रूप में उन्होंने दी थी | क्रोधित दुर्वासा ने इंद्र और सभी देवो को सभी शक्तियो बल और भाग्य को खो देने का श्राप दे दिया।

इस घटना के बाद असुरो के साथ हुए युद्ध में उनकी पराजय हो गयी और सारे संसार का नियन्त्रण असुर राजा बाली के पास आ गया | सभी देव घबराए हुए भगवान विष्णु से मदद मांगने गये | भगवान विष्णु ने सभी देवो को सलाह दी “अगर तुमको फिर से उनको अपना शोर्य पाना है तो अमृत पीना होगा जिसके लिए तुम्हे समुद्रमंथन करना होगा | समुद्र की विशालता को देखते हुए तुम्हे मंदराचल पर्वत को मंथन का आधार बनाना होगा और नाग देवता वासुकी को मंथन की रस्सी बनानी होगी।

तुम उस समुद्रमंथन के लिए इतने शक्तिशाली नही हो और तुमको असुरो से शान्ति समझौता कर उनसे सहायता मांगकर उनको विश्वास दिलाना पड़ेगा कि समुद्रमंथन से निकलने वाले अमृत का बराबर विभाजन किया जाएगा ओर मै तुमको विश्वास दिलाता हु कि अमृत केवल देवो को ही मिलेगा” |

समुद्रमंथन एक जटिल प्रक्रिया थी क्योंकि नागो के देवता वासुकी को मंथन की रस्सी बनाकर और मंदराचल पर्वत को आधार बनाकर इस कार्य को पूरा करना था | भगवान विष्णु की सलाह पर देवो ने नाग देवता के सिर को असुरो की तरफ और पूछ को देवो की तरफ रखने की बात हुयी।

फलस्वरूप वासुकी के विष की वजह से असुर विषाक्त हो गये | इसके बावजूद देवता और असुर फिर से नाग देवता के शरीर को आगे और पीछे खीचने लगे ताकि मन्दराचल पर्वत घूमते हुए समुद्रमंथन कर सके| हालांकि जब मंदराचल पर्वत को समुद्र में उतारा गया तो ये डूबने लग गया था जिसको विष्णु भगवान के दुसरे अवतार कुर्मअवतार में कछुआ बनकर बचाया और पर्वत को अपनी पीठ से सहारा दिया।

समुद्रमंथन के कारण समुद्र से कई वस्तुए निकली जिसमे से एक हलाहल नामक घातक जहर था | ये देखकर देवता और दानव दोनों घबरा गये क्योंकि वो जहर इतना शक्तिशाली था कि सारी सृष्टि को तबाह कर सकता था | देवता रक्षा के लिए भगवान शिव के पास पहुचे और शिव ने सृष्टि को बचाने के लिए जहर पी लिया और उनका गला नीला पड़ गया।

इसी कारण भगवान शिव को नीलकंठ भी कहते है | समुद्र की सारी जड़ी बूटिया और 14 रत्न उस समुद्रमंथन से निकले जिसे देवता और असुरो ने आपस में बाँट लिया |समुद्रमंथन से तीन प्रकार की देविया निकली जिसमे से पहली देवी लक्ष्मी थी जिसे भगवान विष्णु ने अपनी अनंत पत्नी स्वीकार किया | दुसरी रम्भा मेनका जैसी अप्सराये निकले जिसे साथी देवताओ ने चुन लिया | तीसरी कुरूप और तार्किक वरुनी जिसे असुरो को अनिच्छा से स्वीकार करना पड़ा।

जिस तरह देविया निकली उसी तरह तीन प्रकार के अलौकिक पशु उस समुद्रमंथन से निकले | पहला पशु इच्छा पुरी करने वाली कामधेनु गाय , जिसे भगवान विष्णु ने अपनाकर ऋषियों को दे दिया ताकि उसके दूध से बने घी का उपयोग वो यज्ञ में कर सके | दूसरा पशु एरावत और दुसरे हाथी जिसे देवो के राजा इंद्र ने रख लिया | तीसरा पशु दिव्य साथ मुख वाला अश्व उच्चैश्रवस् जिसे असुरो ने रख लिया।

इसके बाद तीन कीमती रत्न निकले जिसमे से कौस्तुभ ,विश्ब का सबसे कीमती आभुष्ण जिसे भगवान विष्णु ने धारण कर लिया | दूसरा दिव्य फूल के पेड़ परिजात जिसे इंद्र अपने देवलोक लेकर गये | तीसरा एक शक्तिशाली धनुष शारंग जो जुझारू राक्षसों का प्रतीक था | इसके अलावा समुद्र मंथन से निकलने वाले चन्द्र , हलाहल ,शंक ,छाता कल्पवृक्ष और निद्रा थे।

अंत में स्वर्ग की चिकित्सक धन्वन्तरी देवी अमृत का घड़ा लेकर समुद्रमंथन से निकले | देवता और असुरो के बीच अमृत को लेने के लिए भीषण लड़ाई शुर हो गयी | अमृत को असुरो से बचाने के लिए गरुड़देव उस घड़े को लेकर युद्धस्थल से उड़ गये | देवताओ ने भगवान विष्णु से अमृत पाने के लिए प्रार्थना की तो भगवान विष्णु ने एक करामाती युवती का मोहिनी रूप लिया | मोहिनी ने असुरो का ध्यान भंग कर अमृत को असुरो से छीन लिया और देवो को बाँट दिया जिसे उन्होंने पी लिया।

असुर राहुकेतु ने देवो के भेष में उस अमृत को जैसे ही पीना चाहा , सूर्यदेवता और चन्द्रदेव ने ये बात मोहिनी को सूचित की और उस अमृत के असुर के गले से गुजरने से पहले विष्णु रूप मोहिनी ने सुदर्शन चक्र से उसका गला काट दिया |लेकिन अमृत उसके गले से गुजर जाने के कारण उसकी मृत्यु नही हुयी | उस दिन से उसके सिर को राहू और शरीर को केतु कहते है |बाद में राहू और केतु ग्रह बन गये ।अंत में असुरो को हराकर देवताओ ने फिर से देवलोक पर अपना राज शुर कर दिया।

हिन्दू धर्मशास्त्र में इस कथा को ओर आगे बढ़ाते हुए बताया कि जब देव अमृत को लेकर असुरो से भाग रहे थे तो उसकी कुछ बुँदे धरती के चार स्थानों पर गिर गयी | वो चार स्थान जहा पर अमृत गिरा उनका नाम हरिद्वार , प्रयाग , नासिक और उज्जैन है | कथाओ के अनुसार इन चार स्थानों पर रहस्यमय शक्ति और आध्यात्मिकता अर्जित हुयी | इन्ही चार स्थानों में से प्रत्येक स्थान पर हर 12 वर्ष में कुम्भ मेले का आयोजन होता हो | लोगो का मानना है कि कुम्भ मेले में नहाने से मोक्ष की प्राप्ति होती हो।

संजय गुप्ता

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गज और ग्राह की कथा….. इंद्रद्युम्नकेगजबननेकी_कथा:

अति प्राचीन काल की बात है। द्रविड़ देश में एक पाण्ड्यवंशी राजा राज्य करते थे। उनका नाम था इंद्रद्युम्न। वे भगवान की आराधना में ही अपना अधिक समय व्यतीत करते थे। यद्यपि उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति थी। प्रजा प्रत्येक रीति से संतुष्ट थी तथापि राजा इंद्रद्युम्न अपना समय राजकार्य में कम ही दे पाते थे। वे कहते थे कि भगवान विष्णु ही मेरे राज्य की व्यवस्था करते है। अतः वे अपने इष्ट परम प्रभु की उपासना में ही दत्तचित्त रहते थे।

राजा इंद्रद्युम्न के मन में आराध्य-आराधना की लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। इस कारण वे राज्य को त्याग कर मलय-पर्वत पर रहने लगे। उनका वेश तपस्वियों जैसा था। सिर के बाल बढ़कर जटा के रूप में हो गए थे। वे निरंतर परमब्रह्म परमात्मा की आराधना में तल्लीन रहते। उनके मन और प्राण भी श्री हरि के चरण-कमलों में मधुकर बने रहते। इसके अतिरिक्त उन्हें जगत की कोई वस्तु नहीं सुहाती। उन्हें राज्य, कोष, प्रजा तथा पत्नी आदि किसी प्राणी या पदार्थ की स्मृति ही नहीं होती थी।

एक बार की बात है, राजा इन्द्रद्युम्न प्रतिदिन की भांति स्नानादि से निवृत होकर सर्वसमर्थ प्रभु की उपासना में तल्लीन थे। उन्हें बाह्य जगत का तनिक भी ध्यान नहीं था। संयोग वश उसी समय महर्षि अगस्त्य अपने समस्त शिष्यों के साथ वहां पहुँच गए। लेकिन न पाद्ध, न अघ्र्य और न स्वागत। मौनव्रती राजा इंद्रद्युम्न परम प्रभु के ध्यान में निमग्न थे। इससे महर्षि अगस्त्य कुपित हो गए। उन्होंने इंद्रद्युम्न को शाप दे दिया- “इस राजा ने गुरुजनो से शिक्षा नहीं ग्रहण की है और अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणों का अपमान करने वाला यह राजा हाथी के समान जड़बुद्धि है इसलिए इसे घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो।”

महर्षि अगत्स्य भगवदभक्त इंद्रद्युम्न को यह शाप देकर चले गए। राजा इन्द्रद्युम्न ने इसे श्री भगवान का मंगलमय विधान समझकर प्रभु के चरणों में सिर रख दिया।

#गंधर्वकेग्राहबननेकी_कथा:
ग्राह पूर्व जन्म में हू हू नाम का एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। एक बार देवल ऋषि जब पानी में खड़े होकर तपस्या कर रहे थे, गंधर्व को शरारत सूझी। उसने ग्राह रूप धरा और जल में कौतुक करते हुए ऋषि के पैर पकड़ लिए। क्रोधित ऋषि ने उसे शाप दिया कि तुम मगरमच्छ की तरह इस पानी में पड़े रहो। देवल ऋषि के शाप से उसे ग्राह की गति प्राप्त हुई ।

#कथा:

क्षीराब्धि में दस सहस्त्र योजन लम्बा, चौड़ा और ऊंचा त्रिकुट नामक पर्वत था। वह पर्वत अत्यंत सुन्दर एवं श्रेष्ठ था। उस पर्वतराज त्रिकुट की तराई में ऋतुमान नामक भगवान वरुण का क्रीड़ा-कानन था। उसके चारों ओर दिव्य वृक्ष सुशोभित थे। वे वृक्ष सदा पुष्पों और फूलों से लदे रहते थे। उसी क्रीड़ा-कानन ऋतुमान के समीप पर्वतश्रेष्ठ त्रिकुट के गहन वन में अपनी असंख्य पत्नियों के साथ के साथ अत्यंत शक्तिशाली और अमित पराक्रमी गजेन्द्र हाथी रहता था।

एक बार गजेंद्र अपनी पत्नियों के साथ प्यास बुझाने के लिए एक तालाब पर पहुंचा। प्यास बुझाने के बाद गजेंद्र की जल-क्रीड़ा करने की इच्छा हुई। वह पत्नियों के साथ तालाब में क्रीडा करने लगा।

गजेन्द्र ने उस सरोवर के निर्मल, शीतल और मीठे जल में प्रवेश किया। पहले तो उसने जल पीकर अपनी तृषा बुझाई, फिर जल में स्नान कर अपना श्रम दूर किया। तत्पश्चात उसने जलक्रीड़ा आरम्भ कर दी। वह अपनी सूंड में जल भरकर उसकी फुहारों से हथिनियों को स्नान कराने लगा। तभी अचानक गजेन्द्र ने सूंड उठाकर चीत्कार की। पता नहीं किधर से एक मगर ने आकर उसका पैर पकड़ लिया था। गजेन्द्र ने अपना पैर छुड़ाने के लिए पूरी शक्ति लगाई परन्तु उसका वश नहीं चला, पैर नहीं छूटा। अपने स्वामी गजेन्द्र को ग्राहग्रस्त देखकर हथिनियां, कलभ और अन्य गज अत्यंत व्याकुल हो गए। वे सूंड उठाकर चिंघाड़ने और गजेन्द्र को बचाने के लिए सरोवर के भीतर-बाहर दौड़ने लगे। उन्होंने पूरी चेष्टा की लेकिन सफल नहीं हुए।

वस्तुतः महर्षि अगत्स्य के शाप से राजा इंद्रद्युम्न ही गजेन्द्र हो गए थे और गन्धर्वश्रेष्ठ हूहू महर्षि देवल के शाप से ग्राह हो गए थे। वे भी अत्यंत पराक्रमी थे। संघर्ष चलता रहा। गजेन्द्र स्वयं को बाहर खींचता और ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींचता। सरोवर का निर्मल जल गंदला हो गया था। कमल-दल क्षत-विक्षत हो गए। जल-जंतु व्याकुल हो उठे। गजेन्द्र और ग्राह का संघर्ष एक सहस्त्र वर्ष तक चलता रहा। दोनों जीवित रहे। यह द्रश्य देखकर देवगण चकित हो गए।

ग्राह गजेंद्र का खून चूसकर बलवान होता गया जबकि गजेंद्र के शरीर पर मात्र कंकाल शेष था। गजेंद्र दुखी होकर सोचने लगा- मैं अपनी प्यास बुझाने यहां आया था। प्यास बुझाकर मुझे चले जाना चाहिए था। मैं क्यों इस तालाब में उतर पड़ा? मुझे कौन बचायेगा?

उसे अपनी मृत्यु दिख रही थी। फिर भी मन के किसी कोने में यह विश्वास था कि उसने इतना लंबा संघर्ष किया है, उसकी जान बच सकती है। उसे ईश्वर का स्मरण हुआ तो नारायण की स्तुति कर उन्हें पुकारने लगा।

सारा संसार जिनमें समाया हुआ है, जिनके प्रभाव से संसार का अस्तित्व है, जो इसमें व्याप्त होकर इसके रूपों में प्रकट होते हैं, मैं उन्हीं नारायण की शरण लेता हूँ। हे नारायण मुझ शरणागत की रक्षा करिए।

विविधि लीलाओं के कारण देवों, ऋषियों के लिए अगम्य अगोचर बने जिन श्रीहरि की महिमा वर्णन से परे है। मैं उस दयालु नारायण से प्राण रक्षा की गुहार लगाता हूँ।

नारायण के स्मरण से गजेंद्र की पीड़ा कुछ कम हुई। प्रभु के शरणागत को कष्ट देने वाले ग्राह के जबड़ों में भयंकर दर्द शुरू हुआ फिर भी वह क्रोध में जोर से उसके पैर चबाने लगा। छटपटाते गजेंद्र ने स्मरण किया- मुझ जैसे घमण्डी जब तक संकट में नहीं फंसते, तब तक आपको याद नहीं करते। यदि दुख न हो तो हमें आपकी ज़रूरत का बोध नहीं होता।

आप जब तक प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते, तब तक प्राणी आपका अस्तित्व तक नहीं मानता लेकिन कष्ट में आपकी शरण में पहुंच जाता है। जीवों की पीड़ा को हरने वाले देव आप सृष्टि के मूलभूत कारण हैं।

गजेंद्र ने श्रीहरि की स्तुति जारी रखी- मेरी प्राण शक्ति जवाब दे चुकी है। आंसू सूख गए हैं। मैं ऊंचे स्वर में पुकार भी नहीं सकता। आप चाहें तो मेरी रक्षा करें या मेरे हाल पर छोड़ दें।

सब आपकी दया पर निर्भर है। आपके ध्यान के सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं। मुझे बचाने वाला भी आपके सिवाय कोई नहीं है। यदि मृत्यु भी हुई तो आपका स्मरण करते मरूंगा।

पीड़ा से तड़पता गजेंद्र सूंड उठाकर आसमान की ओर देखने लगा। मगरमच्छ को लगा कि उसकी शक्ति जवाब देती जा रही है। उसका मुंह खुलता जा रहा है।

भक्त की करूणाभरी पुकार सुनकर नारायण आ पहुंचे। गजेंद्र ने उस अवस्था में भी तालाब का कमलपुष्प और जल प्रभु के चरणों में अर्पण किया। प्रभु भक्त की रक्षा को कूद पड़े।

उन्होंने ग्राह के जबड़े से गजेंद्र का पैर निकाला और चक्र से ग्राह का मुख चीर दिया। ग्राह तुरंत एक गंधर्व में बदल गया। दरअसल वह ग्राह हुहू नामक एक गंधर्व था। भगवान विष्णु के मंगलमय वरद हस्त के स्पर्श से पाप मुक्त होकर अभिशप्त हूहू गन्धर्व ने प्रभु की परिक्रमा की और उनके त्रेलोक्य वन्दित चरण-कमलों में प्रणाम कर अपने लोक चला गया।

श्रीहरि के दर्शन से गजेंद्र भी अपनी खोई हुई ताक़त और पूर्व जन्म का ज्ञान भी प्राप्त कर सका। गजेंद्र पिछले जन्म में इंद्रद्युम्न नामक एक विष्णुभक्त राजा थे।

श्रीहरि की कृपा से गजेंद्र शापमुक्त हुआ। नारायण ने उसे अपना सेवक पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध और देवगण उनकी लीला का गान करने लगे। गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने सबके समक्ष कहा- “प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान करूँगा।”

यह कहकर भगवान विष्णु ने पार्षद रूप में गजेन्द्र को साथ लिया और गरुडारुड़ होकर अपने दिव्य धाम को चले गए।

संजय गुप्ता

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थाईलैंड की एक होटल कंपनी के मालिक ने अपने ग्राहकों से एक शर्त रखी मगरमच्छों से भरे तालाब में जो आदमी मगरमच्छों से बचकर बाहर निकल जाएगा उसको 5 करोड रुपए इनाम के तौर पर दिया जाएगा
और अगर उस आदमी को मगरमच्छ ने खा लिया तो उसके परिवार को दो करोड रुपया दिया जाएगा
यह सुनकर सभी लोग भयभीत हो गए किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह तालाब में कूद सके तभी एक जोरदार आवाज आती है…
लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया यह क्या किसी आदमी ने तालाब में छलांग लगा दी है लोगों की सांसे थम गई और सभी लोग उस आदमी की तरफ देखने लगे
वह आदमी पूरी तरह से तालाब में जद्दोजहद कर रहा था बिजली की फुर्ती से वह पानी को चीर कर आगे बढ़ रहा था सभी लोग उसको बहुत ध्यान से देख रहे थे
अब यह आदमी मगरमच्छ का निवाला बनेगा
वह देखो मगरमच्छ उस आदमी के पीछे। मगर उस आदमी ने हिम्मत नहीं हारी। वह पूरी तरह जद्दोजहद कर रहा था बाहर निकलने की। तभी वह आदमी पानी को चीरता हुआ दूसरे किनारे से बाहर निकल जाता है उस आदमी को पूरी तरह सांस भी नहीं आ रही थी। सभी लोग भाग कर उसकी तरफ गए लोगों ने ताली बजाना शुरू कर दिया जब उस आदमी को थोड़ा होश आया और उसे पता चल गया कि वह करोड़पति बन गया है उसके मुंह से पहली आवाज निकली।

पहले यह बताओ मुझे धक्का किसने दिया तलाब में भीड़ में एक औरत ने हाथ खड़ा किया वह औरत उस आदमी की बीवी थी उसने कहा तुम काम के तो हो नहीं अगर बच गए तो 5 करोड़ यदि मर भी जाते तो दो करोड़ फायदा तो हमें ही था।
तब से यह कहावत बन गई एक कामयाब व्यक्ति के पीछे एक औरत का हाथ होता है 😂😂😂

बोलो बंसी वाले कन्हैया लाल की जय ❣