Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक बड़ी प्राचीन तिब्बती कहानी है।
एक आदमी लंबी यात्रा से लौटा है।
वह अपने मित्र के घर ठहरा और उसने मित्र से यात्रा की चर्चा करते हुए कहा कि एक बहुत अनूठी चीज मेरे हाथ लग गई है।
और मैंने सोचा था कि जब मैं लौटूंगा तो अपने मित्र को दे दूंगा, लेकिन अब मैं डरता हूं, तुम्हें दूं या न दूं। डरता भी हूँ कि जो भी मैंने उसके परिणाम देखे वे बड़े खतरनाक हैं।

मुझे एक ऐसा ताबीज मिल गया है कि तुम उससे तीन आकांक्षायें मांग लो, वे पूरी हो जाती हैं और मैंने तीन खुद भी मांग कर देख लीं। वे पूरी हो गई हैं और अब मैं पछताता हूं कि मैंने क्यों मांगीं? मेरे और मित्रों ने भी मांग कर देख लिए हैं, सब छाती पीट रहे हैं, सिर ठोक रहे हैं। सोचा रहा था तुम्हें दूंगा, लेकिन अब मैं डरता हूँ की दूँ या न दूँ।

मित्र तो दीवाना हो गया। उसने कहा, ‘तुम यह क्या कहते हो; न दूं? कहां है ताबीज? अब हम ज्यादा देर रुक नहीं सकते।
क्योंकि कल का क्या भरोसा?’
पत्नी तो बिलकुल पीछे पड़ गई उसके कि निकालो ताबीज।
उसने कहा कि ‘भई, मुझे सोच लेने दो।
क्योंकि जो परिणाम, सब बुरे हुए।’ उसके मित्र ने कहा, ‘तुमने ढंग से न माँगा होगा।
गलत मांग लिया होगा।’ हर आदमी यही सोचता है कि दूसरा गलत मांग रहा है, इसलिए मुश्किल में पड़ा। मैं बिलकुल ठीक मांग लूंगा। लेकिन कोई भी नहीं जानता कि जब तक तुम ठीक नहीं हो, तुम ठीक मांगोगे कैसे? मांग तो तुमसे पैदा होगी।
मित्र नहीं माना और नहीं मानी उसकी पत्नी।
उन्होंने बहुत आग्रह किया तो ताबीज देकर मित्र उदास चला गया।

सुबह तक सब्र रखना मुश्किल था। दोनों ने सोचा, क्या मांगें? बहुत दिन से एक आकांक्षा थी कि घर में कम से कम एक लाख रुपया तो हो। तो पहला लखपति हो जाने की आकांक्षा थी और लखपति बनना तिब्बत में बहुत बड़ी बात है। तो उन्होंने कहा, वह पहली आकांक्षा तो पूरी कर ही लें, फिर सोचेंगे।

पहली आकांक्षा मांगी कि लाख रुपया।
जैसे ही कोई आकांक्षा मांगोगे, ताबीज हाथ से गिरता था झटक कर। उसका मतलब था कि मांग स्वीकार हो गई। बस, पंद्रह मिनट बाद दरवाजे पर दस्तक पड़ी। खबर आई कि लड़का जो राजा की सेना में था, वह मारा गया और राजा ने लाख रुपये का पुरस्कार दिया है।

पत्नी तो छाती पीट कर रोने लगी कि यह क्या हुआ? उसने कहा कि दूसरी आकांक्षा इसी वक्त मांगो कि मेरा लड़का जिंदा किया जाए। बाप थोड़ा डरा। उसने कहा कि यह अभी जो पहली का फल हुआ…पर पत्नी एकदम पीछे पड़ी थी कि देर मत करो
कहीं वे दफना न दें, कहीं लाश सड़-गल न जाए, जल्दी मांगो।

तो दूसरी आकांक्षा मांगी कि हमारा लड़का वापिस लौटा दिया जाए। ताबीज गिरा।
पंद्रह मिनट बाद दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। लड़के के पैर की आहट थी। उसने जोर से कहा, ‘पिताजी।’ आवाज भी सुनाई पड़ी, पर दोनों बहुत डर गये। इतने जल्दी लड़का आ गया? बाप ने बाहर झांक कर देखा, वहां कोई दिखाई नहीं पड़ा। खिड़की में से देखा, वहां भी कोई दिखाई नहीं पड़ा, कोई चलता-फिरता मालूम होता है। लड़का प्रेत होकर वापिस आ गया। क्योंकि शरीर तो दफना दिया जा चुका था। पत्नी और पति दोनों घबरा गए कि अब क्या करें? दरवाजा खोलें कि नहीं? क्योंकि तुमने भले ही अपने लड़के को प्रेम किया हो लेकिन अगर वह प्रेत होकर आ जाए तो आपकी हिम्मत पस्त हो जायेगी।

बाप ने कहा, ‘रुक अभी एक आकांक्षा और मांगने को बाकी है।’ और उसने ताबीज से कहा, ‘कृपा कर और इस लड़के से छुटकारा दिलाओ नहीं तो अब यह जिंदगी भर सताएगा। यह प्रेत यहाँ रह गया घर में…इससे छुटकारा करवा दे।’ और पति आधी रात गया ताबीज देने अपने मित्र को वापिस। कहा कि ‘इसे तुम कहीं फेंक ही दो। अब किसी को भूल कर भी मत देना।’

हम सभी की पूरी जिंदगी की कथा इस ताबीज की कथा में छिपी है। जो हम मांगते हैं वह मिल जाता है। नहीं मिलता तो हम परेशान होते हैं। मिल जाता है फिर भी हम परेशान होते हैं। गरीब दुखी दिखता है, अमीर और भी दुखी दिखता है। जिसकी शादी नहीं हुई वह परेशान है, जिसकी शादी हो गई है वह भी छाती पीट रहा है, सिर ठोक रहा है।
जिसको बच्चे नहीं हैं वह घूम रहा है साधु-संतों के सत्संग में कि कहीं बच्चा मिल जाए और जिनको बच्चे हैं, वे कहते हैं कैसे इनसे छुटकारा होगा? यह क्या उपद्रव हो गया!!

हमारे पास कुछ है तो हम रो रहे हैं! हमारे पास कुछ नहीं है तो भी हम रो रहे हैं। मौलिक कारण यह है कि हम गलत हैं। इसलिए हम जो भी चाहते हैं, वह गलत ही चाहते हैं।

        ।।नमो नारायण।।

संजय गुप्ता

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भगवान कृष्ण की (16108 ).स्त्रियों से विवाह.
कहते हैं कि भगवान कृष्ण की 16,108 पत्नियां थीं। क्या यह सही है? इस संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं और लोगों में इसको लेकर जिज्ञासा भी है। आइए, जानते हैं कि कृष्ण की 16,108 पत्नियां होने के पीछे राज क्या है।
महाभारत अनुसार कृष्ण ने रुक्मणि का हरण कर उनसे विवाह किया था। विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मणि भगवान कृष्ण से प्रेम करती थी और उनसे विवाह करना चाहती थी। रुक्मणि के पांच भाई थे- रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेस तथा रुक्ममाली। रुक्मणि सर्वगुण संपन्न तथा अति सुन्दरी थी। उसके माता-पिता उसका विवाह कृष्ण के साथ करना चाहते थे किंतु रुक्म चाहता था कि उसकी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल के साथ हो। यह कारण था कि कृष्ण को रुक्मणि का हरण कर उनसे विवाह करना पड़ा।
पांडवों के लाक्षागृह से कुशलतापूर्वक बच निकलने पर सात्यिकी आदि यदुवंशियों को साथ लेकर श्रीकृष्ण पांडवों से मिलने के लिए इंद्रप्रस्थ गए। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और कुंती ने उनका आतिथ्य पूजन किया।
इस प्रवास के दौरान एक दिन अर्जुन को साथ लेकर भगवान कृष्ण वन विहार के लिए निकले। जिस वन में वे विहार कर रहे थे वहां पर सूर्य पुत्री कालिन्दी, श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने की कामना से तप कर रही थी। कालिन्दी की मनोकामना पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण ने उसके साथ विवाह कर लिया।
फिर वे एक दिन उज्जयिनी की राजकुमारी मित्रबिन्दा को स्वयंवर से वर लाए। उसके बाद कौशल के राजा नग्नजित के सात बैलों को एकसाथ नाथ कर उनकी कन्या सत्या से पाणिग्रहण किया। तत्पश्चात उनका कैकेय की राजकुमारी भद्रा से विवाह हुआ। भद्रदेश की राजकुमारी लक्ष्मणा भी कृष्ण को चाहती थी, लेकिन परिवार कृष्ण से विवाह के लिए राजी नहीं था तब लक्ष्मणा को श्रीकृष्ण अकेले ही हरकर ले आए।
इस तरह कृष्ण की आठों पत्नियां थी रुक्मणि, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा।
इसके बाद कैसे और क्यों किया कृष्ण ने 16,100 स्त्रियों से विवाह…
कृष्ण अपनी आठों पत्नियों के साथ सुखपूर्वक द्वारिका में रह रहे थे। एक दिन स्वर्गलोक के राजा देवराज इंद्र ने आकर उनसे प्रार्थना की, ‘हे कृष्ण! प्रागज्योतिषपुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। क्रूर भौमासुर ने वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीन ली है और वह त्रिलोक विजयी हो गया है।
इंद्र ने कहा, भौमासुर ने पृथ्वी के कई राजाओं और आमजनों की अति सुन्दरी कन्याओं का हरण कर उन्हें अपने यहां बंदीगृह में डाल रखा है। कृपया आप हमें बचाइए प्रभु।
इंद्र की प्रार्थना स्वीकार कर के श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को साथ लेकर गरुड़ पर सवार हो प्रागज्योतिषपुर पहुंचे। वहां पहुंचकर भगवान कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से सबसे पहले मुर दैत्य सहित मुर के छः पुत्र- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण का संहार किया।
मुर दैत्य के वध हो जाने का समाचार सुन भौमासुर अपने अनेक सेनापतियों और दैत्यों की सेना को साथ लेकर युद्ध के लिए निकला। भौमासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया और घोर युद्ध के बाद अंत में कृष्ण ने सत्यभामा की सहायता से उसका वध कर डाला।
इस प्रकार भौमासुर को मारकर श्रीकृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर उसे प्रागज्योतिष का राजा बनाया। भौमासुर के द्वारा हरण कर लाई गईं 16,100कन्याओं को श्रीकृष्ण ने मुक्त कर दिया।
ये सभी अपहृत नारियां थीं या फिर भय के कारण उपहार में दी गई थीं और किसी और माध्यम से उस कारागार में लाई गई थीं। वे सभी भौमासुर के द्वारा पीड़ित थीं, दुखी थीं, अपमानित, लांछित और कलंकित थीं।
सामाजिक मान्यताओं के चलते भौमासुर द्वारा बंधक बनकर रखी गई इन नारियों को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं था, तब अंत में श्रीकृष्ण ने सभी को आश्रय दिया और उन सभी कन्याओं ने श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। उन सभी को श्रीकृष्ण अपने साथ द्वारिकापुरी ले आए। वहां वे सभी कन्याएं स्वतंत्रपूर्वक अपनी इच्छानुसार सम्मानपूर्वक रहती थीं।
कौन था भौमासुर जिसे नरकासुर भी कहा जाता था…
भागवत पुराण में बताया गया है कि भौमासुर भूमि माता का पुत्र था। विष्णु ने वराह अवतार धारण कर भूमि देवी को समुद्र से निकाला था। इसके बाद भूमि देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया। पिता एक दैवीशक्ति और माता पुण्यात्मा होने पर भी पर भौमासुर क्रूर निकला। वह पशुओं से भी ज्यादा क्रूर और अधमी था। उसकी करतूतों के कारण ही उसे नरकासुर कहा जाने लगा।
नरकासुर प्रागज्योतिषपुर का दैत्यराज था जिसने इंद्र को हराकर इंद्र को उसकी नगरी से बाहर निकाल दिया था। नरकासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे थे। वह वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीनकर त्रिलोक विजयी हो गया था। वह पृथ्वी की हजारों सुन्दर कन्याओं का अपहरण कर उनको बंदी बनाकर उनका शोषण करता था।
नरकासुर अपने मित्र मुर और मुर दैत्य के छः पुत्र- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण के साथ रहता था। भगवान कृष्ण ने सभी का वध करने के बाद नरकासुर का वध किया और उसके एक पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर उसका राजतिलक किया।
श्रीकृष्ण ने कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध कर किया था। इसी दिन की याद में दीपावली के ठीक एक दिन पूर्व नरक चतुर्दशी मनाई जाने लगी। मान्यता है कि नरकासुर की मृत्यु होने से उस दिन शुभ आत्माओं को मुक्ति मिली थी।
नरक चौदस के दिन प्रातःकाल में सूर्योदय से पूर्व उबटन लगाकर नीम, चिचड़ी जैसे कड़ुवे पत्ते डाले गए जल से स्नान का अत्यधिक महत्व है। इस दिन सूर्यास्त के पश्चात लोग अपने घरों के दरवाजों पर चौदह दीये जलाकर दक्षिण दिशा में उनका मुख करके रखते हैं तथा पूजा-पाठ करते हैं।

संजय गुप्ता

Posted in रामायण - Ramayan

मित्रो बहुत आनन्दमय् प्रसंग है, जब माता जानकीजी के साथ प्रभु चौदह वर्ष के लिये वनवास को पधार रहे थे।

भगवान् श्री रामजी सीताजी से कहते हैं देवी आप थक गयीं होगी, माँ जानकीजी ने हँसते हुये कहती है भगवन्! मैं तो हर क्षण आपके चरण कमलों को देख रही थी, मुझे मार्ग में चलने से थकान कैसे हो सकती है।

माता जानकीजी प्रभु से कहती है कि भगवन् जिनको बाग में भी मैंने देखा था, पुष्प चुनने में भी पसीना आ रहा था, यह बात उस समय की है जब भगवान् श्री रामजी ऋषि विश्वामित्रजी के साथ सीताजी के स्वयंवर में गये थे तब लक्ष्मणजी के साथ पुष्प वाटिका में पुष्प लेने गये थे, तब सीताजी की प्रभु की पहली भेट वहीं हुई थी, माँ सीताजी कह रहीं है कि मुझे यही चिन्ता लगी थी कि इतने कोमल चरण धरती पर कैसे चलते होंगे?

मोहि मग चलत न होइहिं हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी।।

ये संसार की यात्रा का नियम है, यदि चलते हुए थकान से दूर रहना चाहते हो तो प्रभु चरणों का चिन्तन करते चलो, भक्ति का यही नियम है, साधु जिसका नाम जप कुटिया में बैठकर करता है उसके चरणों का भी दर्शन करता है, उनकी लीलाओं का भी दर्शन करता है, विभीषणविभीषणजी लंका से चले हैं अभी पहुँचे भी नहीं हैं, पूरी लीला ध्यान में आ गयीं।

जिन चरणों ने जनकपुर को दिव्य बनाया, जिन चरणों ने दण्डकवन को पावन किया, जिन चरणों की पादुकाओं की श्री भरतजी सेवा कर रहे हैं, उनका दर्शन करूँगा ऐसे विचार रास्ते में ही आ रहे हैं, जाने की सोचने से ही भगवान के श्री चरणों के दर्शन हो जाते हैं, संसार और भक्ति की यात्रा का मूल अन्तर यही है, संसार की यात्रा में तो शीघ्र पहुँचने का आनन्द है जबकि भक्ति की यात्रा में विलम्ब का आनन्द है, जितनी देर से पहुँचे उतना ही आनन्द है।

मैंने संतों के श्रीमुख से सुना है एक भक्त प्रभु के दर्शन करके लौटा लेकिन थोड़ी देर में पुनः प्रभु की ओर चलने लगा, किसी ने पूछा भाई तुम तो पहुँच कर भी लौट आये? अब क्यों जा रहे हो? उसने कहा भाईजी क्या बतायें मार्ग में ऐसा आनन्द आया है मन करता है कि लोट कर बार-बार चलते रहें, हमारे ग्रन्थों का हम पाठ करते हैं, कोई रामायण का, कोई गीता का, कोई पाँच बार पाठ करता है, कोई ग्यारह बार तो कोई इक्कीस तो कोई एक सौ आठ बार, कोई जीवन भर करते ही रहते है।

मन करता है और करूँ, और करूँ, कहीं जाना होता है तो हम सीधा मार्ग पकड़ते है और मंदिर में परिक्रमा, वहीं घूमते रहते हैं, घूम कर आये फिर दर्शन, साध्य के साथ-साथ साधन का भी अपना आनन्द है इसलिये भक्त लोग भगवान के दर्शन की ज्यादा आकाँक्षा नहीं रखते, बस सुमिरन का आनन्द, उनका नाम लेते रहना, ऐसे ही श्री भरतजी में दैन्यता की पराकाष्ठा है, कैसा दैन्य भाव?

दण्डवत करते जब भाव आता है कि बन गमन मेरे कारण हुआ है तो मन में लौट जाने की इच्छा होती है पर भरतजी जब भगवान् के स्वभाव को याद करते हैं तो पैर आगे पडने लगते हैं, भरतजी को अब एक ही भरोसा आगे बढा रहा है कि भगवान् अपना जानकर त्यागेंगे नहीं, किसी ने पूछा अगर प्रभु तुम्हारा अपमान कर दें तो? बोले इसकी कोई चिन्ता नहीं।

मैं तो रामजी की चरण पादुकाओं की शरण में जा रहा हूँ, चित्रकूट के निकट भरतजी में प्रेम की दिव्य अवस्था का महाभाव पैदा हो गया, आज इस दृश्य को देखकर केवट भी भाव विह्वल हो गया, देखो गजब क्या हो रहा है? मार्ग दिखाने वाला ही मार्ग भूल गया।

सखहिं सनेह बिबस मग मूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला।।

सज्जनों! प्रेम की महादशा देखिये, भरतजी के साथ केवट भी भाव विभोर हो गया, जो केवट मार्ग दर्शन करने चला था वो भी आनन्द में इतना पागल हो गया कि मार्ग भी भूल गया, देवता जय घोष करने लगे और पुष्पवृष्टि करके मार्ग दर्शन कर रहे हैं, देखो भाईयों संसार के पथ में अगर मार्ग भूल जायें तो समझो सर्वनाश लेकिन कोई भक्ति या प्रेम के पथ में भटक जाये तो कल्याण ही हो जाये।

सुतीक्षणजी की कथा आपने श्री हनुमानजी की कथा में पढी होगी, सुतीक्षणजी का यही तो हाल हुआ, सुतीक्षणजी प्रभु से मिलने चले लेकिन मार्ग में विचार करने लगे कि मैंने तो कोई भजन पाठ किया नहीं, मुझे तो कुछ मालूम नहीं क्या मेरे जैसे मूर्ख पर भी प्रभु दया करेंगे? सुतीक्षणजी ने जब अपनी ओर देखा तो एक ही बात उनके ध्यान में आयी।

मैंने कोई भक्ति नहीं की ना मेरे अन्दर कोई विरक्ति है, ना कोई ज्ञान है, मेरे अन्दर तो कोई गुण नहीं है लेकिन अचानक प्रभु के स्वभाव की याद आ गयी, वे सब कुछ भूल कर मार्ग में बैठ गये, इधर भगवान प्रतीक्षा कर रहे हैं कि सुतीक्षणजी आ रहे हैं, लेकिन बहुत देर हो गयी, प्रभु ने लक्ष्मण से कहा लखन! सुतीक्षणजी मिलने आ रहे थे पर आये ही नहीं? भगवान समझ गये कि लगता है भक्त रास्ता भूल गया, इसलिये जब भूल ही गया है तो मुझे ही चलना पडेगा, मैं ही खोजूँगा।

भाई-बहनों! मैं सत्य कहता हूँ भगवान् को खोजने मत जाना, कहाँ खोजोगे भगवान् को? हमको तो कोई अता पता है नहीं, भगवान् की बैठकर प्रतीक्षा करो तो वो ही खोजते-खोजते आपके द्वार पर आकर खडे हो जायेंगे, शबरी कुटिया के बाहर भगवान को खोजने नहीं गयी, शबरी की कुटिया को खोजते-खोजते भगवान् ही स्वयं आ गये, देखो न इधर सुतीक्षणजी प्रभु के ध्यान में लीन हैं।

मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यान जनित सुख पावा।।

बार-बार भगवान जगा रहे हैं, मुनि जागो, मुनि जागो, सुतीक्षणजी ध्यान में डूबे हैं, इसका अर्थ है प्रेम के बन में अगर कोई मार्ग भूल जायें तो खोजने के लिये फिर भगवान को ही आना पड़ता है, इसलिये सज्जनों! भगवान् को ढूंढो मत, भगवान् के नाम और स्मरण में डूब जाओं, भगवान् स्वयं आप तक पहुँच जायेंगे।

संजय गुप्ता

Posted in रामायण - Ramayan

रामचरितमानस के दो पात्र माता सुमित्रा ओर लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला एक विवेचन,,,,,,

मित्रो बात उस समय की है जब भगवान् श्री रामजी वनवास को जा रहे है, तब लक्ष्मणजी भी जाने को तैयार हुए, तब प्रभु रामजी ने लक्ष्मणजी को माता सुमित्राजी से आज्ञा लेने के लिये भेजते है, उस समय माता के भावों को दर्शाने की कोशिश करूँगा, साथ ही उर्मिलाजी जैसे नारी शक्ति के शौर्य के दर्शन भी कराऊँगा, आप सभी इस पोस्ट को ध्यान से पूरा पढ़े, और भारतीय नारी शक्ति की महानता के दर्शन करें।

लक्ष्मणजी माँ से वनवास में भगवान् के साथ जाने की आज्ञा मांगते है तब माता सुमीत्राजी ने कहा, लखन बेटा! मैं तो तेरी धरोहर की माँ हूँ, केवल गर्भ धारण करने के लिये भगवान् ने मुझे माँ के लिये निमित्त बनाया है, “तात तुम्हारी मातु बैदेही, पिता राम सब भाँति सनेही” सुमित्राजी ने असली माँ का दर्शन करा दिया।

अयोध्या कहाँ हैं? अयोध्या वहाँ है जहाँ रामजी है, और सुनो लखन “जौं पै सीय राम बन जाहीं अवध तुम्हार काज कछु नाहीं” अयोध्या में तुम्हारा कोई काम नहीं है, तुम्हारा जन्म ही रामजी की सेवा के लिये हुआ है और शायद तुमको यह भ्रम होगा कि भगवान् माँ कैकयी के कारण से वन को जा रहे हैं, इस भूल में मत रहना, लक्ष्मणजी ने पूछा फिर जा क्यो रहे हैं, माँ क्या बोली?

तुम्हरेहिं भाग राम बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं ।।

दूसरा कोई कारण नहीं है, आश्चर्य से लक्ष्मणजी ने कहा, माँ मेरे कारण क्यो वन जा रहे हैं? माँ ने कहा, तू जानता नहीं है अपने को, मैं तुझे जानतीं हूँ, तू शेषनाग का अवतार है, धरती तेरे शीश पर है और धरती पर पाप का भार इतना बढ गया है कि तू उसे सम्भाल नहीं पा रहा है, इसलिये राम तेरे सर के भार को कम कर रहे हैं “दूसर हेतु तात कछु नाहीं” और कोई दूसरा कोई कारण नहीं है।

जब भगवान् केवल तेरे कारण जा रहे हैं तो तुझे मेरे दूध की सौगंध है कि चौदह वर्ष की सेवा में स्वपन में भी तेरे मन में कोई विकार नहीं आना चाहियें, लक्ष्मणजी ने कहा माँ अगर ऐसी बात है तो सुनो जब आप स्वप्न की शर्त दे रही हो तो मै चौदह वर्ष तक सोऊँगा ही नहीं और जब सोऊँगा ही नहीं तो कोई विकार ही नहीं आयेगा।

सज्जनों! ध्यान दिजिये जब जगत का अद्वितीय भाई लक्ष्मणजी जैसा है जो भैया और भाभी की सेवा के लिये चौदह वर्ष जागरण का संकल्प लें रहा है, अगर छोटा भाई बडे भाई की सेवा के लिए चौदह वर्ष का संकल्प लेता है तो बडा भाई पिता माना जाता है, उन्हें भी पिता का भाव चाहिये, जैसे पिता अपने पुत्र की चिंता रखता है, ऐसे ही बडा भाई अपने छोटे भाई की पुत्रवत चिंता करें, लेकिन भगवान् श्री रामजी तो जगत के पिता हैं।

ऐसी सुमित्राजी जैसी माताओं के कारण ऐसे भक्त पुत्र पैदा हुयें, सेवक पैदा हुए, महापुरूष पैदा हुए, कल्पना कीजिये “अवध तुम्हार काज कछु नाहीं” जाओ भगवान् की सेवा में, यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है और अब हम अपने ऊपर विचार करे, अनुभव क्या कहता है? लडका अगर शराबी हो जाए परिवार में चल सकता है, लडका अगर दुराचारी हो जाए तो भी चलेगा, जुआरी हो जाये तो भी चलेगा, बुरे से बुरा बन जाये तो भी चलेगा।

लेकिन लडका साधु हो जाये, संन्यासी हो जाये, समाजसेवक बन जाये, तो नहीं चलेगा, अपना-अपना ह्रदय टटोलो कैसा लगता है? सारे रिश्तेदारों को इकट्ठा कर लेते हैं कि भैया इसे समझाओ, सज्जनों! हम चाहते तो है कि इस देश में महापुरुष पैदा हो, हम चाहते तो है कि राणा और शिवाजी इस देश में बार-बार जन्म लें लेकिन मैरे घर में नहीं पडौसी के घर में।

क्या इससे धर्म बच सकता है? क्या इससे देश बच सकता है? कितनी माँओं ने अपने दुधमुंहे बच्चों को इस देश की रक्षा के लिए दुश्मनों के बंदुक की गोलियाँ खाकर मरते हुयें अपनी आखों के सामने देखा है, आप कल्पना कर सकते हो कि माँ के ऊपर क्या बीती होगी? तेरह साल का बालक माँ के सामने सिर कटाता है, माँ ने आँखें बंद कर लीं, कोई बात नहीं जीवन तो आना और जाना है, देह आती है और जाती है, धर्म की रक्षा होनी चाहिये।

जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उनकी रक्षा करता है, “धर्मो रक्षति रक्षितः” इस देश की रक्षा के लिए कितनी माताओं की गोद सूनी हुई, कितनी माताओं के सुहाग मिटे, कितनों की माथे की बिंदी व सिन्दूर मिट गयें, कितनो के घर के दीपक बुझे, कितने बालक अनाथ हुये, कितनो की राखी व दूज के त्यौहार मिटे, ये देश, धर्म, संस्कृति तब बची है, ये नेताओं के नारो से नहीं बची, ये माताओं के बलिदान से बची, इस देश की माताओं ने बलिदान किया।

सज्जनों! हमने संतो के श्रीमुख से सुना है जब लक्ष्मणजी सुमित्रामाताजी के भवन से बाहर आ रहे हैं और रास्ते में सोचते आ रहे हैं कि उर्मिला से कैसे मिलुं इस चिन्ता में डूबे थे कि उर्मिला को बोल कर न गये तो वह रो-रो कर प्राण त्याग देगी, और बोल कर अनुमति लेकर जाएंगे तो शायद जाने भी न दे और मेरे साथ चलने की जिद्द करेगी, रोयेंगी और कहेंगी कि जब जानकीजी अपने पति के साथ जा सकती है तो मैं क्यों नहीं जा सकती?

लक्ष्मणजी स्वय धर्म है लेकिन आज धर्म ही द्वंन्द में फँस गया, उर्मिलाजी को साथ लेकर जाया नहीं जा सकता और बिना बतायें जाये तो जाये कैसे? रोती हुई पत्नी को छोड कर जा भी तो नहीं सकते, दोस्तों! नारी के आँसू को ठोकर मारना किसी पुरुष के बस की बात नहीं, पत्थर दिल ह्रदय, पत्थर ह्रदय पुरूष भी बडे से बडे पहाड को ठुकरा सकता है लेकिन रोती हुई पत्नी को ठुकरा कर चले जाना किसी पुरुष के बस की बात नहीं है।

लक्ष्मणजी चिंता में डूबे हैं अगर रोई तो उन्हें छोडा नहीं जा सकता और साथ लेकर जाया नहीं जा सकता करे तो करे क्या? इस चिन्ता में डूबे थे कि उर्मिलाजी का भवन आ गया, इधर उर्मिलाजी को घटना की पहले ही जानकारी हो चुकी है और इतने आनन्द में डूबी है कि मैरे प्रभु, मैरे पति, मैरे सुहाग का इतना बडा सौभाग्य कि उन्हें प्रभु की चरणों की सेवा का अवसर मिला है।

पति की सोच में डूबी श्रंगार किए बैठी है, वो वेष धारण किया जो विवाह के समय किया था, कंचन का थाल सजाया, आरती का दीप सजाकर प्रतीक्षा करती है, विश्वास है कि आयेंगे अवश्य, बिना मिले तो जा नहीं सकते? भय में डूबे लक्ष्मणजी आज कांप रहे है, सज्जनों! आप तो जानते ही है कि लक्ष्मणजी शेषनाग के अवतार हैं और नाग को काल भी कहते हैं।

आप कल्पना कीजिये, इस देश की माताओं के सामने काल हमेशा कांपता है, संकोच में डूबे लक्ष्मणजी ने धीरे से कुण्डी खटखटाई, देवी द्वार खोलो, जैसे ही उर्मिलाजी ने द्वार खोला तो लक्ष्मणजी ने आँखें बंद कर लीं, निगाह से निगाह मिलाने का साहस नहीं, उनको भय लगता है, आँसू आ गयें, उर्मिलाजी समझ गई कि मैरे कारण मेरे पतिदेव असमंजस में आ गये हैं।

उर्मिलाजी ने दोनों हाथों से कंधा पकड लिया और कहा आर्यपुत्र घबराओ नहीं, धीरज धरो, मैं सब जानती हूंँ कि आप भगवान् के साथ वनवास जा रहे हैं, मैं आपको बिल्कुल नहीं रोकूँगी बल्कि मुझे खुशी है कि आपको भ्राता और भाभी की सेवा करने का मौका मिल रहा है, आप निश्चिंत होकर जाइये, मैं माँ सुमित्राजी का पूरा ध्यान रखूंगी।

मित्रो! इस प्रस्तुति को विस्तार देकर आगे की प्रस्तुति से उर्मिलाजी के शौर्य के और दर्शन करने की कोशिश करेंगे।

शेष जारी • • • • • • • • •

जय भारतीय नारी शक्ति!
जय माँ अम्बे!

संजय गुप्ता

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पुराने समय की बात है। एक ऋषि के पास एक व्यक्ति तत्त्व-ज्ञान-साधना के लिए गया। दीक्षा प्राप्ति के उपरान्त शिष्य ने गुरु से गुरु-दक्षिणा का आग्रह किया। गुरुदेव शिष्य के मन की बात समझते थे – हुआ कुछ ऐसा था कि गुरु जी की कुछ बताई विधियाँ उसने पहले से पढ़ी हुई थीं और उन कुछ पलों में शिष्य के मन में यह भाव आ गया था कि गुरुदेव की कम से कम ५०% शिक्षा तो व्यर्थ ही है। गुरु दक्षिणा की बात पर गुरु ने युवक से कहा कि जीवन के इस पड़ाव में वह कोई भी कीमती या उपयोग की वस्तु नहीं बल्कि कुछ अलग चाहते हैं। उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा कि वह दक्षिणा में उन्हें ऐसी चीज दे, जो कि बिलकुल व्यर्थ हो। वो चीज ऐसी होनी चाहिए कि किसी के भी काम न आ सके। शिष्य आज्ञा लेकर व्यर्थ की चीज की खोज में निकल पड़ा।
रास्ते में उसे मिट्टी दिखी तो उसे उससे ज्यादा व्यर्थ कुछ नहीं लगा। पर जैसे ही उसने मिट्टी की ओर हाथ बढ़ाया तो मिट्टी बोल पड़ी – “तुम मुझे व्यर्थ समझ रहे हो? क्या तुम्हें पता नहीं है कि इस दुनिया का सारा वैभव मेरे ही गर्भ से प्रकट होता है? ये विविध वनस्पतियाँ ये रूप, रस और गन्ध सब कहाँ से आते हैं? यह तुम्हारा शरीर मुझसे ही पैदा हुआ है ? क्या तुम्हें मैं अब भी व्यर्थ मालूम पड़ती हूँ?”
शिष्य शर्मिन्दा हो कर आगे बढ़ गया, थोड़ी दूरी पर उसे एक बेडौल-सा पत्थर मिला। शिष्य ने सोचा, इसे ही ले चलूँ। लेकिन उसने जैसे ही उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पत्थर से आवाज आई – हे! तत्त्व शक्ति विज्ञानी ! तुम इतने जानकार होकर भी मुझे बेकार मान रहे हो। तुम अपने भवन और अट्टलिकाएँ किससे बनाते हो? तुम्हारे मन्दिरों में किसे गढ़कर देव प्रतिमाएँ स्थापित की जाती हैं? मेरे इतने उपयोग के बाद भी तुम मुझे व्यर्थ मान रहे हो।
यह सुनकर शिष्य निरुत्तर हो गया और वहाँ से भी चल दिया। इसके बाद कई और ऐसी चीजें उसने गुरु जी के लिए लेनी चाहीं, लेकिन उसे हर जगह काम की चीजें ही नजर आईं। उसने सोचा कि जब मिट्टी और पत्थर, यहाँ तक कि जहर भी इतने उपयोगी है तो आखिर व्यर्थ क्या हो सकता है?
उसके मन से आवाज आई कि सृष्टि का हर पदार्थ अपने आप में उपयोगी है। वस्तुतः व्यर्थ और तुच्छ वह है, जो दूसरों को व्यर्थ और तुच्छ समझता है। व्यक्ति के भीतर का झूठ-अहंकार ही एक ऐसा तत्व है, जिसका कहीं कोई उपयोग नहीं। वह गुरु के पास लौट गया और उनके पैरों में गिर पड़ा। अन्ततः वह शिष्य गुरु दक्षिणा में अपना अहंकार देने आ चुका था।
गुरु तो बैठा ही है सब कुछ लुटाने के लिए, तुम्हारे पात्र को अमृत से भरने के लिए। पर तुम हो कि उसमें व्यर्थ के अहंकार को, व्यापार को, परिवार को भरे बैठे हो। जीवन भर भागते रहो ऐसे, कुछ होने वाला नहीं है। देर तो तुम्हारी तरफ से है। बस इधर पात्र खाली किया और उधर अमरत्व को प्राप्त हुए। शिष्य और गुरु के बीच, साधक और सिद्ध के बीच में, केवल अहंकार ही एकमात्र फासला है।
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देव शर्मा

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“संकट ते हनुमान छुड़ावै”
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तुलसीदासजी ने यह नही कहा संकट से हनुमान बचावें, बचाने और छुड़ाने में बहुत बड़ा अन्तर है, बचाने में तो व्यक्ति दूर से बचा सकता है, जैसे कोई पुलिस केस हो जाये, आप किसी बड़े व्यक्ति के पास जाते है और बताते है, कि ऐसा-ऐसा हो गया है।

वह कहता है ठीक है हम कह देते है या फोन कर देते है, अब आवश्यक तो नही कि फोन पर रिस्पॉन्स पूरा दे ही दिया जाय? टाल-मटोल भी हो सकती है तो बचाया दूर से जा सकता है लेकिन छुड़ाया तो पास जाकर ही, छुड़ाना माने किसी के हाथ मे से छीन लाना, जब भी भक्त पर संकट आता है तब हनुमानजी दूर से नही बचाते बल्कि पास आकर छुड़ाते हैं।

सज्जनों! एक सुपंथ नाम का धर्मात्मा राजा था, एक बार अयोध्या में संत सम्मेलन होने जा रहा था तो संत सम्मेलन में संतो के दर्शन करने सुपंथ भी जा रहे थे, रास्ते में नारदजी मिल गये, प्रणाम किया, बोले कहाँ जा रहे हो? कहा संत सम्मेलन में संतो के दर्शन करने जा रहा हूँ, नारदजी बोले जाकर सभी संतो को प्रणाम करना लेकिन वहाँ ब्रह्मऋषि विश्वामित्र होंगे वे क्षत्रिय है, क्षत्रियों को प्रणाम मत करना, ऐसा नारदजी ने भड़काया।

हनुमानजी की महिमा और भगवान् के नाम का प्रभाव भी शायद नारदजी प्रकट करना चाहते होंगे, सुपंथ बोले जैसी आपकी आज्ञा, सुपंथ गयें, सभी को प्रणाम किया लेकिन विश्वामित्रजी को नही किया तो क्षत्रिय का यह अहंकारी स्वभाव होता है, विश्वामित्रजी बोले इसकी यह हिम्मत, भरी सभा में मुझे प्रणाम नहीं किया, वैसे भूल हो जाये तो कोई बात नही, जान-बूझकर न किया जाये तो एक्शन दिखाई दे जाता है।

विश्वामित्रजी को क्रोध आ गया और दौड़कर भगवान् के पास पहुँच गये कि राघव तुम्हारे राज्य में इतना बड़ा अन्याय, गुरूओं और संतो का इतना बड़ा अपमान? भगवान बोले गुरूदेव क्या हुआ? बोले, उस राजा ने मुझे प्रणाम नही किया उसको दण्ड मिलना चाहिये, भगवान् ने कहा ऐसी बात है तो कल मृत्युदंड घोषित किया जाता है।

जब सुपंथ को पता लगा कि मृत्युदण्ड घोषित हो गया है और वह भी रामजी ने प्रतिज्ञा की है कि मैं गुरूदेव के चरणों की सौगंध खाकर कहता हूँ, कि कल सूर्यास्त तक उसके प्राणों का अंत हो जायेगा, इधर लक्ष्मणजी ने बड़े रोष में प्रभु को देखा और पूछा प्रभु क्या बात है? भगवान बोले आज एक अपराध हो रहा है, कैसे? बोले कैवल्य देश के राजा सुपंथ ने गुरूदेव का अपमान किया है।

और मैंने प्रतिज्ञा की है कि कल उनका वध करूंगा, लक्ष्मणजी ने कहा महराज कल आपका कभी नही आता, आपने सुग्रीव को भी बोला था कल मैं इसका वध करूँगा, लगता है कि दाल में कुछ काला होने वाला है, बोले नही, यह मेरी प्रतिज्ञा है, उथर सुपंथ रोने लगा तो नारदजी प्रकट हो गये, बोले क्या हुआ?

बोले भगवान् ने हमारे वध की प्रतिज्ञा की है, अच्छा-अच्छा भगवान् के हाथ से वध होगा यह तो सौभाग्य है, मौत तो अवश्यंभावी होती है, मृत्यु को तो टाला नही जा सकता, सुपंथ बोले कमाल है आप ने ही तो भड़काया था, आप ही अब कह रहे हैं, नारदजी ने कहा एक रास्ता मैं तुमको बता सकता हूँ, भगवान् के बीच में तो मैं नही आऊँगा, क्या रास्ता है? बोले तुम अंजनी माँ के पास जाकर रोओ।

केवल अंजना माँ हनुमानजी के द्वारा तुम्हारी रक्षा करा सकती है, इतना बड़ा संकट है और दूसरा कोई बचा नही पायेगा, सुपंथ माता अंजनीजी के घर पहुँचे और अंजनी माँ के घर पछाड़ खाकर हा-हा करके रोयें, माँ तो माँ हैं, बोली क्या बात है? बेटे क्यों रो रहे हो? माँ रक्षा करो, माँ रक्षा करों, किससे रक्षा करनी है? बोले मैरी रक्षा करो, माँ बोली मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि तुझे कोई नही मार सकता, मैं तेरी रक्षा करूँगी, बता तो सही।

सुपंथ ने पूरी घटना बताई लेकिन माँ तो प्रतिज्ञा कर चुकी थी, बोली अच्छा कोई बात नही तुम अन्दर विश्राम करो, हनुमानजी आयें, माँ को प्रणाम किया, माँ को थोड़ा चिन्तातुर देखा तो पूछा माँ क्या बात है? माँ ने कहा मैं एक प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ शरणागत की रक्षा की, और तुमको उसकी रक्षा करनी है, हनुमानजी ने कहा माँ कैसी बात करती हो? आपका आदेश हो गया तो रक्षा उसकी अपने आप हो जायेगी।

माता बोली पहले प्रतिज्ञा करो, बोले मैं भगवान श्रीरामजी के चरणों की सौगंध खाकर कहता हूँ, कि जो आपकी शरण में आया है उसकी रक्षा होगी, माँ ने उस राजा को बुला लिया, बोली यह हैं, पूछा कौन मारने वाला है? बोले भगवान् रामजी ने प्रतिज्ञा की है, हनुमानजी ने कहा यार तूने तो मुझे ही संकट में फँसा दिया, दुनिया तो गाती थी संकट से हनुमान छुड़ायें, आज तूने हनुमान को ही संकट में डाल दिया।

खैर, मैं माँ से प्रतिज्ञा कर चुका हूँ, देखो जैसा मैं कहूँगा वैसा ही करना घबराना नहीं, उधर भगवान् ने धनुष-बाण उठाये और चले मारने के लिये, हनुमानजी दूसरे रास्ते से जाने लगे तो भगवान् ने हनुमानजी से बोले कहाँ जा रहे हो, तो हनुमानजी ने कहा प्रभु आप कहाँ जा रहे हो, बोले मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने जा रहा हूँ, हनुमानजी ने कहा मैं भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने जा रहा हूँ।

भगवान् ने कहा तुम्हारी क्या प्रतिज्ञा है, हनुमानजी ने कहा पहले आप बताइयें, आपने क्या प्रतिज्ञा की है? भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा बतायीं, हनुमानजी ने भी कहा कि मैं उसी की रक्षा करने के लिये जा रहा हूँ, भगवान् ने कहा मैंने अपने गुरूदेव के चरणों की सौगंध खाई है कि मैं उसका वध करूँगा, हनुमानजी ने कहा मैंने अपने भगवान के चरणों की सौगंध खाई है कि मैं उसकी रक्षा करूँगा।

यह लीला लक्ष्मणजी देख रहे है और मुस्कुरा रहे है, यह क्या लीला हो रही हैं? जैसे ही भगवान् का आगमन देखा तो सुपंथ रोने लगा, हनुमानजी ने कहा रोइये मत, मेरे पीछे खड़े हो जाओ, संकट के समय हनुमानजी आते हैं, भगवान् ने अभिमंत्रित बाण छोड़ा, हनुमानजी दोनों हाथ उठाकर “श्री राम जय राम जय जय राम” हनुमानजी भगवान् के नाम का कीर्तन करें और बाण विफल होकर वापस लौट जायें।

जब सारे बाण निष्फल हो गयें तो भगवान् ने ब्रह्मास्त्र निकाला, जैसे ही ब्रह्मास्त्र छोड़ा सीधा हनुमानजी की छाती में लगा लेकिन परिणाम क्या हुआ? प्रभु मूर्छित होकर गिर पड़े, बाण लगा हनुमानजी को और मूर्छित हुये भगवान् , अब तो बड़ी घबराहट हो गयीं, हनुमानजी दौड़े, मेरे प्रभु मूर्छित हो गये, क्यों मूर्छित हो गये? क्योंकि “जासु ह्रदय अगार बसहिं राम सर चाप धर” हनुमानजी के ह्रदय में भगवान् बैठे है तो बाण तो भगवान् को ही न लगेगा।

बाकी सब घबरा गयें, यह क्या हो गया? हनुमानजी ने चरणों में प्रणाम किया और सुपंथ को बिल्कुल अपनी गोद में ले आये हनुमानजी ने उसको भगवान् के चरणों में बिठा दिया, प्रभु तो मूर्छित हैं, हनुमानजी बहुत रो-रोकर कीर्तन कर रहे थे कि प्रभु की मूर्छा दूर हो जायें, भगवान् की मूर्छा धीरे-धीरे दूर होती चली गयी और प्यार में, स्नेह में चूँकि भगवान् को अनुभव हो गया था कि बाण मेरे हनुमान के ह्रदय में लगा तो उसे चोट लगी होगी, इसलिये भगवान् इस पीड़ा के कारण मूर्छित हो गये।

जब हनुमानजी कीर्तन करने लगे तो रामजी हनुमानजी के सिर पर हाथ फिराने लगे, धीरे से हनुमानजी पीछे सरक गये और भगवान् का हाथ सुपंथ के सिर पर दे दिया, दोनो हाथों से भगवान् हनुमानजी का सिर समझकर सुपंथ का सिर सहलाने लगे, प्रभु ने जैसे नेत्र खोले तो देखा सुपंथ भगवान् के चरणों में था, मुस्करा दियें भगवान् और बोले हनुमान तुम जिसको बचाना चाहोगे उसको कौन मार सकता है?

भाई-बहनों, हनुमानजी तो अजर-अमर हैं, चारों युगों में हैं सम्पूर्ण संकट जहाँ छूट जाते हैं शोक, मोह, भय वह है भगवान् के नाम का स्मरण, रामजी के साथ में हनुमानजी रहते हैं, अगर संकट से न छूटे तो हनुमानजी छुड़ा देंग।
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देव शर्मा

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🌼बहुतसुन्दरप्रसंग🌼
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जब भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा जी को तीनों लोकों का स्वामी बना दिया तो सुदामा जी की संपत्ति देखकर यमराज से रहा न गया !

यम भगवान को नियम कानूनों का पाठ पढ़ाने के लिए अपने बहीखाते लेकर द्वारिका पहुंच गये !

भगवान से कहने लगे कि – अपराध क्षमा करें भगवन लेकिन सत्य तो ये है कि यमपुरी में शायद अब मेरी कोई आवश्यकता नही रह गयी है इसलिए में पृथ्वी लोक के प्राणियों के कर्मों का बहीखाता आपको सौंपने आया हूँ !

इस प्रकार यमराज ने सारे बहीखाते भगवान के सामने रख दिये भगवान मुस्कुराए बोले – यमराज जी आखिर ऐसी क्या बात है जो इतना चिंतित लग रहे हो ?

यमराज कहने लगे – प्रभु आपके क्षमा कर देने से अनेक पापी एक तो यमपुरी आते ही नही है वे सीधे ही आपके धाम को चले जाते हैं और फिर आपने अभी अभी सुदामा जी को तीनों लोक दान दे दिए हैं । सो अब हम कहाँ जाएं ?

यमराज भगवान से कहने लगे – प्रभु ! सुदामा जी के प्रारब्ध में तो जीवन भर दरिद्रता ही लिखी हुई थी लेकिन आपने उन्हें तीनों लोकों की संपत्ति देकर विधि के बनाये हुए विधान को ही बदलकर रख दिया है !

अब कर्मों की प्रधानता तो लगभग समाप्त ही हो गयी है !

भगवान बोले – यम तुमने कैसे जाना कि सुदामा के भाग्य में आजीवन दरिद्रता का योग है ?

यमराज ने अपना बही खाता खोला तो सुदामा जी के भाग्य वाले स्थान पर देखा तो चकित रह गए देखते हैं कि जहां श्रीक्षय’ सम्पत्ति का क्षय लिखा हुआ था !

वहां स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन्ही अक्षरों को उलटकर ‘उनके स्थान पर यक्षश्री’ लिख दिया अर्थात कुबेर की संपत्ति !

भगवान बोले – यमराज जी ! शायद आपकी जानकारी पूरी नही है क्या आप जानते हैं कि सुदामा ने मुझे अपना सर्वस्व अपर्ण कर दिया था ! मैने तो सुदामा के केवल उसी उपकार का प्रतिफल उसे दिया है !

यमराज बोले – भगवन ऐसी कौनसी सम्पत्ति सुदामा ने आपको अर्पण कर दी उसके पास तो कुछ भी नही !

भगवान बोले – सुदामा ने अपनी कुल पूंजी के रूप में बड़े ही प्रेम से मुझे चावल अर्पण किये थे जो मैंने और देवी लक्ष्मी बड़े प्रेम से खाये थे !

जो मुझे प्रेम से कुछ खिलाता है उसे सम्पूर्ण विश्व को भोजन कराने जितना पुण्य प्राप्त होता है.बस उसी का प्रतिफल सुदामा को मैंने दिया है !

ऐसे दयालु हैं हमारे प्रभु श्रीकृष्ण भगवान जिन्होंने न केवल सुदामा जी पर कृपा की बल्कि द्रौपदी की बटलोई से बचे हुए साग के पत्ते को भी बड़े चाव से खाकर दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों सहित सम्पूर्ण विश्व को तृप्त कर दिया था ओर पांडवो को श्राप से बचाया था !!

।। जय जय श्रीराधे ।।
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देव शर्मा

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👴🏻तानसेन को कला का घमंड हो गया था. एक बार तानसेन की भेंट वल्लभ संप्रदाय के विठ्ठलनाथजी से हुई. तानसेन उन्हें अपनी प्रशंसा और मुगल दरबार में अपनी पकड़ का अहसास कराने लगे.

विठ्ठलनाथजी ने तानसेन को गीत सुनाने को कहा. तानसेन ने वह गीत सुनाया जो अकबर को बहुत पसंद था. खुश होकर विठ्ठलनाथ ने तानसेन को एक हजार रूपए और दो कौड़ियां ईनाम के तौर पर दीं.

विठ्ठलनाथ ने कहा- दरबार के मुख्य गायक के पद को ध्यान में रखकर हजार रूपए का ईनाम. ये दौ कौड़ियां मेरी ओर से आपकी गायन कला की सच्ची कीमत है.

दो कौड़ी का गायक बताए जाने से तानसेन आगबबूला हो गए. विठ्ठलनाथजी ने धैर्य रखने को कहा और गोविंदस्वामी को गाने का इशारा किया. गोविंदस्वामी ने भजन छेड़ा. भक्ति में विभोर हो गए. पीछे-पीछे तानसेन समेत सभी झूमने लगे.

गीत समाप्त हुआ तो तानसेन की तंद्रा टूटी. विठ्ठलस्वामी से व्यवहार के लिए क्षमा मांगते हुए कहा आपने मेरी सच्ची कीमत लगाई थी. मैं तो दो कौड़ी का ही हूं.

विठ्ठलस्वामी बोले- ऐसा नहीं है. तानसेन, तुम उच्च कोटि के गायक हो लेकिन तुमने अपना संगीत अकबर को खुश करने के लिए समर्पित कर दिया है. तुम्हारा दायरा बहुत छोटा हो चुका है.

गोविंदस्वामी तुमसे पीछे हैं लेकिन यह उस प्रभु को प्रसन्न करने के लिए गाते हैं जो संसार चलाते हैं. इनके संगीत का दायरा व्यापक है. तानसेन को बात समझ में आ गई.

हमपर विशेष कृपा करने के पीछे ईश्वर का उद्देश्य होता है हमें परखना. वह देखना चाहते हैं कि क्या हम उसके योग्य हैं? आसमान छूते ताड़ के पेड़, जिसकी छाया किसी को नहीं मिलती, होने से अच्छा है दूर तक फैली घास बन जाना जो धरती के ताप से पैरों को तो बचाती है. भक्ति वही घास है जबकि विलासिता ताड़ का पेड़.💐

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वर्ण व्यवस्था


वैदिक वर्ण व्यवस्था में शूद्र किसे माना गया है
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शोचनीयः शोच्यां स्थितिमापन्नो वा सेवायां साधुर अविध्द्यादिगुणसहितो मनुष्यो वा

अर्थात शूद्र वह व्यक्ति होता है जो अपने अज्ञान के कारण किसी प्रकार की उन्नत स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाया और जिसे अपनी निम्न स्थिति होने की तथा उसे उन्नत करने की सदैव चिंता बनी रहती है अथवा स्वामी के द्वारा जिसके भरण पोषण की चिंता की जाती है |

शूद्रेण हि समस्तावद यावत् वेदे न जायते

अर्थात जब तक कोई वेदाध्ययन नहीं करता तब तक वह शूद्र के सामान है वह चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात द्विज उच्यते

अर्थात प्रत्येक मनुष्य चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो वह जन्म से शूद्र ही होता है | उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर विद्याध्ययन करने के बाद ही द्विज बनता है |
जो मनुष्य अपने अज्ञान तथा अविद्ध्या के कारण किसी प्रकार की उन्नत स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाता वह शूद्र रह जाता है।

महर्षि मनु ने शूद्र के कर्म इस प्रकार बताये हैं
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।।

अर्थात परमात्मा ने शूद्र वर्ण ग्रहण करने वाले व्यक्तियों के लिए एक ही कर्म निर्धारित किया है वो यह है कि अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों के यहाँ सेवा या श्रम का कार्य करके जीविका करना | क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति शूद्र होता है अतः वह सेवा या श्रम का कार्य ही कर सकता है इसलिए उसके लिए यही एक निर्धारित कर्म है |
अब यदि कोई यह कुतर्क दे कि शूद्र को सेवा कार्य क्यों दिया उसे अन्य कार्य क्यों नहीं दिया, यह तो शूद्र के साथ पक्षपात है; तो विचार कीजिये कि शूद्र कहा किसे है ? उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि शूद्र वह व्यक्ति होता है जो अशिक्षित एवं अयोग्य होता है| जो अशिक्षित व अयोग्य है क्या उसे सेवा के अलावा अन्य कोई जिम्मेदारी दी जा सकती है ? आधुनिक प्रशासन व्यवस्था में भी चार वर्ग निश्चित किये गए हैं – प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी और चतुर्थ श्रेणी | यदि कुतर्क की दृष्टि से सोचा जाये तो यह भारत सरकार का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के साथ पक्षपात है; सरकार को हर अशिक्षित व्यक्ति को डॉक्टर, इंजीनियर और जज बना देना चाहिए | अब जरा विचार कीजिये कि यदि अशिक्षित व्यक्ति डॉक्टर बना दिया जाए तो वह कैसा इलाज करेगा ? अशिक्षित व्यक्ति को जज बना दिया जाए तो वह कैसा फैसला सुनाएगा ? इसलिए वैदिक वर्ण व्यवस्था में कर्म एवं योग्यतानुसार ही वर्ण निर्धारण किया गया है क्योंकि व्यक्ति योग्यतानुसार ही अपना अपना कार्य ठीक से कर सकता है

इसीलिए यह कहावत है कि जिसका काम उसी को साजे, दूजा करे तो डंडा बाजे
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देव शर्मा

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जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर दफ़्न है श्रीकृष्ण की मृत्यु से जुड़ा एक राज?
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परंपराओं और ऐतिहासिक धरोहरों की भूमि भारत के हृदय में कई ऐसे भी राज दफ़्न हैं, जो कहानियां बनकर आज भी सुने और सुनाए जाते हैं। आज हम आपको भगवान जगन्नाथ की मूर्ति और भगवान श्रीकृष्ण की मौत से जुडी एक ऐसी ही कहानी से परिचित करवा रहे है।

हिन्दू धर्म के बेहद पवित्र स्थल और चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी की धरती को भगवान विष्णु का स्थल माना जाता है। जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी एक बेहद रहस्यमय कहानी प्रचलित है, जिसके अनुसार मंदिर में मौजूद भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्वयं ब्रह्मा विराजमान हैं।

ब्रह्मा कृष्ण के नश्वर शरीर में विराजमान थे और जब कृष्ण की मृत्यु हुई तब पांडवों ने उनके शरीर का दाह-संस्कार कर दिया लेकिन कृष्ण का दिल (पिंड) जलता ही रहा। ईश्वर के आदेशानुसार पिंड को पांडवों ने जल में प्रवाहित कर दिया। उस पिंड ने लट्ठे का रूप ले लिया।

राजा इन्द्रद्युम्न, जो कि भगवान जगन्नाथ के भक्त थे, को यह लट्ठा मिला और उन्होंने इसे जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्थापित कर दिया। उस दिन से लेकर आज तक वह लट्ठा भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर है। हर 12 वर्ष के अंतराल के बाद जगन्नाथ की मूर्ति बदलती है लेकिन यह लट्ठा उसी में रहता है।

इस लकड़ी के लट्ठे से एक हैरान करने वाली बात यह भी है कि यह मूर्ति हर 12 साल में एक बार बदलती तो है लेकिन लट्ठे को आज तक किसी ने नहीं देखा।

मंदिर के पुजारी जो इस मूर्ति को बदलते हैं, उनका कहना है कि उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है और हाथ पर कपड़ा ढक दिया जाता है। इसलिए वे ना तो उस लट्ठे को देख पाए हैं और ही छूकर महसूस कर पाए हैं। पुजारियों के अनुसार वह लट्ठा इतना सॉफ्ट होता है मानो कोई खरगोश उनके हाथ में फुदक रहा है।

पुजारियों का ऐसा मानना है कि अगर कोई व्यक्ति इस मूर्ति के भीतर छिपे ब्रह्मा को देख लेगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी।

इसी वजह से जिस दिन जगन्नाथ की मूर्ति बदली जानी होती है, उड़ीसा सरकार द्वारा पूरे शहर की बिजली बाधित कर दी जाती है। यह बात आज तक एक रहस्य ही है कि क्या वाकई भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में ब्रह्मा का वास है।
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देव शर्मा