श्रीमद्भगवद्गीता संबंधित प्रश्नोत्तरी ?????
प्रश्न ‒ यह जीव परमात्माका अंश है ( – गीता । १५ | ७ । ), तो क्या यह जीव परमात्मा से पैदा हुआ है ? क्या यह जीव परमात्मा का एक टुकड़ा है ?
उत्तर ‒ऐसी बात नहीं है । यह जीव अनादि है, सनातन है और परमात्मा पूर्ण है; अतः जीव परमात्मा का टुकड़ा कैसे हो सकता है ? वास्तव में यह जीव परमात्मस्वरूप ही है; परंतु जब यह प्रकृति के अंश को अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन बुद्धि को ” मैं और मेरा ‘’ मान लेता है, तब यह अंश हो जाता है । प्रकृतिके अंश को छोड़ने पर यह पूर्ण हो जाता है ।
प्रश्न ‒ ईश्वर अपनी माया से सम्पूर्ण प्राणियोंको घुमाता है ( – गीता । १८ । ६१ । ), तो क्या ईश्वर ही प्राणियों से पाप-पुण्य कराता है ?
उत्तर ‒ जैसे कोई मनुष्य रेल में बैठ जाता है, तो उसको परवश होकर रेल के अनुसार ही जाना पड़ता है; ऐसे ही जो प्राणी शरीररूपी यन्त्र पर आरूढ़ हो गये हैं अर्थात् जिन्होंने शरीररूपी यन्त्र के साथ मैं-मेरापन का सम्बन्ध जोड़ लिया है, उन्हीं प्राणियों को ईश्वर उनके स्वभाव और कर्मों के अनुसार घुमाता है, कर्मों का फल भुगताता है, उनसे पाप-पुण्य नहीं कराता ।
प्रश्र ‒ अनुगीता में भगवान् ने कहा है कि उस समय मैंने योगमें स्थित होकर गीता कही थी, पर अब मैं वैसी बातें नहीं कह सकता ( – महाभारत, आश्वमेधिक॰ । १६ । १२ । १३ । ), तो क्या भगवान् भी कभी योग में स्थित रहते हैं और कभी योग में स्थित नहीं रहते ? क्या भगवान् का ज्ञान भी आगन्तुक है ?
उत्तर ‒ जैसे बछड़ा गाय का दूध पीने लगता है, तो गाय के शरीर में रहने वाला दूध स्तनों में आ जाता है, ऐसे ही श्रोता उत्कण्ठित होकर जिज्ञासापूर्वक कोई बात पूछता है, तो वक्ता के भीतर विशेष भाव स्फुरित होने लगते हैं । गीता में अर्जुन ने उत्कण्ठा और व्याकुलता-पूर्वक अपने कल्याण की बातें पूछी थीं, जिससे भगवान् के भीतर विशेषता से भाव पैदा हुए थे । परंतु अनुगीता में अर्जुन की उतनी उत्कण्ठा, व्याकुलता नहीं थी । अतः गीता में जैसा रसीला वर्णन आया है, वैसा वर्णन अनुगीता में नहीं आया ।
प्रश्न ‒ भगवान् ने गीता में तीन जगह ( – गीता । ३ । ३ । ; । १४ । ६ । और । १५ । २० में ) अर्जुन के लिये ” अनघ ” सम्बोधन का प्रयोग किया है, जिससे सिद्ध होता है कि भगवान् अर्जुन को पापरहित मानते हैं, तो फिर ‘‘ मैं तेरे को सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा ” ( – गीता । १८ । ६६ । ) – यह कहना कैसे ?
उत्तर ‒ जो भगवान् के सम्मुख हो जाता है, उसके पाप समाप्त हो जाते हैं । अर्जुन ( – गीता । २ । ७ । में ) भगवान् के सम्मुख हुए थे; अतः वे पापरहित थे और भगवान् की दृष्टि में भी अर्जुन पापरहित थे । परन्तु अर्जुन यह मानते थे कि युद्ध में कुटुम्बियों को मारने से मेरे को पाप लगेगा ( – गीता । १ । ३६ । ; । ३९, ४५ । ) । अर्जुन की इस मान्यता को लेकर ही भगवान् कहते हैं कि ” मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा । ”
प्रश्न – भगवान् किसी के पाप-पुण्य को ग्रहण नहीं करते ( – गीता । ५ । १५ । ) तू जो कुछ करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे अर्थात् भगवान् सब कुछ ग्रहण करते हैं ( – गीता । ९ । २७ । ) ‒ यह दोनों बातें कैसे ?
उत्तर – विषय दो हैं, एक नहीं । पाँचवें अध्याय के पंद्रहवें श्लोक में सामान्य प्राणियों की बात है और नवें अध्याय के सत्ताईसवें श्लोक में भक्तों की बात है । सामान्य प्राणी तो स्वयं ही कर्ता और भोक्ता बनते हैं अर्थात् अपने किये हुएका फल स्वयं ही भोगते हैं, इसलिये भगवान् उनके पाप-पुण्य को ग्रहण नहीं करते । परंतु जो सर्वथा भगवान् की शरण हो जाते हैं, वे भक्त भगवान् को ही सबका भोक्ता और मालिक मानते हैं । अतः वे भक्त भावपूर्वक भगवान् को जो कुछ देते हैं, अर्पण करते हैं, उसको भगवान् ग्रहण करते हैं । उन भक्तों के भाव के कारण ही भगवान् को भूख लग जाती है, प्यास लग जाती है ( – गीता । ९ । २६ । ) । कारण कि भगवान् भाव के ही भोक्ता हैं ।
प्रश्न – देखना, सुनना, स्पर्श करना आदि क्रियाएँ करता हुआ भी ऐसा मानता है कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ ( – गीता । ५ । ८-९ । ) ‒ यह कैसे ?
उत्तर – सांख्ययोगी को यही अनुभव होता है कि वास्तव में इन्द्रियाँ ही इन्द्रियों के विषयों में बरत रही हैं अर्थात् सभी क्रियाएँ इन्द्रियों में ही हो रही हैं । करनामात्र प्रकृति में ही है; क्योंकि मात्र क्रियाएँ और पदार्थ प्रकृति के ही हैं । स्वरूप में न क्रिया है, न पदार्थ । अतः ‘’ मैं स्वयं प्रकृति से अतीत चिन्मय तत्त्व हूँ; मेरे स्वरूप के साथ इनका कोई सम्बन्ध था नहीं, है नहीं, होगा नहीं और होना सम्भव ही नहीं, इसलिये मैं कुछ भी नहीं करता हूँ ” ‒इस प्रकार अपने स्वरूप की दृष्टि से कहना वास्तविक ही है ।
प्रश्न ‒ कोई एक मेरे को तत्त्व से जानता है ( – गीता । ७ । ३ । ) ; मेरे को कोई नहीं जानता ( – गीता । ७ । २६ । ) ‒ यह दो बातें कैसे ?
उत्तर ‒ सातवें अध्याय के तीसरे श्लोक में साधकों की बात है । जो संसार से उपराम होकर भगवान् में लग जाते हैं, वे भगवान् की कृपा से भगवान् को जान जाते हैं । सातवें अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में सामान्य प्राणियों की बात है । जो प्राणी जन्म-मृत्यु के प्रवाह में पड़े हुए हैं, उनको भगवान् तो जानते हैं, पर वे प्राणी मूढ़ता के कारण भगवान् को नहीं जानते । तात्पर्य है कि उपर्युक्त दोनों श्लोकों में साधक-असाधक का भेद है अर्थात् तीसरे श्लोक में जानने के कर्ता साधक हैं और छब्बीसवें श्लोक में जानने के कर्ता असाधक हैं ।
प्रश्न – वह परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियों और उनके विषयों को प्रकाशित करने वाला है तथा वह सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित है ( – गीता । १३ । १४ । ) ‒ यह कैसे ?
उत्तर – जैसे एक-एक इन्द्रिय से एक-एक विषय का ज्ञान होता है, पर मन को पाँचों इन्द्रियों का, उनके विषयों का और उन विषयों में एक-एक विषय में क्या कमी है, क्या घटिया है, क्या बढ़िया है; आदि का ज्ञान होता है अर्थात् मन पाँचों इन्द्रियों को तथा उनके विषयों को प्रकाशित करता है । मन को ऐसा ज्ञान होते हुए भी मन में पाँचों इन्द्रियाँ नहीं हैं । ऐसे ही वह परमात्मा सबको, संसारमात्र को प्रकाशित करता है, पर वह इन्द्रियों से रहित है अर्थात् उस परमात्मा में इन्द्रियाँ नहीं है ।
प्रश्न- प्रकृति में स्थित पुरुष ही भोक्ता बनता है ( – गीता । १३ । २१ । ); शरीर में स्थित होता हुआ भी पुरुष भोक्ता नहीं बनता ( – गीता । १३ । ३१ । ); यह दोनों बातें कैसे ?
उत्तर- तेरहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में तो जो प्रकृति में स्थित है अर्थात् जिसने प्रकृति ( अर्थात् शरीर ) के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया है, वही प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता बनता है; और इकतीसवें श्लोक में जो शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूप में स्थित हो गया है, वह शरीर में रहता हुआ भी भोक्ता नहीं बनता । तात्पर्य है कि इक्कीसवें श्लोक में तो प्रकृति ( शरीर ) के साथ सम्बन्ध जोड़े हुए पुरुष का वर्णन है और इकतीसवें श्लोक में शरीर के साथ सम्बन्ध तोड़े हुए पुरुष का वर्णन है ।
प्रश्न ‒ परमात्मा ‘ज्ञेय’ अर्थात् जानने योग्य है ( – गीता । १३ । १२ । ) ; परमात्मा ‘अविज्ञेय’ अर्थात् जानने का विषय नहीं है ( – गीता । १३ । १५ । ) ‒ यह दोनों बातें कैसे ?
उत्तर ‒ जानना दो तरह का होता है:- करण-निरपेक्ष और करण-सापेक्ष । जो इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि करणों के द्वारा नहीं जाना जा सकता, वह करण-निरपेक्ष होता है और जो करणों के द्वारा जाना जा सकता है, वह करण-सापेक्ष होता है । परमात्मतत्त्व का ज्ञान करण-निरपेक्ष होता है अर्थात् वह स्वयं के द्वारा ही जाना जाता है, इसलिये वह ‘ज्ञेय’ है और वह करणों के द्वारा जानने में नहीं आता, इसलिये वह ‘अविज्ञेय’ है ।
प्रश्न‒ शरीरी (जीवात्मा) अविनाशी है, इसका विनाश कोई कर ही नहीं सकता ( – गीता । २ । १७ । ) यह न मारता है और न मारा जाता है ( – गीता । २ । १९ । ) तो फिर मनुष्य को प्राणियों की हत्या का पाप लगना ही नहीं चाहिये ?
उत्तर‒ पाप तो पिण्ड-प्राण का वियोग करने का लगता है; क्योंकि प्रत्येक प्राणी पिण्ड-प्राण में रहना चाहता है, जीना चाहता है । यद्यपि महात्मा लोग जीना नहीं चाहते, फिर भी उन्हें मारने का बड़ा भारी पाप लगता है; क्योंकि उनका जीना संसारमात्र चाहता है । उनके जीने से प्राणिमात्र का परम हित होता है, प्राणिमात्र को सदा रहने वाली शान्ति मिलती है । जो वस्तुएँ प्राणियों के लिये जितनी आवश्यक होती हैं, उनका नाश करने का उतना ही अधिक पाप लगता है ।
प्रश्न‒ ज्ञानवान् पुरुष अपनी प्रकृति ( स्वभाव ) के अनुसार चेष्टा करता है ( – गीता । ३ । ३३ । ), पर वह बँधता नहीं । अन्य प्राणी भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही चेष्टा करते हैं, पर वे बँध जाते हैं । ऐसा क्यों ?
उत्तर‒ ज्ञानी महापुरुष की प्रकृति तो राग-द्वेष रहित, शुद्ध होती है; अतः वह प्रकृति को अपने वश में करके ही चेष्टा करता है, इसलिये वह कर्मो से बँधता नहीं । परंतु अन्य प्राणियों की प्रकृति में राग-द्वेष रहते हैं और वे प्रकृति के वश में होकर राग-द्वेषपूर्वक कार्य करते हैं, इसलिये वे कर्मो से बँध जाते हैं । अतः मनुष्य को अपनी प्रकृति, अपना स्वभाव शुद्ध‒निर्मल बनाना चाहिये और अपने अशुद्ध स्वभाव के वश में होकर कोई कार्य नहीं करना चाहिये ।
प्रश्न‒ ज्ञानिजन ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी, कुत्ते आदिमें समदर्शी होते हैं ( – गीता । ५ । १८ । ), तो फिर वर्ण, आश्रम आदि का अड़ंगा क्यों ?
उत्तर‒ज्ञानी महापुरुष का व्यवहार तो ब्राह्मण, चाण्डाल गाय, हाथी आदि के शरीरों को लेकर यथायोग्य ही होता है । शरीर नित्य-निरन्तर बदलते है; अतः ऐसे परिवर्तनशील शरीर में उनकी विषमता रहती है और रहनी ही चाहिये ।
कारण कि सभी प्राणियों के साथ खान-पान आदि व्यवहार की एकता, समानता तो कोई कर ही नहीं सकता अर्थात् सबके साथ व्यवहार में विषमता तो रहेगी ही ।
ऐसी विषमता में भी तत्त्वदर्शी पुरुष एक परमात्मा को ही समानरूप से देखते हैं । इसीलिये भगवान् ने तत्त्वज्ञ पुरुषों के लिये ‘‘ समदर्शिनः ’’ कहा है, न कि ‘’ समवर्तिनः ‘’ । समवर्ती (समान व्यवहार करनेवाला) तो यमराज का, मौतका नाम है, जो कि सबको समानरूप से मारती है ।
प्रश्न‒ मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र मिल जाती है’ (- गीता । ४ । १२ । ), पर यह बात देखने में नहीं आती । ऐसा क्यों ?
उत्तर‒ कर्मजन्य सिद्धि, कर्मों का फल- दो प्रकार का होता है‒ एक तात्कालिक और दूसरा कालान्तरिक । तात्कालिक फल शीघ्र देखने में आता है और कालान्तरिक फल समय पाकर देखने में आता है, शीघ्र देखने में नहीं आता । भोजन किया और भूख मिट गयी; जल पिया और प्यास मिट गयी; ए• सी• चलाया और गर्मी मिट गयी; गरम कपड़ा ओढ़ा और जाड़ा दूर हो गया‒ यह तात्कालिक फल है ।
इसी तरह किसी को प्रसन्न करने के लिये उसकी स्तुति-प्रार्थना करने से, उसकी सेवा करने से वह प्रसन्न हो जाता है; ग्रहों की सांगोपांग विधिपूर्वक पूजा करने से ग्रह शान्त हो जाते है; महामृत्युञ्जय मन्त्र का जप करने से रोग दूर हो जाते है; गया में विधिपूर्वक श्राद्ध करने से जीव प्रेतयोनि से छूट जाता है और उसकी सद्गति हो जाती है‒यह सब कर्मो का तात्कालिक फल है ।
इस तात्कालिक फल को दृष्टि में रखकर ही लोग देवताओं की उपासना करते है । अतः ‘मनुष्यलोक में कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र मिल जाती है’‒ऐसा कहा गया है ।
।। राम राम ।।
संजय गुप्ता
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