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महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। विजय रथ में अर्जुन को बिठाकर भगवान श्रीकृष्ण पांडवों के शिविर की ओर चल पड़े। वहां पहुंचकर श्रीकृष्ण ने अपने पैर का अंगूठा रथ पर टिकाए रखकर अर्जुन को आदेश दिया, “रथ से तत्काल उतरकर दूर जाकर खड़े हो जाओ।”
विजय रथ से योद्धा का सारथी से पहले उतर जाना परंपरा के विरुद्ध था और इस प्रकार शीघ्रता करना भी अर्जुन की समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन वह तत्काल रथ से उतरा और दूर जाकर खड़ा हो गया।
इसके बाद श्रीकृष्ण ने ज्यों ही अपना पैर रथ के नीचे रखा, रथ की ध्वजा से कपिराज अदृश्य हो गए और सारा रथ
धू-धू करके जलने लगा।
कुछ ही क्षणों में रथ आग में तब्दील हो गया। यह दृश्य देखकर भय और आश्चर्य से कांपते अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से इसका कारण पूछा।
श्रीकृष्ण ने कहा, “युद्ध में तुम्हारे ऊपर जिन दिव्य शस्त्रों का प्रयोग हुआ था, उनके तेज से यह रथ कभी का जल चुका था। इसे मैंने अपनी शक्ति से बचाए रखा था। यदि तुम इस रथ से उसी क्षण न उतरते, तो उसके साथ तुम भी भस्म हो जाते। तुम्हारे समर्पण ने ही तुम्हारे प्राणों की रक्षा की है।”
समर्पण किसी कमजोरी या निम्नता का प्रतीक नहीं होता। यदि समर्पण श्रेष्ठ या परमात्मा के प्रति हो, तो वह दृढ़ निश्चय और अनुशासन का प्रतीक होता है। इसे साध लेने पर मनुष्य स्वतः भगवद् कृपा का पात्र बन जाता है। वस्तुतः भगवद् कृपा तो निरंतर बढ़ रही है, लेकिन उसको प्राप्त करने का पात्र बनने के लिए समर्पण अत्यंत आवश्यक होता है। प्रकृति का नियम है- जहां जमीन नीचे और गहरी होती है, वहीं वर्षा का जल इकट्ठा होता है। वह ऊंचे पर्वतों पर नहीं ठहरता। इसी तरह समर्पण स्वयं को विनम्र तथा गहरा बनाकर ईश्वर की कृपा का पात्र होने की प्रक्रिया है।

कक्कड़

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बेवक़ूफ़ गृहणी:

एक गृहणी वो रोज़ाना की तरह आज फिर इश्वर का नाम लेकर उठी थी ।

किचन में आई और चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ाया।

फिर बच्चों को नींद से जगाया ताकि वे स्कूल के लिए तैयार हो सकें ।

कुछ ही पलों मे वो अपने सास ससुर को चाय देकर आयी फिर बच्चों का नाश्ता तैयार किया और इस बीच उसने बच्चों को ड्रेस भी पहनाई।

फिर बच्चों को नाश्ता कराया।

पति के लिए दोपहर का टिफीन बनाना भी जरूरी था।

इस बीच स्कूल का रिक्शा आ गया और वो बच्चों को रिक्शा तक छोड़ने चली गई ।

वापस आकर पति का टिफीन बनाया और फिर मेज़ से जूठे बर्तन इकठ्ठा किये ।

इस बीच पतिदेव की आवाज़ आई की मेरे कपङे निकाल दो ।

उनको ऑफिस जाने लिए कपङे निकाल कर दिए।

अभी पति के लिए उनकी पसंद का नाश्ता तैयार करके टेबिल पर लगाया ही था की छोटी ननद आई और ये कहकर ये कहकर गई की भाभी आज मुझे भी कॉलेज जल्दी जाना, मेरा भी नाश्ता लगा देना।

तभी देवर की भी आवाज़ आई की भाभी नाश्ता तैयार हो गया क्या?

अभी लीजिये नाश्ता तैयार है।

पति और देवर ने नाश्ता किया और अखबार पढ़कर अपने अपने ऑफिस के लिए निकल चले ।

उसने मेज़ से खाली बर्तन समेटे और सास ससुर के लिए उनका परहेज़ का नाश्ता तैयार करने लगी ।

दोनों को नाश्ता कराने के बाद फिर बर्तन इकट्ठे किये और उनको भी किचिन में लाकर धोने लगी ।

इस बीच सफाई वाली भी आ गयी ।

उसने बर्तन का काम सफाई वाली को सौंप कर खुद बेड की चादरें वगेरा इकट्ठा करने पहुँच गयी और फिर सफाई वाली के साथ मिलकर सफाई में जुट गयी ।

अब तक 11 बज चुके थे, अभी वो पूरी तरह काम समेट भी ना पायी थी की काल बेल बजी ।

दरवाज़ा खोला तो सामने बड़ी ननद और उसके पति व बच्चे सामने खड़े थे ।

उसने ख़ुशी ख़ुशी सभी को आदर के साथ घर में बुलाया और उनसे बाते करते करते उनके आने से हुई ख़ुशी का इज़हार करती रही ।

ननद की फ़रमाईश के मुताबिक़ नाश्ता तैयार करने के बाद अभी वो नन्द के पास बेठी ही थी की सास की आवाज़ आई की बहु खाने का क्या प्रोग्राम हे ।

उसने घडी पर नज़र डाली तो 12 बज रहे थे ।

उसकी फ़िक्र बढ़ गयी वो जल्दी से फ्रिज की तरफ लपकी और सब्ज़ी निकाली और फिर से दोपहर के खाने की तैयारी में जुट गयी ।

खाना बनाते बनाते अब दोपहर का दो बज चुके थे ।

बच्चे स्कूल से आने वाले थे, लो बच्चे आ गये ।

उसने जल्दी जल्दी बच्चों की ड्रेस उतारी और उनका मुंह हाथ धुलवाकर उनको खाना खिलाया ।

इस बीच छोटी नन्द भी कॉलेज से आगयी और देवर भी आ चुके थे ।

उसने सभी के लिए मेज़ पर खाना लगाया और खुद रोटी बनाने में लग गयी ।

खाना खाकर सब लोग फ्री हुवे तो उसने मेज़ से फिर बर्तन जमा करने शुरू करदिये ।

इस वक़्त तीन बज रहे थे ।

अब उसको खुदको भी भूख का एहसास होने लगा था ।

उसने हॉट पॉट देखा तो उसमे कोई रोटी नहीं बची थी ।

उसने फिर से किचिन की और रुख किया तभी पतिदेव घर में दाखिल होते हुये बोले की आज देर होगयी भूख बहुत लगी हे जल्दी से खाना लगादो ।

उसने जल्दी जल्दी पति के लिए खाना बनाया और मेज़ पर खाना लगा कर पति को किचिन से गर्म रोटी बनाकर ला ला कर देने लगी ।

अब तक चार बज चुके थे ।

अभी वो खाना खिला ही रही थी की पतिदेव ने कहा की आजाओ तुमभी खालो ।

उसने हैरत से पति की तरफ देखा तो उसे ख्याल आया की आज मैंने सुबह से कुछ खाया ही नहीं ।

इस ख्याल के आते ही वो पति के साथ खाना खाने बैठ गयी ।

अभी पहला निवाला उसने मुंह में डाला ही था की आँख से आंसू निकल आये

पति देव ने उसके आंसू देखे तो फ़ौरन पूछा की तुम क्यों रो रही हो ।

वो खामोश रही और सोचने लगी की इन्हें कैसे बताऊँ की ससुराल में कितनी मेहनत के बाद ये रोटी का निवाला नसीब होता हे और लोग इसे मुफ़्त की रोटी कहते हैं ।

पति के बार बार पूछने पर उसने सिर्फ इतना कहा की कुछ नहीं बस ऐसे ही आंसू आगये ।

पति मुस्कुराये और बोले कि तुम औरते भी बड़ी “बेवक़ूफ़” होती हो, बिना वजह रोना शुरू करदेती हो।

आप इसे शेयर नहीं करेंगे, अगर आपको भी लगता है की गृहणी मुफ़्त की रोटियां तोड़ती है ।

सभी गृहणियों को सादर समर्पित..🙏🏼

अजय अवस्थी

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वेद पढ़ने के अधिकारी-
वेद पाठ वर्जन का जो श्लोक कहा जाता है उसमें द्विजों के लिये भी वर्जन है-
स्त्री शूद्र द्विज बन्धूनां त्रयी न श्रुति गोचरा।
इसमें सभी वर्गों की अपनी अपनी विशेषताएं हैं, पर वे वेद समझने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। स्त्री घर सम्भालने तथा बच्चों के पालन में दक्ष होती है। शूद्र दक्षता से काम करता है-आशु द्रवति इति शूद्रः। पर उसकी प्रवृत्ति है कि तुरंत काम पूरा करें और अपनी फीस लें। छान्दोग्य उपनिषद् (4/3) तथा स्कन्द पुराण (3/1/26) में राजा जानश्रुति की कहानी है। वह गाड़ी वाले रैक्व के पास वेद ज्ञान के लिए गया तथा इसके लिए धन सम्पत्ति देने का आग्रह किया। रैक्व ने उसे शूद्र कह कर भगा दिया। यहां गाड़ी वाला वर्ण व्यवस्था में स्वयं शूद्र था पर क्षत्रिय राजा को शूद्र कह रहा था। राजा पैसे देकर ज्ञान लेना चाहता था। हर काम का मूल्य पैसे से करना शूद्र प्रवृत्ति है। यह ऐसा ही है जैसे पैसे से डिग्री खरीद लें।
द्विज बन्धु में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य तीनों आते हैं। इनके लिए भी वेद मना है। इसका अर्थ है कि केवल इन परिवारों में जन्म लेने से कोई वेद का विद्वान नहीं होता। मेरे पिता वेद के विद्वान थे, राजा थे या बड़े सेठ थे, केवल इसी कारण वेद नहीं समझ में आयेगा। यहां कई लोग तर्क देते हैं कि केवल द्विज बन्धु के लिए मना है, विद्वान ब्राह्मण के लिए नही। यही तर्क स्त्री और शूद्र के लिए भी दिया जा सकता है।
प्रश्न है कि वेद का अधिकारी कौन है या कौन इसे समझ सकता है। पहली शर्त है कि जानने की इच्छा होनी चाहिये-अथातो ब्रह्म जिज्ञासा (ब्रह्म सूत्र का आरम्भ)। यदि कोई जानना या पढ़ना नहीं चाहता, उसे कोई नहीं पढ़ा सकता। उसके बाद उसके लिए प्राथमिक योग्यता और शिक्षा होनी चाहिए। यज्ञोपवीत में वेदारम्भ संस्कार होता है जिसमें गायत्री मन्त्र का अर्थ बताया जाता है। जैसे इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिये +2 परीक्षा विज्ञान तथा गणित विषयों में पास करना जरूरी है, वैसे ही वेद आरम्भ करने के लिए गायत्री जरूरी है। गायत्री मन्त्र समझने के लिए वे सभी चीजें जानना जरूरी है जो वेद पढ़ने के लिए आवश्यक हैं। इस अर्थ में भी गायत्री वेदमाता है। गायत्री मन्त्र के पहले 3 या 7 लोकों का नाम लेते हैं। इन लोकों की रचना और आकार जानने के लिये ज्योतिष का सभी अंग जानना जरूरी है तथा आधुनिक भौतिक विज्ञान भी इसके लिए पर्याप्त नहीं है। सभी भाषाओं में सभी छन्द 4 पाद के होते हैं। गायत्री छन्द भी 4 पाद का है, पर गायत्री मन्त्र 3 पाद का ही है। मीमांसा दर्शन के अनुसार छन्द और पाद के अनुसार मन्त्र की अर्थ व्यवस्था होती है। अर्थात् वाक्य का अर्थ उसके पद या वाक्यांशों के अनुसार होगा। सभी वाक्यांशों का अलग अलग अर्थ कर उनको जोड़ देंगे। एक वाक्यांश के शब्द को दूसरे वाक्यांश से मिला कर अन्य नहीं कर सकते। सभी भाषाओं के लिए यही नियम है। गायत्री मन्त्र की दूसरी विशेषता है कि पहला पाद या चरण आधिदैविक या आकाश के विश्व का वर्णन करता है। दूसरा चरण आधिभौतिक या पृथ्वी से दीखने वाले विश्व का है। तीसरा चरण आध्यात्मिक या मनुष्य शरीर के लिए है। तीनों विश्वों का परस्पर सम्बन्ध ही वेद मन्त्रों का विषय है जो गायत्री मन्त्र से स्पष्ट होता है। इन विश्वों के प्रसंग में ही शब्दों या पदों का अर्थ होगा। सब अर्थों या विषयों का समन्वय करने पर पूरा अर्थ स्पष्ट होगा। इंजीनियरिंग के विषय भौतिक विज्ञान तथा गणित पर आधारित हैं। चिकित्सा विज्ञान का आधार जीवन विज्ञान, रसायन आदि है। इन सबका आधार लोक भाषा में शब्दों का अर्थ है। अतः वेद या किसी भी विज्ञान को समझने के लिए शास्त्रों का समन्वय होना चाहिए। यह ब्रह्मा सूत्र के प्रथम 4 सूत्रों का आशय है-अथातो ब्रह्म जिज्ञासा। जन्माद्यस्य यतः। शास्त्र योनित्वात्। तत्तु समन्वयात्।
अन्य योग्यता है कि वेद के सहायक अंगों-ज्योतिष, छन्द, निरुक्त, व्याकरण, शिक्षा, कल्प का अध्ययन। व्यावहारिक उदाहरण से समझने के लिए इतिहास पुराण जानना जरूरी है जैसा महाभारत के प्रथम अध्याय में लिखा है-
इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपवृंहयेत्।
बिभेत्यल्प श्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति।।
अर्थात् इतिहास पुराण से वेद समझना चाहिए। इनको नहीं जानने वाले से वेद भी डरता है कि यह मेरी हत्या कर देगा।

अरुण उपाध्याय

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चार आने
चन्दन पुर के राजा बहुत दयालु थे।वह प्रतिदिन वेष बदलकर अपने राज्य में घूमते थे और प्रजा के सुख दुख को करीब से देखते थे।
यथासम्भव प्रजा के दुःखों का निवारण भी करते थे।
एक दिन भेष बदल कर राजा अपने राज्य की सैर पर निकले। घूमते- घूमते वह एक खेत के निकट से गुजर रहे थे,
तभी उनकी नज़र एक किसान पर पड़ी, किसान ने फटे-पुराने वस्त्र धारण कर रखे थे और वह पेड़ की छाँव में बैठ कर भोजन कर रहा था।
किसान के वस्त्र देख राजा के मन में आया कि वह किसान को कुछ स्वर्ण मुद्राएं दे दे ताकि उसके जीवन मे कुछ खुशियां आ पाये।
राजा किसान के समीप जा कर बोले,
“हे बन्धु! मैं एक राहगीर हूँ, मुझे तुम्हारे खेत के पास ये चार स्वर्ण मुद्राएँ गिरी मिलीं हैं चूँकि यह खेत तुम्हारा है इसलिए ये मुद्राएं तुम ही रख लो।”
किसान ने कहा…….
……….”धन्यवाद! लेकिन ये मुद्राएं मेरी नहीं हैं,मैं इन्हें नहीं ले सकता। इन्हें आप ही रखें या किसी और को दान कर दें, मुझे इनकी कोई जरूरत नहीं।”
किसान का यह जवाब राजा को बड़ा अजीब लगा।
राजा तो किसान की सहायता ही करना चाहते थे,एक और कोशिश करते हुए बोले………..
“बन्धु! धन की आवश्यकता किसे नहीं होती भला आप लक्ष्मी को ना कैसे कर सकते हैं?”
“सेठ जी!,मैं रोज चार आने कमा लेता हूँ, उतने में ही प्रसन्न रहता हूँ।” सन्तोषी किसान ने जवाब दिया।
” क्या! आप सिर्फ चार आने की कमाई करते हैं? और उतने में ही प्रसन्न रहते हैं! यह कैसे संभव है?
पूछा राजा ने हैरानी से।
किसान ने कहा……
……….प्रसन्नता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि, आप कितना कमाते हैं या आपके पास कितना धन है………
………… प्रसन्नता तो उस धन के प्रयोग पर निर्भर करती है।
“तो तुम इन चार आने का क्या-क्या कर लेते हो?”
राजा ने उपहास के लहजे में प्रश्न किया।
किसान ने आगे बढ़ते हुए उत्तर दिया, “इन चार आनो में से एक मैं कुएं में डाल देता हूँ, दुसरे से कर्ज चुका देता हूँ, तीसरा उधार में दे देता हूँ और चौथा मिट्टी में गाड़ देता हूँ।”
राजा को किसान का यह उत्तर समझ नहीं आया। वह किसान से इसका अर्थ पूछना चाहता था,लेकिन जा चुका था।
अगले ही दिन राजा ने सभा बुलाई पूरे दरबार में कल की घटना कह सुनाई।
राजा ने सभी दरबारियों से किसान के उस कथन का अर्थ पूछने लगा।
दरबारियों ने अपने-अपने तर्क पेश किये पर कोई भी राजा को संतुष्ट नहीं कर पाया।
अंत में उस किसान को अगले दिन ही दरबार में बुलाने का निर्णय लिया गया।
सैनिकों ने राजा द्वारा बताए पते पर जाकर किसान को अगले दिन की सभा में उपस्थित होने के निर्देश दिए।
राजा का आदेश पाकर किसान अगले दिन नियत समय पर राजदरबार में उपस्थित हो गया।
राजा ने किसान को उस दिन अपने भेष बदल कर भ्रमण करने के बारे में बताया और सम्मान पूर्वक दरबार में बैठाया।
“हे सन्तोषी किसान!मैं तुम्हारे उत्तर से प्रभावित हूँ, और तुम्हारे चार आने का हिसाब जानना चाहता हूँ। बताओ, तुम अपने कमाए चार आने किस तरह खर्च करते हो जो तुम इतना प्रसन्न और संतुष्ट रह पाते हो ?”
राजा ने प्रश्न किया।
किसान बोला, “हुजूर!, जैसा कि मैंने बताया था, मैं एक आना कुएं में डाल देता हूँ, यानि अपने परिवार के भरण-पोषण में लगा देता हूँ, दुसरे से मैं कर्ज चुकता हूँ, यानि इसे मैं अपने वृद्ध माँ-बाप की सेवा में लगा देता हूँ, तीसरा मैं उधार दे देता हूँ, यानि अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में लगा देता हूँ, और चौथा मैं मिटटी में गाड़ देता हूँ, यानि मैं एक पैसे की बचत कर लेता हूँ ताकि समय आने पर मुझे किसी से माँगना ना पड़े, और मैं इसे धार्मिक, सामजिक या अन्य आवश्यक कार्यों में लगा सकूँ।”
राजा अब किसान की बात समझ गए थे,उनकी समस्या का समाधान हो चुका था, वह जान गए थे कि, यदि हमें प्रसन्न,तनाव रहित एवं संतुष्ट रहना है तो हमें भी अपने अर्जित किये धन का सही-सही उपयोग करना होगा।
यँहा विचारणीय है कि………….
……….. पहले की अपेक्षा हमारी आय तो बढ़ी है ,क्या उसी अनुपात में हमारी प्रसन्नता भी बढ़ी है?
पैसों के मामलों में हम कहीं न कहीं गलती कर रहे हैं, जिन्दगी को संतुलित बनाना ज़रूरी है और इसके लिए हमें अपनी आमदनी और उसके इस्तेमाल पर ज़रूर गौर करना चाहिए, नहीं तो भले हम लाखों रूपये कमा लें पर फिर भी प्रसन्न एवं संतुष्ट नहीं रह पाएंगे!

लष्मीकांत

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अति महत्वपूर्ण बातें पूजा से जुड़ी हुई।।
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★ एक हाथ से प्रणाम नही करना चाहिए।
★ सोए हुए व्यक्ति का चरण स्पर्श नहीं करना चाहिए।
★ बड़ों को प्रणाम करते समय उनके दाहिने पैर पर दाहिने हाथ से और उनके बांये पैर को बांये हाथ से छूकर प्रणाम करें।
★ जप करते समय जीभ या होंठ को नहीं हिलाना चाहिए। इसे उपांशु जप कहते हैं। इसका फल सौगुणा फलदायक होता हैं।
★ जप करते समय दाहिने हाथ को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए।
★ जप के बाद आसन के नीचे की भूमि को स्पर्श कर नेत्रों से लगाना चाहिए।
★ संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार और सन्ध्या के समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध हैं।
★ दीपक से दीपक को नही जलाना चाहिए।
★ यज्ञ, श्राद्ध आदि में काले तिल का प्रयोग करना चाहिए, सफेद तिल का नहीं।
★ शनिवार को पीपल पर जल चढ़ाना चाहिए। पीपल की सात परिक्रमा करनी चाहिए। परिक्रमा करना श्रेष्ठ है,
★ कूमड़ा-मतीरा-नारियल आदि को स्त्रियां नहीं तोड़े या चाकू आदि से नहीं काटें। यह उत्तम नही माना गया हैं।
★ भोजन प्रसाद को लाघंना नहीं चाहिए।
★ देव प्रतिमा देखकर अवश्य प्रणाम करें।
★ किसी को भी कोई वस्तु या दान-दक्षिणा दाहिने हाथ से देना चाहिए।
★ एकादशी, अमावस्या, कृृष्ण चतुर्दशी, पूर्णिमा व्रत तथा श्राद्ध के दिन क्षौर-कर्म (दाढ़ी) नहीं बनाना चाहिए ।
★ बिना यज्ञोपवित या शिखा बंधन के जो भी कार्य, कर्म किया जाता है, वह निष्फल हो जाता हैं।
★ शंकर जी को बिल्वपत्र, विष्णु जी को तुलसी, गणेश जी को दूर्वा, लक्ष्मी जी को कमल प्रिय हैं।
★ शंकर जी को शिवरात्रि के सिवाय कुंुकुम नहीं चढ़ती।
★ शिवजी को कुंद, विष्णु जी को धतूरा, देवी जी को आक तथा मदार और सूर्य भगवानको तगर के फूल नहीं चढ़ावे।
★ अक्षत देवताओं को तीन बार तथा पितरों को एक बार धोकर चढ़ावंे।
★ नये बिल्व पत्र नहीं मिले तो चढ़ाये हुए बिल्व पत्र धोकर फिर चढ़ाए जा सकते हैं।
★ विष्णु भगवान को चावल गणेश जी को तुलसी, दुर्गा जी और सूर्य नारायण को बिल्व पत्र नहीं चढ़ावें।
★ पत्र-पुष्प-फल का मुख नीचे करके नहीं चढ़ावें, जैसे उत्पन्न होते हों वैसे ही चढ़ावें।
★ किंतु बिल्वपत्र उलटा करके डंडी तोड़कर शंकर पर चढ़ावें।
★पान की डंडी का अग्रभाग तोड़कर चढ़ावें।
★ सड़ा हुआ पान या पुष्प नहीं चढ़ावे।
★ गणेश को तुलसी भाद्र शुक्ल चतुर्थी को चढ़ती हैं।
★ पांच रात्रि तक कमल का फूल बासी नहीं होता है।
★ दस रात्रि तक तुलसी पत्र बासी नहीं होते हैं।
★ सभी धार्मिक कार्यो में पत्नी को दाहिने भाग में बिठाकर धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न करनी चाहिए।
★ पूजन करनेवाला ललाट पर तिलक लगाकर ही पूजा करें।
★ पूर्वाभिमुख बैठकर अपने बांयी ओर घंटा, धूप तथा दाहिनी ओर शंख, जलपात्र एवं पूजन सामग्री रखें।
★ घी का दीपक अपने बांयी ओर तथा देवता को दाहिने ओर रखें एवं चांवल पर दीपक रखकर प्रज्वलित करें।

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🔴कल आपने एक कालेज के युवकों द्वारा आयोजित नाटक में बताया कि सीता मैया सिगरेट पी रही थीं। क्या आपको सीता मैया को सिगरेट पीते देख कर धक्का नहीं लगा?

खयालीराम! जब तुमको तक धक्का लगा–और तुम केवल खयालीराम हो! न आयाराम, न गयाराम, न जगजीवनराम–खयालीराम! बस खयाल में ही राम हो! तुम तक को धक्का लग गया तो मुझको न लगेगा? अरे मुझको भी लगा। बहुत धक्का लगा। छाती में बिलकुल जैसे कोई छुरा मार दे।
धक्का लगने का कारण था। पहला तो यह कि सीता मैया पनामा सिगरेट पी रही थीं। यह बिलकुल ठीक नहीं। पनामा भी कोई सिगरेट है? न गधा, न घोड़ा–खच्चर समझो। अरे इससे तो बीड़ी भी पीतीं तो कम से कम स्वदेशी! कम से कम गांधी बाबा का सिद्धांत पूरा होता! अब पनामा सिगरेट, न तो बीड़ी, न कोई सिगरेट। कुछ आदमी पीते हैं। आदमी क्या, जिनको पजामा समझो! पनामा सिगरेट! कम से कम सीता मैया को भी पिलानी थी तो पांच सौ पचपन! अमरीकी सिगरेट होती कोई, इंपोर्टेड होती। पांच सौ पचपन सिगरेट का टाइम में विज्ञापन निकलता है–दि टेस्ट ऑफ सक्सेस! सफलता का स्वाद! और सीता मैया से ज्यादा सफल और कौन? अरे राम जी पा गईं, अब और क्या पाने को बचा!
तो जब मुझे पता चला कि पनामा सिगरेट पी रही थीं तो बहुत दुख हुआ। और जिस गाड़ी में से उतरीं, वह भी एंबेसेडर गाड़ी! शर्म भी खाओ! संकोच भी खाओ! सीता मैया को एंबेसेडर गाड़ी में बिठाओगे? चलो धोबियों का बहुत डर भी रहा हो, न बिठालते रॉल्स रॉयस में, क्योंकि धोबी बड़े दुशट! कोई धोबी एतराज उठा दे। धोबियों को तो दिखाई ही पड़ते हैं धब्बे! लोगों की चादरें वगैरह धोते-धोते उनको धब्बे ही धब्बे दिखाई पड़ते हैं। चांद-सूरज में भी जब जिसने पहली दफे धब्बे देखे होंगे, वह धोबी रहा होगा। सीता मैया तक में उनको धब्बे दिखाई पड़े! तो कोई धोबी हो सकता है एतराज उठाता। उठाने दो, धोबियों से क्या बनता-बिगड़ता है!
मगर जब राम जी डर गए थे तो बेचारे कालेज के छोकरे, वे भी डरे होंगे। नहीं तो कम से कम इंपाला तो ले आते। सीता मैया को एंबेसेडर गाड़ी में बिठाया। एंबेसेडर गाड़ी में अगर गर्भवती स्त्री को बिठा लो तो जच्चा-अस्पताल के पहले ही बच्चा हो जाता है। और सीता मैया को दो-दो बच्चे पेट में थे, कुछ तो सोचो! दुख हुआ, बहुत दुख हुआ। छाती में छुरी लग गई!
खयालीराम, तुमने ठीक प्रश्न पूछा। कालेज के नालायक छोकरे ही ऐसा कर सकते हैं–जिनको न भारत के गौरव की कोई समझ है, न धर्म की कोई प्रतिशठा जिनके मन में है। नहीं तो ऐसा कहीं करते हैं!
लेकिन खयालीराम, भारत को थोड़ी क्षमता चाहिए व्यंग्य को समझने की, थोड़ा हंसने की क्षमता चाहिए। भारत भूल ही गया हंसने की कला। यहां बिलकुल चेहरे मातमी हो गए हैं।
तो मैं इस लिहाज से कुछ खुश हुआ कि चलो कुछ बात तो हंसने की हुई। मगर लोग ऐसे मूढ़ हैं कि चढ़ गए मंच पर, फिर उन्होंने न यह देखा कि सीता मैया हैं कि रामचं( जी, पिटाई-कुटाई कर दी। रामचं( जी और सीता मैया की पिटाई-कुटाई! अब यह तो हद्द हो गई! इससे मुझे और भी दुख पहुंचा। पनामा सिगरेट भी ठीक है, चलो एंबेसेडर गाड़ी भी ठीक है। जो हुआ सो हुआ। छोटी-मोटी भूलें थीं। मगर लोगों ने पिटाई कर दी। यह भी न देखा कि अब सीता मैया, कुछ भी हो, हैं तो सीता मैया! रामचं( जी माना कि टाई बांधे हुए थे और सूट पहने हुए थे, यह बात जंचती नहीं; मगर आधुनिक समय में इसमें क्या एतराज हो सकता है? और नाटक का नाम ही था: आधुनिक रामलीला!
मगर गांव के मूढ़, उन्होंने आग लगा दी, मंच जला दिया, परदे फाड़ डाले, पिटाई-कुटाई कर दी। इस बात से भी हमें थोड़ा समझना चाहिए कि इस देश में हंसने की क्षमता चली गई है। हमारा बोध ही चला गया है। हम बस गंभीर ही होना जानते हैं। और गंभीर होना कोई अच्छा लक्षण नहीं है–बीमारी का लक्षण है।
मैंने सुना है, पिकासो ने एक भारतीय की तसवीर बनाई, पोर्ट्रेट बनाया और एक मित्र को दिखाया। मित्र था डाक्टर। आधा घंटे तक देखता रहा। इधर से देखे, उधर से देखे। देखे ही नहीं, तसवीर को दबाए भी। पीछे भी गया तसवीर के।
पिकासो ने कहा: हद्द हो गई! बहुत देखने वाले देखे। तस्वीर के पीछे क्या कर रहे हो? और तस्वीर देखते हो कि दबाते हो?
उसने कहा कि इस आदमी को अपैंडिक्स की बीमारी है। इसके चेहरे से साफ जाहिर हो रहा है। यह बड़े दर्द में है।
पिकासो ने कहा: महाराज, दर्द वगैरह में नहीं है, यह भारतीय है।
यह तो भारतीयों का बिलकुल राशट्रीय लक्षण है कि ऐसे गंभीर रहे आते हैं कि जैसे अपैंडिक्स में दर्द हो, कि प्राण निकले जा रहे हैं। हंसते भी हैं तो इतनी कंजूसी, जिसका हिसाब नहीं।

💐💐💐💐💐ओशो 💐💐💐💐💐
👌👌👌👌रहिमन धागा प्रेम का👌👌👌👌
😢😢😢हंसिबा खेलीबा धरिबा ध्यानम😢😢😢
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Facts – Indian women are second largest smoker in the world after US.

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एक राजा ने किसी सामान्यत: स्वस्थ और संतुलित व्यक्ति को कैद कर लिया था- एकाकीपन का मनुष्य पर क्या प्रभाव होता है, इस अध्ययन के लिए। वह व्यक्ति कुछ समय तक चीखता रहा चिल्लाता रहा। बाहर जाने के लिए रोता था, सिर पटकता था- उसकी सारी सत्ता जो बाहर थी। सारा जीवन तो ‘पर’ से अन्य बंधा था। अपने में तो वह कुछ भी नहीं था। अकेला होना न होने के ही बराबर था। वह धीरे-धीरे टूटने लगा। उसके भीतर कुछ विलीन होने लगा, चुप्पी आ गई। रुदन भी चला गया। आंसू भी सूख गये और आंखें ऐसे देखने लगीं, जैसे पत्थर हों। वह देखता हुआ भी लगता जैसे नहीं देख रहा है।

दिन बीते, वर्ष बीत गया। उसकी सुख सुविधा की सब व्यवस्था थी। जो उसे बाहर उपलब्ध नहीं था, वह सब कैद में उपलब्ध था। शाही आतिथ्य जो था! लेकिन वर्ष पूरे होने पर विशेषज्ञों ने कहा,

‘वह पागल हो गया है।’

ऊपर से वह वैसा ही था। शायद ज्यादा ही स्वस्थ था, लेकिन भीतर?

भीतर एक अर्थ में वह मर ही गया था।

मैं पूछता हूं : क्या एकाकीपन किसी को पागल कर सकता है? एकाकीपन कैसे पागल करेगा? वस्तुत: पागलपन तो पूर्व से ही है। बाह्य संबंध उसे छिपाये थे। एकाकीपन उसे अनावृत कर देते हैं।

मनुष्य को भीड़ में खोने की अकुलाहट उससे बचने के लिए ही है।

प्रत्येक व्यक्ति इसलिए ही स्वयं से पलायन किये हुए है। पर यह पलायन स्वस्थ नहीं कहा जा सकता है। तथ्य को न देखना, उससे मुक्त होना नहीं है। जो नितांत एकाकीपन में स्वस्थ और संतुलित नहीं है, वह धोखे में है। यह आत्मवंचन कभी न कभी खंडित होगी ही और वह जो भीतर है, उसे उसकी परिपूर्ण नग्नता में जानना होगा। यह अपने आप अनायास हो जाए, तो व्यक्तित्व छिन्न-भिन्न और विक्षिप्त हो जाता है। जो दमित है, वह कभी न कभी विस्फोट को भी उपलब्ध होगा।

धर्म इस एकाकीपन में स्वयं उतरने का विज्ञान है। क्रमश: एक-एक परत उघाड़ने पर अद्भुत सत्य का साक्षात होता है। धीरे-धीरे ज्ञात होता है कि वस्तुत: हम अकेले ही हैं। गहराई में, आंतरिकता के केंद्र पर प्रत्येक एकाकी है। परिचित होते ही भय की जगह अभय और आनंद ले लेता है। एकाकीपन के घेरे में स्वयं सच्चिदानंद विराजमान है।

अपने में उतरकर स्वयं प्रभु को पा लिया जाता है। इससे कहता हूं- अकेलेपन से, अपने से भागो मत, वरन अपने में डूबो। सागर में डूब कर ही मोती पाये जाते हैं।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

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इंसान ने एक दिन भगवान् से पूछा :-
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“मेरी पूजा-आराधना का उसी समय फल
क्यों नहीं देते, जब मैं मांगता हूँ !!!”
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भगवान् ने हौले से मुस्कुराते उत्तर दिया :-
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” मैं तो तेरे पापों की सजा भी उसी समय
नहीं देता जब तू पाप करता है
सोचता हूं कोई भूल हुई हो तो सूधार लो !!!

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मैं जापान घूमने गया चारों तरफ मछली का मांस लटक रहा था, मैं क्या खाऊँ कैसे खाऊँ… हाथ पर हाथ रखकर आँखे भारी करते हुए दयानंद सरस्वती बोले…

एक दिन भूखा बीता दूसरा बीता तीसरा भी बीता पर खाने को कुछ नही मिला जापान
दुकानों पर शाकाहार का नाम लेते ही लोग हँसकर मना कर देते थे, तभी एक छोटी सी फ्रुट स्टॉल पर एक 12 साल का बच्चा बैठा था, मैंने कहा – बच्चे मेरी हालत खराब है कुछ शाकाहार खाने को मिल जाये तो बच्चे ने तुरंत फल आगे किये और कही से जोङ तोङ जुगाङकर दाल चावल ले आया…

मैंने पेट भर खाया अब मैं भारत आने के लिये उर्जा से परिपूर्ण था, मैंने बच्चे को पैसे दिये बच्चे ने मना कर दिया मैंने कहा कीमत तो लेनी होगी तुम्हें, क्योंकि मैं भारतीय हूँ और ऐसे ही मुफ्त का खाना नही खा सकता..

बच्चे ने कहा ठीक है तो आप मुझे मुहमाँगी कीमत देने का वादा करो दयानंदजी ने वादा कर दिया..

बच्चा बोला- “यही कीमत अदा कर देना कि अपने भारत में जाकर ये ना कहना कि आपको मेरे जापान में तीन दिन भूखा रहना पड़ा”

स्वामीजी की आँखे नम हो उठीं..

काश आज मेरे भारत के लोगों में भी होता ऐसा #स्वाभिमान, तो हम भी आज दुनिया किसी महाशक्ति से पीछे ना होते..

विक्रम प्रकाश राइसोनय

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नेताजी कल तो हम चुनाव प्रचार पर थे

एक नेता मरने के बाद यमपुरी पहुँच गया वहां यमराज ने उसका भव्य स्वागत किया, यमराज ने कहा इससे पहले कि मैं आपको स्वर्ग या नरक भेजूं पहले मैं चाहता हूँ कि आप दोनों जगहों का मुआयना कर लें कि आपके लिए कौन सी जगह ज्यादा अनुकूल होगी!
यमराज ने यमदूत को बुलाया और कहा कि नेता जी को एक दिन के लिए नरक लेकर जाओ और फिर एक दिन स्वर्ग घुमा कर वापिस मेरे पास ले आना, यमदूत नेता को नरक में ले गया नेता तो नरक कि चकाचौंध देखकर हैरान रह गया चारों तरफ हरी भरी घास और बीच में गोल्फ खेलने का मैदान, नेता ने देखा उसके सभी दोस्त वहां घास के मैदानों में शांति से बैठे है और कुछ गोल्फ खेलने का आनंद ले रहे हैं, उन्होंने जब उसे देखा तो वे बहुत खुश हुए और सब उससे गले मिलने आ गए और, बीते हुए दिनों कि बातें करने लगे पूरा दिन उन्होंने साथ में गोल्फ खेला, और रात में शराब और मछली का आनंद लिया!

अगले दिन यमदूत नेता को स्वर्ग लेकर गया जैसे ही वे स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे स्वर्ग का दरवाजा खुला, नेता ने देखा रोशनी से भरा दरबार था स्वर्ग का! सभी लोगों के चेहरे पर असीम शांति कोई भी एक दूसरे से बात नहीं कर रहे थे, मधुर संगीत बज रहा था, कुछ लोग बादलों के ऊपर तैर रहे थे नेता ने देखा सभी लोग अपने अपने कार्यों में व्यस्त थे, नेता उन सब को गौर से देख रहा था नेता ने बड़ी मुश्किल से एक दिन काटा!

सुबह जब यमदूत उसे लेकर यमराज के पास पहुंचा तो यमराज ने कहा हाँ तो नेताजी आपने अपना एक दिन नरक में गुजारा और एक स्वर्ग में, अब आप अपने लिए स्थान चुनिए जहाँ आप को भेजा जाये

नेता ने कहा वैसे तो स्वर्ग में बड़ा आनंद है, शांति है फिर भी वहां मेरे लिए समय काटना मुश्किल है, इसलिए आप मुझे नरक भेजिए वहां मेरे सभी साथी भी है, मैं वहां आनंद से रहूँगा यमराज ने उसे नरक भेज दिया

यमदूत उसे लेकर जैसे ही नरक पहुंचा तो वहां का दृश्य देखकर स्तब्ध रह गया वो एक बिलकुल बंजर भूमि पर उतरा, जहाँ चारों ओर कूड़े करकट का ढेर लगा था, उसने देखा उसके सभी दोस्त फटे हुए गंदे कपड़ों में कबाड़ इकट्ठा कर रहे थे, वो थोड़ा परेशान हुआ और तभी यमदूत ने डरावनी हंसी हँसते हुए कहा, नेताजी क्या हुआ?

नेता ने कहा मुझे समझ नहीं आ रहा है कि कल जब मैं यहाँ आया था तो यहाँ घास के हरे भरे मैदान थे, और मेरे सभी दोस्त गोल्फ खेल रहे थे फिर हमने साथ बैठकर शराब पी और मछली खायी थी और हमने खूब मस्तियाँ की थी आज यहाँ पर बंजर भूमि है, कूड़े करकट के ढेर है और मेरे दोस्तों का तो हाल ही बुरा है

यमदूत हल्की सी हंसी के साथ बोला नेताजी कल तो हम चुनाव प्रचार पर थे आज तो आपने हमारे पक्ष में मतदान कर दिया है…

विक्रम प्रकाश राइसोनय