एकोहं द्वितीयोनास्ति
ॐ नमः शिवाय !
आप सभी का दिवस बरस
मंगलमय हो,,,
समस्त मनोकामनायें पूर्ण हों,,,,,
” रौद्र रुद्र ब्रह्मांड प्रलयति,
प्रलयति प्रलेयनाथ केदारनाथम्”
केदारनाथ के मार्ग मेँ यह लिखा है।
इसका भावार्थ यह है कि जो रुद्र अपने
रौद्र रुप से संपूर्ण ब्रह्मांड को भस्म कर
देने की सामर्थ्य रखते हैँ वही भगवान
रुद्र यहाँ केदारनाथ के रुप मेँ निवास
करते हैँ।
“एकोहं द्वितीयोनास्ति” अर्थात जहां
और कोई नही है,,,हैं तो सिर्फ शिव
और साक्षात् शिव।
संपूर्ण भारतीय सनातन संस्कृति में
शिव अकेले ऐसे देवता हैं जो निर्गुट हैं,
गुट निरपेक्ष हैं।
देव-दानव, सुर-असुर दोनों को उनमें
विश्वास है,भरोसा है।
राक्षस भी उन्हें पूजते रहे हैं और
आर्य जन भी।
चाहे दक्षिण भारत हो,उत्तर हो या पूर्व
या पश्चिम,शिव हर जगह समान रूप
से पूजित हैं।
हर पूजा के पहले और हर युद्ध के पहले
भारतीय पौराणिक इतिहास में दोनों ही
पक्ष शिव को पूजते मिल जाते हैं।
राम ने रावण पर विजय पाने के लिए पहले
इन्हीं शिव की पूजा की तो रामेश्वरम बना
और रावण ने तो कैलाश उठाकर लंका ले
जाने की ठानी थी पर शिव की शर्त थी कि
जहां तुम मुझे रख दोगे बस मैं वहीं का हो
जाऊंगा..अंततः वह असफल हुआ।
शिव जो सचमुच तीनों लोकों के स्वामी हैं।
वे अकेले समुद्र मंथन से निकला हलाहल
पीते हैं ताकि देव-दानव उसके दुष्प्रभाव
से बचे रहें।
शिव डमरू बजाते हैं तो प्रलय होती है।
लेकिन प्रलयंकारी इसी डमरू से संस्कृत
व्याकरण के 14 सूत्र निकलते हैं।
इन्हीं माहेश्वर सूत्रों से दुनिया की कई
भाषाओं का जन्म हुआ।
आज पर्यावरण बचाने की चिंता
विश्वव्यापी है।
शिव पहले पर्यावरण प्रेमी हैं।
वे पशुपति हैं।
निरीह पशुओं के रक्षक हैं।
शिव ने बूढ़े बैल नंदी को अपना वाहन बनाया।
सांड को अभयदान दिया।
जंगल काटने से बेदखल सांपों को अपने
गले में आश्रय दिया।
कोई गृहविहीन उपेक्षितों को गले नहीं
लगाता लेकिन शिव ने उन्हें गले लगाया।
श्मशान,मरघट में कोई नहीं रुकता पर
शिव तो अलबेले ठहरे,मरघट और श्मशान
को अपना निवास बनाया।
जिस कैलाश पर ठहरना मुश्किल है वहां
न तो प्राणवायु है,न कोई वनस्पति वहां
उन्होंने धूनी रमाई।
दूसरे सारे देवता अपने शरीर पर सुगंधित,
सुवासित द्रव्य लगाते हैं पर शिव केवल
भभूत।
उनमें रत्ती भर लोक-दिखावा नहीं है।
बाकी के देवता रत्नजटित,स्वर्ण के आभूषण और बेशकीमती परिधान
पहनते हैं लेकिन शिव का काम तो
महज व्याघ्रचर्म से चल जाता है।
अचरज की बात कि शिव उसी रूप में
विवाह के लिए जाते हैं जिसमें वे हमेशा
रहते हैं।
वे साकार भी हैं,निराकार भी।
शिव न्यायप्रिय हैं।
मर्यादा तोडऩे के लिए दंड देते हैं।
काम बेकाबू हुआ तो उन्होंने उसे भस्म
कर दिया।
अगर किसी ने अति की तो उसे ठीक करने
के लिए उनके पास तीसरी आंख भी है।
हमेँ शिव के संतुलन रुप पर ध्यान देना चाहिये।
अपने भीतर तो संतुलन लाना ही चाहिये,
साथ ही प्रकृति के संतुलन को भी बनाये
रखने का प्रयास करना चाहिये,पर्यावरण
की सुरक्षा कर इस संतुलन को बनाये रख
सकते हैँ,
अर्थात् एक वृक्ष कटने पर कम से कम
एक वृक्ष तो अवश्य लगाना चाहिये
अन्यथा जीवन का लय प्रलय मेँ
बदल जायेगा।
लय और प्रलय दोनोँ के स्वामी
भगवान शिव,
परस्पर विरोधी शक्तियोँ के बीच सामंजस्य
एवं संतुलन बनाये रखने के सुन्दरतम प्रतीक है,जो प्राणियोँ को जीवन मेँ
संतुलन बनाये रखने के लिये प्रेरित
करते हैँ।
किन्तु प्राणी इसके विपरित आचरण से
इसे असंतुलित करके प्राकृतिक आपदा
एवं प्रलय को आमंत्रित करते हैँ।
प्रकृति मेँ संतुलन साधना ही शिवत्व है,
शिवतत्व है।
अर्थात् आप एक पेड़ काटते हैँ तो कम
से कम एक पेड़ अवश्य लगायेँ।
लय और प्रलय दोनोँ शिव के अधीन हैँ।
शिव का अर्थ है सुन्दर एवं कल्याणकारी,
मंगल का मूल और अमंगल का उन्मूलन।
शिव के दो रुप हैँ,सौम्य एवं रौद्र।
जब शिव अपने सौम्य रुप मेँ होते हैँ
तो प्रकृति मेँ लय बनी रहती है।
रौद्र रुप मेँ प्रकृति मेँ प्रलय होता है।
पुराणों में शिव कि पुरुष (उर्जा) और
प्रकृति का पर्याय माना गया है अर्थात
प्रकृति एवं पुरुष का सम्यक संतुलन ही
आकाश,पदार्थ,ब्रह्माण्ड और उर्जा को
नियंत्रित रखते हुए गतिमान बनाये
रखता है।
प्रकृति में जो कुछ भी है आकाश,पाताल,
पृथ्वी,अग्नि,वायु,सबमें संतुलन बनाये
रखना ही शिवत्व है,,शिव तत्व है।
परस्पर विरोधी शक्तियोँ के बीच
सामंजस्य एवं संतुलन बनाये रखने
के सुन्दरतम प्रतीक है शिव।
शिव का जो प्रचलित रूप है वह है शीश
पर चन्द्रमा,गले में अत्यंत विषैला नाग।
चन्द्रमा आदि काल से शीतलता परदान
करने वाला माना जाता रहा है किन्तु नाग
अपने विष की एक बूँद से ही किसी को
काल कवलित कर देता है।
कैसा अद्भुत संतुलन है इन दोनों के बीच ?
शिव अर्द्धनारीश्वर हैं,पुरुष और प्रकृति
(स्त्री) का सम्मिलित रूप।
ये अर्द्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं,
काम पर विजय प्राप्त करने वाले और क्रोध
की ज्वाला में काम को भस्म कर देने वाले।
प्रकृति अर्थात उमा अर्थात पार्वती इनकी
पत्नी हैं,लेकिन वीतरागी हैं।
शिव गृहस्थ होते हुए भी श्मशान में रहते हैं,
अर्थात कामऔर संयम का सम्यक संतुलन,
भोग भी है वैराग भी है,
शक्ति भी है,विनयशीलता भी है।
आसक्ति इतनी कि पत्नी उमा के यग्य वेदी
में कूदजाने पर उनके शव को शोक में काँधे
पर लेकर तांडव करने लगते हैं।
विरक्ति इतनी कि काम देव द्वारा प्रेरित किये
जाने पर भी उसे भस्म कर पुनः ध्यान रत हो
जाते हैं।
वेदों में शिव को रूद्र ही कहा गया है,वेदों के बाद
रचे गए पुराणों और उपनिषदों में रूद्र का नाम
शिव हो गया।
वस्तुतः प्रकृति और पुरुष के बीच असंतुलन उत्पन्न
होने के परिणामस्वरूप रूद्र स्वरुप प्रगट होता है,
प्रकृति मेंजहाँ कहीं भी मानव असंतुलन की ओर
अग्रसर हुआ हैतब तब शिव ने रौद्र रूप धारण
किया है।
लय और प्रलय में संतुलन रखने वाली प्रकृति में
आई प्राकृतिक आपदाएं शिव का रौद्र रूप ही है।
इसी लय को बनाये रखने के लिए हमारी सनातन
परंपरा में वृक्षों,,नदियों एवं समस्त प्राकृतिक
वनस्पतियों के पूजन की सनातन परंपरा रही है ताकि ,,,
प्राकृतिक संतुलन बना रहे,,,
प्रलय ना हो।
आदिगुरू श्री शंकराचार्य द्वारा रचित यह
शिवस्तव वेद वर्णित शिव की स्तुति प्रस्तुत
करता है।
शिव के रचयिता,पालनकर्ता एव विलयकर्ता
विश्वरूप का वर्णन करता यह स्तुति संकलन
करने योग्य है।
पशूनां पतिं पापनाशं परेशं
गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्।
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्॥
महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्॥
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं
गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्।
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्॥
शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले
महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्।
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप॥
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं
निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥
न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायु-
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा।
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे॥
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्।
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्॥
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते।
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः॥
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्।
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि॥
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ।
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन्॥
(हे शिव आप) जो प्राणिमात्र के स्वामी एवं
रक्षक हैं,पाप का नाश करने वाले परमेश्वर हैं,
गजराज का चर्म धारण करने वाले हैं,श्रेष्ठ एवं
वरण करने योग्य हैं,जिनकी जटाजूट में गंगा
जी खेलती हैं, उन एक मात्र महादेव को बारम्बार
स्मरण करता हूँ|
हे महेश्वर, सुरेश्वर,देवों (के भी) दु:खों का नाश
करने वाले विभुं विश्वनाथ (आप)विभुति धारण
करने वाले हैं,सूर्य,चन्द्र एवं अग्नि आपके तीन
नेत्र के सामान हैं।
ऎसे सदा आनन्द प्रदान करने वाले पञ्चमुख
वाले महादेवमैं आपकी स्तुति करता हूँ।
(हे शिव आप) जो कैलाशपति हैं,गणों के स्वामी,
नीलकंठ हैं,(धर्म स्वरूप वृष) बैल की सवारी करते
हैं,अनगिनत गुण वाले हैं, संसार के आदि कारण हैं,
प्रकाश पुंज सदृश्य हैं,भस्मअलंकृत हैं,जो भवानिपति
हैं,उन पञ्चमुख (प्रभु) को मैं भजता हूँ।
हे शिवा (पार्वति) पति, शम्भु! हे चन्द्रशेखर! हे
महादेव !
आप त्रीशूल एवं जटाजूट धारण करने वाले हैं।
हे विश्वरूप ! सिर्फ आप ही स्मपुर्ण जगद में
व्याप्त हैं।
हे पूर्णरूप आप प्रसन्न हों,प्रसन्न हों।
हे एकमात्र परमात्मा! जगत के आदिकारण!
आप इक्षारहित,निराकार एवं ॐकार स्वरूप
वाले हैं।
आपको सिर्फ प्रण (ध्यान) द्वारा ही जान जा
सकता है।
आपके द्वारा ही सम्पुर्ण सृष्टी की उतपत्ति होती
है,आपही उसका पालन करते हैं तथा अंतत:
उसका आप में ही लय हो जाता है।
हे प्रभू मैं आपको भजता हूँ।
जो न भुमि हैं,न जल,न अग्नि,न वायु और न ही
आकाश,-अर्थात आप पंचतत्वों से परे हैं।
आप तन्द्रा,निद्रा,गृष्म एवं शीत से भी अलिप्त हैं।
आप देश एव वेश की सीमा से भी परे हैं।
हे निराकार त्रिमुर्ति मैं आपकी स्तुति करता हूँ।
हे अजन्मे (अनादि),आप शाश्वत हैं,नित्य हैं,कारणों
के भी कारण हैं।
हे कल्यानमुर्ति (शिव) आप ही एक मात्र प्रकाश कों
को भी प्रकाश प्रदान करने वाले हैं।
आप तीनो अवस्थाओं से परे हैं।
हे आनादि,अनंत आप जो कि अज्ञान से परे हैं,आपके
उस परम् पावन अद्वैत स्वरूप को नमस्कार है।
हे विभो,हे विश्वमूर्ते आपको नमस्कार है,
नमस्कार है।
हे सबको आनन्द प्रदान करने वाले सदानन्द
आपको नमस्कार है,नमस्कार है।
हे तपोयोग ज्ञान द्वारा प्राप्त्य आपको नमस्कार
है, नमस्कार है।
हे वेदज्ञान द्वारा प्राप्त्य (प्रभु) आपको नमस्कार है,
नमस्कार है।
हे त्रिशूलधारी ! हे विभो विश्वनाथ ! हे महादेव !
हे शंभो ! हे महेश ! हे त्रिनेत्र ! हे पार्वतिवल्लभ !
हे शान्त ! हे स्मरणिय ! हे त्रिपुरारे !
आपके समक्ष न कोई श्रेष्ठ है,न वरण करने योग्य है,
न मान्य है और न गणनीय ही है।
हे शम्भो! हे महेश ! हे करूणामय !
हे शूलपाणे !
हे गौरीपति! हे पशुपति !
हे काशीपति !
आप ही सभी प्रकार के पशुपाश
(मोह माया) का
नाश करने वाले हैं।
हे करूणामय आप ही इस जगत के उत्तपत्ति,
पालन एवं संहार के कारण हैं।
आप ही इसके एकमात्र स्वामि हैं।
हे चराचर विश्वरूप प्रभु,आपके लिंगस्वरूप से ही
सम्पुर्णजगत अपने अस्तित्व में आता है (उसकी
उत्पत्ती होती है),
हे शंकर ! हे विश्वनाथ अस्तित्व में आने के उपरांत
यह जगत आप में ही स्थित रहता है –
अर्थात आप ही इसका पालन करते हैं।
अंतत: यह सम्पुर्ण सृष्टिआप में ही लय हो
जाती है।
$#साभार_संकलित●
समस्त चराचर प्राणियों एवं सकल विश्व
का कल्याण करो प्रभु !!
नमः सर्वहितार्थाय जगदाधारहेतवे।
साष्टाङ्गोऽयं प्रणामस्ते
प्रयत्नेन मया कृतः।।
पापोऽहं पापकर्माहं
पापात्मा पापसम्भवः।
त्राहि मां पार्वतीनाथ
सर्वपापहरो भव।।
ॐ भूर्भुवः स्वः
श्रीनर्मदेश्वरसाम्बसदाशिवाय नमः
प्रार्थनापूर्वक नमस्कारान् समर्पयामि
ॐ पार्वतीपतये नमः
ॐ नमः शिवाय
जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,,
जयति पुण्य भूमि भारत,,,
सदा सर्वदा सुमंगल,,
ॐ नमः शिवाय,
कष्ट हरो,,काल हरो,,
दुःख हरो,,दारिद्रय हरो,,
हर,,हर,,महादेव,,
जयमहाकाल
जय भवानी
जय श्री राम,,, — at Bichiya,Gorakhpur.
विजय कृष्णा पांडेय
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