बुद्ध के जीवन में उल्लेख है अंगुलीमाल का। एक आदमी जो नाराज हो गया सम्राट से और उसने घोषणा कर दी कि वह एक हजार आदमियों की गर्दन काटकर उनकी अंगुलियों की माला बनाकर पहनेगा। उसका नाम ही अंगुलमाल हो गया। उसका असली नाम ही भूल गया। उसने लोगों को मारना शुरू कर दिया। वह बड़ा मजबूत आदमी था, खूंखार आदमी था। वह राजधानी के बाहर ही एक पहाड़ी पर अड्डा जमाकर बैठ गया। जो वहां से गुजरता उसको काट देता, उसकी अंगुलियों की माला बना लेता। वह रास्ता चलना बंद हो गया। औरों की तो बात छोड़ो राजा के सैनिक और सिपाही भी उस रास्ते से जाने को राजी नहीं थे। राजा खुद थर—थर कांपता था।
नौ सौ निन्यानबे आदमी उसने मार डाले, वह हजारवें की तलाश कर रहा था। उसकी मां भर उसको मिलने जाती थी, अब तो वह भी डरने लगी। लोगों ने उससे पूछा कि अब तू नहीं जाती अंगुलीमाल को मिलने? उसने कहा: अब खतरा है; अब उसको एक की ही कमी है। अब वह किसी को भी मार सकता है। वह मुझे भी मार सकता है। वह बिलकुल अंधा है। उसको हजार पूरे करने ही हैं। पिछली बार उसकी आंखों में मैंने जो देखा तो मुझे लगा अब यहां आना खतरे से खाली नहीं है। पिछली बार मैंने उसकी आंखों में शुद्ध पशुता देखी। अब मेरी जाने की हिम्मत नहीं पड़ती।
और तभी बुद्ध का आगमन हुआ उस राजधानी में और वे उसी रास्ते से गुजरने वाले थे, लोगों ने रोका कि वहां न जाएं क्योंकि वहां अंगुलीमाल है। आपने सुना होगा, वह हजार आदमियों की गर्दन काटने की कसम खा चुका है। नौ सौ निन्यानबे मार डाले उसने, एक की ही कमी है। उसकी मां तक डरती है। तो वह आपको भी छोड़ेगा नहीं। उसको क्या लेना बुद्ध से और गैर—बुद्ध से।
बुद्ध ने कहा: अगर मुझे पता न होता तो शायद मैं दूसरे रास्ते से भी चला गया होता लेकिन अब जब तुमने मुझे कह ही दिया कि वह ही आदमी की प्रतीक्षा में बैठा है… उसका भी तो कुछ ख्याल करना पड़ेगा। कितना परेशान होगा। जब उसकी मां भी नहीं जा रही और रास्ता बंद हो गया है तो उसकी प्रतिज्ञा का क्या होगा? मुझे जाना ही होगा। और फिर इस आदमी की सम्भावना अनंत है। जिसमें इतना क्रोध है, इतनी प्रज्वलित अग्नि है; जिसमें इतना साहस है, इतना अदम्य साहस है कि सम्राट के सामने, राजधानी के किनारे बैठकर नौ सौ निन्यानबे आदमी मार चुका है और सम्राट बाल बांका नहीं कर सके। वह आदमी साधारण नहीं है, उसके भीतर अपूर्व ऊर्जा है, उसके भीतर बुद्ध होने की सम्भावना है।
बुद्ध के शिष्य भी उस दिन बहुत घबड़ाये हुए थे। रोज तो साथ चलते थे, साथ ही क्यों चलते थे प्रत्येक में होड़ होती थी कि कौन बिलकुल करीब चले, कौन बिलकुल बायें—दायें चले। मगर उस दिन हालत और हो गयी, लोग पीछे—पीछे सरकने लगे। और जैसे—जैसे अंगुलीमाल की पहाड़ी दिखाई शुरू हुई कि शिष्यों और बुद्ध के बीच फलाँगों का फासला हो गया। शिष्य ऐसे घसटने लगे जैसे उनके प्राणों में प्राण ही नहीं रहे, श्वासों में श्वास नहीं रही, पैरों में जाने नहीं रही।
बुद्ध अकेले ही पहुंचे। अंगुलीमाल तो बहुत प्रसन्न हुआ कि कोई आ रहा है। लेकिन जैसे—जैसे बुद्ध करीब आये, बुद्ध की आभा करीब आयी…गुरु—परताप साध की संगति…वह सद्गुरु की आभा करीब आयी वैसे—वैसे अंगुलीमाल के मन में एक चमत्कृत कर देने वाला भाव उठने लगा कि नहीं इस आदमी को नहीं मारना। अंगुलीमाल चौंका; ऐसा उसे कभी नहीं हुआ था। उसने गौर से देखा, देखा भिक्षु है, पीत वस्त्रों में। सुंदर है, अद्वितीय है। उसके चलने में भी एक प्रसाद है। नहीं—नहीं, इसको नहीं मारना। मगर अंगुलीमाल का पशु भी बल मारा। उसने कहा: ऐसे छोड़ते चलोगे तो हजार कैसे पूरे होंगे? द्वंद्व उठा भारी, चिंता उठी भारी—क्या करूं, क्या न करूं? मगर जैसे बुद्ध करीब आने लगे, वैसे अंगुलीमाल की अंतरात्मा से एक आवाज उठने लगी कि नहीं—नहीं, यह आदमी मारने योग्य नहीं है। यह आदमी सत्संग करने योग्य है। यह आदमी पास बैठने योग्य है।
तुम अंगुलीमाल की मुसीबत समझ सकते हो। एक तो उसका व्रत, उसकी प्रतिज्ञा, और एक इस आदमी का आना जिसको देखकर उसके भीतर अपूर्व प्रेम उठने लगा, प्रीति उठने लगी। द्वंद्व तो हुआ होगा , बहुत द्वंद्व हुआ होगा, महाद्वंद्व हुआ होगा, तुमुलनाद छिड़ गया होगा, महाभारत छिड़ गया होगा उसके भीतर। एक उसके जीवन—भर की आदत, संस्कार और यह एक बिलकुल नयी बात, एक नयी किरण, एक नया फूल खिला, जहां कभी फूल नहीं खिले थे।
जैसे बुद्ध करीब आने लगे कि वह चिल्लाया कि बस रुक जाओ, भिक्षु वहीं रुक जाओ। शायद तुम्हें पता नहीं कि मैं अंगुलीमाल हूं, मैं सचेत कर दूं। मैं आदमी खतरनाक हूं, देखते हो मेरे गले में यह माला, यह नौ सौ निन्यानबे आदमियों की अंगुलियों की माला है! देखते हो मेरा वृक्ष जिसमें मैंने नौ सौ निन्यानबे आदमियों की खोपड़ियां टांग रखी हैं? सिर्फ एक की कमी है, मेरी मां ने भी आना बंद कर दिया है। मैं अपनी मां को भी नहीं छोड़ूंगा, अगर वह आएगी तो उसकी गर्दन काट लूंगा मगर मेरी हजार की प्रतिज्ञा मुझे पूरी करनी है, मैं क्षत्रियों हूं।
बुद्ध ने कहा: क्षत्रिय मैं भी हूं। और तुम अगर मार सकते हो तो मैं मर सकता हूं। देखें कौन जीतता है!
ऐसा आदमी अंगुलीमाल ने नहीं देखा था। उसने दो तरह के आदमी देखे थे। एक—जो उसे देखते ही भाग खड़े होते थे, पूंछ दबाकर और एकदम निकल भागते थे; दूसरे—जो उसे देखते ही तलावार तलवार निकाल लेते थे। यह एक तीसरे ही तरह का आदमी था। न इसके पास तलवार है, न यह भाग रहा है। करीब आने लगा। अंगुलीमाल का दिल थरथराने लगा। उसने कहा कि देखो भिक्षु, मैं फिर से कहता हूं रुक जाओ, एक कदम और आगे बढ़े कि मेरा यह फरसा तुम्हें दो टुकड़े कर देगा।
बुद्ध ने कहा: अंगुलीमाल, मुझे रुके तो वर्षों हो गये, अब तू रुक।
अंगुलीमाल ने तो अपना हाथ सिर से मार लिया। उसने कहा: तुम पागल भी मालूम होते हो। मुझ बैठे हुए को कहते हो तू रुक, और अपने को, खुद चलते हुए को, कहते हो मुझे वर्षों हो गये रुके हुए!
बुद्ध ने कहा: शरीर का चलना कोई चलना नहीं, मन का चलना चलना है। मेरा मन चलता नहीं। मन की गति खो गयी है। वासना खो गयी है। मांग खो गयी है। कोई ईच्छा नहीं बची। कोई विचार नहीं रहा है। मन के भीतर कोई तरंगें नहीं उठतीं। इसलिए मैं कहता हूं कि अंगुलीमाल मुझे रुके वर्षों हो गये, अब तू भी रुक।
और कोई बात चोट कर गयी तीर की तरह अंगुलीमाल के भीतर। बुद्ध करीब आये, अंगुलीमाल बड़ी दुविधा में पड़ा करे क्या! मारे बुद्ध को कि न मारे बुद्ध को?
बुद्ध ने कहा: तू चिंता में न पड़, संदेह में न पड़ दुविधा में न पड़; मैं तुझे परेशानी में डालने नहीं आया। तू मुझे मार, तू अपनी हजार की प्रतिज्ञा पूरी कर ले। मुझे तो मरना ही होगा—आज नहीं कल, कल नहीं परसों। आज तू मार लेगा तो तेरी प्रतिज्ञा पूरी हो जाएगी, तेरे काम आ जाऊंगा। और फिर कल तो मरूंगा ही। मरना तो है ही। किसी की प्रतिज्ञा पूरी नहीं होगी, किसी के काम नहीं आऊंगा। जिंदगी काम आ गयी, मौत भी काम आ गयी; इससे ज्यादा शुभ और क्या हो सकता है! तू उठा अपना फरसा, मगर सिर्फ एक शर्त।
अंगुलीमाल ने कहा: वह क्या शर्त?
बुद्ध ने कहा: पहले तू यह वृक्ष से एक शाखा तोड़ कर मुझे दे दे। अंगुलीमाल ने फरसा उठाकर वृक्ष से एक शाखा काट दी। बुद्ध ने कहा: बस, आधी शर्त पूरी हो गयी, आधी और पूरी कर दे—इसे वापिस जोड़ दे।
अंगुलीमाल ने कहा: तुम निश्चित पागल हो। तुम अद्भुत पागल हो। तुम परमहंस हो मगर पागल हो। टूटी शाखा को कैसे मैं जोड़ सकता हूं
तो बुद्ध ने कहा: तोड़ना तो बच्चे भी कर सकते हैं, जोड़ने में कुछ कला है। अब तू मेरी गर्दन काट मगर गर्दन जोड़ सकेगा एकाध की? नौ सौ निन्यानबे गर्दनें काटीं, एकाध जोड़ सका? काटने में क्या रखा है अंगुलीमाल, यह तो कोई भी कर दे, कोई भी पागल कर दे। मेरे साथ आ, मैं तुझे जोड़ना सिखाऊं। मौत में क्या रखा है, मैं तुझे जिंदगी सिखाऊं। देह में क्या रखा है, मैं तुझे आत्मा सिखाऊं। ये छोटी—मोटी प्रतिज्ञाओं में, अहंकारों में क्या रखा है, मैं तुझे महा प्रतिज्ञा का पूरा होना सिखाऊं। मैं तुझे बनाऊं। मैं आया ही इसलिए हूं कि या तो तू मुझे मारेगा या मैं तुझे मारूंगा। निर्णय होना है, या तो तू मुझे मार या मैं तुझे मारूं।
अंगुलीमाल बुद्ध पर हाथ नहीं उठा सका। उसका फरसा गिर गया। वह बुद्ध के चरणों में गिर गया। उसने कहा: मुझे दीक्षा दें। आदमी मैंने बहुत देखे मगर तुम जैसा आदमी नहीं देखा। मुझे दीक्षा दें। बुद्ध ने उसे तत्क्षण दीक्षा दी। और कहा आज से तेरा व्रत हुआ—करुणा। उसने कहा: आप भी मजाक करते हैं, मुझ क्रोधी को करुणा! बुद्ध ने कहा: तुझ जैसा क्रोधी जितना बड़ा करुणावान हो सकता है उतना कोई और नहीं।
गांव भर में खबर फैल गयी, दूर—दूर तक खबरें उड़ गयीं कि अंगुलीमाल भिक्षु हो गया है। खुद सम्राट प्रसेनजित, बुद्ध के दर्शन को तो नहीं आया था लेकिन यह देखने आया कि अंगुलीमाल भिक्षु हो गया है तो बुद्ध के दर्शन भी कर आऊं और अंगुलीमाल को भी देख आऊं कि यह आदमी है कैसा, जिसने थर्रा रखा था राज्य को! उसने बुद्ध के चरण छुए और उसने फिर बुद्ध को पूछा कि मैंने सुना है भन्ते कि वह दुष्ट अंगुलीमाल, वह महाहत्यारा अंगुलीमाल, आपका भिक्षु हो गया, मुझे भरोसा नहीं आता। वह आदमी और संन्यासी हो जाए, मुझे भरोसा नहीं आता।
बुद्ध ने कहा: भरोसा, नहीं भरोसे का सवाल नहीं। यह मेरे दायें हाथ जो व्यक्ति बैठा है जानते हो यह कौन है? अंगुलीमाल है। अंगुलीमाल पीत वस्त्रों में बुद्ध के दायें हाथ पर बैठा था। जैसे ही बुद्ध ने यह कहा कि अंगुलीमाल है, प्रसेनजित ने अपनी तलवार निकाल ली घबड़ाहट के कारण।
बुद्ध ने कहा: अब तलवार भीतर रखों; यह वह अंगुलीमाल नहीं जिससे तुम परिचित हो, तलवार की कोई जरूरत नहीं है। तुम घबड़ाओ मत, कंपो मत, डरो मत; अब यह चींटी भी नहीं मारेगा; इसने करुणा का व्रत लिया है।
और जब पहले दिन अंगुलीमाल भिक्षा मांगने गया गांव में तो जैसे लोग सदा से रहे हैं—छोटे, ओछे, निम्न; जैसी भीड़ सदा से रही है—मूढ़, जो अंगुलीमाल से थर—थर कांपते थे उन सबने अपने द्वार बंद कर लिए, उसे कोई भिक्षा देने को तैयार नहीं। नहीं इतना, लोगों ने अपनी छतों पर, छप्परों पर पत्थरों पर पत्थरों के ढेर लगा लिए और वहां से पत्थर मारे अंगुलीमाल को। इतने पत्थर मारे कि यह राजपथ पर लहूलुहान होकर गिर पड़ा लेकिन उसके मुंह से एक बद्दुआ न निकली।
बुद्ध पहुंचे, लहूलुहान अंगुलीमाल के माथे पर उन्होंने हाथ रखा। अंगुलीमाल ने आंख खोली और बुद्ध ने कहा: अंगुलीमाल लोग तुझे पत्थर मारते थे, तेरे सिर से खून बहता था, तेरे हाथ—पैर में चोट लगती थी, तेरे मन को क्या हुआ?
अंगुलीमाल ने कहा: आपके पास जाकर मन नहीं बचा। मैं देखता रहा साक्षीभाव से। जैसा आपने कहा था हर चीज साक्षीभाव से देखना, मैं देखता रहा साक्षीभाव से।
बुद्ध ने उसे गले लगाया और कहा: ब्राह्मण अंगुलीमाल, अब से तू क्षत्रिय न रहा, ब्राह्मण हुआ। ऐसों को ही मैं ब्राह्मण कहता हूं। अब तेरा ब्रह्म—कुल में जन्म हुआ। अब तूने ब्रह्म को जाना।
ओशो.
गुरू प्रताप साध की संगति.