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बुद्ध के जीवन में उल्लेख है अंगुलीमाल का। एक आदमी जो नाराज हो गया सम्राट से और उसने घोषणा कर दी कि वह एक हजार आदमियों की गर्दन काटकर उनकी अंगुलियों की माला बनाकर पहनेगा। उसका नाम ही अंगुलमाल हो गया। उसका असली नाम ही भूल गया। उसने लोगों को मारना शुरू कर दिया। वह बड़ा मजबूत आदमी था, खूंखार आदमी था। वह राजधानी के बाहर ही एक पहाड़ी पर अड्डा जमाकर बैठ गया। जो वहां से गुजरता उसको काट देता, उसकी अंगुलियों की माला बना लेता। वह रास्ता चलना बंद हो गया। औरों की तो बात छोड़ो राजा के सैनिक और सिपाही भी उस रास्ते से जाने को राजी नहीं थे। राजा खुद थर—थर कांपता था।

नौ सौ निन्यानबे आदमी उसने मार डाले, वह हजारवें की तलाश कर रहा था। उसकी मां भर उसको मिलने जाती थी, अब तो वह भी डरने लगी। लोगों ने उससे पूछा कि अब तू नहीं जाती अंगुलीमाल को मिलने? उसने कहा: अब खतरा है; अब उसको एक की ही कमी है। अब वह किसी को भी मार सकता है। वह मुझे भी मार सकता है। वह बिलकुल अंधा है। उसको हजार पूरे करने ही हैं। पिछली बार उसकी आंखों में मैंने जो देखा तो मुझे लगा अब यहां आना खतरे से खाली नहीं है। पिछली बार मैंने उसकी आंखों में शुद्ध पशुता देखी। अब मेरी जाने की हिम्मत नहीं पड़ती।

और तभी बुद्ध का आगमन हुआ उस राजधानी में और वे उसी रास्ते से गुजरने वाले थे, लोगों ने रोका कि वहां न जाएं क्योंकि वहां अंगुलीमाल है। आपने सुना होगा, वह हजार आदमियों की गर्दन काटने की कसम खा चुका है। नौ सौ निन्यानबे मार डाले उसने, एक की ही कमी है। उसकी मां तक डरती है। तो वह आपको भी छोड़ेगा नहीं। उसको क्या लेना बुद्ध से और गैर—बुद्ध से।

बुद्ध ने कहा: अगर मुझे पता न होता तो शायद मैं दूसरे रास्ते से भी चला गया होता लेकिन अब जब तुमने मुझे कह ही दिया कि वह ही आदमी की प्रतीक्षा में बैठा है… उसका भी तो कुछ ख्याल करना पड़ेगा। कितना परेशान होगा। जब उसकी मां भी नहीं जा रही और रास्ता बंद हो गया है तो उसकी प्रतिज्ञा का क्या होगा? मुझे जाना ही होगा। और फिर इस आदमी की सम्भावना अनंत है। जिसमें इतना क्रोध है, इतनी प्रज्वलित अग्नि है; जिसमें इतना साहस है, इतना अदम्य साहस है कि सम्राट के सामने, राजधानी के किनारे बैठकर नौ सौ निन्यानबे आदमी मार चुका है और सम्राट बाल बांका नहीं कर सके। वह आदमी साधारण नहीं है, उसके भीतर अपूर्व ऊर्जा है, उसके भीतर बुद्ध होने की सम्भावना है।

बुद्ध के शिष्य भी उस दिन बहुत घबड़ाये हुए थे। रोज तो साथ चलते थे, साथ ही क्यों चलते थे प्रत्येक में होड़ होती थी कि कौन बिलकुल करीब चले, कौन बिलकुल बायें—दायें चले। मगर उस दिन हालत और हो गयी, लोग पीछे—पीछे सरकने लगे। और जैसे—जैसे अंगुलीमाल की पहाड़ी दिखाई शुरू हुई कि शिष्यों और बुद्ध के बीच फलाँगों का फासला हो गया। शिष्य ऐसे घसटने लगे जैसे उनके प्राणों में प्राण ही नहीं रहे, श्वासों में श्वास नहीं रही, पैरों में जाने नहीं रही।

बुद्ध अकेले ही पहुंचे। अंगुलीमाल तो बहुत प्रसन्न हुआ कि कोई आ रहा है। लेकिन जैसे—जैसे बुद्ध करीब आये, बुद्ध की आभा करीब आयी…गुरु—परताप साध की संगति…वह सद्गुरु की आभा करीब आयी वैसे—वैसे अंगुलीमाल के मन में एक चमत्कृत कर देने वाला भाव उठने लगा कि नहीं इस आदमी को नहीं मारना। अंगुलीमाल चौंका; ऐसा उसे कभी नहीं हुआ था। उसने गौर से देखा, देखा भिक्षु है, पीत वस्त्रों में। सुंदर है, अद्वितीय है। उसके चलने में भी एक प्रसाद है। नहीं—नहीं, इसको नहीं मारना। मगर अंगुलीमाल का पशु भी बल मारा। उसने कहा: ऐसे छोड़ते चलोगे तो हजार कैसे पूरे होंगे? द्वंद्व उठा भारी, चिंता उठी भारी—क्या करूं, क्या न करूं? मगर जैसे बुद्ध करीब आने लगे, वैसे अंगुलीमाल की अंतरात्मा से एक आवाज उठने लगी कि नहीं—नहीं, यह आदमी मारने योग्य नहीं है। यह आदमी सत्संग करने योग्य है। यह आदमी पास बैठने योग्य है।

तुम अंगुलीमाल की मुसीबत समझ सकते हो। एक तो उसका व्रत, उसकी प्रतिज्ञा, और एक इस आदमी का आना जिसको देखकर उसके भीतर अपूर्व प्रेम उठने लगा, प्रीति उठने लगी। द्वंद्व तो हुआ होगा , बहुत द्वंद्व हुआ होगा, महाद्वंद्व हुआ होगा, तुमुलनाद छिड़ गया होगा, महाभारत छिड़ गया होगा उसके भीतर। एक उसके जीवन—भर की आदत, संस्कार और यह एक बिलकुल नयी बात, एक नयी किरण, एक नया फूल खिला, जहां कभी फूल नहीं खिले थे।

जैसे बुद्ध करीब आने लगे कि वह चिल्लाया कि बस रुक जाओ, भिक्षु वहीं रुक जाओ। शायद तुम्हें पता नहीं कि मैं अंगुलीमाल हूं, मैं सचेत कर दूं। मैं आदमी खतरनाक हूं, देखते हो मेरे गले में यह माला, यह नौ सौ निन्यानबे आदमियों की अंगुलियों की माला है! देखते हो मेरा वृक्ष जिसमें मैंने नौ सौ निन्यानबे आदमियों की खोपड़ियां टांग रखी हैं? सिर्फ एक की कमी है, मेरी मां ने भी आना बंद कर दिया है। मैं अपनी मां को भी नहीं छोड़ूंगा, अगर वह आएगी तो उसकी गर्दन काट लूंगा मगर मेरी हजार की प्रतिज्ञा मुझे पूरी करनी है, मैं क्षत्रियों हूं।

बुद्ध ने कहा: क्षत्रिय मैं भी हूं। और तुम अगर मार सकते हो तो मैं मर सकता हूं। देखें कौन जीतता है!

ऐसा आदमी अंगुलीमाल ने नहीं देखा था। उसने दो तरह के आदमी देखे थे। एक—जो उसे देखते ही भाग खड़े होते थे, पूंछ दबाकर और एकदम निकल भागते थे; दूसरे—जो उसे देखते ही तलावार तलवार निकाल लेते थे। यह एक तीसरे ही तरह का आदमी था। न इसके पास तलवार है, न यह भाग रहा है। करीब आने लगा। अंगुलीमाल का दिल थरथराने लगा। उसने कहा कि देखो भिक्षु, मैं फिर से कहता हूं रुक जाओ, एक कदम और आगे बढ़े कि मेरा यह फरसा तुम्हें दो टुकड़े कर देगा।

बुद्ध ने कहा: अंगुलीमाल, मुझे रुके तो वर्षों हो गये, अब तू रुक।

अंगुलीमाल ने तो अपना हाथ सिर से मार लिया। उसने कहा: तुम पागल भी मालूम होते हो। मुझ बैठे हुए को कहते हो तू रुक, और अपने को, खुद चलते हुए को, कहते हो मुझे वर्षों हो गये रुके हुए!

बुद्ध ने कहा: शरीर का चलना कोई चलना नहीं, मन का चलना चलना है। मेरा मन चलता नहीं। मन की गति खो गयी है। वासना खो गयी है। मांग खो गयी है। कोई ईच्छा नहीं बची। कोई विचार नहीं रहा है। मन के भीतर कोई तरंगें नहीं उठतीं। इसलिए मैं कहता हूं कि अंगुलीमाल मुझे रुके वर्षों हो गये, अब तू भी रुक।

और कोई बात चोट कर गयी तीर की तरह अंगुलीमाल के भीतर। बुद्ध करीब आये, अंगुलीमाल बड़ी दुविधा में पड़ा करे क्या! मारे बुद्ध को कि न मारे बुद्ध को?

बुद्ध ने कहा: तू चिंता में न पड़, संदेह में न पड़ दुविधा में न पड़; मैं तुझे परेशानी में डालने नहीं आया। तू मुझे मार, तू अपनी हजार की प्रतिज्ञा पूरी कर ले। मुझे तो मरना ही होगा—आज नहीं कल, कल नहीं परसों। आज तू मार लेगा तो तेरी प्रतिज्ञा पूरी हो जाएगी, तेरे काम आ जाऊंगा। और फिर कल तो मरूंगा ही। मरना तो है ही। किसी की प्रतिज्ञा पूरी नहीं होगी, किसी के काम नहीं आऊंगा। जिंदगी काम आ गयी, मौत भी काम आ गयी; इससे ज्यादा शुभ और क्या हो सकता है! तू उठा अपना फरसा, मगर सिर्फ एक शर्त।

अंगुलीमाल ने कहा: वह क्या शर्त?

बुद्ध ने कहा: पहले तू यह वृक्ष से एक शाखा तोड़ कर मुझे दे दे। अंगुलीमाल ने फरसा उठाकर वृक्ष से एक शाखा काट दी। बुद्ध ने कहा: बस, आधी शर्त पूरी हो गयी, आधी और पूरी कर दे—इसे वापिस जोड़ दे।

अंगुलीमाल ने कहा: तुम निश्चित पागल हो। तुम अद्भुत पागल हो। तुम परमहंस हो मगर पागल हो। टूटी शाखा को कैसे मैं जोड़ सकता हूं

तो बुद्ध ने कहा: तोड़ना तो बच्चे भी कर सकते हैं, जोड़ने में कुछ कला है। अब तू मेरी गर्दन काट मगर गर्दन जोड़ सकेगा एकाध की? नौ सौ निन्यानबे गर्दनें काटीं, एकाध जोड़ सका? काटने में क्या रखा है अंगुलीमाल, यह तो कोई भी कर दे, कोई भी पागल कर दे। मेरे साथ आ, मैं तुझे जोड़ना सिखाऊं। मौत में क्या रखा है, मैं तुझे जिंदगी सिखाऊं। देह में क्या रखा है, मैं तुझे आत्मा सिखाऊं। ये छोटी—मोटी प्रतिज्ञाओं में, अहंकारों में क्या रखा है, मैं तुझे महा प्रतिज्ञा का पूरा होना सिखाऊं। मैं तुझे बनाऊं। मैं आया ही इसलिए हूं कि या तो तू मुझे मारेगा या मैं तुझे मारूंगा। निर्णय होना है, या तो तू मुझे मार या मैं तुझे मारूं।

अंगुलीमाल बुद्ध पर हाथ नहीं उठा सका। उसका फरसा गिर गया। वह बुद्ध के चरणों में गिर गया। उसने कहा: मुझे दीक्षा दें। आदमी मैंने बहुत देखे मगर तुम जैसा आदमी नहीं देखा। मुझे दीक्षा दें। बुद्ध ने उसे तत्क्षण दीक्षा दी। और कहा आज से तेरा व्रत हुआ—करुणा। उसने कहा: आप भी मजाक करते हैं, मुझ क्रोधी को करुणा! बुद्ध ने कहा: तुझ जैसा क्रोधी जितना बड़ा करुणावान हो सकता है उतना कोई और नहीं।

गांव भर में खबर फैल गयी, दूर—दूर तक खबरें उड़ गयीं कि अंगुलीमाल भिक्षु हो गया है। खुद सम्राट प्रसेनजित, बुद्ध के दर्शन को तो नहीं आया था लेकिन यह देखने आया कि अंगुलीमाल भिक्षु हो गया है तो बुद्ध के दर्शन भी कर आऊं और अंगुलीमाल को भी देख आऊं कि यह आदमी है कैसा, जिसने थर्रा रखा था राज्य को! उसने बुद्ध के चरण छुए और उसने फिर बुद्ध को पूछा कि मैंने सुना है भन्ते कि वह दुष्ट अंगुलीमाल, वह महाहत्यारा अंगुलीमाल, आपका भिक्षु हो गया, मुझे भरोसा नहीं आता। वह आदमी और संन्यासी हो जाए, मुझे भरोसा नहीं आता।

बुद्ध ने कहा: भरोसा, नहीं भरोसे का सवाल नहीं। यह मेरे दायें हाथ जो व्यक्ति बैठा है जानते हो यह कौन है? अंगुलीमाल है। अंगुलीमाल पीत वस्त्रों में बुद्ध के दायें हाथ पर बैठा था। जैसे ही बुद्ध ने यह कहा कि अंगुलीमाल है, प्रसेनजित ने अपनी तलवार निकाल ली घबड़ाहट के कारण।

बुद्ध ने कहा: अब तलवार भीतर रखों; यह वह अंगुलीमाल नहीं जिससे तुम परिचित हो, तलवार की कोई जरूरत नहीं है। तुम घबड़ाओ मत, कंपो मत, डरो मत; अब यह चींटी भी नहीं मारेगा; इसने करुणा का व्रत लिया है।

और जब पहले दिन अंगुलीमाल भिक्षा मांगने गया गांव में तो जैसे लोग सदा से रहे हैं—छोटे, ओछे, निम्न; जैसी भीड़ सदा से रही है—मूढ़, जो अंगुलीमाल से थर—थर कांपते थे उन सबने अपने द्वार बंद कर लिए, उसे कोई भिक्षा देने को तैयार नहीं। नहीं इतना, लोगों ने अपनी छतों पर, छप्परों पर पत्थरों पर पत्थरों के ढेर लगा लिए और वहां से पत्थर मारे अंगुलीमाल को। इतने पत्थर मारे कि यह राजपथ पर लहूलुहान होकर गिर पड़ा लेकिन उसके मुंह से एक बद्दुआ न निकली।

बुद्ध पहुंचे, लहूलुहान अंगुलीमाल के माथे पर उन्होंने हाथ रखा। अंगुलीमाल ने आंख खोली और बुद्ध ने कहा: अंगुलीमाल लोग तुझे पत्थर मारते थे, तेरे सिर से खून बहता था, तेरे हाथ—पैर में चोट लगती थी, तेरे मन को क्या हुआ?

अंगुलीमाल ने कहा: आपके पास जाकर मन नहीं बचा। मैं देखता रहा साक्षीभाव से। जैसा आपने कहा था हर चीज साक्षीभाव से देखना, मैं देखता रहा साक्षीभाव से।

बुद्ध ने उसे गले लगाया और कहा: ब्राह्मण अंगुलीमाल, अब से तू क्षत्रिय न रहा, ब्राह्मण हुआ। ऐसों को ही मैं ब्राह्मण कहता हूं। अब तेरा ब्रह्म—कुल में जन्म हुआ। अब तूने ब्रह्म को जाना।

ओशो.
गुरू प्रताप साध की संगति.

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🔴सिकंदर ने जब सारी दुनिया जीतने का सपना करीब-करीब पूरा कर लिया, तो वह एक फकीर को मिला–भारत से बाहर जाते वक्त। उस फकीर से उसने कहा कि मैंने दुनिया को जितने का सपना पूरा कर लिया। वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा: सिकंदर, तुझे अभी भी होश नहीं आया! अगर तू एक मरुस्थल में भटक जाए और तुझे प्यास लगी हो, तो एक गिलास पानी के लिए तू कितना राज्य का हिस्सा देगा?

सिकंदर ने कहा, अगर ऐसी हालत हो कि मैं मर रहा होऊं, तो आधा राज्य दे दूंगा। लेकिन फकीर ने कहा कि समझ कि मैं आधे राज्य में बेचने को तैयार न होऊं। तो सिकंदर ने कहा: पूरा राज्य दे दूंगा। तो वह फकीर हंसने लगा; कहा, फिर सोच एक गिलास पानी के लिए आदमी पूरे साम्राज्य को दे सकता है–पूरी पृथ्वी के साम्राज्य को–जीने के लिए। और जीना मिला है, उसके लिए परमात्मा को तूने धन्यवाद दिया है? मुफ्त मिला है। सारे जगत का राज्य देने को तू तैयार है, कि अगर थोड़ी देर और जीने को मौका मिल जाए। लेकिन जीवन तुझे मिला है, वर्षों से तू जी रहा है और तूने कभी धन्यवाद दिया?

एक श्वास लेने के लिए तुम क्या देने को राजी न हो जाओगे!

और ऐसी घड़ी आयी कि सिकंदर जब चला गया, तो वह सोच-विचार में मग्न था। बात तो ठीक थी। वह अपने घर नहीं पहुंच पाया; बीच में उसकी मौत हो गई। और बीच में जब उसकी मौत करीब आयी और चिकित्सकों ने कह दिया कि वह बच न सकेगा। तब वह अपने गांव से केवल चौबीस घंटे के फासले पर था। चौबीस घंटे बाद वह अपनी मां को मिल लेगा, अपनी पत्नी को मिल लेगा, अपने परिवार को मिल लेगा। उसकी आकांक्षा थी। उसने अपने चिकित्सकों से कहा कि जो भी खर्च हो, उसकी फिक्र न करो। लेकिन मुझे चौबीस घंटे जिला लो। मैं अपने घर तो पहुंच जाऊं। वहां जाकर मर जाऊं। उन्होंने कहा, हम असमर्थ हैं। चौबीस घंटे तो दूर, चौबीस मिनट भी हम न जिला सकेंगे।

सिकंदर ने कहा।: मैं सब देने को तैयार हूं। तब उस फकीर की बात याद आयी–कि वह ठीक ही कह रहा था। वह कल्पना न थी–मरुस्थल की। वह घटी जा रही है बात। लेकिन क्या करेगा चिकित्सक!

सिकंदर ने कहा कि मैं अपना सारा राज्य देने को तैयार हूं; मुझे चौबीस घंटे बचा लो। मैं अपनी मां की गोद तक पहुंच जाऊं। वह देख तो ले अपने बेटे को–दुनिया जीत कर आ गया। फिर मैं मर जाऊं, कोई बात नहीं। लेकिन चिकित्सक ने कहा, क्षमा करें। हम क्या कर सकते हैं! मौत अब आ ही गई द्वार पर।

घर नहीं पहुंच पाया सिकंदर। चौबीस घंटे का फासला था। सारा राज्य देने को तैयार था। लेकिन तुम्हें यह जीवन मिला, इसके लिए कभी परमात्मा को धन्यवाद दिया?

ओशो – कन थोरे कांकर घने, प्रवचन~३
♣️

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💫एक बार अकबर बीरबल हमेशा की तरह टहलने जा रहे थे!

रास्ते में एक तुलसी का पौधा दिखा .. मंत्री बीरबल ने झुक कर प्रणाम किया !

अकबर ने पूछा कौन हे ये ?
बीरबल — मेरी माता हे !

💫अकबर ने तुलसी के झाड़ को उखाड़ कर फेक दिया और बोला .. कितनी माता हैं तुम हिन्दू लोगो की …!

बीरबल ने उसका जबाब देने की एक तरकीब सूझी! .. आगे एक बिच्छुपत्ती (खुजली वाला ) झाड़ मिला .. बीरबल उसे दंडवत प्रणाम कर कहा: जय हो बाप मेरे ! !
✨अकबर को गुस्सा आया .. दोनों हाथो से झाड़ को उखाड़ने लगा .. इतने में अकबर को भयंकर खुजली होने लगी तो बोला: .. बीरबल ये क्या हो गया !

बीरबल ने कहा आप ने मेरी माँ को मारा इस लिए ये गुस्सा हो गए!

✨अकबर जहाँ भी हाथ लगता खुजली होने लगती .. बोला: बीरबल जल्दी कोई उपाय बतायो!

बीरबल बोला: उपाय तो है लेकिन वो भी हमारी माँ है .. उससे विनती करनी पड़ेगी !

अकबर बोला: जल्दी करो !

आगे गाय खड़ी थी बीरबल ने कहा गाय से विनती करो कि … हे माता दवाई दो..🌈

गाय ने गोबर कर दिया .. अकबर के शरीर पर उसका लेप करने से फौरन खुजली से राहत मिल गई!
अकबर बोला .. बीरबल अब क्या राजमहल में ऐसे ही जायेंगे?💙

🙏बीरबल ने कहा: .. नहीं बादशाह हमारी एक और माँ है! सामने गंगा बह रही थी .. आप बोलिए हर -हर गंगे .. जय गंगा मईया की .. और कूद जाइए !

नहा कर अपनेआप को तरोताजा महसूस करते हुए अकबर ने बीरबल से कहा: .. कि ये तुलसी माता, गौ माता, गंगा माता तो जगत माता हैं! इनको मानने वालों को ही हिन्दू कहते हैं ..!

🎭*हिन्दू एक संस्कृति है , सभ्यता है .. सम्प्रदाय नहीं…..! ..

वन्दे मातरम् !
💐💐💐💐💐

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Motivational talk….Read carefully

महाभारत में कर्ण ने श्री कृष्ण से पूछा “मेरी माँ ने मुझे जन्मते ही त्याग दिया, क्या ये मेरा अपराध था कि मेरा जन्म एक अवैध बच्चे के रूप में हुआ?

दोर्णाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय नही मानते थे, क्या ये मेरा कसूर था?

परशुराम जी ने मुझे शिक्षा दी साथ ये शाप भी दिया कि मैं अपनी विद्या भूल जाऊंगा क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय समझते थे।

भूलवश एक गौ मेरे तीर के रास्ते मे आकर मर गयी और मुझे गौ वध का शाप मिला?

द्रौपदी के स्वयंवर में मुझे अपमानित किया गया, क्योंकि मुझे किसी राजघराने का कुलीन व्यक्ति नही समझा गया।

यहां तक कि मेरी माता कुंती ने भी मुझे अपना पुत्र होने का सच अपने दूसरे पुत्रों की रक्षा के लिए स्वीकारा।

मुझे जो कुछ मिला दुर्योधन की दया स्वरूप मिला!

तो क्या ये गलत है कि मैं दुर्योधन के प्रति अपनी वफादारी रखता हूँ..??

श्री कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-
“कर्ण, मेरा जन्म जेल में हुआ था। मेरे पैदा होने से पहले मेरी मृत्यु मेरा इंतज़ार कर रही थी। जिस रात मेरा जन्म हुआ उसी रात मुझे मेरे माता-पिता से अलग होना पड़ा। तुम्हारा बचपन रथों की धमक, घोड़ों की हिनहिनाहट और तीर कमानों के साये में गुज़रा।
मैने गायों को चराया और गोबर को उठाया।
जब मैं चल भी नही पाता था तो मेरे ऊपर प्राणघातक हमले हुए।
कोई सेना नही, कोई शिक्षा नही, कोई गुरुकुल नही, कोई महल नही, मेरे मामा ने मुझे अपना सबसे बड़ा शत्रु समझा।
जब तुम सब अपनी वीरता के लिए अपने गुरु व समाज से प्रशंसा पाते थे उस समय मेरे पास शिक्षा भी नही थी। बड़े होने पर मुझे ऋषि सांदीपनि के आश्रम में जाने का अवसर मिला।

तुम्हे अपनी पसंद की लड़की से विवाह का अवसर मिला मुझे तो वो भी नही मिली जो मेरी आत्मा में बसती थी।
मुझे बहुत से विवाह राजनैतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े जिन्हें मैंने राक्षसों से छुड़ाया था!
जरासंध के प्रकोप के कारण मुझे अपने परिवार को यमुना से ले जाकर सुदूर प्रान्त मे समुद्र के किनारे बसाना पड़ा। दुनिया ने मुझे कायर कहा।

यदि दुर्योधन युद्ध जीत जाता तो विजय का श्रेय तुम्हे भी मिलता, लेकिन धर्मराज के युद्ध जीतने का श्रेय अर्जुन को मिला! मुझे कौरवों ने अपनी हार का उत्तरदायी समझ।

हे कर्ण! किसी का भी जीवन चुनोतियों से रहित नही है। सबके जीवन मे सब कुछ ठीक नही होता। कुछ कमियां अगर दुर्योधन में थी तो कुछ युधिष्टर में भी थीं।
सत्य क्या है और उचित क्या है? ये हम अपनी आत्मा की आवाज़ से स्वयं निर्धारित करते हैं!

इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारे साथ अन्याय होता है,

इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारा अपमान होता है,

इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारे अधिकारों का हनन होता है।

फ़र्क़ सिर्फ इस बात से पड़ता है कि हम उन सबका सामना किस प्रकार करते हैं..!!
🙏

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એકભાઇ નિયમિત રીતે સ્વાધ્યાય માં જતા.
અઠવાડિયે એક કલાક સ્વાધ્યાય માટે કાઢે.
સ્વાધ્યાય માં થતી જુદી-જુદી વાતો એકાગ્ર ચિતે સાંભળે.
એમના મિત્રને આ પસંદ નહોતું. મિત્ર એવુ માનતો હતો કે આ બધુ સમયની બરબાદી છે. ઘણીવખત એ આ બાબતે પોતાની નારાજગી પણ દર્શાવતો.
એકદિવસ બંને મિત્રો ફરવા માટે નીકળ્યા. રસ્તામાં સ્વાધ્યાય ની વાત નીકળી.

જે મિત્રને આ બધુ બકવાસ લાગતુ હતું એમણે પોતાના મિત્રને પુછ્યુ, ” જ્યાં સુધી હું જાણું છું ત્યાં સુધી તું છેલ્લા 10 વર્ષથી નિયમિત સ્વાધ્યાય માં જાય છે

આ બધા જ સ્વાધ્યાય કેન્દ્રમાં જે વાતો થતી તેમાંથી તને કેટલી યાદ છે ?

” મિત્રએ તો તુંરત જવાબ આપ્યો, ” મને એમાનું કંઇ જ યાદ નથી.

” જવાબ સાંભળીને પ્રશ્ન પુછનાર મિત્ર ખુબ હસ્યો અને કહ્યુ , ” તને કંઇ જ યાદ નથી તો પછી આ સ્વાધ્યાય માં જઇને તે કર્યુ શું? ”
સ્વાધ્યાયી મિત્રએ પોતાના મિત્રને કહ્યુ, ” ભાઇ હું તને તારા પ્રશ્નનો જવાબ આપુ એ પહેલા મને એક પ્રશ્નનો જવાબ આપ જેથી તેના આધારે હું તને જવાબ આપી શકુ.
” મિત્રએ સંમતિ આપતા જ પ્રશ્ન પુછ્યો , ”
તારા લગ્નને કેટલો સમય થયો ? ”
પેલાએ કહ્યુ, ” મારા લગ્નને પણ 10 વર્ષ જ થયા છે.”
સ્વાધ્યાયી મિત્રએ વાતને આગળ વધારતા કહ્યુ , ” હવે મને એ કહે કે આ 10 વર્ષમાં ભાભીએ તને ભાત-ભાતની અને જાત-જાતની રસોઇ કરીને જમાડી છે એમાથી કેટલી યાદ છે ?
” પેલાએ જવાબ આપ્યો , ” તું પણ ગાંડા જેવો છે એલા રસોઇ થોડી યાદ રહે એ તો ખાઇએ એટલે શરિરને પોષણ મળે. શારિરિક તંદુરસ્તી માટે જમવાનું હોય એ યાદ રહે કે ન રહે તેનાથી શું ફેર પડે?”

સ્વાધ્યાયી મિત્રએ કહ્યુ , ” દોસ્ત તારા લગ્ન પછી ભાભીએ બનાવેલી રસોઇ અને તારા લગ્ન પહેલા તારી મમ્મીએ બનાવેલી રસોઇથી જેમ તારા શરિરને પોષણ મળે છે
તેમ સ્વાધ્યાય માં થતી વાતો મારા આત્મા ને પોષણ આપે છે અને એ વિચારોથી મારુ મન મજબુત બને છે. વાતો યાદ રહી કે ન રહી તે મહત્વનું નથી.”

મિત્રો, શરિરના પોષણ માટે નિયમિત ખોરાક લેવો જરૂરી છે તેવી જ રીતે આત્માના પોષણ માટે નિયમિત સારી વ્યક્તિ કે વિચારોનો સંગ પણ જરૂરી છે. આપણને ભલે એ વિચારો યાદ ન રહે પણ એ વિચારો મનને કેળવવાનું કામ ચોક્કસ કરે છે.

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