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एक थे “सर्वनिंदक” महाराज!
काम धाम कुछ करने आता नहीं था पर निंदा गजब की करते थे! दूसरे के काम में ऐसा शानदार टाँग फँसाते थे कि नारदजी भी शर्मिंदा हो जाते थे!

अगर कोई व्यक्ति मेहनत करने के बाद सुस्ताने के लिए भी बैठता तो सर्वनिंदक महाराज कहते, ‘स्साला एक नम्बर का कामचोर है!’
अगर कोई व्यक्ति काम करते हुए मिलता तो कहते, ‘स्साला जिंदगी भर काम करते हुए मर जायेगा! आखिर करता क्या है?’
कोई पूजा पाठ में रुचि दिखाता तो कहते, ‘पूजा के नाम पर देह चुरा रहा है! ये पूजा के नाम पर मस्ती करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता है! ‘
अगर कोई व्यक्ति पूजा पाठ नहीं करता तो कहते, ‘स्साला नास्तिक है! भगवान से कोई मतलब ही नहीं है! मरने के बाद पक्का नर्क में जायेगा!’
माने निंदा के इतने पक्के खिलाड़ी बन गये कि नारदजी ने आखिरकार विष्णु जी के पास अपनी फरियाद पहुँचा दिया,’ महाराज पृथ्वी पर एक प्राणी के चलते मेरी गद्दी खतरे में पड़ गयी है! ‘
विष्णु जी ने कहा कि उन्हें विष्णु लोक में भोजन पर आमंत्रित कीजिए! नारद भगवान तुरंत भगवान का न्योता लेकर सर्वनिंदक महाराज के पास पहुँचे और बिना कोई जोखिम लिए हुए उन्हें अपने साथ ही विष्णु लोक लेकर पहुँच गये कि पता नहीं कब पलटी मार दे!
उधर लक्ष्मी जी ने नाना प्रकार के व्यंजन अपने हाथों से तैयार कर सर्वनिंदक जी को परोसा! सर्वनिंदक जी ने जमकर हाथ साफ किया और बड़े प्रसन्न दिख रहे थे! अब विष्णु जी को पूरा विश्वास हो गया कि सर्वनिंदक जी लक्ष्मी जी के बनाये भोजन की निंदा कर ही नहीं सकते!
फिर भी नारद जी को संतुष्ट करने के लिए पूछ लिया, ‘और महाराज भोजन कैसा लगा?’
सर्वनिंदक जी बोले, ‘महाराज भोजन का तो पूछिए मत, आत्मा तृप्त हो गयी लेकिन—– भोजन इतना भी अच्छा नहीं बनना चाहिए कि आदमी खाते खाते प्राण ही त्याग दे!’
विष्णु जी ने माथा पीट लिया और बोले, ‘हे वत्स आपके अपने निंदा के गुण के प्रति समर्पण देखकर मैं प्रसन्न हुआ! आपने तो लक्ष्मी जी को भी नहीं छोडा़! वर माँगो! ‘
सर्वनिंदक जी ने शर्माते हुए कहा कि,’ हे प्रभु मेरे वंश में वृध्दि होनी चाहिए! ‘
तभी से ऐसे निरर्थक सर्वनिंदक बहुतायत में पाये जाने लगे!
सूतजी ने कहा हमें इस कहानी से यही शिक्षा मिलती है कि हम चाहे कुछ भी कर लें इन सर्वनिंदकों की प्रजाति को संतुष्ट नहीं कर सकते! अतः ऐसे लोगों की परवाह किये बिना अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर रहना चाहिए!’

इति श्री स्कंदपराणे सर्वनिंदक कथा समाप्त:
😀😁

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!!! चश्मा एक लघुकथा !!!
👓

जल्दी जल्दी घर के सारे काम निपटा, बेटे को स्कूल छोड़ते हुए ऑफिस जाने का सोच, घर से निकल ही रही थी कि…

फिर पिताजी की आवाज़ आ गई, -“बहू, ज़रा मेरा चश्मा तो साफ़ कर दो।”

और

बहु झल्लाती हुई….सॉल्वेंट लेकर चश्मा साफ करने लगी। इसी चक्कर में आज फिर ऑफिस देर से पहुंची।

पति की सलाह पर अब वो सुबह उठते ही पिताजी का चश्मा साफ़ करके रख देती |

लेकिन फिर भी घर से निकलते समय पिताजी का बहु को बुलाना बन्द नही हुआ।

समय से खींचातानी के चलते अब बहु ने पिताजी की पुकार को अनसुना करना शुरू कर दिया।

आज ऑफिस की छुट्टी थी ..
तो बहु ने सोचा –

“घर की साफ सफाई कर लूँ।

अचानक …

पिताजी की डायरी हाथ लग गई।

एक पन्ने पर लिखा था –

दिनांक 23/2/15

आज की इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में, घर से निकलते समय, बच्चे अक्सर बड़ों का आशीर्वाद लेना भूल जाते हैं।

बस इसीलिए, जब तुम चश्मा साफ कर मुझे देने के लिए झुकती तो मैं मन ही मन, अपना हाथ तुम्हारे सर पर रख देता……..

वैसे मेरा आशीष
सदा तुम्हारे साथ है बेटा…।

आज पिताजी को गुजरे ठीक
2 साल बीत चुके हैं।

अब मैं रोज घर से बाहर निकलते समय पिताजी का चश्मा साफ़ कर, उनके टेबल पर रख दिया करती हूँ।

उनके अनदेखे हाथ से मिले आशीर्वाद की लालसा में…..

मनिशकुमार सोलंकी

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एक थे “सर्वनिंदक” महाराज!
काम धाम कुछ करने आता नहीं था पर निंदा गजब की करते थे! दूसरे के काम में ऐसा शानदार टाँग फँसाते थे कि नारदजी भी शर्मिंदा हो जाते थे!

अगर कोई व्यक्ति मेहनत करने के बाद सुस्ताने के लिए भी बैठता तो सर्वनिंदक महाराज कहते, ‘स्साला एक नम्बर का कामचोर है!’
अगर कोई व्यक्ति काम करते हुए मिलता तो कहते, ‘स्साला जिंदगी भर काम करते हुए मर जायेगा! आखिर करता क्या है?’
कोई पूजा पाठ में रुचि दिखाता तो कहते, ‘पूजा के नाम पर देह चुरा रहा है! ये पूजा के नाम पर मस्ती करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता है! ‘
अगर कोई व्यक्ति पूजा पाठ नहीं करता तो कहते, ‘स्साला नास्तिक है! भगवान से कोई मतलब ही नहीं है! मरने के बाद पक्का नर्क में जायेगा!’
माने निंदा के इतने पक्के खिलाड़ी बन गये कि नारदजी ने आखिरकार विष्णु जी के पास अपनी फरियाद पहुँचा दिया,’ महाराज पृथ्वी पर एक प्राणी के चलते मेरी गद्दी खतरे में पड़ गयी है! ‘
विष्णु जी ने कहा कि उन्हें विष्णु लोक में भोजन पर आमंत्रित कीजिए! नारद भगवान तुरंत भगवान का न्योता लेकर सर्वनिंदक महाराज के पास पहुँचे और बिना कोई जोखिम लिए हुए उन्हें अपने साथ ही विष्णु लोक लेकर पहुँच गये कि पता नहीं कब पलटी मार दे!
उधर लक्ष्मी जी ने नाना प्रकार के व्यंजन अपने हाथों से तैयार कर सर्वनिंदक जी को परोसा! सर्वनिंदक जी ने जमकर हाथ साफ किया और बड़े प्रसन्न दिख रहे थे! अब विष्णु जी को पूरा विश्वास हो गया कि सर्वनिंदक जी लक्ष्मी जी के बनाये भोजन की निंदा कर ही नहीं सकते!
फिर भी नारद जी को संतुष्ट करने के लिए पूछ लिया, ‘और महाराज भोजन कैसा लगा?’
सर्वनिंदक जी बोले, ‘महाराज भोजन का तो पूछिए मत, आत्मा तृप्त हो गयी लेकिन—– भोजन इतना भी अच्छा नहीं बनना चाहिए कि आदमी खाते खाते प्राण ही त्याग दे!’
विष्णु जी ने माथा पीट लिया और बोले, ‘हे वत्स आपके अपने निंदा के गुण के प्रति समर्पण देखकर मैं प्रसन्न हुआ! आपने तो लक्ष्मी जी को भी नहीं छोडा़! वर माँगो! ‘
सर्वनिंदक जी ने शर्माते हुए कहा कि,’ हे प्रभु मेरे वंश में वृध्दि होनी चाहिए! ‘
तभी से ऐसे निरर्थक सर्वनिंदक बहुतायत में पाये जाने लगे!
सूतजी ने कहा हमें इस कहानी से यही शिक्षा मिलती है कि हम चाहे कुछ भी कर लें इन सर्वनिंदकों की प्रजाति को संतुष्ट नहीं कर सकते! अतः ऐसे लोगों की परवाह किये बिना अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर रहना चाहिए!’

इति श्री स्कंदपराणे सर्वनिंदक कथा समाप्त:
😀😁

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સમય હોય તો વાંચજો.

એક પિતા એ તેના પુત્ર ને કહ્યું મારી અંતિમ વિધિ મા તને ત્રણ કલાક લાગશે અને મારું શ્રાદ્ધ કરવામાં પાંચ કલાક ..
તો હું એમ કહું છુ કે આ બંને વિધિ માંથી તને મુંક્ત કરું છુ
મારી બોડી નું દાન દઈ દેજે અને શ્રાધ્ધ ના કરતો પણ
આ ૮ કલાક નો તારો સમય બચાવું છું તે
તું મને જીવતા આપી દે અને ૮ દિવસ સુધી રોજ ૧ કલાક મારી પાસે બેસ…
કડવું સત્ય છે પ્રમાણિક પણે સ્વીકારવું વરવું છે,
આપ ગમે તેટલા વ્યસ્ત હો ઓફીસ ના સમય માંથી માત્ર એકાદ બે મિનીટ નો સમય કાઢી ને ઘરે ફોન કરો
બા /બાપુ જમ્યા ??
દવા લીધી ??
કામ ઘણું છે છતાં હું જલ્દી આવી જઈશ
(માતા પિતા નો જવાબ મળશે નિરાતે આવજે બેટા )
અને ઘરે આવી tv નું બટન અને છાપુ છોડી બા બાપુ પાસે બેસી ખબર પૂછો તો તેજ કહેશે
“બેટા થાકી ગયો હોઈશ જા હાથ મો ધોઈ ને જમી લે અને આરામ કર”
માત્ર વડીલો ને ૧ કલાક આપવાથી તેની ૨૩ કલાક સારી જશે
અને અડધી બીમારી દવા વગર સારી થઇ જશે…
પછી તસ્વીર લાગણી નહિ સમજી શકે અને “”ફૂલ ગયું ફોરમ રહી ગઈ” તેમ પેપર માં આપવાની જરૂર નથી..
તેના કરતા તે પૈસા કોઈ એકલા રહેતા વૃદ્ધ ને અને જરૂરિયાત વાળા ને આપો.
પિતા ને રસ્તો ક્રોસ કરવો છે તમે એકદમ ફ્રી છો હવે પિતા ને રસ્તો ક્રોસ કરવાથી જ કામ છે
તેમ વિચારી નોકર ને કહો તો તે પણ રસ્તો ક્રોસ કરાવી આપશે પણ
પિતા ને નોકર ના સ્પર્શ માં દીકરા ના સ્પર્શ નો આનંદ અને સંતોષ નહિ મળે
તમે જો ઉભા થશો તો પિતા જ કહેશે તું બેઠ કામ કર રામુ ક્રોસ કરાવી આપશે …
અહી તમારી જો પિતા તરફ નિષ્ઠા હશે તો તમારી ઓરા કામ કરશે
વડીલો ની જરૂરિયાત સીમિત હોય છે
કોઈ વખત માતા પિતા ને તેની જરૂરી ચીજ ચુપ ચાપ લાવી સર પ્રાઈઝ આપી છે ???
એક વખત ટ્રાય કરો ..
તેની આંખનો ખૂણો જુઓ સ્વર્ગ દેખાશે …
ઉમર થતા વડીલો નો સ્વભાવ થોડો બદલે છે ત્યારે વિચારવું
હું પણ વૃદ્ધત્વ ની line માં ઉભો છુ…

Give time to your Parents.

કડવુ લાગશે પણ સત્ય છે

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कांग्रेसी इतिहास कभी नहीं बताता बाजीराव के बारे में जिन्हीने 41 युद्ध लड़े और हर युद्ध विजयी हुए, और भारत के गुलाम इलाको को आज़ाद करवाया, 1737 में मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह लाल किले में छुप गया ———— बाजीराव पेशवा इतिहास का अजेय योद्धा, जो अपना राज के लिए नहीं वो लड़ता था “हिन्दू पद शाही” के लिए पूरा महाराष्ट्र जीतने के बाद वो उत्तर और दक्षिण भारत को आज़ाद करवाने अकेले निकल पड़ा था बाजीराव था शाहूजी महाराज का प्रधानमंत्री जो 20 साल की उम्र में ही प्रधानमंत्री बन गया था ————— बाजीराव ने निज़मो के महाराष्ट जीता, सोलापूर, औरंगाबाद, सातारा सबको छीना और लहराया भगवा उसके बाद गुजरात और मालवा इलाके को मुस्लिमो से मुक्त किया फहराया भगवा भोपाल, बुंदेलखंड, आगरा, दिल्ली सबपर किया कब्जा, लहराया भगवा, 28 मार्च 1737 को मुग़ल बादशाह बाजीराव से डर मुस्लिमो के साथ छुप गया लाल किले में 1737 से 1758 तक दिल्ली पर रहा भगवा झंडा, हिन्दुओ ने लाहौर और पेशावर पर किया कब्जा, उसके आगे बस दुर्रानी बच गया, पूरा भारत 1758 में हिंदुराष्ट बन गया था सिर्फ 7% मुस्लिम भारत में शेष रह गए थे ———— 39 साल की उम्र में बाजीराव 1 लाख हिन्दू सेना लेकर लाहौर के आगे जीतने निकल पड़े थे, परंतु मध्यप्रदेश में उनको दिल का दौरा पड़ा, जिससे उनकी मृतु हो गयी बाजीराव ने बनारस को आज़ाद करवा मंदिर और घाट बनवाये, आन बनारस में बाजीराव के सम्मान में एक घाट है बाजीराव राजा नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री थे, राजा तो शाहूजी महाराज थे, परंतु बाजीराव ऐसा योद्धा था जिसके सामने शाहूजी महाराज का भी नाम फीका है —————— ऐसे योद्धा से हर हिन्दू प्रेरणा ले सकता है , ऐसा योद्धा जो खुद के राज के लिए नहीं, वो हर बार अपनी सेना लेकर गुलाम हिन्दुओ को मुस्लिम हत्यारो से आज़ाद करवाने निकलता था, और हर बार विजयी होता था

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Gurjar derivative identity – Marathas (16 AD onwards) :

Maratha identity was single handedly created by Chatrapati Shivaji Bhonsale. Since certain aspects of this history are not well known / still not clear, I will try and put the pieces together here :

The surname Bhonsale is said to have been originated from the village Bhose in Verul district of Maharashtra that his ancestors had settled in after dispersal to deccan from Gujardesha due to invaders (historically correct name – rajasthan and its origin did not come through till late 18th century at behest of british).

At the time, the ancient powerful Gujardesha’s unbeatan might had been shattered (especially after loss of their last major king i.e. Prithviraj Chauhan who could’ve withstood any invader’s untimely death) and soon thereafter invaders followed by Moghul Raj and their evil were rampant in mainland India and there was no major force of Bharata at the time left to fight / stop them – majority of old remaining hindu Gurjara kingdoms of the times were more focused on survival / biding their time while many new clans / identities had started seizing control / rule due to power vacuum. Shivaji however despite the odds, fearlessly decided to stand up and fight Aurangzeb and his army that were committing unspeakable atrocities against Indians / Hindus during the times.

Origin of Bhosale clan : Shahaji wrote a letter to Sultan Adilshah claiming to be a Guhilot Suryavanshi kshatriya (at that time guhilot clan were still predominantly gurjars though many had started becoming rajputs after Rana Pratap). Another time Shivaji’s identity is recorded was during his coronation – when arose the controversy of a king’s coronation being possible only for a kshatriya (Bhonsale clan identity and origin were not clear at the time), during which the high priest Gagabhat traced and confirmed that Shivaji was indeed of Kshatriya Guhilot lineage and hence eligible for the same. Hence Shivaji can undoubtedly be called a Veer Gurjar by identity.

Note – no matter how many of the clan’s progeny eventually became Rajput, Maratha, etc – its original Gurjar bloodline’s identity is historical fact & undeniable. The clansmen were still 100% Gurjars at time of Shivaji’s ancestors dispersal from homeland Mewar region of Gujardesha.

In addition to Shivaji himself, both his army General and Navy Admiral were Gurjars i.e. Sidhoji Gujar and Pratap Rao Gujar. In fact Shivaji’s younger son Rajaram was married to Jankibai, daughter of General Pratap Rao Gujar.

Gurjars also have a strong presence in Marathas via ancient Parmars that took back lost control of clan’s homeland i.e. Dhar kingdom. Sangram Singh Raje Pawar is from their royal family and we would be grateful for his giving us additional information on Gurjar links to Marathas and Parmar Dynasty + additional history that is not known to the world here, if possible.

We are fortunate to have members of Chatrapati Shivaji’s descendents Bhonsale royal family here Raje Shivrajsingh Bhonsle Deepak Rao Bhonsale Bhawanisingh Raje Bhonsle – your kind input and comments to above if any, would be most appreciated. Thank you.

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FB- copied-एक बादशाह ने गधों को क़तार में चलता देखा तो धोबी से पूछा, “ये कैसे सीधे चलते है..?”धोबी ने जवाब दिया, “जो लाइन तोड़ता है उसे मैं सज़ा देता हूँ, बस इसलिये ये सीधे चलते हैं।बादशाह बोला, “मेरे मुल्क में अमन क़ायम कर सकते हो..?” धोबी ने हामी भर ली।
धोबी शहर आया तो बादशाह ने उसे मुन्सिफ बना दिया, और एक चोर का मुक़दमा आ गया, धोबी ने कहा चोर का हाथ काट दो।जल्लाद ने वज़ीर की तरफ देखा और धोबी के कान में बोला, “ये वज़ीर साहब का ख़ास आदमी है।”धोबी ने दोबारा कहा इसका हाथ काट दो, तो वज़ीर ने सरगोशी की कि ये अपना आदमी है ख़याल करो। इस बार धोबी ने कहा, “चोर का हाथ और वज़ीर की ज़ुबान दोनों काट दो, और एक फैसले से ही मुल्क में अमन क़ायम हो गया। बिलकुल इसी न्याय की जरुरत हमारे देश को है ।

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(((((( भाव को सम्मान ))))))
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एक महात्मा जी भक्ति कथाएं सुनाते थे. उनका अंदाज बड़ा सुंदर था औऱ वाणी में ओज था इसलिए उनका प्रवचन सुनने वालों की बड़ी भीड़ होती.
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उनकी ख्याति दूर-दूर तक हो गई. एक सेठ जी ने भी ख्याति सुनी दान-धर्म-प्रवचन में रूचि रखते थे इसलिए वह भी पहुंचे. लेकिन उन्होंने अपना वेष बदल रखा था. मैले-कुचैले पहन लिए जैसे कोई मेहनत कश मजदूर हो.
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प्रतिदिन प्रवचन में आकर वह एक कोने में बैठ जाते और चुपचाप सुनते. प्रवचन में आने वाला एक व्यक्ति कई दिनों बाद आया. महात्मा जी के पूछने पर बताया कि उसका घर जलकर राख हो गया. उसके पास रहने को घर नहीं है.
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महात्मा जी ने सबसे कहा- ईश्वर ने कोप किया. वह आपकी परीक्षा लेना चाहते है कि क्या आप अपने साथी की सहायता करेंगे. वह आपकी परीक्षा ले रहे हैं इसलिए जो बन पड़े, सहायता करें.
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एक चादर घुमाई गई. सबने कुछ न कुछ पैसे डाले. मैले कपड़े में बैठे सेठ ने 10 हजार रूपए दिए. सबकी आंखें फटी रह गईं. वे तो उससे कोई उम्मीद ही नहीं रख रहे थे.
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सब समझते थे कि वह कंगाल और नीच पुरुष है जो अपनी हैसियत अनुसार पीछे बैठता है. सबने उसके दानशीलता की बड़ी प्रशंसा की. उसके बारे में सब जान चुके थे.
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अगले दिन सेठ फिर से उसी तरह मैले कपड़ों में आया और स्वभाव अनुसार पीछे बैठ गया. सब खड़े हो गए और उसे आगे बैठने के लिए स्थान देकर प्रार्थना की पर सेठ ने मना कर दिया.
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फिर महात्मा जी बोले- सेठ जी आप यहां आएं, मेरे पास बैठिए. आपका स्थान पीछे नहीं.
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सेठ ने उत्तर दिया- सच में संसार में धन की ही पूजा है. आम लोगों की भावनाएं तो भौतिकता से जुड़ी होंगी लेकिन महात्मा जी आप तो संत है. मैले कपड़े वाले को अपने पास बिठाने की आपको तभी सूझी जब मेरे धनी होने का पता चला.
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माया को माया मिले, कर-कर लंबे हाथ।
तुलसीदास गरीब की, कोई न पूछे बात।।
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महात्मा जी आप माया के प्रभाव में मुझे अपना रहे हैं. क्या यह सत्य है या कोई और कारण है ?
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महात्मा जी बोले- आपको समझने में फेर हुआ है. मैं यह सम्मान आपके धन के प्रभाव में नहीं दे रहा. जरूरत मंद के प्रति आपके त्याग के भाव को दे रहा हूं.
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धन तो लोगों के पास होता ही है, दान का भाव नहीं होता. यह उस भाव को सम्मान है.


त्याग और अपरिचितों के प्रति दया का भाव मनुष्य को विचारों से संत बना देता है. परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं इसलिए इसके धारण करने वाला मान-प्रतिष्ठा से युक्त यशस्वी और संततुल्य आदरणीय हो जाता है.

((((((( जय जय श्री राधे ))))

लष्मीकांत वर्शनय

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एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ लगी थी। किसी फकीर ने सम्राट से भिक्षा मांगी थी। सम्राट ने उससे कहा, जो भी चाहते हो, मांग लो। दिवस के प्रथम याचक की कोई भी इच्छा पूरी करने का उसका नियम था। उस फकीर ने अपने छोटे से भिक्षापात्र को आगे बढ़ाया और कहा, बस इसे स्वर्ण मुद्राओं से भर दें।

सम्राट ने सोचा इससे सरल बात और क्या हो सकती है! लेकिन जब उस भिक्षा पात्र में स्वर्ण मुद्राएं डाली गई, तो ज्ञात हुआ कि उसे भरना असंभव था। वह तो जादुई था।

जितनी अधिक मुद्राएं उसमें डाली गई, वह उतना ही अधिक खाली होता गया! सम्राट को दुखी देख वह फकीर बोला, न भर सकें तो वैसा कह दें। मैं खाली पात्र को ही लेकर चला जाऊंगा! ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि लोग कहेंगे कि सम्राट अपना वचन पूरा नहीं कर सके !

सम्राट ने अपना सारा खजाना खाली कर दिया, उसके पास जो कुछ भी था, सभी उस पात्र में डाल दिया गया, लेकिन अद्भुत पात्र न भरा, सो न भरा। तब उस सम्राट ने पूछा, भिक्षु, तुम्हारा पात्र साधारण नहीं है। उसे भरना मेरी साम‌र्थ्य से बाहर है।

क्या मैं पूछ सकता हूं कि इस अद्भुत पात्र का रहस्य क्या है? वह फकीर हंसने लगा और बोला, कोई विशेष रहस्य नहीं। यह पात्र मनुष्य के हृदय से बनाया गया है।

क्या आपको ज्ञात नहीं है कि 【मनुष्य का हृदय कभी भी भरा नहीं जा सकता? धन से, पद से, ज्ञान से- किसी से भी भरो, वह खाली ही रहेगा, क्योंकि इन चीजों से भरने के लिए वह बना ही नहीं है। इस सत्य को न जानने के कारण ही मनुष्य जितना पाता है, उतना ही दरिद्र होता जाता है। हृदय की इच्छाएं कुछ भी पाकर शांत नहीं होती हैं। क्यों? क्योंकि, हृदय तो परमात्मा को पाने के लिए बना है
~ ओशो
….Osho lover Prem aap sbhi ko