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पश्चाताप-


पश्चाताप-

एक बार की बात है। एक राजा था। स्वभाव से वह बहुत क्रूर इंसान था। जिससे नाराज हो जाता, उसके प्राण लेने में देर नहीं लगाता। राजा के एक विश्वासपात्र अनुभवी मंत्री से एक छोटी सी गलती हो गयी। गलती तो जरा सी थी, पर राजा आख‍िर राजा ठहरा। यही कारण था कि वह मंत्री की उस छोटी सी भी गलती को भी बर्दाश्त न कर सका। उसने क्रोधित होकर मंत्री को शिकारी कुत्तों के आगे फिंकवाने का हुक्म दे दिया।

राजमहल के नियम के अनुसार मंत्री को कुत्तों के आगे फेंकने से पहले उसकी अंति‍म इच्छा पूछी गयी। मंत्री हाथ जोड़कर बोला- “महाराज! मैंने आपका नमक खाया है।”

कहते हुए मंत्री ने एक लम्बी सी सांस ली और फिर अपनी बात आगे बढ़ाई, ”एक आज्ञाकारी सेवक के रूप में आपकी 10 सालों से सेवा करता आ रहा हूं।”

”तुम सही कह रहे हो,” राजा ने कोबरा नाग की तरह फुंफकारते हुए जवाब दिया, ”लेकिन यह याद दिला कर तुम इस सजा से नहीं बच सकते।”

”नहीं महाराज, मैं सजा से बचना नहीं चाहता,” मंत्री ने अपने हाथ पुन: जोड़ दिये, ”बस आपसे एक छोटा सा निवेदन है। अगर, मेरी स्वामीभक्ति को देखते हुए मुझे 10 दिनों की मोहलत जाती, तो आपका बड़ा एहसान होता। मैं अपने कुछ अधूरे कार्य…।”

कहते हुए मंत्री ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी और राजा की ओर देखा। राजा ने दयालुता दिखाते हुए मंत्री की सजा दस दिनों के लिए मुल्तवी कर दी और दस दिनों के लिए दरबार भंग कर दिया।

दस दिनों के बाद राजा का दरबार पुन: लगा। सैनिकों ने मंत्री को राजा के सामने प्रस्तुत किया। राजा ने एक बार मंत्री की ओर देखा और फिर मंत्री को दरबार हाल के बगल में मौजूद खूंख्वार कुत्तों के बाड़े में फेंकने का इशारा कर दिया। सैनिकों ने राजा की आज्ञा का पालन किया। मंत्री को खूंख्वार जंगली कुत्तों के बाड़े में फेंक दिया गया।

परंतु यह क्या? कुत्ते मंत्री पर टूट पड़ने की बजाए अपनी पूँछ हिला-हिला कर उसके आगे-पीछे घूमने लगे। यह देखकर राजा भौंचक्का रह गया। वह दहाड़ते हुए बोलो, ”ये क्या हो रहा है? ये खूंख्वार कुत्ते इस तरह का व्यवहार क्याें कर रहे हैं?”

यह सुनकर मंत्री बोला, ”राजन! मैंने आपसे जो 10 दिनों की मोहलत मांगी थी, उसका एक-एक क्षण इन बेजुबानों की सेवा में लगाया है। मैं रोज इन कुत्तों को खिलाता-पिलाता था और इनकी सेवा करता था। यही कारण है कि ये कुत्ते खूंख्वार और जंगली होकर भी मेरी दस दिनों की सेवा नहीं भुला पा रहे हैं। परन्तु खेद है कि आप मेरी एक छोटी सी गल्ती पर मेरी 10 वर्षों की स्वामी भक्ति को भूल गए और मुझे मौत की सजा सुना दी!”

यह सुनकर राजा को भारी पश्चाताप हुआ। उसने तत्काल मंत्री को आज़ाद करने का हुक्म दिया और आगे से ऐसी गलती ना करने की सौगंध ली।

Moral of the Story

दोस्तों, वह राजा तो पश्चाताप करके अपनी भूल को सुधार गया। हमें भी उसी तरह क्षमाशील होना चाहिये।

हम भी प्रण करें कि हम भी किसी की हज़ार अच्छाइयों को उसकी एक बुराई के सामने छोटा नहीं होने देंगे और किसी की एक छोटी सी गलती के लिए उसे उस राजा की तरह इतनी बड़ी सजा नहीं देंगे!

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एक काल्पनिक कथा ….


एक काल्पनिक कथा ….
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अब्दुल– मोदी के सत्ता में आने के बाद —

“बकरा इतना महंगा हो गया है की जनता परेशान है! GST जब से लागू हुआ जनता मरी जा रही है! देश बर्बाद हो गया नोटबन्दी के बाद ” !

ये मुल्क तो अब रहने लायक भी नही बचा !! अब तो इस मुल्क में दलितों और अल्पसंख्यको का जीना मुश्किल हो गया है !

इतना बड़बड़ाते हुए अब्दुल अपने पांचवे बच्चे की डिलीवरी के लिए जिला अस्पताल के डॉक्टर से मिलने पहुँचा … !
और 6000 रु लेकर मोदी को गरियाते हुए घर चला आया !

मोदी द्वारा दिये गए फ्री सिलेंडर को ऑन किया और बच्चो के लिए गोश्त गरम किया,खिलाया और सुलाया !

फिर अगली सुबह योगी को गरियाते हुए ग्रामीण बैंक पहुच गया और लोन माफी का सर्टिफिकेट प्राप्त किया !

अगले दिन अपने पांचों बच्चों को स्कूल से मिली फ्री वाली नई वाली ड्रेस पहना कर स्कूल भेजा ! साथ मे बच्चों को समझाया देखो, स्कूल में भारत माता की जय मत
बोलना,गुनाह होता है !

बच्चों को यह भी याद दिलाया कि अल्प संख्यक वजीफे वाला फार्म लेकर आना है! फीस तो खैर पहले ही माफ है ! स्कूल से आने के बाद बच्चों ने हरे हरे पेड़ की पत्तियां तोड़ी बकरियो के लिए !

कुछ पेड़ अब्दुल काटकर पहले ही उसकी लकड़ी बेंच चुका है ! ईद पर गली के चौराहे पर बकरे की कुर्बानी पिछले साल से ही दे रहा है !

इधर रोहिंग्या मुसलमानो की स्थिति को लेकर अब्दुल बहुत चिंतित रहता है ! उधर चीन ने भी अब्दुल को धोखा दे दिया, हिंदुस्तान पर हमला ही नही किया !

पाकिस्तान की निंदा चीन की धरती से बहुत बुरी लगी अब्दुल को !

अब्दुल कल फिर सरकारी दफ्तर मुफ्त शौचालय के बारे में पता करने जाएगा, साथ ही मुफ्त मकान की भी जानकारी करेगा ! बिजली तो सालो से फ्री में जला ही रहा हैं !

लेकिन क्या कहें , अब्दुल अभी भी इंडिया से खुश नही
है …!!

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मनोहर धोबी का गधा


मनोहर धोबी का गधा

मैंने सुना है, पुरानी कथा है कि अवंतिका नगर के बाहर, क्षिप्रा नदी के पार एक महापंडित रहता था। उसकी दूर दूर तक ख्याति थी। वह रोज क्षिप्रा को पार करके, नगर के एक बड़े सेठ को कथा सुनाने जाता था धर्मकथा। एक दिन बहुत चौंका। जब वह नाव से क्षिप्रा पार कर रहा था, एक घड़ियाल ने सिर बाहर निकाला और कहा कि पंडित जी, मेरी भी उम्र हो गई, मुझे भी कुछ ज्ञान आते जाते दे दिया करें। और मुफ्त नहीं मांगता हूं। और घड़ियाल ने अपने मुंह में दबा हुआ एक हीरों का हार दिखाया।

पंडित तो भूल गया जिस वणिक को कथा सुनाने जाता था उसने कहा, पहले तुझे सुनाएंगे। रोज पंडित घड़ियाल को कथा सुनाने लगा और रोज घड़ियाल उसे कभी हीरे, कभी मोती, कभी माणिक के हार देने लगा। कुछ दिनों बाद घड़ियाल ने कहा कि पंडित जी! अब मेरी उम्र पूरी होने के करीब आ रही है, मुझे त्रिवेणी तक छोड़ आएं, एक पूरा मटका भर कर हीरे जवाहरात दूंगा। पंडित उसे लेकर त्रिवेणी गया और जब घड़ियाल को उसने त्रिवेणी में छोड़ दिया और अपना मटका भरा हुआ ले लिया और ठीक से देख लिया मटके में कि हीरे जवाहरात सब हैं, और विदा होने लगा तो घड़ियाल उसे देख कर हंसने लगा। उस पंडित ने पूछा. हंसते हो? क्या कारण है?

उसने कहा, मैं कुछ न कहूंगा। मनोहर नाम के धोबी के गधे से अवंतिका में पूछ लेना। पंडित को तो बहुत दुख हुआ। किसी और से पूछें यही दुख का कारण! फिर वह भी मनोहर धोबी के गधे से पूछें! मगर घड़ियाल ने कहा, बुरा न मानना। गधा मेरा पुराना सत्संगी है। मनोहर कपड़े धोता रहता है, गधा नदी के किनारे खड़ा रहता है, बड़ा ज्ञानी है। सच पूछो तो उसी से मुझमें भी ज्ञान की किरण जगी। पंडित वापिस लौटा, बड़ा उदास था। गधे से पूछे! लेकिन चैन मुश्किल हो गई, रात नींद न आए कि घड़ियाल हंसा तो क्यों हंसा? और गधे को क्या राज मालूम है? फिर सम्हाल न सका अपने को। एक सीमा थी, सम्हाला, फिर न सम्हाल सका। फिर एक दिन सुबह सुबह पहुंच गया और गधे से पूछा कि महाराज! मुझे भी समझाएं, मामला क्या है? घड़ियाल हंसा तो क्यों हंसा?

वह गधा भी हंसने लगा। उसने कहा, सुनो, पिछले जन्म में मैं एक सम्राट का वजीर था। सम्राट ने कहा कि इंतजाम करो, मेरी उम्र हो गई, त्रिवेणी चलेंगे, संगम पर ही रहेंगे। फिर त्रिवेणी का वातावरण ऐसा भाया सम्राट को, कि उसने कहा, हम वापिस न लौटेंगे। और मुझसे कहा कि तुम्हें रहना हो तो मेरे पास रह जाओ और अगर वापिस लौटना हो तो ये करोड़ मुद्राएं हैं सोने की, ले लो और वापिस चले जाओ। मैंने करोड़ मुद्राएं स्वर्ण की ले लीं और अवंतिका वापिस आ गया। इससे मैं गधा हुआ। इससे घड़ियाल हंसा।

कहानी प्रीतिकर है।

बहुत हैं, जिनका ज्ञान उन्हीं को मुक्त नहीं कर पाता। बहुत हैं जिनके ज्ञान से उनके जीवन में कोई सुगंध नहीं आती। जानते हैं, जानते हुए भी जानने का कोई परिणाम नहीं है। शास्त्र से परिचित हैं, शब्दों के मालिक हैं, तर्क का श्रृंगार है उनके पास, विवाद में उन्हें हरा न सकोगे; लेकिन जीवन में वे हारते चले जाते हैं। उनका खुद का जाना हुआ उनके जीवन में किसी काम नहीं आता।

जो ज्ञान मुक्ति न दे वह ज्ञान नहीं। ज्ञान की परिभाषा यही है, जो मुक्त करे।

जीसस ने कहा है, सत्य तुम्हें मुक्त करेगा; और अगर मुक्त न करे तो जानना कि सत्य नहीं है। सिद्धांत एक बात है, सत्य दूसरी बात। सिद्धांत उधार है, सस्ते में ले लिया है; चोर बाजार से खरीद लिया है, मुफ्त पा गए हो, कहीं राह पर पड़ा मिल गया है, अर्जित नहीं किया है। सत्य अर्जित करना होता है। जीवन की जो आहुति चढ़ाता है, वही सत्य को उपलब्ध होता है। जीवन का जो यज्ञ बनाता, वही सत्य को उपलब्ध होता है। सत्य मिलता है स्वयं के श्रम से। सत्य मिलता है स्वयं के बोध से। दूसरा सत्य नहीं दे सकता।

इस एक बात को जितने भी गहरे तुम सम्हाल कर रख लो उतना हितकर है। सत्य तुम्हें पाना होगा। कोई जगत में तुम्हें सत्य दे नहीं सकता। और जब तक तुम यह भरोसा किए बैठे हो कि कोई दे देगा, तब तक तुम भटकोगे, तब तक सावधान रहना, कहीं मनोहर धोबी के गधे न हो जाओ! तब तक तुम त्रिवेणी पर आ आ कर चूक जाओगे, संगम पर पहुंच जाओगे और समाधि न बनेगी। बार बार घर के करीब आ जाओगे और फिर भटक जाओगे।

अष्टावक्र महागीता

ओशो

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एक आध्यात्मिक प्रवृत्ति


एक आध्यात्मिक प्रवृत्ति
प्रस्तुत है एक सुंदर सी लघु कथा, आध्यात्मिक प्रवृत्ति की महत्त्व्ता एवं उसका अर्थ उजागर करती हुई।

सुभूति, बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में से एक थे व बहुत समय से अपने गुरु की शिक्षाओं को चहुं ओर पहुंचाने के इच्छुक थे। एक सुबह, जब बुद्ध जेतवन में आए हुए थे, तो सुभूति ने उनके ठहरने के स्थान, गंडकुटीर के बाहर बुद्ध को दंडवत प्रणाम किया, व उनके संदेश को चारों दिशाओं में फैलाने हेतु उनकी आज्ञा मांगी।
“उठो सुभूति,” बुद्ध ने कहा। “शिक्षक बनना कोई सरल कार्य नहीं होता। यदि आप बहुत अच्छे शब्द भी कह रहे होंगे, तब भी ऐसे बहुत से लोग होंगे तो आपकी आलोचना व निरादर करेंगे।”
“हे शास्ता! आपकी कृपा एवं आशीर्वाद से मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस सब का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। क्या मुझे तथागत की अनुमति है?”
बुद्ध कुछ क्षणों के लिए मौन हो गए व कोई टिप्पणी नहीं दी। सुभूति अपना मस्तक नीचे किए वहीं बैठे रहे। इस बीच अन्य भिक्षु जेतवन व अन्य विहारों से संबन्धित महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए बुद्ध के पास आते जाते रहे, चूंकि बहुत से नए एकांतवास व मठ सम्पूर्ण भारतवर्ष में बनाए जा रहे थे। तीन घंटे के उपरांत बुद्ध ने भोजन ग्रहण किया व विश्राम हेतु अपनी कुटिया में चले गए।
कुछ घंटे और व्यतीत हो गए और जब शाम को प्रवचन हेतु बुद्ध बाहर आए, सुभूति उस समय भी मस्तक झुकाये बाहर ही बैठे थे।
“सुभूति,” बुद्ध बोले, “तुम अभी भी यहीं बैठे हो। मुझे लगा था कि मेरे मौन में तुम्हें अपना उत्तर मिल गया होगा।”
“प्रभु! मैं इतना बुद्धिमान नहीं कि तथागत के मौन का अर्थ जान पाऊँ। कोई भी इतना बुद्धिमान नहीं।”
बुद्ध मुस्कुराए व अपनी कमलासन मुद्रा में विराजमान हो गए।
“यदि तुम किसी गाँव में कुछ संदेश समझाने जाते हो और लोग तुम्हें सुनना ही पसंद न करें; तब तुम क्या करोगे, सुभूति?”
“प्रभु, मुझे बिलकुल बुरा नहीं लगेगा। मैं स्वयं को स्मरण कराऊंगा कि कम से कम लोग मुझे बुरा भला तो नहीं न कह रहे या मुझे गाली तो नहीं न दे रहे।”
“और यदि वे ऐसा करें तब क्या?”
“हे तथागत! ऐसे में भी मैं मुस्कुराऊंगा कि आपका संदेश लोगों तक पहुंचाने का यह तो अति-लघु मूल्य है जो मुझे चुकाना पड़ रहा है। यह भी कि वे इससे भी बुरा कुछ और कर सकते थे, जैसे मुझे शारीरिक कष्ट पहुंचाना।”
“और तब क्या, यदि वे सच में तुम पर पत्थर बरसाने लगें?”
“तथागत के आशीर्वाद से मैं तब भी प्रसन्न रहूँगा। मैं स्वयं को स्मरण करवाऊँगा कि कम से कम उन्होंने मुझे चाकू आदि के वार से घायल तो नहीं न किया।”
“तब क्या यदि वे ऐसा ही करें?”
“मैं यह सोच कर प्रोत्साहित महसूस करूंगा कि चलो उन्होंने मुझे जान से तो नहीं मारा।”
“और सुभूति, यदि उन्होंने तुम्हें जान से ही मार डाला तो?” बुद्ध ने अपने स्वाभाविक अनासक्त भाव से कहा।
“तथागत! मैं अतिशय हर्षित होऊँगा” सुभूति ने पहली बार अपना मस्तक उठा कर कहा। नेत्रों में अश्रु व हृदय में बुद्ध का सलोना रूप सजाये, सुभूति कहते गए, “तथागत के चरण-कमलों में प्राण त्यागने के अलावा, निर्वाण का इससे सुंदर मार्ग क्या होगा कि तथागत के संदेश का प्रसार करते हुए ही मेरे प्राण चले जाएँ।”
“सुभूति,” बुद्ध बोले और अपने आसन से खड़े हो उसे गले से लगा लिया, “तुम शिक्षक बनने के पूर्णत: योग्य हो। सुबह तुम्हारे धैर्य की परीक्षा थी। तुम्हारे अंदर एक महान ध्येय के प्रति समर्पण की आध्यात्मिक प्रवृति विराजमान है।”
किसी व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रवृत्ति को व्यक्त करते हुए तीन प्रमुख गुणों को और कुछ भी शायद इससे अधिक अच्छे प्रकार से परिभाषित नहीं कर पाता, वे गुण हैं – धैर्य, पूर्णत: निःस्वार्थ भाव, व दृढ़ संकल्प। सुभूति के व्यक्तित्व में मुझे कृतज्ञता का भाव एवं समर्पण भी दिखाई दिये। धैर्य एवं निःस्वार्थ भाव को बढ़ाए बिना हम एक निष्काम आध्यात्मिक रुझान विकसित नहीं कर सकते।
मनुष्य को अनुभव होते कष्टों के मूल में बहुधा इच्छाओं व अपेक्षाओं का पूर्ण न होना ही हेतु बनता है। लोग मुझे महत्त्व क्यों नहीं देते? मेरा साथी मुझे प्रेम क्यों नहीं करता? सम्पूर्ण विश्व मेरी प्रतीक्षा में रत क्यों नहीं? मेरे कार्य की प्रशंसा क्यों नहीं की जाती? और न जाने क्या क्या।
यदि मैं इस तथ्य पर लंबा सा प्रवचन देना आरंभ कर दूँ कि क्यों अपेक्षाएँ रखना एक बुरी बात है, तो इससे कोई लाभ नहीं क्योंकि आप वह सब पहले से ही जानते हैं। हम अपनी भावनाओं एवं आकांशाओं द्वारा इस तरह जकड़े व उनके नियंत्रण में होते हैं, व उनकी तीव्र वेदना से भरे अन्तःकरण को अपना दृष्टिकोण इतना सही व वैध प्रतीत होता है कि उस समय कोई और तर्क सफल नहीं होता। तथापि, आध्यात्मिक यात्रा में आगे न बढ्ने का वह कोई कारण नहीं हो सकता।
और, यह बात मुझे आज के विषय के मूल तक ले जाती है – एक आध्यात्मिक प्रवृत्ति। जब तक हम अपने स्वयं के व दूसरों के जीवन के प्रति एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण नहीं अपनाते व उसे प्रोत्साहन नहीं देते, तब तक हम अपने निम्न स्तर के विचारों एवं भावनाओं से ऊपर उठने का सोच भी नहीं सकते। हम सदा अपने आराम पर ही आवश्यकता से अधिक बल देते हैं, कि क्यों मेरे साथ ही इस प्रकार का व्यवहार किया जा रहा है अथवा तो मुझे पूछा नहीं जा रहा? कैसा हो यदि “मैं” थोड़ा और निःस्वार्थी बन जाऊँ? क्यों न “मैं” कुछ और बाँटने वाला हाथ बन जाऊँ? सुभूति के विरोध में खड़ी भीड़ का हिस्सा बनने के स्थान पर “मैं” स्वयं ही सुभूति क्यों नहीं बन जाता?
एक आध्यात्मिक प्रवृत्ति का मूल रूप से यह अर्थ होता है कि विभिन्न निर्णयों व कार्यों को करते समय हम सदा स्वयं को ही केंद्र में न रखें। शायद हमेशा हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि इसमें “मेरे” लिए क्या है? क्यों हमेशा हमारे हर उदार कार्य को प्रतिदान में कुछ मिलना ही चाहिए? अंततः वह वास्तव में एक निस्वार्थ कर्म है तो उसे वैसा ही रहने दें।
क्या आपने कभी गौर किया है कि कभी कभी हम जब किसी को उपहार देते हैं तो कैसे हम यह जानने को उत्सुक रहते हैं कि उसने उस उपहार का क्या किया? और, शायद हमें यह जान कर दुःख भी होता हो कि उसने उपहार का उपयोग न कर उसे आगे किसी ओर को दे दिया। इसका अर्थ यह हुआ कि वास्तव में हमने उपहार से जुड़े अपने लगाव को तो छोड़ा ही नहीं। तब उपहार ‘देने’ की क्रिया का समापन ही कहाँ हुआ?
यदि आप दूसरों की सहायता से जुड़ा कोई कार्य करना चाहते हैं, कोई ऐसा ध्येय जो आपके अस्तित्व को दूसरों के लिए उपयोगी बनाए, और प्रतिफल में जो आपके जीवन को ओर संतुष्टिपूर्ण बना दे, तो जीवन के प्रति व सम्पूर्ण जगत के प्रति एक आध्यात्मिक प्रवृत्ति विकसित करना अनिवार्य है। इस सब से यह अर्थ निकलता है कि चूंकि दूसरा व्यक्ति मेरे कष्ट का हेतु बन रहा है, अथवा लोग मुझसे असहमति रख रहे हैं, और सही प्रतिक्रिया नहीं दे रहे तो क्या मैं धैर्य, निःस्वार्थ भाव एवं करुणा का त्याग कर दूँ? नहीं। और, कई बार अपनी छोटी-छोटी व्यक्तिगत समस्याओं से ऊपर उठने का एक मात्र मार्ग यही होता है कि अपनी ऊर्जा किसी बड़े कार्य में संप्रेक्षित कर दी जाए। चिंता करना अथवा हर समय तनाव से थके मांदे से रहना – यह हमारी मूल प्रवृत्ति है, हमारा स्वभाव-संस्कार। तो क्यों न हम किसी बृहद एवं परोपकारिता के ध्येय की दिशा में चिंतित हों, बजाय अपने निम्न स्तर की चिंताओं से धराशाही होने के।
मुल्ला नसरूदीन अपने मित्र के साथ बाहर घूम रहे थे कि अचानक न जाने कहाँ से आकाश में बादल छा गए। इससे पहले कि वे कुछ कर पाते, वर्षा आरंभ हो गई।
“मुल्ला, अपना छाता तो खोलो,” उसका मित्र चिल्ला कर बोला, “प्रभु का शुक्र है कि हमारे पास छाता है।”
“यह छाता किसी काम का नहीं”, बारिश के शोर में मुल्ला तेज आवाज़ में बोला। “इसमें बहुत से छेद हैं।”
“तो तुम इसे अपने साथ ले कर क्यों घूम रहे हो?”
“अब मुझे कहाँ पता ठा कि बारिश होने वाली है!”
मुल्ला की ही भांति हम अपना बोझा लिए घूमते हैं, अपना “मैं” सबसे पहले का छाता, यह सोच कर कि यह हमारी सहायता करेगा, हमें बचा लेगा, किन्तु इसमें तो छेद ही छेद हैं। यह हमें या जो भी हमारे आसपास हैं उन्हें सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकता। न तो धूप से और न ही वर्षा से। इसमें कोई दो राय नहीं कि आप को स्वयं का ध्यान रखना ही है, स्वयं की प्रसन्नता का ध्यान, किन्तु अपना पूरा जीवन मात्र ऐसा करने में ही व्यतीत कर देना, अज्ञानता है। यह आध्यात्मिक तो कदापि नहीं, और यह कभी संतुष्टि प्रदान करने वाला भी नहीं होगा।
यदि आपको आत्म-संतुष्टि की तलाश है तो अपने से आगे देखना सीखें। और तो और, ध्यान की सभी विधियों, योग आदि से भी आगे। ये विधियाँ आपको आत्म-संतुष्टि तक ले जाएँ, यह अनिवार्य नहीं। भले ही यह सब हमें शब्दों, कार्यों व बातचीत के प्रति सजग व सचेत बनाए, किन्तु, अंततोगत्वा, वह हमारी प्रवृत्ति ही है जो हमारी संतुष्टि को ईंधन प्रदान करती है। इतिहास के पन्ने ऐसे कई विभिन्न धर्मों से संबन्धित संतों के निःस्वार्थ भाव से भरे जीवन से भरे पड़े हैं, जिन्होंने न कभी ये किया और न वो, वे कभी भी ग्रन्थों में वर्णित रीतिनुसार न तो कभी ध्यान में बैठे, और न योग ही किया। तो क्या वे किसी भी दृष्टि से कुछ कम प्रबुद्ध थे? मुझे ऐसा नहीं लगता। जिस गुण से उन सब का व्यक्तित्व सुसज्जित था वह है एक करुणा से भरा, सौहार्दपूर्ण विश्वव्यापी दृष्टिकोण।
जितना अधिक आध्यात्मिक आपका दृष्टिकोण, उतना विशाल आपका जीवन बनता जाता है। तब क्षमा, निहस्वार्थ्भाव, धैर्य, करुणा एवं कृतज्ञता, स्वाभाविक ही, बिना किसी व्यवधान के, इस प्रकार बहने लगते हैं जैसे मानसून में हिमालय से गिरते जल-प्रपात।
धैर्यवान बनें। जितना आप प्राप्त करना चाहते हैं, उतना लेने से पूर्व उससे कहीं अधिक देना आरंभ करें। प्रकृति प्रतिदान में आपको भर देगी। वह कभी भी ऐसा करने से चूकती नहीं।

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कछुआ और खरगोश – वो कहानी जो आपने नहीं सुनी…


कछुआ और खरगोश – वो कहानी जो आपने नहीं सुनी…
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आपने कछुए और खरगोश की कहानी ज़रूर सुनी होगी, *just to remind you;* short में यहाँ बता देता हूँ:
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एक बार खरगोश को अपनी तेज चाल पर घमंड हो गया और वो जो मिलता उसे रेस लगाने के लिए *challenge* करता रहता।
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कछुए ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली।
रेस हुई। खरगोश तेजी से भागा और काफी आगे जाने पर पीछे मुड़ कर देखा, कछुआ कहीं आता नज़र नहीं आया, उसने मन ही मन सोचा कछुए को तो यहाँ तक आने में बहुत समय लगेगा, चलो थोड़ी देर आराम कर लेते हैं, और वह एक पेड़ के नीचे लेट गया। लेटे-लेटे कब उसकी आँख लग गयी पता ही नहीं चला।
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उधर कछुआ धीरे-धीरे मगर लगातार चलता रहा। बहुत देर बाद जब खरगोश की आँख खुली तो कछुआ फिनिशिंग लाइन तक पहुँचने वाला था। खरगोश तेजी से भागा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और कछुआ रेस जीत गया।
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*Moral of the story: Slow and steady wins the race.* धीमा और लगातार चलने वाला रेस जीतता है।
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ये कहानी तो हम सब जानते हैं, अब आगे की कहानी देखते हैं:
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रेस हारने के बाद खरगोश निराश हो जाता है, वो अपनी हार पर चिंतन करता है और उसे समझ आता है कि वो *overconfident* होने के कारण ये रेस हार गया…उसे अपनी मंजिल तक पहुँच कर ही रुकना चाहिए था।
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अगले दिन वो फिर से कछुए को दौड़ की चुनौती देता है। कछुआ पहली रेस जीत कर आत्मविश्वाश से भरा होता है और तुरंत मान जाता है।
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रेस होती है, इस बार खरगोश बिना रुके अंत तक दौड़ता जाता है, और कछुए को एक बहुत बड़े अंतर से हराता है।
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*Moral of the story: Fast and consistent will always beat the slow and steady.* तेज और लगातार चलने वाला धीमे और लगातार चलने वाले से हमेशा जीत जाता है।
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यानि *slow and steady* होना अच्छा है लेकिन *fast and consistent* होना और भी अच्छा है।
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कहानी अभी बाकी है जी….
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इस बार कछुआ कुछ सोच-विचार करता है और उसे ये बात समझ आती है कि जिस तरह से अभी रेस हो रही है वो कभी-भी इसे जीत नहीं सकता।
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वो एक बार फिर खरगोश को एक नयी रेस के लिए चैलेंज करता है, पर इस बार वो रेस का रूट अपने मुताबिक रखने को कहता है। खरगोश तैयार हो जाता है।
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रेस शुरू होती है। खरगोश तेजी से तय स्थान की और भागता है, पर उस रास्ते में एक तेज धार नदी बह रही होती है, बेचारे खरगोश को वहीँ रुकना पड़ता है। कछुआ धीरे-धीरे चलता हुआ वहां पहुँचता है, आराम से नदी पार करता है और लक्ष्य तक पहुँच कर रेस जीत जाता है।
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*Moral of the story: Know your core competencies and work accordingly to succeed.* पहले अपनी *strengths* को जानो और उसके मुताबिक काम करो जीत ज़रुर मिलेगी.
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कहानी अभी भी बाकी है जी …..
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इतनी रेस करने के बाद अब कछुआ और खरगोश अच्छे दोस्त बन गए थे और एक दुसरे की ताकत और कमजोरी समझने लगे थे। दोनों ने मिलकर विचार किया कि अगर हम एक दुसरे का साथ दें तो कोई भी रेस आसानी से जीत सकते हैं।
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इसलिए दोनों ने आखिरी रेस एक बार फिर से मिलकर दौड़ने का फैसला किया, पर इस बार *as a competitor* नहीं बल्कि *as a team* काम करने का निश्चय लिया।
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दोनों स्टार्टिंग लाइन पे खड़े हो गए…. *get set go* …. और तुरंत ही खरगोश ने कछुए को ऊपर उठा लिया और तेजी से दौड़ने लगा। दोनों जल्द ही नदी के किनारे पहुँच गए। अब कछुए की बारी थी, कछुए ने खरगोश को अपनी पीठ बैठाया और दोनों आराम से नदी पार कर गए। अब एक बार फिर खरगोश कछुए को उठा फिनिशिंग लाइन की ओर दौड़ पड़ा और दोनों ने साथ मिलकर रिकॉर्ड टाइम में रेस पूरी कर ली। दोनों बहुत ही खुश और संतुष्ट थे, आज से पहले कोई रेस जीत कर उन्हें इतनी ख़ुशी नहीं मिली थी।
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*Moral of the story: Team Work is always better than individual performance.* टीम वर्क हमेशा व्यक्तिगत प्रदर्शन से बेहतर होता है।
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*Individually* चाहे आप जितने बड़े *performer* हों लेकिन अकेले दम पर हर मैच नहीं जीता सकते।
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अगर लगातार जीतना है तो आपको टीम में काम करना सीखना होगा, आपको अपनी काबिलियत के आलावा दूसरों की ताकत को भी समझना होगा। और जब जैसी *situation* हो, उसके हिसाब से टीम की *strengths* को *use* करना होगा।

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×××××××××× बड़ी बात ××××××××××

मुस्लिम शासकों ने “जजिया-कर” और अंग्रेजो ने “तीर्थ-यात्रा-कर” नहीं दे सकने वालो को मंदिर प्रवेश से रोका,

और चालाकी से इतिहास में बदनामी ब्राम्हणों के माथे पे थोप, दर्ज कर दिया।

#गब्बर

अछूतों को मन्दिर में न घुसने देने की सच्चाई क्या है ?

ये काम पुजारी करते थे कि मक्कार अंग्रेज ?

1932 में लोथियन कॉमेटी की रिपोर्ट सौंपते समय डॉ आंबेडकर ने अछूतों को मन्दिर में न घुसने देने का जो उद्धरण पेश किया है वो वही लिस्ट है जो अंग्रेजो ने #कंगाल यानि गरीब लोगों की लिस्ट बनाई थी जो मन्दिर में घुसने देने के लिए अंग्रेजों द्वारा लगाये गए टैक्स को देने में असमर्थ थे ।

रोचक एतिहासिक ज्ञान…

१८०८ में ईस्ट इंडिया कंपनी पूरी के जगन्नाथ मंदिर को अपने कब्जे में लेती हे और फिर लोगो से कर बसूला जाता हे, तीर्थ यात्रा के नाम पर.. चार ग्रुप बनाए जाते हैं.. और चौथा ग्रुप जो कंगाल हे उनकी एक लिस्ट जारी की जाती हे….

१९३२ में जब डॉ आंबेडकर अछूतों के बारे में लिखते हैं, तो वे ईस्ट इंडिया के जगनाथ पुरी मंदिर के दस्तावेज की लिस्ट को अछूत बना कर लिखते हैं….

भगवान् जगन्नाथ के मंदिर की यात्रा को यात्रा कर में बदलने से ईस्ट इंडिया कंपनी को बेहद मुनाफ़ा हुआ और यह 1809 से 1840 तक निरंतर चला जिससे अरबो रूपये सीधे अंग्रेजो के खजाने में बने और इंग्लैंड पहुंचे.

यात्रियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता था .

प्रथम श्रेणी = लाल जतरी (उत्तर के धनी यात्री )
द्वितीय श्रेणी = निम्न लाल (दक्षिण के धनी यात्री )
तृतीय श्रेणी = भुरंग ( यात्री जो दो रुपया दे सके )
चतुर्थ श्रेणी = पुंज तीर्थ …(कंगाल की श्रेणी जिनके पास दो रूपये भी नही , तलासी लेने के बाद )..

चतुर्थ श्रेणी के नाम इस प्रकार हे .
१. लोली या कुस्बी ,२ कुलाल या सोनारी ३ मछुवा ४ नामसुंदर या चंडाल 5 घोस्की 6 गजुर ७ बागड़ी 8 जोगी 9 कहार १० राजबंशी ११ पीरैली १२ चमार 13 डॉम 14 पौन १५ टोर १६ बनमाली १७ हड्डी

प्रथम श्रेणी से १० रूपये , द्वितीय श्रेणी से 6 रूपये , तृतीय श्रेणी से २ रूपये और चतुर्थ श्रेणी से कुछ नही ..

जो कंगाल की लिस्ट है जिन्हें हर जगह रोका जाता था और मंदिर में नही घुसने दिया जाता था। आप यदि उस समय 10 रूपये भर सकते तो आप सबसे अच्छे से ट्रीट किये जाओगे।

डॉ आंबेडकर ने अपनी lothian commtee report में यही लिस्ट का जिक्र किया हे…और कहा हे , कंगाल पिछले १०० साल में कंगाल ही रहे……

In regard to the depressed classes of Bengal there is an important piece of evidence to which I should like to call attention and which goes to show that the list given in the Bengal Census of 1911 is a correct enumeration of caste which have been traditionally treated as untouchable castes in Bengal. I refer to Section 7 of Regulation IV of 1809 (A regulation for rescinding Regulations IV and V of 1806 ; and for substituting rules in lieu of those enacted in the said regulations for levying duties from the pilgrims resorting to Jagannath, and for the superintendence and management of the affairs of the temple; passed by the Governor-General in Council, on the 28th of April 1809) which gives the following list of castes which were debarred from entering the temple of Jagannath at Puri : (1) Loli or Kashi, (2) Kalal or Sunri, (3) Machhua, (4) Namasudra or Chandal, (5) Ghuski, (6) Gazur, (7) Bagdi, (8) Jogi or Nurbaf, (9) Kahar-Bauri and Dulia, (10) Rajbansi, (II) Pirali, (12) Chamar, (13) Dom, (14) Pan, (15) Tiyar, (16) Bhuinnali, and (17) Hari.
The enumeration agrees with the list of 1911 Census and thus lends support to its correctness. Incidentally it shows that a period of 100 years made no change in the social status of the untouchables of Bengal.

वही कंगाल बाद में अछूत बने। ध्यान दीजिये महार शब्द का उल्लेख तक नही है।

ईस्ट इंडिया कंपनी की पूरी यात्रा को दो भागो में बाँट कर पढ़िए, 1750 से पहले और 1750 से आजादी तक।
पहली यात्रा में ईस्ट इंडिया कंपनी के कारनामो को जिसमे उसने ब्रिटानिया हुकूमत को अपने ही देश में कैसे भ्रष्ट तरीके से कब्जे में लिया और फिर उनसे अपने हाथ में असीमित शक्ति ले लिया और दूसरे हिस्से में हिंदुस्तान को लुटने – तोड़ने , समाज को तोड़ने – कुरीतियो को जन्म देना – भूखो मारना- धर्मान्तरण – दासता प्रथा — वर्ण को समाप्त करके जाति गत दुर्भावना ।
बहुत ही गन्दा और घृणित इतिहास है और उस काम में बहुत से हिन्दुस्तानियो ने खूब योगदान दिया। कमबख्त वही परंपरा हिंदुस्तान में आजादी के बाद भी जारी ।

अविनाश गौर

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एक सुनार से लक्ष्मी जी रूठ गई ।

जाते वक्त बोली मैं जा रही हूँ

और मेरी जगह नुकसान आ रहा है ।

तैयार हो जाओ।

लेकिन मै तुम्हे अंतिम भेट जरूर देना चाहती हूँ।
मांगो जो भी इच्छा हो।

सुनार बहुत समझदार था।
उसने 🙏 विनती की नुकसान आए तो आने दो ।

लेकिन उससे कहना की मेरे परिवार में आपसी प्रेम बना रहे।
बस मेरी यही इच्छा है।

लक्ष्मी जी ने तथास्तु कहा।

कुछ दिन के बाद :-

सुनार की सबसे छोटी बहू खिचड़ी बना रही थी।

उसने नमक आदि डाला और अन्य काम करने लगी।

तब दूसरे लड़के की बहू आई और उसने भी बिना चखे नमक डाला और चली गई।

इसी प्रकार तीसरी, चौथी बहुएं आई और नमक डालकर चली गई ।

उनकी सास ने भी ऐसा किया।

शाम को सबसे पहले सुनार आया।

पहला निवाला मुह में लिया।
देखा बहुत ज्यादा नमक है।

लेकिन वह समझ गया नुकसान (हानि) आ चुका है।

चुपचाप खिचड़ी खाई और चला गया।

इसके बाद बङे बेटे का नम्बर आया।

पहला निवाला मुह में लिया।
पूछा पिता जी ने खाना खा लिया क्या कहा उन्होंने ?

सभी ने उत्तर दिया-” हाँ खा लिया, कुछ नही बोले।”

अब लड़के ने सोचा जब पिता जी ही कुछ नही बोले तो मै भी चुपचाप खा लेता हूँ।

इस प्रकार घर के अन्य सदस्य एक -एक आए।

पहले वालो के बारे में पूछते और चुपचाप खाना खा कर चले गए।

रात को नुकसान (हानि) हाथ जोड़कर

सुनार से कहने लगा -,”मै जा रहा हूँ।”

सुनार ने पूछा- क्यों ?

तब नुकसान (हानि ) कहता है, ” आप लोग एक किलो तो नमक खा गए ।

लेकिन बिलकुल भी झगड़ा नही हुआ। मेरा यहाँ कोई काम नहीं।”

निचोङ

⭐झगड़ा कमजोरी, हानि, नुकसान की पहचान है।

👏जहाँ प्रेम है, वहाँ लक्ष्मी का वास है।

🔃सदा प्यार -प्रेम बांटते रहे। छोटे -बङे की कदर करे ।

जो बङे हैं, वो बङे ही रहेंगे ।

चाहे आपकी कमाई उसकी कमाई से बङी हो। 🙏🙏🙏🙏

अच्छा लगे तो आप जरुर किसी अपने को भेजें।

☘☘☘ – Զเधे Զเधे – ☘☘☘

अच्छे के साथ अच्छे बनें,
पर बुरे के साथ बुरे नहीं।

….क्योंकि –
🔰
हीरे से हीरा तो तराशा जा
सकता है लेकिन कीचड़ से
कीचड़ साफ नहीं किया
जा सकता ।

☘☘☘ ☘☘☘
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