Posted in यत्र ना्यरस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

श्रेष्ठतर माताएँ –


श्रेष्ठतर माताएँ –

माँ हर स्थिति में माँ है । बच्चे को संकट में डालकर भी शिक्षण देना उसका कर्तव्य है । घोंसले में बैठके नन्हें से परिन्दे ने पर फड़फड़ाये और सहम कर जहाँ था, चिपककर बैठ गया । बच्चे को भयभीत देख माँ ने उसे घोंसले से धकेलते हुए कहा – “ जब तक तू भय नहीं छोड़ेगा, उड़ना कहाँ से आयेगा ? “ दूसरे क्षण परिन्दा हवा में उड़ रहा था ।

चित्तौड़ के राजकुमार एक चीते का पीछा कर रहे थे । वह चोट खाकर झाड़ियों में जा छिपा था । राजकुमार घोड़े को झाड़ी के इर्द-गिर्द घुमा रहे थे ; पर छिपे चीते को बाहर निकालने में वे सफल न हो पा रहे थे ।

किसान की लड़की यह दृश्य देख रही थी । उसने राजकुमार से कहा – “ घोड़ा दौड़ाने से हमारा खेत खराब होता है । आप पेड़ की छाया में बैठे । चीते को मार कर मैं लाये देती हूँ ।” वह एक मोटा डंडा लेकर झाड़ी में घुस गई ओर मल्ल युद्ध में चीते पछाड़ दिया । उसे घसीटते हुए बाहर ले आई और राजकुमार के सामने पटक दिया ।

इस पराक्रम पर राजकुमार दंग रह गये । उन्होंने किसान से विनय करके उस लड़की से विवाह कर लिया । प्रख्यात योद्धा हमीर उस लड़की की कोख से पैदा हुआ था । माताओं के अनुरूप संतान का निर्माण होता है।

सुभद्रा की कोख से अभिमन्यु जन्मे थे । अंजनी ने हनुमान को जन्म दिया था । श्रेष्ठतर की माताएँ अपने गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरूप ही श्रेष्ठ संतानों को जन्म देती है। हिरण्यकश्यपु के घर प्रह्लाद जैसा भक्त होना ;नारी की -उनकी धर्मप्राण माता कयाधू की योग्यता का प्रमाण है।

आचार्य विकाज़ह शर्मा

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कंजूस की मेहमान नवाज़ी!


कंजूस की मेहमान नवाज़ी!

एक कंजूस की शिकायत थी कि उसके घर कोई मेहमान नहीं आता ।

एक दिन बदकिस्मती से एक मेहमान आ टपका ।

इस कंजूस ने अपने बेटे से कहा कि आधा किलो उम्दा पनीर लेते आओ। बेटा बाहर गया और काफी देर बाद खाली हाथ लौटा आया ।

बाप ने पूछा पनीर कहां है ?

बेटा बोला :- मैं ग्वाले के पास गया और कहा कि जो सबसे उम्दा पनीर है तुम्हारे पास वह दे दो। ग्वाले ने कहा मैं तुम्हें ऐसा पनीर दूंगा गोया मक्खन हो..

तो मैंने सोचा अगर ऐसा ही है तो मक्खन ही ले लूं। तो मैने कहा कि जो सबसे उम्दा मक्खन है तुम्हारे पास वह दे दो।

गवाले ने कहा मैं तुम्हें ऐसा मक्खन दूंगा गोया शेहद हो।

तो मैंने सोचा अगर ऐसा ही है तो शेहद ही खरीद लूं तो शेहद वाले के पास गया और कहा कि सबसे उम्दा शेहद है तुम्हारे पास वह दे दो।

तो शेहद वाले ने कहा मैं तुम्हें ऐसा शेहद दूंगा गोया बिल्कुल साफ शफ़्फ़ाफ़ पानी हो…

तो मैंने सोचा अगर यही किस्सा है तो पानी तो है ही घर में मौजूद। इसलिए में खाली हाथ वापस आ गया…

बाप: वाह बेटे ये तुमने बहुत शातिराना अकल भिड़ाई लेकिन एक नुकसान कर दिया , वह यह कि एक दुकान से दूसरी दुकान जाने में तुम्हारी चप्पल घिस गई होगी..???

बेटा: नहीं अब्बा ऐसा नहीं है मैं मेहमान की चप्पल पहन के गया था।

बाप तो बाप – बेटा भी बेटा , कमाल का हँसते रहो । शुभ रात्रि

नरेंद्र कुमार दुबे

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नानक हरिद्वार गए और एक घटना घटी।


नानक हरिद्वार गए और एक घटना घटी। पितृ-पक्ष चलता था और लोग कुएं पर पानी भर कर आकाश में अपने पुरखों को भेज रहे थे। नानक ने भी बाल्टी उठा ली, कुएं से पानी भरा और लोग तो पूरब की तरफ मुंह करके भेज रहे थे, उन्होंने पश्चिम की तरफ बाल्टी उलटानी शुरू कर दी। और जोर से कहा, पहुंच मेरे खेत में। जब दस-पांच बाल्टी डाल चुके और सब जगह खराब कर दी, पानी से भर दी, तो लोगों ने पूछा कि आप यह कर क्या रहे हैं? आपका दिमाग ठीक है? और पुरखों को जो पानी चढ़ाया जाता है, वह सूर्य की तरफ, पूर्व की तरफ, आप यह पश्चिम की तरफ उलटा धंधा कर रहे हैं! और यह क्या कहते हैं कि पहुंच मेरे खेत में? कहां खेत है तुम्हारा?
नानक ने कहा, यहां से कोई दो सौ मील दूर है। लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम पागल हो; शक तो हमें पहले ही हुआ था। कहीं दो सौ मील दूर यह पानी पहुंच सकता है? नानक ने कहा, तुम्हारे पुरखे कितनी दूर हैं? उन्होंने कहा कि वे तो अनंत दूरी पर हैं। तो नानक ने कहा कि जब अनंत दूरी तक पहुंच रहा है, तो दो सौ मील फासला क्या बहुत बड़ा है! जब तुम्हारे पुरखों तक पहुंच जाएगा तो हमारे खेत तक भी पहुंच जाएगा।
नानक क्या कह रहे हैं? नानक यह कह रहे हैं, थोड़ा चेतो! तुम क्या कर रहे हो? थोड़ा होश संभालो! कहां पानी ढाल रहे हो? इस तरह की मूढ़ताओं से क्या होगा?
लेकिन सारा धर्म इस तरह की मूढ़ताओं से भरा है। कोई पुरखों को पानी पहुंचा रहा है, कोई गंगाओं में स्नान कर रहा है कि पाप धुल जाएंगे, कोई पत्थर की मूर्तियों के सामने बिना किसी भाव के, बिना किसी अर्चना के, सिर झुकाए बैठा है और मांग कर रहा है संसार की। धर्म के नाम पर हजार तरह की मूढ़ताएं प्रचलित हैं।
इसलिए नानक कहते हैं, न तो शास्त्र से मिलेगा, न संप्रदाय से मिलेगा, न अंधे अनुकरण से मिलेगा। धर्म का संबंध होता ही तब है, जब कोई व्यक्ति मनन को उपलब्ध होता है।
जब कोई व्यक्ति जाग जाता है, भीतर सुरति आती है। बस जहां से ओंकार का नाद शुरू होता है, वहीं से धर्म का संबंध शुरू होता है। जिस दिन तुम समर्थ हो जाओगे नाद को सुनने में, करने वाले नहीं रहोगे, सिर्फ सुनने वाले, और भीतर नाद हो रहा है, और तुम आह्लादित हो, तुम साक्षी हो, तुम द्रष्टा हो–उसी दिन तुम्हारा धर्म से संबंध जुड़ जाएगा। निश्चित ही यह धर्म मजहब नहीं हो सकता। यह धर्म रिलीजन नहीं हो सकता। इस धर्म का वही अर्थ है जो बुद्ध के धम्म का। इस धर्म का वही अर्थ है जो महावीर के धर्म का।
धर्म का अर्थ है, स्वभाव। जो लाओत्से का अर्थ है ताओ से, वही धर्म से अर्थ है नानक का। तुम अपने स्वभाव से जुड़ जाओगे। और स्वभाव में हो जाना ही परमात्मा में हो जाना है। स्वभाव से हट जाना, खो जाना है। स्वभाव में लौट आना, वापस घर पहुंच जाना है।

ओशो

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मैंने सुना है, एक बार अकबर ने अपने दरबार में कहा – ओशो


ओशो….

मैंने सुना है, एक बार अकबर ने अपने दरबार में कहा, अपने नवरत्नों को बुला कर कि अब मैं बूढ़ा हुआ, इधर मैं बहुत प्रशंसा सुनता हूं इस देश में रामायण की, तो मैं कोई राम से छोटा राजा तो नहीं हूं, क्या मेरे जीवन पर रामायण नहीं लिखी जा सकती?

आठ रत्न तो चुप ही रहे। क्या कहें? यह भी कोई बात है? अकबर कितने ही बड़े सम्राट हों, मगर रामायण कैसे इनके ऊपर लिखी जा सकती है? एक रत्न बोले, बीरबल, वे रत्न कम थे, रतन ज्यादा थे। महारतन! उन्होंने कहा कि लिखी जा सकती है। क्यों नहीं लिखी जा सकती? आपमें क्या कमी है? अरे, राम का राज्य आपसे छोटा ही था।

आपका राज्य तो और भी बड़ा है, आप तो शहनशाहों के शहंशाह हैं। वे तो राजा राम थे केवल। लिख दूंगा, मैं लिख दूंगा। पर काम मेहनत का है, शास्त्र बड़ा है, एक लाख अशर्फी पेशगी और एक साल का समय। अकबर ने कहा, करो, कोई फिक्र नहीं, इसी समय एक लाख, जो पेशगी मांगते हो ले जाओ। साल भर की छुट्टी।

वे एक लाख अशर्फियां ले कर साल भर बीरबल गुलछरें उड़ाते रहे। न तो कोई किताब लिखी–लिखनी-विखनी थी ही नहीं, वह तो महारतन थे! अकबर बीच-बीच में खबर लेता रहा कि क्या हुआ? कहां कि लिखी जा रही है, बस अब लिखी जा रही है, जैसे ही साल पूरा हुआ कि हाजिर कर दूंगा।

साल पूरा हुआ, बीरबल आए, किताब वगैरह कुछ भी न लाए। अकबर ने पूछा, किताब कहां है?

बीरबल ने कहा कि और सब पूरा हो गया है, सिर्फ एक ब्यौरे की बात रह गयी है। जो आपके बिना कोई बता नहीं सकता; उसके बिना रामायण पूरी नहीं होगी। हमारे राम की सीता को रावण चुरा कर ले गया था। आपकी बेगम को कौन रावण चुरा कर ले गया? उसका पता दो; उसका नाम बताओ।

वह कौन हरामजादा है, कौन गुंडा है? अकबर तो गुस्से में आ गया, उसने तलवार खींच ली कि तुम पागल हो गये हो? मेरी बेगम पर कोई आंख तो उठाए। आंखें निकलवा लूं! कोई जबान तो खोले! जबान काटवा दूं! तुम कैसी बातें करते हो, जी?

बीरबल ने कहा, महाराज, फिर रामायण नहीं लिखी जा सकती। क्योंकि हमारे राम की सीता को रावण चुरा कर ले गया था। और तीन साल तक अशोकवाटिका में लंका में बंद रहीं सीता जी। फिर उनको छुड़ा कर लाया।

बिना इसके तो रामायण बनेगी नहीं, मजा ही नहीं आएगा। असली बात ही निकल गयी, जान ही निकल गयी!

अकबर ने कहा, अगर ये झंझट करनी है, तो हमें रामायण लिखवानी ही नहीं। भाड़ में जाए रामायण! बीरबल ने कहा, जैसी मर्जी, मगर मेहनत साल भर गयी मेरी फिजूल! तो फिर आप कहो तो महाभारत लिख दूं।

अकबर ने कहा कि महाभारत को भी नाम बहुत सुना है। यह तो और भी बड़ी किताब है। दो लाख अशर्फियां लगेंगी, पेशगी, बीरबल ने कहा।

अकबर ने कहा, तो वे मिल जाएंगी, मगर यह मैं पहले पूछ लूं कि इसमें रावण वगैरह तो नहीं आता? सीता तो नहीं होगी? कभी नहीं। रावण आता ही नहीं! सीता की चोरी भी नहीं होती, तुम फिक्र ही न करो! इसमें झंझट नहीं है। उसने कहा, तू पहले ही कहता। साल भर भी खराब गयी, एक लाख अशर्फियां भी गयीं। कोई बात नहीं, लेकिन जो हुआ हुआ। ये ले दो लाख अशर्फियां।

साल भर फिर उसने गुलछर्रे किये। अब दो लाख अशर्फियां, मजा ही मजा लूटा। बीच-बीच में खबर पहुंचाता रहा कि बस बन रही है, बन रही है, बन रही है, बन रही है। आखिरी दिन आ गया, आ गया खाली हाथ फिर। कहां, किताब कहां है? महाभारत कहां है?

उसने कहा कि महाराज, एक ब्योरे की बात आपके बिना कोई नहीं बता सकेगा, उसके बिना किताब अधूरी रह जाएगी, मजा ही नहीं आएगा। द्रौपदी के पांच पति थे, आपकी बेगम के आप तो एक पति हो, बाकी चार बदमाश कौन हैं? उनके नाम बताओ!

पहली बार तो अकबर ने सिर्फ म्यान पर हाथ ही रक्षा था, इस बार तो तलवार निकाल ली! कहा, तू ठहर, बीरबल का बच्चे! तूने समझा क्या है? तू मुझे समझता क्या है? मेरे रहते, मेरे जिंदा रहते…!

बीरबल ने कहा, महाराज, मैं क्या कर सकता हूं? आप तलवार अंदर रखो। आप ही कहते हो, लिखो किताब, लिखता हूं तो उसमें अड़चनें आती हैं। तो फिर कहो तो वेद ही लिख दूं! उसने कहा, हमें लिखवाना ही नहीं। एक बात समझ में आ गयी की कोई दूसरे की कहानी किसी दूसरे पर चस्पां नहीं की जा सकती।

उसने कहा कि आपको जल्दी समझ में आ गयी। कई तो ऐसे नासमझ हैं कि जनम-जनम समझ में नहीं आती।

किसी दूसरे की कहानी किसी और पर चस्पां नहीं की जा सकती। न तुम्हें कृष्ण होना है, न राम होना है, न क्राइस्ट होना है, तुम तो तुम ही हो जाओ, बस उतना काफी है।

तुम्हारा फूल खिले, तुम्हारी सुगंध उड़े, तुम्हारा दीया जले! जरूर तुम जब खिलोगे तो तुम्हारे भीतर भी वही महिमा होगी जो कृष्ण की है, और वही महिमा होगी जो बुद्ध की है, मगर कहानी वही नहीं होगी। रस वही होगा, रंग वही नहीं होगा। अनुभूति वही होगी, अभिव्यक्ति वही नहीं होगी। वाद्य वही होगा, लेकिन धुन तुम पर तुम्हारी बजेगी, गीत तुम पर तुम्हारा उठेगा।

और धन्यवाद करो प्रभु का कि उसने तुम्हें झूठे बनने का कोई अवसर ही नहीं छोड़ा है। तुम बन ही नहीं सकते, लाख कोशिश करो।

तुम सिर्फ वही बन सकते हो जो तुम हो, जो तुम वस्तुतः हो। जो तुम जन्म के साथ ही स्वभाव लेकिन आए हो, उसकी ही अभिव्यक्ति होनी है।
नकल में मत पड़ना। नकल में बहुत लोग भटक गये हैं।

आज इतना ही।

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-06

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स्थितप्रज्ञ – ओशो


।। स्थितप्रज्ञ ।।

एक फकीर था। एक युवा फकीर था जपान के एक गांव में। उसकी बड़ी कीर्ति थी, उसकी बड़ी महिमा थी। सारा गांव उसे पूजता और आदर करता। उसके सम्मान में सारे गांव में गीत गाए जाते। लेकिन एक दिन सब बात बदल गई। गांव की एक युवती को गर्भ रह गया और उसे बच्चा हो गया। और उस युवती को घर के लोगों ने पूछा कि किसका बच्चा है, तो उसने उस साधु का नाम ले दिया कि उस युवा फकीर का यह बच्चा है। फिर देर कितनी लगती है, प्रशंसक शत्रु बनने में कितनी देर लेते हैं? जरा सी भी देर नहीं लेते, क्योंकि प्रशंसक के मन में हमेशा भीतर तो निंदा छिपी रहती है। मौके की तलाश करती है, जिस दिन प्रशंसा खत्म हो जाए उस दिन निंदा शुरू हो जाती है। आदर देने वाले लोग, एक क्षण में अनादर देना शुरू कर देते हैं। पैर छूने वाले लोग, एक क्षण में सिर काटना शुरू कर देते हैं, इसमें कोई भेद नहीं है इन दोनों में। यह एक ही आदमी की दो शक्लें हैं।

वे सारे गांव के लोग फकीर के झोपड़े पर टूट पड़े। इतने दिनों का सप्रेस था भीतर, इतनी श्रद्धा दी थी तो दिल में तो क्रोध इकट्ठा हो ही गया था कि यह आदमी बड़ी श्रद्धा लिए जा रहा है! आज अश्रद्धा देने का मौका मिला था तो कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था। उन्होंने जाकर उस फकीर के झोपड़े पर आग लगा दी। और जाकर उस बच्चे को, एक दिन के बच्चे को उस फकीर के ऊपर पटक दिया।

उस फकीर ने पूछा कि बात क्या है? तो उन लोगों ने कहा यह भी हमसे पूछते हो कि बात क्या है? यह बच्चा तुम्हारा है, यह भी हमें बताना पड़ेगा कि बात क्या है? अपने जलते मकान को देखो, और अपने भीतर दिल को देखो, और इस बच्चे को देखो, और इस लड़की को देखो। हमसे पूछने की जरूरत नहीं, यह बच्चा तुम्हारा है।

वह फकीर बोला इज इट सो? ऐसी बात है, बच्चा मेरा है? वह बच्चा रोने लगा तो उस बच्चे को वह चुप कराने के लिए गीत गाने लगा। वे लोग उसका मकान जला कर वापस लौट गए। फिर वह अपने रोज के समय पर, दोपहर हुई और भीख मांगने निकला। लेकिन आज उस गांव में उसे कौन भीख देगा? आज जिस द्वार पर भी वह खड़ा हुआ, वह द्वार बंद हो गया। आज उसके पीछे बच्चों की टोली और लोगों की भीड़ चलने लगी, मजाक करती, पत्थर फेंकती। वह उस घर के सामने पहुंचा जिस घर की वह लड़की थी और जिस लड़की का वह बच्चा था। उसने वहां आवाज दी और उसने कहा कि मेरे लिए भीख मिले न मिले, लेकिन इस बच्चे के लिए तो दूध मिल जाए! मेरा कसूर भी हो सकता है, लेकिन इस बेचारे का क्या कसूर हो सकता है?

वह बच्चा रो रहा है, भीड़ वहां खड़ी है। उस लड़की के सहनशीलता के बाहर हो गई बात। वह अपने पिता के पैर पर गिर पड़ी और उसने कहा : मुझे माफ करें, मैंने साधु का नाम झूठा ही ले दिया। उस बच्चे के असली बाप को बचाने के लिए मैंने सोचा कि साधु का नाम ले दूं। साधु से मेरा कोई परिचय भी नहीं है।

बाप तो घबड़ा आया। यह तो बड़ी दुर्घटना हो गई। वह नीचे भागा हुआ आया, फकीर के पैर पर गिर पड़ा और उससे बच्चा छीनने लगा।

और उस फकीर ने पूछा : बात क्या है? उसके बाप ने कहा : माफ करें, भूल हो गई, यह बच्चा आपका नहीं है। उस फकीर ने पूछा : इज इट सो। ऐसी बात है कि यह बच्चा मेरा नहीं है? तो उस बाप ने, उस गांव के लोगों ने कहा : पागल हो तुम! तुमने सुबह ही क्यों नहीं इनकार किया? उस फकीर ने कहा. इससे क्या फर्क पड़ता था, बच्चा किसी न किसी का होगा ही। और एक झोपड़ा तुम जला ही चुके थे। अब तुम दूसरा जलाते। और एक आदमी को तुम बदनाम करने का मजा ले ही चुके थे, तुम एक आदमी को और बदनाम करने का मजा लेते। इससे क्या फर्क पड़ता था? बच्चा किसी न किसी का होगा, मेरा भी हो सकता है; इसमें क्या हर्जा! इसमें क्या फर्क क्या पड़ गया? तो लोगों ने कहा : तुम्हें इतनी भी समझ नहीं है कि तुम्हारी इतनी निंदा हुई, इतना अपमान हुआ, इतना अनादर हुआ?

उस फकीर ने कहा: अगर तुम्हारे आदर की मुझे कोई फिकर होती तो तुम्हारे अनादर की भी मुझे कोई फिकर होती। मुझे तो जैसा ठीक लगता है, वैसा मैं जीता हूं तुम्हें जैसा ठीक लगता है, तुम करते हो। कल तक तुम्हें ठीक लगता था, आदर करें, तो तुम आदर करते थे। आज तुम्हें ठीक लगा, अनादर करें, तुम अनादर करते थे। लेकिन न तुम्हारे आदर से मुझे प्रयोजन है, न तुम्हारे अनादर से। तो उन लोगों ने कहा भले आदमी, इतना तो सोचता कम से कम कि तू भला आदमी है और बुरा हो जाएगा?

तो उसने कहा न मैं बुरा हूं और न भला हूं अब तो मैं वही हूं जो मैं हूं। अब मैंने यह बुरे-भले के सिक्के छोड़ दिए। अब मैंने यह फिकर छोड़ दी है कि मैं अच्छा हो जाऊं, क्योंकि मैंने अच्छा होने की जितनी कोशिश की, मैंने पाया कि मैं बुरा होता चला गया। मैंने बुराई से बचने की जितनी कोशिश की, मैंने पाया कि भलाई उतनी दूर होती चली गई। मैंने वह खयाल छोड़ दिया। मैं बिलकुल तटस्थ हो गया। और जिस दिन मैं तटस्थ हो गया, उसी दिन मैंने पाया कि न बुराई भीतर रह गई, न भलाई भीतर रह गई। और एक नई चीज का जन्म हो गया है, जो सभी भलाइयों से ज्यादा भली है और जिसके पास बुराई की छाया भी नहीं होती।

तो संत एक तीसरी तरह का व्यक्ति है। साधक की दिशा सज्जन होने की दिशा नहीं है, साधक की दिशा संत होने की दिशा है।

* अंतर्यात्रा ध्यान शिवीर, प्रवचन ~४, ओशो *

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एक औरत को आखिर क्या चाहिए होता है?


एक औरत को आखिर
क्या चाहिए होता है?

एक बार जरुर पढ़े ये छोटी सी कहानी:

राजा हर्षवर्धन युद्ध में हार गए।
हथकड़ियों में जीते हुए पड़ोसी राजा के सम्मुख पेश किए गए। पड़ोसी देश का राजा अपनी जीत से प्रसन्न था और उसने हर्षवर्धन के सम्मुख एक प्रस्ताव रखा…

यदि तुम एक प्रश्न का जवाब हमें लाकर दे दोगे तो हम तुम्हारा राज्य लौटा देंगे, अन्यथा उम्र कैद के लिए तैयार रहें।

प्रश्न है.. एक स्त्री को सचमुच क्या चाहिए होता है ?

इसके लिए तुम्हारे पास एक महीने का समय है हर्षवर्धन ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया..

वे जगह जगह जाकर विदुषियों, विद्वानों और तमाम घरेलू स्त्रियों से लेकर नृत्यांगनाओं, वेश्याओं, दासियों और रानियों, साध्वी सब से मिले और जानना चाहा कि एक स्त्री को सचमुच क्या चाहिए होता है ? किसी ने सोना, किसी ने चाँदी, किसी ने हीरे जवाहरात, किसी ने प्रेम-प्यार, किसी ने बेटा-पति-पिता और परिवार तो किसी ने राजपाट और संन्यास की बातें कीं, मगर हर्षवर्धन को सन्तोष न हुआ।

महीना बीतने को आया और हर्षवर्धन को कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला..

किसी ने सुझाया कि दूर देश में एक जादूगरनी रहती है, उसके पास हर चीज का जवाब होता है शायद उसके पास इस प्रश्न का भी जवाब हो..

हर्षवर्धन अपने मित्र सिद्धराज के साथ जादूगरनी के पास गए और अपना प्रश्न दोहराया।

जादूगरनी ने हर्षवर्धन के मित्र की ओर देखते हुए कहा.. मैं आपको सही उत्तर बताऊंगी परंतु इसके एवज में आपके मित्र को मुझसे शादी करनी होगी ।

जादूगरनी बुढ़िया तो थी ही, बेहद बदसूरत थी, उसके बदबूदार पोपले मुंह से एक सड़ा दाँत झलका जब उसने अपनी कुटिल मुस्कुराहट हर्षवर्धन की ओर फेंकी ।

हर्षवर्धन ने अपने मित्र को परेशानी में नहीं डालने की खातिर मना कर दिया, सिद्धराज ने एक बात नहीं सुनी और अपने मित्र के जीवन की खातिर जादूगरनी से विवाह को तैयार हो गया

तब जादूगरनी ने उत्तर बताया..

“स्त्रियाँ, स्वयं निर्णय लेने में आत्मनिर्भर बनना चाहती हैं | ”

यह उत्तर हर्षवर्धन को कुछ जमा, पड़ोसी राज्य के राजा ने भी इसे स्वीकार कर लिया और उसने हर्षवर्धन को उसका राज्य लौटा दिया

इधर जादूगरनी से सिद्धराज का विवाह हो गया, जादूगरनी ने मधुरात्रि को अपने पति से कहा..

चूंकि तुम्हारा हृदय पवित्र है और अपने मित्र के लिए तुमने कुरबानी दी है अतः मैं चौबीस घंटों में बारह घंटे तो रूपसी के रूप में रहूंगी और बाकी के बारह घंटे अपने सही रूप में, बताओ तुम्हें क्या पसंद है ?

सिद्धराज ने कहा.. प्रिये, यह निर्णय तुम्हें ही करना है, मैंने तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया है, और तुम्हारा हर रूप मुझे पसंद है ।

जादूगरनी यह सुनते ही रूपसी बन गई, उसने कहा.. चूंकि तुमने निर्णय मुझ पर छोड़ दिया है तो मैं अब हमेशा इसी रूप में रहूंगी, दरअसल मेरा असली रूप ही यही है।

बदसूरत बुढ़िया का रूप तो मैंने अपने आसपास से दुनिया के कुटिल लोगों को दूर करने के लिए धरा हुआ था ।

अर्थात, सामाजिक व्यवस्था ने औरत को परतंत्र बना दिया है, पर मानसिक रूप से कोई भी महिला परतंत्र नहीं है।

इसीलिए जो लोग पत्नी को घर की मालकिन बना देते हैं, वे अक्सर सुखी देखे जाते हैं। आप उसे मालकिन भले ही न बनाएं, पर उसकी ज़िन्दगी के एक हिस्से को मुक्त कर दें। उसे उस हिस्से से जुड़े निर्णय स्वयं लेने दें।
जय श्रीकृष्ण नमन ओशो।

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तप से शक्ति


तप से शक्ति*

रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। रामकृष्ण से कहा कि तुमको लोग परमहंस कहते हैं, अगर असली परमहंस हो तो आओ मेरे साथ, गंगा पर चल कर दिखाओ!

रामकृष्ण ने कहा कि नहीं भाई, मैं पानी पर नहीं चल सकता। अगर परमात्मा ने मुझे पानी पर चलने के लिए बनाया होता, तो मछलियों जैसा बनाया होता। उसने जमीन पर चलने के लिए बनाया। उसके इरादे के विपरीत मैं नहीं जा सकता। मगर मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूं कि कितना समय लगा तुम्हें पानी पर चलने की यह कला सीखने में?

उसने कहा, अठारह साल तपश्चर्या की है! कठिन तपश्चर्या की है! खड्ग की धार पर चला हूं। तब कहीं यह शक्ति हाथ लगी है, यह कोई यूं ही हाथ नहीं लग जाती।

रामकृष्ण कहने लगे, अठारह साल तुमने व्यर्थ गंवाए। मुझे तो जब भी गंगा के उस तरफ जाना होता है तो दो पैसे में मांझी मुझे पार करवा देता है। तो अठारह साल में तुमने जो कमाया उसकी कीमत दो पैसे से ज्यादा नहीं है।

शक्ति की जरूरत क्या है? शक्ति की आकांक्षा मूलतः अहंकार की आकांक्षा है। क्या करोगे शक्ति का? लेकिन तप करने वाले लोग इसी आशा में कर रहे हैं तप। सिर के बल खड़े हैं, चारों तरफ आग जला रखी है, नंगे खड़े हैं, भूखे खड़े हैं–इसी आशा में कि किसी तरह शक्ति को पा लेंगे। मगर शक्ति किसलिए? शक्ति तो पोषण है अहंकार का। कोई धन पाने में लगा है, वह भी शक्ति की खोज कर रहा है। और कोई राजनीति में उतरा हुआ है, वह भी पद की खोज कर रहा है, पद शक्ति लाता है। और कोई तपश्चर्या कर रहा है, मगर इरादे वही। इरादों में कोई भेद नहीं।

तुम्हारे धार्मिक, अधार्मिक लोग बिलकुल एक ही तरह के हैं। चाहे दिल्ली चलो, यह उनका नारा हो; और चाहे गोलोक चलो; मगर दोनों की खोपड़ी में एक ही गोबर भरा है–शक्ति चाहिए। क्यों? क्या करोगे शक्ति का? चमत्कार दिखलाने हैं!

राम नाम जान्यो नहीं

ओशो

 

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एक वृक्ष के नीचे बैठा था। ऊंचाई पर वृक्ष


एक वृक्ष के नीचे बैठा था।
ऊंचाई पर वृक्ष
में छोटा—सा एक घोंसला था, और जो घटना उस घोंसले में घट रही थी उसे मैं देर तक देखता रहा, क्योंकि वही घटना शिष्य और गुरु के बीच घटती है। कुछ ही दिन पहले अंडा तोड़कर किसी पक्षी का एक बच्चा बाहर आया होगा, अभी भी वह बहुत छोटा है। उसके माता—पिता दोनों कोशिश कर रहे हैं कि वह घोंसले पर पकड़ छोड़ दे और आकाश में उड़े। वे सब उपाय करते हैं। वे दोनों उड़ते हैं आसपास घोंसले के, ताकि वह देख ले कि देखो हम उड़ सकते हैं, तुम भी उड़ सकते हो।

लेकिन अगर बच्चे को सोच—विचार रहा हो तो बच्चा
सोच रहा होगा, तुम उड़ सकते हो, उससे क्या प्रमाण कि
हम भी उड़ सकेंगे; तुम तुम हो, हम हम हैं; तुम्हारे पास पंख हैं— माना, लेकिन मेरे पास पंख कहां हैं?
क्योंकि पंखों का पता तो खुले आकाश में उड़ो तभी चलता है; उसके पहले पंखों का पता ही नहीं चल सकता है। कैसे जानोगे कि तुम्हारे पास भी पंख हैं, अगर तुम चले ही नहीं, उड़े ही नहीं?

तो बच्चा बैठा है किनारे घोंसले के, पकड़े है घोंसले के
किनारे को जोर से; देखता है, लेकिन भरोसा नहीं जुटा
पाता।
मां—बाप लौट आते हैं, फुसलाते हैं, प्यार करते हैं;
लेकिन बच्चा भयभीत है। बच्चा घोंसले को पकड़ रखना
चाहता है, वह ज्ञात है। वह जाना—माना है। और छोटी
जान और इतना बड़ा आकाश!
घोंसला ठीक है, गरम है, सब तरफ से सुरक्षित है; तूफान भी आ जाए तो भी कोई खतरा नहीं है, भीतर दुबक रहेंगे। सब तरह की कोशिश असफल हो जाती है। बच्चा उड़ने को राजी नहीं है।

यह अश्रद्धालु चित्त की अवस्था है। कोई पुकारता है तुम्हें,
आओ खुले आकाश में, तुम अपने घर को नहीं छोड़ पाते। तुम अपने घोंसले को पकड़े हो। खुला आकाश बहुत बड़ा है, तुम बहुत छोटे हो। कौन तुम्हें भरोसा दिलाए कि तुम आकाश से बड़े हो? किस तर्क से तुम्हें कोई समझाए कि दो छोटे पंखों के आगे आकाश छोटा है? कौन—सा गणित तुम्हें समझा सकेगा? क्योंकि नापजोख की बात हो तो पंख छोटे हैं आकाश बहुत बड़ा है। पर बात नाप—जोख की नहीं है। दो पंखों की सामर्थ्य उड़ने की सामर्थ्य है: बड़े से बड़े आकाश में उड़ा जा सकता है। और पंख पर भरोसा आ जाए तो आकाश
शत्रु जैसा न दिखाई पड़ेगा, स्वतंत्रता जैसा दिखाई पड़ेगा;
आकाश मित्र हो जाएगा।

परमात्मा में छलांग लेने से पहले भी वैसा ही भय पकड़ लेता है। गुरु समझाता है, फुसलाता है, डांटता है, डपटता है, सब उपाय करता है—किसी तरह एक बार…। जब उन दो पक्षियों ने—मां—बाप ने देखा कि बच्चा उड़ने
को राजी नहीं तो आखिरी उपाय किया। दोनों ने उसे
धक्का ही दे दिया। बच्चे को खयाल भी न था कि वे ऐसी
क्रूरता कर सकेंगे, कि इतने कठोर हो सकेंगे।
गुरु को कठोर होना पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारी जड़ता ऐसी
है कि तुम्हें धक्के ही न लगें तो तुम आकाश से वंचित ही रह जाओगे। उस कठोरता में करुणा है। अगर मां—बाप करुणा कर लें तो यह बच्चा सदा के लिए पंगु रह जाएगा। इसकी नियति भटक जाएगा, खो जाएगी, यह सड़ जाएगा उसी घोंसले में। घोंसला घर न रहेगा, कब्र बन
जाएगा। और यह बच्चा अपरिचित रह जाएगा अपने स्वभाव से। उस स्वभाव का तो खुले आकाश में उड़ने पर ही एहसास होगा। वह समाधि तो तभी लगेगी जब अपनी क्षुद्रता को यह विराट आकाश में लीन कर सकेगा; जब अपने छोटेपन में यह बड़े से बड़ा भी हो जाएगा। जब इसकी आत्मा परमात्मा जैसी मालूम होने लगेगी, तभी इसकी समाधिस्थ अवस्था होगी।

बच्चे को पता भी नहीं था, समझ भी नहीं थी, खयाल भी
न था, कि यह होगा। धक्का खाते ही वह दो क्षण को खुले आकाश में गिर गया—फड़फड़ाया, घबड़ाया, वापस लौटकर घोंसले को और जोर से पकड़ लिया; लेकिन अब उस बच्चे में एक फर्क हो गया, जो उसके चेहरे पर भी देखा जा सकता था। अश्रद्धा खो गई है। पंख हैं। छोटे होंगे। आकाश इतना भयभीत नहीं करनेवाला है जितना अब तक कर रहा था। और एक क्षण को उसने खुले आकाश में सांस ले ली। अब अश्रद्धा नहीं है। थोड़ी देर में धक्के की अशांति चली गई, कंपन खो गया। मां—बाप उसे बड़ा प्यार दे रहे हैं, थपथपा रहे हैं, चोचों से सहला रहे हैं, उसे आश्वस्त कर रहे हैं कि वह अपने अनुभव को पी जाए। उसे अपने पंखों की समझ आ गई। वह पंख
फड़फड़ाता है बीच—बीच में। अब पहली दफा उसे पता चला कि उसके पास पंख हैं, वह भी उड़ सकता है। फिर घड़ी भर बाद मां—बाप उड़े और बच्चा उनके साथ हो लिया। ठीक यही घटना घटती है हर शिष्य और हर गुरु के बीच; और सदा से घटी है, और सदा ऐसे ही घटेगी। किसी—न—किसी तरह गुरु को शिष्य की अश्रद्धा को तोड़ना है; किसी—न—किसी तरह शिष्य को यह भरोसा दिलाना है कि उसके पास पंख हैं और आकाश छोटा है।
और उड़े बिना जीवन में कोई गति नहीं है। रोज—रोज उड़ना है। रोज—रोज अतीत का घोंसला छोड़ना है। रोज—रोज जो जान लिया, उसकी पकड़ छोड़ देनी है, और जो नहीं जाना है उसमें यात्रा करनी है। सतत है यात्रा। अनंत है यात्रा। कहीं भी ठहर नहीं जाना है। पड़ाव भले कर लेना, घर कहीं मत बनाना। यही मेरी संन्यास की परिभाषा है। पड़ाव—ठीक। रात अंधेरा हो जाए, घोंसले में विश्राम कर लेना, लेकिन खुले आकाश की यात्रा बंद मत करना। रुकना, लेकिन रुक ही मत जाना। रुकना सिर्फ इसलिए ताकि शक्ति पुनः लौट आए, तुम ताजे हो जाओ, सुबह फिर यात्रा हो सकेगी।

बस ज्ञान पर उतना ही पड़ाव करना कि अज्ञात में जाने
की क्षमता अक्षुण्ण हो जाए। ज्ञानी मत बनना।
ज्ञानी बने तो घोंसला पकड़ गया। वही तो पंडित की
परेशानी है: जो भी जान लेता है, उसको पकड़ लेता है।
उसको पकड़ने के कारण हाथ भर जाते हैं; और जो बहुत जानने को शेष था वह शेष ही रह जाता है। जानना और छोड़ना। जानना और छोड़ना।

कहावत है: नेकी कर और कुएं में डाल। ठीक वैसा ही ज्ञान के साथ भी करना। जानो, कुएं में डालो। तुम सदा अज्ञात की यात्रा पर बने रहना। तो ही एक दिन उस चिरंतन से मिलन होगा। क्योंकि वह चिरंतन अज्ञात ही नहीं, अज्ञेय है।

ये तीन शब्द ठीक से समझ लेना। ज्ञात तो वह है जो तुमने जान लिया। अज्ञात वह है जो तुम कभी न कभी जान लोगे। अज्ञेय वह है जिसे तुम कभी न जान सकोगे। उसको तो स्वाद ही लेना होगा। उसे तो जीना ही होगा।
जानने जैसी दूरी उसके साथ नहीं चल सकती। उसके साथ तो एक ही हो जाना होगा। उसके साथ तो डूबना होगा। वह तो मिलन है, ज्ञान नहीं। वहां तो तुम और उसको होना अलग न रह जाएगा। वहां तुम जानने वाले न रहोगे; वहां तुम उसी के साथ एक हो जाओगे।
उस परम घड़ी को लाने के लिए, ज्ञात को छोड़ना है,
अज्ञात में यात्रा करनी है। और जब तुम अज्ञात की
यात्रा में कुशल हो जाओगे, तब तुम्हें गुरु आखिरी धक्का
देगा कि अब अज्ञात को भी छोड़ देता है और अज्ञात
की यात्रा पर निकल जाता है, वह संन्यस्त। और अज्ञात
को भी जो छोड़ देता है और अज्ञेय में लीन हो जाता है,
वह सिद्ध। फिर कुछ और पाने को नहीं बचता।
पानेवाला
ही खो गया, तो अब पाने को क्या कुछ बचेगा।।

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कुछ युवा एक रात्रि एक वेश्या को साथ लेकर सागर तट पर आये।


कुछ युवा एक रात्रि एक वेश्या को साथ लेकर सागर तट पर आये। उस वेश्या के वस छीनकर उसे नंगा कर दिया और शराब पीकर वे नाचने-गाने लगे। उन्हें शराब के नशे में डूबा देखकर वह वेश्या भाग निकली। रात जब उन युवकों को होश आया, तो वे उसे खोजने निकले। वेश्या तो उन्हें नहीं मिली, लेकिन एक झाड़ी के नीचे बुद्ध बैठे हुए उन्हें मिले। वे उनसे पूछने लगे ‘‘महाशय, यहां से एक नंगी स्त्री को, एक वेश्या को भागते तो नहीं देखा? रास्ता तो यही है। यहीं से ही गुजरी होगी। आप यहां कब से बैठे हुए हैं?”

बुद्ध ने कहा, ‘‘यहां से कोई गुजरा जरूर है, लेकिन वह स्त्री थी या पुरुष, यह मुझे पता नहीं है। जब मेरे भीतर का पुरुष जागा हुआ था, तब मुझे स्त्री दिखायी पड़ती थी। न भी देखूं तो भी दिखायी पड़ती थी। बचना भी चाहूं तो भी दिखायी पड़ती थी। आंखें किसी भी जगह और कहीं भी कर लूं तो भी ये आंखें स्त्री को ही देखती थीं। लेकिन जब से मेरे भीतर का पुरुष विदा हो गया है, तबसे बहुत खयाल करूं तो ही पता चलता है कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष है। वह कौन था, जो यहां से गुजरा है, यह कहना मुश्किल है। तुम पहले क्यों नहीं आये? पहले कह गये होते कि यहां से कोई निकले तो ध्यान रखना, तो मैं ध्यान रख सकता था।

और यह बताना तो और भी मुश्किल है कि जो निकला है, वह नंगा था या वस्त्र पहने हुए था। क्योंकि, जब तक अपने नंगेपन को छिपाने की इच्छा थी, तब तक दूसरे के नंगेपन को देखने की भी बड़ी इच्छा थी। लेकिन, अब कुछ देखने की इच्छा नहीं रह गयी है। इसलिए, खयाल में नहीं आता कि कौन क्या पहने हुए है….। ” दूसरे में हमें वही दिखायी देता है, जो हममें होता है। दूसरे में हमें वही दिखायी देता है, जो हममें है। और दूसरा आदमी एक दर्पण की तरह काम करता है, उसमें हम ही दिखायी पड़ते हैं।

बुद्ध कहने लगे, ” अब तो मुझे याद नहीं आता, क्योंकि किसी को नंगा देखने की कोई कामना नहीं है। मुझे पता नहीं कि वह कपड़े पहने थी या नहीं पहने थी। ” वे युवक कहने लगे, ‘‘हम उसे लाये थे अपने आनंद के लिए। लेकिन, वह अचानक भाग गयी है। हम उसे खोज रहे हैं। ”

बुद्ध ने कहा, ‘‘तुम जाओ और उसे खोजो। भगवान करे, किसी दिन तुम्हें यह खयाल आ जाये, कि इतनी खूबसूरत और शांत रात में अगर तुम किसी और को न खोज कर अपने को खोजते, तो तुम्हें वास्तविक आनंद का पता चलता। लेकिन, तुम जाओ और खोजो दूसरों को। मैंने भी बहुत दिन तक दूसरों को खोजा, लेकिन दूसरों को खोजकर मैंने कुछ भी नहीं पाया। और जब से अपने को खोजा, तब से वह सब पा लिया है, जिसे पाकर कोई भी कामना पाने की शेष नहीं रहती।

ओशो

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प्रेम और आनंद⚘


⚘प्रेम और आनंद⚘

एक फकीर से किसी ने पूछा कि तुम्हारे जीवन में इतना प्रेम और आनंद क्यों है? मेरे जीवन में क्यों नहीं? उस फकीर ने कहा: मैं अपने होने से राजी हूँ और तुम अपने होने से राजी नहीं हो। फिर भी उसने कहा, कुछ तरकीब बताओ। फकीर ने कहा, तरकीब मैं कोई नहीं जानता। बाहर आओ मेरे साथ यह झाड़ छोटा है, वह झाड़ बड़ा है। मैंने कभी इन दोनों को परेशान नहीं देखा कि मैं छोटा हूं, तुम बड़े हो। कोई विवाद नहीं सुना। तीस साल में मैं यहां
रहता हूं। छोटा अपने छोटे होने में खुश है, बड़ा अपने बड़े होने में खुश है; क्योंकि तुलना प्रविष्ट नहीं हुई। अभी उन्होंने तौला नहीं है।
घास का एक पत्ता भी उसी आनंद से डोलता है हवा में, जिस आनंद से कोई देवदार का बड़ा वृक्ष डोलता है। घास का फूल भी उसी आनंद से खिलता है, जिस आनंद से गुलाब का फूल खिलता है। कोई भेद नहीं है।
तुम्हारे लिए भेद है। तुम कहोगे: यह घास का फूल है, और यह गुलाब का फूल। लेकिन घास और गुलाब के फूल के लिए कोई तुलना नहीं, वे दोनों अपने आनंद में मग्न हैं। जो तुलना छोड़ देता है, वह मग्न हो जाता है। जो मग्न हो जाता है, ।वह सफल जीवन जीता है

⚘ओशो⚘