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ग्रहों के अनुसार तेल मालिश———-


  • वाग्भट के अनुसार तेल मालिश से नसों में अवरुद्ध वायु हट जाती है और सभी दर्द और विकार दूर होते है .
  • आयुर्वेद के अनुसार सरसों की तेल मालिश करने से अनेक प्रकार की बीमारियां शांत हो जाती है.महाऋषि चरक ने तो तेल में घृत से 8 गुणा ज्यादा शक्ति को माना है. यदि प्रतिदिन नियम से तेल मालिश की जाए तो सिरदर्द, बालों का झड़ना, खुजली दाद, फोड़े फुंसी एवं एग्ज़िमा आदि बीमारियां कभी नहीं होती है.
  • तेल मालिश त्वचा को कोमल, नसों को स्फूर्ति युक्त और रक्त को
    गतिशील बनाती है. प्रात: काल नियमपूर्वक यदि मालिश की जाए तो व्यक्ति रोगमुक्त एवं दीर्घजीवी बनता है.

शरीर को स्वस्थ रखने के लिए वायु की प्रमुख आवश्यकता है. वायु का ग्रहण त्वचा पर निर्भर है और त्वचा का मालिश पर.

  • सूर्योदय के समय वायु में प्राण शक्ति और चन्द्रमा द्वारा अमृत का अंश भी सम्मिश्रित होता है. परन्तु रवि, मंगल, गुरु शुक्र को मालिश नहीं करनी चाहिए. हमारे शास्त्रों के अनुसार रविवार को मालिश करने से ताप (गर्मी सम्बन्धी रोग), मंगल को मृत्यु, गुरु को हानि, शुक्र को दुःख होता है
  • सोमवार को तेल मालिश करने से शारीरिक सौंदर्य बढ़ता है. बुध को धन में वृद्धि होती है. शनिवार को धन प्राप्ति एवं सुखों की वृद्धि होती है.

  • कई बार जब बीमारियाँ ठीक ना हो रही हो या जब कर्म के हिसाब से फल कम या नहीं मिलता तो इंसान सोचने को बाध्य हो जाता है . तब उसका जिज्ञासु मन ज्योतिषी के पास पहुंचता है और कुंडली बनवाने से पता चलता है की कौनसा गृह कमज़ोर है या अशुभ है . ये एक संकेत है हमारे संचित संस्कारों का . इसके लिए एक उपाय यह भी कर सकते है की उस गृह को सशक्त करने वाले तेल से मालिश की जाए .

  • ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सरसों का तेल शनि का कारक है. शनि के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए सोमवार, बुधवार एवं शनिवार को सरसों के तेल की मालिश कर स्नान करने से शनि के अशुभ प्रभाव से हमारी रक्षा होती है. हर प्रकार की मनोकामना पूर्ण होती है

  • सूर्य की अनिष्टता दूर करने के लिए तेल – सूरज मुखी और तिल का तेल आधा आधा लीटर ले कर उसमे ५ ग्राम लौंग का तेल और १० ग्राम केसर मिलाये .इसे सात दिन सूर्य प्रकाश में रखे .

  • चन्द्रमा के लिए तेल – एक लीटर सफ़ेद तिल का तेल , 100 ग्राम चन्दन का तेल और ५० ग्राम कपूर डाले . इसे सात दिन चन्द्रमा के प्रकाश में रखे . इसे लगाने से पेट के रोग , सर के रोग और चन्द्रमा की अनिष्टता दूर होती है .

  • मंगल का तेल बनाना थोड़ा मुश्किल है . इसलिए इसे किसी कुशल जानकार से बनवाये . इसे लगाने से रक्त विकार ,मिर्गी के दौरे और मंगल दोष दूर होते है .

  • बुध का तेल – एक लीटर तिल के तेल में ब्राम्ही और खस डालकर उबाल ले . छान कर ठंडा होने पर उसमे ५ ग्राम लौंग का तेल डाले . इसे हरे रंग की कांच की बोतल में अँधेरी जगह में सात दिन रखे .यह त्वचा विकारों में लाभकारी है .

  • बृहस्पति का तेल – एक लीटर नारियल तेल में ५ ग्राम हल्दी और ५ ग्राम खस डाल कर उबाल कर छान ले . ठंडा होने पर दस ग्राम चन्दन का तेल डाले और हरी बोतल में भर कर रखे . नहाने से पहले १० ग्राम चन्दन का तेल और दो बूँद निम्बू का रस मिला कर लगाए . इससे दमा दूर होता है और चेहरे पर रौनक आती है .

  • शुक्र का तेल – आधा आधा लीटर नारियल और तिल का तेल ले . ५ ग्राम चन्दन और 2 ग्राम चमेली का तेल मिला कर कांच की बोतल में 3 दिन धुप में रखे .

    शनि के लिए तेल – एक लीटर तिल के तेल में भृंगराज , जायफल , केसर या कस्तूरी ५ -५ ग्राम पानी में भिगोकर पिस ले .इसे तिल के तेल में उबाल ले . छान कर ठंडा होने पर ५ ग्राम लौंग का तेल मिलाये .इसे सात दिन कांच की बोतल में अँधेरे में रखे . इसे लगाने से वात के रोग , हड्डियों के रोग दूर होते है . बाल भी काले रहते है .

    राहू का तेल – इसे बनाने की विधि शनि के तेल की तरह ही है . सिर्फ इसे उंचाई पर सात दिन के लिए पश्चिम दिशा में रखे .

    • केतु का तेल -एक लीटर तिल या सरसों के तेल में लोध मिला कर उबाले . ठंडा होने पर ५ ग्राम लौंग का तेल मिलाये . फिर काले रंग की बोतल में मकान के पश्चिम दिशा में उंचाई पर रखे . इसे लगाने से केतु के दुष्प्रभाव दूर होते है
      .आयुर्वेद के अनुसार सरसों की तेल मालिश करने से अनेक प्रकार की बीमारियां शांत हो जाती है.

    महाऋषि चरक ने तो तेल में घृत से 8 गुणा ज्यादा शक्ति को माना है. यदि प्रतिदिन नियम से तेल मालिश की जाए तो सिरदर्द, बालों का झड़ना, खुजली दाद, फोड़े फुंसी एवं एग्ज़िमा आदि बीमारियां कभी नहीं होती है.

    तेल मालिश का रहस्य त्वचा को कोमल, नसों को स्फूर्ति युक्त और रक्त को गतिशील बनाती है. प्रात: काल नियमपूर्वक यदि मालिश की जाए तो व्यक्ति रोगमुक्त एवं दीर्घजीवी बनता है.

    शरीर को स्वस्थ रखने के लिए वायु की प्रमुख आवश्यकता है. वायु का ग्रहण त्वचा पर निर्भर है और त्वचा का मालिश पर.

    सूर्योदय के समय वायु में प्राण शक्ति और चन्द्रमा द्वारा अमृत का अंश भी सम्मिश्रित होता है. परन्तु रवि, मंगल, गुरु शुक्र को मालिश नहीं करनी चाहिए. हमारे शास्त्रों के अनुसार रविवार को मालिश करने से ताप (गर्मी सम्बन्धी रोग), मंगल को मृत्यु, गुरु को हानि, शुक्र को दुःख होता है

    सोमवार को तेल मालिश करने से शारीरिक सौंदर्य बढ़ता है. बुध को धन में वृद्धि होती है. शनिवार को धन प्राप्ति एवं सुखों की वृद्धि होती है.

    ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सरसों का तेल शनि का करक है. हर ग्रह के अनुसार सब ग्रहों के अलग-अलग अनाज और वस्तुएं बताई गई है.

    जिससे ग्रह की शांति या शुभ फल की प्राप्ति करनी हो उस से सम्बंधित वस्तुओं को ग्रहण और दान करने का महत्व हमारे धरम शास्त्रों में बताया गया है.

    शनि के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए सोमवार, बुधवार एवं शनिवार को सरसों के तेल की मालिश कर स्नान करने से शनि के अशुभ प्रभाव से हमारी रक्षा होती है. हर प्रकार की मनोकामना पूर्ण होती है

    किस दिन और क्यों नहीं करनी चाहिए तेल मालिश?

    वैसे तो स्वस्थ त्वचा के लिए तेल मालिश करना नियमित दिनचर्या है लेकिन सप्ताह में इसे केवल तीन दिन ही करना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को तेल मालिश करना चाहिए। जबकि रविवार, मंगलवार और शुक्रवार को तेल मालिश नहीं करनी चाहिए। अगर रोजाना करना ही हो तो फिर कुछ उपाय करने के बाद ही करें। बहरहाल सवाल यह उठता है कि रवि, मंगल और शुक्रवार को तेल से मालिश क्यों न करें? दरअसल इसके पीछे भी विज्ञान है। शास्त्र कहते हैं कि इन दिनों में तेल से मालिश करने पर रोग होने की आशंका रहती है।

    तैलाभ्यांगे रवौ ताप: सोमे शोभा कुजे मृति:।

    बुधेधनं गुरौ हानि: शुझे दु:ख शनौ सुखम् ॥

    अर्थ- रविवार को तेल मालिश से ताप यानी गर्मी संबंधी रोग, सोमवार को शरीर के सौन्दर्य में वृद्धि, मंगलवार को मृत्यु भय, बुधवार को धन की प्राप्ति, गुरुवार को हानि, शुक्रवार को दु:ख और शनिवार को करने से सुख मिलता है।

    तीन दिन क्यों नहीं

    शास्त्रों के अनुसार रविवार, मंगलवार और शनिवार को तेल से मालिश करना मना है। इसके पीछे भी विज्ञान है। रविवार का दिन सूर्य से संबंधित है। सूर्य से गर्मी उत्पन्न होती है। अत: इस दिन शरीर में पित्त अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक होना स्वाभाविक है। तेल से मालिश करने से भी गर्मी उत्पन्न होती है। इसलिए रविवार को तेल से मालिश करने से रोग होने का भय रहता है। मंगल ग्रह का रंग लाल है। इस ग्रह का प्रभाव हमारे रक्त पर पड़ता है। इस दिन शरीर में रक्त का दबाव अधिक होने से खुजली, फोड़े फुन्सी आदि त्वचा रोग या उनसे मृत्यु होने का डर भी रहता है। इसी तरह शुक्र ग्रह का संबंध वीर्य तत्व से रहता है। इस दिन मालिश करने से वीर्य संबंधी रोग हो सकते हैं। अगर रोजाना मालिश करना हो तो तेल में रविवार को फूल, मंगलवार को मिट्टी और शुक्रवार को गाय का मूत्र डाल लेने से कोई दुष्प्रभाव नहीं होता।

    यह है मालिश का विज्ञान

    मानव शरीर में असंख्य छिद्र हैं। यदि किसी यन्त्र की सहायता से देखें तो पता लगेगा कि हमारी त्वचा जालीदार है। इन छिद्रों को रोम कहा जाता है। इन छिद्रों से हमारे शरीर की प्रदूषित वायु और गंदगी गैस के रूप में बाहर निकलती है। यह एक महत्वपूर्ण क्रिया है। इसी पर हमारा जीवन आधारित है। यदि ये छिद्र बंद हो जाएं तो शरीर में कई रोग उत्पन्न होने लगते हैं। वास्तव में तेल मालिश इन छिद्रों को साफ करने की एक आसान प्रक्रिया है। तेल की मालिश से शरीर में रक्त का संचारण तेजी से होता है और नई ऊर्जा और शक्ति का संचार होता है।

    विक्रम प्रकाश रसनोई

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    पंजाब के अमृतसर में मुगलों का राज था।

    तारू सिंह अपनी माता के साथ पहूला गांव में रहते थे। वे सिख थे। धर्म ही उनका सब कुछ था। एक दिन तारू सिंह के यहां रात्रि में विश्राम के लिए जगह खोजते हुए रहीम बख्श नाम का एक मछुआरा आया। तारू सिंह ने ना केवल उसकी सहायता कि बल्कि उसे पेट भर भोजन भी कराया।
    रात्रि के दौरान मित्र भावना से रहीम बख्श ने तारू सिंह से एक बात बांटना सही समझा। उसने बताया कि पट्टे जिले के कुछ मुगल उसकी बेटी को अग़वा कर ले गए हैं इसीलिए वह उनसे नज़र चुराता घूम रहा है। उसने इसकी शिकायत कई जगह की लेकिन उसकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं है।

    तारू सिंह मुस्कुराया और कहा कि तुम चिंता मत करो, कोई और नहीं तो गुरु के दरबार में तुम्हारी पुकार पहुंच गई है। जल्द ही तुम्हें तुम्हारी बेटी मिल जाएगी। अगले दिन रहीम बख्श वहां से चला गया

    लेकिन तारू सिंह ने बिना किसी स्वार्थ से उसकी मदद करनी चाही।
    उसने सिखों के एक गुट को यह बात बताई जिसके बाद उन बहादुर सिखों ने पट्टी के उन मुगलों के यहां घुसकर रहीम बख्श की बेटी को रिहा कराया। यह खबर मिलने पर तारू सिंह बेहद प्रसन्न हुए लेकिन कोई था जिसे यह बात बिल्कुल भी गवारा नहीं थी।

    किसी खबरी ने रहीम बख्श की बेटी के रिहा होने के पीछे तारू सिंह का हाथ है, इसकी खबर उस क्षेत्र के मुगलिया सरदार ‘ज़कारिया खान’ तक पहुंचा दी। ज़कारिया खान गुस्से से आग बबूला हो गया, उसने फ़ौरन अपने सैनिकों से कहकर तारू सिंह को गिरफ्तार कर पकड़कर लाने को कहा।

    ज़कारिया खान ने तारू सिंह से कहा, “तारू सिंह… तुमने जो किया वह माफी के लायक बिलकुल नहीं है, लेकिन मैं तुम्हे एक शर्त पर छोड़ सकता हूं। तुम इस्लाम कबूल कर लो, मैं तुम्हारी सभी गलतियों को नजरअंदाज कर दूंगा।
    ज़कारिया खान का प्रस्ताव पाते ही पहले तो तारू सिंह मुस्कुराया फिर बोला कि चाहे जान चली जाए लेकिन वह अपने गुरुओं के साथ गद्दारी कभी नहीं करेगा।
    एक जल्लाद द्वारा तारू सिंह की खोपड़ी अलग कर दी गई

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    [06/09, 9:16 p.m.] harshad30.wordpress.com: ओ३म्
    * कुछ वेद-मन्त्र *
    ईश्वर के मित्र को दुःख कहाँ?
    प्र सो अग्ने तवोतिभिः
    सुवीराभिस्तरति वाजकर्मभिः ।
    यस्य त्वं सख्यमाविथ ।।-(सामवेद १०८)
    भावार्थ:-जो पुरुष परमात्मा के मित्र हैं वे उसकी और से हुई बलवती,पराक्रम ओर पुरुषार्थवती रक्षाओं में सर्वदुःखों से पार हो जाते हैं।उन्हें आत्मिक बल की सहायता मिलती है और जो लोग अग्नि के मित्र हैं अर्थात् अनुकूल सेवी हैं वे भी (दुःखों से पार हो जाते हैं)।
    सूर्यास्त से पूर्व भोजन
    उदुस्रियाः सृजते सूर्यः सचा
    उद्यन्नक्षत्रमर्चिवत् तवेदुषो व्युषि
    सूर्यस्य च सं भक्तेन गमेमहि ।।-(सामवेद ७५२)
    शब्दार्थ:-(सूर्यः) सूर्यलोक (उद्यन्) सदा उदित (नक्षत्रम्) नक्षत्र और (अर्चिवत्) किरणों वाला है और (सचा) एक-साथ ही (उस्रिया:) किरणों को (उत्,सृजते) ऊपर को छोड़ता है तथा च(उषः) प्रभातवेला ! हम (तव) तेरे (च) ओर (सूर्यस्य) सूर्य के (व्युषि) प्रकाश में (इत) ही (भक्तेन) अन्न से (संगमेमहि) समागम करें।
    भावार्थ:-मनुष्य को सदा सूर्यादि के प्रकाश में ही भोजन करना चाहिए,अन्धकार में नहीं।

    [06/09, 9:17 p.m.] harshad30.wordpress.com: !!!—: श्रुति-सूक्ति :—!!!

    “यदन्तरं तद् बाह्यं यद् बाह्यं तदन्तरम्।” (अथर्ववेदः–2.30.4)
    अर्थः—जो अन्दर हो, वही बाहर हो और जो बाहर हो, वही अन्दर हो।
    मनुष्य में मानसिक, वाचिक और कायिक (शारीरिक) सामंजस्य होना चाहिए। यही आध्यात्मिकता का लक्षण है। संस्कृत के किसी कवि ने बहुत ही उचित कहा हैः—
    “मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्।
    मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।।”
    अर्थात् मन, वाणी और कर्म की भिन्नता यह दुरात्मा का लक्षण है। मन, वाणी और कर्म की एकता यह महान् आत्मा का लक्षण है।
    यह वाणी का दोष है कि “आगे कुछ कहना और पीछे कुछ अन्य कहना।” मन में कुछ बात रखनी और बाहर कुछ कहनी। इसे राजनयिक वार्ता तो कह सकते हैं, किन्तु दैनिक जीवन में यह संभव नहीं। लोग दूसरों के साथ राजनीति करते-करते अपने घरों में भी राजनीति ले आएँ हैं। यह आज घरों में दुःख का मुख्य कारण है।
    उपनिषद् में आया हैः—“यद् मनसा ध्यायति तद् वाचा वदति, यद् वाचा वदति तत् कर्मणा करोति, यत् कर्मणा करोति तद् व्यवहरति।”
    जब तक मन, वाणी , कर्म और व्यवहार एक न हो जाए, तब तक परमात्मा का मिलन संभव नहीं।

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    ऐसी पत्नी भाई गुरु और धर्म का त्याग करने में ही भलाई है

    आचार्य चाणक्य एक महान ज्ञानी के साथ साथ एक अच्छे नीतिकार भी थे उन्होंने अपनी नीतियों में बहुत सी महत्वपूर्ण बातें बताई हैं जो भी मनुष्य इन नीतियों का पालन करता है वह संसार में कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना कर सकता है। आज मैं आपको आचार्य चाणक्य जी के बताए हुए ऐसे चार के बारे में बताने जा रहा हूं जिनका त्याग कर देने में ही भलाई है तो आइए जानते हैं कौन है वह चार ।

    पहला है दयाहीन धर्म । आचार्य चाणक्य कहते हैं ऐसे धर्म को एवं कार्य को त्याग देना चाहिए जिसमें दया न हो । धर्म वही होता है जो हमें दया करना सिखाता है । जो धर्म संसार में किसी भी प्राणी की हत्या करना सिखाता है ऐसे धर्म का त्याग कर देना चाहिए । सभी जीवो पर दया करने वाला मनुष्य ईश्वर के सच्चे स्वरुप को जानने वाला होता है अतः हमेशा ही दया का भाव मन में रख कर ही कार्य करना चाहिए।

    दूसरा है विद्याहीन गुरु । आचार्य चाणक्य कहते हैं जो भी गुरु विद्या से हीन है उसका त्याग कर देना चाहिए क्योंकि विद्याहीन गुरु हमें दूसरों से द्वेष करना सिखाता है। ज्ञान के अभाव के कारण वह हमें झूठी बातें बता कर बहकाता है और हम अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं। अतः ऐसे गुरु का त्याग करें जो अज्ञानी हो और अधर्मी हो । अज्ञान से भरा गुरु स्वयं के स्वार्थ के लिए अपने विद्यार्थियों का गलत ढंग से इस्तेमाल भी कर सकता है।

    तिसरी है क्रोधी पत्नी। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो पत्नी क्रोध से भरी हो उसका त्याग कर देना चाहिए। क्रोध किसी भी मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है । जो स्त्री हमेशा ही क्रोध करती रहती है उसके लिए उसके अपने शत्रु लगने लगते हैं। वो क्रोध में आकर स्वयं के पुत्र के साथ भी दुर्व्यवहार कर सकती है। क्रोधी पत्नी घर में कभी भी शांति का वातावरण नहीं बनने देती है वह हमेशा ही दूसरों को कोसती रहती है अतः ऐसी पत्नी का त्याग कर देने में ही भलाई है।

    चौथे हैं स्नेहहीन बंधु-बांधव । आचार्य चाणक्य नहीं उन बंधु-बांधव का त्याग करने के लिए कहा है जो आपसे द्वेष करते हैं और आपके प्रति उनके मन में जलन का भाव । बंधु और बांधव को सदा ही एक दूसरे से स्नेह करके और एक दूसरे की सहायता करनी चाहिए ।

    कोपी पेस्ट है

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    गजेन्द्र मोक्ष

    क्षीरसागर में स्थित त्रिकूट पर्वत पर लोहे, चांदी और सोने की तीन विशाल चोटियां थीं. उनके बीच विशाल जंगल में गजेंद्र हाथी अपनी असंख्य पत्नियों के साथ रहता था.

    एक बार गजेंद्र अपनी पत्नियों के साथ प्यास बुझाने के लिए एक तालाब पर पहुंचा. प्यास बुझाने के बाद गजेंद्र की जल-क्रीड़ा करने की इच्छा हुई. वह पत्नियों के साथ तालाब में क्रीडा करने लगा.

    दुर्भाग्यवश उसी समय एक अत्यंत विशालकाय ग्राह(मगरमच्छ) वहां पहुंचा. उसने गजेंद्र के दाएं पैर को अपने दाढ़ों में जकड़कर तालाब के भीतर खींचना शुरू किया.

    गजेंद्र पीड़ा से चिंघाड़ने लगा. उसकी पत्नियां तालाब के किनारे अपने पति के दुख पर आंसू बहाने लगीं. गजेंद्र अपने पूरे बल के साथ ग्राह से युद्ध कर रहा था.

    परंतु वह ग्राह की पकड़ से मुक्त नहीं हो पा रहा था. गजेंद्र अपने दाँतों से मगरमच्छ पर वार करता तो ग्राह उसके शरीर को अपने नाखूनों से खरोंच लेता और खून की धारा निकल आतीं. ग्राह और हाथी के बीच बहुत समय तक युद्ध हुआ. पानी के अंदर ग्राह की शक्ति ज़्यादा होती है. ग्राह गजेंद्र का खून चूसकर बलवान होता गया जबकि गजेंद्र के शरीर पर मात्र कंकाल शेष था.
    गजेंद्र दुखी होकर सोचने लगा- मैं अपनी प्यास बुझाने यहां आया था. प्यास बुझाकर मुझे चले जाना चाहिए था. मैं क्यों इस तालाब में उतर पड़ा? मुझे कौन बचायेगा?

    उसे अपनी मृत्यु दिख रही थी. फिर भी मन के किसी कोने में यह विश्वास था कि उसने इतना लंबा संघर्ष किया है, उसकी जान बच सकती है. उसे ईश्वर का स्मरण हुआ तो नारायण की स्तुति कर उन्हें पुकारने लगा.

    सारा संसार जिनमें समाया हुआ है, जिनके प्रभाव से संसार का अस्तित्व है, जो इसमें व्याप्त होकर इसके रूपों में प्रकट होते हैं, मैं उन्हीं नारायण की शरण लेता हूं. हे नारायण मुझ शरणागत की रक्षा करिए.

    विविधि लीलाओं के कारण देवों, ऋषियों के लिए अगम्य अगोचर बने जिन श्रीहरि की महिमा वर्णन से परे है. मैं उस दयालु नारायण से प्राण रक्षा की गुहार लगाता हूं.

    नारायण के स्मरण से गजेंद्र की पीड़ा कुछ कम हुई. प्रभु के शरणागत को कष्ट देने वाले ग्राह के जबड़ों में भयंकर दर्द शुरू हुआ फिर भी वह क्रोध में जोर से उसके पैर चबाने लगा. छटपटाते गजेंद्र ने स्मरण किया- मुझ जैसे घमण्डी जब तक संकट में नहीं फंसते, तब तक आपको याद नहीं करते. यदि दुख न हो तो हमें आपकी ज़रूरत का बोध नहीं होता.
    आप जब तक प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते, तब तक प्राणी आपका अस्तित्व तक नहीं मानता लेकिन कष्ट में आपकी शरण में पहुंच जाता है. जीवों की पीड़ा को हरने वाले देव आप सृष्टि के मूलभूत कारण हैं.

    गजेंद्र ने श्रीहरि की स्तुति जारी रखी- मेरी प्राण शक्ति जवाब दे चुकी हैं. आंसू सूख गए हैं. मैं ऊंचे स्वर में पुकार भी नहीं सकता. आप चाहें तो मेरी रक्षा करें या मेरे हाल पर छोड़ दें.

    सब आपकी दया पर निर्भर है. आपके ध्यान के सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं. मुझे बचाने वाला भी आपके सिवाय कोई नहीं है. यदि मृत्यु भी हुई तो आपका स्मरण करते मरूंगा.

    पीड़ा से तड़पता गजेंद्र सूंड उठाकर आसमान की ओर देखने लगा. मगरमच्छ को लगा कि उसकी शक्ति जवाब देती जा रही है. उसका मुंह खुलता जा रहा है.

    भक्त की करूणाभरी पुकार सुनकर नारायण आ पहुंचे. गजेंद्र ने उस अवस्था में भी तालाब का कमलपुष्प और जल प्रभु के चरणों में अर्पण किया. प्रभु भक्त की रक्षा को कूद पड़े.

    उन्होंने ग्राह के जबड़े से गजेंद्र का पैर निकाला और चक्र से ग्राह का मुख चीर दिया. ग्राह तुरंत एक गंधर्व में बदल गया. दरअसल वह ग्राह हुहू नामक एक गंधर्व था.

    एक बार देवल ऋषि पानी में खड़े होकर तपस्या कर रहे थे. गंधर्व को शरारत सूझी. उसने ग्राह रूप धरा और जल में कौतुक करते हुए ऋषि के पैर पकड़ लिए. क्रोधित ऋषि ने उसे शाप दिया कि तुम मगरमच्छ की तरह इस पानी में पड़े रहो किंतु नारायण के प्रभाव से वह शापमुक्त होकर अपने लोक को चला गया.
    श्रीहरि के दर्शन से गजेंद्र भी अपनी खोई हुई ताक़त और पूर्व जन्म का ज्ञान भी प्राप्त कर सका. गजेंद्र पिछले जन्म में इंद्रद्युम्न नामक एक विष्णुभक्त राजा थे.

    श्रीविष्णु के ध्यान में डूबे राजा ने एक बार ऋषि अगस्त्य के आगमन का ख़्याल न किया. राजा ने युवावस्था में ही गृहस्थ आश्रम को त्यागकर वानप्रस्थ ले लिया.

    राजा ब्रह्मा द्वारा प्रतिपादित आश्रम व्यवस्था को भंग कर रहा था, ऋषि इससे भी क्षुब्ध थे. उन्होंने शाप दिया- तुम किसी व्यवस्था को नहीं मानते इसलिए अगले जन्म में मत्त हाथी बनोगे.

    राजा ने शाप स्वीकार करते हुए ऋषि से अनुरोध किया कि मैं अगले जन्म में भी नारायण भक्त रहूं. अगस्त्य उसकी नारायण भक्ति से प्रसन्न हुए और तथास्तु कहा.

    श्रीहरि की कृपा से गजेंद्र शापमुक्त हुआ. नारायण ने उसे अपना सेवक पार्षद बना लिया।।

    लसमुकान्त वर्शनय

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    विराथु… जी हाँ, बस ये शब्द ही काफी है म्यांमार में, इस शब्द को सुनकर मुस्लिमों में कंपकपी मच जाती हैविराथु वो संत हैं जिन्होंने आतंक के खिलाफ पूरे म्यांमार को खड़ा कर दिया गया और फिर वहां से लोगों ने अवैध मुस्लिमों को खदेड़ डाला! लोग जो भगवान बुद्ध की बातों पर अमल करते आ रहे थे उन लोगों ने देश की रक्षा के लिए बुद्ध की बातों को छोड़ संत विराथु की बातों पर अमल किया! विराथु ने कहा, “चाहे आप कितने भी दयावान और शांतिप्रिय हो पर आप एक पागल कुत्ते के साथ नहीं सो सकते अन्यथा आपकी शांति वहां कोई काम नहीं आएगी और आप बर्बरता से ख़त्म कर दिए जाओगे…

    “उन्होंने कहा, “शांति स्थापित करने के लिए हथियार उठाना होगा, शांति के लिए युद्ध जरुरी” ये सारी बातें विराथु ने गीता से ली! और फिर आतंक की बीमारी झेल रहे म्यांमार के लोग एकजुट हो गए वो विराथु के लिए जान लेने और देने को तैयार हो गए और पूरे म्यांमार से अवैध मुसलमानो को खदेड़ा जाने लगा! विराथू के प्रवचनों को अगर कोई सुने तो उसे लग सकता है कि शांत स्वरों में मोक्षप्राप्ति की बात चल रही है! दृष्टि नीचे किए हुए जब वह अपना प्रवचन दे रहे होते हैं, तो प्रस्तर प्रतिमा की तरह स्थिर नजर आते हैं, चेहरे पर भी कोई उत्तेजना नजर नहीं आती!

    एक बारगी लगेगा कि वह कोई गंभीर आध्यात्मिक उपदेश दे रहे हैं, लेकिन वह अपने हर उपदेश में बौद्धों के संगठित होने और हिंसा का जवाब हिंसा से देने का उपदेश देते हैं! विराथु के भाषणों से प्रभावित होकर पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में भी बौद्ध भिक्षुओं नें मुख्यत: मुस्लिमों के खिलाफ ‘बोडु बाला सेना’ नाम का संगठन बना लिया है! इस संगठन का मुख्यालय कोलंबो के बुद्धिस्ट कल्चरल सेंटर में है, जिसका उद्घाटन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे किया था… इस संगठन के भी लाखों समर्थक हैं, जो मानते हैं कि श्रीलंका को मुसलमानों से खतरा है!

    म्यांमार में हुई हिंसक घटनाओं के बाद से अब प्राय: पूरी दुनिया में बौद्धों और मुस्लिमों में भारी तनातनी पैदा हो गई है! जिनमें अशीन विराथु बौद्ध दुनिया के एक नायक एवं जेहादी दुनिया के लिए एक बड़े खलनायक बन कर उभरे हैं! म्यांमार में हुए कई सर्वेक्षणों के बाद ये प्रमाणित हो चुका है कि जनता एवं बौद्ध भिक्षु विराथु के साथ है… विराथु का स्वयं भी कहना है कि वह न तो घृणा फैलाने में विश्वास रखते हैं और न हिंसा के समर्थक हैं, लेकिन हम कब तक मौन रहकर सारी हिंसा और अत्याचार को झेलते रह सकते हैं…?

    इसलिए वह अब पूरे देश में घूम-घूम कर भिक्षुओं तथा सामान्यजनों को उपदेश दे रहे हैं कि यदि हम आज कमजोर पड़े, तो अपने ही देश में हम शरणार्थी हो जाएंगे! म्यांमार के बौद्घों के इस नये तेवर से पूरी दुनिया में खलबली मच गई है! दुनिया भर के अखबारों में उनकी निंदा में लेख छापे जा रहे हैं परन्तु पूज्य चरण अशीन विराथु को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता वे पूर्ववत असली राष्ट्र आराधना में लगे हुए हैं…

    Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

    राजा हर्षवर्धन युद्ध में हार गए। हथकड़ियों में जीते हुए पड़ोसी राजा के सम्मुख पेश किए गए।


    राजा हर्षवर्धन युद्ध में हार गए।
    हथकड़ियों में जीते हुए पड़ोसी राजा के सम्मुख पेश किए गए। पड़ोसी देश का राजा अपनी जीत से प्रसन्न था और उसने हर्षवर्धन के सम्मुख एक प्रस्ताव रखा…
    यदि तुम एक प्रश्न का जवाब हमें लाकर दे दोगे तो हम तुम्हारा राज्य लौटा देंगे, अन्यथा उम्र कैद के लिए तैयार रहें।
    प्रश्न है.. एक स्त्री को सचमुच क्या चाहिए होता है ?
    इसके लिए तुम्हारे पास एक महीने का समय है हर्षवर्धन ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया..
    वे जगह जगह जाकर विदुषियों, विद्वानों और तमाम घरेलू स्त्रियों से लेकर नृत्यांगनाओं, वेश्याओं, दासियों और रानियों, साध्वी सब से मिले और जानना चाहा कि एक स्त्री को सचमुच क्या चाहिए होता है ? किसी ने सोना, किसी ने चाँदी, किसी ने हीरे जवाहरात, किसी ने प्रेम-प्यार, किसी ने बेटा-पति-पिता और परिवार तो किसी ने राजपाट और संन्यास की बातें कीं, मगर हर्षवर्धन को सन्तोष न हुआ।
    महीना बीतने को आया और हर्षवर्धन को कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला..
    किसी ने सुझाया कि दूर देश में एक जादूगरनी रहती है, उसके पास हर चीज का जवाब होता है शायद उसके पास इस प्रश्न का भी जवाब हो..
    हर्षवर्धन अपने मित्र सिद्धराज के साथ जादूगरनी के पास गए और अपना प्रश्न दोहराया।
    जादूगरनी ने हर्षवर्धन के मित्र की ओर देखते हुए कहा.. मैं आपको सही उत्तर बताऊंगी परंतु इसके एवज में आपके मित्र को मुझसे शादी करनी होगी ।
    जादूगरनी बुढ़िया तो थी ही, बेहद बदसूरत थी, उसके बदबूदार पोपले मुंह से एक सड़ा दाँत झलका जब उसने अपनी कुटिल मुस्कुराहट हर्षवर्धन की ओर फेंकी ।
    हर्षवर्धन ने अपने मित्र को परेशानी में नहीं डालने की खातिर मना कर दिया, सिद्धराज ने एक बात नहीं सुनी और अपने मित्र के जीवन की खातिर जादूगरनी से विवाह को तैयार हो गया
    तब जादूगरनी ने उत्तर बताया..
    “स्त्रियाँ, स्वयं निर्णय लेने में आत्मनिर्भर बनना चाहती हैं | ”
    यह उत्तर हर्षवर्धन को कुछ जमा, पड़ोसी राज्य के राजा ने भी इसे स्वीकार कर लिया और उसने हर्षवर्धन को उसका राज्य लौटा दिया
    इधर जादूगरनी से सिद्धराज का विवाह हो गया, जादूगरनी ने मधुरात्रि को अपने पति से कहा..
    चूंकि तुम्हारा हृदय पवित्र है और अपने मित्र के लिए तुमने कुरबानी दी है अतः मैं चौबीस घंटों में बारह घंटे तो रूपसी के रूप में रहूंगी और बाकी के बारह घंटे अपने सही रूप में, बताओ तुम्हें क्या पसंद है ?
    सिद्धराज ने कहा.. प्रिये, यह निर्णय तुम्हें ही करना है, मैंने तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया है, और तुम्हारा हर रूप मुझे पसंद है ।
    जादूगरनी यह सुनते ही रूपसी बन गई, उसने कहा.. चूंकि तुमने निर्णय मुझ पर छोड़ दिया है तो मैं अब हमेशा इसी रूप में रहूंगी, दरअसल मेरा असली रूप ही यही है।
    बदसूरत बुढ़िया का रूप तो मैंने अपने आसपास से दुनिया के कुटिल लोगों को दूर करने के लिए धरा हुआ था ।
    अर्थात, सामाजिक व्यवस्था ने औरत को परतंत्र बना दिया है, पर मानसिक रूप से कोई भी महिला परतंत्र नहीं है।
    इसीलिए जो लोग पत्नी को घर की मालकिन बना देते हैं, वे अक्सर सुखी देखे जाते हैं। आप उसे मालकिन भले ही न बनाएं, पर उसकी ज़िन्दगी के एक हिस्से को मुक्त कर दें। उसे उस हिस्से से जुड़े निर्णय स्वयं लेने दें।

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    एक समय संत प्रात: काल* *भ्रमण हेतू समुद्र के किनारे गए!*


    Abha Sahay 

    एक समय संत प्रात: काल* *भ्रमण हेतू समुद्र के किनारे गए!*
    *समुद्र के किनारे उन्होने एक* *पुरुष को देखा जो एक स्त्री की गोद में सर रख कर सोया हुआ था*
    *पास में शराब की खाली बोतल पड़ी हुई थी.संत बहुत दु:खी हुए!*
    *उन्होने ये विचार किया की ये मनुष्य कितना कामान्ध हैं!*
    *जो प्रात:काल शराब सेवन करके स्त्री की गोदी में सर रख कर प्रेमालाप कर रहा हैं!*
    *थोड़ी देर बाद समुद्र से बचाओ, बचाओ की आवाज आई,संत नें देखा की एक मनुष्य समुद्र में डूब रहा हैं!*
    *मगर स्वयम को तैरना नहीं आने के कारण वो संत देखने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते थे!*
    *स्त्री की गोद में सिर रख कर सोया हुआ व्यक्ति उठा और डूबने वाले को बचाने हेतू पानी में कूद गया!*
    *थोड़ी देर में उसने डूबने वाले को बचा लिया और किनारे ले आया!*
    *संत विचार में पड़ गए की इस व्यक्ति को बुरा कहें या भला!*
    *वो उसके पास गए और बोले भाई तूं कौन हैं और यहां क्या कर रहा हैं?*
    *उस व्यक्ति ने उत्तर दिया की में एक मछुआरा हूं और मछली मारनें का काम करता हूं.आज कई दिनों से समुद्र से मछली पकड़ कर प्रात: जल्दी यहां लौटा हूं.*
    *मेरी मां मुझे लेने के लिए आई थी और साथ में(घर में कोई दूसरा बर्तन नहीं होने पर)इस दारू की बोतल में पानी ले आई.*
    *कई दिनो की यात्रा से में थका हुआ था*
    *और भोर के सुहावने वातावरण में ये पानी पी कर थकान कम करने हेतू मां की गोदी में सिर रख कर ऐसे ही सो गया.*
    *संत की आंखों में आंसु आ गए की मैं कैसा मनुष्य हूं जो देखा उसके बारे में*
    *गलत विचार किया जिसकी वास्तविकता अलग थी!*
    *कोई बात हम देखते वो नहीं होती हैं उसका एक दूसरा पहलू भी हो सकता हैं*

    *किसी के प्रति कोई निर्णय लेने से पहले सौ बार सोचो.*..

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    एक बादशाह अपने कुत्ते के साथ नाव में यात्रा कर रहा था । उस नाव में अन्य यात्रियों के साथ एक दार्शनिक भी था ।


    एक बादशाह अपने कुत्ते के साथ नाव में यात्रा कर रहा था । उस नाव में अन्य यात्रियों के साथ एक दार्शनिक भी था ।
    .
    कुत्ते ने कभी नौका में सफर नहीं किया था, इसलिए वह अपने को सहज महसूस नहीं कर पा रहा था । वह उछल-कूद कर रहा था और किसी को चैन से नहीं बैठने दे रहा था ।
    .
    मल्लाह उसकी उछल-कूद से परेशान था कि ऐसी स्थिति में यात्रियों की हड़बड़ाहट से नाव डूब जाएगी । वह भी डूबेगा और दूसरों को भी ले डूबेगा । परन्तु कुत्ता अपने स्वभाव के कारण उछल-कूद में लगा था । ऐसी स्थिति देखकर बादशाह भी गुस्से में था । पर, कुत्ते को सुधारने का कोई उपाय उन्हें समझ में नहीं आ रहा था ।
    .
    नाव में बैठे दार्शनिक से रहा नहीं गया । वह बादशाह के पास गया और बोला – “सरकार ! अगर आप इजाजत दें तो मैं इस कुत्ते को भीगी बिल्ली बना सकता हूँ ।” बादशाह ने तत्काल अनुमति दे दी । दार्शनिक ने दो यात्रियों का सहारा लिया और उस कुत्ते को नाव से उठाकर नदी में फेंक दिया । कुत्ता तैरता हुआ नाव के खूंटे को पकड़ने लगा । उसको अब अपनी जान के लाले पड़ रहे थे । कुछ देर बाद दार्शनिक ने उसे खींचकर नाव में चढ़ा लिया ।
    .

    वह कुत्ता चुपके से जाकर एक कोने में बैठ गया । नाव के यात्रियों के साथ बादशाह को भी उस कुत्ते के बदले व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य हुआ । बादशाह ने दार्शनिक से पूछा – “यह पहले तो उछल-कूद और हरकतें कर रहा था, अब देखो कैसे यह पालतू बकरी की तरह बैठा है ?”
    .
    दार्शनिक बोला –
    “खुद तकलीफ का स्वाद चखे बिना किसी को दूसरे की विपत्ति का अहसास नहीं होता है । इस कुत्ते को जब मैंने पानी में फेंक दिया तो इसे पानी की ताकत और नाव की उपयोगिता समझ में आ गयी ।”
    *भारत में रहकर
    भारत को गाली देने वालों के लिए*…

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    मीरा बाईसा के आखिरी पल


    मीरा बाईसा के आखिरी पल❤️
    द्वारिकाधीश की मंगला आरती हो चुकी थी और पुजारी जी द्वार के पास खड़े थे। दर्शनार्थी दर्शन करते हुये आ जा रहे थे ।राणावतों और मेड़तियों के साथ मीरा मंदिर के परिसर में पहुँची ।मीरा ने प्रभु को प्रणाम किया ।

    पुजारी जी मीरा को पहचानते थे और उन्हें यह विदित था कि इन्हें लिवाने के लिए मेवाड़ के बड़े बड़े सामन्तों सहित राजपुरोहित आयें है ।चरणामृत और तुलसी देते हुये उन्होंने पूछा -” क्या निश्चित किया ? क्या जाने का निश्चय कर लिया है ? आपके बिना द्वारिका सूनी हो जायेगी ।” 🙏

    ” हाँजी महाराज ! वही निश्चित नहीं कर पा रही !! अगर आप आज्ञा दें तो भीतर जाकर प्रभु से ही पूछ लूँ !!!” ❤️

    ” हाँ हाँ !! पधारो बा !! आपके लिए मन्दिर के भीतर जाने में कोई भी बाधा नहीं !!!”-पुजारी जी ने अतिशय सम्मान से कहा।

    🌿पुजारी जी की आज्ञा ले मीरा मन्दिर के गर्भगृह में गई ।ह्रदय से प्रभु को प्रणाम कर मीरा इकतारा हाथ में ले वह गाने लगी……..

    मीरा को प्रभु साँची दासी बनाओ।
    झूठे धंधों से मेरा फंदा छुड़ाओ॥

    लूटे ही लेत विवेक का डेरा।
    बुधि बल यदपि करूं बहुतेरा॥

    हाय!हाय! नहिं कछु बस मेरा।
    मरत हूं बिबस प्रभु धाओ सवेरा॥

    धर्म उपदेश नितप्रति सुनती हूं।
    मन कुचाल से भी डरती हूं॥

    सदा साधु-सेवा करती हूं।
    सुमिरण ध्यान में चित धरती हूं॥

    भक्ति-मारग दासी को दिखलाओ।
    मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ॥

    अंतिम पंक्ति गाने से पूर्व मीरा ने इकतारा मंगला के हाथ में थमाया और गाती हुईं धीमें पदों से गर्भ गृह के भीतर वह ठाकुर जी के समक्ष जा खड़ी हुईं। वह एकटक द्वारिकाधीश को निहारती बार बार गा रही थी -” मिल बिछुरन मत कीजे ।” 😪

    ❤️एकाएक मीरा ने देखा कि उसके समक्ष विग्रह नहीं ब्लकि स्वयं द्वारिकाधीश वर के वेश में खड़े मुस्कुरा रहे है। मीरा अपने प्राणप्रियतम के चरण स्पर्श के लिए जैसे ही झुकी , दुष्टों का नाश , भक्तों को दुलार , शरणागतों को अभय और ब्रह्माण्ड का पालन करने वाली सशक्त भुजाओं ने आर्त ,विह्वल और शरण माँगती हुई अपनी प्रिया को बन्धन में समेट लिया ❤️🌺❤️

    ❤️जय-जय मीरा गोपाल ❤️

    क्षण मात्र के लिए एक अभूतपूर्व प्रकाश प्रकट हुआ , मानों सूर्य -चन्द्र एक साथ अपने पूरे तेज़ के साथ उदित होकर अस्त हो गये हों ।

    ❤️इसी प्रकाश में प्रेमदीवानी मीरा समा गई ❤️

    ❤️जय-जय मीरा गोपाल ❤️

    उसी समय मंदिर के सारे घंटे -घड़ियाल और शंख स्वयं ज़ोर ज़ोर से एक साथ बज उठे। कई क्षण तक वहाँ पर खड़े लोगों की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ ।

    एकाएक चमेली ” बाईसा हुकम ” पुकारती मंदिर के गर्भ गृह की ओर दौड़ी। पुजारी जी ने सचेत होकर हाथ के संकेत से उसे रोका और स्वयं गर्भ गृह में गये ।उनकी दृष्टि चारों ओर मीरा को ढूँढ रही थी ।अचानक प्रभु के पाशर्व में लटकता भगवा -वस्त्र खंड दिखाई दिया। वह मीरा की ओढ़नी का छोर था। लपक कर उन्होंने उसे हाथ में लिया ।पर मीरा कहीं भी मन्दिर में दिखाई नहीं दी ।निराशा के भाव से भावित हुए पुजारी ने गर्भ गृह से बाहर आकर न करते हुए सिर हिला दिया। उनका संकेत समझ सब हतोत्साहित एवं निराश हो गये ।

    ” यह कैसे सम्भव है ? 😩अभी तो हमारे सामने उन्होंने गाते हुये गर्भ गृह में प्रवेश किया है ।भीतर नहीं हैं तो फिर कहाँ है ? हम मेवाड़ जाकर क्या उत्तर देंगें। “- वीर सामन्त बोल उठे ।

    ” मैं भी तो आपके साथ ही बाहर था ।मैं कैसे बताऊँ कि वह कहाँ गई ?

    स्थिति से तो यही स्पष्ट है कि मीरा बाई प्रभु में समा गई , उनके विग्रह में लीन हो गई। ” पुजारी जी ने उत्तर दिया।

    पर चित्तौड़ और मेड़ता के वीरों ने पुजारी जी की आज्ञा ले स्वयं गर्भ गृह के भीतर प्रवेश किया। दोनों पुरोहितों ने मूर्ति के चारों ओर घूम कर मीरा को ढूँढने का प्रयास किया ।

    सामन्तों ने दीवारों को ठोंका , फर्श को भी बजाकर देखा कि कहीं नीचे से नर्म तो नहीं !! अंत में जब निराश होकर बाहर निकलने लगे तो पुजारी ने कहा ,” ❤️आपको बा की ओढ़नी का पल्ला नहीं दिखता , अरे बा प्रभु में समा गई है। ” ❤️

    दोनों पुरोहितों ने पल्ले को अच्छी तरह से देखा और खींचा भी , पर वह तनिक भी खिसका नहीं , तब वह हताश हो बाहर आ गये ।🙏🌺❤️

    इस समय तक ढोल – नगारे बजने आरम्भ हो गये थे ।पुजारी जी ने भुजा उठाकर जयघोष किया -” बोल , मीरा माँ की जय ! द्वारिकाधीश की जय !!

    भक्त और भगवान की जय !!! ” 🎻🎸💐

    लोगों ने जयघोष दोहराया -जय-जय मीरा गोपाल

    तीनों दासियों का रूदन वेग मानों बाँध तोड़कर बह पड़ा हो। अपनी आँखें पौंछते हुये दोनों पुरोहित उन्हें सान्तवना दे रहे थे ।इस प्रकार मेड़ता और चित्तौड़ की मूर्तिमंत गरिमा अपने अराध्य में जा समायी

    नृत्यत नुपूर बाँधि के गावत ले करतार,
    देखत ही हरि में मिली तृण सम गनि संसार ॥
    मीरा को निज लीन किय नागर नन्दकिशोर ,
    जग प्रतीत हित नाथ मुख रह्यो चुनरी छोर ॥

    दोनों की साध पूरी हुयी, न जाने कितने जन्मों की प्रतीक्षा के बाद। आत्मा और परमात्मा का मिलन🌺

    ❤️दो होकर एक एक होकर दो ❤️
    जय श्रीमीरामाधव…!!