Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

वो मनहूस लड़की ..


वो मनहूस लड़की …

वो अठाइस साल की बहुत ही बदसूरत और काली लड़की थी दाँत भी निकले थे

पर उसे अपने रंग और बदसूरती का जरा भी अफ़सोस नही था।हमेशा खुश रहती और एक नंबर की पेटू और पढ़ने लिखने में महाभोंदू भी थी ।

पेटू होने की वजह से शरीर भी बेडौल हो गया था।एक खूबी उसमें यह भी थी की जहाँ रहती हो हो हो कर हँसते मुस्कुराते रहती और सबको भी हँसाते रहती।

उस नेक दिल लड़की का एक शौक भी था, खाना बनाने का, खूब मन से खाना बनाती।बड़े चाव से मसाला पिसती।खाना बनाने की किताबे खूब ध्यान लगा कर पढ़ती ।टीवी रेडियो पे भी पाक कला के प्रोग्राम को बड़े मनोयोग से देखती सुनती,

उसे कोई भी खाना बनाना होता तो बड़े प्रेम से बनती।आटा गूँथती ,बड़े प्यार से गीत गुनगुनाते हुए कम आँच पे पूरियाँ तलती।सब्जी चटनी खीर हो या मटर पनीर सब कुछ लाजबाब बनाती।जो भी उसके खाने को टेस्ट करता बिना तारीफ किये ना रहता।उसने पाक कला में अद्भुत और असाधारण प्रतिभा हासिल कर ली थी।

पर वह मनहूस थी उसके काले रंग और बदसूरत होने से कोई उसे प्यार न करता था पर माँ उसे बहुत प्यार करती थी।आज तक माँ ने उसे डाँटा तक नही था और वह भी माँ से बहुत प्यार करती थी।

हर बार की तरह आज सुबह भी उसकी शादी के लिए जो लोग आये थे उन सबो ने खाने की बहुत तारीफ की लेकिन लड़की को देखकर नाक मुँह सिकोड़कर चले गए।

वह लड़की भी तैयार होकर किसी को बिना कुछ बताये कहीं चली गयी। शाम में जब वो लौटी तो घर का माहौल बहुत गरम था।

पिता जी माँ पे बहुत गुस्सा थे बोल रहे थे पता नही कौन से पाप के बदले ये मनहूस लड़की मिली।पिता से प्रायः यह सुब सुनती थी उससे उसे कोई असर न होता था।

वह बहुत खुश खुश माँ को कुछ बताने गई और कहा ” बड़ी भूख लगी है कुछ खाने को दो पहले” ,

उसके हाथों में एक सर्टिफिकेट और एक चेक भी था, पर माँ भी आज बहुत गुस्से में सब्जी काट रही थी उसके तरफ देखे बिना ही बोली “तू सचमुच मनहूस है काश पैदा लेते ही मर जाती तो आज ये दिन ना देखना पड़ता।पचासों रिश्तों आये किसी ने तुझे पसंद न किया “।

उस मनहूस लड़की को माँ से ऐसी आशा ना थी उसका दिल बैठ गया और उसकी ख़ुशी उड़ गई और उदास होकर माँ से बोली ” मैं सचमुच मनहूस हूँं माँ क्या मैं मर जाऊँ?” बोलते बोलते उसका गला रुंध गया और चेहरा लाल हो गया।

माँ ने भी गुस्से में कहा “जा मर जा सबको चैन मिले”।
मनहूस लड़की ने अपने कमरे में जाकर दरवाजा बंद कर लिया।

थोड़ी देर बाद जैसे ही माँ को अपनी गलती का अहसास हुआ वो दौड़ती हुई उसके कमरे के तरफ गयी।आवाज़ देने पर भी दरवाजा जब नही खुला तो माँ ने जोर का धक्का दिया।

तेज धक्के से जैसे ही दरवाज़ा खुला माँ ने देखा सामने दुपट्टे के सहारे जीभ बाहर निकले उस मनहूस काली लड़की की लाश झूल रही थी

वही पर एक चिट्ठी, सर्टिफिकेट और एक लाख का चेक रखा था ।

चिट्ठी में लिखा था” माँ मैंने आज तक तुम्हारा कहना माना है आज तुमने मरने को बोला ये भी मान रही अब तुम मनहूस लड़की की माँ नही कहलाओगी।

मैंने पढ़ने की बहुत कोशिश की पर मेरे दिमाग मे कुछ जाता है नहीं, पर भगवान ने मुझे ऐसा बनाया इसमें मेरा क्या कसूर। मुझे सबने काली मनहूस भोंदू सब कहा मुझे बुरा न लगा पर तुम्हारे मुँह से सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा, मेरी प्यारी माँ और हां आज नेशनल लेवल के खाना बनाने वाली प्रतियोगिता में मुझे फर्स्ट प्राइज और एक लाख रूपए का चेक मिला और साथ में फाइव स्टार होटल में मास्टर शेफ की नौकरी भी।

और पता है माँ आज मेरी जिंदगी की सबसे खुशी का दिन था क्योंकि पहली बार वहाँ सबने मुझे कहा था
देखो ये है कितनी भाग्यशाली लड़की…….

Posted in संस्कृत साहित्य

तीन प्रकार के अश्वमेध-


तीन प्रकार के अश्वमेध-
ब्राह्मण ग्रन्थों में सांकेतिक रूप में यज्ञ का वर्णन है। उसका वास्तविक रूप समझने के लिए पुराण-इतिहास पढ़ना पड़ेगा-
इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपवृंहयेत्।
बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति।। (महाभारत। 1/1 अध्याय)
इतिहास पुराण से अनभिज्ञ मूर्खों से वेद भी डरता है कि यह मुझे नष्ट कर देगा।
अश्वमेध यज्ञ के 3 रूप पुराणों में वर्णित हैं।
आध्यात्मिक रूप शरीर के भीतर है जिसे कायाकल्प कहा जाता है। रामायण के बालकाण्ढ में पुत्र कामेष्टि यज्ञ को भी अश्वमेध कहा गया है। इसका एक वर्णन छान्दोग्य उपनिषद् में भी है। दशरथ तथा उनकी पत्नियां ( कैकेयी को छोड़कर) पुत्र जन्म देने की आयु पार कर चुके थे। 21 यूप गाड़े गये या 21 दिन तक कायाकल्प हुआ। उसके बाद वे सन्तान को जन्म देने में समर्थ हो सके। रघुवंश द्वितीय सर्ग मे भी 21 दिन तक दिलीप की गो सेवा रूप तपस्या का वर्णन है-
सप्त व्यतीयुस्त्रिगुणानि तस्य, दिनानि दीनोद्धरणोचितस्य।
सामान्यतः सृष्टि यज्ञ भी 3×7 व्यवस्था से होता है, जो पुरुष सूक्त में कहा है-
सप्तास्यासन् परिधयः त्रिस्सप्तः समिधः कृताः।
अथर्ववेद का प्रथम श्लोक भी इसका निर्देश करता है-
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वाः।
आधिभौतिक यज्ञ में कहा जाता है कि घोड़ा पूरे भारत में निर्बाध घूमना चाहिए। वेद सनातन है, अतः आधिभौतिक अश्वमेध हर राजा का कर्तव्य है। पूरे देश में एक कानून, कर व्यवस्था हो। संचार तथा यात्रा में बाधा नहीं हो। रेल चले तो बिना रैली में फंसे गन्तव्य तक पहुंच जाये। आज भी इन बाधाओं को दूर करने के लिए लगता है कि उसके सेना भेजनी होगी।
श्व का अर्थ है कल। कल स्थिति बदले, इसके लिये गति चाहिए। गति का कारक अश्व है। गाड़ी को चलाने के लिए जिस पशु का व्यवहार होता था उसे भी अश्व कहते हैं। आज भी किसी इंजन की शक्ति को अश्व शक्ति में मापते हैं। सम्भवतः पुराने युग में भी ऐसा था। रथ में 10,000 घोड़े लगाने का वर्णन है। भौतिक रूप से 10,000 घोड़े नहीं लग सकते हैं। लगाने पर वे कम से कम 500× 500 मीटर चौड़ा मार्ग घेरेंगे तथा उनका नियंत्रण नहीं हो पायेगा। इसका अर्थ है कि इंजन 10,000 अश्वशक्ति का था। इस अश्वशक्ति की माप आज ही जैसी पर थोड़ा अलग होगी। आकाश में सूर्य ही अश्व है। सूर्य तथा उसके जैसे अन्य तारों से सृष्टि चल रही है। सूर्य से प्रकाशित भाग श्वेत अश्व है। उससे बड़ी रचनायें ब्रह्माण्ड तथा पूरा विश्व है। पूरा विश्व ब्रह्म है तथा आकाशगंगा उसका एक अण्ड। श्वेत अश्व से बड़ी इन रचनाओं का वर्णन होने के कारण एक उपनिषद् का नाम श्वेताश्वतर उपनिषद् है। पर वामपन्थी मूर्खों को इससे कोई मतलब नहीं था। उनके जीवन का उद्देश्य था कि हर जगह वेदों में मांसाहार तथा हत्या दिखायें। अतः राहुल सांकृत्यायन ने श्वेत अश्व का अर्थ घोड़ा का श्वेत भाग हड्डी किया तथा तर का अर्थ सूप किया तथा निष्कर्ष निकाला कि ऋषि रोज घोड़े की हड्डी का सूप पीते थे। इस उपनिषद् में घोड़ा की चर्चा कहीं नहीं है। पर जीवन का उद्देश्य पूरा होने के कारण वामपन्थियों ने उनको महापण्डित घोषित कर दिया।
आकाश के अश्व सूर्यों द्वारा 3×7 क्रम में सृष्टि हो रही है- 3 धाम और 7 लोक। सूर्य किरण से प्रत्यक्ष गति हवा में दीखती है। उससे वर्षा होती है। उससे शक्ति लेकर समुद्र में जो जहाज चलते हैं उनको याचक (Yatch) कहते हैं जो महाराष्ट्र तथा ओडिशा में नाविकों की उपाधि है। भारत के पूर्व में जापान (भागवत का पञ्चजन = 5 द्वीपों का समूह) के निकट हवा रूपी अश्व की शक्ति मन्द पड़ जाती थी अतः उसे भद्राश्व वर्ष कहा गया है। आज भी उसे Horse Latitude कहते हैं।

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

कल रात मैंने एक “सपना” देखा.! मेरी Death हो गई….


कल रात मैंने एक
“सपना” देखा.!
मेरी Death हो गई….

जीवन में कुछ अच्छे कर्म किये होंगे
इसलिये यमराज मुझे
स्वर्ग में ले गये…

देवराज इंद्र ने
मुस्कुराकर
मेरा स्वागत किया…

मेरे हाथ में
Bag देखकर पूछने लगे

”इसमें क्या है..?”

मैंने कहा…
” इसमें मेरे जीवन भर की कमाई है, पांच करोड़ रूपये हैं ।”

इन्द्र ने
‘BRP-16011966’
नम्बर के Locker की ओर
इशारा करते हुए कहा-
”आपकी अमानत इसमें रख
दीजिये..!”

मैंने Bag रख दी…

मुझे एक Room भी दिया…

मैं Fresh होकर
Market में निकला…

देवलोक के
Shopping मॉल मे
अदभूत वस्तुएं देखकर
मेरा मन ललचा गया..!

मैंने कुछ चीजें पसन्द करके
Basket में डाली,
और काउंटर पर जाकर
उन्हें हजार हजार के
करारे नोटें देने लगा…

Manager ने
नोटों को देखकर कहा,
”यह करेंसी यहाँ नहीं चलती..!”

यह सुनकर
मैं हैरान रह गया..!

मैंने इंद्र के पास
Complaint की
इंद्र ने मुस्कुराते हुए कहा कि,
”आप व्यापारी होकर
इतना भी नहीं जानते..?
कि आपकी करेंसी
बाजु के मुल्क
पाकिस्तान,
श्रीलंका
और बांगलादेश में भी
नही चलती…

और आप
मृत्यूलोक की करेंसी
स्वर्गलोक में चलाने की
मूर्खता कर रहे हो..?”

यह सब सुनकर
मुझे मानो साँप सूंघ गया..!

मैं जोर जोर से दहाड़े मारकर
रोने लगा.
और परमात्मा से
दरखास्त करने लगा,
”हे भगवान्.ये…
क्या हो गया.?”
”मैंने कितनी मेहनत से
ये पैसा कमाया..!”
”दिन नही देखा,
रात नही देखा,”
” पैसा कमाया…!”

”माँ बाप की सेवा नही की,
पैसा कमाया,
बच्चों की परवरीश नही की,
पैसा कमाया….
पत्नी की सेहत की ओर
ध्यान नही दिया,
पैसा कमाया…!”

”रिश्तेदार,
भाईबन्द,
परिवार और
यार दोस्तों से भी
किसी तरह की
हमदर्दी न रखते हुए
पैसा कमाया.!!”

”जीवन भर हाय पैसा
हाय पैसा किया…!
ना चैन से सोया,
ना चैन से खाया…
बस,
जिंदगी भर पैसा कमाया.!”

”और यह सब
व्यर्थ गया..?”

”हाय राम,
अब क्या होगा..!”

इंद्र ने कहा,-
”रोने से
कुछ हासिल होने वाला
नहीं है.!! ”
“जिन जिन लोगो ने
यहाँ जितना भी पैसा लाया,
सब रद्दी हो गया।”

“जमशेद जी टाटा के
55 हजार करोड़ रूपये,
बिरला जी के
47 हजार करोड़ रूपये,
धीरू भाई अम्बानी के
29 हजार करोड़
अमेरिकन डॉलर…!
सबका पैसा यहां पड़ा है…!”

मैंने इंद्र से पूछा-
“फिर यहां पर
कौनसी करेंसी
चलती है..?”

इंद्र ने कहा-
“धरती पर अगर
कुछ अच्छे कर्म
किये है…!

जैसे किसी दुखियारे को
मदद की,
किसी रोते हुए को
हसाया,
किसी गरीब बच्ची की
शादी कर दी,
किसी अनाथ बच्चे को
पढ़ा लिखा कर
काबिल बनाया…!
किसी को
व्यसनमुक्त किया…!
किसी अपंग स्कुल, वृद्धाश्रम या
मंदिरों में दान धर्म किया…!”

“ऐसे पूण्य कर्म करने वालों को
यहाँ पर एक Credit Card
मिलता है…!
और
उसे वापर कर आप यहाँ
स्वर्गीय सुख का उपभोग ले
सकते है..!”

मैंने कहा,
“भगवन….
मुझे यह पता
नहीं था.
इसलिए मैंने अपना जीवन
व्यर्थ गँवा दिया.!!”

“हे प्रभु,
मुझे थोडा आयुष्य दीजिये..!”

और मैं गिड़गिड़ाने लगा.!

इंद्र को मुझ पर दया आ गई.!!

इंद्र ने तथास्तु कहा
और मेरी नींद खुल गयी..!

मैं जाग गया..!

अब मैं वो दौलत कमाऊँगा
जो वहाँ चलेगी..!!

आपको यह कहानी
अच्छी लगे तो
अपने दोस्तों को भी
शेयर करे ।
अच्छा लगेगा..!!!
🙏
नोट : रचना किसी और की है मैंने तो आप तक पहुंचाने में सिर्फ मेरी उंगलियों का इस्तेमाल किया है।

नाेट : उँगलियों का इस्तेमाल किसी और ने किया
मुझे पढ़कर अच्छा लगा इस लिए मैने आगे फॉरवर्ड किया आप को अच्छा लगे तेा आप भी आगे जरूर भेजे

सयानी कमल

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

बाबर और राणा सांगा में भयानक युद्ध चल रहा था ।


बाबर और राणा सांगा में भयानक युद्ध चल रहा था ।
बाबर ने युद्ध में पहली बार तोपों का इस्तेमाल किया था । उन दिनों युद्ध केवल दिन में लड़ा जाता था, शाम के समय दोनों तरफ के सैनिक अपने अपने शिविरों
में आराम करते थे । फिर सुबह युद्ध होता था !
लड़ते लड़ते शाम हो चली थी , दोनों तरफ के सैनिक अपने शिविरों में भोजन तैयार कर रहे थे ।
बाबर टहलते हुए अपने शिविर के बाहर खड़ा दुश्मन सेना के कैम्प को देख रहा था तभी उसे राणा सांगा की सेना के शिविरों से कई जगह से धुँआ उठता दिखाई दिया।
बाबर को लगा कि दुश्मन के शिविर में आग लग गई है, उसने तुरंत अपने सेनापति मीर बांकी को बुलाया और पूछा कि देखो दुश्मन के शिविर में आग लग गई है क्या ? शिविर में पचासों जगहों से धुँआ निकल रहा हैं ।
सेनापति ने अपने गुप्तचरों को आदेश दिया -जाओ पता लगाओं कि दुश्मन के सैन्य शिविर से इतनी बड़ी संख्या में इतनी जगहों से धुँओ का गुब्बार क्यों निकल रहा है ?
गुप्तचर कुछ देर बाद लौटे उन्होंने बताया हुजूर दुश्मन सैनिक सब हिन्दू हैं वो एक साथ एक जगह बैठकर खाना नहीं खाते ।सेना में कई जात के सैनिक है जो
एक दूसरे का छुआ नहीं खाते इसलिए सब अपना अपना भोजन अलग अलग बनाते हैं अलग अलग खाते हैं ।एक दूसरे
का छुआ पानी तक नहीं पीते।
यह सुनकर बाबर खूब जोर से हँसा काफी देर हँसने के बाद उसने अपने सेनापति से कहा .मीर बांकी फ़तेह हमारी ही होगी !
ये क्या हमसे लड़ेंगे, जो सेना एक साथ
मिल बैठकर खाना तक नहीं खा सकती, वो एक साथ मिलकर दुश्मन के खिलाफ कैसे लड़ेगी ?
बाबर सही था।
तीन दिनों में राणा सांगा की सेना मार दी गई और बाबर ने मुग़ल शासन की नीव रखी।
भारत की गुलामी का कारण जातिवाद छुआछूत भेदभाव था जो आज भी जारी है जागो रे ….जागो जरा

Posted in संस्कृत साहित्य

श्राद्ध


#श्राद्ध
#पितृ पक्ष के लिए विशेष

श्राद्ध करना आवश्यक है, चाहे अपनी सामर्थ्य के अनुसार थोडा या ज्यादा जो कर सके, परंतु करे अवश्य

यहां पर ये भी स्पष्ट है कि श्राद्ध केवल सुयोग्य, सुसंस्कृत, वेदों के ज्ञाता, ज्ञानी ब्राह्मण को घर बुलाकर 10 am से 1 pm के बीच मे ही करना चाहिए

श्राद्ध के नियम :-

  1. श्राद्ध पिता तथा माता की तरफ की तीन-तीन पीढ़ियों का किया जा सकता है, जैसे माता-पिता, दादा- दादी, परदादा-परदादा इसी प्रकार से नाना-नानी, परनाना-परनानी का भी श्राद्ध किया जा सकता है ।
  2. श्राद्ध करने के अधिकारी क्रमशः यदि कई पुत्र हो तो बडा बेटा, या सबसे छोटा बेटा, विशेष परिस्थितियों मे बड़े भाई की आज्ञा से छोटा भाई, यदि संयुक्त परिवार हो तो तो ज्येष्ठ पुत्र के द्वारा एक ही जगह सम्पन्न हो सकता है । यदि पुत्र अलग-अलग रहते हो तो उन्हें वार्षिक श्राद्ध अलग-अलग ही करना चाहिए।

यदि पुत्र न हो तो शास्त्रों मे श्राद्ध करने का क्रम इस प्रकार से निर्धारित है:- पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र, पत्नी, भाई, भतीजा, पिता, माता, पुत्रवधु, बहन, भांजा, सपिण्ड़ ( अपने से लेकर सात पीढी तक का परिवार ), सोदक ( आठवी से लेकर चौदह पीढी के परिवार) ।

3.श्राद्ध दिवंगत पूर्वजों की मृत्यु तिथि के अनुसार सुयोग्य ब्राह्मण को घर बुलाकर कालेतिल, गंगाजल, सफेद फूलो से पूजा करवाकर नाम, गोत्र उच्चारण, संकल्प आदि करवाकर ही करे ।
इसके उपरांत ब्राह्मण को वस्त्र, जनेऊ, फल, मिठाई दक्षिणा सहित संतुष्ट करवाकर ही विदा करे, ब्राह्मण की संतुष्टि तथा प्रसन्नता से ही पितर संतुष्ट होते है, तथा वंशजो को आशीर्वाद देकर अपने लोक को विदा होते है ।

  1. श्राद्ध सदा मध्याह्न काल यानि (10:48 बजे से 1:12 बजे दोपहर ) को ही किया जाना चाहिये ।
  • प्रातःकाल, सायंकाल तथा रात्रि मे श्राद्ध न करे ।

  • श्राद्ध मे तुलसी, जौ, काले तिल, पुष्प, चावल, भृंगराज, तथा गंगाजल का प्रयोग अवश्य करे तथा पिण्डदान व तर्पण अवश्य करे ।

  • भोजन मे उडद की दाल के भल्ले, चटपटा भोजन,
    गाय के दूध एवं उससे बनी हुई वस्तुएँ, लौंग डाली हुई खीर अवश्य रखे ये पदार्थ आत्माओं को प्रसन्न, प्रेरित तथा आकर्षित करते है ।
    जौ, धान, तिल, गेहूं, मूंग, इन्द्रजौ,परवल, आंवला, खीर, नारियल,बेल, अनार, आम,अमड़ा, बिजौरा, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, चिरौंजी, बेर, इन्द्रजौ, मटर, कचनार, सरसों, सरसों का तेल, तिल्ली का तेल आदि का प्रयोग करना चाहिए ।

  • श्राद्ध कर्म मे गुड से बना अन्न, काले तिल तथा शहद का दान अवश्य करे ।

  • श्राद्ध केवल मृत्यु तिथि वाले दिन ही करे, यदि भूलवश तिथि निकल जाये तो अंतिम दिन यानि अमावस्या के दिन श्राद्ध करे ।

  • पूर्णिमा के दिन मृत्यु हुए दिवंगत का श्राद्ध पूर्णिमा तिथि को ही करे ।

    परंतु चतुदर्शी के दिन मृत्यु हुई हो तो श्राद्ध अमावस्या पर करे ।

    जिन व्यक्तियों की मृत्यु, हथियार से यानि हत्या से हुई हो, विष से, या जलकर मरने सेे, दुर्घटना से, या आत्महत्या द्वारा मृत्यु हुई हो तो उनके लिए श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को ही करे ।

    जिनकी मृत्यु की तिथि न पता हो, या जो व्यक्ति घर छोड़कर चले गये हो तो उनका श्राद्ध अमावस्या तिथि पर ही करे ।

    जिनके पितर सन्यासी या वनवासी हो गये हो तो उनके लिए बाहरवां श्राद्ध करे ।

    भीष्म पितामह के निमित तर्पण अवश्य करे, वह हम सबके पितामह माने जाते है ।

    1. श्राद्ध मे चार चीजे अत्यंत शुभ है – दोहिता यानि (लडकी का बेटा), कुशा, बारह बजे का समय तथा काले तिल ।
  • दिवंगत आत्मा के जीवित नाना, मामा, भानजा, गुरू, श्वसुर, दोहता, तथा भाई को श्राद्ध का भोजन अवश्य करवाना चाहिये ।

  • कुशा के साथ ही श्राद्ध करवाये, क्योंकि कुशा से निकली तेजमयी किरणो के प्रभाव से श्राद्ध कर्म मे “रज” तथा “तम” तरंगे कम हो जाती है, जिससे अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की संभावना कम हो जाती है और श्राद्ध सफलता से संपूर्ण होकर पितृरो को संतुष्ट करता है, जिससे उनकी आत्मा वंशजो को आशीर्वाद देकर आगे की यात्रा पर प्रस्थान कर जाती है ।

  • पितृपक्ष मे गुस्सा ( क्रोध ), काम ( मैथुन ), तथा भय को पास न आने दे, इन कामो के करने से अनिष्ट फलो की प्राप्ति होती है, और श्राद्ध स्वीकार नही होता ।

  • श्राद्ध सदा एकांत स्थान मे, अपने घर मे, जंगल, पर्वत, पुण्यतीर्थ स्थान मे, या मंदिर मे ही करे । श्राद्ध कभी भी किसी दूसरे के घर या स्थान मे न करे, श्राद्ध तथा पिण्डदान पर किसी भी साधारण या नीच इंसान की दृष्टि न पडने दे ।

  • साधारण मनुष्य देवकार्य अर्थात कर्मकाण्ड मे ब्राह्मण की परीक्षा न करे, परंतु पितृकार्य मे ब्राह्मण ध्यान से ब्राह्मण की परीक्षा करे, पितृकार्य मे ब्राह्मण गुणी, कर्मकांडी, तथा विद्धान ही होना चाहिये ।

  • *जो मनुष्य बिना ब्राह्मण के श्राद्ध करता है, उसके घर पितर भोजन नही करते और श्राप देकर लौट जाते

  • है,ब्राह्मणहीन श्राद्ध करने से मनुष्य महापापी होता है।*

    1. देवकार्य मे दो, और पितृकार्य मे तीन अथवा दोनो मे एक-एक ब्राह्मण भोजन करवाना चाहिये । अत्यधिक धनी होने पर भी श्राद्ध कर्म मे अघिक विस्तार यानि तीन से अधिक ब्राह्मण को भोजन नही करवाना चाहिये
  • सोने, चांदी, कांसा तथा तांबे के बर्तन पितरो के प्रिय होते हैं, अतः इन्हीं बर्तनो मे श्राद्ध भोजन करवाये । कांच, शीशे, स्टील तथा मिट्टी के बर्तन श्राद्ध मे बिलकुल इस्तेमाल न करे ।

  • ब्राह्मण जब श्राद्ध का भोजन ग्रहण करने के लिए आसन बैठ जाये तब ही भिखारियों, गरीबो, अंपगो या अन्य सामान्य व्यक्तियों को भोजन पर अामांत्रित किया जा सकता है ।

  • श्राद्धकाल मे आये हुए मेहमान को भी भोजन करवाये या उनका आतिथ्य सत्कार अवश्य करे, ऐसा न करने से श्राद्धकर्म का सम्पूर्ण फल ही नष्ट हो जाता है ।

  • ब्राह्मण को तथा श्राद्ध का भोजन करने वाले अन्य किसी भी व्यक्ति को भोजन तथा अन्य व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर ही भोजन करना चाहिए ।

    1. श्राद्धकाल मे गाय, कुत्ता, कौआ, चीटी तथा देवताओं के लिए पांच ग्रास जरूर निकाले, गाय के लिए निकाले ग्रास को गाय को ही , कुत्ते, कौअे तथा चीटी के निमित निकाले ग्रास को क्रमशः इन्हे ही दे, देवताओं के निमित्त निकाले ग्रास को गाय को ही खिलाये ।
      गाय तथा देवता देवतत्व है, कौआ वायुतत्व,( गंध तथा स्पर्श ) कुत्ता अग्नि तत्व (गंध और श्रवण ) तथा चीटी पृथ्वी तत्व ( पुरुषार्थ का प्रतीक है ) ( अपने अगले किसी लेख मे इन चारो प्राणियों, पर इनके गुणों तथा इनका ग्रास निकालने पर विस्तार से लिखूंगा )
  • श्राद्ध कार्य या पितरो के निमित्त किसी भी कार्य मे चांदी और चांदी के बर्तनो का इस्तेमाल अत्यधिक शुभ है, चांदी शिव के तीसरे नेत्र से उत्पन्न हुई है, इसलिए श्राद्धकार्य मे ये उत्तम है, परंतु देवकार्य मे इसे इस्तेमाल न करे । चांदी मे सत्वगुण -50%, रजोगुण – 40% तथा तमोगुण-10% होता है तथा इसमे वायुतत्व भी उचित मात्रा मे होता है, इन्हीं गुणों के कारण चांदी के बर्तनों मे रखा भोजन, नैवेद्य तथा जल पितरो को आकर्षित करता है, और वह इसे शीघ्र तथा सहर्ष स्वीकार कर लेते है ।

  • पुराणोक्त पितृ -स्तोत्र
    अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्।
    नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।
    इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा।
    तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि।।
    नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।
    द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः।।
    देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।
    अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः।।
    प्रजापतं कश्यपाय सोमाय वरूणाय च।
    योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः।।
    नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।
    स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।
    सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा।
    नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।
    अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्।
    अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः।।
    ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः।
    जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः।।
    तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः।
    नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः I

    #जय माता दी
    पंडित पंकज शास्त्री जी की पोस्ट कोपी की है।

    Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

    गुरु का ज्ञान


    ◆ गुरु का ज्ञान ◆

    प्राचीनकाल के एक गुरु अपने आश्रम को लेकर बहुत चिंतित थे। गुरु वृद्ध हो चले थे और अब शेष जीवन हिमालय में ही बिताना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह चिंता सताए जा रही थी कि मेरी जगह कौन योग्य उत्तराधिकारी हो, जो आश्रम को ठीक तरह से संचालित कर सके।

    उस आश्रम में दो योग्य शिष्य थे और दोनों ही गुरु को प्रिय थे। दोनों को गुरु ने बुलाया और कहा- शिष्यों मैं तीर्थ पर जा रहा हूँ और गुरुदक्षिणा के रूप में तुमसे बस इतना ही माँगता हूँ कि यह दो मुट्ठी गेहूँ है। एक-एक मुट्ठी तुम दोनों अपने पास संभालकर रखो और जब मैं आऊँ तो मुझे दो मुठ्ठी गेहूँ वापस करना है।

    जो शिष्य मुझे अपने गेहूँ सुरक्षित वापस कर देगा, मैं उसे ही इस गुरुकुल का गुरु नियुक्त करूँगा। दोनों शिष्यों ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य रखा और गुरु को विदा किया।

    एक शिष्य गुरु को भगवान मानता था। उसने तो गुरु के दिए हुए एक मुट्ठी गेहूँ को पोटली में बाँधकर एक आलिए में सुरक्षित रख दिया और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरा शिष्य जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उसने उन एक मुट्ठी गेहूँ को ले जाकर गुरुकुल के पीछे खेत में बो दिए।

    कुछ महीनों बाद जब गुरु आए तो उन्होंने जो शिष्य गुरु को भगवान मानता था उससे अपने एक मुट्ठी गेहूँ माँगे। उस शिष्य ने गुरु को ले जाकर आलिए में रखी गेहूँ की पोटली दिखाई जिसकी वह रोज पूजा करता था। गुरु ने देखा कि उस पुट्टल के गेहूँ सड़ चुके हैं और अब वे किसी काम के नहीं रहे।

    तब गुरु ने उस शिष्य को जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उससे अपने गेहूँ दिखाने के लिए कहा। उसने गुरु को आश्रम के पीछे ले जाकर कहा,” गुरुदेव यह लहलहाती जो फसल देख रहे हैं यही आपके एक मुट्ठी गेहूँ है और मुझे क्षमा करें कि जो गेहूँ आप दे गए थे वही गेहूँ मैं दे नहीं सकता।”

    लहलहाती फसल को देखकर गुरु का चित्त प्रसन्न हो गया और उन्होंने कहा, “जो शिष्य गुरु के ज्ञान को फैलाता है। वही असल में गुरु की दक्षिणा होती है।”

    गुरु का सम्मान करें, उनकी दी गयी शिक्षाओं को आत्मसात कर मनन करें।

    आप सभी को #शिक्षक_दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

    विपिन खुराना