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🔴बहुत पुरानी कथा है, तीन ऋषि थे, उनकी बहुत ख्याति थी। लोक-लोकांतर में उनका यश पहुंच गया था। इंद्र पीड़ित हो गया था उनके यश को देख कर। और इंद्र ने उर्वशी को, अपने उस गंधर्व नगर की श्रेष्ठतम अप्सरा को कहा, इन तीन ऋषियों को मैं निमंत्रित कर रहा हूं अपने जन्म-दिन पर, तू ऐसी कोशिश करना कि उन तीनों का चित्त विचलित हो जाए।
उन तीन ऋषियों को आमंत्रित किया गया। वे तीन ऋषि इंद्र के नगर में उपस्थित हुए। सारे देवता, सारा नगर देखने आया जन्म-दिन के उत्सव को। उर्वशी ऐसी सजी थी कि खुद इंद्र और देवता हैरान हो गए, जो उससे परिचित थे, भलीभांति जानते थे। वह आज इतनी सुंदर मालूम हो रही थी जिसका कोई हिसाब नहीं। फिर नृत्य शुरू हुआ। उर्वशी ने आधी रात बीतते तक अपने नृत्य से सभी को मोहित, मंत्रमुग्ध कर लिया। फिर जब रात गहरी होने लगी और लोगों पर नृत्य का नशा छाने लगा, तब उसने अपने अलंकार फेंकने शुरू कर दिए। फिर धीरे-धीरे वस्त्र भी। एक ऋषि घबड़ाया और चिल्लाया, उर्वशी बंद करो, यह तो सीमा के बाहर जाना है, यह नहीं देखा जा सकता। दूसरे दो ऋषियों ने कहा, मित्र, नृत्य तो चलेगा, अगर तुम्हें ने देखना हो तो अपनी आंखें बंद कर ले सकते हो। नृत्य क्यों बंद होता है। इतने लोग देखने को उत्सुक हैं, तुम्हारे अकेले के भयभीत होने से नृत्य बंद होने को नहीं। अपनी आंख बंद कर लो तुम्हें नहीं देखना। ऋषि ने आंखें बंद कर लीं। सोचा था उस ऋषि ने कि आंखें बंद कर लेने से उर्वशी दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी। पाया कि यह गलती थी, भूल थी।
आंख बंद करने से कुछ दिखाई पड़ना बंद होता है? आंख बंद करने से तो जिससे डरते हम आंख बंद करते हैं वह और प्रगाढ़ होकर भीतर उपस्थित हो जाता है। रोज हम जानते हैं, सपनों में हम उनसे मिल लेते हैं, जिनको देख कर हमने आंख बंद कर ली थी। रोज हम जानते हैं जिस चीज से हम भयभीत होकर भागे थे वह सपनों में उपस्थित हो जाती है। दिन भर उपवास किया था तो रात सपने में किसी राज-भोज पर आमंत्रित हो जाते हैं। यह हम सब जानते हैं। उस ऋषि की भी वही तकलीफ। आंख बंद किए और मुश्किल में पड़ गया है। नृत्य चलता रहा, फिर उर्वशी ने और भी वस्त्र फेंक दिए, केवल एक ही अधोवस्त्र उसके शरीर पर रह गया। दूसरा ऋषि घबड़ाया और चिल्लाया कि बंद करो उर्वशी, यह तो अब अश्लीलता की हद हो गई, बंद करो, यह नृत्य नहीं देखा जा सकता। यह क्या पागलपन है? तीसरे ऋषि ने कहा, मित्र, तुम भी पहले जैसे ही…हो। आंख बंद कर लो, नृत्य तो चलेगा। इतने लोग देखने को उत्सुक हैं। फिर मैं भी देखना चाहता हूं। तुम आंख बंद कर लो। नृत्य बंद नहीं होगा। दूसरे ऋषि ने भी आंख बंद कर ली।
आंख जब तक खुली थी तब तक उर्वशी एक वस्त्र पहने हुई थी। आंख बंद करते ही ऋषि ने पाया वह वस्त्र भी गिर गया। स्वाभाविक है, चित्त जिस चीज से भयभीत होता है उसी में ग्रसित हो जाता है। चित्त जिस चीज को निषेध करता है, उसी में आकर्षित हो जाता है। फिर उर्वशी का नृत्य और आगे चला, उसने सारे वस्त्र फेंक दिए, वह नग्न हो गई। फिर उसके पास फेंकने को कुछ भी न बचा। वह तीसरा ऋषि बोला, उर्वशी, और भी कुछ फेंकने को हो तो फेंक दो, मैं आज पूरा ही देखने को तैयार हूं। अब तो अपनी इस चमड़ी को भी फेंक दे, ताकि मैं और भी देख लूं कि और आगे क्या है। उर्वशी ने कहा, मैं हार गई आपसे, वह पैरों पर गिर पड़ी उस शिष्य के, उसने कहा, अब मेरे पास फेंकने को कुछ भी नहीं है। मैं हार गई, क्योंकि आप अंत तक देखने को तैयार हो गए। दो ऋषि हार गए, क्योंकि बीच में ही उन्होंने आंख बंद कर ली। मैं हार गई, अब मेरे पास फेंकने को कुछ भी नहीं, और जिसने मुझे नग्न जान लिया, अब उसके चित्त में जानने को भी कुछ शेष न रहा। उसका चित्त मुक्त ही हो गया।
चित्त का निरीक्षण करना है पूरा। मन के भीतर जो भी उर्वशियां हैं, मन के भीतर जो भी वृत्ति की अप्सराएं हैं–चाहे काम की, चाहे क्रोध की, चाहे लोभ की, चाहे मोह की, उन सबको पूरी नग्नता में देख लेना है। उनका एक-एक वस्त्र उतार कर देख लेना है। आंख बंद करके भागना नहीं है। एस्केप नहीं है, पलायन नहीं है जीवन की साधना, जीवन की साधना है पूरी खुली आंखों से चित्त का दर्शन। और जिस दिन कोई व्यक्ति अपने चित्त के सब वस्त्रों को उतार कर चित्त की पूरी नग्नता में, पूरी नेकेडनेस में, पूरी अग्लीनेस में, चित्त की पूरी कुरूपता में पूरी आंख खोल कर देखने को राजी हो जाता है, उसी दिन चित्त की उर्वशी पैरों पर गिर पड़ती है और कह देती है मुझे क्षमा करें, मैं हार गई हूं। अब आगे जानने को कुछ भी नहीं है।
चित्त की पूरी जानकारी, चित्त का पूरला ज्ञान चित्त से मुक्ति बन जाता है।

ओशो – अंतर की खोज ()
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लोभ पाप का बाप बखाना—अहंकार कहता है।

एक साधु ने मुझे एक कहानी सुनाई। एक गरीब आदमी अपने खेत पर काम करके लौट रहा था, उसने झाड़ी में रुपयों की खनकार सुनी। उसने झांककर देखा, एक संन्यासी सिक्के गिन रहा है। वह सुनता रहा चुपचाप खड़ा। सौ सिक्के संन्यासी ने साफे में बांधे, साफा लगाया। वह गरीब आदमी उसके पास आया, उसके पैर छुए और कहा, महाराज! सौभाग्य से दर्शन हो गए। घर चलें, भोजन स्वीकार करें। संन्यासी ने कहा, बेटा! ऐसे तो हम घर—गृहस्थियों के घर भोजन स्वीकार करते नहीं,लेकिन जब तुमने इतने प्रेम से कहा है तो इनकार भी नहीं कर सकते; चलते हैं। उस गरीब आदमी ने कहा, आपकी बड़ी कृपा। भोजन भा दूंगा, एक नगद रुपया—गरीब आदमी हूं ज्यादा तो मेरे पास नहीं—वह दक्षिणा भी दूंगा।

उसको घर ले आया, उसको भोजन करवाया। भोजन करवाकर उसने अपनी पत्नी को कहा कि वह रुपया, जो रखा है आले में, निकाल ला। वह वहां से चिल्लाने लगी कि रुपया कहा है? यहां तो कोई रुपया नहीं है। कोई चुरा ले गया। वह भी अंदर गया, बाहर भागकर आया और कहा कि रुपया कहां गया? महाराज बड़ी मुश्किल में पड़ गए। एक ही रुपया, गरीब आदमी!

मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए। किसी ने कहा कि यहां कोई आया तो नहीं इस बीच में? उसने कहा, और तो कोई नहीं आया, बस महाराज जी.. मगर उनका तो कोई सवाल ही नहीं है। शक की बात ही नहीं। पर लोगों ने कहा, अरे छोड़ो भी! आजकल साधु बड़े उचक्के, लफंगे सब तरह के हो गए हैं। खाना—तलाशी लेना पड़ेगी। तो उन्होंने खाना—तलाशी ली। सब देख डाला। साफा तो किसी को खयाल भी न आया।

तो उस गरीब आदमी ने कहा कि अब बस, बहुत हो गया,कोई साफा मत उतार लेना। तो एक आदमी ने झटककर साफा भी उतार लिया। वे सौ रुपए वहा से गिर पड़े। उस गरीब आदमी से पूछा कि कितने रुपए थे तुम्हारे पास, गिनती है कुछ? उसने कहा, पूरे सौ थे। गिने तो वे सौ ही निकले। अब तो कुछ कहने की बात ही न रही। महाराज को धक्के देकर बाहर निकाल दिया।

उन साधु ने मुझे कहानी कही और कहा कि लोभ पाप का बाप बखाना।

तो मैंने उनसे पूछा कि संन्यासी लोभी था, यह मेरी समझ में आ गया; लेकिन वह जो गरीब आदमी घर ले आया था, वह कौन था? इस कहानी से इतना ही सिद्ध होता है कि एक का लोभ हारा, लेकिन दूसरे का तो जीता। इससे लोभ हारा, यह सिद्ध नहीं होता। इससे यह भी सिद्ध नहीं होता कि लोभ बुरा है। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि साधु का लोभ हारा,लेकिन उस गरीब आदमी का लोभ तो जीता। और हो सकता है, साधु ने एक—एक रुपया करके बामुश्किल इकट्ठा किया हो और इस गरीब आदमी ने तो बड़ी तरकीब से छीन लिया।

चलते वक्त उस गरीब आदमी ने कहा, महाराज! अब कब आएंगे? तो उसने कहा, अब जब सौ रुपए फिर हो जाएंगे!

मैंने उन साधु को पूछा कि आप यह कहानी कहकर क्या कहना चाहते थे? साधुओं की कहानी मैं अक्सर गौर से सुनता रहा हूं; क्योंकि उससे उनका मंतव्य जाहिर होता है और उनकी मूढ़ता भी जाहिर होती है। साधुओं की कही गई कहानियों में अक्सर ही मूढ़ता के दर्शन होते हैं। अब यह निपट मूढ़ता की बात हुई। एक का लोभ हारा, एक का जीत गया।

इसे तुम थोड़ा सोचो; अगर तुम्हारा लोभ हार गया हो, तो जरूर किसी का जीता होगा; नहीं तो हारेगा कैसे? अगर तुमने जीवनभर पाया कि तुम्हारा लोभ हार बन गया तो जरूर किन्हीं और के लोभ जीत बन गए होंगे। अगर तुम पराजित हुए हो तो कोई जीता होगा। अगर तुमने सिंहासन गंवाया है तो कोई बैठा होगा। तुम्हें अगर—अगर हाथ न लगे तो किसी को लग गए होंगे।

यह पराजय लोभ की है या अहंकार की? यह विषाद लोभ का है या अहंकार का है?

सिकंदर का लोभ तो हारता हुआ मालूम नहीं होता,जीतता ही चला जाता है। राकफेलर या बिरला के लोभ तो हारते हुए मालूम नहीं पड़ते, जीतते ही चले जाते है। तुम्हारा हार गया होगा। इससे लोभ हार गया, यह सिद्ध नहीं होता। इससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि लोभ के जीतने के लिए जितनी जरूरत थी, वह तुम न जुटा पाए। और तुम भी यह भलीभांति जानते हो। लेकिन यह कहने में भी मन को पीड़ा होती है कि अंगूरों तक मैं न पहुंच पाया। तो तुम कहते हो, अण खट्टे हैं, सारी जिंदगी खटास से भर गई। अंगूर चखे ही नहीं। लोभ जीता ही नहीं। जो अगर चखे ही नहीं, वे तुम्हारी जिंदगी को खटास से कैसे भर जाएंगे?

और ध्यान रखना, जो मह खट्टे हों तो आज नहीं कल पक भी जाते हैं, मीठे हो जाते हैं। जहा खटास है, वहां मिठास पैदा हो सकती है। खटास, मिठास का पहला कदम है। खटास दुश्मन नहीं है मिठास की।

अगर तुम्हें स्वाद में थोड़ा रस है तो तुम समझोगे कि जिस मिठास में खटास नहीं है, या जिस खटास में मिठास नहीं है,उसमें कुछ अधूरापन है। जब कोई चीज खट्टी और मीठी दोनों साथ—साथ होती है, तब उसके रस की गहराई ही बहुत हो जाती है। नमन ओशो

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क्या रामेश्वरम् लिंग की स्थापना में रावण पुरोहित था-मैंने भी कई स्थानों पर लिखा हुआ देखा है कि कम्ब रामायण में रामेश्वर लिंग की स्थापना के लिये रावण को पुरोहित बनाने की बात लिखी है। पर बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् से प्रकाशित श्री राजगोपाल के हिन्दी अनुवाद में ऐसी कोई कथा नहीं है। सम्भवतः कम्ब के नाम से किसी ने यह कहानी जोड़ दी है। रामेश्वरम् शिवलिंग की स्थापना के लिए रावण का पुरोहित होना सम्भव नहीं है। समुद्र की तीन दिन तक प्रार्थना तथा उसके बाद बालुकामय लिंग की स्थापना रावण को धोखा देने के लिए था कि राम असहाय हो कर केवल प्रार्थना और पूजा कर रहे हैं। रावण ने राम की गतिविधियों का पता लगाने के लिए कई जासूस भी लगाये थे जिनमें शुक और सारण पकड़े भी गए थे। पुल 4 दिन में बना था। अगर उतने दिन तक धोखा नहीं देते तो रावण कभी पुल बनने या लंका में घुसने नहीं देता। जहाँ रावण तथा उसके जासूसों को धोखा देने के लिए कोशिश हो रही थी, वह स्वयं रावण को बुला कर भेद कैसे खोल देते?
अरुण उपाध्याय

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दशहरा (विजयदशमी,आयुध-पूजा) विशेष
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अश्विन (क्वार) मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को विजय दशमी या दशहरे के नाम से मनाया जाता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इसीलिये इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। दशहरा वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा।

इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। रामलीला का आयोजन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है। दशहरा अथवा विजयदशमी भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।

दशहरे का महत्त्व
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भारत कृषि प्रधान देश है इसलिए जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग का पारावार नहीं रहता। इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है। समस्त भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में भी इसको मनाया जाता है। सायंकाल के समय पर सभी ग्रामीणजन सुंदर-सुंदर नव वस्त्रों से सुसज्जित होकर गाँव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के पत्तों के रूप में ‘स्वर्ण’ लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं। फिर उस स्वर्ण का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है।

विजय पर्व के रूप में दशहरा
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दशहरे का उत्सव शक्ति और शक्ति का समन्वय बताने वाला उत्सव है। नवरात्रि के नौ दिन जगदम्बा की उपासना करके शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य विजय प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है। इस दृष्टि से दशहरे अर्थात विजय के लिए प्रस्थान का उत्सव का उत्सव आवश्यक भी है।

भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता व शौर्य की समर्थक रही है। प्रत्येक व्यक्ति और समाज के रुधिर में वीरता का प्रादुर्भाव हो कारण से ही दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। यदि कभी युद्ध अनिवार्य ही हो तब शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा ना कर उस पर हमला कर उसका पराभव करना ही कुशल राजनीति है। भगवान राम के समय से यह दिन विजय प्रस्थान का प्रतीक निश्चित है। भगवान राम ने रावण से युद्ध हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था। मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था। भारतीय इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जब हिन्दू राजा इस दिन विजय-प्रस्थान करते थे।

इस पर्व को भगवती के ‘विजया’ नाम पर भी ‘विजयादशमी’ कहते हैं। इस दिन भगवान रामचंद्र चौदह वर्ष का वनवास भोगकर तथा रावण का वध कर अयोध्या पहुँचे थे। इसलिए भी इस पर्व को ‘विजयादशमी’ कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय ‘विजय’ नामक मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। इसलिए भी इसे विजयादशमी कहते हैं।

ऐसा माना गया है कि शत्रु पर विजय पाने के लिए इसी समय प्रस्थान करना चाहिए। इस दिन श्रवण नक्षत्र का योग और भी अधिक शुभ माना गया है। युद्ध करने का प्रसंग न होने पर भी इस काल में राजाओं (महत्त्वपूर्ण पदों पर पदासीन लोग) को सीमा का उल्लंघन करना चाहिए। दुर्योधन ने पांडवों को जुए में पराजित करके बारह वर्ष के वनवास के साथ तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास की शर्त दी थी। तेरहवें वर्ष यदि उनका पता लग जाता तो उन्हें पुनः बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ता। इसी अज्ञातवास में अर्जुन ने अपना धनुष एक शमी वृक्ष पर रखा था तथा स्वयं वृहन्नला वेश में राजा विराट के यहँ नौकरी कर ली थी। जब गोरक्षा के लिए विराट के पुत्र धृष्टद्युम्न ने अर्जुन को अपने साथ लिया, तब अर्जुन ने शमी वृक्ष पर से अपने हथियार उठाकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। विजयादशमी के दिन भगवान रामचंद्रजी के लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने भगवान की विजय का उद्घोष किया था। विजयकाल में शमी पूजन इसीलिए होता है।

दशहरे पर करने के कुछ विशेष उपाय
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१👉 दशहरे के द‌िन नीलकंठ पक्षी का दर्शन बहुत ही शुभ होता है। माना जाता है क‌ि इस द‌िन यह पक्षी द‌िखे तो आने वाला साल खुशहाल होता है।

👉 दशहरा के द‌िन शमी के वृक्ष की पूजा करें। अगर संभव हो तो इस द‌िन अपने घर में शमी के पेड़ लगाएं और न‌ियम‌ित दीप द‌िखाएं। मान्यता है क‌ि दशहरा के द‌िन कुबेर ने राजा रघु को स्वर्ण मुद्राएं देने के ल‌िए शमी के पत्तों को सोने का बना द‌िया था। तभी से शमी को सोना देने वाला पेड़ माना जाता है।

👉 रावण दहन के बाद बची हुई लकड़‌ियां म‌िल जाए तो उसे घर में लाकर कहीं सुरक्ष‌ित रख दें। इससे नकारात्मक शक्‍त‌ियों का घर में प्रवेश नहीं होता है।

👉 दशहरे के द‌िन लाल रंग के नए कपड़े या रुमाल से मां दुर्गा के चरणों को पोंछ कर इन्‍हें त‌िजोरी या अलमारी में रख दें। इससे घर में बरकत बनी रहती है।

✡✡आप सभीको विजय दशमी की हार्दिक शुभकामनाये✡✡

पटेल रसिक

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देश जब आज़ाद हुआ तो तमाम ब्रिटिश फौजी अफसरों की तरह आयरिश मूल के नौजवान अफसर के सामने भी दो विकल्प थे, पहला, वापस अपने देश चला जाए, दूसरा वो चाहे तो हिंदुस्तान/पाकिस्तान की फौज के साथ ही बना रहे. लगभग सभी ब्रिटिश फौजियों ने पहला विकल्प ही चुना लेकिन इस नौजवान अफसर ने भारत में अपनी रेजिमेंट के साथ रहने का फैसला किया. इसके बाद की तो एक अतुल्य कहानी है. इस अफसर ने रेजिमेंट के साथ हिंदुस्तान के लिए जंग लड़ी, रिटायरमेंट केबाद भी इस अफसर के लिए रेजिमेंट ही सब कुछ थी और इंसानी दुनिया छोड़ने के बावजूद वो आज भी अपनी रेजिमेंट के साथ ही है. ये अफसर थे डेसमंड हायड. यूनाइटेड किंगडम में आयरलैंड के एक्सेटर में 28 नवम्बर 1926 को जन्मे डेसमंड हायड ने इंडियन मिलिट्री अकादमी देहरादून में ट्रेनिंग के बाद 12 सितम्बर 1948 को भारतीय फौज की जाट रेजिमेंट के साथ कमीशन हासिल किया. इनकी अगुवाई में जाट रेजिमेंट के कुछ सैनिकों ने 50 साल पहले एक ऐसी जंग लड़ी जिसे दुनिया की सबसे कठिन जंगों में से एक माना जाता है. हां, भारतीय फौज ने ऐसी जंग कभी नहीं लड़ी थी. एक असाधारण गोरे कमांडर डेसमंड हायड के प्रेरणादायक नेतृत्व और सूझबूझ भरे कदमों के चलते जाट रेजिमेंट ने वो कर दिखाया जो दुनिया के इतिहास में कुछ ही फौजें कर पाई हैं. इसी की एक अतुल्य दास्तान है, ‘डोगराई वॉर’. 1965 की भारत-पाकिस्तान जंग के दौरान लेफ्टिनेंट कर्नल हायड जाट रेजिमेंट की तीसरी बटालियन या 3 जाट के कमांडिंग ऑफिसर बने. बटालियन की कमान सम्भालने के कुछ घंटों के भीतर ही उन्हें इंटरनेशनल बॉर्डर के समानांतर और पाकिस्तान के अंदर बहने वाली इछोगिल नहर को भेदने का आदेश मिला. पाकिस्तान में आठ किलोमीटर अंदर बहने यह एक गहरी और चौड़ी नहर थी जिसके दूसरी तरफ पाकिस्तानी फौज ने कंक्रीट के बंकर बना रखे थे, जहां उनके बख्तरबंद दस्ते भी तैनात थे. लेकिन हायड की बटालियन ने इस नहर को भेद डाला. इसके बाद उन्हें लाहौर और ग्रांड ट्रंक रोड से लगते कस्बे ‘डोगराई’ पर धावा बोलने का आदेश मिला. 3 जाट ने 6 और 7 सितम्बर 1965 की रात को पहली बार डोगराई पर धावा बोला. लेकिन पीछे हटना पड़ा क्योंकि उनकी मदद के लिए जिस यूनिट को आना था वो संवादहीनता के चलते पहुंच ही नहीं पाई. लेकिन लेफ्टिनेंट कर्नल हायड अपने जवानों के साथ मजबूती से मैदान में डटे रहे जब तक कि ब्रिगेड मुख्यालय से उन्हें पीछे हट जाने का आदेश नहीं मिला.उधर 3 जाट को अगले आदेश तक 15 दिन दुश्मन से महज 8 किलोमीटर दूर पाकिस्तान के ही सन्तपुरा गांव की खाइयों में बिताने पड़े. इतने दिनों में पाकिस्तानी फौज ने डोगराई में जबरदस्त किलेबंदी कर दी. इन विषम हालातों के बीच कर्नल हायड को 21 सितम्बर की रात को फिर डोगराई पर धावा बोलने का आदेश मिला. डोगराई पर धावा बोलने से पहले हायड ने दो बातें अपने जवानों से साफ तौर पर कह दी थीं, वो भी ठेठ हरियाणवी में. “पहला, एक भी आदमी पीछे नहीं हटेगा. दूसरा, जिंदा या मुर्दा, डोगराई में मिलना है.” इसी का नतीजा था कि 3 जाट बटालियन अपने सर्वोच्च आत्मबल के साथ जंग के मैदान में उतरी. रात को करीब 1.30 बजे सूबेदार पाले राम के “जाट बलवान, जय भगवान” के नारे साथ ही रेजिमेंट के 523 बहादुर सैनिकों ने कूच करना शुरू किया. सामने खुद से दोगुनी से ज्यादा संख्या वाली फौज थी. डोगराई में पाकिस्तानी फौज की इन्फेंट्री (3 बलोच) की 2 बटालियनों ने मोर्चा संभाल रखा था जिन्हें एक टैंक स्क्वाड्रन की भी मदद मिल रही थी. गोलियों की बौछारों के बीच 3 जाट के जवान डोगराई तक 8 किलोमीटर छिपते हुए, रेंगते हुए आगे बढ़े. वो भी उन खाइयों में जिन्हें पाकिस्तानी फौज ने खुद अपने लिए बनाया था. साफ है हायड के सैनिकों के लिए डगर बेहद कठिन थी. इन हालातों के बीच हायड ने अपने आदमियों से दो टूक कह दिया कि, ” तुम सभी भाग जाओ, लेकिन मैं अकेला ही युद्ध के मैदान में डटा रहूंगा.” दूसरी तरफ जवानों ने भी अपनी रेजिमेंट के गौरवशाली इतिहास का हवाला देते हुए किसी भी सूरत में पीछे नहीं हटने का भरोसा दिया. खुद पाले राम को 6 गोलियां लगीं लेकिन उनकी जान बच गई. बाद में पाले राम को वीर चक्र से सम्मानित किया गया. हायड के जवान बन्दूकों,संगीनों, ग्रेनेड से, यहां तक कि निहत्थे लड़ते रहे, इंच दर इंच आगे बढ़ते रहे. एक-एक कर हर रास्ते, गली, घर, बंकर पर कब्जा किया. कुछ ही घंटों में पाकिस्तानियों ने भागना शुरू कर दिया. सुबह चार बजे तक या तो पाकिस्तानी सैनिक मारे जा चुके थे, या फिर भारतीयों के कब्जे में थे और बाकी जंग के मैदान से भाग चुके थे. दिन निकलने के साथ ही लांस नायक ओमप्रकाश ने शान के साथ डोगराई में तिरंगा फहरा दिया, वो भी लाहौर के बिल्कुल दरवाजे पर. 22 और 23 सितम्बर को भी कुल मिलाकर चार बार पाकिस्तान की तरफ से हमले हुए लेकिन उन्हें फिर मुंह की खानी पड़ी. उल्टा 3 जाट ने डोगराई से लगते बाटापुर और अत्तोकअवान पर भी कब्ज़ा कर लिया. इस जंग की इस रात में हायड ने अपने 86 बहादुर जवान (5 अफसर, 1 JCO और 80 अन्य सैनिक) तो खोए लेकिन बदले में दोगुने से ज्यादा दुश्मन सैनिक ढेर कर दिए. हां, जंग की इस रात ने 3 जाट को तीन महावीर चक्र, चार वीर चक्र और सात सेना मेडल जरूर दिला दिए जो किसी भी बटालियन के लिए असम्भव सी बात है. डेसमंड हायड को युद्धकालीन सेवाओं में दिए जाने वाले दूसरे सबसे बड़े सम्मान महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. हायड को मिले महावीर चक्र के साइटेशन के अनुसार, “पाकिस्तान की तरफ से भीषण हमले के बावजूद हायड के व्यक्तिगत साहस, अभूतपूर्व नेतृत्व के चलते 3 जाट ने पूरे ऑपरेशन के दौरान असाधारण वीरता का परिचय दिया.” हायड की बटालियन को एक और विशिष्ट गौरव हासिल हुआ जब 29 अक्टूबर 1965 के दिन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री खुद डोगराई पहुंचे और 3 जाट के बहादुर सैनिकों को सम्बोधित करते उन्होंने भारत में अब तक का सबसे मशहूर नारा, “जय जवान, जय किसान” दिया. इस जंग से जुड़ी कई जबरस्त कहानियां हैं जिसे हायड ने अपने संस्मरण में भी लिखा है. मसलन सूबेदार खजान सिंह की खोपड़ी में गोली लग गई लेकिन उन्होंने जंग का मैदान छोड़ने से इंकार कर दिया. हथियार नहीं पहुंच पाए, फिर भी उनके जवान डटे रहे. हायड के मुताबिक जाटों की अनवरत जिद, हठ, साहस के चलते अत्यधिक कठिनाईयों के बावजूद भी उन्होंने डोगराई को फतह कर लिया. हायड के सैनिकों ने ऐसा साहसिक कारनामा कर दिखाया कि हायड, जाट रेजिमेंट और डोगराई की जंग पर हरियाणवी में कई लोककथाएं और लोकगानें बन गए. खुद हायड के मुताबिक उनके हरेक आदमी के बीच वीरता का असाधारण नमूना पेश करने की होड़ थी और उन्होंने कर भी दिखाया. हां, उन्होंने अपने दबंग नेतृत्व को कभी इसका श्रेय नहीं दिया. महज एक बटालियन के साथ बहादुर और साहसी कमांडिंग अफसर ने दुश्मन की उस बटालियन को हरा दिया जिसे एक पूरे टैंक स्क्वाड्रन के साथ-साथ एक और बटालियन की मदद मिल रही थी. कर्नल हायड के मुताबिक उनके सभी जवान और अफसर इसलिए लड़ रहे थे कि वे अपने साथियों, परिवार और समाज की नजर में अपना सम्मान खोना नहीं चाहते थे. उन्हें डर था कि जंग में फतह हासिल नहीं हुई तो वे वापस जाकर क्या मुंह दिखाएंगे. इसी हिम्मत ने उन्हें मौत के डर से बाहर निकाल लिया था. इसके बाद हायड ने 1971 की जंग में भी हिस्सा लिया जब उन्होंने जम्मू सेक्टर में पूरी एक ब्रिगेड की कमान संभाली. मजबूत शख्सियत के धनी हायड की जिंदगी बड़ी सरल थी और उनके जीवन का सीधा-सा मूलमंत्र था कि, “आपका देश सबसे पहले है, उसके बाद दूसरे नंबर पर आपके जवान आते हैं और सबसे आखिर में आपके खुद के हित आते हैं.” यानि उनकी जिन्दगी के उसूल बड़े साफ थे. जिनकी जिन्दगी का हरेक दिन भारतीय फौज को समर्पित था. डोगराई की जंग पर ब्रिगेडियर हायड ने पुस्तक भी लिखी. जिन्दगी भर वो एक फौजी ही रहे. जिन्दगी के आखिरी दिनों में कैंसर से उन्होंने एक बहादुर फौजी की तरह ही जंग लड़ी. कहते हैं कि अपनी मौत से ठीक एक महीने पहले हायड ने कैलेंडर में 25 सितम्बर की तारीख पर गोला किया कहा कि यह उनकी जिंदगी का आखिरी दिन होगा. उनके साथियों ने ब्रिगेडियर हायड से कहा कि आप क्या मजाक कर रहे हैं? लेकिन ऐसा ही हुआ ठीक 25 सितम्बर 2013 के दिन हायड ने 87 साल की उम्र में यह दुनिया छोड़ दी लेकिन अपनी रेजिमेंट को नहीं छोड़ा. हायड को कोटद्वार से लाकर उसी जाट रेजिमेंट के मुख्यालय (रेजिमेंटल सेंटर) बरेली में ही दफनाया गया जिससे से वे बेपनाह मोहब्बत करते थे. रेजिमेंट ने भी अपने सबसे प्रिय, सम्मानित अफसर को पूरे राजकीय सम्मान के साथ विदाई दी. साफ है ब्रिगेडियर हायड कोई साधारण सैनिक नहीं थे, उनकी जैसी असाधारण वीरता के नमूने बिरले ही मिलते हैं.

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कुपात्र को दान


कुपात्र को दान –*
एक दिन आप यमुना तट पर भ्रमण कर रहे थे। रास्ते में पाँच रूपये का एक नोट गिरा था। ज्योंही आपकी दृष्टि उसपर पड़ी, आदेश मिला- इसे ले लो। आप सोचने लगे कि इसे लेकर करूँगा क्या? किन्तु आदेश मिलता रहा तो आपने उस रूपये को उठा लिया और मन्दिर पर चले आये। आपको इष्ट से आदेश मिला कि यह रुपया राधेलाल दलाल को दे दो। उसने तुम्हारी बड़ी सेवा की है, आजकल वह विपन्न है।

राधेलालजी व्यापार में दलाली का कार्य करते थे। उन्होंने बहुत धन कमाया था। बाजार में उनकी बड़ी साख थी। वह स्वभाव से बहुत सरल थे किन्तु जुआ खेलने का व्यसन था। सट्टे में ‘गुब्बा’ और न जाने क्या-क्या लगाते थे। उस जमाने में उन पर अस्सी हजार रुपये का कर्ज था। आपने उनसे कहा, “राधेलाल! देख ताखे में पाँच रुपया रखा है, तू ले ले।” यह सुनते ही राधेलाल उदास हो गये। वह कहने लगे, “अरे गुरु महाराज, आपकी कृपा ही पर्याप्त है। आपने मेरे लिये पैसा क्यों छू दिया?”
बहुत आग्रह पर भी उन्होंने वह रुपया नहीं उठाया। वह ठहरे पहले के धनी आदमी! कितना भी वह टूट गये थे तो क्या हुआ, संत का पैसा लेने की मनोवृत्ति ही नहीं बना सके।

महाराजजी सोचने लगे, “भगवान ने कहा कि इसे दे दो और यह लेता नहीं है। क्या किया जाय?” उसके जाने के पश्चात उसका एक छोटा सा लड़का आया। आपने उससे कहा, “ताखे से फूल निकालकर फेंक दो।” वह फूल निकालने लगा तो बोला, “महाराजजी! इसमें पाँच रुपया भी है।” आपने कहा, “अच्छा, तो तू पाँच रुपया पा गया। ठीक है, ले जा और कुछ खा-पी ले।” लड़का तो लड़का! वह रुपया लेकर चला गया।

महाराजजी आगरा से चलते समय राधेलाल से बोले, “देख! तू कर्ज-कर्ज बहुत चिल्लाता है, अब तो हम जा रहे हैं; किन्तु तुझे धन मिले तो कुछ दान-पुण्य कर देना और मेरा भी स्मरण करते रहना।”
कालान्तर में जब महाराजजी अनुसुइया में स्थायी रूप से रहने लगे थे, पता लगाते-लगाते राधेलाल दलाल भी वहाँ पहुँच गये। वह कहने लगे, “महाराजजी! आपके जाने के दो दिन बाद ही मैंने तीन लाख रुपये कमाये। कर्ज भी पट गया, दान-पुण्य भी किया। आगरा में जितने भी गरीब मेहतर और डोम थे, उन सबको खिलाया और सबको छककर शराब पिलायी। ऊपर से उन्हें पैसा भी बाँटा।

महाराजजी बिगड़े, “क्यों रे! दान तो सुपात्र को दिया जाता है। दान में शराब पिलायी जाती है क्या? तुम्हारे देने से उनके पास पैसा टिकेगा? बोल टिका?”
उन्होंने बताया, “नहीं महाराजजी! लोग दूसरे दिन उस पैसे की शराब छान-फूँककर मस्त हो गये लेकिन मैं कठिनाईयों से फिर घिर गया हूँ और तभी से आपकी खोज में हूँ।”
महाराजजी बोले, “हूँ बेटा! कुपात्र को दान देने से दाता नष्ट हो जाता है। अब जुआ बन्द करके भजन कर, तभी तेरी कठिनाइयाँ दूर होंगी।” इस प्रकार आश्वासन देकर महाराजजी ने उन्हें विदा कर दिया।

पूज्य महाराजजी प्रायः कहा करते थे- हो! जिस दिन से आप छोटा-सा भी दान करते हैं, उस दिन से संसार को किसी न किसी मात्रा में त्यागते हैं। दान मुक्ति की ओर ले चलता है। दान कई प्रकार के होते हैं, जैसे- स्वास्थ्यदान, विद्यादान, अन्नदान इत्यादि। अन्न सबका जीवन है किन्तु आयु पूरी होने पर अन्न रहते हुए भी काम नहीं देता। अन्त में विद्या भी काम नहीं आती। इन सबसे श्रेष्ठ दान अभयदान है। परमात्मा में ही अभय है। उसमें प्रवेश दिला देना सद्गुरुओं का दान है। हो! संसार में सब दानी ही बने हैं।
‘हाथी स्वान लेवा देई’ (विनय., पद ७५)- दस रुपया चढ़ाते हैं तो बदले में हाथी माँगते हैं। असली दानी तो मैं हूँ, जो मोक्ष देता हूँ और बदले में कुछ भी नहीं लेता। सोई महि मण्डित पण्डित दाता- एक ओर सन्त दानी है, दूसरी ओर भगवान महादानी!

‘मांगहुँ बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि।।’
(मानस, १/१४८)
‘हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।’
(मानस, ७/४६/५)

अहैतुकी कृपा करनेवाले इस संसार में या तो भगवान हैं या भगवान के अनन्य सेवक! वही मौलिक दाता हैं। इस सर्वोत्कृष्ट दान को पाने के लिए साधक को भी एक दान देना होता है- वह है मन का दान, विचारों का दान, इष्ट के प्रति मन-क्रम-वचन से समर्पण!

“शीश काटि चरनन धरे, तब पैठे घर माँहि।”

श्री परमहंस आश्रम शक्तेषगढ़ के साहित्य जीवनादर्श एवं आत्मानुभूति से लोकहित में साभार】

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એક જંગલ હતું. તેમાં એક હરણી ગર્ભવતી હતી અને તેનું બચ્ચુ જન્મવાની તૈયારીમાં જ હતું. દૂર દેખાઈ રહેલું નદી પાસેનું એક ઘાસનું મેદાન તેને સુરક્ષિત જણાતા, તેણે ત્યાં જઈ બચ્ચાને જન્મ આપવાનો નિર્ણય કર્યો. તે ધીમે ધીમે ત્યાં જવા આગળ વધી અને ત્યાં જ તેને પ્રસૂતિની પીડા શરૂ થઈ ગઈ.

તે જ ક્ષણે અચાનક…

તે વિસ્તારના આકાશમાં કાળા ડિબાંગ વાદળા છવાઈ ગયાં અને વિજળીનો ગડગડાટ શરૂ થઈ ગયો.

વિજળી પડતા ત્યાં દાવાનળ ફેલાઈ ગયો.

હરણીએ ગભરાયેલી નજરે ડાબી બાજુ જોયું તો ત્યાં તેને એક શિકારી પોતાના તરફ તીરનું નિશાન તાકતો દેખાયો. તે જમણી તરફ ફરી ઝડપથી એ દિશામાં આગળ વધવા ગઈ ત્યાં તેને એક ભૂખ્યો
વિકરાળ સિંહ પોતાની દિશામાં આવતો દેખાયો.

આ સ્થિતીમાં ગર્ભવતી હરણી શું કરી શકે કારણ તેને પ્રસૂતિની પીડા શરૂ થઈ ચૂકી છે.

તમને શું લાગે છે ? તેનું શું થશે ? શું હરણી બચી જશે ?

શું તે પોતાના બચ્ચાને જન્મ આપી શકશે ?
શું તેનું બચ્ચુ બચી શકશે ?

કે પછી…

દાવાનળમાં બધું સળગીને ભસ્મીભૂત થઈ જશે ?

શું હરણી ડાબી તરફ ગઈ હશે ? ના, ત્યાં તો શિકારી તેના તરફ બાણનું નિશાન તાકી ઉભો હતો.

શું હરણી જમણી તરફ ગઈ હશે ? ના, ત્યાં સિંહ તેને ખાઈ જવા તૈયાર હતો.

શું હરણી આગળ જઈ શકે તેમ હતી ?ના,ત્યાં ધસમસ્તી નદી તેને તાણી જઈ શકે એમ હતી.

શું હરણી પાછળ જઈ શકે તેમ હતી ? ના, ત્યાં દાવાનળ તેને બાળીને ભસ્મ કરી દઈ શકે તેમ હતો.

જવાબ : આ ઘટના સ્ટોકેઇસ્ટીક પ્રોબેબીલીટી થિયરીનું એક ઉદાહરણ છે.

તે કંઈજ કરતી નથી. તે માત્ર પોતાના બચ્ચાને, એક નવા જીવને જન્મ આપવા પર જ ધ્યાન કેન્દ્રિત કરે છે.

એ ક્ષણ પછીની ફક્ત એક જ બીજી ક્ષણમાં આ પ્રમાણે ઘટનાક્રમ બનવા પામે છે.

એક ક્ષણમાં શિકારી પર વિજળી પડે છે અને તે અંધ બની જાય છે.
આકસ્મિક બનેલી આ ઘટનાને લીધે શિકારી નિશાન ચૂકી જાય છે અને તીર હરણીની બાજુમાંથી પસાર થઈ જાય છે.

તીર સિંહના શરીરમાં ઘૂસી જાય છે અને તે બૂરી રીતે ઘાયલ થઈ જાય છે. એ જ ક્ષણે મૂશળધાર વર્ષા વરસે છે અને દાવાનળને બૂઝાવી નાંખે છે.

એ જ ક્ષણે હરણી એક સુંદર, તંદુરસ્ત બચ્ચાને જન્મ આપે છે.

આપણા સૌના જીવનમાં એવી કેટલીક ક્ષણો આવે છે જ્યારે બધી દિશાઓમાંથી નકારાત્મક વિચારો અને સંજોગો આપણને
ઘેરી વળે છે.

એમાંના કેટલાક વિચારો તો એટલા શક્તિશાળી હોય છે કે તે આપણા પર હાવી થઈ જાય છે અને આપણને શૂન્યમનસ્ક બનાવી મૂકે છે.
પણ જીવનમાં એક જ ક્ષણમાં પરિસ્થીતી તદ્દન બદલાઈ જઈ શકે છે.

ચારેબાજુ નકારાત્મકતા જોવા મળે તો પણ દ્રઢ નિશ્ચય રાખીએ તો અવશ્ય સફળતા મળે જ છે.

Be Positive

ગમે તો આ સ્ટોરી તમારા ફ્રેન્ડ્સને શેર જરૂર કરજો, જેથી તેમના વિચારો પણ પોઝીટીવ અને ડગમગીયા વગર શક્તિશાળી બને…!!!

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जबरदस्त पोस्ट 👍👍

उस पांच सितारा ऑडिटोरियम के बाहर प्रोफेसर साहब की आलीशान कार आकर रुकी , प्रोफेसर बैठने को हुए ही थे कि एक सभ्य सा युगल याचक दृष्टि से उन्हें देखता हुआ पास आया और बोला ,” साहब , यहां से मुख्य सड़क तक कोई साधन उपलब्ध नही है , मेहरबानी करके वहां तक लिफ्ट दे दीजिए आगे हम बस पकड़ लेंगे । ”

रात के साढ़े ग्यारह बजे प्रोफेसर साहब ने गोद मे बच्चा उठाये इस युगल को देख अपने “तात्कालिक कालजयी” भाषण के प्रभाव में उन्हें अपनी कार में बिठा लिया । ड्राइवर कार दौड़ाने लगा ।

याचक जैसा वह कपल अब कुटिलतापूर्ण मुस्कुराहट से एक दूसरे की आंखों में देख अपना प्लान एक्सीक्यूट करने लगा । पुरुष ने सीट के पॉकेट मे रखे मूंगफली के पाउच निकालकर खाना शुरू कर दिया बिना प्रोफेसर से पूछे /मांगे ।
लड़की भी बच्चे को छोड़ कार की तलाशी लेने लगी ।एक शानदार ड्रेस दिखी तो उसने झट से उठा ली और अपने पर लगा कर देखने लगी ।
प्रोफेसर साहब अब सहन नही कर सकते थे ड्राइवर से बोले गाड़ी रोको ,लेकिन ड्राइवर ने गाड़ी नही रोकी बस एक बार पीछे पलटकर देखा , प्रोफेसर को झटका लगा ,अरे ये कौन है उनके ड्राइवर के वेश में ?? वे तीनों वहशियाना तरीके से हंसने लगे , प्रोफेसर साहब को अपने इष्टदेव याद आने लगे ,थोड़ा साहस एकत्रित करके प्रोफेसर साहब ने शक्ति प्रयोग का “अभ्यासहीन ” प्रयास करने का विचार किया लेकिन तब तक वह पुरुष अपनी जेब से एक लाइटर जैसा पदार्थ निकाल चुका था और उसका एक बटन दबाते ही 4 इंच का धारदार चाकू बाहर आ चुका था प्रोफेसर साहब की क्रांति समयपूर्व ही गर्भपात को प्राप्त हुई ।

प्रोफेसर साहब समझ चुके थे कि आज कोई बड़ी अनहोनी निश्चित है उन्होंने खुद ही अपना पर्स निकालकर सारे पैसे उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिये लेकिन वह व्यक्ति अब उनके आभूषणों की तरफ देखने लगा, दुखी मन से प्रोफेसर साहब ने अपनी अंगूठियां ,ब्रेसलेट और सोने के चेन उतार के उसके हाथ में धर दिए , अब वह व्यक्ति उनके गले में एक और लॉकेट युक्त चैन की तरफ हाथ बढ़ाने लगा । प्रोफेसर साहब याचना पूर्वक बोले – इसे छोड़ दो प्लीज यह मेरे “पुरुखों की निशानी ” है जो कुल परंपरा से मुझ तक आई है , इसकी मेरे लिए अत्यंत भावनात्मक महत्ता है । लेकिन वह लुटेरा कहां मानने वाला था उसने आखिर वह निशानी भी उतार ही ली ।
बिना प्रोफ़ेसर साहब के पता बताएं वे लोग उनके आलीशान बंगले के बाहर तक पहुंच गए थे ।
युवक बोला ,” लो आ गया घर , ऐसे ढेर सूखे मेवे , कपड़े , पैसा और प्रोफेसर साहब की ल…….
उसकी आँखों मे आई धूर्ततापूर्ण बेशर्म चमक ने शब्द के अधूरेपन को पूर्णता दे दी ।

प्रोफेसर साहब अब पूरे परिवार की सुरक्षा एवं घर पर पड़े अथाह धन-धान्य को लेकर भी चिंतित हो गये उनका रक्तचाप उछाले मारने लगा लेकिन करें भी तो क्या ??
लगे गिड़गिड़ाने ,” भैया मैंने आपको आपत्ती में देखकर शरण दी और आप मेरा ही इस तरह शोषण कर रहे हैं यह अनुचित है । ईश्वर का भय मानिए यह निर्दयता की पराकाष्ठा है ।अब तो छोड़ दीजिए मुझे भगवान के लिए ।
प्रोफेसर फूट फूट कर रोने लगे ।।

वे पति पत्नी अपना बच्चा लेकर कार से उतर गये और वह ड्राइवर भी , उनके द्वारा लिया गया सारा सामान उन्होंने वापस प्रोफेसर साहब के हाथ में पकड़ाया और बोले

” क्षमा कीजिएगा सर ! रोहिंग्या मुसलमानों के विषय मे शरणागत वत्सलता पर आज आपके द्वारा उस ऑडिटोरियम मे दिए गए “अति भावुक व्याख्यान” का तर्कसंगत शास्त्रीय निराकरण करने की योग्यता हममें नहीं थी अतः हमें यह स्वांग रचना पड़ा ।
“आप जरा खुद को भारतवर्ष और हमें रोहिंग्या समझ कर इस पूरी घटना पर विचार कीजिए और सोचिये की आपको अब क्या करना चाहिए इस विषय पर । ”

वो मूंगफली नही इस देश का अथाह प्राकृतिक संसाधन है जिसकी रक्षार्थ यंहा के सैनिक अपना उष्ण लाल लहू बहाकर करते है सर , मुफ्त नही है यह ।
वो आपकी बेटी/बेटे की ड्रेस मात्र कपड़ा नही है इस देश के नागरिकों के स्वप्न है भविष्य के जिसके लिए यंहा के युवा परिश्रम का पुरुषार्थ करते है ,मुफ्त नही है यह ।
आपकी बेटी / पत्नी मात्र नारी नही है देश की अस्मिता है सर जिसे हमारे पुरुखों ने खून के सागर बहा के सुरक्षित रखा है , खैरात में बांटने के लिए नही है यह ।
आपका ये पर्स अर्थव्यवस्था है सर इस देश की जिसे करोड़ो लोग अपने पसीने से सींचते है , मुफ्त नही है यह ।

और आपके पुरुखों की निशानी यह चैन मात्र सोने का टुकड़ा नही है सर , अस्तित्व है हमारा , इतिहास है इस महान राष्ट्र का जिसे असंख्य योद्धाओ ने मृत्यु की बलिवेदी पर ढेर लगाकर जीवित रखा है , मुफ्त तो छोड़िए इसे किसी ग्रह पर कोई वैज्ञानिक भी उत्पन्न नही कर सकते ।

कुछ विचार कीजिये सर ! कौन है जो खून चूसने वाली जोंक को अपने शरीर पर रहने की अनुमति देता है , एक बुद्धिहीन चौपाया भी तत्काल उसे पेड़ के तने से रगड़ कर उससे मुक्ति पा लेता है ।

उस युवक ने वह लाइटर जैसा रामपुरी चाकू प्रोफेसर साहब के हाथ में देते हुए कहा यह मेरी प्यारी बहन जो आपकी पुत्री है उसे दे दीजिएगा सर क्योंकि अगर आप जैसे लोग रोहिंग्या को सपोर्ट देकर इस देश में बसाते रहे तो किसी न किसी दिन ऐसी ही किसी कार में आपकी बेटी को इसकी आवश्यकता जरूर पड़ेगी।

सर ज्ञान के विषय मे तो हम आपको क्या समझा सकते हैं लेकिन एक कहानी जरूर सुनिए ,

” लाक्षाग्रह के बाद बच निकले पांडव एकचक्रा नगरी में गए थे तब वहा कोई सराय वगैरह तो थी नहीं तो वे लोग एक ब्राह्मणि के घर पहुंचे और उन्हें शरण देने के लिए याचना की ।
शरणागत धर्म के चलते हैं उस ब्राह्मणि ने उन्हें शरण दी ,शीघ्र ही उन्हें (पांडवो) को पता चला कि यहां एक बकासुर नामक राक्षस प्रत्येक पक्षांत पर एक व्यक्ति को बैलगाड़ी भरकर भोजन के साथ खा जाता है और इस बार उसी ब्राह्मणी के इकलौते पुत्र की बारी थी , उस ब्राह्मणि के शरणागत धर्म के निष्काम पालन से प्रसन्न पांडवों ने धर्म की रक्षा के लिए , निर्बलों की सहायता के लिए और अपने शरण प्रदाता के ऋण से हल्के होने के लिए स्वयं भीम को उस ब्राह्मण के स्थान पर भेजा ।
आगे सभी को पता ही है की भीम ने उस राक्षस कोे किस तरह पटक-पटक कर धोया था लेकिन यह कहानी हमें सिखाती है की शरण किसे दी जाती है ??
“जो आपके आपत्तिकाल मे आपके बेटे के बदले अपने बेटे को मृत्यु के सम्मुख प्रस्तुत कर सके वही शरण का सच्चा अधिकारी है । ”

उसी के लिए आप अपने संसाधन अपना हित अपना सर्वस्व त्याग करके उसे अपने भाई के समान शरण देते हैं और ऐसे कई उदाहरण इतिहास में उपलब्ध है ।

प्रोफेसर साहब ! ज्ञान वह नहीं है जो किताबें पढ़कर आता है , सद्ज्ञान वह है जो ऐतिहासिक घटनाएं सबक के रूप में हमें सीखाती हैं और वही वरेण्य है ।
वरना कई पढ़े-लिखे महामूर्धन्य लोगों के मूर्खतापूर्ण निर्णयो का फल यह पुण्यभूमि आज भी भुगत ही रही है। आशा है आप हमारी इस धृष्टता को क्षमा करके हमारे संदेश को समझ सकेंगे ।

प्रोफेसर साहब एक दीर्घनिश्वास के साथ उन्हें जाते हुए देख रहे थे । आज वे ज्ञान का एक विशिष्ट प्रकाश अपने अंदर स्पष्ट देख पा रहे थे ।

जय हिंद ।।
जय सनातन।।
।।नीतिवान लभते सुखं ।।

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👇👩‍👩‍👦👩‍👩‍👧”परिवार”👩‍👩‍👦👩‍👩‍👦👇

😈परिवार अब कहाँ ,परिवार तो कब के मर गए।
आज जो है,वह उसका केवल
टुकड़ा भर रह गए ।

🤓पहले होता था दादा का ,
बेटों पोतों सहित,भरा पूरा परिवार,
एक ही छत के नीचे ।
एक ही चूल्हे पर ,
पलता था उनके मध्य ,
अगाध स्नेह और प्यार।

😇अब तो रिश्तों के आईने ,
तड़क कर हो गए हैं कच्चे,
केवल मैं और मेरे बच्चे।
माँ बाप भी नहीं रहे
परिवार का हिस्सा,
तो समझिये खत्म ही हो गया किस्सा।

☺होगा भी क्यों नहीं,
माँ बाप भी आर्थिक चकाचोंध में,
बेटों को घर से दूर
ठूंस देते हैं किसी होस्टल में,
पढ़ने के बहाने।
वंचित कर देते हैं प्रेम से
जाने अनजाने।

🤡आज की शिक्षा
हुनर तो सिखाती है ।
पर संस्कार कहाँ दे पाती है।

😎पढ़ लिख कर बेटा डॉलर की
चकाचोंध में,
आस्ट्रेलिया, यूरोप या अमेरिका
बस जाता है।
बाप को कंधा देने भी कहाँ पहुंच पाता है।

😍बाकी बस जाते हैं बंगलोर ,
हैदराबाद, मुम्बई,
नोएडा या गुड़गांव में।
फिर लौट कर नहीं आते
माँ बाप की छांव में।

🤠पिछले वर्ष का है किस्सा ,
ऐसा ही एक बेटा ,देकर घिस्सा
पुस्तैनी घर बेचकर ,
माँ के विश्वास को तोड़ गया ।
उसको यतीमों की तरह ,
दिल्ली के एयर पोर्ट पर छोड़ गया।

☹अभी अभी एक नालायक ने
माँ से बात नहीं की ,पूरे एक साल।
😜आया तो देखा माँ का आठ माह पुराना कंकाल ।
माँ से मिलने का तो केवल एक बहाना था ।
असली मकसद फ्लैट बेचकर खाना था।

😡आपसी प्रेम का खत्म होने को है पेटा ।
लड़ रहे हैं बाप और बेटा ।
करोड़पति सिंघानियां को लाले पड़
गये हैं खाने के ।
बेटे ने घर से निकाल दिया ,
चक्कर काट रहा है कोर्ट कचहरी थाने के।

😝परिवार को तोड़ने में अब तो
कानून ने भी बो दिए हैं बीज ।
जायज है लिवइन रिलेशनशिप
और कॉन्ट्रैक्ट मैरिज ।

🐥ना मुर्गी ना अंडा ना सास ससुर का फंडा ।
जब पति पत्नी ही नहीं तो परिवार कहाँ से बसते ।
कॉन्ट्रैक्ट खत्म ,चल दिये
अपने अपने रस्ते ।
इस दौरान जो बच्चे हुए,
पलते हैं यतीमों की तरह ।
पीते हैं तिरस्कार का जहर ।

🌞अर्थ की भागम भाग में
मीलों पीछे छूट गए हैं ,
रिश्ते नातेदार ।
टूट रहे हैं घर परिवार ।
सूख रहा है प्रेम और प्यार ।
परिवारों का इस पीढ़ी ने ऐसा सत्यानाश किया कि ,
आने वाली पीढ़ियां सिर्फ किताबों में पढ़ेंगी —-
👩‍👩‍👦”वन्स अपॉन अ टाइम ,
देयर वाज लिवींग
जोइंट फैमिली इन इंडिया•
दैट इज कॉल्ड परिवार”👩‍👩‍👦

👩‍👩‍👦👩‍👩‍👦👩‍👩‍👦👩‍👩‍👦👩‍👩‍👦👩‍👩‍👦👩‍👩‍👦

✍🙏🏻🌺❤

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🌺..नौ दुर्गा का मतलब नौ वर्ष की कन्या की पूजा करना होता है. कन्या पूजन दो वर्ष की कन्या से शुरू किया जाता हैl.🌺

🌺..2 वर्ष की कन्या को ‘ कुमारिका ‘ कहते हैं और इनके पूजन से धन , आयु , बल की वृद्धि होती है l
🌺..3 वर्ष की कन्या को ‘ त्रिमूर्ति ‘ कहते हैं और इनके पूजन से घर में सुख समृद्धि आती है l
🌺..4 वर्ष की कन्या को ‘ कल्याणी ‘ कहते हैं और इनके पूजन से सुख तथा लाभ मिलते हैं l
🌺..5 वर्ष की कन्या को ‘ रोहिणी ‘ कहते हैं इनके पूजन से स्वास्थ्य लाभ मिलता है l
🌺..6 वर्ष की कन्या को ‘ कालिका ‘ कहते हैं इनके पूजन से शत्रुओं का नाश होता है l
🌺..7 वर्ष की कन्या को ‘ चण्डिका ‘ कहते हैं इनके पूजन से संपन्नता ऐश्वर्य मिलता है l
🌺..8 वर्ष की कन्या को ‘ साम्भवी ‘ कहते हैं इनके पूजन से दुःख-दरिद्रता का नाश होता है l
🌺..9 वर्ष की कन्या को ‘ दुर्गा ‘ कहते हैं इनके पूजन से कठिन कार्यों की सिद्धि होती है l
🌺..10 वर्ष की कन्या को ‘ सुभद्रा ‘ कहते हैं इनके पूजन से मोक्ष की प्राप्ति होती है l🌺