“संथाल हूल” – अंग्रेजों की विरुद्ध प्रथम सशस्त्र जन-संग्राम के अमर शहीद ‘सिद्धो-कानू-चांद-भैरव एवं दो जुड़वा बहनों ‘फूलो-झानो’ की गौरव गाथा…!!!
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30 जून 1855 से 1856 तक के महान ‘संथाल हूल’… को समझने के लिए संथाल परगना, की 1757 – 1857 तक की एक संक्षिप्त ऐतिहासिक झांकी का अवलोकन करना आवश्यक है…..!!!
संथाल परगना का राजमहल अंचल बिहार-झारखंड में ईस्ट इंडिया कम्पनी के औपनिवेशिक शासन के अन्तर्गत आनेवाले सबसे पहले क्षेत्रों में था । पलासी की लड़ाई ( 1757 ) के करीब छः साल बाद, राजमहल से छः मील दक्षिण गंगा के किनारे स्थित ऊधवा नाला की लड़ाई में मेजर एडम्स की कमान में कम्पनी की सेना ने मीर कासिम की सेना को निर्णायक शिकस्त देकर इस क्षेत्र में औपनिवेशिक शासन का आगाज किया था । 5 सितम्बर, 1763 की इस लड़ाई में मीर कासिम की करीब 40,000 की सेना के लगभग 15,000 सैनिक मारे गए थे ।
संथाल परगना के उत्तरी और भागलपुर तथा मुंगेर के दक्षिणी इलाकों के विस्तृत अंचल को तब ‘जंगलतरी’ ( अथवा जंगल तराई ) के नाम से जाना जाता था । यह पहाड़िया जनों का वास स्थान था । यह पूरा क्षेत्र उन दिनों ‘ अशान्त, उपद्रवग्रस्त ’ क्षेत्र था । कम्पनी शासकों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती पहाड़िया जनों को ‘ शान्त ’ करना और उन्हें कम्पनी शासन के मातहत लाना था । 1772 में वारेन हेस्टिंग्स ने कैप्टन ब्रुक को इस अशान्त ‘जंगलतरी’ का सैनिक गवर्नर नियुक्त किया । 1774 में उनका स्थान कैप्टन जेम्स ब्राउन ने लिया और 1779 ई. में भागलपुर के कलक्टर के रूप में ऑगस्टस क्लीवलैंड इस क्षेत्र के प्रभारी बने ।
1772 से 1780 तक जंगलतरी एक जिला था । इस जिले में जामताड़ा और गंगा तथा राजमहल पहाड़ी के बीच संकरे समतली इलाके को छोड़कर ( आज का ) पूरा संथाल परगना, हजारीबाग का खड़गडीहा, मुंगेर का दक्षिणी गिद्धौर, भागलपुर का दक्षिण खड़गपुर का क्षेत्र शामिल था । 1780 तक पाकुड़ का महेशपुर ( सुल्तानाबाद ) परगना राजशाही प्रमंडल का हिस्सा था । ( राजशाही अब बंगलादेश में है । ) पहाड़िया क्षेत्र को व्यवस्थित करने के क्रम में 1781 में क्लीवलैंड इस क्षेत्र को भागलपुर जिले के अन्तर्गत ले आए ।
1780 से 1855 के बीच संथाल परगना का वर्तमान क्षेत्र दो जिलों में बंटा था । राजमहल, पाकुड़, दुमका और गोड्डा का क्षेत्र भागलपुर जिले का अंग था और देवघर-जामताड़ा क्षेत्र बीरभूम जिले का । 1855 के संथाल हूल ( विद्रोह ) के बाद 1855 के एक्ट XXXVII के तहत इन सारे क्षेत्रों को मिलाकर संथाल परगना जिले का निर्माण किया गया । दुमका या नया दुमका इस नए जिले का मुख्यालय बना । यह जिला भागलपुर प्रमंडल के अंतर्गत था । तब जार्ज यूल भागलपुर प्रमंडल के आयुक्त थे और एशले इडन इस नवनिर्मित जिले के पहले उपायुक्त ।
1763 से 1857 के बीच कम्पनी शासन को संथाल परगना क्षेत्र में जिन विद्रोहों का सामना करना पड़ा, उनका एक संक्षिप्त ब्यौरा आगे प्रस्तुत है :
पहाड़िया विद्रोह, 1763-83
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राजमहल पहाड़ियों के पूरब पाकुड़ तथा राजमहल से लेकर पहाड़ियों के पश्चिम गोड्डा और कहलगाँव तक का क्षेत्र मालेर ( अथवा सौरिया ) पहाड़िया-जन का वास-स्थान था । मालेर पहाड़िया-जनों की बड़ी शाखा थे और पहाड़िया-जन खुद वृहत्तर द्राविड़-जन की एक छोटी शाखा । पहाड़िया-जनों की दूसरी शाखा थी माल-पहाड़िया ( नैया अथवा पुजहर ) जिसका वास-स्थान पहाड़ियों के दक्षिण और पश्चिम का क्षेत्र था ।
मालेर पहाड़िया के वास-स्थानवाले क्षेत्रों में पहले एक नट राजा दरियार सिंह का शासन था । दरियार सिंह ने लकड़ागढ़ के किले का निर्माण कराया था । गोड्डा के उत्तर मनिहारी टप्पा के एक खेतौरी कल्याण सिंह इसी नट राजा के मुलाजिम थे । कल्याण सिंह का बेटा रूपकरण सिंह बाद में नट राजा द्वारा लकड़ागढ़ किले का किलेदार नियुक्त किया गया ।
1600 ई. में मुगल सम्राट अकबर ने बंगाल सूबे की गड़बड़ियों को दुरुस्त करने मानसिंह के सेनापतित्व में एक सैन्यदल बंगाल के लिए रवाना किया । एक स्थानीय सरदार सुभान सिंह ने वहाँ ( बंगाल में ) बगावत खड़ी कर रखी थी । नट राजा सुभान सिंह के पक्ष में था, लेकिन रूपकरण ने अपने राजा से बगावत कर मानसिंह की सहायता की । रूपकरण लकड़ागढ़ का किलेदार था ही, उसने नट राजा को किले से बेदखल कर उसे मुगल सेना की सेवा में सौंप दिया । इतना ही नहीं, वह मानसिंह के साथ बंगाल चला गया और सुभान सिंह के विद्रोह को कुचलने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । उसकी इन ‘ बहुमूल्य सेवाओं ’ के लिए इनाम के रूप में उसे उपर्युक्त पूरा क्षेत्र मनसब ( लगान मुक्त मुकर्ररी ) जागीर के रूप में दे दिया गया । उसे राजा की उपाधि भी मिली । मनिहारी का यह खेतौरी परिवार इस तरह इस क्षेत्र का राजा बन गया ।
बहरहाल, जैसा कि हम पहले बता चुके हैं, यह पूरा क्षेत्र मालेर पहाड़िया लोगों का वासस्थान था । नए राजा के साथ उनका सम्बन्ध अठारहवीं सदी का मध्य आते-आते अत्यंत तनावपूर्ण हो चुका था । एक-के-बाद-एक कई पहाड़िया सरदारों की खेतौरी जागीरदारी के लोगों ने छलपूर्वक हत्या कर दी थी । मनिहारी के इस खेतौरी राजा ने पहाड़िया क्षेत्र के तराईवाले इलाकों को जागीरों के रूप में अपने नाते-रिश्तेदारों को दे रखा था । पहाड़िया जन, इस स्थिति में, अपनी ताकत का एहसास कराने को बाध्य हो गए ।
उन्होंने अपनी ताकत का धमाकेदार प्रदर्शन किया । हजारों की संख्या में गोलबंद होकर मालेर पहाड़िया लकड़ागढ़ किले की ओर बढ़ चले । वे तीर-धनुष से लैस थे । उन्होंने किले पर धावा बोला और खेतौरी जागीरदारों को वहाँ से खदेड़ दिया । फिर उन्होंने एक-के-बाद-एक तराई के गाँवों पर धावा बोला । यह वह समय था जब पूरे बंगाल सूबे में राजनीतिक अस्त-व्यस्तता थी । पलासी की लड़ाई ( 1757 ) और बक्सर की लड़ाई ( 1764 ) के बीच का यह समय भारतीय इतिहास में निर्णयात्मक मोड़ लेनेवाला समय था । ऐसी स्थिति में, पहाड़िया विद्रोह को तत्काल किसी व्यवस्थित विरोध का सामना नहीं करना पड़ा । 1770 के महा-अकाल के समय पहाड़ियों के हमले में स्वभावतः काफी तेजी आ गई ।
इस क्षेत्र में अँग्रेजों के आगमन के समय पहाड़िया अपनी ताकत का एहसास करा चुके थे । तराईवाले कृषि-क्षेत्रों से जागीरदार भाग चुके थे । गंगा के दक्षिणी किनारे शाम ढ़लने के बाद नावों का चलना बंद था । राजमहल तथा तेलियागढ़ी की घाटियों से सरकारी डाकियों का आवागमन प्रायः ठप हो गया था । यह मार्ग सदियों से बिहार को बंगाल से जोड़नेवाला महत्वपूर्ण मार्ग था । जागीरदारों की आपसी प्रतिद्वंद्विता के फलस्वरूप जागीरदारों और घटवालों का एक समूह भी पहाड़िया-जनों के साथ हो गया था ।
इस पहाड़िया विद्रोह से निबटने के पहले अँग्रेजों ने वही किया जो औपनिवेशिक शक्तियाँ आज तक करती आई हैं – विद्रोही समुदाय को ‘ बुराई के मूर्तिमान प्रतीक ’ के रूप में पेश करना और उनके खिलाफ चौतरफा घृणा-अभियान छेड़ देना । पहाड़ियों को चोर-लुटेरों के रूप में पेश किया गया और ‘ पागल कुत्तों ’ की तरह उनके शिकार को प्रोत्साहित किया जाने लगा । 1806 ई. में बनारस डिवीजन के एक जज ने उन दिनों की स्थिति का खुलासा कुछ इस प्रकार किया था, “ ब्रिटिश शासन के आरम्भिक काल में बीरभूम और भागलपुर के बीच के क्षेत्र में चरम अव्यवस्था की स्थिति थी । उस क्षेत्र के बाशिन्दों ने सरकार और उसकी अन्य प्रजाओं के विरुद्ध खुलकर हथियार उठा रखा था । उन्होंने मैदान के निवासियों के खिलाफ अनवरत् बर्बर युद्ध छेड़ रखा था । उन्हें विधि-बाह्य घोषित कर दिया गया और जंगली जानवरों की तरह उनका शिकार किया जाने लगा । उन दिनों बीरभूम के कलक्टर रहे एक भद्रजन ने बताया था, कि उनके ( पहाड़ियों के ) कटे सिर टोकरियों में भर-भर कर लाए जाते थे । ”
बहरहाल, पहाड़िया-जन के खिलाफ अँग्रेजों के बर्बर दमन-अभियान को आंशिक सफलता ही मिली । इस क्षेत्र में अपेक्षित शान्ति बहाल करने में अँग्रेज कामयाब नहीं हुए । उन्हें कामयाबी मिली एक दूसरी नीति के जरिए जिसका श्रेय ऑगस्टस क्लीवलैंड को जाता है । इस नीति की मूल बात थी, अत्यंत सीमित अर्थों में ही सही, पहाड़िया-जन का ( आजकल की शब्दावली में ) सशक्तीकरण । इस नीति के तहत तीन कदम उठाये गए ।
पहला, पहाड़िया योद्धाओं को लेकर पहाड़िया तीरंदाज वाहिनी का गठन । सरकार से स्वीकृति मिलने के बाद 1782 ई. में इस वाहिनी में भर्ती की प्रक्रिया शुरू हुई । तीर-धनुष से लैस इस वाहिनी में योद्धाओं की संख्या थी करीब 1300 । इस वाहिनी का सेनापति नियुक्त किया गया सर्वप्रमुख पहाड़िया सरदार जवरा पहाड़िया को । याद रहे, इसी जवरा पहाड़िया को अब तक अँग्रेज ‘ कुख्यात डकैत ’ कहा करते थे, ‘ जिसके नाम से पूरा क्षेत्र थर-थर काँपता था । ’ अँग्रेजों तथा मैदानी इलाके के जागीरदारों के लिए जिसका नाम ही ‘ आतंक का पर्याय ’ था, उसे ही अँग्रेज क्षेत्र में शान्ति व्यवस्था बहाल करने की जिम्मेदारी देने के लिए बाध्य हुए । ( इस पहाड़िया तीरंदाज वाहिनी को, जिसे बाद में भागलपुर हिल रेंजर्स नाम दिया गया, 1857 का विद्रोह शुरू होने के बाद विघटित कर दिया गया । )
दूसरा कदम था, क्षेत्र तथा गाँव के स्तर पर, पहाड़ियों के सरदार, नायब ( उप-सरदार ) और माँझियों के अधिकारों को सीमित मान्यता प्रदान करना और उन्हें अँग्रेजी प्रशासनिक मशीनरी के मातहत ले आना । सरदारों, नायबों और माँझियों के लिए प्रति माह दस रुपये से लेकर दो रुपये तक के वजीफे की भी व्यवस्था की गई जिसपर सरकार को सालाना 13,000 रुपये से भी अधिक का खर्च वहन करना पड़ा । कुछ अँग्रेज अधिकारी पैसे देकर शान्ति खरीदने की क्लीवलैंड की इस नीति से खफा थे । इसके अलावा, पहाड़िया लोगों द्वारा किए गए आम अपराधों की सुनवाई भी अदालतों के कार्यक्षेत्र से हटाकर पहाड़िया सरदारों के न्यायाधिकरण ( ट्रिब्यूनल ) को सौंप दी गई । इस ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष खुद क्लीवलैंड थे ।
उपर्युक्त दो कदम तो तत्काल उठा लिए गए और इससे पहाड़िया क्षेत्र में शान्ति बहाल करने में कामयाबी भी मिल गई । बहरहाल, तीसरे कदम के कार्यान्वयन में थोड़ा वक्त लगा । यह कदम था दामिन-इ-कोह ( पहाड़ का आँचल ) क्षेत्र का निर्धारण, उसे सरकारी जागीर घोषित करना और इस क्षेत्र में पड़ोसी जागीरदारों की घुसपैठ पर रोक लगाना । दामिन-इ-कोह पहाड़िया लोगों के वास-स्थान में स्थित पहाड़ों और उससे लगे मैदानी इलाकों का विस्तृत क्षेत्र था जो राजमहल, पाकुड़, गोड्डा और दुमका अंचलों के 1,338 वर्ग मील में फैला था । इसी दामिन क्षेत्र में 1790 के बाद संथाल आकर बसने लगे । वे अपेक्षाकृत उन्नत खेतिहर समुदाय थे और अँग्रेज भी उन्हें इस क्षेत्र में बसने के लिए प्रोत्साहित करने लगे । उन्नीसवीं सदी का मध्य आते-आते संथाल इस क्षेत्र के सर्वप्रमुख निवासी बन गए । 1837 ई. में मि. पोंटेट को दामिन-इ-कोह का अधीक्षक नियुक्त किया गया । झाड़-झंकार से भरा-पड़ा और मामूली राजस्व देनेवाला यह क्षेत्र धीरे-धीरे अँग्रेजों के लिए अच्छा-खासा राजस्व भी देने लगा । 1837-38 में इस सरकारी जागीर से सरकार को जहाँ 2,611 रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ था, वहीं 1854-55 में वह बढ़कर 58,033 रुपये हो गया !
इस तरह, उपर्युक्त कदमों के जरिए पहाड़िया असंतोष पर काबू पाने में ईस्ट इंडिया कम्पनी कामयाब हुई । वैसे, ऊपर बताए गए सारे कदम आगे बरकरार नहीं रहे, उनके कार्यान्वयन में अनेक गड़बड़ियाँ रहीं और पहाड़िया लोगों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ । आज भी भयानक गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा के बीच पहाड़िया समुदाय अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है ।
प्रसंगवश, यहाँ इतना कहना पर्याप्त होगा कि उन दिनों विभिन्न आधुनिक राजनीतिक संस्थाएँ ब्रिटेन तथा यूरोप में भी अभी आकार ही ले रहीं थीं । ब्रिटिश लिहाज से भी आमतौर पर स्थानीय स्वशासन की, खासकर जनजातियों के स्वशासन की अवधारणा राजनीतिशास्त्र के आधुनिक सिद्धान्तवेत्ताओं के लिए अमूमन नई अवधारणा ही थी ।
झारखंड की वर्तमान भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री माननीय रघुवर दास जी के प्रयासों से इस वर्ष…..1042 सदस्यीय #पहाड़िया_आदिम_जनजातीय_बटालियन का गठन किया गया …#प्रधानमंत्री_माननीय_नरेंद्र_मोदी जी से जब इस वर्ष 6, अप्रैल को पहाड़िया बटालियन की कुछ महिला सदस्यों को साहेबगंज में उनके आगमन के अवसर पर, नियुक्ति पत्र दिलवाया गया….तो प्रधानमंत्री जी अभिभूत हो गए, एवं उन्होंने मुख्यमंत्री #रघुवर_दास जी को उनकी इस सोच पर खुल कर बधाई दी एवं प्रसंशा की…..!!!
जगन्नाथ देव का विद्रोह, 1773-85
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कम्पनी के शासकों को अपने आरम्भिक दिनों में पहाड़िया विद्रोह के साथ-साथ एक और विद्रोह का सामना करना पड़ रहा था । इस विद्रोह का क्षेत्र संथाल परगना का दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र था और इस विद्रोह के अगुवा थे लक्ष्मीपुर इस्टेट के घटवाल-सरदार जगन्नाथ देव…..!!!
सैनिक गवर्नर के रूप में इस क्षेत्र का शासन सँभालने के एक वर्ष के भीतर ही कैप्टन ब्रुक को जगन्नाथ देव के विद्रोह का सामना करना पड़ा । मध्य अप्रैल, 1773 ई. में देवघर के निकट त्रिकुट ( तिउर ) पहाड़ के पास ब्रुक के सैनिकों और जगन्नाथ देव के योद्धाओं के बीच जमकर मुठभेड़ हुई । तोप उतारने के बाद ही ब्रुक जगन्नाथ देव के योद्धाओं को तितर-बितर करने में कामयाब हुए । त्रिकुट पहाड़ की लड़ाई में मात खाने और अपना किला खो देने के बावजूद जगन्नाथ देव का विद्रोह जारी रहा । आसपास के कई जागीरदार और घटवाल उनके रिश्तेदार थे और अँग्रेजों को कइयों पर उन्हें शरण देने तथा भीतर-ही-भीतर उनकी सहायता करने का शक था …….
1775 ई. में वे पुनः खुले विद्रोह पर उतर पड़े । अगले वर्ष ( 1776 ) उनकी जमींदारी उनके बेटे रूपनारायण देव को सौंप दी गई, लेकिन रूपनारायण ने भी कम्पनी की सत्ता को चुनौती दे डाली । इस तरह, यह विद्रोह 1785 तक जारी रहा । 1785 में आखिरकार रूपनारायण देव ने हथियार डाल दिए । ( प्रसंगवश, 1803 ई. में बकाए राजस्व के भुगतान के लिए जब भागलपुर के तत्कालीन कलक्टर ने रूपनारायण देव के तालुकदारों – धरमदेव सिंह, रंजीत सिंह और मंगल सिंह – को परवाना भेजा, तो इन तालुकदारों ने कलक्टर के आदेश की तामील रोकने की कोशिश की थी । )
रानी सर्वेश्वरी का विद्रोह, 1781-82
पाकुड़ का सुल्तानाबाद परगना पहले काफी सघन वन से आच्छादित माल पहाड़िया लोगों का निवास स्थान था । इस क्षेत्र में महेशपुर ( सुल्तानाबाद ) राज की स्थापना गोरखपुर से आए दो भाइयों आबू सिंह और बाकू सिंह ने की थी । अपने रिश्तेदार खड़गपुर के राजा की मदद से उन्होंने आसपास के छोटे सरदारों को परास्त कर अपना राज कायम किया । छोटे भाई आबू सिंह ने पहाड़िया स्त्री से विवाह कर उनके साथ रक्त सम्बंध स्थापित कर लिया । बड़े भाई बाकू सिंह के वंशज गर्जन सिंह पलासी युद्ध ( 1757 ) के समय महेशपुर राज का शासन सँभाल रहे थे । 1758 ई. में निःसंतान गर्जन सिंह का देहान्त हो गया । विधवा रानी सर्वेश्वरी को महेशपुर राज की बागडोर अपने हाथों में लेनी पड़ी । इस क्षेत्र में अँग्रेजों के आगमन के समय सर्वेश्वरी ही महेशपुर राज का शासन सँभाल रही थी ।
रानी सर्वेश्वरी पर माल पहाड़िया लोगों को कम्पनी के खिलाफ बगावत के लिए भड़काने और उनकी हिंसक कार्रवाइयों में मदद देने का आरोप था । 1781-82 में कुछ अन्य पहाड़िया सरदारों के साथ मिलकर रानी ने कम्पनी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया । 1783 ई. में रानी पर मुकदमा चला और 6 मई, 1783 को उन्हें उनकी जमींदारी से वंचित कर दिया गया । 1791 में यह जागीर गर्जन सिंह के भतीजे माकुम सिंह को दे दी गई । रानी सर्वेश्वरी का आखिरी समय भागलपुर जेल में बीता । 6 मई, 1807 को भागलपुर जेल में ही बूढ़ी रानी ने अपनी अंतिम साँस ली ।
संथाल हूल, 1855-56
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1857 के स्वातंत्र्य-युद्ध से महज दो वर्ष पूर्व ‘सिद्धो – कानू -चाँद – भैरव’ इन चार भाइयों एवं फूलो – झानो दो बहनों के नेतृत्व में महान संथाल हूल भड़क उठा था । यह औपनिवेशिक भारत में अँग्रेज शासकों और स्थानीय शोषकों के खिलाफ सबसे बड़े नियोजित जन-विद्रोहों में से एक था । विद्रोह की शुरुआत ( बरहेट से कुछ ही दूर दक्षिण स्थित ) सिद्धो – कानू के गाँव भोगनाडीही से हुई थी ।
30 जून, 1855 को पूर्णिमा की रात, करीब दस हजार संथाल वहाँ एकत्रित हुए और उसी विशाल सभा से इस महाविद्रोह का आगाज हुआ । सिद्धो और कानू को उन्होंने अपना शासक घोषित कर दिया । उन्होंने अपने नायब, दारोगा और अन्य अधिकारी नियुक्त किए । पश्चिम में कहलगाँव से पूरब में राजमहल तक, उत्तर में गंगा से दक्षिण में रानीगंज और सैंथिया तक का क्षेत्र उन्होंने लगभग मुक्त कर रखा था । सशस्त्र विद्रोहियों की संख्या, खुद अँग्रेज अधिकारियों के अनुसार, 30,000 से ऊपर थी । अँग्रेजों ने इस विद्रोह का बर्बरतापूर्वक दमन किया ।
कुछ स्थानीय सरदारों को पैसे का लालच दे कर दोनों भाईयों ‘सिद्धो – कानो’ को अंग्रेजों ने धोखे से गिरफ्तार कर, भोगनाडीह में खुलेआम एक पेड़ से लटका कर,…. 26 जुलाई, 1855 को फांसी दे दी गई….पूर्व में ही चांद – भैरव लड़ते हुए शहीद हो चुके थे…. लेकिन जब तक डुगडुगी बजती रही आंदोलन चलता रहा….एक-एक संथाल आंदोलनकारी शहीद होता रहा….
10 नवंबर, 1855 को इस क्षेत्र में मार्शल लॉ लगा दिया गया और बड़े पैमाने पर सैनिक कार्रवाई शुरू की गई ।
जनवरी, 1856 आते-आते इस विद्रोह का दमन करने में अँग्रेजी सरकार कामयाब हुई । 3 जनवरी, 1856 से मार्शल के क्रियान्वयन को भी निलम्बित कर दिया गया…भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी….
इस संक्षिप्त चर्चा में इस महान विद्रोह का विस्तृत विवरण देना संभव नहीं ।
इस संथाल हूल के बाद ही, जैसा कि हम पहले बता चुके हैं, भागलपुर प्रमंडल के अन्तर्गत नए संथाल परगना जिले का गठन किया गया । साथ ही कुछ सुधारमूलक कदम उठाए गए, जिन्हें उन दिनों भागलपुर के आयुक्त जार्ज यूल के नाम पर ‘यूल्स रूल्स’ के नाम से जाना जाता है ।
संथाल सरदारों, नायबों और माँझियों को प्रशासनिक व्यवस्था के साथ जोड़ा गया । एशले इडन जिले के पहले उपायुक्त नियुक्त किए गए ।
जिस क्षेत्र के उत्तरी हिस्से (पलासी) से बिहार-झारखंड में कम्पनी शासन की शुरुआत हुई थी, उसी क्षेत्र के दक्षिणी हिस्से से 1857 के स्वातंत्र्य-युद्ध का आगाज हुआ । बिहार-झारखंड क्षेत्र में 1857 से जुड़ा पहला हमला 12 जून, 1857 को देवघर के रोहिणी में हुआ….और यह महान स्वातंत्र्य-युद्ध भारत की आज़ादी तक चलता रहा….!!!