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प्रशंसा सिर्फ परमेश्वर की


प्रशंसा सिर्फ परमेश्वर की ⭕
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♦ एक बार एक राजा के दरबार में एक कवि आया । कवि गुणी और प्रतिभाशाली था । पर, धन का लोभ या धन की आवश्यकता ने उसे शायद कुछ विवश कर रखा था ।

♦ राजा का संकेत मिलते ही कवि ने राजा की प्रशंसा में कविताएं सुनानी शुरु कर दीं । राजा खुश हो गया । फिर कवि का ध्यान राजसभा में उपस्थित महारानी की ओर गया । उसने सोचा इनका लाभ भी ले लिया जाए । अब उसने रानी की प्रशंसा में कविताएँ सुनानी शुरु कीं । रानी भी उसकी कविता से प्रभावित और प्रसन्न थीं । कवि ने राजा-रानी दोनों का दिल जीत लिया था ।

♦ राजा ने मन्त्री से कहा – “मन्त्री जी, इस विद्वान कवि ने हमें प्रसन्न कर दिया है ।” राजा इतना प्रसन्न था कि वह कवि को दरबार में कोई विशेष स्थान तक दे सकता था । पर, फिर भी राजा ने मन्त्री से ही कवि के योग्य उचित ईनाम पूछना चाहा । लेकिन मन्त्री कुछ चुप रहा । राजा को मन्त्री की बुद्धिमता पर अटूट विश्वास था और उसके परामर्श के बिना राजा निर्णय नहीं कर सकता था । मन्त्री था भी उस योग्य ।

♦ राजा ने दोबारा पूछा तो मन्त्री ने अनमने मन से कहा – “महाराज ! इन्होंने आपको और महारानी को अपनी रचना और मधुर गीत से प्रसन्न कर दिया है । आपको जो उचित लगे, वह पुरस्कार इन्हें दे दीजिये । इस विषय पर मेरा निर्णय शायद आपको अच्छा ना लगे ।”

♦ अब तो राजा का कौतूहल और बढ़ गया कि एक कवि को ईनाम देने की साधारण सी बात पर मन्त्री ऐसी बात क्यों कह रहा है ? हो न हो, कुछ गहरी बात जरुर है । ऐसा विचार करते हुए राजा ने घोषणा की कि “अब मन्त्री जी जो पुरस्कार निर्धारित करेंगे, वही पुरस्कार इस कवि को दे दिया जाएगा ।”

♦ कवि ने बड़ी आशा की दृष्टि से मन्त्री की ओर देखा । उसे अफसोस हो रहा था कि यदि उसे मन्त्री के इस प्रभाव का पता होता तो वह कुछ प्रशंसा इस मन्त्री की भी कर देता । फिर भी यदि यह राजा जितना पुरस्कार नहीं भी देगा, पर राजा के प्रशंसक को कुछ मूल्यवान ईनाम तो जरुर देगा ।

♦ अभी कवि इन ख्यालों में ही था कि मन्त्री ने अचानक घोषणा कर दी – “महाराज ! मेरा निर्णय है कि इस कवि को पाँच जूते लगाए जाएं ।”

♦ यह सुनकर कवि पर तो जैसे बिजली गिर गई । राजा व रानी की प्रशंसा करने वाले को जूते पड़ेगें, यह सोचकर राजा, रानी समेत सभी दरबारियों की आँखें फटी की फटी रह गईं । राजा ने तो पहले ही घोषणा कर दी थी कि जो भी मन्त्री निर्णय लेंगे, वही हम स्वीकार करेंगे । इसलिए राजा चाहकर भी मन्त्री के इस निर्णय़ से पीछे नहीं हट सकते थे और भरी सभा में कवि को पाँच जूते लगाकर छोड दिया गया ।

♦ कवि बहुत दु:खी हुआ । उसे मन्त्री पर बड़ा क्रोध आया । वह राजा पर भी क्रोधित था कि ऐसे मूर्खों को मन्त्री बनाया हुआ है । कवि ने मन ही मन सोचा कि आज या तो मैं रहूँगा या यह मन्त्री रहेगा । वह मन्त्री की हत्या का विचार करने लगा । शाम को जब मन्त्री अपने घर की ओर चला तो कवि भी पीछे-पीछे चल पड़ा ।

♦ मन्त्री को आज कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था । वह अपने घर पहुँचा और रोते हुए आज राजसभा में हुई सारी घटना अपनी पत्नी को बताने लगा । मन्त्री ने कहा – “मुझे बहुत दु:ख है कि एक विद्वान जिस पर माँ सरस्वती की असीम कृपा है, उसके साथ मुझे यह सब करना पड़ा ।”

♦ पत्नी ने पूछा कि “इसमें विवशता की क्या बात थी ? जो आपने एक योग्य कवि का अपमान किया ?”

♦ मन्त्री बोला – “परमात्मा ने उस कवि को बहुत सुन्दर बुद्धि और मधुर आवाज दी है । माँ सरस्वती ने उसमें इतने गुण भर दिए हैं कि वह इस राज्य का सम्मानित मन्त्री बनने के योग्य है । ऐसे राजा उसके सम्मान में अगवानी करें, ऐसी प्रतिभा और कला से युक्त है वह गायक कवि । परन्तु उसने अपना मोल ही नहीं समझा । आज वह एक राजा की चाटुकारिता कर रहा था । यदि आज मैं उसे पुरस्कार दिला देता तो वह ज्यादा से ज्यादा पुरस्कार की आशा में अपनी कला का प्रयोग सिर्फ राजा-रानी की प्रशंसा करने में ही लगाता रहता । इसके बाद जो राजा बनता फिर वह उसकी चाटुकारिता करते हुए जीवन बिता देता । इसकी सन्तानें भी फिर उस कार्य में लग जातीं ।

♦ मन्त्री ने पत्नी को कहा – “मैं स्वयं उस विद्वान कवि का प्रशंसक हूँ । इसलिए पाँच जूते लगवाकर मैंने उसे नर्क में जाने से बचा लिया है ।”

♦ पत्नी ने आश्चर्य में पूछा – “पाँच जूते लगाकर नर्क की राह पर जाने से आपने रोका ! वह कैसे ? साफ-साफ बताईये ।”

♦ मन्त्री ने कहा – “कवि सबसे पहले परमात्मा की प्रशंसा करता है । इसने तो राजा को ही परमात्मा मान लिया । इस विद्वान कवि ने भगवान की प्रशंसा में तो दो शब्द न कहे और राजा-रानी के लिए गाता ही चला गया । उसने जब आज भगवान की प्रशंसा में एक शब्द भी नहीं बोला तो मुझे लगा कि उसे इस अपराध की छोटी सी सजा देकर छोड़ दिया जाये । परमात्मा से विमुख होने पर यहाँ तो उसे बस पाँच जूते ही लगे और छूट गया । लेकिन भगवान के दरबार में तो यह पता नहीं कितनी सजा पाता । क्योंकि सभी को बनाने वाले वह भगवान हैं । भगवान ने ही राजा व रानी को बनाया है । इस विद्वान कवि ने भगवान के द्वारा बनाए लोगों की तो प्रशंसा की, लेकिन उसको भूल गया जिसने सबको बनाया है । अपनी चाटुकारिता से वह ऐसे राजा को पथभ्रष्ट भी तो कर सकता है ? इसका दण्ड मिलता सो अलग । अब बताओ, क्या पाँच जूते लगवाकर मैंने उसे नर्क जाने से नहीं रोका ?”

♦ बाहर खड़े कवि ने जब यह सुना तो वह रोने लगा और मन्त्री के पैरों में गिरकर प्रतिज्ञा की कि “मन्त्री जी, आज आपने मेरी आँखें खोल दीं । आज के बाद मैं सिर्फ परमेश्वर की ही महिमा गाऊँगा । आपने बहुत बड़े अपराध से मुझे बचा लिया ।”

♦ परमात्मा की प्रशंसा में यदि समर्पित हैं तो आपकी कला की भी एक न एक दिन पहचान होगी और सम्मान भी मिलेगा । हो सकता है, उस सम्मान में विलम्ब हो जाए, पर वही सम्मान स्थाई होगा । राजा के संरक्षण का सम्मान स्थाई कैसे होगा ? क्योंकि पृथ्वी की सत्ता तो बदलती रहती है, जबकि भगवान की सत्ता कभी नहीं बदलती ।
🙏🏻 गोपाल स्वामी (भागवत प्रवक्ता)
सुदामा कुटी – खैरी,
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
080591-54254.

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