Posted in गौ माता - Gau maata

गोमांस आदि के प्रचार के लिए लोगों ने जानबूझकर पुस्तकों के गलत अर्थ किये हैं। गोमांस का भोजन दिखाने के लिये पुणे के भण्डारकर शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित उत्तर रामचरित की टीका में गलत अर्थ किया गया है। दशरथ जी के पास वसिष्ठ जी किसी चर्चा के लिए आये। अतिथि के लिए वत्सतरी दी गई। उसे वसिष्ठ ने ग्रहण किया तो मड़मड़ का शब्द हुआ-वत्सतरी  मडमडायते। वत्सतरी का अर्थ किया है 2 वर्ष का गाय का वत्स। उसे देखते ही वसिष्ठ ने बछड़े को चबाना शुरू किया। उसकी हड़डियों के टूटने से मडमड का शब्द हुआ। व्याकरण में  कुछ भी व्याख्या करें, मगरमच्छ भी गाय का 2 वर्ष का बछड़ा या तुरंत पैदा हुआ बछड़ा भी अपने मुंह में नहीं ले सकता। 2 वर्ष के बछड़े का प्रायः वयस्क जैसा आकार हो जाता है। मगरमच्छ बकरे को भी बहुत कठिनाई से मुंह में ले पाता है।

वत्सतरी लेने के बाद दशरथ ने कहा कि आपने मधुपर्क ले लिया, अब प्रसंग पर चर्चा करें। इससे स्पष्ट है कि वत्सतरी का अर्थ मधुपर्क है।

कोई भी अतिथि आता है तो थका होता है तथा उसके शरीर में पानी की कमी होती है। अतः उसे पानी तथा ग्लूकोज  (मीठा) किसी रूप में दिया जाता है-यह मधुपर्क हुआ। पेट की सूखी आंत में पानी पहुंचने पर आंत की गति से मडमड शब्द होता है। कुछ लोग मुंह से भी जोर से शब्द निकालते हैं। पानी में चीनी या थोड़ा नमक (गुजराती में इसे भी मीठू कहते हैं) मिलाने पर उससे 1 दिन का बच्चा भी तृप्त हो जाता है। वस्तुतः उनका पेट खराब होने पर यही दवा देते हैं जिसे  ORH कहा जाता है। इसलिए मधुपर्क को ही वत्सतरी कहा है।

इसी प्रकार राहुल सांकृत्यायन ने भी श्वेताश्वतर उपनिषद् के नाम से निष्कर्ष निकाला कि ऋषि केवल घोड़े की हड्डी का सूप पीते थे। अश्व = घोड़ा, उसका श्वेत भाग हड्डी, तर = सूप। कई लोगों को मैंने कहा कि इस उपनिषद् में घोड़ा का कोई शब्द दिखा दें। पर घोड़ा या गाय के मांस का किसी प्रकार अर्थ निकालते ही उनके जीवन का उद्देश्य पूरा हो जाता है, उसके बाद कुछ सुनते या समझते नहीं हैं। 

आकाश में सूर्य अश्व या ऊर्जा का स्रोत है। उसका प्रकाशित क्षेत्र श्वेत अश्व है। उसके परे ब्रह्माण्ड आदि श्वेताश्वतर हैं जिनकी चर्चा इसमें है।

अरुण उपाध्याय

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विद्या महिमा के संस्कृत श्लोक


विद्या महिमा के संस्कृत श्लोक | Sanskrit Slokas on Education with Meaning

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आदि काल से ही हमारी भारतीय संस्कृति में शिक्षा का बड़ा महत्व रहा है| शिक्षा को अमरत्व का साधन माना गया है| “सा विद्या या विमुक्तये” का मंत्र संसार की एकमात्र हिंदू संस्कृति में मिलता है और इस तरह से हमारी संस्कृति ने सनातन काल से ही गुरु शिष्य परंपरा के माध्यम से शिक्षा को जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग माना है | यही कारण है कि समय समय पर हमारे ऋषि मुनियों के साथ-साथ समाज ने शिक्षा के महत्व पर आधारित संस्कृत श्लोकों की तमाम रचनाएं की जिसे आज मैं यहां संकलित कर रहा हूं मुझे विश्वास है कि यह आपको अच्छा लगेगा

विद्या महिमा के संस्कृत श्लोक | Sanskrit Slokas on Education with Meaning:

संयोजयति विद्यैव नीचगापि नरं सरित् ।
समुद्रमिव दुर्धर्षं नृपं भाग्यमतः परम् ॥
जैसे नीचे प्रवाह में बहेनेवाली नदी, नाव में बैठे हुए इन्सान को न पहुँच पानेवाले समंदर तक पहुँचाती है, वैसे हि निम्न जाति में गयी हुई विद्या भी, उस इन्सान को राजा का समागम करा देती है; और राजा का समागम होने के बाद उसका भाग्य खील उठता है ।
विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥
विद्या विनय देती है; विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म, और धर्म से सुख प्राप्त होता है ।
कुत्र विधेयो यत्नः विद्याभ्यासे सदौषधे दाने ।
अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु ॥
यत्न कहाँ करना ? विद्याभ्यास, सदौषध और परोपकार में । अनादर कहाँ करना ? दुर्जन, परायी स्त्री और परधन में ।
विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य ।
कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥
विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य का चित्त हरण नहि करता ? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहि देता ?
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ।
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम् ॥
कुरुप का रुप विद्या है, तपस्वी का रुप क्षमा, कोकिला का रुप स्वर, तथा स्त्री का रुप पतिव्रत्य है ।
रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥
रुप संपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहि देते ।
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥
जो अपने बालक को पढाते नहि, ऐसी माता शत्रु समान और पित वैरी है; क्यों कि हंसो के बीच बगुले की भाँति, ऐसा मनुष्य विद्वानों की सभा में शोभा नहि देता !
क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्  ॥
एक एक क्षण गवाये बिना विद्या पानी चाहिए; और एक एक कण बचा करके धन ईकट्ठा करना चाहिए । क्षण गवानेवाले को विद्या कहाँ, और कण को क्षुद्र समजनेवाले को धन कहाँ ?
अजरामरवत् प्राज्ञः विद्यामर्थं च साधयेत् ।
गृहीत एव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥
बुढापा और मृत्यु आनेवाले नहि, ऐसा समजकर मनुष्य ने विद्या और धन प्राप्त करना; पर मृत्यु ने हमारे बाल पकडे हैं, यह समज़कर धर्माचरण करना ।
विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो
धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा ।
सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम्
तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥
विद्या अनुपम कीर्ति है; भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु है, विरह में रति समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल-महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है; इस लिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बन ।
श्रियः प्रदुग्धे विपदो रुणद्धि यशांसि सूते मलिनं प्रमार्ष्टि ।
संस्कारशौचेन परं पुनीते शुद्धा हि वुद्धिः किल कामधेनुः ॥
शुद्ध बुद्धि सचमुच कामधेनु है, क्यों कि वह संपत्ति को दोहती है, विपत्ति को रुकाती है, यश दिलाती है, मलिनता धो देती है, और संस्काररुप पावित्र्य द्वारा अन्य को पावन करती है ।
हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता ।
कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना ॥
जो चोरों के नजर पडती नहि, देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहि होता, वह विद्या के अलावा अन्य कौन सा द्रव्य हो सकता है ?
ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते ।
दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥
यह विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका वितरण ज्ञातिजनों द्वारा हो नहि सकता, जिसे चोर ले जा नहि सकते, और जिसका दान करने से क्षय नहि होता ।
विद्या शस्त्रं च शास्त्रं च द्वे विद्ये प्रतिपत्तये ।
आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितीयाद्रियते सदा ॥
शस्त्रविद्या और शास्त्रविद्या – ये दो प्राप्त करने योग्य विद्या हैं । इन में से पहली वृद्धावस्था में हास्यास्पद बनाती है, और दूसरी सदा आदर दिलाती है ।
सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।
अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥
सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्यों कि वह किसी से हरा नहि जा सकता; उसका मूल्य नहि हो सकता, और उसका कभी नाश नहि होता ।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, गुप्त धन है । वह भोग देनेवाली, यशदात्री, और सुखकारक है । विद्या गुरुओं का गुरु है, विदेश में वह इन्सान की बंधु है । विद्या बडी देवता है; राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहि । इसलिए विद्याविहीन पशु हि है ।
मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते
कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् ।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम्
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥
विद्या माता की तरह रक्षण करती है, पिता की तरह हित करती है, पत्नी की तरह थकान दूर करके मन को रीझाती है, शोभा प्राप्त कराती है, और चारों दिशाओं में कीर्ति फैलाती है । सचमुच, कल्पवृक्ष की तरह यह विद्या क्या क्या सिद्ध नहि करती ?
सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदर पूरणे ।
शुकोऽप्यशनमाप्नोति रामरामेति च ब्रुवन् ॥
सद्विद्या हो तो क्षुद्र पेट भरने की चिंता करने का कारण नहि । तोता भी “राम राम” बोलने से खुराक पा हि लेता है ।
न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी ।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥
विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहि सकता, राजा ले नहि सकता, भाईयों में उसका भाग नहि होता, उसका भार नहि लगता, (और) खर्च करने से बढता है । सचमुच, विद्यारुप धन सर्वश्रेष्ठ है ।
अपूर्वः कोऽपि कोशोड्यं विद्यते तव भारति ।
व्ययतो वृद्धि मायाति क्षयमायाति सञ्चयात् ॥
हे सरस्वती ! तेरा खज़ाना सचमुच अवर्णनीय है; खर्च करने से वह बढता है, और संभालने से कम होता है।
नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ।
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥
विद्या जैसा बंधु नहि, विद्या जैसा मित्र नहि, (और) विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहि ।
अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् ।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ॥
अनेक संशयों को दूर करनेवाला, परोक्ष वस्तु को दिखानेवाला, और सबका नेत्ररुप शास्त्र जिस ने पढा नहि, वह इन्सान (आँख होने के बावजुद) अंधा है ।
सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
जिसे सुख की अभिलाषा हो (कष्ट उठाना न हो) उसे विद्या कहाँ से ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ से ? सुख की ईच्छा रखनेवाले ने विद्या की आशा छोडनी चाहिए, और विद्यार्थी ने सुख की ।
ज्ञानवानेन सुखवान् ज्ञानवानेव जीवति ।
ज्ञानवानेव बलवान् तस्मात् ज्ञानमयो भव ॥
ज्ञानी इन्सान हि सुखी है, और ज्ञानी हि सही अर्थ में जीता है । जो ज्ञानी है वही बलवान है, इस लिए तूं ज्ञानी बन । (वसिष्ठ की राम को उक्ति)
कुलं छलं धनं चैव रुपं यौवनमेव च ।
विद्या राज्यं तपश्च एते चाष्टमदाः स्मृताः ॥
कुल, छल, धन, रुप, यौवन, विद्या, अधिकार, और तपस्या – ये आठ मद हैं ।
सालस्यो गर्वितो निद्रः परहस्तेन लेखकः ।
अल्पविद्यो विवादी च षडेते आत्मघातकाः ॥
आलसी, गर्विष्ठ, अति सोना, पराये के पास लिखाना, अल्प विद्या, और वाद-विवाद ये छे आत्मघाती हैं ।
स्वच्छन्दत्वं धनार्थित्वं प्रेमभावोऽथ भोगिता ।
अविनीतत्वमालस्यं विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
स्वंच्छंदता, पैसे का मोह, प्रेमवश होना, भोगाधीन होना, उद्धत होना – ये छे भी विद्याप्राप्ति में विघ्नरुप हैं ।
गीती शीघ्री शिरः कम्पी तथा लिखित पाठकः ।
अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥
गाकर पढना, शीघ्रता से पढना, पढते हुए सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ जाना, अर्थ न जानकर पढना, और धीमा आवाज होना ये छे पाठक के दोष हैं ।
माधुर्यं अक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः ।
धैर्यं लयसमर्थं च षडेते पाठके गुणाः ॥
माधुर्य, स्पष्ट उच्चार, पदच्छेद, मधुर स्वर, धैर्य, और तन्मयता – ये पाठक के छे गुण हैं ।
विद्या वितर्को विज्ञानं स्मृतिः तत्परता क्रिया ।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥
विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परता, और कार्यशीलता, ये छे जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहि ।
द्यूतं पुस्तकवाद्ये च नाटकेषु च सक्तिता ।
स्त्रियस्तन्द्रा च निन्द्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥
जुआ, वाद्य, नाट्य (कथा/फिल्म) में आसक्ति, स्त्री (या पुरुष), तंद्रा, और निंद्रा – ये छे विद्या में विघ्नरुप होते हैं ।
आयुः कर्म च विद्या च वित्तं निधनमेव च ।
पञ्चैतानि विलिख्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥
आयुष्य, (नियत) कर्म, विद्या (की शाखा), वित्त (की मर्यादा), और मृत्यु, ये पाँच देही के गर्भ में हि निश्चित हो जाते हैं ।
आरोग्य बुद्धि विनयोद्यम शास्त्ररागाः ।
आभ्यन्तराः पठन सिद्धिकराः भवन्ति ॥
आरोग्य, बुद्धि, विनय, उद्यम, और शास्त्र के प्रति राग (आत्यंतिक प्रेम) – ये पाँच पठन के लिए आवश्यक आंतरिक गुण हैं ।
आचार्य पुस्तक निवास सहाय वासो ।
बाह्या इमे पठन पञ्चगुणा नराणाम् ॥
आचार्य, पुस्तक, निवास, मित्र, और वस्त्र – ये पाँच पठन के लिए आवश्यक बाह्य गुण हैं ।
दानानां च समस्तानां चत्वार्येतानि भूतले ।
श्रेष्ठानि कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा ॥
सब दानों में कन्यादान, गोदान, भूमिदान, और विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है ।
तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिल बंधनात् ।
मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम् ॥
पुस्तक कहता है कि, तैल से मेरी रक्षा करो, जल से रक्षा करो, मेरा बंधन शिथिल न होने दो, और मूर्ख के हाथ में मुझे न दो ।
दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम् ।
वित्तं दानसमेतं दुर्लभमेतत् चतुष्टयम् ॥
प्रिय वचन से दिया हुआ दान, गर्वरहित ज्ञान, क्षमायुक्त शौर्य, और दान की इच्छावाला धन – ये चार दुर्लभ है ।
अव्याकरणमधीतं भिन्नद्रोण्या तरंगिणी तरणम् ।
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतम् ॥
व्याकरण छोडकर किया हुआ अध्ययन, तूटी हुई नौका से नदी पार करना, और अयोग्य आहार के साथ लिया हुआ औषध – ये ऐसे करने के बजाय तो न करने हि बेहतर है ।
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः ।
तथा वेदं विना विप्रः त्रयस्ते नामधारकाः ॥
लकडे का हाथी, और चमडे से आवृत्त मृग की तरह वेदाध्ययन न किया हुआ ब्राह्मण भी केवल नामधारी हि है ।
गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा ।
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थी नोपलभ्यते ॥
गुरु की सेवा करके, अत्याधिक धन देकर, या विद्या के बदले में हि विद्या पायी जा सकती है; विद्या पानेका कोई चौथा उपाय नहि ।
विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः ।
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥
विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं ।
पठतो नास्ति मूर्खत्वं अपनो नास्ति पातकम् ।
मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥
पढनेवाले को मूर्खत्व नहि आता; जपनेवाले को पातक नहि लगता; मौन रहनेवाले का झघडा नहि होता; और जागृत रहनेवाले को भय नहि होता ।
अर्थातुराणां न सुखं न निद्रा कामातुराणां न भयं न लज्जा ।
विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा क्षुधातुराणां न रुचि न बेला ॥
अर्थातुर को सुख और निद्रा नहि होते; कामातुर को भय और लज्जा नहि होते । विद्यातुर को सुख व निद्रा, और भूख से पीडित को रुचि या समय का भान नहि रहेता ।
अनालस्यं ब्रह्मचर्यं शीलं गुरुजनादरः ।
स्वावलम्बः दृढाभ्यासः षडेते छात्र सद्गुणाः ॥
अनालस्य, ब्रह्मचर्य, शील, गुरुजनों के लिए आदर, स्वावलंबन, और दृढ अभ्यास – ये छे छात्र के सद्गुण हैं ।
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥
आलसी इन्सान को विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ?
पुस्तकस्या तु या विद्या परहस्तगतं धनं ।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम् ॥
पुस्तकी विद्या और अन्य को दिया हुआ धन ! योग्य समय आने पर ऐसी विद्या विद्या नहीं और धन धन नहीं, अर्थात् वे काम नहीं आते ।
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प्रशंसा सिर्फ परमेश्वर की


प्रशंसा सिर्फ परमेश्वर की ⭕
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♦ एक बार एक राजा के दरबार में एक कवि आया । कवि गुणी और प्रतिभाशाली था । पर, धन का लोभ या धन की आवश्यकता ने उसे शायद कुछ विवश कर रखा था ।

♦ राजा का संकेत मिलते ही कवि ने राजा की प्रशंसा में कविताएं सुनानी शुरु कर दीं । राजा खुश हो गया । फिर कवि का ध्यान राजसभा में उपस्थित महारानी की ओर गया । उसने सोचा इनका लाभ भी ले लिया जाए । अब उसने रानी की प्रशंसा में कविताएँ सुनानी शुरु कीं । रानी भी उसकी कविता से प्रभावित और प्रसन्न थीं । कवि ने राजा-रानी दोनों का दिल जीत लिया था ।

♦ राजा ने मन्त्री से कहा – “मन्त्री जी, इस विद्वान कवि ने हमें प्रसन्न कर दिया है ।” राजा इतना प्रसन्न था कि वह कवि को दरबार में कोई विशेष स्थान तक दे सकता था । पर, फिर भी राजा ने मन्त्री से ही कवि के योग्य उचित ईनाम पूछना चाहा । लेकिन मन्त्री कुछ चुप रहा । राजा को मन्त्री की बुद्धिमता पर अटूट विश्वास था और उसके परामर्श के बिना राजा निर्णय नहीं कर सकता था । मन्त्री था भी उस योग्य ।

♦ राजा ने दोबारा पूछा तो मन्त्री ने अनमने मन से कहा – “महाराज ! इन्होंने आपको और महारानी को अपनी रचना और मधुर गीत से प्रसन्न कर दिया है । आपको जो उचित लगे, वह पुरस्कार इन्हें दे दीजिये । इस विषय पर मेरा निर्णय शायद आपको अच्छा ना लगे ।”

♦ अब तो राजा का कौतूहल और बढ़ गया कि एक कवि को ईनाम देने की साधारण सी बात पर मन्त्री ऐसी बात क्यों कह रहा है ? हो न हो, कुछ गहरी बात जरुर है । ऐसा विचार करते हुए राजा ने घोषणा की कि “अब मन्त्री जी जो पुरस्कार निर्धारित करेंगे, वही पुरस्कार इस कवि को दे दिया जाएगा ।”

♦ कवि ने बड़ी आशा की दृष्टि से मन्त्री की ओर देखा । उसे अफसोस हो रहा था कि यदि उसे मन्त्री के इस प्रभाव का पता होता तो वह कुछ प्रशंसा इस मन्त्री की भी कर देता । फिर भी यदि यह राजा जितना पुरस्कार नहीं भी देगा, पर राजा के प्रशंसक को कुछ मूल्यवान ईनाम तो जरुर देगा ।

♦ अभी कवि इन ख्यालों में ही था कि मन्त्री ने अचानक घोषणा कर दी – “महाराज ! मेरा निर्णय है कि इस कवि को पाँच जूते लगाए जाएं ।”

♦ यह सुनकर कवि पर तो जैसे बिजली गिर गई । राजा व रानी की प्रशंसा करने वाले को जूते पड़ेगें, यह सोचकर राजा, रानी समेत सभी दरबारियों की आँखें फटी की फटी रह गईं । राजा ने तो पहले ही घोषणा कर दी थी कि जो भी मन्त्री निर्णय लेंगे, वही हम स्वीकार करेंगे । इसलिए राजा चाहकर भी मन्त्री के इस निर्णय़ से पीछे नहीं हट सकते थे और भरी सभा में कवि को पाँच जूते लगाकर छोड दिया गया ।

♦ कवि बहुत दु:खी हुआ । उसे मन्त्री पर बड़ा क्रोध आया । वह राजा पर भी क्रोधित था कि ऐसे मूर्खों को मन्त्री बनाया हुआ है । कवि ने मन ही मन सोचा कि आज या तो मैं रहूँगा या यह मन्त्री रहेगा । वह मन्त्री की हत्या का विचार करने लगा । शाम को जब मन्त्री अपने घर की ओर चला तो कवि भी पीछे-पीछे चल पड़ा ।

♦ मन्त्री को आज कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था । वह अपने घर पहुँचा और रोते हुए आज राजसभा में हुई सारी घटना अपनी पत्नी को बताने लगा । मन्त्री ने कहा – “मुझे बहुत दु:ख है कि एक विद्वान जिस पर माँ सरस्वती की असीम कृपा है, उसके साथ मुझे यह सब करना पड़ा ।”

♦ पत्नी ने पूछा कि “इसमें विवशता की क्या बात थी ? जो आपने एक योग्य कवि का अपमान किया ?”

♦ मन्त्री बोला – “परमात्मा ने उस कवि को बहुत सुन्दर बुद्धि और मधुर आवाज दी है । माँ सरस्वती ने उसमें इतने गुण भर दिए हैं कि वह इस राज्य का सम्मानित मन्त्री बनने के योग्य है । ऐसे राजा उसके सम्मान में अगवानी करें, ऐसी प्रतिभा और कला से युक्त है वह गायक कवि । परन्तु उसने अपना मोल ही नहीं समझा । आज वह एक राजा की चाटुकारिता कर रहा था । यदि आज मैं उसे पुरस्कार दिला देता तो वह ज्यादा से ज्यादा पुरस्कार की आशा में अपनी कला का प्रयोग सिर्फ राजा-रानी की प्रशंसा करने में ही लगाता रहता । इसके बाद जो राजा बनता फिर वह उसकी चाटुकारिता करते हुए जीवन बिता देता । इसकी सन्तानें भी फिर उस कार्य में लग जातीं ।

♦ मन्त्री ने पत्नी को कहा – “मैं स्वयं उस विद्वान कवि का प्रशंसक हूँ । इसलिए पाँच जूते लगवाकर मैंने उसे नर्क में जाने से बचा लिया है ।”

♦ पत्नी ने आश्चर्य में पूछा – “पाँच जूते लगाकर नर्क की राह पर जाने से आपने रोका ! वह कैसे ? साफ-साफ बताईये ।”

♦ मन्त्री ने कहा – “कवि सबसे पहले परमात्मा की प्रशंसा करता है । इसने तो राजा को ही परमात्मा मान लिया । इस विद्वान कवि ने भगवान की प्रशंसा में तो दो शब्द न कहे और राजा-रानी के लिए गाता ही चला गया । उसने जब आज भगवान की प्रशंसा में एक शब्द भी नहीं बोला तो मुझे लगा कि उसे इस अपराध की छोटी सी सजा देकर छोड़ दिया जाये । परमात्मा से विमुख होने पर यहाँ तो उसे बस पाँच जूते ही लगे और छूट गया । लेकिन भगवान के दरबार में तो यह पता नहीं कितनी सजा पाता । क्योंकि सभी को बनाने वाले वह भगवान हैं । भगवान ने ही राजा व रानी को बनाया है । इस विद्वान कवि ने भगवान के द्वारा बनाए लोगों की तो प्रशंसा की, लेकिन उसको भूल गया जिसने सबको बनाया है । अपनी चाटुकारिता से वह ऐसे राजा को पथभ्रष्ट भी तो कर सकता है ? इसका दण्ड मिलता सो अलग । अब बताओ, क्या पाँच जूते लगवाकर मैंने उसे नर्क जाने से नहीं रोका ?”

♦ बाहर खड़े कवि ने जब यह सुना तो वह रोने लगा और मन्त्री के पैरों में गिरकर प्रतिज्ञा की कि “मन्त्री जी, आज आपने मेरी आँखें खोल दीं । आज के बाद मैं सिर्फ परमेश्वर की ही महिमा गाऊँगा । आपने बहुत बड़े अपराध से मुझे बचा लिया ।”

♦ परमात्मा की प्रशंसा में यदि समर्पित हैं तो आपकी कला की भी एक न एक दिन पहचान होगी और सम्मान भी मिलेगा । हो सकता है, उस सम्मान में विलम्ब हो जाए, पर वही सम्मान स्थाई होगा । राजा के संरक्षण का सम्मान स्थाई कैसे होगा ? क्योंकि पृथ्वी की सत्ता तो बदलती रहती है, जबकि भगवान की सत्ता कभी नहीं बदलती ।
🙏🏻 गोपाल स्वामी (भागवत प्रवक्ता)
सुदामा कुटी – खैरी,
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
080591-54254.