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मेवाड़ राजवंश का संक्षिप्त इतिहास


मेवाड़ राजवंश का संक्षिप्त इतिहास

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वीर प्रसूता मेवाड की धरती राजपूती प्रतिष्ठा, मर्यादा एवं गौरव का प्रतीक तथा सम्बल है। राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी अंचल का यह राज्य अधिकांशतः अरावली की अभेद्य पर्वत श्रृंखला से परिवेष्टिता है। उपत्यकाओं के परकोटे सामरिक दृष्टिकोण के अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। >मेवाड अपनी समृद्धि, परम्परा, अधभूत शौर्य एवं अनूठी कलात्मक अनुदानों के कारण संसार के परिदृश्य में देदीप्यमान है। स्वाधिनता एवं भारतीय संस्कृति की अभिरक्षा के लिए इस वंश ने जो अनुपम त्याग और अपूर्व बलिदान दिये सदा स्मरण किये जाते रहेंगे। मेवाड की वीर प्रसूता धरती में रावल बप्पा, महाराणा सांगा, महाराण प्रताप जैसे सूरवीर, यशस्वी, कर्मठ, राष्ट्रभक्त व स्वतंत्रता प्रेमी विभूतियों ने जन्म लेकर न केवल मेवाड वरन संपूर्ण भारत को गौरान्वित किया है। स्वतन्त्रता की अखल जगाने वाले प्रताप आज भी जन-जन के हृदय में बसे हुये, सभी स्वाभिमानियों के प्रेरक बने हुए है। मेवाड का गुहिल वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। मान्यता है कि सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। श्री गौरीशंकर ओझा की पुस्तक “मेवाड़ राज्य का इतिहास” एक ऐसी पुस्तक है जिसे मेवाड़ के सभी शासकों के नाम एवं क्रम के लिए सर्वाधिक प्रमाणिक माना जाता है.

मेवाड में गहलोत राजवंश – बप्पा ने सन 734 ई० में चित्रांगद गोरी परमार से चित्तौड की सत्ता छीन कर मेवाड में गहलौत वंश के शासक का सूत्रधार बनने का गौरव प्राप्त किया। इनका काल सन 734 ई० से 753 ई० तक था। इसके बाद के शासकों के नाम और समय काल निम्न था –
  1. रावल बप्पा ( काल भोज ) – 734 ई० मेवाड राज्य के गहलौत शासन के सूत्रधार।
  2. रावल खुमान – 753 ई०
  3. मत्तट – 773 – 793 ई०
  4. भर्तभट्त – 793 – 813 ई०
  5. रावल सिंह – 813 – 828 ई०
  6. खुमाण सिंह – 828 – 853 ई०
  7. महायक – 853 – 878 ई०
  8. खुमाण तृतीय – 878 – 903 ई०
  9. भर्तभट्ट द्वितीय – 903 – 951 ई०
  10. अल्लट – 951 – 971 ई०
  11. नरवाहन – 971 – 973 ई०
  12. शालिवाहन – 973 – 977 ई०
  13. शक्ति कुमार – 977 – 993 ई०
  14. अम्बा प्रसाद – 993 – 1007 ई०
  15. शुची वरमा – 1007- 1021 ई०
  16. नर वर्मा – 1021 – 1035 ई०
  17. कीर्ति वर्मा – 1035 – 1051 ई०
  18. योगराज – 1051 – 1068 ई०
  19. वैरठ – 1068 – 1088 ई०
  20. हंस पाल – 1088 – 1103 ई०
  21. वैरी सिंह – 1103 – 1107 ई०
  22. विजय सिंह – 1107 – 1127 ई०
  23. अरि सिंह – 1127 – 1138 ई०
  24. चौड सिंह – 1138 – 1148 ई०
  25. विक्रम सिंह – 1148 – 1158 ई०
  26. रण सिंह ( कर्ण सिंह ) – 1158 – 1168 ई०
  27. क्षेम सिंह – 1168 – 1172 ई०
  28. सामंत सिंह – 1172 – 1179 ई०

(क्षेम सिंह के दो पुत्र सामंत और कुमार सिंह। ज्येष्ठ पुत्र सामंत मेवाड की गद्दी पर सात वर्ष रहे क्योंकि जालौर के कीतू चौहान मेवाड पर अधिकार कर लिया। सामंत सिंह अहाड की पहाडियों पर चले गये। इन्होने बडौदे पर आक्रमण कर वहां का राज्य हस्तगत कर लिया। लेकिन इसी समय इनके भाई कुमार सिंह पुनः मेवाड पर अधिकार कर लिया। )

  1. कुमार सिंह – 1179 – 1191 ई०
  2. मंथन सिंह – 1191 – 1211 ई०
  3. पद्म सिंह – 1211 – 1213 ई०
  4. जैत्र सिंह – 1213 – 1261 ई०
  5. तेज सिंह -1261 – 1273 ई०
  6. समर सिंह – 1273 – 1301 ई०

(समर सिंह का एक पुत्र रतन सिंह मेवाड राज्य का उत्तराधिकारी हुआ और दूसरा पुत्र कुम्भकरण नेपाल चला गया। नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं। )

35. रतन सिंह ( 1301-1303 ई० ) – इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया। प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया। गोरा – बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।
36. अजय सिंह ( 1303 – 1326 ई० ) – हमीर राज्य के उत्तराधिकारी थे किन्तु अवयस्क थे। इसलिए अजय सिंह गद्दी पर बैठे।
37. महाराणा हमीर सिंह ( 1326 – 1364 ई० ) – हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारण की । इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं।
38. महाराणा क्षेत्र सिंह ( 1364 – 1382 ई० )
39. महाराणा लाखासिंह ( 1382 – 11421 ई० ) – योग्य शासक तथा राज्य के विस्तार करने में अहम योगदान। इनके पक्ष में ज्येष्ठ पुत्र चुडा ने विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा की और पिता से हुई संतान मोकल को राज्य का उत्तराधिकारी मानकर जीवन भर उसकी रक्षा की।
40. महाराणा मोकल ( 1421 – 1433 ई० )
41. महाराणा कुम्भा ( 1433 – 1469 ई० ) – इन्होने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया बल्कि योग्य प्रशासक, सहिष्णु, किलों और मन्दिरों के निर्माण के रुप में ही जाने जाते हैं। कुम्भलगढ़ इन्ही की देन है. इनके पुत्र उदा ने इनकी हत्या करके मेवाड के गद्दी पर अधिकार जमा लिया।
42. महाराणा उदा ( उदय सिंह ) ( 1468 – 1473 ई० ) – महाराणा कुम्भा के द्वितीय पुत्र रायमल, जो ईडर में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे, आक्रमण करके उदय सिंह को पराजित कर सिंहासन की प्रतिष्ठा बचा ली। अन्यथा उदा पांच वर्षों तक मेवाड का विनाश करता रहा।
43. महाराणा रायमल ( 1473 – 1509 ई० ) – सबसे पहले महाराणा रायमल के मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन को पराजित किया और पानगढ, चित्तौड्गढ और कुम्भलगढ किलों पर पुनः अधिकार कर लिया पूरे मेवाड को पुनर्स्थापित कर लिया। इसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि कुछ समय के लिये बाह्य आक्रमण के लिये सुरक्षित हो गया। लेकिन इनके पुत्र संग्राम सिंह, पृथ्वीराज और जयमल में उत्तराधिकारी हेतु कलह हुआ और अंततः दो पुत्र मारे गये। अन्त में संग्राम सिंह गद्दी पर गये।
44. महाराणा सांगा ( संग्राम सिंह ) ( 1509 – 1527 ई० ) – महाराणा सांगा उन मेवाडी महाराणाओं में एक था जिसका नाम मेवाड के ही वही, भारत के इतिहास में गौरव के साथ लिया जाता है। महाराणा सांगा एक साम्राज्यवादी व महत्वाकांक्षी शासक थे, जो संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार करना चाहते थे। इनके समय में मेवाड की सीमा का दूर – दूर तक विस्तार हुआ। महाराणा हिन्दु रक्षक, भारतीय संस्कृति के रखवाले, अद्वितीय योद्धा, कर्मठ, राजनीतीज्ञ, कुश्ल शासक, शरणागत रक्षक, मातृभूमि के प्रति समर्पित, शूरवीर, दूरदर्शी थे। इनका इतिहास स्वर्णिम है। जिसके कारण आज मेवाड के उच्चतम शिरोमणि शासकों में इन्हे जाना जाता है।
45. महाराणा रतन सिंह ( 1528 – 1531 ई० )
46. महाराणा विक्रमादित्य ( 1531 – 1534ई० ) – यह अयोग्य सिद्ध हुआ और गुजरात के बहादुर शाह ने दो बार आक्रमण कर मेवाड को नुकसान पहुंचाया इस दौरान 1300 महारानियों के साथ कर्मावती सती हो गई। विक्रमादित्य की हत्या दासीपुत्र बनवीर ने करके 1534 – 1537 तक मेवाड पर शासन किया। लेकिन इसे मान्यता नहीं मिली। इसी समय सिसोदिया वंश के उदय सिंह को पन्नाधाय ने अपने पुत्र की जान देकर भी बचा लिया और मेवाड के इतिहास में प्रसिद्ध हो गई।
47. महाराणा उदय सिंह ( 1537 – 1572 ई० ) – मेवाड़ की राजधानी चित्तोड़गढ़ से उदयपुर लेकर आये. गिर्वा की पहाड़ियों के बीच उदयपुर शहर इन्ही की देन है. इन्होने अपने जीते जी गद्दी ज्येष्ठपुत्र  जगमाल को दे दी, किन्तु उसे सरदारों ने नहीं माना, फलस्वरूप छोटे बेटे प्रताप को गद्दी मिली.

48. महाराणा प्रताप ( 1572 -1597 ई० ) – इनका जन्म 9 मई 1540 ई० मे हुआ था। राज्य की बागडोर संभालते समय उनके पास न राजधानी थी न राजा का वैभव, बस था तो स्वाभिमान, गौरव, साहस और पुरुषार्थ। उन्होने तय किया कि सोने चांदी की थाली में नहीं खाऐंगे, कोमल शैया पर नही सोयेंगे, अर्थात हर तरह विलासिता का त्याग करेंगें। धीरे – धीरे प्रताप ने अपनी स्थिति सुधारना प्रारम्भ किया। इस दौरान मान सिंह अकबर का संधि प्रस्ताव लेकर आये जिसमें उन्हे प्रताप के द्वारा अपमानित होना पडा।
परिणाम यह हुआ कि 21 जून 1576 ई० को हल्दीघाटी नामक स्थान पर अकबर और प्रताप का भीषण युद्ध हुआ। जिसमें 14 हजार राजपूत मारे गये। परिणाम यह हुआ कि वर्षों प्रताप जंगल की खाक छानते रहे, जहां घास की रोटी खाई और निरन्तर अकबर सैनिको का आक्रमण झेला, लेकिन हार नहीं मानी। ऐसे समय भीलों ने इनकी बहुत सहायता की।अन्त में भामा शाह ने अपने जीवन में अर्जित पूरी सम्पत्ति प्रताप को देदी। जिसकी सहायता से प्रताप चित्तौडगढ को छोडकर अपने सारे किले 1588 ई० में मुगलों से छिन लिया। 19 जनवरी 1597 में चावंड में प्रताप का निधन हो गया।

49. महाराणा अमर सिंह -(1597 – 1620 ई० ) – प्रारम्भ में मुगल सेना के आक्रमण न होने से अमर सिंह ने राज्य में सुव्यवस्था बनाया। जहांगीर के द्वारा करवाये गयें कई आक्रमण विफ़ल हुए। अंत में खुर्रम ने मेवाड पर अधिकार कर लिया। हारकर बाद में इन्होनें अपमानजनक संधि की जो उनके चरित्र पर बहुत बडा दाग है। वे मेवाड के अंतिम स्वतन्त्र शासक है।
50. महाराणा कर्ण सिद्ध ( 1620 – 1628 ई० ) –
इन्होनें मुगल शासकों से संबंध बनाये रखा और आन्तरिक व्यवस्था सुधारने तथा निर्माण पर ध्यान दिया।
51.महाराणा जगत सिंह ( 1628 – 1652 ई० )
52. महाराणा राजसिंह ( 1652 – 1680 ई० ) – यह मेवाड के उत्थान का काल था। इन्होने औरंगजेब से कई बार लोहा लेकर युद्ध में मात दी। इनका शौर्य पराक्रम और स्वाभिमान महाराणा प्रताप जैसे था। इनकों राजस्थान के राजपूतों का एक गठबंधन, राजनितिक एवं सामाजिक स्तर पर बनाने में सफ़लता अर्जित हुई। जिससे मुगल संगठित लोहा लिया जा सके। महाराणा के प्रयास से अंबेर, मारवाड और मेवाड में गठबंधन बन गया। वे मानते हैं कि बिना सामाजिक गठबंधन के राजनीतिक गठबंधन अपूर्ण और अधूरा रहेगा। अतः इन्होने मारवाह और आमेर से खानपान एवं वैवाहिक संबंध जोडने का निर्णय ले लिया। राजसमन्द झील एवं राजनगर इन्होने ही बसाया.
53. महाराणा जय सिंह ( 1680 – 1698 ई० ) – जयसमंद झील का निर्माण करवाया.
54. महाराणा अमर सिंह द्वितीय ( 1698 – 1710 ई० ) – इसके समय मेवाड की प्रतिष्ठा बढी और उन्होनें कृषि पर ध्यान देकर किसानों को सम्पन्न बना दिया।
55. महाराणा संग्राम सिंह ( 1710 – 1734 ई० ) –
महाराणा संग्राम सिंह दृढ और अडिग, न्यायप्रिय, निष्पक्ष, सिद्धांतप्रिय, अनुशासित, आदर्शवादी थे। इन्होने 18 बार युद्ध किया तथा मेवाड राज्य की प्रतिष्ठा और सीमाओं को न केवल सुरक्षित रखा वरन उनमें वृध्दि भी की।
56. 
महाराणा जगत सिंह द्वितीय ( 1734 – 1751 ई० ) – ये एक अदूरदर्शी और विलासी शासक थे। इन्होने जलमहल बनवाया। शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को अपना “पगड़ी बदल” भाई बनाया और उन्हें अपने यहाँ पनाह दी.
57.
महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय ( 1751 – 1754 ई० )
58. महाराणा राजसिंह द्वितीय ( 1754 – 1761 ई० )
59. महाराणा अरिसिंह द्वितीय ( 1761 – 1773 ई० )
60.
महाराणा हमीर सिंह द्वितीय ( 1773 – 1778 ई० ) – इनके कार्यकाल में सिंधिया और होल्कर ने मेवाड राज्य को लूटपाट करके तहस – नहस कर दिया।
61. महाराणा भीमसिंह ( 1778 – 1828 ई० ) –
इनके कार्यकाल में भी मेवाड आपसी गृहकलह से दुर्बल होता चला गया।  13 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी और मेवाड राज्य में समझौता हो गया। अर्थात मेवाड राज्य ईस्ट इंडिया के साथ चला गया।मेवाड के पूर्वजों की पीढी में बप्पारावल, कुम्भा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे तेजस्वी, वीर पुरुषों का प्रशासन मेवाड राज्य को मिल चुका था। प्रताप के बाद अधिकांश पीढियों में वह क्षमता नहीं थी जिसकी अपेक्षा मेवाड को थी। महाराजा भीमसिंह योग्य व्यक्ति थे\ निर्णय भी अच्छा लेते थे परन्तु उनके क्रियान्वयन पर ध्यान नही देते थे। इनमें व्यवहारिकता का आभाव था।ब्रिटिश एजेन्ट के मार्गदर्शन, निर्देशन एवं सघन पर्यवेक्षण से मेवाड राज्य प्रगति पथ पर अग्रसर होता चला गया।
62.
महाराणा जवान सिंह ( 1828 – 1838 ई० ) – निःसन्तान। सरदार सिंह को गोद लिया ।
63. महाराणा सरदार सिंह ( 1838 – 1842 ई० ) – निःसन्तान। भाई स्वरुप सिंह को गद्दी दी.
64. 
महाराणा स्वरुप सिंह ( 1842 – 1861 ई० ) – इनके समय 1857 की क्रान्ति हुई। इन्होने विद्रोह कुचलने में अंग्रेजों की मदद की।
65. महाराणा शंभू सिंह ( 1861 – 1874 ई० ) – 
1868 में घोर अकाल पडा। अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढा।
66 .
महाराणा सज्जन सिंह ( 1874 – 1884 ई० ) – बागोर के महाराज शक्ति सिंह के कुंवर सज्जन सिंह को महाराणा का उत्तराधिकार मिला।  इन्होनें राज्य की दशा सुधारनें में उल्लेखनीय योगदान दिया।
67. महाराणा फ़तह सिंह ( 1883 – 1930 ई० ) – सज्जन सिंह के निधन पर शिवरति शाखा के गजसिंह के अनुज एवं दत्तक पुत्र फ़तेहसिंह को महाराणा बनाया गया। फ़तहसिंह कुटनीतिज्ञ, साहसी स्वाभिमानी और दूरदर्शी थे। संत प्रवृति के व्यक्तित्व थे. इनके कार्यकाल में ही किंग जार्ज पंचम ने दिल्ली को देश की राजधानी घोषित करके दिल्ली दरबार लगाया. महाराणा दरबार में नहीं गए . 
68. महाराणा भूपाल सिंह (1930 – 1955 ई० ) –
इनके समय  में भारत को स्वतन्त्रता मिली और भारत या पाक मिलने की स्वतंत्रता। भोपाल के नवाब और जोधपुर के महाराज हनुवंत सिंह पाक में मिलना चाहते थे और मेवाड को भी उसमें मिलाना चाहते थे। इस पर उन्होनें कहा कि मेवाड भारत के साथ था और अब भी वहीं रहेगा। यह कह कर वे इतिहास में अमर हो गये। स्वतंत्र भारत के वृहद राजस्थान संघ के भूपाल सिंह प्रमुख बनाये गये।
69. महाराणा भगवत सिंह ( 1955 – 1984 ई० )
70. श्रीजी अरविन्दसिंह एवं महाराणा महेन्द्र सिंह (1984 ई० से निरंतर..)


इस तरह 556 ई० में जिस गुहिल वंश की स्थापना हुई बाद में वही सिसोदिया वंश के नाम से जाना गया । जिसमें कई प्रतापी राजा हुए, जिन्होने इस वंश की मानमर्यादा, इज्जत और सम्मान को न केवल बढाया बल्कि इतिहास के गौरवशाली अध्याय में अपना नाम जोडा । यह वंश कई उतार-चढाव और स्वर्णिम अध्याय रचते हुए आज भी अपने गौरव और श्रेष्ठ परम्परा के लिये जाना पहचाना जाता है। धन्य है वह मेवाड और धन्य सिसोदिया वंश जिसमें ऐसे ऐसे अद्वीतिय देशभक्त दिये।

(साभार – मेवाड़ राजवंश का इतिहास – गौरीशंकर ओझा)

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महाराणा प्रताप


 

सपने में भी महाराया। प्रताप से कांपता था अकबर. हो जाता था पसीना-पसीना

तीर योद्धा महाराणा प्रताप और मुगल बादशाह अकबर के बीच हल्दीघाटी में हुए युद्ध के बाद अकबर मानसिक से रूप से ब त विचलित हो गया था । अपने हरम में जब यह सोता था तय रात में नीद में कांपने लगता था । अकबर की हालात देख उसकी पतियों भी घबरा जाती. इस दौरान यह जोर-जोर से से महाराणा प्रताप का नाम रोता था । हल्दीघाटी की
मिट्ठी का रंग हल्दी की तरह चीता है । यहीं पर महाराणा प्रताप की सेना ने अकबर की फोज को नाको चने चबाने मजबूर कर था । 1 8 जून 1 576 में मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर के बीच भीषण युद्ध हुआ था । इस लड़ाई में न अकबर जीता और न महाराया। प्रताप हारे । कई दौर में हुए इस युद्ध के बारे में कहा जाता हैकि 11
अकबर_महाराणाप्र ताप-के-युद्ध-को शल_से इतना_घबरा _गया_था_कि_उसेसपने में महाराणा प्रताप दिष्ट्रते थे। अकबर सोते समय कांपने के साथ महाराया। प्रताप का नाम लेकर कांपने लगता था ।

हल्दीघाटी का ख्या-ख्या प्रताप की सेना के शोयें, पालम और यतिदानों की कहानी कहता है। रणभूमि की कसौटी पर राजपूतों के कर्तव्य और तीस्ता के जले की परख हुई थी । मेवाड़ के राजा राणा उदय सिंह और महारानी जयवंता दाई के पुत्र माप” प्रताप सिसोदिया क्या के अकेले ऐसे राजपूत राजा ये जिन्होंने मुगल सम्राट अकबर की आधीनता
अस्वीकार करने का साहस दिखाया था और जब तक जीवित रहे अकबर की चेन से नहीं रहने दिया ।

महाराणा प्रताप का जन्म कुम्मलज्जाढ़ के किले में हुआ था । उनका बचपन चित्तोड़ में बीता । बचपन से निडर. साहसी और माता चलाने में निपुण महाराणा प्रताप ने एक बार तो जागल में मोर से ही भिड़ गए ये और उसे मार दिया था । अपनी मातृभूमि मेवाड़ को अकबर के हाथों जाने से बचाने के लिए माप” प्रताप ने एक बड्री सूना तैयार की थी जिसमें
अधिकतर भील लड़ाके थे। यह 11 गुरित्ता-युद्धर्मले महारत रखते थे।

अकबर की फौज बडी और मजबूत होने के साथ उसके पास उस दौर के हर आधुनिक हथियार थे। इधर. महाराणा प्रताप की सेना संख्या में कम थी और उनके पास घोडों की संख्या ज्यादा थी । अकबर की सेना गोकुंडा तक पहुंचने की तैयारी में थी । हल्दीघाटी के यास ही खुले में उसने अपने खेमे लगाए थे। महाराणा प्रताप की सेना ने गुरिल्ला पद्धति से
युद्ध करके अकबर की सेना में भगदड़ मचा दी । अकबर की बडी सेना लगभग पांच किलोमीटर पीछे हट गई। जहाँ खुले मैदान में महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच पांच घंटे तक भयंकर युद्ध आ।

इस युद्ध में लगभग 1 8 हजार सेनिक मारे गए। इतना यहा कि इस जगह का नाम ही रक्त तराई पड़ गया । महाराणा प्रताप के खिलाफ इस द्ध में अकबर की सेना का नेतृत्व सेनापति मानसिंह कर थे। जौ हाथी पर सवार थे। महाराणा अपने तीर घोड़े चेतक पर सवार होकर रपाभूमि में जाए थे. ये घोड़ा बहुत तेज अता था ।

दुत सेना में हाथियों की संख्या ज्यादा होने के कारण (घोडे) के सिर पर हाथी का मुखौटा बांधा गया था ताकि हाथियों को भरमाया जा । कहा जता है कि चेतक पर सवार माप” प्रताप एक के बाद एक दुश्मनों का सफाया करते हुए सेनापति मानसिंह के हाथी के सामने पहुंच गए ये । उस हाथी की में तलवार बंधी थी । महाराणा ने चेतक

एव लगाई और गो सीधा मानसिंह के हाथी के मस्तक पर चढ़ गया । मानसिंह होदे में छिप गया और राणा के वार से महावत मारा गया । हाथी से उतरते समय चेतक का एक पैर हाथी की में बंधी तलवार से कट गया ।

चेतक का पांव कटने के बाद महाराणा प्रताप दुश्मन की सेना से धिर गए थे। महाराणा को दुश्मनों से घिस्ता देख 11 सादड्री_सरदार_झा रामल्ला-सिधि-उरी तरु-पहु-प्राय और उन्होंने राणा की पगड्री और छन्न जबरन पहन लिए। उन्होंने महाराया। से कहा कि एक झाला के मरने से कुछ नहीं होगा । अगर जाप बच गए तो कई और झाला तेयार हो जाएगे ।
राणा का छत्र और पगड्री पाने झाला को ही राणा समझकर मुगल सेना उनसे भिड़ गई और महाराया। प्रताप बच कर निकल गए। झाला मान वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी वजह से महाराणा जिदा रहे ।

महाराणा प्रताप का घोडा चेतक अपना एक पैर कटा होने के दाव द महाराणा को सुरक्षित रयान पर जाने के लिए विना स्के पांच जित्गेमीटर तक दौड़। । यहा तक कि उसने रास्ते में पड़ने वाले 1 00 मीटर के बरसाती नाले को भी एक छलांग में यार कर शिया । राणा को सुरक्षित रयान पर पहुंचने के बाद ही चेतक ने अपने प्राण छोड़े । जहा चेतक ने प्राण
छोडे यहां चेतक समाधि है। में विजय मले ही अकबर को लेकिन इतिहास में नाम अमर हुआ महाराणा प्रताप की वीरता. चेतक की रवामीमक्ति और 11 झालामान_के_बलिद ८ .:1न_का ।

इस युद्ध में अपने प्रियजनों. . जैनियों और घोडे चेतक को खोने के बाद महाराणा प्रताप ने प्ररग जिया था कि गो जब तक मेवाड़ वापस प्राप्त नहीं कर होते बास की रोटी खाएँगे और जमीन पर सोएगे । जपने जीवनकाल में उन्होंने जपना यह प्रण निभाया और अकबर की पीना से युद्ध करते रहे । उनके जीते जी अकबर कभी चेन से नहीं रह पाया और
मेवाड़ को अपने आधीन नहीं कर सका । 59 वर्ष की उम में महाराणा ने चावंड में अपनी अंतिम कांस ली ।

महाराणा प्रताप की अनसुनी बातें

चित्तोड़ की हल्दी घाटी में चेतक की समाधि बनी ई है। चेतक का अंतिम सरकार महाराया। प्रताप और उनके माई शक्ति सिंह ने जिया था । महाराणा प्रताप के भाले का और कवच का वजन 80 किलो था । महाराणा प्रताप की तलवार कवच आदि सामान उदयपुर राजघराने के संग्रहालय में रखै हुए है। मेवाड़ राजघराने के वारिस को एकलिरा जी भगवन
का दीवान माना जता है । 11 छत्रपति_मि।वाजी_ 1दु_मूल_रूप_से_म रेंवाड़_से_थेवीर शिवाजी के पर 11 दादा_उदैपुर_महा राणा_के_छोटे_भा ई_थे ।

शासनकाल : है 568-4 597

जन्म : 9 मई. ही 540

जन्मस्थान : कुंम्भलगढ़. जूनी कचेरी, पाली

: (9 जनवरी. 4597 (उम्र 57)
महाराणा : महाराणा उदय सिंह द्वितीय

वश : 3 देते और 2 रोटियां

राज घराना : सुर्यवंशी

पिता ] महाराणा उदय सिंह

माता ] महारानी जवंता दाई

बचपन का नाम था क्रीका और की थीं 11 शादियां

महाराणा प्रताप को बचपन में क्रीका के नाम से पुकारा जता था । महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में हुआ। महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल 1 है शादियों की थीं।

11 महारानीअजत्थे पंवार :- अमरसिंह और भगवानदास

11 अमरबाईराठोर – नत्या

11 प्राहमतिदाई हाडा- पुरा

11 अलमदेबाईचोंहान – जसवंत सिंह

11 रत्नावतीबाई परमार- माल

11 लखम्बाई- रायमाना

11 जगेदाईत्हिन – कल्यश्यादास

11 चंपाबाईजंथी – कचरा. सनाशत्तदास और दुर्जन सिंह

11 सोलनखिनी स्वाई – साशा और गोपाल
11 – चंदा और शिखा
की आशाबाई – हल्दी और राम सिंह

।।श्री७।।निट स्ता0!05 ३ (0 0668111७612015 …

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महाराण प्रताप


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9 मई को महाराणा प्रताप का जन्म राजस्थान के कुम्भलगढ में महाराणा उदयसिंह के घर हुआ था। प्रताप ऐसे योद्धा थे, जो कभी मुगलों के आगे नहीं झुके। उनका संघर्ष इतिहास में अमर है। महाराणा प्रताप मेवाड़ के महान हिंदू शासक थे। सोलहवीं शताब्दी के राजपूत शासकों में महाराणा प्रताप ऐसे शासक थे, जो अकबर को लगातार टक्कर देते रहे।

भारत का हर बच्चा उनके बारे में पढ़ते हुए बड़ा हुआ है। इसके बावजूद उनके बारे में कुछ बातें ऐसी हैं जो सुनने में तो असंभव लगती हैं, लेकिन हकीकत में सच हैं। हम आपको इस महान योद्धा के बारे में कुछ रोचक बाते बताने जा रहा हैं।

महाराण प्रताप से जुड़ी खास बातें

  • हल्दीघाटी का युद्ध मुगल बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को लड़ा गया था। अकबर और राणा के बीच यह युद्ध महाभारत युद्ध की तरह विनाशकारी सिद्ध हुआ था।
  • ऐसा माना जाता है कि हल्दीघाटी के युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे। मुगलों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति की कोई कमी नहीं थी।
  • महाराणा प्रताप का भाला 81 किलो वजन का था और उनके छाती का कवच 72 किलो का था। उनके भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन मिलाकर 208 किलो था।
  • आपको बता दें हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के पास सिर्फ 20000 सैनिक थे और अकबर के पास 85000 सैनिक। इसके बावजूद महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे।
  • कहते हैं कि अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिए 6 शान्ति दूतों को भेजा था, जिससे युद्ध को शांतिपूर्ण तरीके से खत्म किया जा सके, लेकिन महाराणा प्रताप ने यह कहते हुए हर बार उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया कि राजपूत योद्धा यह कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता।
  • महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल 11 शादियां की थीं। कहा जाता है कि उन्होंने ये सभी शादियां राजनैतिक कारणों से की थीं।
  • महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। प्रताप इनका और राणा उदय सिंह इनके पिता का नाम था।
  • महाराणा प्रताप का घोड़ा, चेतक हवा से बातें करता था। उसने हाथी के सिर पर पैर रख दिया था और घायल प्रताप को लेकर 26 फीट लंबे नाले के ऊपर से कूद गया था।
  • हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले सिर्फ एक मुस्लिम सरदार था -हकीम खां सूरी।
  • प्रताप का वजन 110 किलो और हाईट 7 फीट 5 इंच थी।
  • महाराणा प्रताप की तलवार कवच आदि सामान उदयपुर राज घराने के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित हैं।
  • अकबर ने राणा प्रताप को कहा था की अगर तुम हमारे आगे झुकते हो तो आधा भारत आप का रहेगा, लेकिन महाराणा प्रताप ने कहा मर जाऊँगा लेकिन मुगलों के आगे सर नही नीचा करूंगा।
  • प्रताप का सेनापति सिर कटने के बाद भी कुछ देर तक लड़ता रहा था।
  • प्रताप ने मायरा की गुफा में घास की रोटी खाकर दिन गुजारे थे।
  • महाराणा प्रताप हमेशा दो तलवार रखते थे एक अपने लिए और दूसरी निहत्थे दुश्मन के लिए।
  • अकबर ने एक बार कहा था की अगर महाराणा प्रताप और जयमल मेड़तिया मेरे साथ होते तो हम विश्व विजेता बन जाते।
  • अकबर महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु था, पर उनकी मौत का समाचार सुन अकबर रोने लगा था क्योंकि ह्रदय से वो महाराणा प्रताप के गुणों का प्रशंसक था और अकबर जनता था कि महाराणा जैसा वीर इस धरती पर कोई नहीं है।
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महाराणा प्रताप


महाराणा प्रताप का नाम आते ही जेहन में घोड़े पर बैठे, हाथ में भाला थामे, युद्ध की पोशाक पहने एक वीर योद्धा का चित्र उभरता है। जेहन में उठी ये तस्वीर ही महाराणा प्रताप का असली प्रताप है। यह उस वीर योद्धा की असली कहानी है जिसने अपनी माटी के लिए जी-जान लगा दी लेकिन मुगलों की दासता स्वीकार नहीं की। जिसने घास की रोटी खाना पसंद किया लेकिन अकबर के दरबार में सेनापति का ओहदा गवारा नहीं किया।

जन्म और बचपन

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को मेवाड़ क्षेत्र में उदयपुर के सिसोदिया राजवंश में हुआ। उनका जन्म राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। उनके पिता महाराणा उदयसिंह और माता रानी जीवत कंवर थीं। जीवत बाई का नाम कहीं कहीं जैवन्ताबाई भी उल्लेखित किया गया है। जैवन्ताबाई पाली के सोनगरा राजपूत अखैराज की बेटी थीं। प्रताप का बचपन का नाम कीका था। उनका राज्याभिषेक गोगुंदा में हुआ। महाराणा प्रताप मेवाड़ ही नहीं बल्कि राजपूताना के दिलेर राजाओं में से एक थे।

कुंभलगढ़ के बारे में

kumbhal garhकुंभलगढ आज भी राजसमंद में स्थित एक शानदार दुर्ग है। यह कई पहाड़ियों पर फैला एक विस्तृत और अजेय दुर्ग है। इस दुर्ग का निर्माण महाराजा कुंभा ने कराया था। गगनचुंबी इस दुर्ग में कभी कोई सेना राणा कुंभा को परास्त नहीं कर सकी थी। आज भी राजसमंद जिले में कुंभलगढ़ पूरी आन-बान-शान से खड़ा है।

संघर्ष और शान

महाराणा ने कभी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। महाराणा को मनाने के लिए अकबर ने जलाल सिंह, मानसिंह, भगवानदास और टोडरमल जैसे राजपूतों को उनके पास भेजा लेकिन महाराणा ने स्वतंत्रता की सूखी रोटी को गुलामी के मेवे से ज्यादा स्वादिष्ट बताकर दूतों को खाली हाथ लौटा दिया और अकबर से शत्रुता साध ली। इस शत्रुता की बदौलत उन्होंने कई वर्षों तक मुगल बादशाह अकबर के साथ संघर्ष किया। महाराणा प्रताप ने 1576 में मुगल सेना का डटकर मुकाबला किया। इस युद्ध को हल्दीघाटी का युद्ध कहा जाता है। वर्तमान में यह स्थान उदयपुर से राजसमंद जाते हुए रास्ते में आता है। इस पहाड़ी क्षेत्र की मिट्टी हल्दी के रंग की होने के कारण इसे हल्दीघाटी कहा जाता है। महाराणा प्रताप इस युद्ध में महज बीस हजार राजपूत सैनिकों को साथ लेकर अस्सी हजार की मुगल सेना से भिड़ गए थे। मुगल सेना का प्रतिनिधित्व राजा मानसिंह कर रहे थे। मुगल सेना ने महाराणा को चारों ओर से घेर लिया तो अपने राणा को फंसा देख एक राजपूत सरदार शक्तिसिंह बीच में कूद पड़ा और खुद ने मेवाड़ का झंडा और मुकुट धारण कर लिया। मुगल सेना उसे महाराणा प्रताप समझ बैठी और महाराणा प्रताप शत्रु सेना से दूर निकल गए।

हल्दीघाटी युद्ध

haldighati youdhहल्दीघाटी का युद्ध 21 जून 1576 में मेवाड़ और मुगलों के बीच हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का प्रतिनिधित्व महाराणा प्रताप ने और मुगल सेना का प्रतिनिधित्व राजा मानसिंह और आसफ खां ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार हकीम खां सूरी थे। हल्दीघाटी का युद्ध केवल एक दिन चला। लेकिन इस युद्ध में दोनो ओर के करीब 17 हजार सैनिक मारे गए। कहा जाता है कि हल्दीघाटी का युद्धस्थल पूरी तरह रक्त से भीग गया था। वहां का मिट्टी लाल हो गई थी। इस क्षेत्र में आज बड़ी मात्रा में गुलाब उगाए जाते हैं। इन गुलाबों को क्षत्री गुलाब कहा जाता है, हल्दीघाटी के निकट प्रसिद्ध धार्मिक स्थल नाथद्वारा में इन्हीं क्षत्री गुलाबों से गुलकंद बनाया जाता है। मेवाड़ को जीतने के लिए अकबर ने भरसक प्रयास किए लेकिन वह सफल नहीं हो सका। फिर भी अकबर ने मेवाड़ का बहुत बड़ा हिस्सा दबा लिया और महाराणा को दर-ब-दर भटकना पड़ा। इस बीच मेवाड़ के एक बड़े रईस भामाशाह ने अपनी सारी दौलत महाराणा प्रताप को एक बार फिर अपनी सेना जुटाने के लिए भेंट कर दी। हल्दीघाटी युद्ध का आंखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनी ने किया है। इस युद्ध को आसफ खां ने जेहाद कहा था और बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर महाराणा की रक्षा की थी।

गुलामी से बढ़कर थी घास की रोटी

युद्ध के बाद महाराणा ने हार स्वीकार नहीं की और अपनी महारानी व पुत्र-पुत्री के साथ जंगलों में भटकते रहे। उनके साथ वफादार भील सैनिकों की भी एक टोली थी। महाराणा ने जंगल में रहकर घास की रोटियां खाईं। भील सैनिकों ने प्रण किया कि जब तक राज वापस नहीं मिल जाता तब तक अपना घर में निवास नहीं करेंगे। आज भी भील राजपूत गाडिया लोहारों के रूप में दर दर भटकते हैं। कहा जाता है कि दिल्ली का बादशाह अकबर उन्हें सेनापति का ओहदा देने को तैयार था लेकिन महाराणा ने गुलामी स्वीकार नहीं की। महाराणा प्रताप को कभी यह गवारा नहीं था कि वे मुगल सेना में एक पद लेकर अपना राज गिरवी रख दें या अकबर से अपनी बहू-बेटी ब्याह कर अपनी रक्षा करें। इसलिए सैन्य बल कम होने के बावजूद वे अकबर की सेना से भिड़ गए। उनकी इस भावना की कद्र अकबर ने भी की थी। उन्होंने प्रण किया था कि जब तक राज वापस नहीं मिल जाता तब तक वे न तो पात्रों में भोजन करेंगे और न शैया पर सोएंगे। महाराणा का अपनी जमीं से प्रेम इसी प्रतीज्ञा में झलकता है।

चेतक का बलिदान

chetak samadhiमहाराणा का जीवन बचाने में उनके प्रिय घोड़े चेतन ने भी बलिदान दिया। महाराणा चेतक पर सवार हल्दीघाटी के युद्धक्षेत्र से दूर जा रहे थे। चेतक घायल था लेकिन पूरे दमखम से दौड़ रहा था। एक जगह आकर चेतक रुक गया। सामने बरसाती नाला था। यह एक ऊंचा स्थल था। शत्रु सेना पीछा करते हुए काफी करीब आ गई थी। चेतन ने स्वामी की जान बचाने के लिए नाले के ऊपर से छलांग लगा दी। महाराणा सकुशल थे लेकिन घायल चेतक ने वहीं दम तोड़ दिया। आज भी हल्दीघाटी में चेतक का समाधिस्थल बना हुआ है, इसी स्थल के करीब महाराणा की गुफा भी है। जहां वे राजपूत सरदारों के साथ गुप्त मीटिंग किया करते थे।

भामाशाह का दान

bhamashahभामाशाह ने इतना दान दिया था कि पच्चीस हजार सैनिकों का पालन पोषण 12 साल तक किया जा सके। इतिहास के सबसे बड़े दानों में यह एक है। यह दान देकर महाराणा प्रताप के साथ भामाशाह भी अमर हो गए। कहा जाता है कि भामाशाह से अकूत संपत्ति और सहायता मिलने के बाद महाराणा ने एक बार फिर सैन्य बल तैयार किया और मुगलों से अपनी जमीन वापस छीन ली। इसके बाद उन्होंने मेवाड़ पर 24 साल तक राज किया और उदयपुर को अपनी राजधानी बनाया।

वफादारी की मिसाल

वनवास के दौरान स्वामिभक्त भीलों ने महाराणा का भरपूर साथ दिया। महाराणा को अपनी चिंता नहीं थी। लेकिन उनके साथ छोटे बच्चे भी थे। उनकों चिंता थी कि बच्चे शत्रुओं के हाथों न लग जाएं। एक बार ऐसा हुआ भी मुगल सेना की एक टुकड़ी ने महाराणा के पुत्र को अपने कब्जे में ले लिया। लेकिन निर्भीक और बहादुर भील सैनिकों ने छापामार युद्ध कर महाराणा के पुत्र की रक्षा की और राजकुमार को लेकर काफी समय तक जावरा की खानों में छुपे रहे। आज भी जावरा और चावंड के घने जंगलों में पेड़ों पर लोहे के मजबूत कीले ठुके मिलते हैं। इन वृक्षों पर कीलों में टोकरा बांधकर वे उसमें महाराजा के बच्चों को छुपा दिया करते थे ताकि शत्रुओं के साथ साथ जंगली जानवरों से भी मेवाड़ के उत्तराधिकारियों की रक्षा हो सके।

महाराणा ने अपने प्रण को तब तक निभाया जब तक वापस अपना राज्य हासिल न कर लिया। 29 जनवरी 1597 को इस वीर राजपूत ने अंतिम सांस ली, लेकिन सदा की खातिर अमर होने के लिए। आज भी राजसमंद की हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप म्यूजियम प्रताप की आन बान और शान की कहानी कह रहा है। यह स्थल दर्शनीय है। घाटी की मिट्टी आज भी हल्दी के रंग की है। यह स्थान उदयपुर से एक घंटे की दूरी पर है।

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महाराणा प्रताप


Sujeet Tiwari


महाराणा प्रताप को घास की रोटी
अपने बच्चों के लिए सेंकनी पड़ी …और उसे
भी एक जंगली बिलाव झपट्टा मारकर ले
भागा, उसके बाद पूरा परिवार भूखा सो
गया.. . महाराणा की आँखों में आँसू आ
गए….पर उन्होंने अकबर की अधीनता
स्वीकार नहीं की..!! . अब आप सभी
बताइए…. . क्या जंगल में महाराणा
प्रताप को चार खरगोश नहीं मिल रहे थे
पकाने को ?? या उनका भाला एक भैंसा
नहीं मार सकता था..?? . यह कथा भी
सिद्ध करती है….महापुरुष,महायोद्धा
भी मांसाहारी नहीं थे .।।” .

कंद-मूल खाने वालों से
मांसाहारी डरते थे।।

पोरस जैसे शूर-वीर को
नमन ‘सिकंदर’ करते थे॥

चौदह वर्षों तक खूंखारी
वन में जिसका धाम था।।

मन-मन्दिर में बसने वाला
शाकाहारी राम था।।

चाहते तो खा सकते थे वो
मांस पशु के ढेरो में।।

लेकिन उनको प्यार मिला
‘ शबरी’ के जूठे बेरो में॥

चक्र सुदर्शन धारी थे
गोवर्धन पर भारी थे॥

मुरली से वश करने वाले
‘गिरधर’ शाकाहारी थे॥

पर-सेवा, पर-प्रेम का परचम
चोटी पर फहराया था।।

निर्धन की कुटिया में जाकर
जिसने मान बढाया था॥

सपने जिसने देखे थे
मानवता के विस्तार के।।

नानक जैसे महा-संत थे
वाचक शाकाहार के॥

उठो जरा तुम पढ़ कर देखो
गौरवमय इतिहास को।।

आदम से गाँधी तक फैले
इस नीले आकाश को॥

दया की आँखे खोल देख लो
पशु के करुण क्रंदन को।।

इंसानों का जिस्म बना है
शाकाहारी भोजन को॥

अंग लाश के खा जाए
क्या फ़िर भी वो इंसान है?

पेट तुम्हारा मुर्दाघर है
या कोई कब्रिस्तान है?

आँखे कितना रोती हैं जब
उंगली अपनी जलती है।।

सोचो उस तड़पन की हद जब
जिस्म पे आरी चलती है॥

बेबसता तुम पशु की देखो
बचने के आसार नही।।

जीते जी तन काटा जाए,
उस पीडा का पार नही॥

खाने से पहले बिरयानी,
चीख जीव की सुन लेते।।

करुणा के वश होकर तुम भी
गिरी गिरनार को चुन लेते॥

शाकाहारी बनो…!
।।.शाकाहार-अभियान.।।

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महाराणा प्रताप


* महाराणा प्रताप एक ही झटके में
घोडा समेत दुश्मन
सैनिको को काट डालते थे
*जब इब्राहिम लिंकन भारत दौरे भी आ रहे
थे तब उन होने उनकी माँ से
पूछाकी हिंदुस्तान से क्यों लेकर आपके लिए।
…तब माँ का जवाब मिला “उस महान देश
की वीर
भूमि हल्दी घाटी से
एक मुट्टी धूल जहा का राजा अपने प्रजा के
पति इतना वफ़ा दार था कि उसने आधे
हिंदुस्तान के बदले
आपनी मातृभूमि को चुना ” .
बड किस्मत से उनका वो दौरा रदद्ध हो गया था। “बुक
ऑफ़ प्रेसिडेंट यु एस ए ‘ किताब में ये बात आप
पढ़ सकते है..।
*महाराणा प्रताप के भाले का वजन 80 किलो था और
कवच का वजन 80 किलो था और कवच भाला, कवच, ढाल,
और हाथ मे तलवार
का वजन मिलाये तो 207 किलो..
*आज भी महा राणा प्रताप कि तलवार कवच
आदि सामान उदयपुर राज घराने के संग्रालय में सुरक्षित
है
*अकबर ने कहा था कि अगर राणा प्रताप
मेरे सामने झुकते है तो आदा हिंदुस्तान के वारिस वो होंगे
पर बादशाहट अकबर
कि रहेगी
*हल्दी घाटीकी लड़ाई में
मेवाड़ से20000 सैनिलथे और
अकबर कि और से 85000 सैनिक
*राणाप्रताप के घोड़े चेतक का मंदिर भी बना जो आज
हल्दी घटी में सुरक्षित
है..
*महाराणा ने जब महलो का त्याग किया तब उनके साथ
लुहार जाति के हजारो लोगो ने भी घर छोड़ा और दिन
रात राणा कि फोज के लिए तलवारे
बनायीं इसी समाज
को आज गुजरात , मध्यप्रदेश और राजस्थान में
गड़लिया लोहार कहा जाता है नमन है ऐसे लोगो को..
*हल्दी घाटी के युद्ध के 300 साल
बाद भी वह जमीनो में
तलवारे
पायी गयी..!
आखिरी बार तलवारों का जखीरा 1985
हल्दी घाटी के
में मिला..
*महाराणा प्रताप अस्त्र शत्र
कि शिक्सा जैमल मेड़तिया ने
दी थी जो 8000 राजपूतो को लेकर
60000 से लड़े थे….
उस युद्ध में 48000 मारे गए थे जिनमे 8000 राजपूत और
40000 मुग़ल थे
*राणा प्रताप के देहांत पर अकबर भी रो पड़ा था
*राणा का घोडा चेतक भी बहुत ताकत वर था उसके
मुह के
आगे हाथी कि सूंड लगाई
जाती थी
*मेवाड़ के आदिवासी भील समाज ने
हल्दी घाटी में अकबर कि फोज
को आपने
तीरो से रोंद डाला था वो राणाप्रताप
को अपना बेटा मानते थे और
राणा जी बिना भेद भाव के उन के साथ रहते
थे आज भी मेवाड़ के राज चिन्ह पैर एक तरह
राजपूत है तो दूसरी तरह भील
*राणा का घोडा चेतक महाराणा को 26
फीट का दरिआ पार करने के बाद वीर
गति को प्राप्त हुआ।उसकी एक टांग टूटने के
बाद भी वो दरिआ पर कर गया।
जहा वो घायल हुआ वहाआज
खोड़ी इमली नाम का पेड़ है
जहा मारा वह
मंदिर । हेतक और चेतक नाम के दो घोड़े थे
*मरने से पहले महाराणा ने खोया हुआ 85 %
मेवार फिर से जीत लिया था
*सोने चांदी और महलो को छोड़ वो 20
साल मेवाड़ के जंगलो में घूमने
*महाराणा प्रताप का वजन 110 किलो…
और लम्बाई – 7’5” थी…..
दो मियां वाली तलवार और 80
किलो का भाला रखते थे हाथ में.
*मेवाड़ राजघराने के वारिस को एक लिंग
जी भगवन का दीवान माता जाता है।
*छात्र पति शिवाजी भी मूल रूप से मेवाड़
से तलूक रखते थे वीर शिवा जी के पर
दादा उदैपुर महा राणा के छोटे भाई थे
*अकबर को अफगान के शेख रहमुर खान ने
कहा था अगर तुम राणा प्रताप और जयमल
मेड़तिया को मिला दो अपने साथ तोह
तुम्हे विश्व विजेता बन्ने से कोई नहीं रोक
सकता पर इन दो वीरो ने जीते
जी कबि हार नहीं मानी।
*नेपाल का राज परिवार भी चित्तोर से
निकला है दोनों में भाई और खून
का रिश्ता है
*मेवाड़ राजघराना आज
भी दुनियाका सबसे प्राचीन
राजघराना है उस के बाद जापान का है
* राणा प्रताप के पूर्वज राणा सांग ने
अकबर के दादा बाबर से खानवा में युद्ध
लड़ा था और राणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह
ने अकबर के बेटे जहागीर से और उसे सन्धि के
लिए मजबूर किया और 15 सालो में
पूरा मेवार अपने कब्जे में ले लिया
* हल्दी घाटी से 40
किमी दूर रणकपुर
के
जंगलो में आज भी राणा प्रताप के
सेना पति राणा झाला कि छतरी मौजूद
है
* राणा प्रताप के साथ अफगान के तीर
चलाने 1500 पठान भी थे जो जंग शुरू होने के
2 घंटे के अंदर मैदान छोड़ चले गए थे सिर्फ वीर
स्वामी भक्त हसन खा मेवाती को छोड़
कर
* मेवाड़ कि और से राणाप्रताप कि एक
टुकड़ी कि अगुवाई एक सच्चे मुस्लमान ने
कि थी उसको और उसके परिवार
को राणा ने मुगलो से बचाया था और
मेवाड़ में पनाह दी थी वो था हसन
खा मेवाती
* भामाशाह नमक जैन ने आपने जीवन
का कमाया हुआ सारा धन राणा से
प्रभावित होकर मेवाड़ कि सेना और
राणा को अर्पित कर दिया था
* महाराणा के साथ मेवाड़ गोडवाड़
मालवा हाडोती ग्वालियर के 100 से
जादा ठाकुर भी साथ थे
* हल्दी घाटी में इतना खून
बहा कि वह बहने
वाले नदी नाले भी लाल हो गए थे
* महा राणा प्रताप के बेटे अमर सिंह ने अकबर
और मुगलो कि बेगमों को मालवा के पास
से एक जुंग जीतनी के बाद कैद कर
मेवाड़ ले
आये थे।इसका पता चलते ही राणा ने उन
ओरतो को स सम्मान सहित
भिजवाया और 3 दिन वह विशिस्ट
अथिति बना कर रखा इस पर अमर सिंह
को काफी समझाया राणा जी ने ये बात
आप आईने अकबरी में भी पढ़ सकते
है
* ऐसा वक़्त ऐसा भी आया जब
राणा प्रताप के बेटे अमर सिंह छोटे थे और
जंगल में घास कि बनी रोटी खा रहे थे
तब
एक जंगली बिल्ला उनके हाथसे वो घास
कि रोटी लेकर भाग जाता है इस पर एक
गीत है जो आज भी गया जाता है “हरे
घास
कि रोटी जड़ वन बिलावड़ो ले
भाग्यो राणा रो सोयो ”
* आदिवासी भील समाज के लोग
राणा कि मौत क बाद भी उन्हें घर घर पूजते
रहे इनके कबीलो का सरदार हमेशा मेवाड़
और राणा का साथ देता आयाहै आज
भी राजस्थान में प्रताप के भजन गाये जाते
है …. मे लडयो घणो मे
पड्यो घणो मेवाडी आन बचावणने मे पाछ
नही राखी रण मे बेरिया रो खून बहावण
मे

और अन्त में सभी को शुक्रिया यहाँ तक पढ़ने
के लिएवो महाराणा हमारे लिए लड़ा था सिर्फ
और सिर्फ अपने देश के लिए ना राजपूत के
लिए न जाट क लिए न गुर्जर के लिए
ना ब्राह्मण के लिए और ना ही आपने राज
सिंहासन के लिए ……
Jai Maharana….
जो मर कर भी अमर
हो गया वो राणा वो महा राणा..!!

जय महाराणा प्रताप

Page_Owner

कुंवँर महेन्द्र सिंह चौहान

खजुरीया, बरार