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कालसर्प योग


हालाँकि प्राचीन ज्योतिष ग्रंथों में ”कालसर्प योग”  का उल्लेख नहीं मिलता है। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह योग जातकको बहुत विचलित करता है। यह एक बहुचर्चित योग है जो सात प्रमुख ग्रहों के राहु और केतु के मध्य एक ओर आ जाने से बनता है। यद्यपि कालसर्प योग को लेकर ज्योतिषी एकमत नहीं हैं, परंतु यह एक निर्विवाद तथ्य है कि यदि किसी जातक की जन्म कुंडली में राहु व केतु के बीच शेष सात ग्रह आ जाएं तो उसका जीवन सामान्य सा नहीं रहता।

 

कालसर्प योग के प्रमुख लक्षण

  1. बाल्यकाल में किसी भी प्रकार की बाधा का उत्पन्न होना। अर्थात घटना-दुर्घटना, चोट लगना, बीमारी आदि का होना।

    विद्या अध्ययन में रुकावट होना या पढ़ाई बीच में ही छूट जाना। पढ़ाई में मन नहीं लगना या फिर ऐसी कोई आर्थिक अथवा शारीरिक बाधा जिससे अध्ययन में व्यवधान उत्पन्न हो जाए।

    3. विवाह में विलंब भी कालसर्प दोष का ही एक लक्षण है। यदि ऐसी स्थिति दिखाई दे तो निश्चित ही किसी विद्वान ज्योतिषी से संपर्क करना चाहिए। इसके साथ ही इस दोष के चलते वैवाहिक जीवन में तनाव और विवाह के बाद तलाक की स्थिति भी पैदा हो जाती है।
    4. एक अन्य लक्षण कालसर्प दोष है संतान का न होना और यदि संतान हो भी जाए तो उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है।

  2. परिजन तथा सहयोगी से धोखा खाना, खासकर ऐसे व्यक्ति जिनका आपने कभी भला किया हो।
    6. घर में कोई सदस्य यदि लंबे समय से बीमार हो और वह स्वस्थ नहीं हो पा रहा हो साथ ही बीमारी का कारण पता नहीं चल रहा है।
    7. आए दिन घटना-दुर्घटनाएं होते रहना।
    8. रोजगार में दिक्कत या फिर रोजगार हो तो बरकत न होना।
  3. इस दोष के चलते घर की महिलाओं को कुछ न कुछ समस्याएं उत्पन्न होती रहती हैं।
    10. रोज घर में कलह का होना। पारिवारिक एकता खत्म हो जाना।
    11. घर-परिवार मांगलिक कार्यों के दौरान बाधा उत्पन्न होना।
    12. यदि परिवार में किसी का गर्भपात या अकाल मृत्यु हुई है तो यह भी कालसर्प दोष का लक्षण है।
    13. घर के किसी सदस्य पर प्रेतबाधा का प्रकोप रहना या पूरे दिन दिमाग में चिड़चिड़ापन रहना।

कालसर्पयोग के प्रकार

कालसर्प योग के प्रमुख भेद कालसर्प योग मुख्यत: बारह प्रकार के माने गये हैं। आगे सभी भेदों को उदाहरण कुंडली प्रस्तुत करते हुए समझाने का प्रयास किया गया है –

 

अनन्त कालसर्प योग

जब जन्मकुंडली में राहु लग्न में व केतु सप्तम में हो और उस बीच सारे ग्रह हों तो अनन्त नामक कालसर्प योग बनता है। ऐसे जातकों के व्यक्तित्व निर्माण में कठिन परिश्रम की जरूरत पड़ती है। उसके विद्यार्जन व व्यवसाय के काम बहुत सामान्य ढंग से चलते हैं और इन क्षेत्रों में थोड़ा भी आगे बढ़ने के लिए जातक को कठिन संघर्ष करना पड़ता है। मानसिक पीड़ा कभी-कभी उसे घर- गृहस्थी छोड़कर वैरागी जीवन अपनाने के लिए भी उकसाया करती हैं। लाटरी, शेयर व सूद के व्यवसाय में ऐसे जातकों की विशेष रुचि रहती हैं किंतु उसमें भी इन्हें ज्यादा हानि ही होती है। शारीरिक रूप से उसे अनेक व्याधियों का सामना करना पड़ता है। उसकी आर्थिक स्थिति बहुत ही डांवाडोल रहती है। फलस्वरूप उसकी मानसिक व्यग्रता उसके वैवाहिक जीवन में भी जहर घोलने लगती है। जातक को माता-पिता के स्नेह व संपत्ति से भी वंचित रहना पड़ता है। उसके निकट संबंधी भी नुकसान पहुंचाने से बाज नहीं आते। कई प्रकार के षड़यंत्रों व मुकदमों में फंसे ऐसे जातक की सामाजिक प्रतिष्ठा भी घटती रहती है। उसे बार-बार अपमानित होना पड़ता है। लेकिन प्रतिकूलताओं के बावजूद जातक के जीवन में एक ऐसा समय अवश्य आता है जब चमत्कारिक ढंग से उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। वह चमत्कार किसी कोशिश से नहीं, अचानक घटित होता है। सम्पूर्ण समस्याओं के बाद भी जरुरत पड़ने पर किसी चीज की इन्हें कमी नहीं रहती है। यह किसी का बुरा नहीं करते हैं। जो जातक इस योग से ज्यादा परेशानी महसूस करते हैं। उन्हें निम्नलिखित उपाय कर लाभ उठाना चाहिए।

अनुकूलन के उपाय –

  • विद्यार्थीजन सरस्वती जी के बीज मंत्रों का एक वर्ष तक जाप करें और विधिवत उपासना करें।
  • हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें।
  • महामृत्युन्जय मन्त्र का जाप करने से भी अनन्त काल सर्प दोष का शान्ति होता है ।
  • गृह में मयूर (मोर) पंख रखें ।

कुलिक कालसर्प योग

राहु दूसरे घर में हो और केतु अष्टम स्थान में हो और सभी ग्रह इन दोनों ग्रहों के बीच में हो तो कुलिक नाम कालसर्प योग होगा। जातक को अपयश का भी भागी बनना पड़ता है। इस योग की वजह से जातक की पढ़ाई-लिखाई सामान्य गति से चलती है और उसका वैवाहिक जीवन भी सामान्य रहता है। परंतु आर्थिक परेशानियों की वजह से उसके वैवाहिक जीवन में भी जहर घुल जाता है। मित्रों द्वारा धोखा, संतान सुख में बाधा और व्यवसाय में संघर्ष कभी उसका पीछा नहीं छोड़ते। जातक का स्वभाव भी विकृत हो जाता है। मानसिक असंतुलन और शारीरिक व्याधियां झेलते-झेलते वह समय से पहले ही बूढ़ा हो जाता है। उसके उत्साह व पराक्रम में निरंतर गिरावट आती जाती है। उसका कठिन परिश्रमी स्वभाव उसे सफलता के शिखर पर भी पहुंचा देता है। परंतु इस फल को वह पूर्णतय: सुखपूर्वक भोग नहीं पाता है। ऐसे जातकों को इस योग की वजह से होने वाली परेशानियों को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपायों का अवलंबन लेना चाहिए।

अनुकूलन के उपाय –

 

  • विद्यार्थीजन सरस्वती जी के बीज मंत्रों का एक वर्ष तक जाप करें और विधिवत उपासना करें।
  • हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें।
  • श्रावण मास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें।
  • शनिवार और मंगलवार का व्रत रखें और शनि मंदिर में जाकर भगवान शनिदेव कर पूजन करें व तैलाभिषेक करें, इससे तुरंत कार्य सफलता प्राप्त होती है।
  • राहु की दशा आने पर प्रतिदिन एक माला राहु मंत्रा का जाप करें और जब जाप की संख्या 18 हजार हो जाये तो राहु की मुख्य समिधा दुर्वा से पूर्णाहुति हवन कराएं और किसी गरीब को उड़द व नीले वस्त्र का दान करें

वासुकी कालसर्प योग

राहु तीसरे घर में और केतु नवम स्थान में और इस बीच सारे ग्रह ग्रसित हों तो वासुकी नामक कालसर्प योग बनता है। वह भाई-बहनों से भी परेशान रहता है। अन्य पारिवारिक सदस्यों से भी आपसी खींचतान बनी रहती है। रिश्तेदार एवं मित्रगण उसे प्राय: धोखा देते रहते हैं। घर में सुख-शांति का अभाव रहता है। जातक को समय-समय पर व्याधि ग्रसित करती रहती हैं जिसमें अधिक धान खर्च हो जाने के कारण उसकी आर्थिक स्थिति भी असामान्य हो जाती है। अर्थोपार्जन के लिए जातक को विशेष संघर्ष करना पड़ता है, फिर भी उसमें सफलता संदिग्धा रहती है। चंद्रमा के पीड़ित होने के कारण उसका जीवन मानसिक रूप से उद्विग्न रहता है। इस योग के कारण जातक को कानूनी मामलों में विशेष रूप से नुकसान उठाना पड़ता है। राज्यपक्ष से प्रतिकूलता रहती है। जातक को नौकरी या व्यवसाय आदि के क्षेत्रा में निलम्बन या नुकसान उठाना पड़ता है। यदि जातक अपने जन्म स्थान से दूर जाकर कार्य करें तो अधिक सफलता मिलती है। लेकिन सब कुछ होने के बाद भी जातक अपने जीवन में बहुत सफलता प्राप्त करता है। विलम्ब से उत्ताम भाग्य का निर्माण भी होता है और शुभ कार्य सम्पादन हेतु उसे कई अवसर प्राप्त होते हैं।

अनुकूलन के उपाय –

  • प्रत्येक बुधवार को काले वस्त्रों में उड़द या मूंग एक मुट्ठी डालकर, राहु का मंत्रा जप कर भिक्षाटन करने वाले को दे दें। यदि दान लेने वाला कोई नहीं मिले तो बहते पानी में उस अन्न हो प्रवाहित करें। 72 बुधवार तक करने से अवश्य लाभ मिलता है।
  • महामृत्युंजय मंत्रों का जाप प्रतिदिन 11 माला रोज करें, जब तक राहु केतु की दशा-अंर्तदशा रहे और हर शनिवार को श्री शनिदेव का तैलाभिषेक करें और मंगलवार को हनुमान जी को चौला चढ़ायें।

शंखपाल कालसर्प योग

राहु चौथे स्थान में और केतु दशम स्थान में हो इसके बीच सारे ग्रह हो तो शंखपाल नामक कालसर्प योग बनता है। इससे घर-द्वार, जमीन-जायदाद व चल- अचल संपत्तिा संबंधी थोड़ी बहुत कठिनाइयां आती हैं और उससे जातक को कभी-कभी बेवजह चिंता घेर लेती है तथा विद्या प्राप्ति में भी उसे आंशिक रूप से तकलीफ उठानी पड़ती है। जातक को माता से कोई, न कोई किसी न किसी समय आंशिक रूप में तकलीफ मिलती है। सवारी एवं नौकरों की वजह से भी कोई न कोई कष्ट होता ही रहता है। इसमें उन्हें कुछ नुकसान भी उठाना पड़ता है। जातक का वैवाहिक जीवन सामान्य होते हुए भी वह कभी-कभी तनावग्रस्त हो जाता है। चंद्रमा के पीड़ित होने के कारण जातक समय-समय पर मानसिक संतुलन खोया रहता है। कार्य के क्षेत्रा में भी अनेक विघ्न आते हैं। पर वे सब विघ्न कालान्तर में स्वत: नष्ट हो जाते हैं। बहुत सारे कामों को एक साथ करने के कारण जातक का कोई भी काम प्राय: पूरा नहीं हो पाता है। इस योग के प्रभाव से जातक का आर्थिक संतुलन बिगड़ जाता है, जिस कारण आर्थिक संकट भी उपस्थित हो जाता है। लेकिन इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी जातक को व्यवसाय, नौकरी तथा राजनीति के क्षेत्रा में बहुत सफलताएं प्राप्त होती हैं एवं उसे सामाजिक पद प्रतिष्ठा भी मिलती है। यदि उपरोक्त परेशानी महसूस करते हैं तो निम्नलिखित उपाय करें। अवश्य लाभ मिलेगा।

अनुकूलन के उपाय –

  • शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर चांदी का स्वस्तिक एवं दोनों ओर धातु से निर्मित नाग चिपका दें।
  • 86 शनिवार का व्रत करें और राहु,केतु व शनि के साथ हनुमान की आराधना करें। और हनुमान जी को मंगलवार को चौला चढ़ायें और शनिवार को श्री शनिदेव का तैलाभिषेक करें
  • नित्य प्रति हनुमान चालीसा पढ़ें और भोजनालय में बैठकर भोजन करें। हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और पांच मंगलवार का व्रत करते हुए हनुमान जी को चमेली के तेल में घुला सिंदूर व बूंदी के लड्डू चढ़ाएं।
  • सवा महीने तक जौ के दाने पक्षियों को खिलाएं और प्रत्येक शनिवार को चींटियों को शक्कर मिश्रित सत्तू  उनके बिलों पर डालें।

पद्म कालसर्प योग

राहु पंचम व केतु एकादश भाव में तथा इस बीच सारे ग्रह हों तो पद्म कालसर्प योग बनता है। इसके कारण जातक के विद्याध्ययन में कुछ व्यवधान उपस्थित होता है। परंतु कालान्तर में वह व्यवधान समाप्त हो जाता है। उन्हें संतान प्राय: विलंब से प्राप्त होती है, या संतान होने में आंशिक रूप से व्यवधान उपस्थित होता है। जातक को पुत्र संतान की प्राय: चिंता बनी रहती है। जातक का स्वास्थ्य कभी-कभी असामान्य हो जाता है। इस योग के कारण दाम्पत्य जीवन सामान्य होते हुए भी कभी-कभी अधिक तनावपूर्ण हो जाता है। परिवार में जातक को अपयश मिलने का भी भय बना रहता है। जातक के मित्रगण स्वार्थी होते हैं और वे सब उसका पतन कराने में सहायक होते हैं। जातक को तनावग्रस्त जीवन व्यतीत करना पड़ता है। इस योग के प्रभाव से जातक के गुप्त शत्रू भी होते हैं। वे सब उसे नुकसान पहुंचाते हैं। उसके लाभ मार्ग में भी आंशिक बाधा उत्पन्न होती रहती है एवं चिंता के कारण जातक का जीवन संघर्षमय बना रहता है। जातक द्वारा अर्जित सम्पत्तिा को प्राय: दूसरे लोग हड़प लेते हैं। जातक को व्याधियां भी घेर लेती हैं। इलाज में अधिाक धन खर्च हो जाने के कारण आर्थिक संकट उपस्थित हो जाता है। जातक वृध्दावस्था को लेकर अधिक चिंतित रहता है एवं कभी-कभी उसके मन में संन्यास ग्रहण करने की भावना भी जागृत हो जाती है। लेकिन इतना सबकुछ होने के बाद भी एक समय ऐसा आता है कि यह जातक आर्थिक दृष्टि से बहुत मजबूत होता है, समाज में मान-सम्मान मिलता है और कारोबार भी ठीक रहता है यदि यह जातक अपना चाल-चलन ठीक रखें, मध्यपान न करें और अपने मित्र की सम्पत्ति को न हड़पे तो उपरोक्त कालसर्प प्रतिकूल प्रभाव लागू नहीं होते हैं।

अनुकूलन के उपाय –

 

  • शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर चांदी का स्वस्तिक एवं दोनों ओर धातु से मिर्मित नाग चिपका दें।
  • नित्य प्रति हनुमान चालीसा का 11 बार पाठ करें और हर शनिवार को लाल कपड़े में आठ मुट्ठी भिंगोया चना व ग्यारह केले सामने रखकर हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और उन केलों को बंदरों को खिला दें और प्रत्येक मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर में बूंदी के लड्डू का भोग लगाएं और हनुमान जी की प्रतिमा पर चमेली के तेल में घुला सिंदूर चढ़ाएं और साथ ही श्री शनिदेव का तैलाभिषेक करें। ऐसा करने से वासुकी काल सर्प योग के समस्त दोषों की शांति हो जाती है।
  • श्रावण के महीने में प्रतिदिन स्नानोपरांत 11 माला ‘नम: शिवाय’ मंत्रा का जप करने के उपरांत शिवजी को बेलपत्रा व गाय का दूध तथा गंगाजल चढ़ाएं तथा सोमवार का व्रत करें।

महापद्म कालसर्प योग
राहु छठे भाव में और केतु बारहवे भाव में और इसके बीच सारे ग्रह अवस्थित हों तो महापद्म कालसर्प योग बनता है। इस योग में जातक शत्रु विजेता होता है, विदेशों से व्यापार में लाभ कमाता है लेकिन बाहर ज्यादा रहने के कारण उसके घर में शांति का अभाव रहता है। इस योग के जातक को एक ही चिज मिल सकती है धन या सुख। इस योग के कारण जातक यात्रा बहुत करता है उसे यात्राओं में सफलता भी मिलती है परन्तु कई बार अपनो द्वारा धोखा खाने के कारण उनके मन में निराशा की भावना जागृत हो उठती है एवं वह अपने मन में शत्रुता पालकर रखने वाला भी होता है। जातक का चरित्रा भी बहुत संदेहास्पद हो जाता है। उसके धर्म की हानि होती है। वह समय-समय पर बुरा स्वप्नदेखता है। उसकी वृध्दावस्था कष्टप्रद होती है। इतना सब कुछ होने के बाद भी जातक के जीवन में एक अच्छा समय आता है और वह एक अच्छा दलील देने वाला वकील अथवा तथा राजनीति के क्षेत्रा में सफलता पाने वाला नेता होता है।
अनुकूलन के उपाय –

 

  • श्रावणमास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें।
  • शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार से शनिवार व्रत आरंभ करना चाहिए। यह व्रत 18 बार करें। काला वस्त्रा धारण करके 18या 3 राहु बीज मंत्रा की माला जपें।
  • इलाहाबाद (प्रयाग) में संगम पर नाग-नागिन की विधिवत पूजन कर दूध के साथ संगम में प्रवाहित करें एवं तीर्थराज प्रयाग में संगम स्थान में तर्पण श्राध्द भी एक बार अवश्य करें।
  • मंगलवार एवं शनिवार को रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड का 108 बार पाठ श्रध्दापूर्वक करें।

तक्षक कालसर्प योग
केतु लग्न में और राहु सप्तम स्थान में हो तो तक्षक नामक कालसर्प योग बनता है। कालसर्प योग की शास्त्रीय परिभाषा में इस प्रकार का अनुदित योग परिगणित नहीं है। लेकिन व्यवहार में इस प्रकार के योग का भी संबंधित जातकों पर अशुभ प्रभाव पड़ता देखा जाता है। तक्षक नामक कालसर्प योग से पीड़ित जातकों को पैतृक संपत्तिा का सुख नहीं मिल पाता। या तो उसे पैतृक संपत्तिा मिलती ही नहीं और मिलती है तो वह उसे किसी अन्य को दान दे देता है अथवा बर्बाद कर देता है। ऐसे जातक प्रेम प्रसंग में भी असफल होते देखे जाते हैं। गुप्त प्रसंगों में भी उन्हें धोखा खाना पड़ता है। वैवाहिक जीवन सामान्य रहते हुए भी कभी-कभी संबंध इतना तनावपूर्ण हो जाता है कि अलगाव की नौबत आ जाती है। जातक को अपने घर के अन्य सदस्यों की भी यथेष्ट सहानुभूति नहीं मिल पाती। साझेदारी में उसे नुकसान होता है तथा समय-समय पर उसे शत्रू षड़यंत्रों का शिकार बनना पड़ता है। जुए, सट्टे व लाटरी की प्रवृत्तिा उस पर हावी रहती है जिससे वह बर्बादी के कगार पर पहुंच जाता है। संतानहीनता अथवा संतान से मिलने वाली पीड़ा उसे निरंतर क्लेश देती रहती है। उसे गुप्तरोग की पीड़ा भी झेलनी पड़ती है। किसी को दिया हुआ धान भी उसे समय पर वापस नहीं मिलता। यदि यह जातक अपने जीवन में एक बात करें कि अपना भलाई न सोच कर ओरों का भी हित सोचना शुरु कर दें साथ ही अपने मान-सम्मान के दूसरों को नीचा दिखाना छोड़ दें तो उपरोक्त समस्याएं नहीं आती।
अनुकूलन के उपाय –

 

  • कालसर्प दोष निवारण यंत्रा घर में स्थापित करके, इसका नियमित पूजन करें।
  • सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाएं।

 

कर्कोटक कालसर्प योग
केतु दूसरे स्थान में और राहु अष्टम स्थान में कर्कोटक नाम कालसर्प योग बनता है। जैसा कि हम इस बात को पहले भी स्पष्ट कर चुके हैं, ऐसे जातकों के भाग्योदय में इस योग की वजह से कुछ रुकावटें अवश्य आती हैं। नौकरी मिलने व पदोन्नति होने में भी कठिनाइयां आती हैं। कभी-कभी तो उन्हें बड़े ओहदे से छोटे ओहदे पर काम करनेका भी दंड भुगतना पड़ता है। पैतृक संपत्तिा से भी ऐसे जातकों को मनोनुकूल लाभ नहीं मिल पाता। व्यापार में भी समय-समय पर क्षति होती रहती है। कोई भी काम बढ़िया से चल नहीं पाता। कठिन परिश्रम के बावजूद उन्हें पूरा लाभ नहीं मिलता। मित्रों से धोखा मिलता है तथा शारीरिक रोग व मानसिक परेशानियों से व्यथित जातक को अपने कुटुंब व रिश्तेदारों के बीच भी सम्मान नहीं मिलता। चिड़चिड़ा स्वभाव व मुंहफट बोली से उसे कई झगड़ों में फंसना पड़ता है। उसका उधार दिया पैसा भी डूब जाता है। शत्रू षड़यंत्रा व अकाल मृत्यु का जातक को बराबर भय बना रहता है। उक्त परेशानियों से बचने के लिए जातक निम्न उपाय कर सकते हैं।
अनुकूलन के उपाय –

 

  • हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और पांच मंगलवार का व्रत करते हुए हनुमान जी को चमेली के तेल में घुला सिंदूर व बूंदी के लड्डू चढ़ाएं।
  • काल सर्प दोष निवारण यंत्रा घर में स्थापित कर उसका प्रतिदिन पूजन करें .
  • शनिवार को कटोरी में सरसों का तेल लेकर उसमें अपना मुंह देख एक सिक्का अपने सिर पर तीन बार घुमाते हुए तेल में डाल दें और उस कटोरी को किसी गरीब आदमी को दान दे दें अथवा पीपल की जड़ में चढ़ा दें।
  • सवा महीने तक जौ के दाने पक्षियों को खिलाएं और प्रत्येक शनिवार को चींटियों को शक्कर मिश्रित सत्तू उनके बिलों पर डालें।
  • अपने सोने वाले कमरे में लाल रंग के पर्दे, चादर व तकियों का प्रयोग करें।

 
शंखनाद कालसर्प योग
केतु तीसरे स्थान में व राहु नवम स्थान में शंखनाद नामक कालसर्प योग बनता है। इस योग से पीड़ित जातकों का भाग्योदय होने में अनेक प्रकार की अड़चने आती रहती हैं। व्यावसायिक प्रगति, नौकरी में प्रोन्नति तथा पढ़ाई-लिखाई में वांछित सफलता मिलने में जातकों को कई प्रकार के विघ्नों का सामना करना पड़ता है। इसके पीछे कारण वह स्वयं होता है क्योंकि वह अपनो का भी हिस्सा छिनना चाहता है। अपने जीवन में धर्म से खिलवाड़ करता है। इसके साथ ही उसका अपना अत्याधिक आत्मविश्वास के कारण यह सारी समस्या उसे झेलनी पड़ती है। अधिक सोच के कारण शारीरिक व्याधियां भी उसका पीछा नहीं छोड़ती। इन सब कारणों के कारण सरकारी महकमों व मुकदमेंबाजी में भी उसका धन खर्च होता रहता है। उसे पिता का सुख तो बहुत कम मिलता ही है, वह ननिहाल व बहनोइयों से भी छला जाता है। उसके मित्र भी धोखाबाजी करने से बाज नहीं आते। उसका वैवाहिक जीवन आपसी वैमनस्यता की भेंट चढ़ जाता है। उसे हर बात के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ता है। उसे समाज में यथेष्ट मान-सम्मान भी नहीं मिलता। उक्त परेशानियों से बचने के लिए उसे अपना को अपनाना पड़ेगा, अपनो से प्यार करना होगा, धर्म की राह पर चलना होगा एवं मुंह में राम बगल में छूरी की भावना को त्यागना होगा तो जीवन में बहुत कम कठीनाइयों का सामना करना पड़ेगा। तब भी कठिनाईयां आति हैं तो निम्नलिखित उपाय बड़े लाभप्रद सिध्द होते हैं।
अनुकूलन के उपाय –

 

  • महामृत्युंजय कवच का नित्य पाठ करें और श्रावण महीने के हर सोमवार का व्रत रखते हुए शिव का रुद्राभिषेक करें।
  • चांदी या अष्टधातु का नाग बनवाकर उसकी अंगूठी हाथ की मध्यमा उंगली में धारण करें। किसी शुभ मुहुर्त मेंअपने मकान के मुख्य दरवाजे पर चांदी का स्वस्तिक एवं दोनों ओर धातु से निर्मित नाग चिपका दें।

घातक कालसर्प योग
केतु चतुर्थ तथा राहु दशम स्थान में हो तो घातक कालसर्प योग बनाते हैं। इस योग में उत्पन्न जातक यदि माँ की सेवा करे तो उत्तम घर व सुख की प्राप्ति होता है। जातक हमेशा जीवन पर्यन्त सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है उसके पास कितना ही सुख आ जाये उसका जी नहीं भरता है। उसे पिता का भी विछोह झेलना पड़ता है। वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं रहता। व्यवसाय के क्षेत्रा में उसे अप्रत्याशित समस्याओं का मुकाबला करना पड़ता है। परन्तु व्यवसाय व धन की कोई कमी नहीं होती है। नौकरी पेशा वाले जातकों को सस्पेंड, डिस्चार्ज या डिमोशन के खतरों से रूबरू होना पड़ता है। साझेदारी के काम में भी मनमुटाव व घाटा उसे क्लेश पहुंचाते रहते हैं। सरकारी पदाधिकारी भी उससे खुश नहीं रहते और मित्र भी धोखा देते रहते हैं। यदि यह जातक रिश्वतखोरी व दो नम्बर के काम से बाहर आ जाएं तो जीवन में किसी चीज की कमी नहीं रहती हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा उसे जरूर मिलती है साथ ही राजनैतिक क्षेत्रा में बहुत सफलता प्राप्त करता है। उक्त परेशानियों से बचने के लिए जातक निम्नलिखित उपाय कर लाभ उठा सकते हैं।
अनुकूलन के उपाय –

 

  • नित्य प्रति हनुमान चालीसा का पाठ करें व प्रत्येक मंगलवार का व्रत रखें और हनुमान जी को चमेली के तेल में सिंदूर घुलाकर चढ़ाएं तथा बूंदी के लड्डू का भोग लगाएं।
  • एक वर्ष तक गणपति अथर्वशीर्ष का नित्य पाठ करें।
  • शनिवार का व्रत रखें, श्री शनिदेव का तैलाभिषेक व पूजन करें.
  • सोमवार के दिन व्रत रखें, भगवान शिव के मंदिर में चांदी के नाग की पूजा कर अपने पितरों का स्मरण करें और उस नाग को बहते जल में श्रध्दापूर्वक विसर्जित कर दें।

विषधर (विषाक्त) कालसर्प योग
केतु पंचम और राहु ग्यारहवे भाव में हो तो विषधर कालसर्प योग बनाते हैं। जातक को ज्ञानार्जन करने में आंशिक व्यवधान उपस्थित होता है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने में थोड़ी बहुत बाधा आती है एवं स्मरण शकित का प्राय: ह्रास होता है। जातक को नाना-नानी, दादा-दादी से लाभ की संभावना होते हुए भी आंशिक नुकसान उठाना पड़ता है। चाचा, चचेरे भाइयों से कभी-कभी मतान्तर या झगड़ा- झंझट भी हो जाता है। बड़े भाई से विवाद होने की प्रबल संभावना रहती है। इस योग के कारण जातक अपने जन्म स्थान से बहुत दूर निवास करता है या फिर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करता रहता है। लेकिन कालान्तर में जातक के जीवन में स्थायित्व भी आता है। लाभ मार्ग में थोड़ा बहुत व्यवधान उपस्थित होता रहता है। वह व्यक्ति कभी-कभी बहुत चिंतातुर हो जाता है। धन सम्पत्तिा को लेकर कभी बदनामी की स्थिति भी पैदा हो जाती है या कुछ संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। उसे सर्वत्रा लाभ दिखलाई देता है पर लाभ मिलता नहीं। संतान पक्ष से थोड़ी-बहुत परेशानी घेरे रहती है। जातक को कई प्रकार की शारीरिक व्याधियों से भी कष्ट उठाना पड़ता है। उसके जीवन का अंत प्राय: रहस्यमय ढंग से होता है। उपरोक्त परेशानी होने पर निम्नलिखित उपाय करें।
अनुकूलन के उपाय –

 

  • श्रावण मास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें।
  • सोमवार को शिव मंदिर में चांदी के नाग की पूजा करें, पितरों का स्मरण करें तथा श्रध्दापूर्वक बहते पानी या समुद्र में नागदेवता का विसर्जन करें।
  • प्रत्येक सोमवार को दही से भगवान शंकर पर – ओउम् हर हर महादेव’ कहते हुए अभिषेक करें। ऐसा हर रोज श्रावण के महिने में करें।
  • सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाएं।

शेषनाग कालसर्प योग
केतु छठे और राहु बारहवे भाव में हो तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो शेषनाग कालसर्प योग बनता है। शास्त्राोक्त परिभाषा के दायरे में यह योग परिगणित नहीं है किंतु व्यवहार में लोग इस योग संबंधी बाधाओं से पीड़ित अवश्य देखे जाते हैं। इस योग से पीड़ित जातकों की मनोकामनाएं हमेशा विलंब से ही पूरी होती हैं। ऐसे जातकों को अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए अपने जन्मस्थान से दूर जाना पड़ता है और शत्रु षड़यंत्रों से उसे हमेशा वाद-विवाद व मुकदमे बाजी में फंसे रहना पड़ता है। उनके सिर पर बदनामी की कटार हमेशा लटकी रहती है। शारीरिक व मानसिक व्याधियों से अक्सर उसे व्यथित होना पड़ता है और मानसिक उद्विग्नता की वजह से वह ऐसी अनाप-शनाप हरकतें करता है कि लोग उसे आश्चर्य की दृष्टि से देखने लगते हैं। लोगों की नजर में उसका जीवन बहुत रहस्यमय बना रहता है। उसके काम करने का ढंग भी निराला होताहै। वह खर्च भी आमदनी से अधिक किया करता है। फलस्वरूप वह हमेशा लोगों का देनदार बना रहता है और कर्ज उतारने के लिए उसे जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। उसके जीवन में एक बार अच्छा समय भी आता है जब उसे समाज में प्रतिष्ठित स्थान मिलता है और मरणोपरांत उसे विशेष ख्याति प्राप्त होती है। इस योग की बाधाओं से त्राण पाने के लिए यदि निम्नलिखित उपाय किये जायें तो जातक को बहुत लाभ मिलता है।
अनुकूलन के उपाय –

 

  • किसी शुभ मुहूर्त में ओउम् नम: शिवाय’ की 11 माला जाप करने के उपरांत शिवलिंग का गाय केदूध से अभिषेक करें और शिव को प्रिय बेलपत्रा आदि सामग्रियां श्रध्दापूर्वक अर्पित करें। साथ ही तांबे का बना सर्प विधिवत पूजन के उपरांत शिवलिंग पर समर्पित करें।
  • हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और मंगलवार के दिन हनुमान जी की प्रतिमा पर लाल वस्त्रा सहित सिंदूर, चमेली का तेल व बताशा चढ़ाएं।
  • सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाने के बाद ही कोई काम प्रारंभ करें।
  • शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर अष्टधातु या चांदी का स्वस्तिक लगाएं और उसके दोनों ओर धातु निर्मित नाग

 

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गणगौर त्यौहार


गणगौर त्यौहार

 

भारत रंगों भरा देश है . उसमे रंग भरते है उसके , भिन्न-भिन्न राज्य और उनकी संस्कृति . हर राज्य की संस्कृति झलकती है उसकी, वेश-भूषा से वहा के रित-रिवाजों से और वहा के त्यौहारों से . हर राज्य की अपनी, एक खासियत होती है जिनमे, त्यौहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है .

 

गणगौर त्यौहार महत्त्व, पूजा विधि कथा , गीत व उद्यापन विधि
भारत का एक राज्य राजस्थान, जो मारवाड़ीयों की नगरी है और, गणगौर मारवाड़ीयों का बहुत बड़ा त्यौहार है जो, बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है ना केवल, राजस्थान बल्कि हर वो प्रदेश जहा मारवाड़ी रहते है, इस त्यौहार को पूरे रीतिरिवाजों से मनाते है . गणगौर दो तरह से मनाया जाता है . जिस तरह मारवाड़ी लोग इसे मनाते है ठीक, उसी तरह मध्यप्रदेश मे, निमाड़ी लोग भी इसे उतने ही उत्साह से मनाते है . त्यौहार एक है परन्तु, दोनों के पूजा के तरीके अलग-अलग है . जहा मारवाड़ी लोग सोलह दिन की पूजा करते है वही, निमाड़ी लोग मुख्य रूप से तीन दिन की गणगौर मनाते है .

 

गणगौर त्यौहार कब मनाया जाता है और शुभ मुहूर्त कब है? (Gangaur festival 2017 date and muhurt)

 

इस वर्ष 2017 में गणगौर का त्यौहार 30 मार्च 2017, दिन गुरुवार के दिन मनाया जायेगा. गणगौर की पूजा का समय 29 मार्च 2017 को शाम 10.16 मिनट से 30 मार्च 2017 को शाम 7.12 मिनट तक है.

 

मारवाड़ी रूप मे गणगौर –

 

  • पूजन का महत्व
  • पूजन सामग्री
  • पूजन की विधी
  • गणगौर की कथा
  • गणगौर पूजते समय का गीत
  • गणपति जी की कहानी
  • गणगौर अरग के गीत
  • गणगौर को पानी पिलाने का गीत
  • उद्यापन की विधी

गणगौर पूजन का महत्व ( Gangaur festival pooja mahatv)
 

गणगौर एक ऐसा पर्व है जिसे, हर स्त्री के द्वारा मनाया जाता है . इसमें कुवारी कन्या से लेकर, विवाहित स्त्री दोनों ही, पूरी विधी-विधान से गणगौर जिसमे, भगवान शिव व माता पार्वती का पूजन करती है . इस पूजन का महत्व कुवारी कन्या के लिये , अच्छे वर की कामना को लेकर रहता है जबकि,विवाहित स्त्री अपने पति की दीर्घायु के लिये होता है . जिसमे कुवारी कन्या पूरी तरह से तैयार होकर और, विवाहित स्त्री सोलह श्रंगार करके पुरे, सोलह दिन विधी-विधान से पूजन करती है .

 

पूजन सामग्री ( Gangaur festival pooja Samagri)

 

जिस तरह, इस पूजन का बहुत महत्व है उसी तरह,  पूजा सामग्री का भी पूर्ण होना आवश्यक है .

 

  • लकड़ी की चौकी/बाजोट/पाटा
  • ताम्बे का कलश
  • काली मिट्टी/होली की राख़
  • दो मिट्टी के कुंडे/गमले
  • मिट्टी का दीपक
  • कुमकुम, चावल, हल्दी, मेहन्दी, गुलाल, अबीर, काजल
  • घी
  • फूल,दुब,आम के पत्ते
  • पानी से भरा कलश
  • पान के पत्ते
  • नारियल
  • सुपारी
  • गणगौर के कपडे
  • गेहू
  • बॉस की टोकनी
  • चुनरी का कपड़ा

उद्यापन की सामग्री ( Gangaur festival Udyapan Samagri)-

 

उपरोक्त सभी सामग्री, उद्यापन मे भी लगती है परन्तु, उसके अलावा भी कुछ सामग्री है जोकि, आखरी दिन उद्यापन मे आवश्यक होती है .

 

  • सीरा (हलवा)
  • पूड़ी
  • गेहू
  • आटे के गुने (फल)
  • साड़ी
  • सुहाग या सोलह श्रंगार का समान आदि.

गणगौर पूजन की विधी ( Gangaur festival pooja vidhi )

 

मारवाड़ी स्त्रियाँ सोलह दिन की गणगौर पूजती है . जिसमे मुख्य रूप से, विवाहित कन्या शादी के बाद की पहली होली पर, अपने माता-पिता के घर या सुसराल मे, सोलह दिन की गणगौर बिठाती है . यह गणगौर अकेली नही, जोड़े के साथ पूजी जाती है . अपने साथ अन्य सोलह कुवारी कन्याओ को भी, पूजन के लिये पूजा की सुपारी देकर निमंत्रण देती है . सोलह दिन गणगौर धूम-धाम से मनाती है अंत मे, उद्यापन कर गणगौर को विसर्जित कर देती है. फाल्गुन माह की पूर्णिमा, जिस दिन होलिका का दहन होता है उसके दूसरे दिन, पड़वा अर्थात् जिस दिन होली खेली जाती है उस दिन से, गणगौर की पूजा प्रारंभ होती है . ऐसी स्त्री जिसके विवाह के बाद कि, प्रथम होली है उनके घर गणगौर का पाटा/चौकी लगा कर, पूरे सोलह दिन उन्ही के घर गणगौर का पूजन किया जाता है .

 

 

  • सर्वप्रथम चौकी लगा कर, उस पर साथिया बना कर, पूजन किया जाता है . जिसके उपरान्त पानी से भरा कलश, उस पर पान के पाच पत्ते, उस पर नारियल रखते है . ऐसा कलश चौकी के, दाहिनी ओर रखते है.
  • अब चौकी पर सवा रूपया और, सुपारी (गणेशजी स्वरूप) रख कर पूजन करते है .
  • फिर चौकी पर, होली की राख या काली मिट्टी से, सोलह छोटी-छोटी पिंडी बना कर उसे, पाटे/चौकी पर रखा जाता . उसके बाद पानी से, छीटे देकर कुमकुम-चावल से, पूजा की जाती है .
  • दीवार पर एक पेपर लगा कर, कुवारी कन्या आठ-आठ और विवाहिता सोलह-सोलह टिक्की क्रमशः कुमकुम, हल्दी, मेहन्दी, काजल की लगाती है .
  • उसके बाद गणगौर के गीत गाये जाते है, और पानी का कलश साथ रख, हाथ मे दुब लेकर, जोड़े से सोलह बार, गणगौर के गीत के साथ पूजन करती है .
  • तदुपरान्त गणगौर, कहानी गणेश जी की, कहानी कहती है . उसके बाद पाटे के गीत गाकर, उसे प्रणाम कर भगवान सूर्यनारायण को, जल चड़ा कर अर्क देती है .
  • ऐसी पूजन वैसे तो, पूरे सोलह दिन करते है परन्तु, शुरू के सात दिन ऐसे, पूजन के बाद सातवे दिन सीतला सप्तमी के दिन सायंकाल मे, गाजे-बाजे के साथ गणगौर भगवान व दो मिट्टी के, कुंडे कुमार के यहा से लाते है.
  • अष्टमी से गणगौर की तीज तक, हर सुबह बिजोरा जो की फूलो का बनता है . उसकी और जो दो कुंडे है उसमे, गेहू डालकर ज्वारे बोये जाते है . गणगौर की जिसमे ईसर जी (भगवान शिव) – गणगौर माता (पार्वती माता) के , मालन, माली ऐसे दो जोड़े और एक विमलदास जी ऐसी कुल पांच प्रतिमाए होती है . इन सभी का पूजन होता है , प्रतिदिन, और गणगौर की तीज को उद्यापन होता है और सभी चीज़ विसर्जित होती है .

गणगौर माता की कथा / कहानी (Gangaur mata Katha/ Story)
 

राजा का बोया जो-चना, माली ने बोई दुब . राजा का जो-चना बढ़ता जाये पर, माली की दुब घटती जाये . एक दिन, माली हरी-हरी घास मे, कंबल ओढ़ के छुप गया . छोरिया आई दुब लेने, दुब तोड़ कर ले जाने लगी तो, उनका हार खोसे उनका डोर खोसे . छोरिया बोली, क्यों म्हारा हार खोसे, क्यों म्हारा डोर खोसे , सोलह दिन गणगौर के पूरे हो जायेंगे तो, हम पुजापा दे जायेंगे . सोलह दिन पूरे हुए तो, छोरिया आई पुजापा देने माँ से बोली, तेरा बेटा कहा गया . माँ बोली वो तो गाय चराने गयों है, छोरियों ने कहा ये, पुजापा कहा रखे तो माँ ने कहा, ओबरी गली मे रख दो . बेटो आयो गाय चरा कर, और माँ से बोल्यो माँ छोरिया आई थी , माँ बोली आई थी, पुजापा लाई थी हा बेटा लाई थी, कहा रखा ओबरी मे . ओबरी ने एक लात मारी, दो लात मारी ओबरी नही खुली , बेटे ने माँ को आवाज लगाई और बोल्यो कि, माँ-माँ ओबरी तो नही खुले तो, पराई जाई कैसे ढाबेगा . माँ पराई जाई तो ढाब लूँगा, पर ओबरी नी खुले . माँ आई आख मे से काजल, निकाला मांग मे से सिंदुर निकाला , चिटी आंगली मे से मेहन्दी निकाली , और छीटो दियो ,ओबरी खुल

 

गई . उसमे, ईश्वर गणगौर बैठे है ,सारी चीजों से भण्डार भरिया पड़िया है . है गणगौर माता , जैसे माली के बेटे को टूटी वैसे, सबको टूटना . कहता ने , सुनता ने , सारे परिवार ने .

 

गणगौर पूजते समय का गीत (Gangaur Poojan Geet)
 

यह गीत शुरू मे एक बार बोला जाता है और गणगौर पूजना प्रारम्भ किया जाता है –

 

प्रारंभ का गीत –

 

गोर रे, गणगौर माता खोल ये , किवाड़ी

 

बाहर उबी थारी पूजन वाली,

 

पूजो ये, पुजारन माता कायर मांगू

 

अन्न मांगू धन मांगू , लाज मांगू लक्ष्मी मांगू

 

राई सी भोजाई मंगू .

 

कान कुवर सो, बीरो मांगू इतनो परिवार मांगू ..

 

उसके बाद सोलह बार गणगौर के गीत से गणगौर पूजी जाती है .

 

सोलह बार पूजन का गीत –

 

गौर-गौर गणपति ईसर पूजे, पार्वती

 

पार्वती का आला टीला, गोर का सोना का टीला .

 

टीला दे, टमका दे, राजा रानी बरत करे .

 

करता करता, आस आयो मास

 

आयो, खेरे खांडे लाडू लायो,

 

लाडू ले बीरा ने दियो, बीरों ले गटकायों .

 

साडी मे सिंगोड़ा, बाड़ी मे बिजोरा,

 

सान मान सोला, ईसर गोरजा .

 

दोनों को जोड़ा ,रानी पूजे राज मे,

 

दोनों का सुहाग मे .

 

रानी को राज घटतो जाय, म्हारों सुहाग बढ़तों जाय

 

किडी किडी किडो दे,

 

किडी थारी जात दे,

 

जात पड़ी गुजरात दे,

 

गुजरात थारो पानी आयो,

 

दे दे खंबा पानी आयो,

 

आखा फूल कमल की डाली,

 

मालीजी दुब दो, दुब की डाल दो

 

डाल की किरण, दो किरण मन्जे

 

एक,दो,तीन,चार,पांच,छ:,सात,आठ,नौ,दस,ग्यारह,बारह,

 

तेरह, चौदह,पंद्रह,सोलह .

 

सोलह बार पूरी गणगौर पूजने के बाद पाटे के गीत गाते है

 

पाटा धोने का गीत –

 

पाटो धोय पाटो धोय, बीरा की बहन पाटो धो,

 

पाटो ऊपर पीलो पान, म्हे जास्या बीरा की जान .

 

जान जास्या, पान जास्या, बीरा ने परवान जास्या

 

अली गली मे, साप जाये, भाभी तेरो बाप जाये .

 

अली गली गाय जाये, भाभी तेरी माय जाये .

 

दूध मे डोरों , म्हारों भाई गोरो

 

खाट पे खाजा , म्हारों भाई राजा

 

थाली मे जीरा म्हारों भाई हीरा

 

थाली मे है, पताशा बीरा करे तमाशा

 

ओखली मे धानी छोरिया की सासु कानी ..

 

ओडो खोडो का गीत –

 

ओडो छे खोडो छे घुघराए , रानियारे माथे मोर .

 

ईसरदास जी, गोरा छे घुघराए रानियारे माथे मोर ..

 

(इसी तरह अपने घर वालो के नाम लेना है )

 

गणपति जी की कहानी
 

एक मेढ़क था, और एक मेंढकी थी . दोनों जनसरोवर की पाल पर रहते थे . मेंढक दिन भर टर्र टर्र करता रहता था . इसलिए मेंढकी को, गुस्सा आता और मेंढक से बोलती, दिन भर टू टर्र टर्र क्यों करता है . जे विनायक, जे विनायक करा कर . एक दिन राजा की दासी आई, और दोनों जना को बर्तन मे, डालकर ले

 

गई और, चूल्हे पर चढ़ा दिया . अब दोनों खदबद खदबद सीजने लगे, तब मेंढक बोला मेढ़की, अब हम मार जायेंगे . मेंढकी गुस्से मे, बोली की मरया मे तो पहले ही थाने बोली कि ,दिन भर टर्र टर्र करना छोड़

 

दे . मेढको बोल्यो अपना उपर संकट आयो, अब तेरे विनायक जी को, सुमर नही किया तो, अपन दोनों मर जायेंगे . मेढकी ने जैसे ही सटक विनायक ,सटक विनायक का सुमिरन किया इतना मे, डंडो टूटयों हांड़ी फुट गई . मेढक व मेढकी को, संकट टूटयों दोनों जन ख़ुशी ख़ुशी सरोवर की, पाल पर चले गये . हे विनायकजी महाराज, जैसे मेढ़क मेढ़की का संकट मिटा वैसे सबका संकट मिटे . अधूरी हो तो, पूरी कर जो,पूरी हो तो मान राखजो .

 

गणगौर अरग के गीत

 

पूजन के बाद, सुरजनारायण भगवान को जल चड़ा कर गीत गाया जाता है .

 

अरक का गीत –

 

अलखल-अलखल नदिया बहे छे

 

यो पानी कहा जायेगो

 

आधा ईसर न्हायेगो

 

सात की सुई पचास का धागा

 

सीदे रे दरजी का बेटा

 

ईसरजी का बागा

 

सिमता सिमता दस दिन लग्या

 

ईसरजी थे घरा पधारों गोरा जायो,

 

बेटो अरदा तानु परदा

 

हरिया गोबर की गोली देसु

 

मोतिया चौक पुरासू

 

एक,दो,तीन,चार,पांच,छ:,सात,आठ,नौ,दस,ग्यारह,बारह,

 

तेरह, चौदह,पंद्रह,सोलह .

 

गणगौर को पानी पिलाने का गीत

 

सप्तमी से, गणगौर आने के बाद प्रतिदिन तीज तक (अमावस्या छोड़ कर) शाम मे, गणगौर घुमाने ले जाते

 

है . पानी पिलाते और गीत गाते हुए, मुहावरे व दोहे सुनाते है .

 

पानी पिलाने का गीत –

 

म्हारी गोर तिसाई ओ राज घाटारी मुकुट करो

 

बिरमादासजी राइसरदास ओ राज घाटारी मुकुट करो

 

म्हारी गोर तिसाई ओर राज

 

बिरमादासजी रा कानीरामजी ओ राज घाटारी

 

मुकुट करो म्हारी गोर तिसाई ओ राज

 

म्हारी गोर ने ठंडो सो पानी तो प्यावो ओ राज घाटारी मुकुट करो ..

 

(इसमें परिवार के पुरुषो के नाम क्रमशः लेते जायेंगे . )

 

गणगौर उद्यापन की विधी (Gangaur Udyapan vidhi )
 

सोलह दिन की गणगौर के बाद, अंतिम दिन जो विवाहिता की गणगौर पूजी जाती है उसका उद्यापन किया जाता है .

 

विधी –

 

  • आखरी दिन गुने(फल) सीरा , पूड़ी, गेहू गणगौर को चढ़ाये जाते है .
  • आठ गुने चढा कर चार वापस लिये जाते है .
  • गणगौर वाले दिन कवारी लड़किया और ब्यावली लड़किया दो बार गणगौर का पूजन करती है एक तो प्रतिदिन वाली और दूसरी बार मे अपने-अपने घर की परम्परा के अनुसार चढ़ावा चढ़ा कर पुनः पूजन किया जाता है उस दिन ऐसे दो बार पूजन होता है .
  • दूसरी बार के पूजन से पहले ब्यावाली स्त्रिया चोलिया रखती है ,जिसमे पपड़ी या गुने(फल) रखे जाते है . उसमे सोलह फल खुद के,सोलह फल भाई के,सोलह जवाई की और सोलह फल सास के रहते है .
  • चोले के उपर साड़ी व सुहाग का समान रखे . पूजा करने के बाद चोले पर हाथ फिराते है .
  • शाम मे सूरज ढलने से पूर्व गाजे-बाजे से गणगौर को विसर्जित करने जाते है और जितना चढ़ावा आता है उसे कथानुसार माली को दे दिया जाता है.
  • गणगौर विसर्जित करने के बाद घर आकर पांच बधावे के गीत गाते है .

नोट – गणगौर के बहुत से, गीत और दोहे होते है . हर जगह अपनी परम्परानुसार, पूजन और गीत जाये जाते है . जो प्रचलित है उसे, हम अपने अनुसार डाल रहे है . निमाड़ी गणगौर सिर्फ तीन दिन ही पूजी जाती है . जबकि राजस्थान मे, मारवाड़ी गणगौर प्रचलित है जो, झाकियों के साथ निकलती है .

 

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हिन्दू विवाह के प्रकार


हिन्दू विवाह के प्रकार

हिन्दू धर्म ग्रंथों में विवाह के आठ प्रकार का वर्णन है जो निम्नलिखित हैं :

  1. ब्राह्म विवाह : हिन्दुओं में यहआदर्श, सबसे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित विवाह का रूप माना जाता है। इस विवाह केअंतर्गत कन्या का पिता अपनी कन्या के लिए विद्वता, सामर्थ्य एवं चरित्र कीदृष्टि से सबसे सुयोग्य वर को विवाह के लिए आमंत्रित करता है। और उसके साथपुत्री का कन्यादान करता है। इसे आजकल सामाजिक विवाह या कन्यादान विवाह भीकहा जाता है।
  2. दैव विवाह : इस विवाह के अंतर्गतकन्या का पिता अपनी सुपुत्री को यज्ञ कराने वाले पुरोहित को देता था। यहप्राचीन काल में एक आदर्श विवाह माना जाता था। आजकल यह अप्रासंगिक हो गयाहै।
  3. आर्ष विवाह : यह प्राचीन काल मेंसन्यासियों तथा ऋषियों में गृहस्थ बनने की इच्छा जागने पर विवाह की स्वीकृतपध्दति थी। ऋषि अपनी पसन्द की कन्या के पिता को गाय और बैल का एक जोड़ा भेंटकरता था। यदि कन्या के पिता को यह रिश्ता मंजूर होता था तो वह यह भेंटस्वीकार कर लेता था और विवाह हो जाता था परंतु रिश्ता मंजूर नहीं होने पर यहभेंट सादर लौटा दी जाती थी।
  4. प्रजापत्य विवाह : यह ब्राह्म विवाहका एक कम विस्तृत, संशोञ्ति रूप था। दोनों में मूल अंतर सपिण्ड बहिर्विवाह केनियम तक सीमित था। ब्राह्म विवाह का आदर्श पिता की तरफ से सात एवं माता कीतरफ से पांच पीढ़ियों तक जुड़े लोगों से विवाह संबंध नहीं रखने का रहा है।जबकि प्रजापत्य विवाह पिता की तरफ से पांच एवं माता की तरफ से तीन पीढ़ियोंके सपिण्डों में ही विवाह निषेध की बात करता है।
  5. आसुर विवाह : यह विवाह का वह रूप हैजिसमें ब्राह्म विवाह या कन्यादान के आदर्श के विपरीत कन्यामूल्य एवंअदला-बदली की इजाजत दी गई है। ब्राह्म विवाह में कन्यामूल्य लेना कन्या केपिता के लिए निषिध्द है। ब्राह्म विवाह में कन्या के भाई और वर की बहन काविवाह (अदला-बदली) भी निषिध्द होता है।
  6. गंधर्व विवाह: यह आधुनिकप्रेम विवाह का पारंपरिक रूप था। इस विवाह की कुछ विशेष परिस्थितियों एवंविशेष वर्गों में स्वीकृति थी परन्तु परंपरा में इसे आदर्श विवाह नहीं मानाजाता था।
  7. राक्षस विवाह : यह विवाह आदिवासियोंमें लोकप्रिय हरण विवाह को हिन्दू विवाह में दी गई स्वीकृति है। प्राचीन कालमें राजाओं और कबीलों ने युध्द में हारे राजा तथा सरदारों में मैत्री संबंधबनाने के उद्देश्य से उनकी पुत्रियों से विवाह करने की प्रथा चलायी थी। इसविवाह में स्त्री को जीत के प्रतीक के रूप में पत्नी बनाया जाता था। यहस्वीकृत था परंतु आदर्श नहीं माना जाता था।
  8. पैशाच विवाह : यह विवाह कानिकृष्टतम रूप माना गया है। यह ञेखे या जबरदस्ती से शीलहरण की गई लड़की केअधिकारों की रक्षा के लिए अंतिम विकल्प के रूप में स्वीकारा गया विवाह रूपमाना गया है। इस विवाह से उत्पन्न संतान को वैध संतान के सारे अधिकार प्राप्तहोते हैं।
Posted in संस्कृत साहित्य

गुरु


मिश्च के रहस्यवादी कहते हैं, जब शिष्य तैयार हो जाता है, तब गुरु प्रकट हो जाता है। गुरु के लिए तो यह पूरी तरह से एक होशपूर्ण बात है। एक सूफी कहानी इसे समझने में तुम्हारी सहायता करेगी। सत्य को जानने की गहन अभीप्सा में एक नवयुवक ने अपने परिवार, अपने संसार को त्याग दिया और गुरु की खोज में निकला। जब वह नगर के बाहर निकल रहा था, तभी उसने एक वृद्ध को देखा। उसकी आयु लगभग साठ वर्ष रही होगी। वह एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था।

वह इतना शांत, आनंदित और चुंबकीय आकर्षण वाला था कि युवक अपने आप उसकी ओर खिंचा चला गया। वह उसके समीप पहुंचकर बोला, ‘मैं एक गुरु की तलाश में हूं। मैं आपके ज्ञान की सुगंध को अनुभव कर सकता हूं। शायद आप मुझे बता सकेंगे कि मुझे कहां जाना चाहिए व गुरु की कसौटी क्या है.? मैं यह कैसे तय करूंगा कि यही मेरा गुरु है?’

उस वृद्ध ने कहा कि यह तो बहुत सरल है। उसने विस्तारपूर्वक बिल्कुल ठीक-ठीक वर्णन कर दिया कि वह व्यक्ति कैसा होगा, किस तरह का वातावरण उसके आसपास होगा, वह कितनी आयु का होगा। यहां तक कि वह कौन से वृक्ष के नीचे बैठा मिलेगा, वहां कौन सी खुशबू आ रही होगी यह भी बता दिया। युवक ने उस वृद्ध को धन्यवाद दिया। वृद्ध ने कहा, ‘मुझे धन्यवाद देने का समय अभी नहीं आया है।

तीस साल तक वह रेगिस्तानों, जंगलों, पहाड़ों में गुरु की तलाश करता रहा, पर वे कसौटियां कभी भी पूरी न हो सकीं। थक कर, पूरी तरह से निराश होकर वह अपने गांव वापस लौटा। अब वह जवान न था। जब वह घर छोड़ कर गया था, उसकी आयु तीस वर्ष के लगभग थी। अब वह करीब साठ वर्ष का हो गया था।

पर जैसे ही वह अपने गृहनगर में प्रवेश करने को था, उसने उसी वृद्ध को वृक्ष के नीचे बैठा हुआ देखा। वह अपनी आंखों पर विश्वास ही न कर सका। उसने कहा, ‘हे भगवान, इसी आदमी का तो उसने वर्णन किया था। उसने यह तक कहा था कि वह नब्बे साल का होगा. यही तो वह वृद्ध है। मैं कितना बेहोश रहा होऊंगा कि मैंने उस वृक्ष को भी नहीं देखा, जिसके नीचे वह बैठा हुआ था। और वह सुगंध, जिसका उसने जिक्र किया था, वह दीप्ति, वह उपस्थिति, वह उसके चारों ओर की जीवंतता.।वह वृद्ध के पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा, ‘यह कैसा मजाक है? तीस साल तक मैं भटकता रहा और आप सब जानते थे।उस वृद्ध आदमी ने कहा, ‘मेरे जानने से क्या अंतर पड़ता है। सवाल यह है कि क्या तुम जानते थे? मैंने तो इसका एकदम ठीक-ठीक वर्णन कर दिया था, पर फिर भी तुम्हें भटकना पड़ा। केवल इस तीस साल के संघर्ष के बाद ही तुममें थोड़ा-सा होश आया है। उस दिन तुमने मुझे धन्यवाद देना चाहा था और मैंने तुमसे कहा था कि अभी समय नहीं आया है, एक दिन समय आएगा। तुम उसी दिन मुझे चुन सकते थे, लेकिन तुम्हारा भी दोष नहीं, तुम्हारे पास वे आंखें ही न थीं। तुमने मेरे शब्द तो सुने, पर तुम उनका अर्थ न समझ सके। मैं तुम्हारे सामने अपना ही वर्णन कर रहा था, पर तुम मेरी खोज कहीं और करने की सोच रहे थे।शिष्य गुरु को केवल संयोग से ही पाता है। वह चलता है, गिरता है, फिर-फिर उठ कर खड़ा होता है। धीरे-धीरे थोड़ी-थोड़ी जागरूकता उसमें आती जाती है। जहां तक गुरु का संबंध है, वह कुछ विशेष लोगों की होशपूर्वक प्रतीक्षा कर रहा होता है। वह उन लोगों तक पहुंचने का हरसंभव प्रयत्न भी करता है, लेकिन कठिनाई यह है कि वे सभी बेहोश हैं।

गुरु अस्तित्व देता है, ज्ञान नहीं। वह तुम्हारे अस्तित्व को, तुम्हारे जीवन को अधिक विस्तृत करता है, लेकिन ज्ञान को नहीं। वह तुम्हें एक बीज देता है और तुम भूमि बन कर उस बीज को अंकुरित होने, पनपने व खिलने दे सकते हो।

गुरु अस्तित्व देता है, ज्ञान नहीं। वह हमारी चेतना को विस्तृत करता है, ज्ञान को नहीं। वह मात्र एक बीज देता है और शिष्य भूमि बनकर उस बीज को अंकुरित होने, पनपने व खिलने देता है। गुरु पूर्णिमा (22 जुलाई) पर ओशो का चिंतन..

गुरु-शिष्य संबंध संयोग मात्र भी है और एक होशपूर्ण चुनाव भी। यह दोनों है। जहां तक गुरु का सवाल है, यह पूर्णत: होशपूर्ण (जागरूकतापूर्ण) चुनाव है। जहां तक शिष्य का प्रश्न है, यह संयोग ही हो सकता है, क्योंकि अभी होश उसके पास है ही नहीं।

मिश्च के रहस्यवादी कहते हैं, जब शिष्य तैयार हो जाता है, तब गुरु प्रकट हो जाता है। गुरु के लिए तो यह पूरी तरह से एक होशपूर्ण बात है। एक सूफी कहानी इसे समझने में तुम्हारी सहायता करेगी। सत्य को जानने की गहन अभीप्सा में एक नवयुवक ने अपने परिवार, अपने संसार को त्याग दिया और गुरु की खोज में निकला। जब वह नगर के बाहर निकल रहा था, तभी उसने एक वृद्ध को देखा। उसकी आयु लगभग साठ वर्ष रही होगी। वह एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था।

वह इतना शांत, आनंदित और चुंबकीय आकर्षण वाला था कि युवक अपने आप उसकी ओर खिंचा चला गया। वह उसके समीप पहुंचकर बोला, ‘मैं एक गुरु की तलाश में हूं। मैं आपके ज्ञान की सुगंध को अनुभव कर सकता हूं। शायद आप मुझे बता सकेंगे कि मुझे कहां जाना चाहिए व गुरु की कसौटी क्या है.? मैं यह कैसे तय करूंगा कि यही मेरा गुरु है?’

उस वृद्ध ने कहा कि यह तो बहुत सरल है। उसने विस्तारपूर्वक बिल्कुल ठीक-ठीक वर्णन कर दिया कि वह व्यक्ति कैसा होगा, किस तरह का वातावरण उसके आसपास होगा, वह कितनी आयु का होगा। यहां तक कि वह कौन से वृक्ष के नीचे बैठा मिलेगा, वहां कौन सी खुशबू आ रही होगी यह भी बता दिया। युवक ने उस वृद्ध को धन्यवाद दिया। वृद्ध ने कहा, ‘मुझे धन्यवाद देने का समय अभी नहीं आया है।

तीस साल तक वह रेगिस्तानों, जंगलों, पहाड़ों में गुरु की तलाश करता रहा, पर वे कसौटियां कभी भी पूरी न हो सकीं। थक कर, पूरी तरह से निराश होकर वह अपने गांव वापस लौटा। अब वह जवान न था। जब वह घर छोड़ कर गया था, उसकी आयु तीस वर्ष के लगभग थी। अब वह करीब साठ वर्ष का हो गया था।

पर जैसे ही वह अपने गृहनगर में प्रवेश करने को था, उसने उसी वृद्ध को वृक्ष के नीचे बैठा हुआ देखा। वह अपनी आंखों पर विश्वास ही न कर सका। उसने कहा, ‘हे भगवान, इसी आदमी का तो उसने वर्णन किया था। उसने यह तक कहा था कि वह नब्बे साल का होगा. यही तो वह वृद्ध है। मैं कितना बेहोश रहा होऊंगा कि मैंने उस वृक्ष को भी नहीं देखा, जिसके नीचे वह बैठा हुआ था। और वह सुगंध, जिसका उसने जिक्र किया था, वह दीप्ति, वह उपस्थिति, वह उसके चारों ओर की जीवंतता.।वह वृद्ध के पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा, ‘यह कैसा मजाक है? तीस साल तक मैं भटकता रहा और आप सब जानते थे।उस वृद्ध आदमी ने कहा, ‘मेरे जानने से क्या अंतर पड़ता है। सवाल यह है कि क्या तुम जानते थे? मैंने तो इसका एकदम ठीक-ठीक वर्णन कर दिया था, पर फिर भी तुम्हें भटकना पड़ा। केवल इस तीस साल के संघर्ष के बाद ही तुममें थोड़ा-सा होश आया है। उस दिन तुमने मुझे धन्यवाद देना चाहा था और मैंने तुमसे कहा था कि अभी समय नहीं आया है, एक दिन समय आएगा। तुम उसी दिन मुझे चुन सकते थे, लेकिन तुम्हारा भी दोष नहीं, तुम्हारे पास वे आंखें ही न थीं। तुमने मेरे शब्द तो सुने, पर तुम उनका अर्थ न समझ सके। मैं तुम्हारे सामने अपना ही वर्णन कर रहा था, पर तुम मेरी खोज कहीं और करने की सोच रहे थे।शिष्य गुरु को केवल संयोग से ही पाता है। वह चलता है, गिरता है, फिर-फिर उठ कर खड़ा होता है। धीरे-धीरे थोड़ी-थोड़ी जागरूकता उसमें आती जाती है। जहां तक गुरु का संबंध है, वह कुछ विशेष लोगों की होशपूर्वक प्रतीक्षा कर रहा होता है। वह उन लोगों तक पहुंचने का हरसंभव प्रयत्न भी करता है, लेकिन कठिनाई यह है कि वे सभी बेहोश हैं।

गुरु अस्तित्व देता है, ज्ञान नहीं। वह तुम्हारे अस्तित्व को, तुम्हारे जीवन को अधिक विस्तृत करता है, लेकिन ज्ञान को नहीं। वह तुम्हें एक बीज देता है और तुम भूमि बन कर उस बीज को अंकुरित होने, पनपने व खिलने दे सकते हो।

 

 

 

 

गुरुब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:।

गुरु: साक्षात्परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नम:।

गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं। आज गुरु पूर्णिमा यानी गुरु के पूजन का पर्व है। गुरु-शिष्य परंपरा भारतीय संस्कृति का सबसे पुरातन पहलू है। भारतीय वैदिक परंपरा का तो आधार ही गुरु-शिष्य थे। वेदों को श्रुति कहा जाता है, यानी जो गुरु के मुख से सुन कर शिष्यों ने आत्मसात किया और पीढ़ी दर पीढ़ी उसे आगे बढ़ाया। लिहाजा गुरु पर्व का भारतीय संस्कृति में बहुत महत्व है। आज भी आध्यात्मिक गुरु-शिष्य परंपरा बड़े पैमाने पर हमारे यहां प्रचलित है। गुरुपूर्णिमा के दिन पूरे भारत में लोगो अपने गुरु की आराधना करते हैं। संतों के आश्रमों में शिष्यों का तांता लग जाता है। दान, स्नान और पूजापाठ का इस दिन विशेष महत्व बताया गया है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरुपूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शाति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

हिन्दू पंचाग के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु की पूजा करने की परंपरा को गुरु पूर्णिमा पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व आत्मस्वरूप का ज्ञान पाने के अपने कर्तव्य की याद दिलाने वाला, मन में दैवी गुणों से विभूषित करनेवाला, सद्गुरु के प्रेम और ज्ञान की गंगा में बारंबार डूबकी लगाने हेतु प्रोत्साहन देने वाला है। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है, क्योंकि मान्यता है कि भगवान वेद व्यास ने पंचम वेद महाभारत की रचना इसी पूर्णिमा के दिन की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्य ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेद व्यास जी का पूजन किया और तभी से व्यास पूर्णिमा मनाई जा रही है।

 

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सात वार के सात विजयी तिलक, जगाएंगे भाग्य


सात वार के सात विजयी तिलक, जगाएंगे भाग्य
जानिए तिलक का महत्व
ज्योतिष अनुसार यदि वार अनुसार तिलक धारण किया जाए तो उक्त वार से संबंधित ग्रहों को शुभ फल देने वाला बनाया जा सकता है।
तिलक कई प्रकार के होते हैं – मृतिका, भस्म, चंदन, रोली, सिंदूर, गोपी आदि। सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं। चंदन का तिलक लगाने से पापों का नाश होता है, व्यक्ति संकटों से बचता है, उस पर लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है, ज्ञानतंतु संयमित व सक्रिय रहते हैं।
चन्दन के प्रकार : हरि चंदन, गोपी चंदन, सफेद चंदन, लाल चंदन, गोमती और गोकुल चंदन।
सोमवार : सोमवार का दिन भगवान शंकर का दिन होता है तथा इस वार का स्वामी ग्रह चंद्रमा हैं।
चंद्रमा मन का कारक ग्रह माना गया है। मन को काबू में रखकर मस्तिष्क को शीतल और शांत बनाए रखने के लिए आप सफेद चंदन का तिलक लगाएं। इस दिन विभूति या भस्म भी लगा सकते हैं।
मंगलवार : मंगलवार को हनुमानजी का दिन माना गया है। इस दिन का स्वामी ग्रह मंगल है।
मंगल लाल रंग का प्रतिनिधित्व करता है। इस दिन लाल चंदन या चमेली के तेल में घुला हुआ सिंदूर का तिलक लगाने से ऊर्जा और कार्यक्षमता में विकास होता है। इससे मन की उदासी और निराशा हट जाती है और दिन शुभ बनता है
बुधवार : बुधवार को जहां मां दुर्गा का दिन माना गया है वहीं यह भगवान गणेश का दिन भी है।

इस दिन का ग्रह स्वामी है बुध ग्रह। इस दिन सूखे सिंदूर (जिसमें कोई तेल न मिला हो) का तिलक लगाना चाहिए। इस तिलक से बौद्धिक क्षमता तेज होती है और दिन शुभ रहता है।
गुरुवार : गुरुवार को बृहस्पतिवार भी कहा जाता है। बृहस्पति ऋषि देवताओं के गुरु हैं। इस दिन के खास देवता हैं ब्रह्मा। इस दिन का स्वामी ग्रह है बृहस्पति ग्रह।
गुरु को पीला या सफेद मिश्रित पीला रंग प्रिय है। इस दिन सफेद चन्दन की लकड़ी को पत्थर पर घिसकर उसमें केसर मिलाकर लेप को माथे पर लगाना चाहिए या टीका लगाना चाहिए। हल्दी या गोरोचन का तिलक भी लगा सकते हैं। इससे मन में पवित्र और सकारात्मक विचार तथा अच्छे भावों का उद्भव होगा जिससे दिन भी शुभ रहेगा और आर्थिक परेशानी का हल भी निकलेगा।
शुक्रवार : शुक्रवार का दिन भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मीजी का रहता है। इस दिन का ग्रह स्वामी शुक्र ग्रह है।
हालांकि इस ग्रह को दैत्यराज भी कहा जाता है। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य थे। इस दिन लाल चंदन लगाने से जहां तनाव दूर रहता है वहीं इससे भौतिक सुख-सुविधाओं में भी वृद्धि होती है। इस दिन सिंदूर भी लगा सकते हैं।
शनिवार : शनिवार को भैरव, शनि और यमराज का दिन माना जाता है। इस दिन के ग्रह स्वामी है शनि ग्रह।
शनिवार के दिन विभूत, भस्म या लाल चंदन लगाना चाहिए जिससे भैरव महाराज प्रसन्न रहते हैं और किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं होने देते। दिन शुभ रहता है
रविवार : रविवार का दिन भगवान विष्णु और सूर्य का दिन रहता है। इस दिन के ग्रह स्वामी है सूर्य ग्रह जो ग्रहों के राजा हैं।
इस दिन लाल चंदन या हरि चंदन लगाएं। भगवान विष्णु की कृपा रहने से जहां मान-सम्मान बढ़ता है वहीं निर्भयता आती है।

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बीकानेर


बीकानेर स्थापना दिवस पर बीकानेर इतिहास की विशेष जानकारी :-
1. बीकाजी का जन्म 5 अगस्त 1438 में जोधपुर में हुवा!  इनके पिता राव जोधा व माता रानी नौरंगदे थी! 
2. आसोज सुदी 10, संवत 1522, सन 1465 को बीकाजी ने जोधपुर से कूच किया तथा पहले मण्डोर पहुंचे  !
3. राव बीका ने दस वर्ष तक भाटियों का मुकाबला किया मगर कुछ लाभ नहीं होता देख संवत 1442 में वर्तमान बीकानेर में आगये! 
4. बीकानेर का पुराना नाम “जांगळ प्रदेश “, तथा “विक्रमाखण्ड”,  “विक्रम नगर” या ” विक्रम पुरी” था !
5. बीकाजी की शादी करणी माता की उपस्थिति में पूगल के राव शेखा भाटी की पुत्री ” रंगकंवर ” के साथ हुई  !
6. बीकाजी ने करणी माता के हाथों विक्रम संवत 1542 में वर्तमान लक्ष्मीनाथ मन्दिर के पास बीकानेर के प्रथम किले की नींव रखी ! जिसका प्रवेशोत्सव संवत 1545, वैशाख सुदी 2, शनिवार को मनाया गया! 
7. बीकाजी की मृत्यु आसोज सुदी 3 संवत 1561, सन् 1504 को हुई! 
8. बीकानेर में राव बीकाजी से लेकर महाराजा नरेन्द्र सिंह तक कुल 24 शासक हुवे! 
9. महाराजा प्रताप सिंह बीकानेर के सबसे कम उम्र के शासक बने,  जब ये शासक बने तब इनकी आयु मात्र 6 वर्ष की थी  !
10. महाराजा दलपत सिंह जी सबसे अधिक आयु के शासक बने,  जब शासक बने तब इनकी आयु 46 वर्ष, 11 माह थी! 
11. बीकानेर पर सबसे कम समय तक राज करने वाले “महाराजा राजसिह ” थे जिन्होंने सिर्फ 21 दिन राज किया! 
12. बीकानेर में सबसे अधिक समय तक राज महाराजा गंगासिंह जी ने किया,  इनका कार्यकाल 55 वर्ष,  5 माह और 2 दिन रहा  !
13.  बीकानेर का जूनागढ़ संवत 1645 में बनना शुरू हुआ और संवत 1650 में बन कर तैयार हुवा,  जिसे महाराजा रायसिंह ने बनवाया था! जिसका जिम्मा महाराजा ने अपने दिवान करमचन्द बच्छावत को सौंपा था! जो बाद में रायसिंह से बगावत कर अकबर के साथ मिल गया था! 
14. जूनागढ़ किले की परिधि 1078 गज है !  परकोटे की दिवारें 14.5 फुट चौड़ी तथा 40 फुट ऊंची है  !
15. बीकानेर में सर्व प्रथम सिक्के ( मुद्रा ) सन् 1446-87 में महाराजा गजसिंह ने ढलवाये! यह कार्य महाराजा डूंगरसिंह जी तक जारी रहा, फिर बन्द होगया! 
16.  बीकानेर में सर्व प्रथम रेल 9 दिसम्बर सन् 1898 को ” चीलो ” से बीकानेर तक चली, जिसकी लम्बाई 47.75 मील थी!
17. बीकानेर में 5 दरवाजे है, 

(1) कोट गेट,  (2) जस्सुसर गेट, (3) नत्थुसर गेट,  (4) गोगा गेट तथा शीतला गेट!  वर्तमान में (6) विश्वकर्मा गेट और बन गया है  !
18. बीकानेर में 6 बारी (छोटे दरवाजे ) है 

(1) ईदगाह बारी (जिसे वर्तमान में “धर्म नगर द्वार ” कहते हैं, (2) बेणीसर बारी,  (3) पाबू बारी,  (4) कसाई बारी,  (5) हमालों की बारी तथा (6) पाबू बारी है!  वर्तमान में कुच्छेक और बन गई है! 
19.  गोगा गेट  रो पहले दिल्ली का दरवाजा कहते थे,  जिसकी स्थापना 12 अगस्त 1738 को हुई  !
20. जस्सुसर गेट को पहले ” यशवंत सागर दरवाजा ” कहते थे,  ( पुरातन विभाग में इसका उल्लेख ” जसवंत गेट” के नाम से मिलता हैं! 
21. नत्थुसर गेट का नाम पहले ” गणेश दरवाजा ” था  !

22. “जंगलधर शाह (जंगलधर बादशाह की उपाधी तत्कालीन राजपूत राजाओं ने बीकानेर के बादशाह करणसिंह को दी थी! 
23. सन् 1896 में पलाना के पास बरसिंहसर गांव में कोयला होने का पता चला!
यह सारी जानकारी जिन पुस्तकों से ली गयी हैं वो निम्न है  :-
तवारीख़ बीकानेर,  बीकानेर राज्य का इतिहास, बीकानेर का इतिहास तथा बीकानेर के शिलालेख