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गंगा


जयश्रीराधेकृष्ण जयश्रीसियारामॐ नमः शिवाय शुभ दोपहर 

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महेश कुमार द्विवेदी

ऋषि विश्वामित्र ने श्री राम लक्ष्मण को इस प्रकार कथा सुनाना आरम्भ किया, “पर्वतराज हिमालय की अत्यंत रूपवती, लावण्यमयी एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएँ थीं। सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना इन कन्याओं की माता थीं। हिमालय की बड़ी पुत्री का नाम गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम उमा था। गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवी गुणों से सम्पन्न थी। वह किसी बन्धन को स्वीकार न कर मनमाने मार्गों का अनुसरण करती थी। उसकी इस असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर देवता लोग विश्व के क्याण की दृष्टि से उसे हिमालय से माँग कर ले गये। पर्वतराज की दूसरी कन्या उमा बड़ी तपस्विनी थी। उसने कठोर एवं असाधारण तपस्या करके महादेव जी को वर के रूप में प्राप्त किया।”

विश्वामित्र के इतना कहने पर राम ने कहा, “भगवन्! जब गंगा को देवता लोग सुरलोक ले गये तो वह पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुई और गंगा को त्रिपथगा क्यों कहते हैं?” इस पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, “महादेव जी का विवाह तो उमा के साथ हो गया था किन्तु सौ वर्ष तक भी उनके किसी सन्तान की उत्पत्ति नहीं हुई। एक बार महादेव जी के मन में सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। जब उनके इस विचार की सूचना ब्रह्मा जी सहित देवताओं को मिली तो वे विचार करने लगे कि शिव जी के सन्तान के तेज को कौन सम्भाल सकेगा? उन्होंने अपनी इस शंका को शिव जी के सम्मुख प्रस्तुत किया। उनके कहने पर अग्नि ने यह भार ग्रहण किया और परिणामस्वरूप अग्नि के समान महान तेजस्वी स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ। देवताओं के इस षड़यंत्र से उमा के सन्तान होने में बाधा पड़ी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि भविष्य में वे कभी पिता नहीं बन सकेंगे। इस बीच सुरलोक में विचरण करती हुई गंगा से उमा की भेंट हुई। गंगा ने उमा से कहा कि मुझे सुरलोक में विचरण करत हुये बहुत दिन हो गये हैं। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर विचरण करूँ। उमा ने गंगा आश्वासन दिया कि वे इसके लिये कोई प्रबन्ध करने का प्रयत्न करेंगी।

“वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। सगर की पटरानी केशिनी विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। केशिनी सुन्दर, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति थी जो राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी। दोनों रानियों को लेकर महाराज सगर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में जाकर पुत्र प्राप्ति के लिये तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया कि तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी। दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी के साठ हजार पुत्र होंगे। कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की और गरुड़ की बहन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की।

उचित समय पर रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकल जिसे फोड़ने पर छोटे छोटे साठ हजार पुत्र निकले। उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया। कालचक्र बीतता गया और सभी राजकुमार युवा हो गये। सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर उन्हें डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था। इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। असमंजस के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया। शीघ्र ही उन्होंने अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया।

राम ने ऋषि विश्वामित्र से कहा, “गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। अतः कृपा करके इस वृतान्त को पूरा पूरा सुनाइये।” राम के इस तरह कहने पर ऋषि विश्वामित्र प्रसन्न होकर कहने लगे, ” राजा सगर ने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरी भरी भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे पीछे भेज दिया। यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने एक राक्षस का रूप धारण करके उस घोड़े को चुरा लिया। घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ। पूरी पृथ्वी में खोजने पर भी जब घोड़ा नहीं मिला तो, इस आशंका से कि किसीने घोड़े को तहखाने में न छुपा रखा हो, सगर के पुत्रों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया। उनके इस कार्य से असंख्य भूमितल निवासी प्राणी मारे गये। खोदते खोदते वे पाताल तक जा पहुँचे। उनके इस नृशंस कृत्य की देवताओं ने ब्रह्मा जी से शिकायत की तो ब्रह्मा जी ने कहा कि ये राजकुमार क्रोध एवं मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं। पृथ्वी की रक्षा कर दायित्व कपिल पर है इसलिये वे इस विषय में कुछ न कुछ अवश्य करेंगे। पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब घोड़ा और उसको चुराने वाला चोर नहीं मिला तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। रुष्ट होकर सगर ने आदेश दिया कि घोड़े को पाताल में जाकर ढूंढो। पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुँच गये। उन्होंने देखा कपिलदेव आँखें बन्द किये बैठे हैं और उन्हीं के पास यज्ञ का वह घोड़ा बँधा हुआ है। उन्होंने कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उनके लिये अनेक दुर्वचन कहे और उन्हें मारने के लिये दौड़े। सगर के इन कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के उन सब पुत्रों को भस्म कर दिया।

जब महाराज सगर को बहुत दिनों तक अपने पुत्रों की सूचना नहीं मिली तो उन्होंने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिये आदेश दिया। वीर अंशुमान शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर उसी मार्ग से पाताल की ओर चल पड़ा जिसे उसके चाचाओं ने बनाया था। मार्ग में जो भी पूजनीय ऋषि मुनि मिले उनका यथोचित सम्मान करके अपने लक्ष्य के विषय में पूछता हुआ उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पर उसके चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था। अपने चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों को देखकर उसे बहुत दुःख हुआ। उसने उनका तर्पण करने के लिये जलाशय की खोज की किन्तु उसे कहीं जलाशय दिखाई नहीं पड़ा। तभी उसकी दृष्टि अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी। उन्हें सादर प्रणाम करके अंशुमान ने पूछा कि बाबाजी! मैं इनका तर्पण करना चाहता हूँ। पास में यदि कोई सरोवर हो तो कृपा करके उसका पता बताइये। यदि आप इनकी मृत्यु के विषय में कुछ जानते हैं तो वह भी मुझे बताने की कृपा करें। गरुड़ जी ने बताया कि किस प्रकार उसके चाचाओं ने कपिल मुनि के साथ उद्दण्ड व्यवहार किया था जिसके कारण कपिल मुनि ने उन सबको भस्म कर दिया। इसके पश्चात् गरुड जी ने अंशुमान से कहा कि ये सब अलौकिक शक्ति वाले दिव्य पुरुष के द्वारा भस्म किये गये हैं अतः लौकिक जल से तर्पण करने से इनका उद्धार नहीं होगा, केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करने पर इनका उद्धार सम्भव है। अब तुम घोड़े को लेकर वापस चले जाओ जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके। गरुड़ जी की आज्ञानुसार अंशुमान वापस अयोध्या पहुँचे और अपने पितामह को सारा वृतान्त सुनाया। महाराज सगर ने दुःखी मन से यज्ञ पूरा किया। वे अपने पुत्रों के उद्धार करने के लिये गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे पर ऐसा करने के लिये उन्हें कोई भी युक्ति न सूझी।”

थोड़ा रुककर ऋषि विश्वामित्र कहा, “महाराज सगर के देहान्त के पश्चात् अंशुमान बड़ी न्यायप्रियता के साथ शासन करने लगे। अंशुमान के परम प्रतापी पुत्र दिलीप हुये। दिलीप के वयस्क हो जाने पर अंशुमान दिलीप को राज्य का भार सौंप कर हिमालय की कन्दराओं में जाकर गंगा को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करने लगे किन्तु उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो पाई और उनका स्वर्गवास हो गया। इधर जब राजा दिलीप का धर्मनिष्ठ पुत्र भगीरथ बड़ा हुआ तो उसे राज्य का भार सौंपकर दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तपस्या करने चले गये। पर उन्हें भी मनवांछित फल नहीं मिला। भगीरथ बड़े प्रजावत्सल नरेश थे किन्तु उनकी कोई सन्तान नहीं हुई। इस पर वे अपने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर स्वयं गंगावतरण के लिये गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे। उनकी अभूतपूर्व तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा। भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि सगर के पुत्रों को मेरे प्रयत्नों से गंगा का जल प्राप्त हो जिससे कि उनका उद्धार हो सके। इसके अतिरिक्त मुझे सन्तान प्राप्ति का भी वर दीजिये ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो। ब्रह्मा जी ने कहा कि सन्तान का तेरा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा, किन्तु तुम्हारे माँगे गये प्रथम वरदान को देने में कठिनाई यह है कि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगीं तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी। गंगा जी के वेग को संभालने की क्षमता महादेव जी के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है। इसके लिये तुम्हें महादेव जी को प्रसन्न करना होगा। इतना कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गये।

“भगीरथ ने साहस नहीं छोड़ा। वे एक वर्ष तक पैर के अँगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या करते रहे। केवल वायु के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य वस्तु का भक्षण नहीं किया। अन्त में इस महान भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव जी ने भगीरथ को दर्शन देकर कहा कि हे भक्तश्रेष्ठ! हम तेरी मनोकामना पूरी करने के लिये गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण करेंगे। इसकी सूचना पाकर विवश होकर गंगा जी को सुरलोक का परित्याग करना पड़ा। उस समय वे सुरलोक से कहीं जाना नहीं चाहती थीं, इसलिये वे यह विचार करके कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाऊँगी वे भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं। गंगा के इस वेगपूर्ण अवतरण से उनका अहंकार शिव जी से छुपा न रहा। महादेव जी ने गंगा की वेगवती धाराओं को अपने जटाजूट में उलझा लिया। गंगा जी अपने समस्त प्रयत्नों के बाद भी महादेव जी के जटाओं से बाहर न निकल सकीं। गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की। भगीरथ के इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा। छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बँट गईं। गंगा जी की तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे पीछे चली। जिधर जिधर भगीरथ जाते थे, उधर उधर ही गंगा जी जाती थीं। स्थान स्थान पर देव, यक्ष, किन्नर, ऋषि-मुनि आदि उनके स्वागत के लिये एकत्रित हो रहे थे। जो भी उस जल का स्पर्श करता था, भव-बाधाओं से मुक्त हो जाता था। चलते चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा जी अपने वेग से उनके यज्ञशाला को सम्पूर्ण सामग्री के साथ बहाकर ले जाने लगीं। इससे ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर जह्नु ऋषि ने गंगा जी को अपने कानों से निकाल दिया और उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया। तब से गंगा जाह्नवी कहलाने लगीँ। इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते चलते समुद्र तक पहुँच गईं और वहाँ से सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिये रसातल में चली गईं। उनके जल के स्पर्श से भस्मीभूत हुये सगर के पुत्र निष्पाप होकर स्वर्ग गये। उस दिन से गंगा के तीन नाम हुये, त्रिपथगा, जाह्नवी और भागीरथी।

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रघुवंशम्


रघुवंशम्

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रघुवंश कालिदास रचित महाकाव्य है। इस महाकाव्य में उन्नीस सर्गों में रघु के कुल में उत्पन्न बीस राजाओं का इक्कीस प्रकार के छन्दों का प्रयोग करते हुए वर्णन किया गया है। इसमें दिलीप, रघु, दशरथ, राम, कुश और अतिथि का विशेष वर्णन किया गया है। वे सभी समाज में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए। राम का इसमें विषद वर्णन किया गया है। उन्नीस में से छः सर्ग उनसे ही संबन्धित हैं।

आदिकवि वाल्मीकि ने राम को नायक बनाकर अपनी रामायण रची, जिसका अनुसरण विश्व के कई कवियों और लेखकों ने अपनी-अपनी भाषा में किया और राम की कथा को अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। कालिदास ने यद्यपि राम की कथा रची परंतु इस कथा में उन्होंने किसी एक पात्र को नायक के रूप में नहीं उभारा। उन्होंने अपनी कृति ‘रघुवंश’ में पूरे वंश की कथा रची, जो दिलीप से आरम्भ होती है और अग्निवर्ण पर समाप्त होती है। अग्निवर्ण के मरणोपरांत उसकी गर्भवती पत्नी के राज्यभिषेक के उपरान्त इस महाकाव्य की इतिश्री होती है।

रघुवंश पर सबसे प्राचीन उपलब्ध टीका १०वीं शताब्दी के काश्मीरी कवि वल्लभदेव की है।[1] किन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध टीका मल्लिनाथ (1350 ई – 1450 ई) द्वारा रचित ‘संजीवनी’ है।

परिचय[संपादित करें]

‘रघुवंश’ की कथा को कालिदास ने १९ सर्गों में बाँटा है जिनमें राजा दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम, लव, कुश, अतिथि तथा बाद के बीस रघुवंशी राजाओं की कथा गूँथी गई है। इस वंश का पतन उसके अन्तिम राजा अग्निवर्ण के विलासिता की अति के कारण होता है और यहीं इस कृति की इति भी होती है।

इक्कीस सर्गों में वर्णित रघुवंशी राजाओं की नामावली क्रमानुसार निम्नलिखित है- यथा-

  1. दिलीप
  2. रघु
  3. अज
  4. दशरथ
  5. राम
  6. कुश
  7. अतिथि
  8. निषध
  9. नल
  10. नभ
  1. पुण्डरीक
  2. क्षेमधन्वा
  3. देवानीक
  4. अहीनगु
  5. पारियात्र
  6. शिल
  7. उन्नाभ
  8. वज्रनाभ
  9. शंखण
  10. व्युषिताश्व
  1. विश्वसह
  2. हिरण्यनाभ
  3. कौसल्य
  4. ब्रह्मिष्ठ
  5. पुत्र
  6. पुष्य
  7. धृवसन्धि
  8. सुदर्शन
  9. अग्निवर्ण

इस कथा के माध्यम से कवि कालिदास ने राजा के चरित्र, आदर्श तथा राजधर्म जैसे विषयों का बडा़ सुंदर वर्णन किया है। भारत के इतिहास में सूर्यवंश के इस अध्याय का वह अंश भी है जिसमें एक ओर यह संदेश है कि राजधर्म का निर्वाह करनेवाले राजा की कीर्ति और यश देश भर में फैलती है, तो दूसरी ओर चरित्रहीन राजा के कारण अपयश व वंश-पतन निश्चित है, भले ही वह किसी भी उच्च वंश का वंशज ही क्यों न रहा हो!

समालोचकों ने कालिदास का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य ‘रघुवंश’ को माना है। आदि से अन्त तक इसमें निपुण कवि का विलक्षण कौशल व्यक्त होता है। दिलीप और सुदक्षिणा के तपोमय जीवन से प्रारम्भ इस काव्य में क्रमश: रघुवंशी राजाओं की वदान्यता, वीरता, त्याग और तप की एक के बाद एक कहानी उद्घाटित होती है और काव्य की समाप्ति कामुक अग्निवर्ण की विलासिता और उनके अवसान से होती है। दिलीप और सुदक्षिणा का तप:पूत आचरण, वरतंतु के शिष्य कौत्स और रघु का संवाद, इंदुमती स्वयंवर, अजविलाप, राम और सीता की विमानयात्रा, निर्वासित सीता की तेजस्विता, संगमवर्णन, अयोध्या नगरी की शून्यता आदि का चित्र एक के बाद एक उभरता जाता है और पाठक विमुग्ध बना हुआ मनोयोग से उनको देखता जाता है। अनेक कथानकों का एकत्रीकरण होने पर भी इस महाकाव्य में कवि ने उनका एक दूसरे से एक प्रकार समन्वय कर दिया है जिससे उनमें स्वाभाविक प्रवाह का संचार हो गया है। ‘रघुवंश’ के अनेक नृपतियों की इस ज्योतित नक्षत्रमाला में कवि ने आदिकवि वाल्मीकि के महिमाशाली राम को तेजस्विता और गरिमा प्रदान की है। वर्णनों की सजीवता, आगत प्रसर्गों की स्वाभाविकता, शैली का माधुर्य तथा भाव और भाषा की दृष्टि से ‘रघुवंश’ संस्कृतमहाकाव्यों में अनुपम है।

रघुवंश महाकाव्य की शैली क्लिष्ट अथवा कृत्रिम नहीं, सरल और प्रसादगुणमयी है। अलंकारों का सुरुचिपूर्ण प्रयोग स्वाभाविक एवं सहज सुंदर है। चुने हुए कुछ शब्दों में वर्ण्य विषय की सुंदर झाँकी दिखाने के साथ कवि ने ‘रघुवंश’ के तेरहवें सर्ग में इष्ट वस्तु के सौंदर्य की पराकाष्ठा दिखलाने की अद्भुत युक्ति का आश्रय लिया है। गंगा और यमुना के संगम की, उनके मिश्रित जल के प्रवाह की छटा का वर्णन करते समय एक के बाद एक उपमाओं की शृंखला उपस्थित करते हुए अन्त में कवि ने शिव के शरीर के साथ-साथ उसकी शोभा की उपमा दी है और इस प्रकार सौंदर्य को सीमा से निकालकर अनंत के हाथों सौंप दिया-

हे निर्दोष अंगोंवाली सीते, यमुना की तरंगों से मिले हुए गंगा के इस प्रवाह को जरा देखो तो सही, जो कहीं कृष्णा सर्पों से अलंकृत और कहीं भस्मांगराग से मंडित भगवान्‌ शिव के शरीर के समान सुंदर प्रतीत हो रहा है

कालिदास मुख्यत: कोमल और रमणीय भावों के अभिव्यंजक कवि है। इसीलिए प्रकृति का कोमल, मनोरम और मधुर पक्ष उनकी इस कृति में भी अंकित हुआ है।

रघुवंश काव्य के आरंभ में महाकवि ने रघुकुल के राजाओं का महत्त्व एवं उनकी योग्यता का वर्णन करने के बहाने प्राणिमात्र के लिए कितने ही प्रकार के रमणीय उपदेश दिये हैं। रघुवंश काव्य में कालिदास ने रघुवंशी राजाओं को निमित्त बनाकर उदारचरित पुरुषों का स्वभाव पाठकों के सम्मुख रखा है। रघुवंशी राजाओं का संक्षेप में वर्णन जानना हो तो रघुवंश के केवल एक श्लोक में उसकी परिणति इस प्रकार है-

त्यागाय समृतार्थानां सत्याय मिभाषिणाम्।
यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम् ॥
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनानन्ते तनुत्यजाम् ॥

(सत्पात्र को दान देने के लिए धन इकट्ठा करनेवाले, सत्य के लिए मितभाषी, यश के लिए विजय चाहनेवाले, और संतान के लिए विवाह करनेवाले, बाल्यकाल में विद्याध्ययन करने वाले, यौवन में सांसारिक भोग भोगने वाले, बुढ़ापे में मुनियों के समान रहने वाले और अन्त में योग के द्वारा शरीर का त्याग करने वाले (राजाओं का वर्णन करता हूँ))

रघुवंश की कथा[संपादित करें]

‘रघुवंश’ की कथा दिलीप और उनकी पत्नी सुदक्षिणा के ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में प्रवेश से प्रारम्भ होती है। राजा दिलीप धनवान, गुणवान, बुद्धिमान और बलवान है, साथ ही धर्मपरायण भी। वे हर प्रकार से सम्पन्न हैं परंतु कमी है तो संतान की। संतान प्राप्ति का आशीर्वाद पाने के लिए दिलीप को गोमाता नंदिनी की सेवा करने के लिए कहा जाता है। रोज की तरह नंदिनी जंगल में विचर रही है और दिलीप भी उसकी रखवाली के लिए साथ चलते हैं। इतने में एक सिंह नंदिनी को अपना भोजन बनाना चाहता है। दिलीप अपने आप को अर्पित कर सिंह से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें वह अपना आहार बनाये। सिंह प्रार्थना स्वीकार कर लेता है और उन्हें मारने के लिए झपटता है। इस छलांग के साथ ही सिंह ओझल हो जाता है। तब नन्दिनी बताती है कि उसी ने दिलीप की परीक्षा लेने के लिए यह मायाजाल रचा था। नंदिनी दिलीप की सेवा से प्रसन्न होकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देती है। राजा दिलीप और सुदक्षिणा नंदिनी का दूध ग्रहण करते हैं और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस गुणवान पुत्र का नाम रघु रखा जाता है जिसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है।

रघु के पराक्रम का वर्णन कालिदास ने विस्तारपूर्वक अपने ग्रन्थ ‘रघुवंश’ में किया है। अश्वमेध यज्ञ के घोडे़ को चुराने पर उन्होंने इन्द्र से युद्ध किया और उसे छुडा़कर लाया था। उन्होंने विश्वजीत यज्ञ सम्पन्न करके अपना सारा धन दान कर दिया था। जब उनके पास कुछ भी धन नहीं रहा, तो एक दिन ऋषिपुत्र कौत्स ने आकर उनसे १४ करोड स्वर्ण मुद्राएं मांगी ताकि वे अपनी गुरु दक्षिणा दे सकें। रघु ने इस ब्राह्मण को संतुष्ट करने के लिए कुबेर पर चढा़ई करने का मन बनाया। यह सूचना पाकर कुबेर घबराया और खुद ही उनका खज़ाना भर दिया। रघु ने सारा खज़ाना ब्राह्मण के हवाले कर दिया; परंतु उस ब्राह्मणपुत्र ने केवल १४ करोड़ मुद्राएं ही स्वीकारी।

रघु के पुत्र अज भी बडे़ पराक्रमी हुए। उन्होंने विदर्भ की राजकुमारी इंदुमति के स्वयंवर में जाकर उन्हें अपनी पत्नी बनाया। कालिदास ने इस स्वयंवर का सुंदर वर्णन ‘रघुवंश’ में किया है। रघु ने अज का राज-कौशल देखकर अपना सिंहासन उन्हें सौंप दिया और वानप्रस्थ ले लिया। रघु की तरह अज भी एक कुशल राजा बने। वे अपनी पत्नी इन्दुमति से बहुत प्रेम करते थे। एक बार नारदजी प्रसन्नचित्त अपनी वीणा लिए आकाश में विचर रहे थे। संयोगवश उनकी विणा का एक फूल टूटा और बगीचे में सैर कर रही रानी इंदुमति के सिर पर गिरा जिससे उनकी मृत्यु हो गई। राजा अज इंदुमति के वियोग में विह्वल हो गए और अन्त में जल-समाधि ले ली।

कालिदास ने ‘रघुवंश’ के आठ सर्गों में दिलीप, रघु और अज की जीवनी पर प्रकाश डाला। बाद में उन्होंने दशरथ, राम, लव और कुश की कथा का वर्णन आठ सर्गों में किया। जब राम लंका से लौट रहे थे, तब पुष्प विमान में बैठी सीता को दण्डकारण्य तथा पंचवटी के उन स्थानों को दिखा रहे थे जहाँ उन्होंने सीता की खोज की थी। इसका बडा़ ही सुंदर एवं मार्मिक दृष्टांत कालिदास ने ‘रघुवंश’ के तेरहवें सर्ग में किया है। इस सर्ग से पता चलता है कि कालिदास की भौगोलिक जानकारी कितनी गहन थी।

अयोध्या की पूर्व ख्याति और वर्तमान स्थिति का वर्णन कुश के स्वप्न के माध्यम से कवि ने बडी़ कुशलता से सोलहवें सर्ग में किया है। अन्तिम सर्ग में रघुवंश के अन्तिम राजा अग्निवर्ण के भोग-विलास का चित्रण किया गया है। राजा के दम्भ की पराकाष्ठा यह है कि जनता जब राजा के दर्शन के लिए आती है तो अग्निवर्ण अपने पैर खिड़की के बाहर पसार देता है। जनता के अनादर का परिणाम राज्य का पतन होता है और इस प्रकार एक प्रतापी वंश की इति भी हो जाती है।

रामायण और रघुवंश[संपादित करें]

कालिदास जानते थे कि राम की कथा का उत्कर्ष वाल्मिकि की रामायण से हो गया था और उसके बाद जो भी लिखा जाएगा उसका जूठन ही होगा। इसीलिए उन्होंने अपने काव्य में राम को नायक बनाने की बजाय रघुवंश को ही कथानायक के रूप में प्रस्तुत किया; जिसमें सभी पात्रों की अपनी-अपनी भूमिका रही- अपने-अपने चरित्र के आधार पर….कुछ उत्कर्ष तो कुछ घटिया। रघुवंश का नाम उनके पराक्रमी और आदर्श राजाओं के नाम से ही चलता रहेगा।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार इक्ष्वाकु वंश की पूरी वंशावली[संपादित करें]

उपर्युक्त जानकारी कालिदास के महाकाव्य रघुवंश के अनुसार है किन्तु रघुवंश नाम पड़ने के पहले इस वंश का नाम ‘इक्ष्वाकु वंश’ था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार इक्ष्वाकु वंश की पूरी वंशावली इस प्रकार है जो वाल्मीकि रामायण में राम के विवाह प्रसंग में आयी है।

“आदि रूप ब्रह्मा जी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुये। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वतमनु हुये। वैवस्वतमनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुये। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की। इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुये। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुये। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुन्धुमार हुये। धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुये और मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। सुसन्धि के दो पुत्र हुये – ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुये। भरत के पुत्र असित हुये और असित के पुत्र सगर हुये। सगर के पुत्र का नाम असमंज था। असमंज के पुत्र अंशुमान तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप हुये। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुये, इन्हीं भगीरथ ने अपनी तपोबल से गंगा को पृथ्वी पर लाया। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ और ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुये। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुये जो एक शाप के कारण राक्षस हो गये थे, इनका दूसरा नाम कल्माषपाद था। प्रवृद्ध के पुत्र शंखण और शंखण के पुत्र सुदर्शन हुये। सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु हुये। मरु के पुत्र प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुये। अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुये। नाभाग के पुत्र का नाम अज था। अज के पुत्र दशरथ हुये और दशरथ के चार पुत्र रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रघ्न हुये।”
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बहुत समय पहले की बात है


Acharya Bal Krishna

बहुत समय पहले की बात है एक विख्यात ऋषि गुरुकुल में बालकों को शिक्षा प्रदान किया करते थे . उनके गुरुकुल में बड़े-बड़े राजा महाराजाओं के पुत्रों से लेकर साधारण परिवार के लड़के भी पढ़ा करते थे।
वर्षों से शिक्षा प्राप्त कर रहे शिष्यों की शिक्षा आज पूर्ण हो रही थी और सभी बड़े उत्साह के साथ अपने अपने घरों को लौटने की तैयारी कर रहे थे कि तभी ऋषिवर की तेज आवाज सभी के कानो में पड़ी ,
” आप सभी मैदान में एकत्रित हो जाएं। “
आदेश सुनते ही शिष्यों ने ऐसा ही किया।
ऋषिवर बोले , “ प्रिय शिष्यों , आज इस गुरुकुल में आपका अंतिम दिन है . मैं चाहता हूँ कि यहाँ से प्रस्थान करने से पहले आप सभी एक दौड़ में हिस्सा लें .
यह एक बाधा दौड़ होगी और इसमें आपको कहीं कूदना तो कहीं पानी में दौड़ना होगा और इसके आखिरी हिस्से में आपको एक अँधेरी सुरंग से भी गुजरना पड़ेगा .”
तो क्या आप सब तैयार हैं ?”
” हाँ , हम तैयार हैं ”, शिष्य एक स्वर में बोले .
दौड़ शुरू हुई .
सभी तेजी से भागने लगे . वे तमाम बाधाओं को पार करते हुए अंत में सुरंग के पास पहुंचे . वहाँ बहुत अँधेरा था और उसमे जगह – जगह नुकीले पत्थर भी पड़े थे जिनके चुभने पर असहनीय पीड़ा का अनुभव होता था .
सभी असमंजस में पड़ गए , जहाँ अभी तक दौड़ में सभी एक सामान बर्ताव कर रहे थे वहीँ अब सभी अलग -अलग व्यवहार करने लगे ; खैर , सभी ने ऐसे-तैसे दौड़ ख़त्म की और ऋषिवर के समक्ष एकत्रित हुए।
“पुत्रों ! मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोगों ने दौड़ बहुत जल्दी पूरी कर ली और कुछ ने बहुत अधिक समय लिया , भला ऐसा क्यों ?”, ऋषिवर ने प्रश्न किया।
यह सुनकर एक शिष्य बोला , “ गुरु जी , हम सभी लगभग साथ –साथ ही दौड़ रहे थे पर सुरंग में पहुचते ही स्थिति बदल गयी …कोई दुसरे को धक्का देकर आगे निकलने में लगा हुआ था तो कोई संभल -संभल कर आगे बढ़ रहा था …और कुछ तो ऐसे भी थे जो पैरों में चुभ रहे पत्थरों को उठा -उठा कर अपनी जेब में रख ले रहे थे ताकि बाद में आने वाले लोगों को पीड़ा ना सहनी पड़े…. इसलिए सब ने अलग-अलग समय में दौड़ पूरी की .”
“ठीक है ! जिन लोगों ने पत्थर उठाये हैं वे आगे आएं और मुझे वो पत्थर दिखाएँ “, ऋषिवर ने आदेश दिया .
आदेश सुनते ही कुछ शिष्य सामने आये और पत्थर निकालने लगे . पर ये क्या जिन्हे वे पत्थर समझ रहे थे दरअसल वे बहुमूल्य हीरे थे . सभी आश्चर्य में पड़ गए और ऋषिवर की तरफ देखने लगे .
“ मैं जानता हूँ आप लोग इन हीरों के देखकर आश्चर्य में पड़ गए हैं .” ऋषिवर बोले।
“ दरअसल इन्हे मैंने ही उस सुरंग में डाला था , और यह दूसरों के विषय में सोचने वालों शिष्यों को मेरा इनाम है।
पुत्रों यह दौड़ जीवन की भागम -भाग को दर्शाती है, जहाँ हर कोई कुछ न कुछ पाने के लिए भाग रहा है . पर अंत में वही सबसे समृद्ध होता है जो इस भागम -भाग में भी दूसरों के बारे में सोचने और उनका भला करने से नहीं चूकता है .
अतः यहाँ से जाते -जाते इस बात को गाँठ बाँध लीजिये कि आप अपने जीवन में सफलता की जो इमारत खड़ी करें उसमे परोपकार की ईंटे लगाना कभी ना भूलें , अंततः वही आपकी सबसे अनमोल जमा-पूँजी होगी । “

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दन पुर गाव. या गावात लहु लोहाराच एक दुकान असतं. – bodhkatha zen


bodhkatha zen
दन पुर गाव. या गावात लहु लोहाराच
एक दुकान असतं. दिवस भर भाता
मारायचा, भट्टी पेटती ठेवायची
आणि ऐरणीवर भट्टीमधे तापलेल्या
लोखंडावर हातोड्याचे घाव घालुन
वेगवेगळ्या वस्तु बनवायच्या हा
त्याचा व्यवसाय. रोजच्या
प्रामाणे आज देखिल त्याच काम
जोरात आणि जोमात चालु असताना
त्याच्या घराबाहेरुन जाणा-या
एका भिक्कुला त्याने घातलेल्या
हातोड्याचे घाव ऐकु येतात.
कुतुहल म्हणुन तो भिक्कु
त्याच्या घरामधे येतो आणि
उत्सुकतापुर्ण नजरेने त्याच
काम न्याहाळु लगतो. त्या घराच्या
आडगळीच्या कोप-यामधे काही मोडके,
वेडेवाकडे, बिनकामचे हातोडे
पडलेले असतात. तो भिक्कु लहु
लोहारास विचारतो "मित्रा हे
हातोडे मोडायला किती ऐरणी
लागल्या? त्या मोडक्या ऐरणी
कश्याबर ईथे दिसत नाहीत?" लहु
उत्तरतो "ही एकच ऐरण मी गेली
कीत्येक वर्षे वापरतो आहे. या
ऐरणीनेच कीत्येक हातोडे तोडले
असतील. कारण हातोडे घाव घालतो तर
ऐरण तो घाव शातपणे सहन करते."
--------------------------------------------------------------------------एक
झेन कथा है। एक युवक अपने गुरु के
पास वर्षों रहा, और गुरु कभी उसे
कुछ कहा नहीं। बार-बार शिष्य
पूछता कि मुझे कुछ कहें, आदेश दें,
मैं क्या करूं? गुरु कहता, मुझे
देखो। मैं जो करता हूं, वैसा करो।
मैं जो नहीं करता हूं, वह मत करो,
इससे ही समझो। लेकिन उसने कहा,
इससे मेरी समझ में नहीं आता, आप
मुझे कहीं और भेज दें।
झेन-परंपरा में ऐसा होता है कि
शिष्य मांग सकता है कि मुझे कहीं
भेज दें, जहां में सीख सकूं। तो
गुरु ने कहा, तू जा, पास में एक
सराय है कुछ मील दूर, वहां तू रुक
जा, चौबीस घंटे ठहरना और सराय का
मालिक तुझे काफी बोध देगा। वह
गया। वह बड़ा हैरान हुआ। इतने
बड़े गुरु के पास तो बोध नहीं हुआ
और सराय के मालिक के पास बोध होगा!
धर्मशाला का रखवाला! बेमन से
गया। और वहां जाकर तो देखी उसकी
शक्ल-सूरत रखवाले की तो और हैरान
हो गया कि इससे क्या बोध होने
वाला है! लेकिन अब चौबीस घंटे तो
रहना था। और गुरु ने कहा था कि
देखते रहना, क्योंकि वह धर्मशाला
का मालिक शायद कुछ कहे न कहे, मगर
देखते रहना, गौर से जांच करना। तो
उसने देखा कि दिनभर वह धूल ही
झाड़ता रहा, वह धर्मशाला का
मालिक; कोई यात्री गया, कोई आया,
नया कमरा, पुराना, वह धूल झाड़ता
रहा दिनभर। शाम को बर्तन साफ
करता रहा। रात ग्यारह-बारह बजे
तक यह देखता रहा, वह बर्तन ही साफ
कर रहा था, फिर सो गया। सुबह जब
उठा पांच बजे, तो भागा कि देखें वह
क्या कर रहा है; वह फिर बर्तन साफ
कर रहा था। साफ किए ही बर्तन साफ
कर रहा था। रात साफ करके रखकर सो
गया था। इसने पूछा कि महाराज, और
सब तो ठीक है, और ज्यादा ज्ञान की
मुझे आपसे अपेक्षा भी नहीं, इतना
तो मुझे बता दें कि साफ किए बर्तन
अब किसलिए साफ कर रहे हैं? उसने
कहा, रातभर भी बर्तन रखें रहें तो
धूल जम जाती है। उपयोग करने से ही
धूल नहीं जमती, रखे रहने से भी धूल
जम जाती है। समय के बीतने से धूल
जम जाती है। यह तो वापस चला आया।
गुरु से कहा, वहां क्या सीखने में
रखा है, वह आदमी तो हद्द पागल है।
वह तो बर्तनों को घिसता ही रहता
है, रात बारह बजे तक घिसता रहा,
फिर सुबह पांच बजे से--और
घिसे-घिसायों को घिसने लगा। उसके
गुरु ने कहा, यही तू कर, नासमझ!
इसीलिए तुझे वहां भेजा था। रात
भी घिस, घिसते-घिसते ही सो जा, और
सुबह उठते ही से फिर घिस।
क्योंकि रात भी सपनों के कारण
धूल जम जाती है। समय के बीतते ही
धूल जम जाती है। विचार और स्वप्न
हमारे भीतर के मन की धूल हैं।
------------------------------------------------------------------------ झेन
कथा- ४ मूठभर चांदणं ठमादेवी | 10 March,
2011 - 02:30 रेकॉन हा झेन गुरू अत्यंत
साधेपणाने राहायचा... त्याच्या
झोपडीत काहीही नव्हतं... एके
रात्री त्याच्या झोपडीत चोर
शिरला. त्याला चोरण्यासाठी
काहीही मिळालं नाही... पण रेकॉनने
ते पाहिलं... म्हणाला, तू
माझ्याकडे खूपच दुरून आलेला
दिसतो आहेस... तेव्हा तू रिकाम्या
हाताने जाऊ नयेस... तुला मी भेट
म्हणून माझे कपडे देतो... असं
म्हणून त्याने अंगावरचे कपडे
उतरवले आणि त्या चोराला दिले...
चोर निघून गेला... तो गेल्यावर
गुरू नग्नावस्थेत विचार करत
बसला होता... त्याच्या झोपडीत
चांद्णं विखुरलं होतं... तो
म्हणाला, अरेरे, मी त्या चोराला
मूठभर चांदणं तर नक्कीच देऊ शकलो
असतो... --------------------------------------------- चहाचा
कप नान-इन या झेन धर्मगुरूला एक
प्राध्यापक भेटायला आला...
त्याला स्वतःच्या बुद्धीबद्दल
खूप अभिमान होता आणि स्वतःच्या
ज्ञानाबद्दलही. त्याला झेन
जाणून घ्यायचा होता. नान-इनने
त्याला चहा देऊ केला..
पाहुण्याच्या कपात चहा ओतताना
तो इतका ओतला की कप भरून वाहू
लागला. प्राध्यापकाला काही
राहवलं नाही. तो म्हणाला, कप भरून
वाहू लागलाय. त्यात आणखी चहा
मावणार नाही. नान-इन उत्तरला या
कपाप्रमाणेच तुझं मनही
स्वतःविषयीच्या मतांनी आणि
पूर्वग्रहांनी भरलेलं आहे..
तुझ्या मनाचा कप तू रिकामा
केल्याशिवाय मी तुला झेन कसा
दाखवणार? तात्पर्य- कोणतंही नवीन
काही शिकायचं असेल, ज्ञान हवं
असेल तर आधी मनाची पाटी कोरी
करावी लागेल. मनाची पाटी कोरी
केल्याशिवाय त्यावर नवीन
अक्षरं उमटणार नाहीत.
------------------------------------ “मुझे कोई मार्ग
नहीं सूझ रहा है. मैं हर समय उन
चीज़ों के बारे में सोचता रहता
हूँ जिनका निषेध किया गया है.
मेरे मन में उन वस्तुओं को
प्राप्त करने की इच्छा होती रहती
है जो वर्जित हैं. मैं उन कार्यों
को करने की योजनायें बनाते रहता
हूँ जिन्हें करना मेरे हित में
नहीं होगा. मैं क्या करूं?” –
शिष्य ने गुरु से
उद्विग्नतापूर्वक पूछा. गुरु ने
शिष्य को पास ही गमले में लगे एक
पौधे को देखने के लिए कहा और पूछा
कि वह क्या है. शिष्य के पास उत्तर
नहीं था. “यह बैलाडोना का
विषैला पौधा है. यदि तुम इसकी
पत्तियों को खा लो तो तुम्हारी
मृत्यु हो जाएगी. लेकिन इसे
देखने मात्र से यह तुम्हारा कुछ
अहित नहीं कर सकता. उसी प्रकार,
अधोगति को ले जाने वाले विचार
तुम्हें तब तक हानि नहीं पहुंचा
सकते जब तक तुम उनमें वास्तविक
रूप से प्रवृत्त न हो जाओ”.
-------------------------------- पश्चिम में एक
विश्वप्रसिद्ध धनुर्विद हुआ
जिसका नाम था हैरीगेल. यूं तो
हैरीगेल को धनुर्विधा में महारत
हासिल थी मगर उसने सुना था की जब
तक कोई जापान जाकर झेन गुरुओं से
धनुर्विधा न सीख ले तब तक
धनुर्विधा अधूरी ही रहती है.
इसलिये वा जापान गया एक झेन गुरु
के पास. ओशो ने हैरीगेल के झेन
गुरु के साथ हुए अनुभव के माध्यम
से एक बड़ी ही महत्वपूर्ण घटना
का जिक्र किया है जिससे साधक को
मार्गदर्शन मिलता है कि कैसे
भीतर अपने केन्द्र की तरफ जाकर
अपने शुद्ध स्वरूप को जाना जाये.
ओशो ने इन छोटी-छोटी प्रेरक
कथाओं के माध्यम से बड़े गूढ़
सूत्रों को सरलता से पेश किया है
ताकि साधक इन्हे समझ कर ग्रहण कर
सकें. ओशो कहते हैं - 'हैरीगेल तीन
साल से गुरु के पास धनुर्विधा
सीख रहा था मगर गुरु जो कह रहा था
वह हैरीगेल की समझ से परे था.
जापान में झेन गुरु धनुर्विधा का
उपयोग साधकों को ध्यान सिखाने के
लिये करते हैं. झेन गुरु हैरीगेल
को कह रहा था की तू तीर तो चला
लेकिन ऐसे जैसे चलाने वाला तू
नही. तू तो बस तीर को चलने दे. मगर
यह बात हैरीगेल की समझ नही आ रही
थी. हैरीगेल तीर चलता, तीर सही
निशाने पर लगता मगर गुरु कहता
'नही इसमें झेन नही है' . हैरीगेल
कहता कि उसका निशाना निरंतर सही
लग रहा है मगर झेन गुरु का कहना था
कि जब तक हैरीगेल निशाना लगाते
वक्त मौजूद है तब तक निशाना भले
ही सही लगे लेकिन उसमे झेन नही हो
सकता. गुरु कह रहा था कि जब तक
कर्ता भाव है तब तक ध्यान नही हो
सकता. हैरीगेल का कहना था की अगर
मैं निशाना नही लगाऊं तो फिर
निशाना लगायेगा कौन. पश्चिमी
आदमी तकनीकी और तर्क को तो समझ
सकता है लेकिन जो बात तर्क और
तकनीक से परे हो उसे समझने में
उसे कठिनाई होती है और यही
हैरीगेल की कठिनाई थी. गुरु
हैरीगेल को समझा रहा था की
निशाना तो बाद में भी सिखाया जा
सकता है , निशाना तो गौण है लेकिन
झेन सबसे महत्वपूर्ण बात है.
आखिरकार जब गुरु को लगा कि यह बात
हैरीगेल की समझ नही आयेगी तो
उन्होने हैरीगेल से कहा कि वह
अपना भी समय नष्ट कर रहा है और
गुरु का भी इसलिये अच्छा होगा कि
हैरीगेल घर वापस चला जाये. इस
प्रकार हैरीगेल वापस घर जाने का
निर्णय करता है. आज उसका गुरु के
पास अंतिम दिन था इसलिये शाम को
वह गुरु से अंतिम मुलाकात करने
और गुरु को दक्षिणा स्वरूप अपने
निवास स्थान पर निमंत्रित करने
आया था. गुरु अपने शिष्यों को
निशाना लगाना सीखा रहे थे,
हैरीगेल पास पड़ी एक बेंच पर
बैठा यह सब देख रहा था. हैरीगेल ने
गुरु को निशाना लगते देखा और जो
बात उसकी समझ में इतने दिन से नही
आई थी वह बात आज उसकी समझ में आ
गयी. उसने देखा की गुरु के चेहरे
या हाथ की किसी माशपेशी में कोई
तनाव नही था ऐसा लगता था जैसे
गुरु तीर नही चला रहे थे बल्कि
तीर उनसे चल रहा था. हैरीगेल बेंच
से उठा , धीरे से उसने गुरु के हाथ
से धनुष लिये तीर प्रत्यंचा पर
चढ़ाया और निशाना मारा. गुरु
उसका निशाना देख कर उछल पड़ा और
कहा 'यही हैरीगेल, यही है झेन!' आज
हैरीगेल समझ सका क्योंकि आज उसे
कोई तनाव नही था, आज वह सीखने आया
भी नही था आज हैरीगेल बिल्कुल
प्रयास रहित था इसलिये वह झेन को
समझ सका. हैरीगेल ने गुरु को
निमंत्��ित क�����या था तो गुरु
अपने मित्रों सहित �����ाम को
हैरिगेक के निवास स्थान पर पधारे
जो एक बहुमंजिली इमारत की 9वी
मंजिल पर स्थित था. उनके बीच
वार्तालाप चल रहा था, गुरु कुछ
बता रहा था शिष्यों को की अचानक
भूकंप आया. सब लोग नीचे सीढियों
की तरफ भागे. हैरीगेल भी भागा मगर
जब वह सीढियों के पास पहुंच तो
उसने देखा की गुरु तो वहां था ही
नही. हैरीगेल वापस आया तो देखा कि
कमरे में गुरु आंख बंद किये
ज्यूं के त्यूं बैठे थे. तब तक
भूकंप जा चुका था और बाकी लोग भी
कमरे में वापस आ चुके थे. गुरु ने
अपनी आँखें खोली और भूकंप आने पर
जहाँ पर बात खत्म की थी वहीं से
शुरु कर दी. जैसे बीच में कुछ हुआ
ही नही हो. हैरीगेल ने गुरु से कहा
- 'छोड़िये यह बात और मेरे एक
प्रश्न का उत्तर दीजिये. भूकंप
आया, सब लोग नीचे की तरफ भागे मगर
आप क्यों नही भागे?' झेन गुरु ने
कहा - 'भागे तुम भी और भागा मैं भी
मगर तुम बाहर की तरफ भागे मैं
अंदर की तरफ भागा. ' गुरु ने कहा-
'हैरीगेल तुम मुझे एक बात बताओ,
तुम 9वी मंजिल से 8वी मंजिल पर गये
क्या वहां भूकंप नही था? 8वी से 7वी
पर गये क्या वहां भूकंप नही था,
इसी प्रकार छठी मंजिल पर, पाँचवी
मंजिल पर या पहली मंजिल पर और अंत
में जमीन पर क्या भूकंप नही था?
तुम कभी भी ऐसी जगह नही रहे जहाँ
भूकंप नहीं था मगर मैं भीतर अपने
केन्द्र की तरफ गया जहाँ कभी कोई
भूकंप नही जा सकता. वह ऐसा
केन्द्र है जहाँ सब शांत है.' ओशो
इसे समझाते हुए कहते हैं कि झेन
गुरु कह रहे हैं कि तुम्हारे
भीतर चेतना का एक ऐसा केन्द्र है
जहाँ काम, क्रोध, भय, लोभ, मोह या
ईर्ष्या की कोई लहर प्रवेश नही
करती. इसलिये जब कभी तुम्हारी
चेतना में वे लहरें उठें तो अपने
भीतर केन्द्र की तरफ सरक जाना.
केन्द्र पर सरकने से तुम बड़ी
आसानी से परिधि पर चल रहे कंपन के
साक्षी बन कर निर्लिप्त भाव को
उपलब्ध हो सकते हो. परिधि पर रह कर
तुम कभी भी परिधि पर चल रहे कंपन
के साक्षी नही हो सकते. केन्द्र
पर रहकर तुम आसानी से देख सकते हो
कि कैसे सतह पर काम, क्रोध, लोभ,
मोह की लहरें अपने स्वभाव से
उठती है और अपने स्वभाव के कारण
ही विलुप्त हो जाती हैं और तुम
इनसे बिल्कुल प्रभावित नही होते.
खोजो अपने भीतर उस केन्द्र को जो
शान्ति, आनन्द और बोध का केन्द्र
है. ------------------------------------------------------------- झेन
कथा झेन कथा एका गावात एक पाथरवट (
दगड फोड्या) राहत होता. तो रोज
भल्या पहाटे आपला डोंगरावर जाई
आणि मोठ्या शिळा फोडून, त्यांचे
तुकडे गावातील शिल्पकारांना
विकत असे. एकदा असाच तो शिळा फोडत
होता. दुपारची वेळ... वरुन सुर्य
आग ओकत होता. दगड फोड्याने थोडी
विश्रांती घ्यायचे ठरवले.
त्याने वरुन बघितल तर राजाचा एक
मोठा अधिकारी रस्त्यावरून
पालखितून मोठ्या मजेत चालला
होता. आजूबाजूला सेवक वर्ग
त्याची सेवा करत होते. त्याला ना
उंहाची पर्वा होती ना पाण्याची!
दगड फोड्या स्तिमित झाला.
म्हणाला "अहाहा!! काय सुंदर
जीवन आहे. काही त्रास नाही, काही
कष्ट नाहीत !! हा माझ्यापेक्षा
कितीतरी श्रेष्ठ आहे. मी जर हा
अधिकारी असतो तर काय मजा आली
असती." काय आश्चर्य!! तो दगड
फोड्या पुढच्याक्षणी तो
अधिकारी झाला. आता तो मजेत होता.
काही कष्ट नाहीत. फक्त आराम ! काही
तास जातात न जातात तोच त्याची
पालखि मोडली. तो नाइलाजानेच खाली
उतरला आणि पायी चालू लागला. वर
सूर्य होताच आग ओकत. याने विचार
केला, माझ्यापेक्षा हा सुर्य
किती श्रेष्ठ आहे. काही त्रास
नाही. काही कष्ट नाहीत. काय
आश्चर्य!! तो दगड फोड्या
पुढच्याचक्षणी सूर्य बनला. आता
तो खुशीत होता. मस्त आकाशात
विहार करायचा. काही कष्ट नाहीत.
फक्त आराम ! आता तो लोकाना छळत
होता. अशी त्याची मजा चालू
असताना त्याला गुदमरल्यासारखा
झाल. काही दिसेचना पुढच ! बघतो तर
काय ! अचानक एक ढग त्याला आडवा आला
होता. काही केल्या तो ढग हटेचना.
त्याने विचार केला हा ढग जर मला
अडवू शकतो तर हा माझ्यापेक्षा
नक्कीच श्रेष्ठ दिसतोय. जर मी ढग
झालो तर !! तर मग मीच सर्वात
श्रेष्ठ होईन. आणि
नेहेमीप्रमाणेच, तो ढग बनला. आता
त्याने सूर्यालाही नमविल होत.
आता तो सर्वाशक्तिमान होता. मजेत
आकाशात विहरत होता. सूर्याला
झाकोळून टाकत होता. इतक्यात तो
एका दिशेला खेचला जाउ लागला.
त्याला तिकडे जायच नव्हत. पण
वारा त्याला खेचत होता. त्याने
विचार केला हा वारा जर मला ढकलु
शकतो तर हा माझ्यापेक्षा नक्कीच
श्रेष्ठ दिसतोय. जर मी वारा झालो
तर !! तर मग मीच सर्वात श्रेष्ठ
होईन. आत्ता तो वारा बनला होता.
त्याला ना राजाची भीती , ना
सूर्याची, ना ढगाची !! तो मुक्ता
हस्ते बागडत होता. ढगाना हलवून
सूर्याला झाकत होता. दाणदिशी तो
एकठिकाणी येऊन आदळला. समोर बघतो
तो काय एक महाकाय पर्वत त्याच्या
समोर उभा होता. त्याला हलतही
येईना न पुढेही जाता येईना.
त्याने विचार केला हा पर्वत जर
मला ढकलु शकतो तर हा
माझ्यापेक्षा नक्कीच श्रेष्ठ
दिसतोय. जर मी पर्वत झालो तर !! तर
मग मीच सर्वात श्रेष्ठ होईन. आणि
तो पर्वत झाला. त्याला ना राजाची
भीती , ना सूर्याची, ना ढगाची, ना
वार्याची !! तो घट्ट मांडी ठोकून
बसला होता. सगळ्यावर हसत होता.
स्वतावरच खुश होत होता. तो जगात
आता सर्वश्रेष्ठ, सर्व शक्तिमान
होता. त्याने खाली बघितले.
त्याच्या पायाखालची जमिनच
सरकली... दुसरा कोणी एक पाथरवट
त्याची मांडी फोडत होता...
तात्पर्य: तुम्ही काढाल ते... मूळ
स्त्रोत: अनामिक - बोलघेवडा
----------------------------------------------------- सोने आणि
वीट (झेन कथा) प्रेषक लिखाळ (रवि.,
१५/१०/२००६ - १३:४६) विचार
प्रतिक्रिया कथा नमस्कार, काही
वर्षांपूर्वी, ओशोंच्या (बहुधा
अनुवादीत 'अंतर्यात्रा')
पुस्तकात वाचलेली झेन रूपक कथा,
आठवेल तशी लिहीत आहे. एकदा एक
तरुण संन्यासी प्रवास करीत
असताना, त्याला असाच एक
प्रवासासाठी बाहेर पडलेला
संन्यासी भेटतो. दोघे एकमेकांना
अभिवादन वगैरे करतात आणि पुढचा
प्रवास एकत्र करायचा ठरवतात.
दुसऱ्या संन्याशाच्या
झोळीमध्ये काहीतरी जड वस्तू
असते. तो ती झोळी सतत सांभाळतो
आहे असे पहिल्या संन्याशाच्या
लक्षात येते. रात्री झोपताना
सुद्धा तो ती झोळी दूर ठेवायचा
नाही. याचे पहिल्या संन्याशाला
राहून राहून आश्चर्य वाटत राहते.
त्यांचा प्रवास चालूच राहतो आणि
पहिल्या संन्याशाला जाणवते की
याचे जास्त अवधान त्या झोळीवरच
आहे. एकदा सायंकाळी दोघे एका
विहरीपाशी हातपाय धुवायला
थांबतात आणि तीच संधी पाहून
पहिला संन्यासी त्याच्या झोळीत
काय आहे ते पाहतो. त्यात एक
सोन्याने भरलेली लहान पेटी असते.
ती पेटी तो तिथेच टाकून देतो आणि
एक त्या आकाराची वीट झोळीत
ठेवतो. ते पुढे जायला निघतात, तर
दुसरा म्हणतो,"आता संध्याकाळ
झाली आहे आणि पुढे जंगल आहे.
चोराचिलटांची भीती आहे आपण येथे
कुठेतरी मुक्काम करू." त्यावर
पहिला संन्यासी म्हणतो,"अरे
आपण संन्यासी! आपल्याला काय फरक
पडतो?" फार आग्रह केल्यावर
शेवटी दुसरा जंगलातून पुढे
जायला तयार होतो. जंगलात रात्री
मुक्काम करताना तो झोळी अगदी
स्वतःच्या जवळ ठेवून झोपतो.
अधुनमधुन चाचपून खात्री करून
घेत असतो. दुसऱ्या दिवशी सकाळी
पहिला संन्यासी त्याला, झोळीची
इतकी काळजी का वाटते ते विचारतो.
त्यावर तो सांगतो की त्यात सोने
भरलेले एक पेटी आहे आणि तो ती
पेटी जपत आहे. काय जाणो संन्यासी
असलो तरी कधीकाळी ते सोने
उपयोगाला येईल? त्यावर पहिला
संन्यासी म्हणतो,"अरे
सोन्याचा मोह आपण का ठेवावा? आणि
तसेही तू काल सायंकाळपासून जे
वागवतो आहेस, इतक्या काळजीने जे
सांभाळतो आहेस, ज्यापायी तू
रात्रीची झोप निवांतपणे घेऊ
शकला नाहीस, ते सोने नसून एक वीट
आहे. पाहा." --- लिखाळ.
---------------------------------------------------------------------------------------------
वरील कथा मी जेव्हा वाचली
तेंव्हा माझ्यावर तिचा फारच
परिणाम झाला. मला ती गोष्ट वाचून
असे जाणवले की सोने म्हणून इतके
दिवस जवळ बाळगलेले असे बरेच काही
आपल्याकडे असू शकेल, की जे
जपण्यासाठी आपण जीवापाड धडपडतो,
खूप मानसिक ऊर्जा त्यापायी
व्यस्त करतो, जे वास्तवात सोने
नसून बदललेल्या परिस्थितीमध्ये
मातीच असू शकेल. आपण थोड्या
थोड्या अंतराने आपल्याला
तपासून पाहणे, आपले 'पान रिफ्रेश'
करणे हेच हितावह आहे. वर्तमानात
जगण्याचा जो उपदेश आपल्याला
तत्त्वज्ञ देत असतात, त्याकडे
जाण्याचा हा एक चांगला उपायच आहे
असे मला वाटले. आपल्याला काय
वाटले?
आपलाच,--------------------------------------------------------------------------
ऑगस्ट १४ २००६ दोन संन्यासी (झेन
कथा) प्रेषक लिखाळ (मंगळ.,
१५/०८/२००६ - ०९:४३) विचार कथा फार
फार वर्षापूर्वीची गोष्ट. दोन
संन्यासी मित्र तीर्थाटन करीत
फिरत असतात. दोघे अगदी विरागी
आणि निर्मोही असतात.
पावसाळ्याचे दिवस असतात. ते एका
गावाहून दुसऱ्या गावी जात असतात.
मध्ये एक ओढा लागतो. त्याचे पाणी
फारच वाढलेले असते. तेथेच
त्यांना, ओढा ओलांडण्याच्या
विवंचनेत बसलेली, एक युवती
दिसते. ती या दोन तरुण
संन्याशांच्या जवळ येते आणि
ओढ्या पलीकडे तिला नेऊन
सोडण्याची विनंती करते. त्यावर
एक संन्याशी तिला म्हणतो,"
आम्ही ब्रह्मचारी आहोत. आम्ही
स्त्रीस स्पर्श कसे बरे करणार."
पण दुसरा संन्यासी मात्र तिला
आश्वासन देतो आणि पाणी थोडे ओसरू
लागताच तिला खांद्यावर बसवून
पलीकडे सोडतो. ती त्याचे अनेक
आभार मानते आणि निघून जाते. या
दोघांचा प्रवास सुरू होतो आणि
सायंकाळी ते पुढच्या गावात
पोहोचतात. धर्मशाळेत
पोहोचल्यावर थोड्याच वेळात
दोघे पथाऱ्या पसरून गप्पा मारत
पडतात. थोड्यावेळाने पहिला
संन्यासी म्हणतो," मित्रा! आज
तुझे ब्रह्मचर्य मोडले." दुसरा
आश्चर्याने विचारतो, "ते कसे?"
त्यावर पाहिला म्हणतो की तू त्या
तरुणीला आज खांद्यावर बसवून
नेलेस म्हणून. त्यावर दुसरा
संन्यासी हसून म्हणतो," अरे!
ओढा ओलांडताच ती माझ्या
खांद्यावरून उतरली. पण इतका वेळ
झाला तरी ती तुझ्या खांद्यावरून
उतरलेली दिसत नाहीये !' (ओशोंच्या
पुस्तकात वाचलेली झेन
कथा.)------------------------------------------------------ जंग
जीतने के लिए हर लड़ाई जीतना
जरूरी है बड़ी ही प्रचलित झेन
कथा है . अपने शिष्यों के ज्ञान का
मूल्यांकन करने एक गुरु
अमावश्या की रात उन सभी को लेकर
एक विशाल पर्वत की तराई में
पहुंचे . रास्ते में कठिनाई न हो
इसीलिए गुरु ने सभी के हाथ में एक
एक लालटेन पहले से ही दे रखी थी .
पर्वत की ओर इशारा करके गुरु ने
शिष्यों को आदेश दिया कि आज रात
भर में उन्हें पर्वत कि चढ़ाई
चढ़ते हुए सूर्योदय के पहले
पर्वत के शिखर पर पहुंचना है .
अधिकांश शिष्यों को गुरु की बात
बड़ी अजीब सी लगी , उन्होंने तर्क
दिया की एक नन्ही सी लालटेन के
सहारे इतना विशाल पर्वत कैसे
चढ़ा जा सकता है . तभी एक शिष्य
साहस दिखाते हुए दल से बाहर आया
और बोला गुरूजी मैं इस पर्वत पर
चढ़ने के लिए तैयार हूँ . गुरु ने
यह परखने के लिए कि कहीं उसका
साहस खोखला तो नहीं है , उससे एक
प्रश्न किया कि यह भयावह अँधेरा
उसके मार्ग का बाधक तो नहीं
बनेगा . एक नन्ही सी लालटेन के
सहारे वह विशाल पर्वत का दुर्गम
मार्ग कैसे तय करेगा , उसे रास्ता
कैसे दिखाई देगा . तब बड़ी
विनम्रता पूर्वक शिष्य ने जवाब
दिया कि गुरु जी रात भर में पर्वत
को चढ़ना मेरा उद्देश्य है
किन्तु मैं यह भी जनता हूँ कि समय
दिन का हो या रात का एक बार में इस
विशाल पर्वत को नहीं देखा जा
सकता . उसने लालटेन को अपने सर कि
ऊचाई तक उठा कर कहा कि गुरु जी इस
तरह मैं एक बार में जहाँ तक
प्रकाश जा रहा है वहां तक का
मार्ग देख लूँगा फिर उसे ही अपना
तात्कालिक लक्ष्य बना कर केवल
मार्ग के उतना हिस्सा ही तय
करूंगा . एक बार अंतिम बिंदु तक
पहुँच जाने के बाद लालटेन को
पुनः उठाऊँगा फिर एक बार अंतिम
बिंदु तय करूंगा और उसे अपना
तात्कालिक लक्ष्य बना कर वहां तक
चढूँगा और इसी प्रक्रिया को
दोहराते हुए मैं सूर्योदय के
पूर्व पर्वत के शिखर तक पहुँच
जाऊंगा . वर्तमान समय में भी यह
कथा उतनी ही प्रासंगिक है . आज कोई
कप्तान यदि कोई विश्वकप जीतना
चाहता है तो आप उसके वक्तव्य में
भी यही सुनेंगे कि वे हर लीग मैच
को जीतकर क्वाटर फ़ाइनल में जगह
बनाना चाहेंगे फिर वहां से जीतते
हुए सेमीफाइनल और फिर फ़ाइनल पर
अपना कब्ज़ा करना चाहेंगे . और
शायद विश्वकप को जीतने की और कोई
नीति नहीं हो सकती . अतः आप भी
किसी बड़े उद्देश्य को पाना
चाहते हैं तो उसके लिए छोटे छोटे
लक्ष्य बनाएं . किसी एक बड़े TARGET को
पहले वार्षिक फिर छः माही , फिर
तिमाही , मासिक , साप्ताहिक तथा
दैनिक हिस्से तक तोड़ते हुए उस
आधार पर नियोजन करें तथा अपना 100%
देकर उसे अर्जित कर सफल हो जाएँ .
और आपको तो पता ही है कि जीवन के
हर मोड़ पर सफल व्यक्ति को ही
कहते हैं MAGIC MAN -------------------------------------------
‘’ मर्द वे , जिनका मस्तिष्क
ठंडा , खून गरम पुरुषार्थ प्रखर व
ह्रदय नरम --------------------------------------- गुरू
बंकेईला एका विद्यार्थ्याने
विचारलं, माझ्यातला क्रोध
जाण्यासाठी काहीतरी उपाय सुचवा.
गुरू म्हणाला, दाखव बरं कुठे आहे
तुझा तो क्रोध... विद्यार्थी
म्हणाला,,, आत्ता नाहीये तो
माझ्याजवळ... मग कसा दाखवू? गुरू-
तो जेव्हा तुझ्यात येईल ना
तेव्हा दाखव विद्यार्थी- तेही
नाही जमायचं.... कारण इथे
येईपर्यंत तो अदृश्यच होईल...
गुरू- म्हणजे? हा क्रोध तुझ्या
प्रकृतीचा अंश नक्कीच नाही.
बाहेरून येऊन तो तुझ्यात घुसतो
आणि तुला छळतो... पण यावर मी तुला
एक छान उपाय सांगतो... तो येईल
तेव्हा एक काठी घेऊन स्वत:ला
चांगलं झोडपून घे... हा आगंतुक
क्रोध मार न सोसून नक्कीच पळून
जाईल... --------------------------------------------------- अपने
भीतर के प्रकाश को देखो अपने
भीतर के प्रकाश को देखो एक
गुरूजी लंबे समय से अचेतावस्था
में थे। एक दिन अचानक उन्हें होश
आया तो उन्होंने अपने प्रिय
शिष्य को अपने नजदीक बैठे हुए
पाया। उन्होंने प्रेमपूर्वक
कहा - "तुम इतने समय तक मेरे
बिस्तर के नजदीक ही बैठे रहे और
मुझे अकेला नहीं छोड़ा?" शिष्य
ने रुंधे हुए गले से कहा -
"गुरूदेव मैं ऐसा कर ही नहीं
सकता कि आपको अकेला छोड़ दूं।"
गुरूजी - "ऐसा क्यों?"
"क्योंकि आप ही मेरे जीवन के
प्रकाशपुंज हैं।" गुरूजी ने
उदास से स्वर में कहा - "क्या
मैंने तुम्हें इतना चकाचौंध कर
दिया है कि तुम अपने भीतर के
प्रकाश को नहीं देख पा रहे हो?"
---------------------------------- नदी का पानी बिकाऊ
गुरू जी के प्रवचन में एक गूढ़
वाक्य शामिल था। कटु मुस्कराहट
के साथ वे बोले, "नदी के तट पर
बैठकर नदी का पानी बेचना ही मेरा
कार्य है"। और मैं पानी खरीदने
में इतना व्यस्त था कि मैं नदी को
देख ही नहीं पाया। "हम जीवन की
समस्याओं और आपाधापी के कारण
प्रायः सत्य को नहीं पहचान
पाते।" ---------------------
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एक झेन कथा है। ओशो


एक झेन कथा है।

एक युवक अपने गुरु के पास वर्षों रहा, और गुरु कभी उसे कुछ कहा नहीं। बार-बार शिष्य पूछता कि मुझे कुछ कहें, आदेश दें, मैं क्या करूं? गुरु कहता, मुझे देखो। मैं जो करता हूं, वैसा करो। मैं जो नहीं करता हूं, वह मत करो, इससे ही समझो। लेकिन उसने कहा, इससे मेरी समझ में नहीं आता, आप मुझे कहीं और भेज दें। झेन-परंपरा में ऐसा होता है कि शिष्य मांग सकता है कि मुझे कहीं भेज दें, जहां में सीख सकूं। तो गुरु ने कहा, तू जा, पास में एक सराय है कुछ मील दूर, वहां तू रुक जा, चौबीस घंटे ठहरना और सराय का मालिक तुझे काफी बोध देगा।

वह गया। वह बड़ा हैरान हुआ। इतने बड़े गुरु के पास तो बोध नहीं हुआ और सराय के मालिक के पास बोध होगा! धर्मशाला का रखवाला! बेमन से गया। और वहां जाकर तो देखी उसकी शक्ल-सूरत रखवाले की तो और हैरान हो गया कि इससे क्या बोध होने वाला है! लेकिन अब चौबीस घंटे तो रहना था। और गुरु ने कहा था कि देखते रहना, क्योंकि वह धर्मशाला का मालिक शायद कुछ कहे न कहे, मगर देखते रहना, गौर से जांच करना।

तो उसने देखा कि दिनभर वह धूल ही झाड़ता रहा, वह धर्मशाला का मालिक; कोई यात्री गया, कोई आया, नया कमरा, पुराना, वह धूल झाड़ता रहा दिनभर। शाम को बर्तन साफ करता रहा। रात ग्यारह-बारह बजे तक यह देखता रहा, वह बर्तन ही साफ कर रहा था, फिर सो गया। सुबह जब उठा पांच बजे, तो भागा कि देखें वह क्या कर रहा है; वह फिर बर्तन साफ कर रहा था। साफ किए ही बर्तन साफ कर रहा था। रात साफ करके रखकर सो गया था।

इसने पूछा कि महाराज, और सब तो ठीक है, और ज्यादा ज्ञान की मुझे आपसे अपेक्षा भी नहीं, इतना तो मुझे बता दें कि साफ किए बर्तन अब किसलिए साफ कर रहे हैं? उसने कहा, रातभर भी बर्तन रखें रहें तो धूल जम जाती है। उपयोग करने से ही धूल नहीं जमती, रखे रहने से भी धूल जम जाती है। समय के बीतने से धूल जम जाती है।

यह तो वापस चला आया। गुरु से कहा, वहां क्या सीखने में रखा है, वह आदमी तो हद्द पागल है। वह तो बर्तनों को घिसता ही रहता है, रात बारह बजे तक घिसता रहा, फिर सुबह पांच बजे से–और घिसे-घिसायों को घिसने लगा। उसके गुरु ने कहा, यही तू कर, नासमझ! इसीलिए तुझे वहां भेजा था। रात भी घिस, घिसते-घिसते ही सो जा, और सुबह उठते ही से फिर घिस। क्योंकि रात भी सपनों के कारण धूल जम जाती है। समय के बीतते ही धूल जम जाती है।

विचार और स्वप्न हमारे भीतर के मन की धूल हैं।

-ओशो
एस धम्मो सनंतनो, भाग-8
प्रवचन नं. 79 से संकलित

Posted in संस्कृत साहित्य

गंगा-जन्म की कथा – Story of Maa Ganga


गंगा-जन्म की कथा – Story of Maa Ganga !! -Mehul – DKDMEx

गंगा-जन्म की कथा – Story of the Born of Maa Ganga (River).

 

 

वाल्मीकि रामायण में ऋषि विश्वामित्र ने राम जी को गंगा जन्म की कथा सुनाई है |

 

ऋषि विश्वामित्र ने कहा, “वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। वे पुत्रहीन थे। सगर की पटरानी का नाम केशिनी था जो कि विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। केशिनी रूपवती, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति था जो राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी। महाराज सगर ने अपनी दोनों रानियों के साथ तपस्या करके महर्षि भृगु को प्रसन्न किया जिन्होंने वर दिया कि तुम्हें अनेक पुत्रों की प्राप्ति होगी। दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी के साठ हजार पुत्र होंगे। कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की और गरुड़ की भगिनी सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की।

 

कुछ काल के पश्चात् रानी केशिनी ने असमञ्ज नामक पुत्र को जन्म दिया। रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला जिसे फोड़ने पर छोटे छोटे साठ हजार पुत्र निकले। उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया। कालचक्र व्यतीत होते गया और सभी राजकुमार युवा हो गये। सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमञ्ज बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर उन्हें डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था। इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। असमञ्ज के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करने का विचार आया। शीघ्र ही उन्होंने अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया।

 

राम ने ऋषि विश्वामित्र से कहा, “गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। अतः कृपा करके इस वृतान्त को पूरा पूरा सुनाइये।”

 

राम के इस प्रकार से जिज्ञासा व्यक्त करने पर ऋषि विश्वामित्र प्रसन्न होकर कहने लगे, ” राजा सगर ने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरीतिमायुक्त भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे पीछे भेज दिया। यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने एक राक्षस का रूप धारण किया और उस घोड़े को चुरा लिया। घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आज्ञा दी कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ। पूरी पृथ्वी में खोजने पर भी जब घोड़ा नहीं मिला तो, इस आशंका से कि किसीने घोड़े को तहखाने में न छुपा रखा हो, सगर के पुत्रों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया। उनके इस कार्य से असंख्य भूमितल निवासी प्राणी मारे गये। खोदते खोदते वे पाताल तक जा पहुँचे। उनके इस नृशंस कृत्य के विषय में देवताओं ने ब्रह्मा जी को बताया तो ब्रह्मा जी ने कहा कि ये राजकुमार क्रोध एवं मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं। पृथ्वी की रक्षा कर दायित्व कपिल ऋषि पर है इसलिये वे इस विषय में अवश्य ही कुछ न कुछ करेंगे। पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब घोड़ा और उसको चुराने वाला चोर नहीं मिला तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। क्रुद्ध सगर ने आदेश दिया कि घोड़े को पाताल में जाकर ढूंढो। पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे कपिल मुनि के आश्रम में पहुँच गये। उन्होंने देखा कपिलदेव तपस्या में लीन हैं और उन्हीं के पास यज्ञ का वह घोड़ा बँधा हुआ है। उन्होंने कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उनके लिये अनेक दुर्वचन कहे और उन्हें मारने के लिये दौड़े। सगर के इन कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के उन सब पुत्रों को भस्म कर दिया।”

 

ऋषि विश्वामित्र ने आगे कहा, “बहुत दिनों तक अपने पुत्रों की सूचना नहीं मिलने पर महाराज सगर ने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिये आदेश दिया। वीर अंशुमान शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर अपने चाचाओं के द्वारा बनाए गए मार्ग से पाताल की ओर चल पड़ा। मार्ग में मिलने वाले पूजनीय ऋषि मुनियों का यथोचित सम्मान करके अपने लक्ष्य के विषय में पूछता हुआ उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पर उसके चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था। अपने चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों को देखकर उसे अत्यन्त क्षोभ हुआ। उसने उनका तर्पण करने के लिये जलाशय की खोज की किन्तु उसे कोई भी जलाशय दृष्टिगत नहीं हुआ। तभी उसकी दृष्टि अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी। उन्हें सादर प्रणाम करके अंशुमान ने पूछा कि हे पितामह! मैं अपने चाचाओं का तर्पण करना चाहता हूँ। समीप में यदि कोई सरोवर हो तो कृपा करके उसका पता बताइये। यदि आपको इनकी मृत्यु के विषय में कुछ जानकारी है तो वह भी मुझे बताने की कृपा करें। गरुड़ जी ने बताया कि किस प्रकार से इन्द्र ने घोड़े को चुरा कर कपिल मुनि के पास छोड़ दिया था और उसके चाचाओं ने कपिल मुनि के साथ उद्दण्ड व्यवहार किया था जिसके कारण कपिल मुनि ने उन सबको भस्म कर दिया। इसके पश्चात् गरुड जी ने अंशुमान से कहा कि ये सब अलौकिक शक्ति वाले दिव्य पुरुष के द्वारा भस्म किये गये हैं अतः लौकिक जल से तर्पण करने से इनका उद्धार नहीं होगा, केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करने पर इनका उद्धार सम्भव है। अब तुम घोड़े को लेकर वापस चले जाओ जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके। गरुड़ जी की आज्ञानुसार अंशुमान वापस अयोध्या पहुँचे और अपने पितामह को सारा वृत्तान्त सुनाया। महाराज सगर ने दुःखी मन से यज्ञ पूरा किया। वे अपने पुत्रों के उद्धार करने के लिये गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे पर ऐसा करने के लिये उन्हें कोई भी युक्ति न सूझी।”

 

थोड़ा रुककर ऋषि विश्वामित्र कहा, “महाराज सगर के देहान्त के पश्चात् अंशुमान बड़ी न्यायप्रियता के साथ शासन करने लगे। अंशुमान के परम प्रतापी पुत्र दिलीप हुये। दिलीप के वयस्क हो जाने पर अंशुमान दिलीप को राज्य का भार सौंप कर हिमालय की कन्दराओं में जाकर गंगा को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करने लगे किन्तु उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो पाई और वे स्वर्ग सिधार गए। इधर जब राजा दिलीप का धर्मनिष्ठ पुत्र भगीरथ बड़ा हुआ तो उसे राज्य का भार सौंपकर दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तपस्या करने चले गये। पर उन्हें भी सफलता नहीं मिली। भगीरथ बड़े प्रजावत्सल नरेश थे किन्तु उनकी कोई सन्तान नहीं हुई। इस पर वे अपने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर स्वयं गंगावतरण के लिये गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे। उनकी अभूतपूर्व तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा। भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि सगर के पुत्रों को मेरे प्रयत्नों से गंगा का जल प्राप्त हो जिससे कि उनका उद्धार हो सके। इसके अतिरिक्त मुझे सन्तान प्राप्ति का भी वर दीजिये ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो। ब्रह्मा जी ने कहा कि सन्तान का तेरा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा, किन्तु तुम्हारे माँगे गये प्रथम वरदान को देने में कठिनाई यह है कि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगीं तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी। गंगा जी के वेग को संभालने की क्षमता महादेव जी के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है। इसके लिये तुम्हें महादेव जी को प्रसन्न करना होगा। इतना कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गये।

 

“भगीरथ ने साहस नहीं छोड़ा। वे एक वर्ष तक पैर के अँगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या करते रहे। केवल वायु के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य वस्तु का भक्षण नहीं किया। अन्त में इस महान भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव जी ने भगीरथ को दर्शन देकर कहा कि हे भक्तश्रेष्ठ! हम तेरी मनोकामना पूरी करने के लिये गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण करेंगे। इसकी सूचना पाकर विवश होकर गंगा जी को सुरलोक का परित्याग करना पड़ा। उस समय वे सुरलोक से कहीं जाना नहीं चाहती थीं, इसलिये वे यह विचार करके कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाऊँगी वे भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं। गंगा का यह अहंकार महादेव जी से छुपा न रहा। महादेव जी ने गंगा की वेगवती धाराओं को अपने जटाजूट में उलझा लिया। गंगा जी अपने समस्त प्रयत्नों के बाद भी महादेव जी के जटाओं से बाहर न निकल सकीं। गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की। भगीरथ के इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा। छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बँट गईं। गंगा जी की तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे पीछे चली। जिधर जिधर भगीरथ जाते थे, उधर उधर ही गंगा जी जाती थीं। स्थान स्थान पर देव, यक्ष, किन्नर, ऋषि-मुनि आदि उनके स्वागत के लिये एकत्रित हो रहे थे। जो भी उस जल का स्पर्श करता था, भव-बाधाओं से मुक्त हो जाता था। चलते चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा जी अपने वेग से उनके यज्ञशाला की सम्पूर्ण सामग्री को साथ बहाकर ले जाने लगीं। इससे ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर जह्नु ऋषि ने गंगा जी को अपने कानों से निकाल दिया और उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया। तब से गंगा जाह्नवी कहलाने लगीँ। इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते चलते समुद्र तक पहुँच गईं और वहाँ से सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिये रसातल में चली गईं। उनके जल के स्पर्श से भस्मीभूत हुये सगर के पुत्र निष्पाप होकर स्वर्ग गये। उस दिन से गंगा के तीन नाम हुये, त्रिपथगा, जाह्नवी और भागीरथी।

 

“हे रामचन्द्र! कपिल आश्रम में गंगा जी के पहुँचने के पश्चात् ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर भगीरथ को वरदान दिया कि तेरे पुण्य के प्रताप से प्राप्त इस गंगाजल से जो भी मनुष्य स्नान करेगा या इसका पान करेगा, वह सब प्रकार के दुःखो से रहित होकर अन्त में स्वर्ग को प्रस्थान करेगा। जब तक पृथ्वी मण्डल में गंगा जी प्रवाहित होती रहेंगी तब तक उसका नाम भागीरथी कहलायेगा और सम्पूर्ण भूमण्डल में तेरी कीर्ति अक्षुण्ण रूप से फैलती रहेगी। सभी लोग श्रद्धा के साथ तेरा स्मरण करेंगे। यह कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को लौट गये। भगीरथ ने पुनः अपने पितरों को जलांजलि दी।”

 

–मेहुल – MEHUL – (शिव महापुराण सारांश)

SRC: https://www.facebook.com/DevonKeDevMahadevExclusive

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पटना का प्राचीन नाम


पाटलिपुत्र (पटना) का स्वर्णिम अतीत !!!

पटना नाम के संदर्भ में कहा जाता है कि यह
पटनदेवी (एक हिन्दू देवी) से प्रचलित हुआ है।

एक अन्य मत के अनुसार यह नाम संस्कृत
के पत्तन से आया है जिसका अर्थ बन्दरगाह
होता है।

मौर्यकाल के यूनानी इतिहासकार मेगास्थनिज
ने इस शहर को पालिबोथरा तथा चीनीयात्री
फाहियान ने पालिनफू के नाम से संबोधित
किया है।

बिहार की राजधानी पटना को सभी
जानते हैं।

यह दुनिया की एक प्राचीन नगरी रही है।
यही नहीं,बॉलीवुड की कई फिल्मों में इसका नाम भी आ चुका है।
इस शहर को पहले पाटलिपुत्र के नाम से जाना जाता था।

पाटलिपुत्र अर्थात वर्तमान पटना का इतिहास काफी प्राचीन है।

यह हजारों साल प्राचीन शहर है।
इस ऐतिहासिक नगरी में कई ऐसे सम्राट हुए,जिन्होंने अपनी राजधानी पटना में
बनाई और पूरे देश की सत्ता पर राज किया।

लेकिन,क्या आप जानते हैं कि बिहार की राजधानी रही पटना का निर्माण कैसे हुआ ?
इसका नाम पटना कैसे पड़ा ?
इसके इतिहास को जानने के बाद आप भी एक बार चकित हो सकते हैं।

लोककथाओं के अनुसार,राजा पत्रक को पटना का जनक कहा जाता है।

ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपनी रानी
पाटलि के लिये जादू से इस नगर का निर्माण
किया।

इसी कारण नगर का नाम पाटलिग्राम पड़ा।
बाद में इसका नाम पाटलिपुत्र और अब पटना हो गया है।
संस्कृत में पुत्र का अर्थ बेटा तथा ग्राम का अर्थ गांव होता है।
लेकिन,हम आपको बताएंगे कि आखिर कैसे पाटलिपुत्र बना पटना।

यह ऐतिहासिक नगर पिछली दो सहस्त्राब्दियों में कई नाम पा चुका है,जिसमें पाटलिग्राम,
पाटलिपुत्र,पुष्पपुर,कुसुमपुर,अजीमाबाद
और पटना है।

ऐसा समझा जाता है कि वर्तमान नाम शेरशाह सूरी के समय से प्रचलित हुआ।
किन्तु कैसे और किसने किया पटना का नामकरण।

पटना नाम के संदर्भ में कहा जाता है कि यह पटनदेवी (एक हिन्दू देवी) से
प्रचलित हुआ है।

एक अन्य मत के अनुसार यह नाम संस्कृत
के पत्तन से आया है जिसका अर्थ बन्दरगाह होता है।

मौर्यकाल के यूनानी इतिहासकार मेगास्थनिज
ने इस शहर को पालिबोथरा तथा चीनीयात्री फाहियान ने पालिनफू के नाम से संबोधित किया है।

प्राचीन पटना सोन और गंगा नदी के संगम पर स्थित है।
सोन नदी आज से दो हजार वर्ष पूर्व अगमकुंआ से आगे गंगा मे मिलती थी।

अभी फिलहाल इन दोनों नदियों का संगम पाटलिग्राम मे गुलाब (पाटली का फूल)
काफी मात्रा में उपजाया जाता था।

गुलाब के फूल से तरह-तरह के इत्र,दवा
आदि बनाकर उनका व्यापार किया जाता
था इसलिए इसका नाम पाटलिग्राम हो गया।

पुरातात्विक अनुसंधानो के अनुसार पटना
का इतिहास 490 ईसा पूर्व से होता है जब हर्यक वंश के शासक अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह या राजगीर से बदलकर
यहां स्थापित की।

यह स्थान वैशाली के लिच्छवियों से संघर्ष
में उपयुक्त होने के कारण राजगृह की
अपेक्षा सामरिक दृष्टि से अधिक
महत्वपूर्ण था।

उसने गंगा के किनारे यह स्थान चुना और
अपना दुर्ग स्थापित कर लिया।
उस समय से इस नगर का इतिहास लगातार बदलता रहा है।

मौर्य काल के आरंभ में पाटलिपुत्र के अधिकांश राजमहल लकड़ियों से बने थे,पर सम्राट अशोक ने नगर को शिलाओं की संरचना मे तब्दील
किया।

2500 वर्षों से अधिक पुराना शहर होने का
गौरव दुनिया के बहुत कम नगरों को हासिल है।

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध अपने अन्तिम दिनों में यहां से गुजरे थे।

उनकी यह भविष्यवाणी थी कि नगर का भविष्य उज्जवल होगा,बाढ़ या आग के कारण नगर को खतरा बना रहेगा।
मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष के बाद पाटलिपुत्र सत्ता का केन्द्र बन गया।
चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से अफ़गानिस्तान तक फैल गया था।

पटना गंगा के दक्षिणी तट पर स्थित है।
गंगा नदी नगर के साथ एक लम्बी तट रेखा बनाती है।
पटना का विस्तार उत्तर-दक्षिण की अपेक्षा
पूर्व-पश्चिम में बहुत अधिक है।
नगर तीन ओर से गंगा,सोन नदी और पुनपुन नदी नदियों से घिरा है।
नगर से ठीक उत्तर हाजीपुर के पास गंडक नदी भी गंगा में आ मिलती है।

हाल के दिनों में पटना शहर का विस्तार पश्चिम की ओर अधिक हुआ है और यह दानापुर से
जा मिला है।

पटन देवी का मंदिर सिद्ध शक्ति स्थल है।

महादेव के तांडव के दौरान सती के शरीर के
51 खंड हुए।
ये अंग जहां-जहां गिरे,वहां-वहां शक्तिपीठ स्थापित की गई।
यहां सती की दाहिनी जांघ गिरी थी।

गुलजार बाग इलाके में स्थित बड़ी पटन
देवी मंदिर परिसर में काले पत्थर की बनी
महाकाली,महालक्ष्मी और महासरस्वती की प्रतिमा स्थापित हैं।
इसके अलावा यहां भैरव की प्रतिमा भी है।

जिस प्रकार मैकाले की शिक्षा पद्धति के दुष्प्रभाव से हमने राम को रामा (RAMA)
कृष्ण को कृष्णा (KRISHNA) ब्रह्म को
ब्रह्मा (BRAHMA)शिव को शिवा (SHIVA)
योग को योगा (YOGA) लिखना आरंभ किया ठीक उसी प्रकार अंग्रेजों के शासनकाल
में पटन (PATAN) को पटना (PATANA = PATNA) लिखा जाने लगा।

जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,,
जयति पुण्य भूमि भारत,,,

सदा सर्वदा सुमंगल,,,
वंदेमातरम,,,
जय भवानी,,
जय श्री राम

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औरत का सफर


*🙏😔औरत का सफर☺🙏*

       

😔बाबुल का घर छोड़ कर पिया के घर आती है..
☺एक लड़की जब शादी कर औरत बन जाती है..
😔अपनों से नाता तोड़कर किसी गैर को अपनाती है..
☺अपनी ख्वाहिशों को जलाकर किसी और के सपने सजाती है..
☺सुबह सवेरे जागकर सबके लिए चाय बनाती है..
😊नहा धोकर फिर सबके लिए नाश्ता बनाती है..
☺पति को विदा कर बच्चों का टिफिन सजाती है..
😔झाडू पोछा निपटा कर कपड़ों पर जुट जाती है..
😔पता ही नही चलता कब सुबह से दोपहर हो जाती है..
☺फिर से सबका खाना बनाने किचन में जुट जाती है.. 
☺सास ससुर को खाना परोस स्कूल से बच्चों को लाती है..
😊बच्चों संग हंसते हंसते खाना खाती और खिलाती है..
☺फिर बच्चों को टयूशन छोड़,थैला थाम बाजार जाती है..
☺घर के अनगिनत काम कुछ देर में निपटाकर आती है..
😔पता ही नही चलता कब दोपहर से शाम हो जाती है..
😔सास ससुर की चाय बनाकर फिर से चौके में जुट जाती है..
☺खाना पीना निपटाकर फिर बर्तनों पर जुट जाती है..
😔सबको सुलाकर सुबह उठने को फिर से वो सो जाती है..
😏हैरान हूं दोस्तों ये देखकर सौलह घंटे ड्यूटी बजाती है..
😳फिर भी एक पैसे की पगार नही पाती है..
😳ना जाने क्यूं दुनिया उस औरत का मजाक उडाती है..
😳ना जाने क्यूं दुनिया उस औरत पर चुटकुले बनाती है..
😏जो पत्नी मां बहन बेटी ना जाने कितने रिश्ते निभाती है..
😔सबके आंसू पोंछती है लेकिन खुद के आंसू छुपाती है..
*🙏नमन है मेरा घर की उस लक्ष्मी को जो घर को स्वर्ग बनाती है..☺*
*☺ड़ोली में बैठकर आती है और अर्थी पर लेटकर जाती है. ……

🙏🙏🙏निवेदन 🙏🙏🙏🙏

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