Posted in मातृदेवो भव:

*माँ की इच्छा*


_*🔴शरीर में रौंगटे खड़े कर देने वाली कविता*_
    _*🔴🎷🌺 *माँ की इच्छा* 🌺🎷🔵*_
   _महीने बीत जाते हैं ,_

   _साल गुजर जाता है ,_

   _वृद्धाश्रम की सीढ़ियों पर ,_

   _मैं तेरी राह देखती हूँ।_
                   _आँचल भीग जाता है ,_

                   _मन खाली खाली रहता है ,_

                   _तू कभी नहीं आता ,_

                   _तेरा मनि आर्डर आता है।_
                             _इस बार पैसे न भेज ,_

                             _तू खुद आ जा ,_

                             _बेटा मुझे अपने साथ ,_

                         _अपने 🏡घर लेकर जा।_
 _तेरे पापा थे जब तक ,_

 _समय ठीक रहा कटते ,_

 _खुली आँखों से चले गए ,_

 _तुझे याद करते करते।_
               _अंत तक तुझको हर दिन ,_

               _बढ़िया बेटा कहते थे ,_

               _तेरे साहबपन का ,_

               _गुमान बहुत वो करते थे।_
                        _मेरे ह्रदय में अपनी फोटो ,_

                        _आकर तू देख जा ,_

                        _बेटा मुझे अपने साथ ,_

                        _अपने 🏡घर लेकर जा।_
_अकाल के समय ,_

 _जन्म तेरा हुआ था ,_

 _तेरे दूध के लिए ,_

 _हमने चाय पीना छोड़ा था।_
               _वर्षों तक एक कपडे को ,_

               _धो धो कर पहना हमने ,_

               _पापा ने चिथड़े पहने ,_

               _पर तुझे स्कूल भेजा हमने।_
                         _चाहे तो ये सारी बातें ,_

                         _आसानी से तू भूल जा ,_

                         _बेटा मुझे अपने साथ ,_

                         _अपने 🏡घर लेकर जा।_
 _घर के बर्तन मैं माँजूंगी ,_

 _झाडू पोछा मैं करूंगी ,_

  _खाना दोनों वक्त का ,_

  _सबके लिए बना दूँगी।_
            _नाती नातिन की देखभाल ,_

            _अच्छी तरह करूंगी मैं ,_

            _घबरा मत, उनकी दादी हूँ ,_

            _ऐंसा नहीं कहूँगी मैं।_
                        _तेरे 🏡घर की नौकरानी ,_

                        _ही समझ मुझे ले जा ,_

                        _बेटा मुझे अपने साथ ,_

                        _अपने 🏡घर लेकर जा।_
 _आँखें मेरी थक गईं ,_

 _प्राण अधर में अटका है ,_

 _तेरे बिना जीवन जीना ,_

 _अब मुश्किल लगता है।_
                 _कैसे मैं तुझे भुला दूँ ,_

                 _तुझसे तो मैं माँ हुई ,_

                 _बता ऐ मेरे कुलभूषण ,_

                 _अनाथ मैं कैसे हुई ?_
_अब आ जा तू.._

_एक बार तो माँ कह जा ,_

_हो सके तो जाते जाते_

 _वृद्धाश्रम गिराता जा।_

              _बेटा मुझे अपने साथ_

              _अपने 🏡घर लेकर जा_
_**_

👌 (_*शायद आपकी कोशिश से कोई ” माँ ” अपने 🏡 घर चली जाये …*_)

 ☝याद रखना….☝🏽

माँ बाप उमर से नहीं..

” फिकर से बूड़े होते है..

कड़वा है मगर सच है ” …🙏🙏🏽🙏🏽🙏🏽

👌जब बच्चा रोता है , तो पूरी बिल्डिंग  को पता चलता है , 👌🏽

मगर साहब ,

जब  माँ बाप रोते है तो बाजु वाले को भी पता नही चलता है,

ये जिंदगी की सच्चाई है..☝🏽👍👆 👌🏻

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​लघु हास्य व्यंग


लघु हास्य व्यंग ..

निखिल

वो बिना हेलमेट के बाइक चला रहा था। पुलिस वाले ने रोका, कहा “हेलमेट कहाँ है?” उसने बोला भूल गया।
पुलिस वाला: क्या नाम है? काम क्या करते हो?
बाइक सवार: केहर सिंह नाम है और मैं एक फौजी हूँ।
पुलिस वाला: अच्छा कोई बात नहीं जाओ, आगे से हेलमेट पहन कर बाइक चलाना। 
फ़ौजी: नहीं भाई, आप अपना काम करो। मैंने गलती की है मेरा चालान काटो।

पुलिस वाला: ठीक है, अगर ऐसी ही बात है तो निकालो 100 रु और पर्ची लेकर जाओ। 
फ़ौजी: नहीं, यहाँ नहीं भुगतना चालान। मैं अदालत में ही जाकर चालान भुगतुंगा।
#अदालत
संतरी: केहर सिंह को बुलाओ। 
जज: हांजी, मिस्टर केहर सिंह आप 100 रु का चालान भर दीजिये। 
केहर: नहीं जनाब, यह कोई तरीका नहीं हुआ। आपने मेरी दलील तो सुनी ही नहीं। 
जज: अच्छा बताओ क्यों तुम्हें 100 रु का फाइन न किया जाए?
केहर: जनाब, 100 रु का फाइन थोड़ा कम है इसे आप 335 रु का कर दीजिए। 
जज: क्यों? और 335 का ही क्यों?
केहर: क्योंकि मुझे 100 रु कम लगता है और 336 रु ज्यादा ही नाइन्साफ़ी जो जाएगी।
(वहाँ खड़ी भीड़ हंसती है)
जज: (काठ का हथौड़ा मेज पर मारते हुए) शांति, शांति बनाए रखिये। 
केहर: जनाब एक और सलाह है, ये हथौड़ा काठ की बजाए स्टील का होना चाहिए आवाज ज्यादा होगी। एक और बात, यहाँ इस कमरे में भीड़ बहुत ज्यादा है। आप एक आर्डर पास कर दीजिए की कल से यहाँ ज्यादा से ज्यादा बस 127 लोग ही आएं। 
जज: Have you lost your mind Mr. Kehar Singh? आप यहाँ अदालत में जोक्स सुना रहे हैं। आप एक जज को सिखा रहे हैं कि अदालत कैसे चलानी है? कानून क्या होना चाहिए? फैसला क्या करना है? आपको पता भी है हम किस परिस्थिति में काम करते हैं? हमारे ऊपर कितना प्रेशर होता है? और….
केहर: जनाब! मैं एक फौजी हूँ। अभी कश्मीर में पोस्टेड हूँ। with all due respect sir आपको घण्टा नहीं पता कि प्रेशर क्या होता है। आपका प्रेशर ज्यादा से ज्यादा आपको एक दो घंटे ओवरटाइम करवा देगा। हमारा प्रेशर हमारी और सैंकड़ो और लोगों की जान ले सकता है।
जनाब, क्षमा कीजिये कि मैंने आपको सलाह दी। जिस काम के लिए आपको ट्रेनिंग दी जाती है, जिस काम में आप माहिर हैं उस काम में मैंने आपको सलाह दी। परन्तु आप भी तो यही करते हैं हमारे साथ…..मसलन…बन्दुक को 90 डिग्री से नीचे कर के चलाओ, असली गन मत चलाओ, पेलेट गन चलाओ, बस घुटनों के नीचे निशाना लगाओ, प्लास्टिक की गौलियाँ इस्तेमाल करो, प्लास्टिक की गोली भी खोखली होनी चाहिए, उसका वजन xyz ग्राम से ज्यादा नो हो। ये क्या है जज साब? क्या आप यहाँ AC रूम में बैठ कर हमें सिखाओगे कि हमें अपना काम कैसे करना है? जिस काम के लिए हम Trained हैं, जिन Situations का हमको First hand Experience है आप हमें बताओगे कि उस Situation में हमें कैसे react करना चाहिए?
अदालत में अभी तक सन्नाटा है .. 
श्री राधे राधे .. 🙂

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अच्छा हुआ हम इन्सान नहीं बने


विकास खुराना

अच्छा हुआ हम इन्सान नहीं बने-
********
बहुत सुन्दर दृष्टान्त-
आज बन्दर और बन्दरिया के विवाह की वर्षगांठ थी । बन्दरिया बड़ी खुश थी । एक नज़र उसने अपने परिवार पर डाली । तीन प्यारे-प्यारे बच्चे, नाज उठाने वाला साथी, हर सुख-दु:ख में साथ देने वाली बन्दरों की टोली । पर फिर भी मन उदास है । सोचने लगी – “काश ! मैं भी मनुष्य होती तो कितना अच्छा होता ! आज केक काटकर सालगिरह मनाते, दोस्तों के साथ पार्टी करते, हाय ! सच में कितना मजा आता !
बन्दर ने अपनी बन्दरिया को देखकर तुरन्त भांप लिया कि इसके दिमाग में जरुर कोई ख्याली पुलाव पक रहा है । उसने तुरन्त टोका – “अजी, सुनती हो ! ये दिन में सपने देखना बन्द करो । जरा अपने बच्चों को भी देख लो, जाने कहाँ भटक रहे हैं ? मैं जा रहा हूँ बस्ती में, कुछ खाने का सामान लेकर आऊँगा तेरे लिए । आज तुम्हें कुछ अच्छा खिलाने का मन कर रहा है मेरा ।
बन्दरिया बुरा सा मुँह बनाकर चल दी अपने बच्चों के पीछे । जैसे-जैसे सूरज चढ़ रहा था, उसका पारा भी चढ़ रहा था । अच्छे पकवान के विषय में सोचती तो मुँह में पानी आ जाता । “पता नहीं मेरा बन्दर आज मुझे क्या खिलाने वाला है ? अभी तक नहीं आया ।” जैसे ही उसे अपना बन्दर आता दिखा झट से पहुँच गई उसके पास ।
बोली – “क्या लाए हो जी ! मेरे लिए । दो ना, मुझे बड़ी भूख लगी है ।
ये क्या तुम तो खाली हाथ आ गये !”
बन्दर ने कहा – “हाँ, कुछ नहीं मिला । यहीं जंगल से कुछ लाता हूँ ।”
बन्दरिया नाराज होकर बोली – “नहीं चाहिए मुझे कुछ भी । सुबह तो मजनू बन रहे थे, अब साधु क्यों बन गए ?”
बन्दर – “अरी, भाग्यवान ! जरा चुप भी रह लिया कर । पूरे दिन कच-कच करती रहती हो ।”
बन्दरिया – “हाँ-हाँ ! क्यों नहीं, मैं ही ज्यादा बोलती हूँ । पूरा दिन तुम्हारे परिवार की देखरेख करती हूँ । तुम्हारे बच्चों के आगे-पीछे दौड़ती रहती हूँ । इसने उसकी टांग खींची, उसने इसकी कान खींची, सारा दिन झगड़े सुलझाती रहती हूँ ।”
बन्दर – “अब बस भी कर, मुँह बन्द करेगी, तभी तो मैं कुछ बोलूँगा । गया था मैं तेरे लिए पकवान लाने शर्मा जी की छत पर । रसोई की खिड़की से एक आलू का परांठा झटक भी लिया था मैंने । पर तभी शर्मा जी की बड़ी बहू की आवाज़ सुनाई पड़ी . .
“अरी, अम्मा जी ! अब क्या बताऊँ,
ये और बच्चे नाश्ता कर चुके हैं । मैंने भी खा लिया है और आपके लिए भी एक परांठा रखा था मैंने ।
पर, खिड़की से बन्दर उठा ले गया । अब क्या करुँ ? फिर से चुल्हा चौंका तो नहीं ना कर सकती मैं । आप देवरानी जी के वहाँ जाकर खा लें ।”
अम्मा ने रुँधाए से स्वर में कहा –
“पर, मुझे दवा खानी है, बेटा !”
बहू ने तुरन्त पलटकर कहा – तोमैं क्या करुँ ?
अम्मा जी ! वैसे भी आप शायद भूल गयीं हैं,
आज से आपको वहीं खाना है ।
एक महीना पूरा हो गया है, आपको मेरे यहाँ खाते हुए । देवरानी जी तो शुरु से ही चालाक हैं, वो नहीं आयेंगी आपको बुलाने । पर तय तो यही हुआ था कि एक
महीना आप यहाँ खायेंगी और एक महीना वहाँ ।”
अम्मा जी की आँखों में आँसू थे, वे बोल नहीं पा रहीं थीं ।
बड़ी बहू फिर बोली – “ठीक है,
अभी नहीं जाना चाहती तो रुक जाईये ।
मैं दो घण्टे बाद दोपहर का भोजन बनाऊँगी,
तब खा लीजिएगा ।”
बन्दर ने बन्दरिया से कहा कि “भाग्यवान !
मुझसे यह सब देखा नहीं गया और मैंने परांठा
वहीं अम्मा जी के सामने गिरा दिया ।”
बन्दरिया की आँखों से आँसू बहने लगे ।
उसे अपने बन्दर पर बड़ा गर्व हो रहा था और बोली – “ऐसे घर का अन्न हम नहीं खायेंगे, जहाँ माँ को बोझ समझते हैं । अच्छा हुआ, जो हम इन्सान नहीं हुए ।
हम जानवर ही ठीक हैं ।”

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बासमती चावल बेचने वाले एक सेठ की स्टेशन मास्टर से साँठ-गाँठ हो गयी


विकास खुराना‎
बासमती चावल बेचने वाले एक सेठ की स्टेशन मास्टर से साँठ-गाँठ हो गयी । सेठ को आधी कीमत पर बासमती चावल मिलने लगा ।
सेठ ने सोचा कि इतना पाप हो रहा है , तो कुछ धर्म-कर्म भी करना चाहिए ।
एक दिन उसने बासमती चावल की खीर बनवायी और किसी साधु बाबा को आमंत्रित कर भोजनप्रसाद लेने के लिए प्रार्थना की ।
साधु बाबा ने बासमती चावल की खीर खायी ।
दोपहर का समय था । सेठ ने कहाः “महाराज ! अभी आराम कीजिए । थोड़ी धूप कम हो जाय फिर पधारियेगा ।
साधु बाबा ने बात स्वीकार कर ली ।
सेठ ने 100-100 रूपये वाली 10 लाख जितनी रकम की गड्डियाँ उसी कमरे में चादर से ढँककर रख दी ।
साधु बाबा आराम करने लगे ।
खीर थोड़ी हजम हुई । साधु बाबा के मन में हुआ कि इतनी सारी गड्डियाँ पड़ी हैं, एक-दो उठाकर झोले में रख लूँ तो किसको पता चलेगा ?
साधु बाबा ने एक गड्डी उठाकर रख ली ।
शाम हुई तो सेठ को आशीर्वाद देकर चल पड़े ।
सेठ दूसरे दिन रूपये गिनने बैठा तो 1 गड्डी (दस हजार रुपये) कम निकली ।
सेठ ने सोचा कि महात्मा तो भगवतपुरुष थे, वे क्यों लेंगे ?
नौकरों की धुलाई-पिटाई चालू हो गयी । ऐसा करते-करते दोपहर हो गयी ।
इतने में साधु बाबा आ पहुँचे तथा अपने झोले में से गड्डी निकाल कर सेठ को देते हुए बोलेः “नौकरों को मत पीटना, गड्डी मैं ले गया था ।”
सेठ ने कहाः “महाराज ! आप क्यों लेंगे ? जब यहाँ नौकरों से पूछताछ शुरु हुई तब कोई भय के मारे आपको दे गया होगा । और आप नौकर को बचाने के उद्देश्य से ही वापस करने आये हैं क्योंकि साधु तो दयालु होते है । ”
साधुः “यह दयालुता नहीं है । मैं सचमुच में तुम्हारी गड्डी चुराकर ले गया था ।
साधु ने कहा सेठ ….तुम सच बताओ कि तुम कल खीर किसकी और किसलिए बनायी थी ?”
सेठ ने सारी बात बता दी कि स्टेशन मास्टर से चोरी के चावल खरीदता हूँ, उसी चावल की खीर थी ।
साधु बाबाः “चोरी के चावल की खीर थी इसलिए उसने मेरे मन में भी चोरी का भाव उत्पन्न कर दिया । सुबह जब पेट खाली हुआ, तेरी खीर का सफाया हो गया तब मेरी बुद्धि शुद्ध हुई कि
‘हे राम…. यह क्या हो गया ?
मेरे कारण बेचारे नौकरों पर न जाने क्या बीत रही होगी । इसलिए तेरे पैसे लौटाने आ गया ।
“इसीलिए कहते हैं कि….
जैसा खाओ अन्न … वैसा होवे मन ।
जैसा पीओ पानी …. वैसी होवे वाणी ।

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इतिहास तेजोमहालय


अन्य   इतिहास   तेजोमहालय-1 : और जब ताजमहल के बंद दरवाज़े खुले तो सामने आई…
आगरा निवासी पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी जो अब 80 (लेख 2010-11 में लिखे गए हैं) वर्ष से अधिक आयु के हैं. उनके ‘ताजमहल’ विषयक शोध को क्रमवार देने का मन हो आया जब उनके विचारों को पढ़ा. सोचता हूँ पहले उनके विचारों को ज्यों का त्यों रखूँ और फिर उनके जीवन पर भी कुछ प्रकाश डालूँ. जो हमारी सांस्कृतिक विरासत पर से मिथ्या इतिहास की परतों को फूँक मारकर दूर करने का प्रयास करते हैं प्रायः उनके प्रयास असफल हो जाया करते हैं. इसलिए सोचता हूँ उनकी फूँक को दमदार बनाया जाए और मिलकर उस समस्त झूठे आवरणों को हटा दिया जाए जो नव-पीढ़ी के मन-मानस पर डालने के प्रयास होते रहे हैं. तो लीजिये प्रस्तुत है पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी के शब्दों में ….. ताजमहल की असलियत … एक शोध –  प्रतुलजी
भूमिका
मैं जब 10 वर्ष का था (सन् 1941 ई.) उस समय मेरी कक्षा छः की हिन्दी पुस्तक में एक पाठ ताजमहल पर था. जिस दिन वह पाठ पढ़ाया जाना था उस दिन कक्षा के सभी बालक अत्यधिक उल्लसित थे. उस पाठ में ताजमहल की भव्यता-शुभ्रता का वर्णन तो था ही, उससे अधिक उससे जुड़े मिथकों का वर्णन जिन्हें हमारे शिक्षक ने अतिरंजित रूप से बढ़ा दिया था. मेरे बाल मन पर यह बात पूर्णरूप से अंकित हो गई कि यह विश्वप्रसिद्ध ताज बीबा का रौजा (इस नाम से ही वह उन दिनों प्रसिद्ध था) मुगल सम्राट्‌ शाहजहाँ ने बनवाया था.
आठ वर्ष और बीत गये. सन्‌ 1949 ई. में मैं अपने श्वसुर के साथ एक विशेष कार्य से जीवन में पहली बार आगरा आया. वह विशिष्ट कार्य हम दोनों के मन पर इतना अधिक प्रभावी था कि मार्ग में एक बार भी यह ध्यान नहीं आया कि इसी आगरा में विश्वप्रसिद्ध दर्शनीय ताजमहल है. कार्य हो जाने पर जब हम लोग बालूगंज से आगरा किला स्टेशन की ओर लौट रहे थे तो लम्बी ढलान के नीचे चौराहे से जो एकाएक दाहिनी ओर दृष्टि पड़ी तो सूर्य की आभा में ताजमहल हमारे सम्मुख अपनी पूर्ण भव्यता में खड़ा था. हम दोनों कुछ क्षण तो स्तब्ध से खड़े रह गये, तदुपरान्त किसी साइकिल वाले की घंटी सुनकर हम लोगों को चेत हुआ.
जहाँ पर हम लोग खड़े थे वहाँ पर चारों ओर की सड़कें चढ़ाई पर जाती थीं. ऐसा प्रतीत होता था कि दाहिनी ओर चढ़ाई समाप्त होते ही नीचे मैदान में थोड़ी दूर पर ही ताजमहल है, अतः हम लोग उसी ओर बढ़ लिये. ऊपर पहुँचकर यह तो आभास हुआ कि ताजमहल वहाँ से पर्याप्त दूर है, परन्तु गरीबी के दिन थे, अस्तु हम लोग पैदल ही दो मील से अधिक का मार्ग तय कर गये. उन दिनों ताजमहल दर्शन के लिये टिकट नहीं लेना पड़ता था. और गाइड करने का तो प्रश्न ही नहीं था, परन्तु जिन लोगों ने गाइड किये हुए थे लगभग उनके साथ चलते हुए हमने उनकी बकवास पर्याप्त सुनी जो उस दिन तो अच्छी ही लगी थी.
उस प्रथम दर्शन में ताजमहल मुझे अपनी कल्पना से भी अधिक भव्य तथा सुन्दर लगा था. उसकी पच्चीकारी तथा पत्थर पर खुदाई-कटाई का कार्य अद्‌भुत था, फिर भी मुझे एक-दो बातें कचौट गई थीं. बुर्जियों, छतरियों, मेहराबों में स्पष्ट हिन्दू-कला के दर्शन हो रहे थे. मुख्यद्वार के ऊपर की बनी बेल तथा कलाकृति उसी दिन मैं कई मकानों के द्वार पर आगरा में ही देख चुका था. मैंने अपने श्वसुर जी से अपनी शंका प्रकट की तो उन्होंने गाइडों की भाषा में ही शाहजहाँ के हिन्दू प्रिय होने की बात कहकर मेरा समाधान कर दिया, परन्तु मैं पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हुआ एवं मेरे अन्तर्मन में कहीं पर यह सन्देह बहुत काल तक प्रच्छन्न रूप में घुसा रहा.
18 मार्च सन्‌ 1954 को मेरी नियुक्ति आगरा छावनी स्टेशन पर स्टेशन मास्टर श्रेणी में हुई. तब से आज तक मैं आगरा में हूँ, इस कारण ताजमहल को जानने, समझने में मुझे पर्याप्त सुविधा मिली.
आज से लगभग 30 वर्ष पूर्व समाचार-पत्रों में मैंने पढ़ा कि किसी लेखक (संभवतः श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक) ने ताजमहल को हिन्दू मन्दिर सिद्ध करने का प्रयास किया है. उक्त लेख में तथ्यों को तो दर्शया था, परन्तु उसमें प्रमाणों का अभाव था, अस्तु. उससे मुझे अधिक प्रेरणा नहीं मिल सकी. इसके कुछ वर्ष पश्चात्‌ एक दिन ज्ञात हुआ कि श्री ओक जी सायं 7 बजे स्थानीय इम्पीरियल होटल में प्रबुद्ध नागरिकों के सम्मुख ताजमहल पर वार्ता करेंगे.
मैं उस दिन गया और श्री ओक को लगभग डेढ़ घण्टे बोलते सुना. उनके भाषण के पश्चात्‌ ऐसा प्रतीत हुआ कि ताजमहल जैसे यमुना नदी (उस समय नदी साफ़-सुथरी होती थी) से लेकर कलश तक मिथ्याचार के कलुष से निकल कर अपनी सम्पूर्ण कान्ति से देदीप्यमान हो उठा हो. भाषण के पश्चात्‌ मैं स्वयं श्री ओक जी से मिला तथा उन्हें ताजमहल की दो विसंगतियों से अवगत कराया. ओक जी मुझसे प्रभावित हुए तथा मेरा नाम पता लिख ले गये.
सन्‌ 1975 ई. में एक दिन श्री ओक जी से पता लेकर इंग्लैंड से भारतीय मूल के अभियन्ता श्री वी. एस. गोडबोले तथा आई. आई. टी कानपुर के प्रवक्ता श्री अशोक आठवले आये. वे नई दिल्ली से पुरातत्त्व विभाग के महानिदेशक का अनुज्ञापत्र ले कर आये थे जिसके अनुसार विभाग को उन्हें वे सभी भाग खोल कर दिखाने थे जो साधारणतया सामान्य जनता के लिये बन्द रखे जाते हैं.
श्री गोडबोले ने मुझसे भी ताजमहल देखने के लिये साथ चलने का आग्रह किया. मैंने दो दिन के लिये अवकाश ले लिया तथा अगले दिन उन दोनों के साथ ताजमहल गया. कार्यालय में नई दिल्ली से लाया गया अनुज्ञापत्र देने पर वहां से एक कर्मचारी चाभियों का एक गुच्छा लेकर हमारे साथ कर दिया गया. उसके साथ हम लोगों ने पहले मुखय द्वार के ऊपर का भाग देखा.
तत्पश्चात्‌ ताजमहल के ऊपर का कक्ष उसकी छत एवं गुम्बज के दोनों खण्डों को देखा. नीचे आकर ताजमहल के नीचे बने कमरों तथा पत्थर चूने से बन्द कर दिये गये मार्गों आदि को देखा.
एक स्थल तो ऐसा आया जहाँ पर यदि हम लोग अवरुद्ध मार्ग को फोड़ कर आगे बढ़ सकते तो कुछ गज ही आगे चलने पर नीचे वाली कब्र की छत के ठीक नीचे होते और उक्त कब्र हमारे सर से लगभग तीस फुट ऊपर होती, अर्थात्‌ कब्र के ऊपर भी पत्थर तथा कब्र के नीचे भी पत्थर. पत्थर के ऊपर भी कमरा तथा पत्थर के नीचे भी कमरा. है न चमत्कार. मात्र इतना सत्य ही संसार के समक्ष उद्घाटित कर दिया जाए तो ताजमहल विश्व का आठवाँ आश्चर्य मान लिया जाए.
तदुपरान्त हमें बावली के अन्दर के जल तक के सातों खण्ड दिखाये गये. मस्जिद एवं तथाकथित जवाब के ऊपर के भाग एवं उनके अन्दर के भाग, बुर्जियों के नीचे हाते हुए पिछली दीवार में बने दो द्वारों को खोल कर यमुना तक जाने का मार्ग हमें दिखाया गया.
यहाँ पर दो बातें स्पष्ट करना चाहूँगा
(1) शव को कब्र में दफन करने का मुख्य उद्‌देश्य यह होता है कि मिट्‌टी के सम्पर्क में आकर शव स्वयं मिट्‌टी बन जाए. इसकी गति त्वरित करने के लिये उस पर पर्याप्त नमक भी डाला जाता है. यदि शव के नीचे तथा ऊपर दोनों ओर पत्थर होंगे तो वह विकृत हो सकता है, परन्तु मिट्‌टी नहीं बन सकता.
(2) यमुना तट पर स्थित उत्तरी दीवार के पूर्व तथा पश्चिमी सिरों के समीप लकड़ी के द्वार थे. इन्हीं द्वारों से होकर हम लोग अन्दर ही अन्दर चलकर ऊपर की बुर्जियों में से निकले थे. अर्थात्‌ भवन से यमुना तक जाने के लिए दो भूमिगत तथा पक्के मार्ग थे. इन्हीं द्वार में से एक की चौखट का चाकू से छीलकर अमरीका भेजा गया था जहाँ पर उसका परीक्षण किया गया था.
6 फरवरी 1984 को देश एवं संसार के सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ कि वह लकड़ी बाबर के इस देश में आने से कम से कम 80 वर्ष पूर्व की है. भारत सरकार ने इसे समाचार का न तो खण्डन ही किया और न ही कोई अन्य प्रतिक्रिया व्यक्त की, परन्तु शाहजहाँ के समान उसने एक कार्य त्वरित किया. उन दोनों लकड़ी के द्वारों को निकाल कर पता नहीं कहाँ छिपा दिया तथा उन भागों को पत्थर के टुकड़ों से सीमेंट द्वारा बन्द करा दिया.
ताजमहल परिसर के मध्य में स्थित फौआरे के ऊँचे चबूतरे के दाहिनी-बायें बने दोनों भवनों का नाम नक्कार खाना है, अर्थात्‌ वह स्थल जहाँ परवाद्य-यन्त्र रखे जाते हों अथवा गाय-वादन होता हो. इन भवनों पर ‘नक्कार खाना’ नाम की प्लेट भी लगी थी. जब हम लोगों ने इन बातों को उछाला कि गम के स्थान पर वाद्ययन्त्रों का क्या काम?
तो भारत सरकार ने उन प्लेटों को हटा कर दाहिनी ओर का भवन तो बन्द करवा दिया ताकि बाईं ओर के भवन में म्यूजियम बना दिया. इस म्यूजिम में हाथ से बने पर्याप्त पुराने चित्र प्रदर्शित हैं जो एक ही कलाकार ने यमुना नदी के पार बैठ कर बनाये हैं. इन चित्रों में नीचे यमुना नदी उसके ऊपर विशाल दीवार तथा उसके भी ऊपर मुखय भवन दिखाया गया है. इस दीवार के दोनों सिरों पर उपरोक्त द्वार स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं. अभी तक मैं चुप रहा हूं, परन्तु यह लेख प्रकाशित होते ही भारत सरकार अतिशीघ्र उक्त दोनों चित्र म्यूजियम से हटा देगी.
दो दिनों तक हम लोगों ने ताजमहल का कोना-कोना छान मारा. हम लोग प्रातः सात बजे ताजमहल पहुँच जाते थे तथा रात्रि होने पर जब कुछ दिखाई नहीं पड़ता था तभी वापस आते थे. इस अभियान से मेरा पर्याप्त ज्ञानवर्धन हुआ तथा और जानने की जिज्ञासा प्रबल हुई. मैंने हर ओर प्रयास किया ओर जहाँ भी कोई सामग्री उपलब्ध हुई उसे प्राप्त करनेका प्रयास किया.
माल रोड स्थित स्थानीय पुरातत्त्व कार्यालय के पुस्तकालय में मैं महीनों गया. बादशाहनामा मैंने वहीं पर देखा. उन्हीं दिनों मुझे महाभारत पढ़ते हुए पृष्ठ 262 पर अष्टावक्र के यह शब्द मिले, ‘सब यज्ञों में यज्ञ-स्तम्भ के कोण भी आठ ही कहे हैं.’ इसको पढ़ते ही मेरी सारी भ्रान्तियाँ मिट गई एवं तथाकथित मीनारें जो स्पष्ट अष्टकोणीय हैं, मुझे यज्ञ-स्तम्भ लगने लगीं.
एक बार मुझे नासिक जाने का सुयोग मिला. वहाँ से समीप ही त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग है. मैं उस मन्दिर में भी दर्शन करने गया. वापस आते समय मेरी दृष्टि पीठ के किनारे पर अंकित चित्रकारी पर पड़ी. मैं विस्मित होकर उसे देखता ही रहा गया. मुझे ऐसा लग रहा था कि इस प्रकार की चित्रकारी मैंने कहीं देखी है, परन्तु बहुत ध्यान देने पर भी मुझे यह याद नहीं आया कि वैसी चित्रकारी मैंने कहां पर देखी है.
दो दिन मैं अत्यधिक विकल रहा. तीसरे दिन पंजाब मेल से वापसी यात्रा के समय एकाएक मुझे ध्यान आया कि ऐसी ही चित्रकारी ताजमहल की वेदी के चारों ओर है. सायं साढ़े चार बजे घर पहुँचा और बिना हाथ-पैर धोये साईकिल उठा कर सीधा ताजमहल चला गया. वहाँ जाकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही कि ताजमहल के मुख्य द्वार एवं तत्रयम्बकेश्वर मन्दिर की पीठ की चित्रकारी में अद्‌भुत साम्य था. कहना न होगा कि त्रयम्बकेश्वर का मन्दिर शाहजहाँ से बहुत पूर्व का है.
सन्‌ 1981 में मुझे भुसावल स्थिल रेलवे स्कूल में कुछ दिन के लिय जाना पड़ा. यहाँ से बुराहनुपर मात्र 54 कि. मी. दूर है तथा अधिकांश गाड़ियाँ वहाँ पर रुकती हैं. एक रविवार को मैं वहाँ पर चला गया. स्टेशन से तांगे द्वारा ताप्ती तट पर जैनाबाद नामक स्थान पर मुमताजमहल की पहली कब्र मुझे अक्षुण्य अवस्था में मिली. वहाँ के रहने वाले मुसलमानों ने मुझे बताया कि शाहजहाँ की बेगम मुमताजमहल अपनी मृत्यु के समय से यहीं पर दफन है.
उसकी कब्र कभी खोदी ही नहीं गई और खोद कर शव निकालने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता, क्योंकि इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता. किसी-किसी ने दबी जबान से यह भी कहा कि वे यहाँ से मिट्‌टी (खाक) ले गये थे. सन्‌ 1981 ई. तथा सन्‌ 1986 ई. के मेरे भुसावल के शिक्षणकाल में मैंने सैकड़ों रेल कर्मियों को यह कब्र दिखाई थी. श्री हर्षराज आनन्द काले, नागपुर के पत्र दिनांक 08/10/1996 के अनुसार उनके पास पुरातत्व विभाग के भोपाल कार्यलय का पत्र है जिसके अनुसार बुरहानपुर स्थित मुमताज़ महल की कब्र आज भी अक्षुण्य है अर्थात्‌ कभी खोदी ही नहीं गई.
पिछले 22 वर्ष से मैं ताजमहल पर शोधकार्य तथा इसके प्रचार-प्रसार की दृष्टि से जुड़ा रहा हूँ. इस पर मेरा कितना श्रम तथा धन व्यय हुआ इसका लेखा-जोखा मैंने नहीं रखा. इस बीच मुझे अनेक खट्‌टे-मीठे अनुभवों से दो-चार होना पड़ा है. उन सभी का वर्णन करना तो उचित नहीं है, परन्तु दो घटनाओं की चर्चा मैं यहाँ पर करना चाहूँगा…
जारी …
– प्रतुल वशिष्ठ जी के ब्लॉग से साभार
(नोट: लेख में दी गयी जानकारियाँ और फोटो प्रमाण राष्ट्रहित के लिए एवं भारत की जनता को अपने वास्तविक इतिहास के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से अन्य websites से साभार ले रहे हैं. यदि इनके उपयोग से सम्बंधित वेबसाइट मालिक को आपत्ति हों तो कृपया सूचित करें. हम उसे तुरंत हटा लेने के लिए वचनबद्ध हैं. धन्यवाद )
श्री प्रतुल वशिष्ठ के ब्लॉग से मिली  सामग्री के पश्चात इस विषय पर एवं श्री कृष्ण कुमार पाण्डेय जी के विषय में खोज करने पर उनका मूलभूत लेखन प्राप्त हुआ और साथ ही ज्ञात हुआ कि ताजमहल एक शोध को उन्होंने पुस्तक रूप में भी प्रकाशित किया है. इस बारे में और अधिक सामग्री विभिन्न वेबसाइट पर प्राप्त हुई जिसे नीचे जोड़ा जा रहा है.
श्री वी. एस. गोडबोले के सौजन्य से मेरे पास इंग्लैण्ड से अनेक व्यक्ति ताजमहल दिखा देने का आग्रह ले कर आये. इस प्रकार मेरी प्रसिद्धि में वृद्धि हुई क्योंकि आम भारतीय आज भी विदेशियों को अति महत्व देता है. एक दिन मुझे सूचित किया गया कि रेलवे बोर्ड के एक बहुत बड़े अधिकारी सपरिवार ताजमहल देखने आ रहे हैं तथा उनका आदेश है कि गाइड के रूप में मुझे ही साथ भेजा जाए.
दूसरे दिन ताज एक्सप्रेस से उक्त अधिकारी (एक कल्पित नाम रख लेते हैं श्री आयंगर) उनकी पत्नी एवं उनकी साली आये. पति पत्नी 45-50 वर्ष तथा साली लगभग 24-25 वर्ष की थी. हम लोग ताजमहल पहुँच गये. ज्यों ही मैंने अपनी परिचित शैली में ताजमहल दिखाना प्रारम्भ किया त्यों ही श्रीमतीआयंगर ने उसे काटना प्रारम्भ कर दिया.
No! No! it is clear Mughal style…. (नहीं ! नहीं यह तो स्पष्ट मुगल कला है……….आदि आदि) यद्यपि श्री आयंगर चुप थे पर स्पष्ट पता लग रहा था कि वे दब्बू तथा अपनी पत्नी से प्रभावित थे. उस महिला ने मुझे एक भी तर्क नहीं रखने दिया. अधिकारी की पत्नी से मैं बहस भी तो नहीं कर सकता था. अतः मैंने शीघ्र से शीघ्र उनके पीछा छुड़ाना उचित समझा तथा कुछ दर्शनीय स्थलों को छोड़ता हुआ मैं उन्हें लेकर सीधा कब्र वाले कक्ष में प्रवेश कर गया.
अचानक आश्चर्यजनक घटना घट गईं अब तक चुपचाप चलने वाली श्रीमती आयंगर की बहन दौड़ कर एक स्तम्भ से चिपट गई और बोली, ‘Look here Didi. this is Kalyan Stambham, a typical of our south Indian temples.’ (इधर देखों दीदी ! यह कल्याण स्तम्भम्‌ है, जो अपने दक्षिण भारत के मन्दिरों की विशिष्ट है.) वह वाचाल महिला चुप साध गई. कहना न होगा कि तत्पनश्चात मैंने उन्हं सूर्य चक्र ”ऊँ” आदि वह सारे स्थल दिखाये जो मैं छोड़ गया था. विदा होते समय श्रीमती अयंगर ने अपने व्यवहार के लिये न केवल खेद व्यक्त किया अपितु क्षमता याचना भी की तथा थंजावूर आने का निमंत्रण भी दिया, पर मैं जीवन-पर्यन्त उनकी अनुजा का ऋणी रहूँगा.
आगरा के प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवी श्री छेदीलाल जी अग्रवाल के सौजन्य से एक दिन दोपहर दो बजे ताजमहल दर्शन का कार्यक्रम बना. हम लोग ताजमहल के मुख्य द्वार के निकट एकत्र हुए तो ज्ञात हुआ कि कुछ लोग अभी नहीं आये हैं, अस्तु. उनकी प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया गया. श्री छेदीलाल जी उन दिनों अस्वस्थ चल रहे थे, अतः मैंने उन्हें सलाह दी कि आप हृदय रोगी हैं अतः द्वार के अन्दर जाकर छाया में बैठ कर हम लोगों की प्रतीक्षा करें.
श्री छेदीलाल जी चले गये. कुछ देर पश्चात्‌ सबसके आ जाने पर जब हम लोग अन्दर पहुँचे तो क्या देखते हैं कि हृदय रोगी श्री छेदीलाल जी भागते हुए हमारी ओर आ रहे हैं. आते ही हाँफते हुए उन्होंने मुझसे कहा, ‘पाण्डेय जी ! पाण्डेय जी !! मैंने अभी सैकड़ों हजारों की संख्या में गणेश प्रतिमायें देखी हैं.” मैंने मुस्कारते हुए उनसे कहा, ”आपके गणेश दर्शन को सार्थक करते हुए मैं आज गणेश दर्शन से ही ताजमहल दर्शन का श्रीगणेश करूँगा. यद्यपि श्री छेदीलाल जी का प्राँगण में गणेश प्रतिमाएं होने का तो ज्ञान था, परन्तु निश्चित स्थान उन्हें ज्ञात नहीं था. उनकी खोजी दृष्टि ने वह खोज लिया जो लाखों व्यक्ति नित्य ताजमहल निहार कर भी न खोज पाने के कारण गणेश-दर्शन से वंचित रह जाते हैं.
इस पुस्तक के लेखन में मुझे अनेक सज्जनों का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त हुआ है और उनके प्रति यदि आभार प्रकट न किया जाए तो यह अशिष्टता ही नहीं कृतघ्नता भी होगा. सबसे पहले मैं आभारी हूँ श्री पुरुषोत्म नागेश जी ओक का जिन्होंने मुझे ताजमहल का सच्चा स्वरूप बताया. श्री वी. एस. गोडबोले : इंग्लैण्ड, श्री अशोक आठवले : कानपुर, श्री विजय बेडेकर : ठाणे एवं पं. भास्कर गोपाल केसकर : भाग्यनगर का.
इन बन्धुओं का भी मुझे विशेष सहयोग रहा. न सभी सज्जनों को मैं नमन करता हूँ. इसके अतिरिक्त मैं श्री गोपाल गोडसे तथा सूर्य भारतीय प्रकाशन का ह्रदय से आभारी हूँ जिनके सक्रिय सहयोग से यह पुस्तक आप के कर-कमलों तक पहुँ सकी है. सम्भव है कुछ नाम मुझे विस्मृत हो गये हों पर उन सभी महानुभावों का भी मैं आभार व्यक्त कर रहा हूँ जिनका प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष सहयोग मुझे मिलता रहा है और उनके नाम मैं न देने पाने के कारण लज्जित भी हूँ, क्षमा प्रार्थी भी हूँ.
मेरे पूरे परिवार जिसमें मेरे पुत्र, पुत्र-वधुएँ, कन्या, दामाद एवं उनकी संतानें भी सम्मिलित हैं के अतिरिक्त सहधर्मिणी का सहयोग भी मुझे आशातीत मिला. इन सभी को मैं तन्मय होकर शुभार्शीवाद दे रहा हूँ. सबसे अन्त में मैं उन नवयुवक की प्रशंसा करना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ जिसने लगातार उकसा-उकसा कर मुझे इस पुस्तक को प्रकाशित कराने के लिए बाध्य कर दिया. उस नवयुवक का नाम है पं. अवधेश भार्गव, गुरसहायगंज (जिला : फरुर्खाबाद, उ. प्र.)
आगरा : शरद पूर्णिमा (गुरूवार) युगाब्द ५०९९
(आश्विन शुक्ल १५ वंवत्‌ २०५४)
दि. १६ अक्टूबर, १९९७
विनीत
पं. कृष्णकुमार पाण्डे
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तेजोमहालय – 2 : बादशाहनामा में शाहजहाँ ने खुद दिए थे प्रमाण,…
  • तेजोमहालय – 2 : बादशाहनामा में शाहजहाँ ने खुद दिए थे प्रमाण, राजा मानसिंह के भवन में दफनाया था मुमताज़ को!
हमारे आस-पास दैनिक घटनाओं का एक चक्र सतत प्रवाहमान रहता है. उनमें से कुछ प्रमुख एवं महत्वपूर्ण घटनाएं इतिहास में भी स्थान पा जाती हैं. इतिहास में अंकित यह घटनाएँ प्रायः विवाद का विषय रही हैं.
कारण, इतिहास-लेखन होने तक अधिकांश प्रत्यक्षदर्शी एवं अंतरंग जानकार या तो इस संसार से प्रस्थान कर चुके होते हैं अथवा कई कारणों से मुख नहीं खोल पाते. एक अन्य कारण भी है. कुछ स्वार्थी एवं सम्बद्ध-पक्ष घटनाओं के सत्यपक्ष पर भ्रम का ऐसा पर्दा डाल देते हैं कि वह उजागर होकर जन-साधारण तक आ ही नहीं पाती एवं समय-अन्तराल की धूल उस पर लगातार जमती रहती है तथा उसे और अधिक प्रच्छन्न कर देती है.
ऐसी दशा में इतिहास-लेखन अत्यन्त क्लिष्ट कार्य हो जाता है. इतिहास लेखक को निष्पक्ष होने के साथ ही साथ उसकी अत्यन्त खोजपूर्ण दृष्टि का होना भी अति आवश्यक है. इस दृष्टि के लिये स्वातंत्र्य वीर सावरकर एवं वृन्दावनलाल वर्मा के नाम गौरव से लिये जा सकते हैं, जिन्होंने अतीत के लुप्त सूत्रों को जोड़ते हुए सत्य का सुन्दर कालीन बुन डाला ऐसा ही एक उदाहरण ताजमहल है.
आज प्रत्येक पुस्तक, नाटक, कविता, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के माध्यम से लगातार यही बताया जाता है कि ताजमहल को शाहजहाँ ने बनवाया था. प्रतिदिन ताजमहल देखने आने वाले देसी-विदेशी यात्रियों को भी अधकचरे गाइड यही घुट्‌टी पिलाते हैं एवं इसे रोचक बनाने के लिये अनेक घटनाएँ तथा कहानियाँ जोड़ देते हैं. यथा, शाहजहाँ की पटरानी अत्यन्त सुन्दरी थी, शाहजहाँ उससे प्राणपण से प्रेम करता था, मरते-समय रानी ने सम्राट्‌ से वचन लिया था कि वह रानी के लिये एक भव्य-स्मारक का निर्माण करायेगा आदि-आदि.
सन्‌ 1965 में श्री पु. ना. ओक ने इस मत का सशक्त खण्डन प्रबल प्रमाणों के आधार पर किया था, परन्तु उस समय के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष-जनों ने इसे मात्र हिन्दुत्व के प्रधान्य को सिद्ध करने का प्रयास-मात्र मानकर गम्भीरता से नहीं लिया. फिर भी, सत्यान्वेषणार्थियों को एक मार्ग तो मिल ही गया था.
शोध चलता रहा. भारत में कम, भारत के बाहर अधिक कार्य हुए. आज ऐतिहासिक, पुरातात्विक, वास्तु एवं स्थापत्य कला के ही नहीं अपितु पुष्ट वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि जैसा ताजमहल हम आज देख रहे हैं वैसा ही शाहजहाँ के जन्म से पूर्व भी खड़ा था. शाहजहाँ ने उसमें कब्र बनवाई है, कुरान की आयतें लिखवाई हैं एवं कुछ छोटे-मोटे अन्य परिवर्तन ही कराये हैं. आइये सत्यशोधन हेतु हम शाहजहाँ के समकालीन एवं पराकालीन लेखों एवं प्रमाणों की निष्पक्ष समीक्षा करें.
सबसे पहले  हम शाहजहाँ के स्वयं द्वारा अनुमोदित अभिलेखों की समीक्षा करें तो पायेंगे कि शाहजहाँ बड़ी स्पष्टता एवं ईमानदारी के साथ कहता है कि रानी का स्वर्गवास बुरहानपुर में हुआ था तथा उसे वहीं दफना दिया गया था. बाद में उसका शव अकबराबाद (आगरा) लाया गया एवं उसे राजा मानसिंह के भव्य भवन में, जो उस समय उनके नाती राजा जयसिंह के स्वामित्व में था, दफना दिया गया था.
भवन के बारे में वह बताता है कि वह भव्य-भवन विशाल फलदार वृक्षों से घिरा आकाश चुम्बी है एवं उसके ऊपर गुम्बज है. इस सारे वर्णन में शाहजहाँ न तो भवन तोड़ने की बात कहता है और न ही किसी प्रकार के नये निर्माण की ही. वह तो बिना लाग-लपेट स्पष्ट कहता है राजा जयसिंह से भवन लेकर उसमें रानी के शव को दफनाया था. पाठकों को इस कथन पर सन्देह हो रहा होगा कि यह असम्भव कथन शाहजहाँ द्वारा अनुमोदित कैसे हो सकता है? आइये प्रमाण देखें.
प्रथम मुगल बादशाह बाबर अपनी दैनिकी लिखता था, जिसमें वह प्रत्येक दिन की घटित घटनाओं का सटीक वर्णन लिखता था. जब वह भारत आया तो यहाँ पर उपलब्ध सब्जियों-फलों के नाम तथा भाव, अपने देश से उनकी तुलना आदि उसने सभी कुछ लिखा है. यह पुस्तक ”बाबरनामा’ कहलाई. इसी प्रथा को आगे बढ़ाया अकबर, जहाँगीर तथा शाहजहाँ ने, परन्तु थोड़ा बदल कर.
उन्होंने स्वयं न लिखकर अपने दरबार में एक विद्वान्‌ को इतिहास लेखन के लिये नियुक्त किया, जिन्होंने इन बादशाहों के काल में घटित घटनाओं का कहीं सत्य तथा कहीं अतिरंजित वर्णन किया, क्योंकि स्पष्ट है कि निष्पक्ष इतिहास लेखन इनका विषय न होकर अपने शाह का चरित्र ऊँचा दिखना और उसे प्रसन्न रखना ही इनका इष्ट था. इस प्रकार दरबारी भाँडों, भाटों एवं चारणों में तथा इनमें मात्र इतना ही अन्तर था कि इनका पद गरिमामय था तथा इनकी भाषा साहित्यिक थी. अस्तु, हमको इस अतिरंजना से बचते हुए सत्यान्वेषण करना है.
तो हम बता रहे थे कि अकबर के काल में ”आइन-ए-अकबरी’ एवं जहाँगीर के काल में ‘तुजुक-ए-जहाँगीरी’ लिखी गईं जब शाहजहाँ शासनारूढ़ हुआ तो उसे भी एक ऐसे ही विद्वान्‌  की आवश्यकता हुई जो दरबार में इस पद को सम्भाले. उस समय पटना में मुल्ला अब्दुल हमीद लाहोरी अपने अवकाश के दिन व्यतीत कर रहे थे. उन्हें सादर दरबार में बुलाया गया तथा इस कार्य पर नियुक्त किया गया.
मुल्ला ने 1600 पृष्ठों में शाहजहाँ काल के पहले 20 वर्षों का इतिहास लिखा है जिसका नाम ‘बादशाह नामा’ रखा गया. मुल्ला का मूल लेखन फारसी में है तथा इसका सर्वप्रथम प्रकाशन बंगाल की रॉयल एशियटिक सोसायटी द्वारा किया गया था, सन्‌ 1867 में. इसके मुख्य सम्पादक थे मेजर डब्ल्यू. एन. लीसे तथा सम्पादक मण्डल में थे मौलवी कबीर अलदीन तथा मौलवी अब्द अल रहीम. संयोग देखिये दो मुस्लिम और एक ईसाई. आइये देखें, इस पुस्तक में मुल्ला अब्दुल हमीद लाहोरी ताजमहल के बारे में क्या लिखता है?
उक्त बादशाहनामा तीन खण्डों में है. इस 1600 पृष्ठों के महाग्रन्थ में ताजमहल के बारे में मात्र एक दो-पृष्ठ ही लिखे गऐ हैं. जिस ताजमहल के बारे में संसार-भर में सैकड़ों लेखकों, कवियों और इतिहासकारों ने लाखों पृष्ठ लिख डाले, यदि उसे शाहजहाँ ने बनाया होता तो क्या लाहोरी स्वयं उसका अतिरंजित वर्णन नहीं करता?जैसा कि पराकालीन लेखकों ने लिखा है. क्या समकालीन मुल्ला स्वयं नहीं लिख सकता था कि सारे संसार से अभिकल्प (डिजायन) मँगाये गये, पर शाहजहाँ को कोई नहीं भाया, फिर एक भा गया. किस -किस प्रकार से मूल्यवान पत्थर कितनी मात्रा में तथा किस भाव में मँगाये गये थे, आदि. बादशाहनामा में यह भी लिखा होता कि इस भवन की नींव कब रखी गई, कितने दिनों में यह तैयार हुआ एवं इसमें कितने मजदूरों-कारीगरों आदि ने कार्य किया था.
बादशाहनामा के प्रथम खण्ड के पृष्ठ 402 पर 22 पंक्तियाँ लिखी गई हैं इनमें से प्रथम 20 पंक्तियों में जिस घटना का वर्णन है, उसका सम्बन्ध ताजमहल से नहीं है. पंक्ति क्र. 21 तथा 22 एवं पृष्ठ 403 की 19 पंक्तियों में इस घटना का पूर्ण एवं रोचक वर्णन किया गया है. यहाँ पर पहले मूल फारसी पाठ को नागरी लिपि में दे रहा हूँ. उर्दू के जानकार पाठक उससे कुछ अनुमान लगा सकेंगे. तत्पश्चात्‌ उसका हिन्दी रूपान्तर पाठकों के हित के लिये दे रहा हूँ. हिन्दी अनुवाद अंग्रेजी लेख को देखकर किया गया एवं हिन्दी में ऐसा प्रथम प्रयास है, अस्तु. सम्भव है किसी स्थल पर उपयुक्त शब्द न लिखा गया हो. यदि पाठकगण ऐसी किसी भूल को इंगित करेंगे तो आभारी रहूँगा.
बादशाहनामा पृष्ठ 402 की अन्तिम 2 पंक्तियां –
21. रोज़ ए जुमा हफ्दहूम जमाद इल अव्वल नाशे मुक़द्‌दसे मुसाफिरे अक्लीमे,
22. मुकद्‌दुस हज़रत मेहद आलिया मुमताज़ उजजमानीरा केह बा तारीक ए अ अमानत मुदाफून
हिन्दी अनुवाद पृष्ठ 402 बादशाहनामा –
21. शुक्रवार 17 जमादिल अव्वल साम्राज्य की यात्री का वह पवित्र शव.
22. पाक हजरत मुमताज़ उल ज़मानी का जो अस्थायी रूप से दफनाया गया था को भेजा गया.
बादशाहनामा पृष्ठ 403 की प्रथम 19 पंक्तियाँ
1. बूद मसाहूब ए बादशेहजादए नामदार मुहम्मद शाह शुजा बहादुर अ वजीर खान,
2. वा सती उन्‌निसा खानम केह बा मिज़ाज़शानासी वा कारदानी बा दारजा ए आओलई पेश,
3. दास्ती व वकालत एलान मालिके जहान मलिकाए जहानियान रसीदेह बूद, वाने-ए
4. दारुल खलाफाएं अकबराबाद नामूदन्द वा हुक्म शुद केह हर रोज़ दर राह आश ए बिसीयार
5. वा दाराहीम व दानानीरे बेशुमार बा फुक्रा वा नयाज़्मदान बीबीहन्द, वा जमीने दर
6. निहायत रिफात वा निजाहत केह जुनूबरू ए आन मिस्र जामा अस्त वा
7. पेश अज़ एैन मंज़िल ए राजाह मानसिंह बूद वदारी वक्त बा राजाह जयसिंह
8. नबीर ए ताल्लुक दश्त बारा-ए-मदफान ए आन बहिश्त मुवात्तन बार गुज़ीदन्द
9. अगर चेह राजा जयसिंह हुसूल ए एैन दावलातरा फोज़े अज़ीम दानिश्त अनमाब
10. अज़रू ए एहतियात के दर जमीय ए शेवन खुसूसन उमूरे दीनीएह नागुजिर अस्त
11. दर अवाज़ आन आली मज्जिल ए अज़ खलीसा ए शरीफाह बदू मरहत फरमूदन्द
12. बाद अज रसीदाने नाश बा आन शहर ए करामत बहर पंजदहून ज़मादी उस्‌ सानी एह।
13. सालए आयन्देह पैकारे नूरानी ए आन आसमानी जौहर बा खाके पाक सिपुर्देह आमद
14. वा मुतसद्‌दीयान-ए-दारुल खिलाफाह बा हुक्मे मुअल्ला ए अजालातुल वक्त तुरबत ए फलक मरताबते
15. आनजहाऩ इफ्फत्रा अज नज़र पोशीदन्द वा इमारते ए आलीशान वा गुम्बजे
16. रफी बुनियान केह ता रस्तखीज़ दर बलन्दी यादगारे हिम्मत ए गर्दून रिफात
17. हजरते साहिब करह ए सानी बाशेद वा दर उस्तुवारी नमूदारे इस्तीगमत
18. अजायम बनी तरह अफगन्दन्द वा मुहन्दिसाने दूरबीन बा मैमारान ए सानत
19. आफरीन चिहाल लाख रुपियाह अखरजते एैन इमारत बर आवुर्द नमूनदन्द
बादशाह नामा के पृष्ठ 403 का हिन्दी अनुवाद
1. साथ में थे राजकुमार मुहम्मद शुजा बहादुर, वजीर खान.
2. और सती उन्‌ निसा खानम जो परलोकगामिनी की प्रकृति से विशेष परिचित थी.
3. और अपने कर्त्तव्य में अत्यन्त निपुण थी तथा उस रानियों की महारानी के विचारों का प्रतिनिधित्व करती थी, आदि.
4. उसे (पार्थिव शरीर को) राजधानी अकबराबाद (आगरा) लाया गया और उसी दिन एक आदेश प्रसारित किया गया.
5. यात्रा के समय (मार्ग में) अनगिनत सिक्के फकीरों और गरीबों में बाँटे जाएं वह स्थल.
6. महान्‌ नगर के दक्षिण में स्थित विशाल मनोरम रसयुक्त वाटिका (बाग) से घिरा हुआ, और
7. सके बीच का वह भवन जो मानसिंह के महल के नाम से प्रसिद्ध था, इस समय राजा जयसिंह के स्वामित्व में था.
8. जो पौत्र थे, कोरानी को दफपाने के लिये चुना गया जिसका स्थान अब स्वर्ग में था.
9. यद्यपि राजा जयसिंह इस अत्यन्त प्रिय पैत्रक सम्पत्ति को उपहार में दे सकते थे,
10. फिर भी अत्यन्त सतर्कता बरतते हुए जो धार्मिक पवित्रता तथा गमी के समय अति आवश्यक है.
11. उस महान भवन के बदले उन्हें सरकारी भूमि का एक टुकड़ा दिया गया.
12. 15 जमादी उस सानी को उस महान्‌ नगर में पार्थिव शरीर आने के बाद,
13. अगले वर्ष उस भव्य शव को पवित्र भूमि को सौंप दिया गया.
14. उस दिन राजकीय आदेश के अन्तर्गत राजधानी के अधिकारियों ने उस आकाश चुम्बी बड़ी समाधि के अन्दर,
15. उस धार्मिक महिला को संसार की दृष्टि से छिपा दिया, उस महान भवन में जिस पर गुम्बज है.
16. जो अपने आकार में इतना ऊँचा स्मारक है, आकाश आयामी साहस.
17. साहिब क़रानी सानी (सम्राट) का और शक्ति में इतना पुष्ट.
18. अपने संकल्प में इतनी दृढ़-नींव रखी गई और दूरदर्शी ज्यामितिज्ञों और कुशल कारीगरों (द्वारा)
19. इस भवन पर चालीस लाख रुपये व्यय किये गये.
उपरोक्त लेख का सारांश निम्न प्रकार बनता है :
‘मुमताज़ उज ज़मानी का पार्थिव शरीर 17 जमादिल अब्बल को आगरा भेजा गया जो वहाँ पर 15 जमादिलसानी को पहुँचा था. शव को दफनाने के लिये जो स्थ्ल चुना गया, वह नगर के दक्षिण स्थित राजा मानसिंह के महल के नाम से जाना जाता था. वह महल आकार में विशाल, भव्य, गगनचुम्बी गुम्बजयुक्त एवं बहुत विशाल बाग से घिरा था. अगले वर्ष राजाज्ञा से अधिकारियों ने शव को दफनाया. कुशल ज्यामितिज्ञों एवं कारीगरों को लगाकर (कब्र बनाने की) नींव डाली और इमारत पर 40 लाख रुपये व्यय हुआ.” इससे निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट उभर कर सामने आते हैं :
1. रानी को राजा मानसिंह के महल में दफनाया गया था.
2. जिस महल में दफनाया गया था उसके वर्णन में और आज के ताजमहल में विचित्र साम्य है, कोई अन्तर नहीं है.
3. महल को गिराने का कहीं वर्णन नहीं है.
4. (गिरा कर पुनः बनाया गया, ऐसा वर्णन न होने पर भी) जिस समय दफनाया गया था उस समय वह बड़ी समाधि आकाश चुम्बी, महान एवं गुम्बज युक्त थी.
5. दफनाते समय शाहजहाँ उपस्थित नहीं था.
6. अगले वर्ष दफनाया गया था. रानी की मृत्यु बरहानपुर में हुई थी तथा उसे वहीं दफना दिया गया था. उसे वहाँ से निकालकर आगरा इसलिये लाया गया होगा कि यहाँ पर कोई विशेष प्रबन्ध उसे दफनाने के लिये किया गया होगा.
यदि विशेष प्रबन्ध नहीं था तो शव आगरा लाया क्यों गया था? कुछ दिन वहीं दफन रहने दिया होता. यदि आगरा शव आ ही गया था तो उसे तुरन्त दफना कर 10 वर्षों बाद भी 22 वर्ष तक समाधि बनाई जा सकती थी? क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि शव आने तक भवन उपलब्ध नहीं था अथवा उसमें आवश्यक फेर बदल किये जा रहे थे क्योंकि भवन देर से उपलब्ध हो सका था.
पाठकगण एक बात पर और ध्यान दें कि शाहजहाँ अपनी परम प्रियरानी को दफन करने स्वयं नहीं आया था.
बादशाहनामा में स्वयं में यह पूरी घटना है. इसके आगे 10-12 या 22 वर्ष तक ताजमहल बनने का कोई विवरण नहीं है. लाहोरी के अनुसार अगले वर्ष दफ़न करने के साथ कब्र बनाई एवं काम पूरा हो गया. बाद में जो कुछ अन्य लेखकों द्वारा अन्यत्र लिखा गया वह झूठ एवं कल्पना पर आधारित ही माना जाएगा. उसका समकालीन प्रमाण कोई उपलब्ध नहीं है.
जारी …
– प्रतुल वशिष्ठ जी के ब्लॉग से साभार
(आगरा निवासी पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी जो अब 80 (लेख 2010-11 में लिखे गए हैं) वर्ष से अधिक आयु के हैं. उनके ‘ताजमहल’ विषयक शोध को क्रमवार देने का मन हो आया जब उनके विचारों को पढ़ा. सोचता हूँ पहले उनके विचारों को ज्यों का त्यों रखूँ और फिर उनके जीवन पर भी कुछ प्रकाश डालूँ. जो हमारी सांस्कृतिक विरासत पर से मिथ्या इतिहास की परतों को फूँक मारकर दूर करने का प्रयास करते हैं प्रायः उनके प्रयास असफल हो जाया करते हैं. इसलिए सोचता हूँ उनकी फूँक को दमदार बनाया जाए और मिलकर उस समस्त झूठे आवरणों को हटा दिया जाए जो नव-पीढ़ी के मन-मानस पर डालने के प्रयास होते रहे हैं. तो लीजिये प्रस्तुत है पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी के शब्दों में ….. ताजमहल की असलियत … एक शोध –  प्रतुलजी)
(नोट: लेख में दी गयी जानकारियाँ और फोटो प्रमाण राष्ट्रहित के लिए एवं भारत की जनता को अपने वास्तविक इतिहास के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से अन्य websites से साभार ले रहे हैं. यदि इनके उपयोग से सम्बंधित वेबसाइट मालिक को आपत्ति हों तो कृपया सूचित करें. हम उसे तुरंत हटा लेने के लिए वचनबद्ध हैं. धन्यवाद )
तेजोमहालय-3 : शाहजहाँ ने कभी नहीं कहा उसने बनवाया ताजमहल, फिर किसने की इतिहास से छेड़छाड़?

बादशाहनामा का विश्लेषण
अर्जुमन्द बानो बेगम या मुमताउल जमानी शाहजहाँ की रानी थी. इसको बादशाहनामा के खण्ड एक के पृष्ठ 402 की अंतिम पंक्ति में भी इसके मुमता-उल-जमानी नाम से ही सम्बोधित किया गया है, न कि मुमताजमहल के नाम से. इतिहासकार इसके जन्म, विवाह एवं मृत्यु की तारीखों पर सहमत नहीं हैं. हमारी कथावस्तु पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है, अतः हम इसका जन्म सन्‌ 1593 तथा शाहजहाँ से विवाह सन्‌ 1612 मान लेते हैं.
अप्रतिम सुन्दरी नूरजहाँ मिर्जा ग्यास बेग की पौत्री एवं ख्वाजा अबुल हसन वा यामीनउद्‌दौला आसफखान की पुत्री अर्जुमन्द बानो शाहजहाँ की पटरानी नहीं थी. शाहजहाँ का प्रथम विवाह परशिया के शासक शाह इस्मायल सफवी की प्रपौत्री से हुआ था, जबकि मुमताज से सगाई पहले ही हो चुकी थी.
अर्जुमन्द बानों ने 8 पुत्रों एवं 6 पुत्रियों को जन्म दिया था एवं अपनी चौदहवीं सन्तान को जन्म देते समय इसका देहान्त बरहानपुर में 17 जिल्काद 1040 हिजरी तदनुसार 7 जून सन्‌ 1631 को हुआ था. (बादशाहनामा खण्ड, दो पृष्ट 27). इसको वहीं पर ताप्ती नदी के तट पर दफना दिया गया था. यह कब्र भी उपलब्ध है तथा इसकी देख-रेख लगातार वहाँ के निवासियों द्वारा की जाती है. उनका मानना है कि रानी का शव आज भी कब्र में है अर्थात्‌ न कब्र खोदी गई एवं न शव ही निकाला गया.
इसके विपरीत बादशाहनामा खण्ड एक, पृष्ठ 402 की 21वीं लाइन में लिखा है कि शुक्रवार 17 जमादिल अव्वल को हजरत मुमताज-उल-जमानी का पार्थिव शरीर (बरहानपुर से) भेजा गया जो अकबराबाद (आगरा) में 15 जमाद उल सान्या को आया (बादशाहनामा खण्ड एक पृष्ठ 403 की 12वीं पंक्ति).
शव आगरा लाया अवश्य गया था, परन्तु उसे दफनाया नहीं गया था. शव को मस्जिद के छोर पर स्थित बुर्जी (जिसमें बावली है) के पास बाग में रखा गया था जहाँ पर आज भी चार पत्थरों की बिना छत की दीवारें खड़ी हैं. बादशाहनामा खण्ड एक के पृष्ठ 403 की 13वीं पंक्ति के अनुसार अगले वर्ष (कम से कम 6-7 मास बाद) तथा पंक्ति 14 के अनुसार ‘आकाश चुम्बी बड़ी समाधि के अन्दर) शव को दफनाया गया.
बादशाहनामा के उपरोक्त कथनों से एक बात सुस्पष्ट होकर उभरती है कि 15 जमाद उल सानी 1041 हिजरी तदनुसार 8 जनवरी सन्‌ 1632 को जब रानी का पार्थिव शरीर आगरा आया, उस समय उसे दफनाया नहीं गया. क्यों? क्योंकि उसे आकाशचुम्बी बड़ी समाधि के अन्दर दफनाना था जो शायद तैयार (दफनाने योग्य दशा में) नहीं रही होगी.
किसी शव को दफनाने के लिये किसी भवन की आवश्यकता नहीं होती. शव को उसी दिन अथवा सुविधानुसार 3-4 दिन पश्चात्‌ भूमि में गड्‌डा खोदकर दफना दिया जाता है तथा उसे भर दिया जाता है. उस पर कब्र तथा कब्र के ऊपर रौज़ा या मकबरा कभी भी, कितने भी दिनों बाद तथा कितने ही वर्षों तक बनाया जा सकता है.
शव को अगले वर्ष भवन में दफनाने के वर्णन से स्पष्ट है कि इसी बहाने भवन प्राप्त करने का षड्‌यन्त्र चल रहा था तथा मिर्जा राजा जयसिंह पर जिन्हें अपनी पैतृक सम्पत्ति अत्यन्त मूल्यवान्‌ एवं प्रिय थी, उस भवन को शाहजहाँ को हस्तान्तरित कर देने के लिये जोर डाला जा रहा था या मनाया जा रहा था. अथवा यह भी सम्भव है कि भवन को प्राप्त करने के बाद उसमें शव को दफनाने के लिये आवश्यक परिवर्तन किये जा रहे थे. शव को आगरा में भवन मिल जाने की आशा में लाया गया था, परन्तु सम्भवतः राजा जयसिंह को मनाने में समय लगने के कारण उसे बाग में रखना पड़ा. यदि शाहजहाँ ने भूमि क्रय कर ताजमहल बनवाया होता तो शव को एक दिन के लिए भी बाग में रखने की आवश्यकता न होती.
शव को मार्ग तय करने में (बरहानपुर से अकबराबाद तक) लगभग 28 दिन लगे थे. पार्थिव शरीर को लाने राजकुमार गये थे. जाने में भी लगभग इतना ही समय लगा होगा. 2-4 दिन बरहानपुर में शव निकालने तथा वापिसी यात्रा की व्यवस्था में लगे होंगे. अर्थात्‌ 2 मास का समय राजकुमार के जाने के बाद लगा था. शव दफ़नाने की योजना इससे पूर्व बन गई होगी.
इतना समय उपलब्ध होने पर भी शव को (असुरक्षित) 6-7 मास तक बाग में रखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? यदि भवन उपलब्ध था तो शव दफनाया क्यों नहीं गया और यदि भवन उपलब्ध नहीं था तो शव लाया क्यों गया? क्या इससे सुस्पष्ट नहीं कि शाहजहाँ को आशा रही होगी कि राजा जयसिंह मना नहीं करेंगे और इसी आशा में राजकुमार को भेज कर शव मँगवा लिया गया, परन्तु जयसिंह ने स्वीकृति नहीं दी. यह भी सम्भव है मिर्जा राजा जयसिंह के मना कर देने पर उन पर दबाव डालने की नीयत से ही शव को लाकर बाग में रख दिया गया हो. शव को दफ़नाने की तारीख न लिखना भी इसी शंका को बल देता है.
शव को बादशाहनामा के अनुसार अगले वर्ष गगनचुम्बी भवन में दफनाया गया. क्या इससे सिद्ध नहीं होता है कि ताजमहल जैसा आज दिखाई देता है उसी में रानी के पार्थिव शरीर को दफ़नाया गया था? अन्यथा क्या कुछ मास में गगनचुम्बी भवन का निर्माण किया जा सकता है, जिसके लिये अनेक लेखकों ने निर्माण काल 8-22 वर्ष तक का (अनुमानित) बताया है? क्या शाहजहाँ के लिये एक वर्ष से कम समय में ताजमहल बनाना सम्भव था? शाहजहाँ ने तो मात्र भवन को साफ करके कब्र बनाई थी एवं कुरान को लिखवाया था. शाहजहाँ ने कभी यह नहीं कहा कि उसने ताजमहल का निर्माण कराया था.
इतने सुस्पष्ट प्रमाणों के बाद भी सम्भव है कुछ पाठकों के मन में परम्परागत भ्रम शेष रह गया हो कि ताजमहल में नीचे वाली भूमितल स्थित कब्र, जिसे वास्तविक कहा जाता है वह भूमि के अन्दर खोद कर बनाई गई है एवं उस कब्र के ऊपर एवं चारों ओर यह विशाल एवं उच्च भवन खड़ा किया गया है वास्तव में तथ्य इसके विपरीत हैं.
जिस समय हम फव्वारों की पंक्तियों के साथ-साथ चलते हुए मुख्य भवन के समीप पहुँचते हैं, वहाँ पर छः सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद ही उस स्थल तक पहुँचते हैं जहाँ पर जूते उतारे जाते हैं. अर्थात्‌ हम लोग भूमितल से लगभग 4 फुट ऊपर जूते उतारते हैं. यहाँ से हम 24 सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जाते हैं और पुनः 4 सीढ़ियां चढ़कर मुख्य भवन में प्रवेश करते हैं.
इन 24+4 अथवा 28 सीढ़ियों के बदले हम केवल 23 सीढ़ियां उतर कर नीचे की कब्र तक पहुँचते हैं. इस प्रकार भूमितल की कब्र जूते उतारने वाले स्थल से भी कम से कम तीन फुट ऊपर है जो ऊपर बताये अनुसार भूमितल से 4 फुट ऊपर था. इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि नीचे वाली कब्र भी पृथ्वी से 7 फीट ऊँची है जबकि इसे भूमि खोदकर बनाया जाना चाहिए था.
अगले पाठों में पाठकों को इस सत्य से भी परिचित कराया जायेगा कि इस तथाकथित नीचे वाली वास्तविक कब्र के नीचे भी कमरे आज भी स्थित हैं और जिनमें प्रवेश करने के मार्गों को बलात्‌ बन्द किया हुआ है. लेखक इसे सुनी सुनाई बात के आधार पर नहीं लिख रहा है, अपितु इन कमरों का स्वयं प्रत्यक्षदर्शी है.
अभी कुछ अन्य विज्ञ पाठकों की कुछ शंकाओं का समाधान होना रहा गया है. वे हैं बादशाहनामा की अन्तिम 2 पंक्तियों में आये शब्द (1) नींव रखी गई (2) ज्यामितिज्ञ, एवं (3) चालीस लाख रुपये.
यदि ऐसा होता तो उसे सम्बन्धित अन्य कामों का वर्णन भी होता. किसी काम को भी प्रारम्भ करने को भी मुहावरे में नींव रखना कहते हैं यथा ‘जवाहलाल नेहरू ने आधुनिक भारत की नींव रखी थी.’ इसमें भूमि में गड्‌ढा खोदने से कोई तात्पर्य नहीं है, फिर भी यदि कोई इसके शाब्दिक अर्थ अर्थात्‌ खोदने को ही अधिक महत्व देता है तो उनके संतोष के लिये इतना ही पर्याप्त है कि दफनाने के लिये पहले खोदना तो पड़ता ही है चाहे वह छत या फर्श ही क्यों न हो.
रही ज्यामितिज्ञों की बात. ज्यामितिज्ञों की सबसे पहली आवश्यकता कब्र की दिशा निर्धारित करने के लिये ही होती हैं, कब्र हमेशा एक दिशा विशेष में ही बनाई जाती है. इसके अतिरिक्त ताजमहल देखते समय गाइडों ने आपको दिखाया एवं बताया होगा कि कुरान को इस प्रकार लिखा गया है कि कहीं से भी देखिये ऊपर-नीचे के सभी अक्षर बराबर दिखाई देंगे, ऐसा क्योंकर सम्भव हुआ? दूरदर्शी ज्यामितिज्ञों की गणना के आधार पर ही है.
अन्तिम संदेह चालीस लाख रुपयों पर है. यदि शाहजहाँ ने ताजमहल नहीं बनवाया था तो इतनी बड़ी धन राशि का व्यय कैसे हो गया. उस युग में चालीस लाख रुपया बहुत बड़ी राशि थी. बादशाहनामा में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इस राशि में कौन-कौन से व्यय सम्मिलित हैं मूलतः शाहजहाँ ने जो व्यय इस सन्दर्भ में किये थे वे इस प्रकार बनते हैं
(1) रानी के शव को बरहानपुर से मंगाना
(2) मार्ग में गरीबों तथा फकीरों को सिक्के बाँटना
(3) भवन के जिन कक्षों में कब्रे हैं उन्हें खाली कराना
(4) शव को दफ़न करना एवं कब्रें बनवाना
(5) भवन के ऊपर-नीचे के सभी कमरों को बन्द कराना
(6) मकराना से संगमरमर पत्थर मंगाना
(7) कुरान लिखाना एवं महरावें ठीक कराना
(8) मजिस्द में फर्श सुधरवाना तथा नमाज़ पढ़ने के लिए आसन बनवाना
(9) बगीचे में सड़क नहर आदि बनवाना
(10) रानी का शव जहाँ रखा गया था वहाँ पर घेरा बनवाना
(11) परिसर के बाहर ऊँचे मिट्‌टी के टीलों को समतल कराना आदि.
पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में यह कहना अति कठिन है कि उन चालीस लाख रुपयों में से उपरोक्त कौन-कौन से कार्य हुए थे. कुछ के अनुसार उक्त सारे कार्यों पर भी चालीस लाख रुपये व्यय नहीं आयेगा. ऊपर इंगित किया जा चुका है कि दरबारी चाटुकार अतिरंजित वर्णन करते थे अर्थात्‌ यदि दो लाख व्यय हुए होंगे तो चालीस लाख बखानेंगे. इस प्रकार मालिक भी प्रसन्न होता था तथा सुनने वाला भी प्रभावित होता था. दूसरा कारण यह भी था कि दो खर्च कर दस बता कर अपना घर भी सरलता से जरा भरा जा सकता था.
जारी …
– प्रतुल वशिष्ठ जी के ब्लॉग से साभार
(आगरा निवासी पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी जो अब 80 (लेख 2010-11 में लिखे गए हैं) वर्ष से अधिक आयु के हैं. उनके ‘ताजमहल’ विषयक शोध को क्रमवार देने का मन हो आया जब उनके विचारों को पढ़ा. सोचता हूँ पहले उनके विचारों को ज्यों का त्यों रखूँ और फिर उनके जीवन पर भी कुछ प्रकाश डालूँ. जो हमारी सांस्कृतिक विरासत पर से मिथ्या इतिहास की परतों को फूँक मारकर दूर करने का प्रयास करते हैं प्रायः उनके प्रयास असफल हो जाया करते हैं. इसलिए सोचता हूँ उनकी फूँक को दमदार बनाया जाए और मिलकर उस समस्त झूठे आवरणों को हटा दिया जाए जो नव-पीढ़ी के मन-मानस पर डालने के प्रयास होते रहे हैं. तो लीजिये प्रस्तुत है पंडित कृष्ण कुमार पाण्डेय जी के शब्दों में ….. ताजमहल की असलियत … एक शोध –  प्रतुलजी)
(नोट: लेख में दी गयी जानकारियाँ और फोटो प्रमाण राष्ट्रहित के लिए एवं भारत की जनता को अपने वास्तविक इतिहास के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से अन्य websites से साभार ले रहे हैं. यदि इनके उपयोग से सम्बंधित वेबसाइट मालिक को आपत्ति हों तो कृपया सूचित करें. हम उसे तुरंत हटा लेने के लिए वचनबद्ध हैं. धन्यवाद )
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सुमेरु सभ्यता की उदभवभूमि “मंदार ” –


सुमेरु सभ्यता की उदभवभूमि “मंदार ” –
अबतक के इतिहासकारों का यह मत है कि “प्राचीनकाल में जिस क्षेत्र में मैसोपोटामिया की सभ्यता का उदभव और विकास हुआ , उस क्षेत्र का नाम “सुमेर” था । “सुमेर” बहुत ही उपजाऊ क्षेत्र था । उपजाऊ होने के कारण ही बंजर प्रदेश और रेगिस्तान के क्षेत्र से बहुत सी जातियों के लोग यहां आकर बस गये और उनके सम्मलित प्रयासों से इस क्षेत्र में एक उच्च कोटि की सभ्यता का विकास हुआ । जिन लोगों ने इस सभ्यता का निर्माण और विकास किया , उन्हें ” सुमेरी” कहा जाता था । सुमेरियनों की जाति और निवास स्थान के संबंध में इतिहासकार एक मत नहीं है । उनमें गहरा मतभेद है और उन्होनें भिन्न भिन्न मत व्यक्त किया है ।
कुछ विद्वानों की मान्यता है कि “ऐलम के निवासियों और सुमेरियनों की जाति एक थी । कुछ लोग उन्हें मध्य एशिया के निवासी मानते हैं ।
इतिहासकार एच०आर०हॉल का मत है कि “सुमेरियन सम्भवत: भारतीय थे और जल और स्थल मार्ग द्वारा ईरान होते हुए ‘मेसोपोटामिया’ पहुंचे थें । वे अपने साथ भारतीय सभ्यता संस्कृति भी लेते गये । ” कुछ अन्य इतिहासकारों ने सुमेरियनों का संबंध द्रविड जाति से जोडा है । कई विद्वानों की मान्यता है कि “उनकी चित्रकारी और मूर्तियों को देखने से लगता है कि वे भारतीयों से बहुत मिलते जुलते थें । उनकी मुखाकृति दक्षिण भारत की द्रविड जाति के लोगों से मिलती थी । ” इलियट स्मिथ का मत है कि ” सुमेरियन सुमेर के ही मूल निवासी थें ।”
मत मतान्तर के कारण ‘सुमेरियन’ की जाति और उनके मूल निवास स्थान के संबंध में अभी भी विवाद बना हुआ है ।

महाभारत में भारत के एक प्रांत का नाम “सुराष्ट्र” और उसके निवासियों को “सुवर्ण” बताया गया है । यह सुवर्ण “सुमेर” थे। सुमेर का अर्थ है “अच्छी” जाति । यही अर्थ सुवर्ण का भी होता है । उन दिनों भयंकर बाढें एवं भारी वर्षा आयी , जिसमें “सुमेर सभ्यता “के महत्वपूर्ण दुर्ग धराशायी हो गये । अब ‘किश’ और ‘उर’ क्षेत्रों में ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनसे उस क्षेत्र में बसी हुई ‘सुमेर’ जाति की समुन्नत स्थिति का पता चलता है और प्रतीत होता है कि वे भारतीय धर्मानुयायी थें , सूर्य पूजा करते थें । निप्पुर में विशालकाय सूर्य मंदिर था । विष्णु वाहन ‘गरुड’ की भी प्रतिमायें उस क्षेत्र में मिली है । इच्छवाकु राजा की मुद्रायें भी उस खुदाई में पाये गये हैं । “वोगजकोई” नामक स्थान पर खुदाई के दौरान वरुण देवता की मूर्ति मिली है । खुदाई में पाये गये रथ उसी प्रकार की है , जैसे कि भारत में चलते थें । यहां मृतकों के दाह संस्कार के भी प्रमाण मिले हैं ।
मेरे अनुसंधान के अनुसार ‘किश’ और ‘उर’ सभ्यता को जन्मदेनेवाली ‘सुवर्ण’ जाति ही थी । ‘सुमेरु’ सभ्यता का साक्ष्य ‘सुमेर पहाड ‘ (गिरिडीह , झारखंड) सम्मेद गिरि , जमुई के सिकंदरा प्रखण्ड का ” सिमरिया ” व अमृति पहाड व अमृती नदी आर्य सभ्यता व सुमेरु सभ्यता के साक्ष्य हैं ।
” सुमेरु” शब्द का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि “सृष्टि का वह भाग जहां पर सर्वप्रथम अग्नि से ब्रह्माण्ड सहित सूर्य , चंद्रमा एवं सौर ग्रहों की उत्पति हुई ।” सुमेरु में स+उ+म+ऐ+र+उ है । यहां ‘स’ सृष्टि का प्रतीकात्मक शब्द है , ‘उ’ उत्पति का प्रतीक है , ‘म’ मध्य का प्रतीक है , ‘ऐ ‘ सृष्टिमूलक शब्द है , ‘र’ अग्नि का बीज मंत्र है, ‘उ’ अग्नि उत्पति का प्रतीक है ।

सुमेरु की उदगमस्थली : मंदार
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पद्मपुराण में यह स्पष्ट उल्लेख है कि ” ब्रह्माजी ने सृष्टि का सर्जन करने के लिए सर्वप्रथम रत्नमय महान पर्वत का सृजन किया , जो इसी पृथ्वी मंडल के मध्यभाग में स्थित है और वह मंदार उदयाचल त्रिकूट पर्वत ही है, जो विश्व की सृष्टि के आदि में उत्पन्न हुआ । ”
अग्निपुराण में इसी मंदार त्रिकूट को “मेरु सुमेरु ” कहकर पुकारा गया है , जो भूमंडल के मध्य अवस्थित है ।आगे कहा गया है कि “इसके तीन शिखर पर स्वर्ग बसा हुआ है। इस मेरुगिरि के पश्चिम शिखर पर ब्रह्माजी , पूर्व शिखर पर साक्षात भगवान विष्णु और मध्य श्रृंग पर भगवान आदिदेव रहते हैं ।
वामनपुराण , नृसिंह पुराण, श्रीमदभागवतपुराण, भविष्यपुराण, कूर्मपुराण व विष्णुपुराण ने एक स्वर से मंदार को ही मेरु , कैलाश व स्वर्गपुरी का मूल भाग माना है । अग्निपुराण हाथ उठाकर कहता है कि ” इलावर्त के बीच में ही ‘मेरु’ नामक स्वर्णमय पर्वत है और यही ‘इलावर्त” क्षेत्र ही देवताओं की जन्मभूमि के रुप में प्रसिद्ध है।” जैन साहित्य में ‘ऐलवंश ‘के राज्य की स्थापना का इतिहास इतिहासकारों के आंख खोलनेवाले हैं । इसमें यह उल्लेख है कि ” इला पुत्र एलय ने “अंगदेश” में जंगल साफ कर “इलावर्त” एवं ईलावर्धन नामक नगर को बसाया और ऐलय उसका राजा बना ।”

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कश्मीर ही नहीं कई जगहों से 1947 के बाद कांग्रेस ने हिन्दुओ को पूरा साफ़ कर दिया — પ્રહલાદ પ્રજાપતિ


कश्मीर ही नहीं कई जगहों से 1947 के बाद कांग्रेस ने हिन्दुओ को पूरा साफ़ कर दिया ===================== दिल से कहें तो इस पुरे संसार में हिन्दू समाज को जितना मुर्ख बनाया गया उतना किसी को भी नहीं बनाया गया और हिन्दू समाज इतना निष्क्रिय भी है की इसे लगातार लूटा गया पर ये अजीब […]

via कश्मीर ही नहीं कई जगहों से 1947 के बाद कांग्रेस ने हिन्दुओ को पूरा साफ़ कर दिया — પ્રહલાદ પ્રજાપતિ

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चाबी बन जाये


*चाबी बन जाइये, हथौडा बन कर क्या फायदा*

*जरा पढ़िये, बहुत ही सुन्दर है*
किसी गाँव में एक ताले वाले की दुकान थी। ताले वाला रोजाना अनेकों चाबियाँ बनाया करता था। ताले वाले की दुकान में एक हथौड़ा भी था| वो हथौड़ा रोज देखा करता कि ये चाबी इतने मजबूत ताले को भी कितनी आसानी से खोल देती है।
एक दिन हथौड़े ने चाबी से पूछा कि मैं तुमसे ज्यादा शक्तिशाली हूँ, मेरे अंदर लोहा भी तुमसे ज्यादा है और आकार में भी तुमसे बड़ा हूँ लेकिन फिर भी मुझे ताला तोड़ने में बहुत समय लगता है और तुम इतनी छोटी हो फिर भी इतनी आसानी से मजबूत ताला कैसे खोल देती हो।
चाबी ने मुस्कुरा के ताले से कहा कि तुम ताले पर ऊपर से प्रहार करते हो और उसे तोड़ने की कोशिश करते हो लेकिन मैं ताले के अंदर तक जाती हूँ, उसके अंतर्मन को छूती हूँ और घूमकर ताले से निवेदन करती हूँ और ताला खुल जाया करता है।
वाह! कितनी गूढ़ बात कही है चाबी ने कि मैं ताले के अंतर्मन को छूती हूँ और वो खुल जाया करता है।
  आप कितने भी शक्तिशाली हो या कितनी भी आपके पास ताकत हो, लेकिन जब तक आप लोगों के दिल में नहीं उतरेंगे, उनके अंतर्मन को नहीं छुयेंगे तब तक कोई आपकी इज्जत नहीं करेगा।
हथौड़े के प्रहार से ताला खुलता नहीं बल्कि टूट जाता है ठीक वैसे ही अगर आप शक्ति के बल पर कुछ काम करना चाहते हैं तो आप 100% नाकामयाब रहेंगे क्योंकि शक्ति से आप किसी के दिल को नहीं छू सकते।
*चाबी बन जाये,

सबके दिल की चाबी 🙏🙏