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गुप्तकालीन साहित्य


गुप्तकालीन साहित्य

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गुप्त काल को संस्कृत साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। बार्नेट(Barnett) के अनुसार ‘प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्त काल का वह महत्त्व है जो यूनान के इतिहास में पेरिक्लीयन(Periclean) युग का है।‘ स्मिथ ने गुप्त काल की तुलना ब्रिटिश इतिहास के ‘एजिलाबेथन’ तथा ‘स्टुअर्ट’ के कालों से की है। गुप्त काल को श्रेष्ठ कवियों का काल माना जाता है। इस काल के कवि को दो भागों में बांटा गया है,-

  • प्रथम भाग में वे कवि आते है जिनके विषय में हमें अभिलेखों से जानकारी मिलती है हालांकि इनकी किसी भी कृति के विषय में जानकारी नहीं है। इस श्रेणी में हरिषेण, शाव(वीरसेन), वत्सभट्टि और वासुल आते हें।
  • द्वितीय श्रेणी में वे कवि आते हैं जिनकी रचनाओं के बारे में हमें ज्ञान हैं, जैसे – कालिदास, भारवि, भट्टि, मातृगुप्त, भर्तृश्रेष्ठ तथा विष्णु शर्मा आदि।

हरिषेण

महादयडनायक ध्रुवभूति का पुत्र हरिषेण समुद्रगुप्त के समय में सान्धिविग्रहिक कुमारामात्य एवं महादण्डनायक के पद पर कार्यरत था। हरिषण की शैली के विषय में जानकारी ‘प्रयाग स्तम्भ’ लेख से मिलती है। हरिषण द्वारा स्तम्भ लेख में प्रयुक्त छन्द कालिदास की शैली की याद दिलाते हैं। हरिषेण का पूरा लेख ‘चंपू (गद्यपद्य-मिश्रित) शैली’ का एक अनोखा उदाहरण है।

शाव(वीरसेन)

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में सान्धिविग्रहिक अमात्य पद पर कार्यरत शाव की काव्य शैली के विषय में जानकारी एकमात्र स्रोत ‘उदयगिरि गुफा की दीवार पर उत्कीर्ण लेख है। लेख के आधार पर यह माना जाता है कि शाव व्याकरण, न्याय एवं राजनीति का ज्ञाता एवं पाटिलिपुत्र का निवासी था।

वत्सभट्टि

इनकी काव्य शैली के विषय में जानकारी मालव संवत के ‘मंदसौर के स्तम्भ’ लेख से मिलती है। इस लेख में कुल 44 श्लोक हैं, जिनमें पहले तीन श्लोकों में सूर्य स्तुति की गई है।

वासुल ने मंदसौर प्रशस्ति की रचना यशोधर्मन के समय में की। कुल 9 श्लोकों वाला यह लेख श्रेष्ठ काव्य का अनोखा उदाहरण है।

कालिदास

संस्कृत साहित्य के इस महान कवि की महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं- ऋतुसंहार, मेघदूत, कुमारसंभव एवं रघुवंश महाकाव्य। कालिदास की सर्वोत्कृष्ट कृति उनका नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्‘ है। इसके अतिरिक्त उन्होंने मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीयम् नाटक की भी रचना की है।

भारवि

इनके द्वारा रचित महाकाव्य – ‘किरातार्जुनीयम्‘ महाभारत के वनपर्व पर आधारित है इसमे कुल 18 सर्ग है।

भट्टि

इनके द्वारा रचित ‘भट्टिकाव्य‘ को ‘रावणवध‘ भी कहा जाता है। रामायण की कथा पर आधारित इस काव्य में कुल 22 सर्ग तथा 1624 श्लोक हैं।

गुप्तकालीन नाटक एवं नाटककार

नाटक नाटककार नाटक का विषय
मालविकाग्निमित्रम् कालिदास अग्निमित्र एवं मालविका की प्रणय कथा पर आधारित है।
विक्रमोर्वशीयम् कालिदास सम्राट पुरुरवा एवं उर्वशी अप्सरा की प्रणय कथा पर आधारित है।
अभिज्ञानशाकुन्तलम् कालिदास दुष्यंत तथा शकुन्तला की प्रणय कथा पर आधारित
मुद्राराक्षसम् विशाखदत्त इस ऐतिहासिक नाटक में चन्द्रगुप्त मौर्य के मगध के सिंहासन पर बैठने की कथा वर्णन है।
देवीचन्द्रगुप्तम विशाखदत्त इस ऐतिहासिक नाटक में चन्द्रगुप्त द्वारा शाकराज का वध पर ध्रव-स्वामिनी से विवाह का वर्णन है।
मृच्छकटिकम् शूद्रक इसमें नायक चारुदत्त, नायिका वसंतसेना, राजा, ब्राह्मण, जुआरी, व्यापारी, वेश्या, चोर, धूर्तदास का वर्णन है।
स्वप्नवासवदत्तम भास इसमें महाराज उदयन एवं वासवदत्ता की प्रेमकथा का वर्णन किया गया है।
प्रतिज्ञायौगंधरायणकम् भास महाराज उदयन के यौगंधरायण की सहायता से वासवदत्ता को उज्जयिनी से लेकर भागने का वर्णन है।
चारुदत्तम् भास इस नाटक का नायक चारुदत्त मूलतः भास की कल्पना है।

मातृगुप्त

इनके विषयमें जानकारी कल्हण के राजतरंगिणी से मिलती है। संभवतः मातृगुप्त ने भरत के नाट्य-शास्त्र पर कोई टीका लिखी थी।

भर्तृभेण्ठ

‘हस्तिपक‘ नाम से भी जाने वाले इस कवि ने ‘हयग्रीववध‘ काव्य की रचना की।

विष्णु शर्मा

विष्णु शर्मा के द्वारा रचित काव्य ‘पंचतंत्र‘ के विश्व की लगभग 50 भाषाओं में 250 भिन्न भिन्न संस्करण निकल चुके हैं। पंचतंत्र की गणना संसार के सर्वाधिक प्रचलित ग्रंथ ‘बाइबिल‘ के बाद दूसरे स्थान पर की जाती है। 16वी शती के अंत तक इस ग्रंथ का अनुवाद यूनान, लैटिन, स्पेनिश, जर्मन एवं अंग्रेज़ी भाषाओं में किया जा चुका था। पंचतत्र 5 भागों में बंटा है-

  1. मित्रभेद,
  2. मित्रलाभ.
  3. सन्धि-विग्रह,
  4. लब्ध-प्रणाश,
  5. अपरीक्षाकारित्व।

गुप्तकाल के धार्मिक ग्रंथ

पुराण

पुराणों के वर्तमान रूप की रचना गुप्त काल में ही हुई, इनमें ऐतिहासिक परम्पराओं का उल्लेख मिलता है। पुराणों का अंतिम रूप से संकलन भी गुप्त काल में हुआ है। दो महान गाथा काव्य रामायण और महाभारत ईसा की चौथी सदी (गुप्तकाल) में पूरे हो चुके थे। अतः इनका संकलन गुप्त युग में ही हुआ। ‘रामायण‘ में परिवार रूपी संस्था का आदर्श रूप वर्णित है। ‘महाभारत‘ में दुष्ट शक्ति पर इष्ट शक्ति की विजय दिखाई गई है। ‘भगवत्गीता‘ प्रतिफल की कामना के बिना कर्तव्य पालन के निर्देश देती हैं।

स्मृतियां

गुप्त काल में याज्ञवल्क्य, नारद, कात्यायन, एवं बृहस्पति की स्मृतियां लिखी गई। इनमें ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस स्मृति में आचार, व्यवहार, प्रायश्चित आदि का उल्लेख है। हीनयान (बौद्ध धर्म) शाखा के ‘बुद्ध घोष’ ने त्रिपिटकों पर भाष्य लिखा, इनका प्रसिद्ध गंथ ‘विसुद्दिभग्य‘ है। जैन दार्शिनिक आचार्य ‘सिद्धसेन’ ने न्याय दर्शन पर ‘न्यायवताम्’ ग्रंथ लिखा है।

गुप्तकालीन तकनीक ग्रंथ

रचनाकार रचना
चन्द्रगोमिन चन्द्र व्याकरण
अमर सिंह अमरकोष (संस्कृत का प्रमाणित कोष)
कामन्दक नीतिसार (कौटिल्य के अर्थशास्त्र से प्रभावित)
वात्स्यायन कामसूत्र

विज्ञान

गुप्त काल में खगोल शास्त्र, गणित तथा चिकित्सा शास्त्र का विकास भी अपने उत्कर्ष पर था।

वराहमिहिर

गुप्त काल के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री वराहमिहिर है। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ वृहत्ससंहिता तथा पञ्चसिद्धन्तिका है। वृहत्संहिता में नक्षत्र-विद्या, वनस्पतिशास्त्रम्, प्राकृतिक इतिहास, भौतिक भूगोल जैसे विषयों पर वर्णन है।

आर्यभट्ट

‘आर्यभट्टीय‘नामक ग्रंथ की रचना करने वाले आर्यभट्ट अपने समय के सबसे बड़े गणितज्ञ थे। इन्होनें दशमलव प्रणाली का विकास किया। इनके प्रयासों के द्वारा ही खगोल विज्ञान को गणित से अलग किया जा सका। आर्यभट्ट ऐसे प्रथम नक्षत्र वैज्ञानिक थे, जिन्होंने यह बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य के चक्कर लगाती है। इन्होनें सूर्यग्रहण एवं चन्द्रग्रहण होने वास्तविक कारण पर प्रकाश डाला। आर्यभट्ट ने सूर्य सिद्धान्त लिखा।

आर्यभट्ट के सिद्धान्त पर भास्कर प्रथम ने टीका लिखी। भास्कर के तीन अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है- ‘महाभास्कर्य‘, ‘लघुभास्कर्य‘ एवं ‘भाष्य‘। ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्म-सिद्धान्त‘ की रचना कर बताया कि ‘प्रकृति के नियम के अनुसार समस्त वस्तुएं पृथ्वी पर गिरती हैं, क्योंकि पृथ्वी अपने स्वभाव से ही सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। यह न्यूटन के सिद्वान्त के पूर्व की गयी कल्पना है। आर्यभट्ट, वराहमिहिर एवं ब्रह्मगुप्त को संसार के सर्वप्रथम नक्षत्र-वैज्ञानिक और गणितज्ञ कहा गया है।

चिकित्सा ग्रंथ

  • चिकित्सा के क्षेत्र में वाग्भट्ट ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अष्टांग हदय‘ की रचना की। आयुर्वेद के एक और ग्रंथ ‘नवीनतकम्‘ की रचना भी गुप्त काल में हुई
  • चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार का प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य एवं चिकित्सक ‘धन्वंतरि’ था।
  • गुप्तकालीन चिकित्सकों को ‘शल्य शास्त्र‘ के विषय में जानकारी थी।
  • गुप्त काल में अणु सिद्धान्त का भी प्रतिपादन हुआ।

गुप्त काल स्वर्ण काल के रूप में

गुप्त काल को स्वर्ण युग (Golden Age), क्लासिकल युग (Classical Age) एवं पैरीक्लीन युग (Periclean Age) कहा जाता है। अपनी जिन विशेषताओं के कारण गुप्तकाल को ‘स्वर्णकाल‘ कहा जाता है, वे इस प्रकार हैं- साहित्य, विज्ञान, एवं कला के उत्कर्ष का काल, भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार का काल, धार्मिक सहिष्णुता एवं आर्थिक समृद्धि का काल, श्रेष्ठ शासन व्यवस्था एवं महान सम्राटों के उदय का काल एवं राजनीतिक एकता का काल, इन समस्त विशेषताओं के साथ ही हम गुप्त को स्वर्णकाल, क्लासिकल युग एवं पैरीक्लीन युग कहते हैं। कुछ विद्वानों जैसे आर.एस.शर्मा, डी.डी. कौशम्बी एवं डॉ. रोमिला थापर गुप्त के ‘स्वर्ण युग‘ की संकल्पना को निराधार सिद्ध करते हैं क्योंकि उनके अनुसार यह काल सामन्तवाद की उन्नति, नगरों के पतन, व्यापार एवं वाणिज्य के पतन तथा आर्थिक अवनति का काल था।

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गुप्तकालीन मंदिरो की विशेषता


गुप्तकालीन कला -संस्कृति और साहित्य

१• गुप्त काल की वास्तुकला को सात भागों में बाँटा जा सकता है- राजप्रासाद, आवासीय गृह, गुहाएँ, मन्दिर, स्तूप, विहार तथा स्तम्भ।
२• राजप्रासाद की बहुत प्रशंसा की है। इस समय के घरों में कई कमरे, दालान तथा आँगन होते थे। छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ होती थीं जिन्हें सोपान कहा जाता था। प्रकाश के लिए रोशनदान बनाये जाते थे जिन्हें वातायन कहा जाता था।
३• गुप्तकाल में ब्राह्मण धर्म के प्राचीनतम गुहा मंदिर निर्मित हुए। ये भिलसा (मध्य-प्रदेश) के समीप उदयगिरि की पहाड़ियों में स्थित हैं। ये गुहाएँ चट्टानें काटकर निर्मित हुई थीं। उदयगिरि के अतिरिक्त अजन्ता, एलोरा, औरंगाबाद और बाघ की कुछ गुफाएँ गुप्तकालीन हैं।
४• गुप्तकाल में मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र मथुरा, सारनाथ और पाटिलपुत्र थे। गुप्तकालीन मूर्तिकला की विशेषताएँ हैं कि इन मूर्तियों में भद्रता तथा शालीनता, सरलता, आध्यात्मिकता के भावों की अभिव्यक्ति, अनुपातशीलता आदि गुणों के कारण ये मूर्तियाँ बड़ी स्वाभाविक हैं। इस काल में भारतीय कलाकारों ने अपनी एक विशिष्ट मौलिक एवं राष्ट्रीय शैली का सृजन किया था, जिसमें मूर्ति का आकार गात, केशराशि, माँसपेशियाँ, चेहरे की बनावट, प्रभामण्डल, मुद्रा, स्वाभाविकता आदि तत्त्वों को ध्यान में रखकर मूर्ति का निर्माण किया जाता था। यह भारतीय एवं राष्ट्रीय शैली थी।
५• इस काल में निर्मित बुद्ध-मूर्तियाँपाँच मुद्राओं में मिलती हैं- १. ध्यान मुद्रा २. भूमिस्पर्श मुद्रा ३. अभय मुद्रा ४. वरद मुद्रा ५. धर्मचक्र मुद्रा। गुप्तकाल चित्रकला का स्वर्ण युग था। कालिदास की रचनाओं में चित्रकला के विषय के अनेक प्रसंग हैं।
बौद्ध देव मंदिर
ये मंदिर सांची तथा बोधगया में पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त दो बौद्ध स्तूपों में एक सारनाथ का ‘धमेख स्तूप‘ ईटों द्वारा निर्मित है जिसकी ऊंचाई 128 फीट के लगभग है एवं दूसरा राजगृह का ‘जरासंध की बैठक‘ काफ़ी महत्त्व रखते हैं।
६• गुप्तकाल के दौरान स्थापत्य व वास्तु अपने चरमोत्कर्ष पर था। इस काल के मंदिरों का निर्माण ऊँचे चबूतरों पर पत्थर एवं ईंटों से किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों के सबसे भव्य और महत्वपूर्ण मंदिर देवगढ़ (झाँसी के पास) और भीतरगांव (कानपुर) हैं। इन मंदिरों में रामायण, महाभारत और पुराणों से विषय-वस्तु ली गई है। भीतरगांव (कानपुर) का विष्णु मंदिर ईंटों का बना है और नक्काशीदार है।
गुप्तकाल की अधिकांश मूर्तियाँ हिंदू-देवताओं से संबंधित हैं। शारीरिक नग्नता को छिपाने के लिए गुप्तकाल के कलाकारों ने वस्त्रों का प्रयोग किया। सारनाथ में बैठे हुए बुद्ध की मूर्ति और सुल्तानगंज में बुद्ध की तांबे की मूर्ति उल्लेखनीय हैं। विष्णु की प्रसिद्ध मूर्ति देवगढ़ के दशावतार मंदिर में स्थापित है
गुप्तकालीन मंदिर कला का सर्वात्तम उदाहरण ‘देवगढ़ का दशावतार मंदिर’ है। इस मंदिर में गुप्त स्थापत्य कला अपने पूर्ण विकसित रूप में दृष्टिगोचर होती है। यह मंदिर सुंदर मूर्तियों से जड़ित है, इनमें झांकती हुई आकृतियां, उड़ते हुए पक्षी व हंस, पवित्र वृक्ष, स्वास्तिक फूल पत्तियों की डिज़ाइन, प्रेमी युगल एवं बौनों की मूर्तियां नि:संदेह मन को लुभाते हैं। इस मंदिर की विशेषता के रूप में इसमें लगे 12 मीटर ऊँचें शिखर को शायद ही नज़रअन्दाज किया जा सके। सम्भवतः मंदिर निर्माण में शिखर का यह पहला प्रयोग था। अन्य मंदिरों के मण्डप की तुलना में दशावतार के इस मंदिर में चार मण्डपों का प्रयोग हुआ है।

७• गुप्त कालीन स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण तत्कालीन मंदिर थे। मंदिर निर्माण कला का जन्म यही से हुआ। इस समय के मंदिर एक ऊँचे चबूतरें पर निर्मित किए जाते थे। चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों ओर से सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था। देवता की मूर्ति को गर्भगृह में स्थापित किया गया था और गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा मार्ग का निर्माण किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों पर पाश्वों पर गंगा, यमुना, शंख व पद्म की आकृतियां बनी होती थी। गुप्तकालीन मंदिरों की छतें प्रायः सपाट बनाई जाती थी पर शिखर युक्त मंदिरों के निर्माण के भी अवशेष मिले हैं। गुप्तकालीन मंदिर छोटी-छोटी ईटों एवं पत्थरों से बनाये जाते थे। ‘भीतरगांव का मंदिर‘ ईटों से ही निर्मित है। गुप्तकालीन महत्त्वपूर्ण मंदिर
मंदिर स्थान
1- विष्णुमंदिर तिगवा (जबलपुर मध्य प्रदेश)
2- शिव मंदिर भूमरा (नागोद मध्य प्रदेश)
3- पार्वती मंदिर नचना-कुठार (मध्य प्रदेश)
4- दशावतार मंदिर देवगढ़ (झांसी, उत्तर प्रदेश)
5- शिवमंदिर खोह (नागौद, मध्य प्रदेश)
6- भीतरगांव का मंदिर लक्ष्मण मंदिर (ईटों द्वारा निर्मित) भितरगांव (कानपुर, उत्तर प्रदेश)
८• गुप्तकाल को संस्कृत साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। बार्नेट के अनुसार प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्त काल का वह महत्त्व है जो यूनान के इतिहास में पेरिक्लीयन युग का है। स्मिथ ने गुप्त काल की तुलना ब्रिटिश इतिहास के एजिलाबेथन तथा स्टुअर्ट के कालों से की है। गुप्त काल को श्रेष्ठ कवियों का काल माना जाता है।
९•गुप्त काल को संस्कृत साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। बार्नेट(Barnett) के अनुसार ‘प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्त काल का वह महत्त्व है जो यूनान के इतिहास में पेरिक्लीयन(Periclean) युग का है।‘ स्मिथ ने गुप्त काल की तुलना ब्रिटिश इतिहास के ‘एजिलाबेथन’ तथा ‘स्टुअर्ट’ के कालों से की हैं ।