Posted in संस्कृत साहित्य

हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार और उसकी वैज्ञानिकता


हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार और उसकी वैज्ञानिकता

http://reasontark.blogspot.com/2016/08/hindu-dharm-ke-solah-sanskar-aur-unki-vaigyanikta.html

हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार और उसकी वैज्ञानिकता

सोलह संस्कार क्यों बनाए गए?

Hindu Dharm ke Solah sanskar

हमारे पूर्वजों ने हर काम बहुत सोच समझकर किया है। जैसे जीवन के चार आश्रम मेंविभाजन, समाज का चार वर्णों में वर्गीकरण और सोलह संस्कार को अनिवार्य किया जाना।दरअसल, हमारे यहां पर परंपरा बनाने के पीछे कोई गहरी सोच छुपी है। सोलह संस्कार बनानेके पीछे भी हमारे पूर्वजों की गहरी सोच थी. प्राचीन काल से इन सोलह संस्कारों के निर्वहन कीपरंपरा चली आ रही है। हर संस्कार का अपना अलग महत्व है। जो व्यक्ति इन सोलह संस्कारोंका निर्वहन नहीं करता है उसका जीवन अधूरा ही माना जाता है।

संस्कार का अर्थ क्या है ?

इन सोलह संस्कार को जानने से पहले संस्कार के पर्यायवाची शब्दों  को जानना बहुत ही आवश्यक है , क्योकि यहाँ पर संस्कार शब्द का अर्थ अपने  आप में बहुत सारे अर्थो को छुपाये हुए है यानि इसका अर्थ व्यापक है , जो निम्न है :-

ठीक करना, दुरुस्ती, सुधार, दोष, त्रुटि का निकाला जाना, शुद्धि, सजाना, धो माँजकर साफकरना, परिष्कार, बदन की सफाई, शौच, मनोवृत्ति, स्वभाव का शोधन, मानसिक शिक्षामन मेंअच्छी बातों का जमाना, दिल पर जमा हुआ असर, पवित्र करना, धर्म की दृष्टि से शुद्ध करना,संस्कृति, संवर्धन, तहज़ीब, शिष्टता, रिवाज़, धार्मिक कृत्य, रस्म संबंधी, क्रियापद्धति, उपचार।

संदर्भ :-http://www.maxgyan.com/hindi/synonyms/sanskaar#sthash.H4xNRDyO.dpuf

सोलह संस्कार व्यक्ति को राष्ट्र, समाज और व्यक्तिगत जिम्मेदारी में निपुण या कार्यकुशल बनाती है।  जिसे हम आज की साधारण भाषा में प्रशिक्षित कह सकते है। संस्कार हमारेधार्मिक और सामाजिक जीवन की पहचान होते हैं। यह न केवल हमें समाज और राष्ट्र केअनुरूप चलना सिखाते हैं बल्कि हमारे जीवन की दिशा भी तय करते हैं।

भारतीय संस्कृति में मनुष्य को राष्ट्र, समाज और जनजीवन के प्रति जिम्मेदार और कार्यकुशलबनाने के लिए जो नियम तय किए गए हैं उन्हें संस्कार कहा गया है। इन्हीं संस्कारों से गुणों मेंवृद्धि होती है। हिंदू संस्कृति में प्रमुख रूप से 16 संस्कार माने गए हैं जो गर्भाधान से शुरूहोकर अंत्येष्टी पर खत्म होते हैं। व्यक्ति पर प्रभाव संस्कारों से हमारा जीवन बहुत प्रभावितहोता है। संस्कार के लिए किए जाने वाले कार्यक्रमों में जो पूजा, यज्ञ, मंत्रोच्चरण आदि होता हैउसका वैज्ञानिक महत्व साबित किया जा चुका है।

कुछ जगह ४८ (48) संस्कार भी बताए गए हैं। महर्षि अंगिरा ने २५ (25) संस्कारों का उल्लेखकिया है। वर्तमान में महर्षि वेद व्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार १६ (16) संस्कार प्रचलित हैं।विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रममें गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म,कर्णवेध, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।

मनीषियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक बनाने के लिये अपने अथक प्रयासों और शोधों केबल पर ये संस्कार स्थापित किये हैं। इन्हीं संस्कारों के कारण भारतीय संस्कृति अद्वितीय है।हालांकि हाल के कुछ वर्षो में आपाधापी की जिंदगी और अतिव्यस्तता के कारण धर्मावलम्बीअब इन मूल्यों को भुलाने लगे हैं और इसके परिणाम भी चारित्रिक गिरावट, असामाजिकता याअनुशासनहीनता के रूप में हमारे सामने आने लगे हैं।

आज के समय में काफी अधिक ऐसे लोग हैं जो इन संस्कारों के विषय में जानते नहीं हैं। तोआइए जानते हैं कि जीवन में इन सोलह संस्कारों को अनिवार्य बनाए जाने का क्या कारण था?

  1. गर्भाधान संस्कार – Garbhdharan Sanskar :  –यह ऐसा संस्कार है जिससे योग्य,गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान के लिए गर्भधारण किस प्रकार करें? इसका विवरण दिया गया है। हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम क‌र्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छारखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। वैदिक काल में यह संस्कार अति महत्वपूर्ण समझा जाता था। शास्त्रों के अनुसार गर्भाधान संस्कार को अति महत्वपूर्ण माना गया है, क्योकि न केवल अपने कुल अपितु यह पूरे समाज व राष्ट्र के लिए भविष्य का निर्माण करने में सहायक है दम्पत्ति को अपना दायित्व बहुत साबधानी पूर्ण करना चाहिये .  इस संस्कार में माता-पिता का तन व मन पूर्ण रूप से स्वस्थ व शुद्ध होना, शुभ समय,उचित स्थान, स्वस्थ आहार-विहार आवश्यक है।

    यहाँ पर क्लिक करके जाने! फैमिली प्लानिंग कैसे करे ?

  1. पुंसवन संस्कार – Punsvan Sanskar : गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार,व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाय ।हिन्दू धर्म में,संस्कार परम्परा के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाए जाते हैं कि शारीरिक,मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प केसाथ ही संतान पैदा करने की पहल करें । उसके लिए अनुकूल वातवरण भी निर्मित कियाजाता है। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है, क्योंकि इससमय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है ।
  1. सीमन्तोन्नयन संस्कार – Simantonnyan Sanskar :सीमन्तोन्नयन संस्कार हिन्दू धर्मसंस्कारों में तृतीय संस्कार है | यह संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है | इसका शाब्दिक अर्थ है- “सीमन्त” अर्थात् ‘केश और उन्नयन’ अर्थात् ‘ऊपर उठाना’ | संस्कार विधि के समय पति अपनीपत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता था, इसलिए इस संस्कार का नाम’सीमंतोन्नयन’ पड़ गया | यह संस्कार गर्भ के छठे या आठवें महीने में किया जाता है | इससंस्कार का फल भी गर्भ की शुद्धि ही है | इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल होजाता है | उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए माँ उसी प्रकार आचार-विचार,रहन-सहन और व्यवहार करती है | महाभक्त प्रह्लाद को देवर्षि नारद का उपदेश तथाअभिमन्यु को चक्रव्यूह प्रवेश का उपदेश इसी समय में मिला था | अतः माता-पिता को चाहिएकि वे इन दिनों विशेष सावधानी के साथ योग्य आचरण करें |

सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं |

सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना | गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशुएवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है | इस संस्कार के माध्यमसे गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं |

सनातन धर्म में स्त्रियों को शिक्षित होना अनिवार्य है इसी समय गर्भिणी को वेद एवं शास्त्रों काअध्ययन कराया जाता है | जब गर्भिणी शिक्षित, मानसिक बल एवं सकारात्मक विचारों  से युक्तहोगी तभी शिशु भी शक्तिशाली व् विद्वान होगा क्योंकि शिशु का लगभग 90 % बौद्धिकविकास गर्भ में हो जाता है |

इसमें कोई संदेह नहीं की गर्भस्थशिशु बहुत ही संवेदनशील होता है | सती मदालसा के बारे मेंकहा जाता है की वह अपने बच्चे के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी, फिरउसी प्रकार निरंतर चिंतन, क्रिया-कलाप, रहन-सहन, आहार-विहार और बर्ताव अपनाती थी,जिससे बच्चा उसी मनोभूमि ढल जाता है, जैसा कि वह चाहती थी |


उदाहरण :-

(क) भक्त प्रह्लाद की माता कयाधू को देवर्षि नारद भगवदभक्ति के उपदेश दिया करते थे, जोप्रहलाद ने गर्भ में ही सुने थे |

(ख) व्यासपुत्र शुकदेव ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था |

(ग) अर्जुन ने अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूहभेदन की जो शिक्षा दी थी, वह सबगर्भस्थशिशु अभिमन्यु सीख ली थी | उसी शिक्षा के आधार पर सोलह वर्ष की आयु में हीअभिमन्यु ने अकेले सात महारथियों से युद्ध कर चक्रव्यूह-भेदन किया |

अलग अलग जगह इसे अलग अलग नाम से जाना जाता है  जैसे छत्तीसगढ़ में इसे ” सधौरीखवाना ” कहते है।

  1. जातकर्म – Jatkarm Sanskar : जन्म के बाद नवजात शिशु के नालच्छेदन (यानि नालकाटने) से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क मेंआनेवाले बालक को मेधाoh, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत गुरु मंत्र केउच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित करचटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करताहै। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है। ( यह स्तनपान विज्ञान  के अनुसार जन्म होने के आधे घंटे  अन्तर्गत कराये जाने वाला स्तनपान है, जिसको हिन्दू धर्म में हजारो वर्ष पहले से बताया जा चूका है। )
  1. नामकरण संस्कार – Namkaran Sanskar : कई जगह इसे “छठ्ठी” के नाम से जानाजाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य को जिस तरह के नाम से पुकारा जाता है,उसे उसी प्रकार की छोटी सी अनुभूति होती रहती है | यदि किसी को कूड़ेमल, घूरेमल,नकछिद्दा, नत्थो, घसीटा आदि नामों से पुकारा जायेगा, तो उसमें हीनता के भाव ही जाएगी |नाम सार्थक बनाने की कई हलकी, अभिलाषाएँ मन में जगती रहती है | पुकारने वाले भी किसीके नाम के अनुरूप उसके व्यक्तित्व की हल्की या भारी कल्पना करते हैं | इसलिए नाम काअपना महत्त्व है | उसे सुन्दर ही चुना और रखा जाए |

बालक का नाम रखते समय निम्न बातों का ध्यान रखें | गुणवाचक नाम रखे जाएँ, पुत्र एवं पुत्रीके नामों की एक बड़ी सूची बनाई जा सकती है | उसी में से छाँटकर लड़के और लड़कियों केउत्साहवर्धक, सौम्य एवं प्रेरणाप्रद नाम रखने चाहिए | समय-समय पर बालकों को यह बोध भीकराते रहना चाहिए कि उनका यह नाम है, इसलिए गुण भी अपने में वैसे ही पैदा करने चाहिए|

नक्षत्र या राशियों के अनुसार नाम रखने से लाभ यह है कि इससे जन्मकुंडली बनाने में आसानीरहती है | नाम भी बहुत सुन्दर और अर्थपूर्ण रखना चाहिये | अशुभ तथा भद्दा नाम कदापि नहींरखना चाहिये |

शिशु कन्या है या पुत्र, इसके भेदभाव को स्थान नहीं देना चाहिए । भारतीय संस्कृति में कहीं भीइस प्रकार का भेद नहीं है । शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है । ‘दश पुत्र-समा कन्या यस्य शीलवती सुता ।’ इसके विपरीत पुत्र भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला होसकता है । ‘जिमि कपूत के ऊपजे कुल सद्धर्म नसाहिं ।’

आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है । उस दिन जन्म सूतिका कानिवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है । यह प्रसूति कार्य घर में ही हुआ हो, तो उस कक्ष कोलीप-पोतकर, धोकर स्वच्छ करना चाहिए । शिशु तथा माता को भी स्नान कराके नये स्वच्छवस्त्र पहनाये जाते हैं । यदि दसवें दिन किसी कारण नामकरण संस्कार न किया जा सके । तोअन्य किसी दिन, बाद में भी उसे सम्पन्न करा लेना चाहिए । घर पर, प्रज्ञा संस्थानों अथवा यज्ञस्थलों पर भी यह संस्कार कराया जाना उचित है ।

कई कर्मकांडी का  मानना है कि जन्म के ग्यारहवें दिन यह संस्कार होता है। हमारे धर्माचार्योने जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) माना है। इसलिये यह संस्कार ग्यारहवें दिन करने काविधान है। महर्षि याज्ञवल्क्य का भी यही मत है, लेकिन अनेक कर्मकाण्डी विद्वान इस संस्कारको शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित मानते हैं।

नामकरण संस्कार का सनातन धर्म में अधिक महत्व है। हमारे मनीषियों ने नाम का प्रभावइसलिये भी अधिक बताया है क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। तभी तो यहकहा गया है राम से बड़ा राम का नाम हमारे धर्म विज्ञानियों ने बहुत शोध कर नामकरणसंस्कार का आविष्कार किया। ज्योतिष विज्ञान तो नाम के आधार पर ही भविष्य की रूपरेखातैयार करता है।

  1. निष्क्रमण् – Nishkraman Sanskar : निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इससंस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान् भास्कर के तेजतथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछेमनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण कियाजाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु काशरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय:तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरीवातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज केसम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।
  1. अन्नप्राशन संस्कार – Annaprashan Sanskar : सनातन धर्म संस्कारों में अन्नप्राशनसंस्कार सप्तम संस्कार है | इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है | अब तक तोशिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि को प्राप्त होता था, अब आगे स्वयं अन्न ग्रहण करके हीशरीर को पुष्ट करना होगा, क्योंकि प्राकृतिक नियम सबके लिये यही है | अब बालक कोपरावलम्बी न रहकर धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनना पड़ेगा | केवल यही नहीं, आगे चलकर अपनातथा अपने परिवार के सदस्यों के भी भरण-पोषण का दायित्व संम्भालना होगा | यही इससंस्कार का तात्पर्य है |

हमारे धर्माचार्यो ने अन्नप्राशन के लिये जन्म से छठे महीने को उपयुक्त माना है। छठे मास मेंशुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए। खीर और मिठाई से शिशु केअन्नग्रहण को शुभ माना गया है। अमृत: क्षीरभोजनम् हमारे शास्त्रों में खीर को अमृत के समानउत्तम माना गया है।

शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है | गीता में कहा गया है कि अन्न से ही प्राणीजीवित रहते हैं | अन्न से ही मन बनता है | इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्तव है |

बच्चों को सफेद चीनी व् तामसिक भोजन नहीं खिलानी चहिए क्योंकि यह स्वास्थ के लिए हानिकारक है | यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6 – 7 महीने की उम्र में कियाजाता है

अलग अलग जगह इसे अलग अलग नाम से जाना जाता है , जैसे छत्तीसगढ़ में इसे ” मुँह जुठारना ” कहते है।

8 मुंडन/चूड़ाकर्म संस्कार – Mundan/ Chudakarm Sanskar : चूड़ाकर्म को मुंडनसंस्कार भी कहा जाता है। हमारे आचार्यो ने बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इससंस्कार को करने का विधान बताया है। इस संस्कार के पीछे शुाचिता और बौद्धिक विकास कीपरिकल्पना हमारे मनीषियों के मन में होगी। मुंडन संस्कार का अभिप्राय है कि जन्म के समयउत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना है। नौ माह तक गर्भ में रहने केकारण कई दूषित किटाणु उसके बालों में रहते हैं। मुंडन संस्कार से इन दोषों का सफाया होताहै। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। वैदिकमंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार सम्पन्न होता है। यह समारोह इसलिए महत्त्वपूर्ण है किमस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह कार्यक्रमशिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप सेआरम्भ हो जाए

  1. कर्णवेध संस्कार – Karnvedh Sanskar : इसका अर्थ है – कान छेदना। परंपरा में कानऔर नाक छेदे जाते थे। इसके दो कारण हैं, एक – आभूषण पहनने के लिए। दूसरा कान छेदनेसे एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है।हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है।कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि ( बीमारी )सेरक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कानहमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां ( बीमारी ) दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़तीहै। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है। यज्ञोपवीत के पूर्वइस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इससंस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।

10.विद्यारंभ संस्कार – Vidyarambh Sanskar : विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षाके प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तोबालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। माँ-बाप तथागुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दियाकरते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है साविद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य कीआत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये।

11.यज्ञोपवीत/उपनयन संस्कार – Yagyopavit/ Upnayan Sanskar : यज्ञोपवीत (संस्कृतसंधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) उप यानी पास और नयन यानी ले जाना, गुरू के पास ले जाने काअर्थ है – उपनयन संस्कार। उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है । मुंडन और पवित्रजल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारीव्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है।

यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सातग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इसयज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णुऔर महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है।

हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधानदिया है। आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध हो चुका है। गायत्री सर्वाधिकशक्तिशाली मंत्र है।

इस संस्कार के बारे में हमारे धर्मशास्त्रों में विशेष उल्लेख है। यज्ञोपवीत धारण का वैज्ञानिकमहत्व भी है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र मेंयज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुलजाता था। यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रममें आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिकविकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है।

  1. वेदारम्भ संस्कार – Vedarambh Sanskar : इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञानदिया जाता है। ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भके माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इससंस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है किप्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बादबालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पासगुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालनकरने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद हीवेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे।हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।

13.केशान्त संस्कार – Keshant Sanskar : केशांत संस्कार का अर्थ है – केश यानी बालोंका अंत करना, गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्नकिया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने काउपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तनसंस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दीजाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।

14.समावर्तन संस्कार – Samavartan Sanskar : समावर्तन संस्कार का अर्थ है – फिर सेलौटना। आश्रम में शिक्षा प्राप्ति के बाद ब्रहमचारी को फिर सांसारिक जीवन में लाने के लिएयह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रहमचारी मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षोंके लिए तैयार है।

गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्वब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नानसमावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुएवेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेषमन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसेयज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधिआचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाताथा। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण करअपने घर के लिये विदा होता था।

15.विवाह संस्कार – Vivah Sanskar : प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यहसर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन काहमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करनेकी क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभगपच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था।

यह भी पढ़े :- 7 फेरो के सातो वचन और महत्व

हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर,गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनकास्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समयउच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाहसंस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आजउन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है। विवाह के द्वारा सृष्टिके विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।

सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ीबनाने का भी कार्य करते हैं । वहीं अपने संसाधनों से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमों केसाधकों को वाञ्छित सहयोग देते रहते हैं । ऐसे सद्गृहस्थ बनाने के लिए विवाह को रूढ़ियों-कुरीतियों से मुक्त कराकर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना आवश्क है । युगनिर्माण के अन्तर्गत विवाह संस्कार के पारिवारिक एवं सामूहिक प्रयोग सफल और उपयोगीसिद्ध हुए हैं ।

  1. अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार – Antyeshti/ Shraddha Sanskar : हिंदूओं में किसीकी मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने की प्रक्रिया कोअन्त्येष्टि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है। यह हिंदू मान्यता के अनुसार सोलहसंस्कारों में से एक संस्कार है।

    जानें :- मृत्यु के बाद निभाई जाने वाली परम्पराओं के पीछे की वैज्ञानिकता

श्राद्ध, हिन्दूधर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता,पूर्वजों को नमस्कारप्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यहजीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म मॆं, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्षको पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध,तर्पण, मुक्ति हेतु विशेषक्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। यदि कोई कारण से उनकी आत्मा को मुक्तिप्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है।

तो दोस्तों आपने जाना होगा की हमारी संस्कृति या परंपरा कितनी महान हैं।

लाइक और कमेंट करना न भूलें।

तो मित्रो मिलते है अगली पोस्ट में।

Author:

Buy, sell, exchange old books

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s