Posted in यत्र ना्यरस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

માતૃ દેવો ભવઃ


સ્ત્રી નું સર્જન ઈશ્વરે કર્યું હશે ત્યારે એના મનમાં શો ઉદ્દેશ્ય હશે? મને તો એક જ જવાબ મન માં આવે છે કે ઈશ્વર ની ઈચ્છા હશે કે પોતે સર્જેલી દુનિયામાં પોતે સર્જેલા સજીવો જેવા જ બીજા સજીવો જાતે સર્જાય… અને આ સર્જન (સર્જન ઈશ્વર નું કામ કહી શકાય) અને સંસારનું સંચાલન (એ પણ ઈશ્વર નું કામ કહી શકાય) શરુ રાખવા માટે એણે સ્ત્રી નું સર્જન કર્યું હશે…
જ્યારે સ્ત્રી સંતાન ને સુવડાવવા માટે હાલરડા ગાતી હોય છે ત્યારે સરસ્વતી નું સ્વરૂપ હોય છે.
જ્યારે ભોજન બનાવતી હોય છે ત્યારે સાક્ષાત અન્નપૂર્ણા નું સ્વરૂપ હોય છે.
જ્યારે મજૂરની ઓછી આવકમાં ઘર ચલાવતી હોય છે ત્યારે અને એવી હાલતમાં પણ સંતાનો ની ઈચ્છા પૂરી કરતી હોય ત્યારે એ આશાપુરા નું સ્વરૂપ હોય છે.
નાણાકીય રીતે કપરી પરિસ્થિતિ હોય ત્યારે પણ સંતાનોના યોગ્ય શોખનું ધ્યાન રાખતી હોય ત્યારે એ મહા લક્ષ્મી નું સ્વરૂપ હોય છે.
જ્યારે સંતાનોની તરફેણમાં કોઈ પણ શક્તિશાળી માણસ સાથે લડવા માટે ઉભી થઇ જતી સ્ત્રી મહા કાળી નું સ્વરૂપ છે
અને સંતાન ને જન્મ આપતી સ્ત્રી પોતે યોગમાયા સ્વરૂપી માતા પાર્વતી નું સ્વરૂપ છે.
સ્ત્રીનું સર્જન માટે સક્ષમ હોવું એ જ એના ઈશ્વરના રૂપ હોવાનું પ્રમાણ છે.

દરેક યુગમાં મા … નર્મદા (આનંદ દાયી), યશોદા (યશ આપનારી), અન્નપૂર્ણા (ભોજન આપનારી), આશાપુરી (આશા પૂરી કરનારી) વગેરે સ્વરૂપમાં હયાત છે જ.
ઈશ્વરે મારું સર્જન કર્યું છે પણ આ ધરતી પર મને લઇ આવનાર મારા મા-બાપ પણ મારા માટે ઈશ્વર થી ઓછા નથી.

ભોજન બનાવતી, પાણી ભરતી, ઘર ને સુઘડ રાખતી, સંતાન ને ભણાવતી, ખવડાવતી, રમાડતી, સુવડાવતી દરેક સ્ત્રી માં ઈશ્વર ના દર્શન થાય છે. જે વ્યક્તિ ને આમાં ઈશ્વર નું દર્શન નથી થતું એ વ્યક્તિને માણસ કેમ કહી શકાય?

માટે જ કહેવાય છે માતૃ દેવો ભવઃ….

Posted in नहेरु परिवार - Nehru Family

​नेहरू और लोकतंत्र पर दाग !


नेहरू और लोकतंत्र पर दाग !
बात पहले आमचुनावों की है। तब उत्तर प्रदेश की रामपुर सीट से कांग्रेस के वरिष्ठ मुस्लिम नेता मौलाना अबुल कलाम आजाद पार्टी के प्रत्याशी थे। मौलाना आजाद नेहरू के निकटतम मित्रों में से थे। नेहरू अपने मित्र को हृदय से चाहते थे। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पं. गोविन्द वल्लभ पंत थे। पंत एकसुलझे हुए नेता थे। इसलिए उन्हें संयुक्त प्रांत का प्रथम मुख्यमंत्री बनाया गया था। पंत और नेहरू के मध्य आपसी संबंध बड़े सहज थे। 
प्रथम आम चुनावों में रामपुर से मौलाना आजाद के सामने वरिष्ठ हिंदूवादी राजनीतिज्ञ स्व. विशनचंद सेठ अपनी किस्मत आजमा रहे थे। श्री सेठ जी की लोकप्रिय छवि थी,इसलिए अधिकतम लोगों ने उनको अपना मत प्रदान किया और अपना मत उन्हें देकर भारी मतों से विजयी कर दिया। 
नेहरू को रामपुर की जनता का यह निर्णय रास नही आया और उन्होंने इसे गांधीजी के उसी दृष्टिकोण की भांति लिया जिस प्रकार गांधी ने 1938 ई. में सुभाषचंद बोस और डा. पट्टाभिसीता रमैया के चुनाव को लिया था। जैसे गांधी को उस चुनाव में सुभाष चंद्र बोस की जीत ने हतप्रभ कर दिया था और वह उस जीत को पचा नही पाये थे उसी प्रकार स्वतंत्र भारत के प्रथम आम चुनाव में रामपुर की जनता ने अपना निर्णय मौलाना के पक्ष में न देकर नेहरू को आश्चर्य चकित कर दिया था। 
 नेहरू इस अप्रत्याशित हार को विजय में परिवर्तित करने के लिए सक्रिय हो गये। उन्होंने फिर 1938 के इतिहास को दोहराने की योजना बनाई। अंतर मात्र इतना था कि उस समय गांधी जी ने चुनाव परिणाम तो नही बदला था परंतु चुनाव परिणाम के फलितार्थ सुभाष चंद्र बोस से बोलचाल बंद करके डा. पट्टाभिसीता रमैया की हार को अपनी व्यक्तिगत हार मान लिया था, और तब तक सुभाष चंद बोस के प्रति गांधी ने अपनी यह ‘दण्डात्मक कार्यवाही’ जारी रखी जब तक सुभाष चंद्र बोस ने पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र न दे दिया। 
गांधी के राजनीतिक शिष्य या उत्तराधिकारी  नेहरू थे। इसलिए उन्हेंाने गांधी के कई गुरों को बड़ी सूक्ष्मता से अपनाया और उन्हें सही अवसर आने पर प्रयोग भी किया। अत: नेहरू ने अपने अभिन्न मित्र मौलाना आजाद को देश की संसद में लाने की जिद की, और तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. गोविन्दवल्लभ पंत को अपनी इच्छा बताकर सारी व्यवस्था करने का निर्देश दे दिया। 
मुख्यमंत्री ने रामपुर के जिलाधिकारी पर दबाब बनाया और हारे हुए प्रत्याशी को जीत का सेहरा बांधकर दूल्हा की भांति संसद में भेज दिया। जिलाधिकारी ने बड़ी सावधानी से सेठ विशनचंद की वोटों को मौलाना के मतों में मिला दिया और दोबारा मतगणना के आदेश देकर जीते हुए प्रत्याशी को परास्त कर दिया। 
अटल जी उस समय प्रधानमंत्री पद से हट चुके थे। तब उन्होंने स्व. विशनचंद सेठ की स्मृति में प्रकाशित स्मृति ग्रंथ ‘हिंदुत्व के पुरोधा’ नामक पुस्तक का विमोचन किया था। 18 नवंबर 2005 को विमोचित किये गये उक्त स्मृति ग्रंथ में उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग के अवकाश प्राप्त उपनिदेशक शम्भूनाथ टण्डन ने एक लेख लिखकर उक्त घटना का रहस्योदघाटन किया था। 
इस स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन अखिल भारतीय खत्री महासभा दिल्ली ने कराया था। अपने लेख का शीर्षक विद्वान लेखक ने बहुत ही सार्थक और गंभीर शब्दावली का प्रयोग करके यूं दिया था-”जब भईये विशन सेठ ने मौलाना आजाद को धूल चटाई थी, भारत के इतिहास की एक अनजान घटना।” 
इस घटना से सिद्घ होता है कि भारत में लोकतंत्र को ठोकतंत्र में और जनतंत्र को गनतंत्र में परिवर्तित करने की कुचालें पहले दिन से ही चल गयी थी। नेहरू ने इन कुचालों को कहीं स्वयं चलाया तो कहीं इनका समर्थन किया अथवा अपनी मौन सहमति प्रदान की। 
पाठकों को स्मरण होगा कि उनके समय में जब जीप घोटाला हुआ तो उन्होंने उस घोटाले में लिप्त कांग्रेसी नेताओं का बचाव करने में ही बचाव समझा था। उन्होंने चीनी आक्रमण के समय अपने रक्षामंत्री कृष्णा मेनन का भी बचाव किया था। कुल मिलाकर उनके भीतर भी वही अहंकार का भाव रहता था जो गांधी जी के भीतर रहता था कि मैंने जो किया, या जो सोच लिया वही उत्तम है। 
श्री टंडन ने अपने उक्त आलेख में स्पष्ट किया था कि कैसे नेहरूकाल से ही मतों पर नियंत्रण करने की दुष्प्रवृत्ति देश के राजनीतिज्ञों में पैर पसार चुकी थी। कालांतर में इस दुष्प्रवृत्ति ने विस्तार ग्रहण किया और ये बूथ कैप्चरिंग तक पहुंच गयी। 
जो लोग ये कहकर नेहरू का बचाव करते हैं कि उनके समय में यह बीमारी इतनी नही थी, ये तो बाद में अधिक फैली। उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि नेहरू का काल बीजारोपण का काल था। आम या बबूल का पौधा तो पिता या पितामह ही लगाते हैं और अक्सर उनके फल पुत्र या पौत्र प्राप्त करते हैं। अत: नेहरू ने अपने काल में बीजारोपण किया उसी के कटु फल हमें आज तक चखने पड़ रहे हैं। 
इंदिरा गांधी के काल में नेहरू द्वारा रखी गयी आधारशिला पर फटाफट भवन निर्माण हुआ और राजनीतिक भ्रष्टाचार के सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण कार्य हर कांग्रेसी सरकार में चलता रहा। आज यह दुर्ग अत्यंत सुदृढ़ता प्राप्त कर गया है, इसकी जड़ें ‘स्विस बैंकों’ तक चली गयीं हैं। इसे तोडऩे के लिए मोदी सरकार को भागीरथ प्रयास करना पड़ रहा है। 
पहले आम चुनाव में हिंदू महासभा ने मुस्लिम तुष्टीकरण का पक्षघर मानते हुए  नेहरू और मौलाना आजाद के विरूद्घ हिंदू नेताओं को खड़ा करने का निश्चय किया था। इसका कारण था कि हिंदू महासभा ब्रिटिश काल के अंतर्गत अंतिम चुनाव (1945-46) के राष्ट्रीय असेम्बली के चुनाव में हिंदू महासभा ने कांग्रेस को यह कहकर अपना समर्थन दिया था कि वह देश का बंटवारा स्वीकार नही करेगी और किसी प्रकार का तुष्टीकरण भी नही करेगी। पर कांग्रेस वचन देकर भी अपने वचन से मुकर गयी थी। उसने देश का बंटवारा करा दिया। इसलिए हिंदू महासभा ने कांग्रेस को पहले आम चुनाव में घेरने की तैयारी की। 
मौलाना आजाद को यदि बिशन चंद सेठ एक चुनौती दे रहे थे तो फूलपुर से संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी नेहरू को चुनौती दे रहे थे। नेहरू और मौलाना का गठबंधन मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति का एक मुंह बोलता प्रमाण था और लोगों में उस समय ऐसे किसी भी गठबंधन के विरूद्घ एक आक्रोश व्याप्त था। इसलिए लोगों ने मौलाना आजाद के विरूद्घ मतदान किया और बिशनचंद सेठ को 8 हजार मतों से विजयी बनाकर उन्हें हरा दिया था। 
श्री टंडन ने उक्त लेख में यह भी स्पष्ट किया है कि अधिकारियों ने मतगणना के बाद लाउडस्पीकरों से बिशनचंद सेठ के पक्ष में चुनाव परिणाम भी घोषित कर दिया था। पर इस चुनाव परिणाम पर मौलाना के ‘बेताज के बादशाह दोस्त’ नेहरू के तोते उड़ गये। उन्होंने दिल्ली दरबार में ‘शाही पैगाम’ जारी किया और रामपुर की पुनर्मतगणना कराकर चुनाव परिणाम मौलाना आजाद के पक्ष में घोषित करने के लिए यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. गोविन्दवल्लभ पंत को निर्देशित किया। 
लेखक का कहना है कि मौलाना की हार की सूचना मिलते ही नेहरू बौखला उठे थे। जबकि सेठ समर्थक कार्यकर्ता अपने नेता का विजय जुलूस निकाल रहे थे। तब पं. नेहरू ने पं. पंत को चेतावनी भरे शब्दों में संदेश दिया कि उन्हें मौलाना की हार किसी भी कीमत पर सहन या स्वीकार नही होगी। 
गोविन्द वल्लभ पंत ने तुरंत ‘दिल्ली दरबार’ के आदेश का क्रियान्वयन करना सुनिश्चित किया। जिलाधिकारी ने पुन: मतगणना के लिए बिशनचंद सेठ को भी बुला भेजा। 
लेखक के अनुसार सेठ जी ने उक्त पुन: मतगणना के आदेश का कड़ा विरोध किया। उनका तर्क था कि मेरे सारे कार्यकर्ता विजय जुलूस में जा चुके हैं और अब तो मुझे मतगणना के लिए एजेंट तक भी नही मिल सकते। तब जिलाधिकारी ने कह दिया कि कोई बात नही, मतगणना आपके सामने कर दी जाएगी। तब एडी.एम ने सेठजी के सामने ही मतपत्रों का जखीरा समेट कर मौलाना के मतपत्रों में मिला दिया। सेठ जी ने चिल्लाकर कहा कि यह क्या कर रहे हो? तब अधिकारियों ने कह दिया कि हम अपनी नौकरी बचाने के लिए तुम्हें हरवा रहे हैं। 
श्री टंडन ने लिखा है कि चूंकि उन दिनों प्रत्याशियों के नामों की अलग-अलग पेटियां हुआ करती थीं और मतपत्र बिना कोई निशान लगाये अलग अलग पेटियों में डाले जाते थे। अत: यह आसान था कि एक प्रत्याशी के मत दूसरे प्रत्याशी के मतों मे मिला दिये जाते थे। इसी का लाभ उठाकर सेठ जी को हराया गया और मौलाना को विजयी बनाया गया। 
1957 और 1962 के चुनावों में यद्यपि सेठ जी कांग्रेसी प्रत्याशी को हराकर संसद पहुंचे परंतु पहले चुनाव में तो नेहरू वह दुष्कृत्य करने में सफल हो ही गये जिसके कटुफल देश को आज तक चखने पड़ रहे हैं। इससे नेहरू की लोकतांत्रिक छवि पर भी दाग लगा और देश को लोकतंत्र की हत्या का दंश पहले ही आम चुनाव में झेलना पड़ गया।
ये है इतिहास के पेज जिन्हें इन मुगलो के गुलाम अंग्रेजो के नौकर और गाँधी नेहरू प्रस्तो ने भारतीयों से छुपा के रखा

Posted in Uncategorized

દ્વારકા : ઐતિહાસિક અને સાંસ્કૃતિક


sndtguj

 

Image

[1] જગતમંદિર : સ્થાપત્ય અને શિલ્પ

દ્વારકામાં હાલ હયાત દ્વારકાધીશનું જગત મંદિર સોળમી સદીનું સર્જન છે. ખોદકામ કરતા પટ્ટાંગણમાં નીકળેલ મંદિરો તેરમી અને આઠમી સદી સુધી જાય છે. આ બધા મંદિરોની શિલ્પકલા અંગેના સમગ્ર અભ્યાસો હજુ બાકી છે. 1560માં મંદિરનું અને 1572માં જે શિખરનું કામ પૂર્ણ થયું છે, સોળમી સદીનાં અંતભાગનું આ શિખર શિલ્પકલાની નવી જૂની અનેક પરંપરાઓના મિશ્રણ સમુ છે. માત્ર શિખર જ એક સો ફૂટ ઊંચું હોય તેવો આ એક માત્ર નમૂનો છે ! આ મંદિરના દિકપાલાદિ મૂર્તિશિલ્પો અને સુશોભનો શિલ્પો કલા શૈલીની દષ્ટિએ અભ્યાસીને સભ્રમમાં મુકી દે એવા છે. ઘણા લાંબા સમય સુધી કામ ચાલ્યું છે. એટલે એકસાથે અનેક સૂર વાગતા અહીં સંભળાય છે. સ્તંભવિધાન સર્વોત્તમ છે. મૂર્તિ વિધાન પ્રમાણમાં મધ્યમ અને પહોળાઈના પ્રમાણમાં ઊંચાઈ વધુ એટલે એક અલગ કલાકૃતિ સમું આખું મંદિર છે

જગતમંદિરના નિજ પ્રદક્ષિણાપથના શિલ્પોમાં દક્ષિણ ગવાક્ષે લક્ષ્મીનારાયણ, પૂર્વે વિષ્ણુ, ઉત્તર દિશાએ વિષ્ણુ-લક્ષ્મીજીની પ્રતિમાઓ છે. પશ્ચિમના બન્ને ઓટલાના ગવાક્ષોમાં ગરૂડજી તથા ગણેશના શિલ્પો…

View original post 904 more words