रामायण के प्रमुख पात्र एवं उनका परिचय
Day: March 25, 2017
शोभा डे नाम की एक प्रख्यात लेखिका की टिप्पणी –
शोभा डे नाम की एक प्रख्यात लेखिका की टिप्पणी –
“मांस तो मांस ही होता है,
चाहे गाय का हो,
या बकरे का,
या किसी अन्य जानवर का……।
फिर,
हिन्दू लोग जानवरों के प्रति अलग-अलग व्यवहार कर के
क्यों ढोंग करते है कि बकरा काटो,
पर, गाय मत काटो ।
ये उनकी मूर्खता है कि नहीं……?”
.
जवाब -1.
बिल्कुल ठीक कहा शोभा जी आप ने ।
मर्द तो मर्द ही होता है,
चाहे वो भाई हो,
या
पति,
या
बाप,
या
बेटा ।
फिर, तीनो के साथ आप अलग-अलग व्यवहार क्यों करती हैं ?
*क्या सन्तान पैदा करने,
या यौन-सुख पाने के लिए पति जरुरी है ?*
भाई, बेटा, या बाप के साथ भी वही व्यवहार किया जा सकता है,
जो आप अपने पति के साथ करती हैं ।
ये आप की मूर्खता और आप का ढोंग है कि नहीं…..?
जवाब-2.
घर में आप अपने बच्चों और अपने पति को खाने-नाश्ते में दूध तो देती ही होंगी, या चाय-कॉफी तो बनाती ही होंगी…!
जाहिर है, वो दूध गाय, या भैंस का ही होगा ।
तो, क्या आप कुतिया का भी दूध उनको पिला सकती हैं, या कुतिया के दूध की भी चाय-कॉफी बना सकती हैं..?
क्यों नही ? दूध तो दूध है , चाहे वो किसी का भी हो..!
ये आप की मूर्खता और आप का ढोंग है कि नहीं……?
.
प्रश्न मांस का नहीं, आस्था और भावना का
है ।
जिस तरह, भाई, पति, बेटा, बेटी, बहन, माँ, आदि रिश्तों के पुरुषों-महिलाओं से हमारे सम्बन्ध मात्र एक पुरुष, या मात्र एक स्त्री होने के आधार पर न चल कर भावना और आस्था के आधार पर संचालित होते हैं,
उसी प्रकार गाय, बकरे, या अन्य पशु भी हमारी भावना के आधार पर व्यवहृत होते
हैं ।
जवाब – 3.
एक अंग्रेज ने स्वामी विवेकानन्द से पूछा –
“सब से अच्छा दूध किस जानवर का होता है ?”
स्वामी विवेकानंद –
“भैँस का ।”
अंग्रेज –
“परन्तु आप भारतीय तो गाय को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं न…..?”
स्वामी विवेकानन्द कहा –
“आप ने “दूध” के बारे मे पुछा है जनाब, “अमृत” के बारे में नहीं,
और दूसरी बात,
आप ने जानवर के बारे मेँ पूछा था ।
गाय तो हमारी ‘माता’ है,
कोई जानवर नहीं ।”
इसी विषय में एक सवाल :-
“Save tiger” कहने वाले समाज सेवी होते हैं
और
“Save Dogs” कहने वाले पशु प्रेमी होते हैं ।
तब,
“Save Cow” कहने वाले कट्टरपन्थी कैसे हो गये…..?
इसका जवाब अगर किसी के पास हो, तो बताने की ज़रूर कृपा करे ।
.
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इंडोनेशिया
इंडोनेशिया
दोस्तो एक रोचक तथ्य है कि इंडोनेशिया एक सम्पूर्ण मुस्लिम देश है लेकिन वहाँ पर मुस्लिम राम शिव गणेश श्री कृष्ण को ही पूजते है और सबसे ज्यादा हिन्दू मंदिर है इन्डोनेशिया में । मंदिर ही नहीं वहाँ की करन्सी पर गणेश का फोटो है आज भी, हाल ही में इन्डोनेशिया के मुस्लिममानों ने अमेरिका को काली माता की मूर्ति समर्पित करके पूरे विश्व के मुस्लिम लोगों को ये संदेश दिया कि वो पहले हिन्दू ही थे। इस सत्य को वे भी स्वीकारें ।
एक समय था जबकि संपूर्ण धरती पर सिर्फ हिंदू थे। मैक्सिको में एक खुदाई के दौरान गणेश और लक्ष्मी की प्राचीन मूर्तियां पाई गईं। अफ्रीका में 6 हजार वर्ष पुराना एक शिव मंदिर पाया गया और चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, लाओस, जापान में हजारों वर्ष पूरानी विष्णु, राम और हनुमान की प्रतिमाएं मिलना इस बात के सबूत हैं कि हिंदू धर्म संपूर्ण धरती पर था।
‘मैक्सिको’ शब्द संस्कृत के ‘मक्षिका’ शब्द से आता है और मैक्सिको में ऐसे हजारों प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है। जीसस क्राइस्ट्स से बहुत पहले वहां पर हिंदू धर्म प्रचलित था- कोलंबस तो बहुत बाद में आया। सच तो यह है कि अमेरिका, विशेषकर दक्षिण-अमेरिका एक ऐसे महाद्वीप का हिस्सा था जिसमें अफ्रीका भी सम्मिलित था। भारत ठीक मध्य में था।
अफ्रीका नीचे था और अमेरिका ऊपर था। वे एक बहुत ही उथले सागर से विभक्त थे। तुम उसे पैदल चलकर पार कर सकते थे। पुराने भारतीय शास्त्रों में इसके उल्लेख हैं। वे कहते हैं कि लोग एशिया से अमेरिका पैदल ही चले जाते थे। यहां तक कि शादियां भी होती थीं। कृष्ण के प्रमुख शिष्य और महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अर्जुन ने मैक्सिको की एक लड़की से शादी की थी। निश्चित ही वे मैक्सिको को मक्षिका कहते थे। लेकिन उसका वर्णन बिलकुल मैक्सिको जैसा ही है।
मैक्सिको में हिंदुओं के देवता गणेश की मूर्तियां हैं, दूसरी ओर इंग्लैंड में गणेश की मूर्ति का मिलना असंभव है। कहीं भी मिलना असंभव है, जब तक कि वह देश हिंदू धर्म के संपर्क में न आया हो, जैसे सुमात्रा, बाली और मैक्सिको में संभव है, लेकिन और कहीं नहीं, जब तक वहां हिंदू धर्म न रहा हो। मैं जो यह कुछ उल्लेख कर रहा हूं, अगर तुम इसके बारे में और अधिक जानकारी पाना चाहते हो तो तुम्हें भिक्षु चमन लाल की पुस्तक ‘हिंदू अमेरिका’ देखनी पड़ेगी, जो कि उनके जीवनभर का शोधकार्य है। (स्वर्णिम बचपन : ओशो- प्रवचनमाला सत्र- 6-नानी का प्रेम… भारत एक सनातन)।
राम कथा की विदेश-यात्रा
http://www.ignca.nic.in/coilnet/rktha008.htm
रामायण का अर्थ राम का यात्रा पथ
आदिकवि वाल्मीकि कृत रामायण न केवल इस अर्थ में अद्वितीय है कि यह देश-विदेश की अनेक भाषाओं के साहित्य की विभिन्न विधाओं में विरचित तीन सौ से भी अधिक मौलिक रचनाओं का उपजीव्य है, प्रत्युत इस संदर्भ में भी कि इसने भारत के अतिरिक्त अनेक देशों के नाट्य, संगीत, मूर्ति तथा चित्र कलाओं को प्रभावित किया है और कि भारतीय इतिहास के प्राचीन स्रोतों में इसके मूल को तलाशने के सारे प्रयासों की विफलता के बावजूद यह होमर कृत ‘इलियाड’ तथा ‘ओडिसी’, वर्जिल कृत ‘आइनाइड’ और दांते कृत ‘डिवाइन कॉमेडी’ की तरह संसार का एक श्रेष्ठ महाकाव्य है।
‘रामायण’ का विश्लेषित रुप ‘राम का अयन’ है जिसका अर्थ है ‘राम का यात्रा पथ’, क्योंकि अयन यात्रापथवाची है। इसकी अर्थवत्ता इस तथ्य में भी अंतर्निहित है कि यह मूलत: राम की दो विजय यात्राओं पर आधारित है जिसमें प्रथम यात्रा यदि प्रेम-संयोग, हास-परिहास तथा आनंद-उल्लास से परिपूर्ण है, तो दूसरी क्लेश, क्लांति, वियोग, व्याकुलता, विवशता और वेदना से आवृत्त। विश्व के अधिकतर विद्वान दूसरी यात्रा को ही रामकथा का मूल आधार मानते हैं। एक श्लोकी रामायण में राम वन गमन से रावण वध तक की कथा ही रुपायित हुई है।
अदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणम्।
वालि निग्रहणं समुद्र तरणं लंका पुरी दास्हम्।
पाश्चाद् रावण कुंभकर्ण हननं तद्धि रामायणम्।
जीवन के त्रासद यथार्थ को रुपायित करने वाली राम कथा में सीता का अपहरण और उनकी खोज अत्यधिक रोमांचक है। रामकथा की विदेश-यात्रा के संदर्भ में सीता की खोज-यात्रा का विशेष महत्व है। वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड के चालीस से तेतालीस अध्यायों के बीच इसका विस्तृत वर्ण हुआ है जो ‘दिग्वर्णन’ के नाम से विख्यात है। इसके अंतर्गत वानर राज बालि ने विभिन्न दिशाओं में जाने वाले दूतों को अलग-अलग दिशा निर्देश दिया जिससे एशिया के समकालीन भूगोल की जानकारी मिलती है। इस दिशा में कई महत्वपूर्ण शोध हुए है जिससे वाल्मीकी द्वारा वर्णित स्थानों को विश्व के आधुनिक मानचित्र पर पहचानने का प्रयत्न किया गया है।
कपिराज सुग्रीव ने पूर्व दिशा में जाने वाले दूतों के सात राज्यों से सुशोभित यवद्वीप (जावा), सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) तथा रुप्यक द्वीप में यत्नपूर्वक जनकसुता को तलाशने का आदेश दिया था। इसी क्रम में यह भी कहा गया था कि यव द्वीप के आगे शिशिर नामक पर्वत है जिसका शिखर स्वर्ग को स्पर्श करता है और जिसके ऊपर देवता तथा दानव निवास करते हैं।
यनिवन्तों यव द्वीपं सप्तराज्योपशोभितम्।
सुवर्ण रुप्यक द्वीपं सुवर्णाकर मंडितम्।
जवद्वीप अतिक्रम्य शिशिरो नाम पर्वत:।
दिवं स्पृशति श्रृंगं देवदानव सेवित:।१
दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास का आरंभ इसी दस्तावेती सबूत से होता है। इंडोनेशिया के बोर्नियो द्वीप में तीसरी शताब्दी को उत्तरार्ध से ही भारतीय संस्कृति की विद्यमानता के पुख्ता सबूत मिलते हैं। बोर्नियों द्वीप के एक संस्कृत शिलालेख में मूलवर्मा की प्रशस्ति उत्कीर्ण है जो इस प्रकार है-
श्रीमत: श्री नरेन्द्रस्य कुंडगस्य महात्मन:।
पुत्रोश्ववर्मा विख्यात: वंशकर्ता यथांशुमान्।।
तस्य पुत्रा महात्मान: तपोबलदमान्वित:।
तेषांत्रयानाम्प्रवर: तपोबलदमान्वित:।।
श्री मूलवम्र्मा राजन्द्रोयष्ट्वा वहुसुवर्णकम्।
तस्य यज्ञस्य यूपोयं द्विजेन्द्रस्सम्प्रकल्पित:।।२
इस शिला लेख में मूल वर्मा के पिता अश्ववर्मा तथा पितामह कुंडग का उल्लेख है। बोर्नियों में भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा के स्थापित होने में भी काफी समय लगा होगा। तात्पर्य यह कि भारतवासी मूल वर्मा के राजत्वकाल से बहुत पहले उस क्षेत्र में पहुँच गये थे।
जावा द्वीप और उसके निकटवर्ती क्षेत्र के वर्णन के बाद द्रुतगामी शोणनद तथा काले मेघ के समान दिलाई दिखाई देने वाले समुद्र का उल्लेख हुआ है जिसमें भारी गर्जना होती रहती है। इसी समुद्र के तट पर गरुड़ की निवास भूमि शल्मलीक द्वीप है जहाँ भयंकर मानदेह नामक राक्षस रहते हैं जो सुरा समुद्र के मध्यवर्ती शैल शिखरों पर लटके रहते है। सुरा समुद्र के आगे घृत और दधि के समुद्र हैं। फिर, श्वेत आभावाले क्षीर समुद्र के दर्शन होते हैं। उस समुद्र के मध्य ॠषभ नामक श्वेत पर्वत है जिसके ऊपर सुदर्शन नामक सरोवर है। क्षीर समुद्र के बाद स्वादिष्ट जलवाला एक भयावह समुद्र है जिसके बीच एक विशाल घोड़े का मुख है जिससे आग निकलती रहती है।३
‘महाभारत’ में एक कथा है कि भृगुवंशी और्व ॠषि के क्रोध से जो अग्नि ज्वाला उत्पन्न हुई, उससे संसार के विनाश की संभावना थी। ऐसी स्थिति में उन्होंने उस अग्नि को समुद्र में डाल दिया। सागर में जहाँ वह अग्नि विसर्जित हुई, घोड़े की मुखाकृति (वड़वामुख) बन गयी और उससे लपटें निकलने लगीं। इसी कारण उसका नाम वड़वानल पड़ा। आधुनिक समीक्षकों की मान्यता है कि इससे प्रशांत महासागर क्षेत्र की किसी ज्वालामुखी का संकेत मिलता है। वह स्थल मलस्क्का से फिलिप्पींस जाने वाले जलमार्ग के बीच हो सकता है।४ यथार्थ यह है कि इंडोनेशिया से फिलिप्पींस द्वीप समूहों के बीच अक्सर ज्वालामुखी के विस्फोट होते रहते हैं जिसके अनेक ऐतिहासिक प्रमाण हैं। दधि, धृत और सुरा समुद्र का संबंध श्वेत आभा वाले क्षीर सागर की तरह जल के रंगों के संकेतक प्रतीत होते हैं।
बड़वामुख से तेरह योजना उत्तर जातरुप नामक सोने का पहाड़ है जहाँ पृथ्वी को धारण करने वाले शेष नाग बैठे दिखाई पड़ते हैं। उस पर्वत के ऊपर ताड़ के चिन्हों वाला सुवर्ण ध्वज फहराता रहता है। यही ताल ध्वज पूर्व दिशा की सीमा है। उसके बाद सुवर्णमय उदय पर्वत है जिसके शिखर का नाम सौमनस है। सूर्य उत्तर से घूमकर जम्बू द्वीप की परिक्रमा करते हुए जब सैमनस पर स्थित होते हैं, तब इस क्षेत्र में स्पष्टता से उनके दर्शन होते हैं। सौमनस सूर्य के समान प्रकाशमान दृष्टिगत होते हैं। उस पर्वत के आगे का क्षेत्र अज्ञात है।५
जातरुप का अर्थ सोना होता है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि जातरुप पर्वत का संबंध प्रशांत महासागर के पार मैक्सिको के स्वर्ण-उत्पादक पर्वतों से हो सकता है। मक्षिका का अर्थ सोना होता है। मैक्सिको शब्द मक्षिका से ही विकसित माना गया है। यह भी संभव है कि मैक्सिको की उत्पत्ति सोने के खान में काम करने वाली आदिम जाति मैक्सिका से हुई है।६ मैक्सिको में एशियाई संस्कृति के प्राचीन
अवशेष मिलने से इस अवधारणा से पुष्टि होती है।
बालखिल्य ॠषियों का उल्लेख विष्णु-पुराण और रघुवंश में हुआ है जहाँ उनकी संख्या साठ हज़ार और आकृति अँगूठे से भी छोटी बतायी गयी है। कहा गया है कि वे सभी सूर्य के रथ के घोड़े हैं। इससे अनुमान किया जाता है कि यहाँ सूर्य की असंख्य किरणों का ही मानवीकरण हुआ है।७ उदय पर्वत का सौमनस नामक सुवर्णमय शिखर और प्रकाशपुंज के रुप में बालखिल्य ॠषियों के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्थल पर प्रशांत महासागर में सूर्योदय के भव्य दृश्य का ही भावमय एवं अतिरंजित चित्रण हुआ है।
वाल्मीकि रामायण में पूर्व दिशा में जाने वाले दूतों के दिशा निर्देशन की तरह दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में जाने वाले दूतों को भी मार्ग का निर्देश दिया गया है। इसी क्रम में उत्तर में ध्रुव प्रदेश, दक्षिण में लंका के दक्षिण के हिंद महासागरीय क्षेत्र और पश्चिम में अटलांटिक तक की भू-आकृतियों का काव्यमय चित्रण हुआ है जिससे समकालीन एशिया महादेश के भूगोल की जानकारी मिलती है। इस संदर्भ में उत्तर-ध्रुव प्रदेश का एक मनोरंजक चित्र उल्लेखनीय है।
बैखानस सरोवर के आगे न तो सूर्य तथा न चंद्रमा दिखाई पड़ते हैं और न नक्षत्र तथा मेघमाला ही। उस प्रदेश के बाद शैलोदा नामक नदी है जिसके तट पर वंशी की ध्वनि करने वाले कीचक नामक बाँस मिलते हैं। उन्हीं बाँसों का बेरा बनाकर लोग शैलोदा को पारकर उत्तर-कुरु जाते है जहाँ सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। उत्तर-कुरु के बाद समुद्र है जिसके मध्य भाग में सोमगिरि का सुवर्गमय शिखर दिखाई पड़ता है। वह क्षेत्र सूर्य से रहित है, फिर भी वह सोमगिरि के प्रभा से सदा प्रभावित होता रहता है।८ ऐसा मालूम पड़ता है कि यहाँ उत्तरीध्रुव प्रदेश का वर्णन हुआ है जहाँ छह महीनों तक सूर्य दिखाई नहीं पड़ता और छह महीनों तक क्षितिज के छोड़पर उसके दर्शन भी होते हैं, तो वह अल्पकाल के बाद ही आँखों से ओझल हो जाता है। ऐसी स्थिति में सूर्य की प्रभा से उद्भासित सोमगिरि के हिमशिखर निश्चय ही सुवर्णमय दीखते होंगे। अंतत: यह भी यथार्थ है कि सूर्य से रहित होने पर भी उत्तर-ध्रुव पूरी तरह अंधकारमय नहीं है।
सतु देशो विसूर्योऽपि तस्य मासा प्रकाशते।
सूर्य लक्ष्याभिविज्ञेयस्तपतेव विवास्वता।९
राम कथा की विदेश-यात्रा के संदर्भ में वाल्मीकि रामायण का दिग्वर्णन इस अर्थ में प्रासंगिक है कि कालांतर में यह कथा उन स्थलों पर पहुँच ही नहीं गयी, बल्कि फलती-फूलती भी रही। बर्मा, थाईलैंड, कंपूचिया, लाओस, वियतनाम, मलयेशिया, इंडोनेशिया, फिलिपींस, तिब्बत, चीन, जापान, मंगोलिया, तुर्किस्तान, श्रीलंका और नेपाल की प्राचीन भाषाओं में राम कथा पर आधारित बहुत सारी साहित्यिक कृतियाँ है। अनेक देशों में यह कथा शिलाचित्रों की विशाल श्रृखलाओं में मौजूद हैं। इनके शिलालेखी प्रमाण भी मिलते है। अनेक देशों में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन है। कुछ देशों में रामायण के घटना स्थलों का स्थानीकरण भी हुआ है।
रामायण के घटना स्थलों का विदेश में स्थानीकरण
भारतवासी जहाँ कहीं भी गये वहाँ की सभ्यता और संस्कृति को तो उन लोगों ने प्रभावित किया है, वहाँ के स्थानों के भी नाम बदलकर उनका भारतीयकरण कर दिया। कहा गया है कि इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप का नामकरण सुमित्रा के नाम पर हुआ था। जावा के एक मुख्य नर का नाम योग्याकार्य है। ‘योग्या’ संस्कृत के अयोध्या का विकसित रुप है और जावानी भाषा में कार्टा का अर्थ नगर होता है। इस प्रकार योग्याकार्टा का अर्थ अयोध्या नगर है। मध्य जावा की एक नदी का नाम सेरयू है और उसी क्षेत्र के निकट स्थित एक गुफा का नाम किस्केंदा अर्थात् किष्किंधा है।१ जावा के पूर्वीछोर पर अवस्थित एक शहर का नाम सेतुविंदा है जो निश्चय ही सेतुबंध का जावानी रुप है। इंडोनेशिया में रामायणीय संस्कृति से संबद्ध इस स्थानों का नामकरण कब हुआ, यह कहना कठिन है, किंतु मुसलमान बहुल इस देश का प्रतीक चिन्ह गरुड़ निश्चय ही भारतीय संस्कृति से अपने सरोकार को उजागर करता है।
शिलालेखों से झांकती राम कथा
प्रशांत महासागर के पश्चिमी तट पर स्थित आधुनिक वियतनाम का प्राचीन नाम चंपा था जहाँ ईस्वी सन् के प्रारंभिक काल से ही भारतीय संस्कृति का वर्च था। वियनाम के बोचान नामक स्थान से प्राप्त एक क्षतियस्त शिलालेख के कुछ शब्द द्रष्टव्य है, ‘लोकस्य गतागतिम्’। दूसरी या तीसरी शताब्दी में उत्कीर्ण यह उद्धरण रामायण के अयोध्या कांड के एक श्लोक का अंतिम चरण है।
क्रुद्धमाज्ञाय रामं तु वसिष्ठ: प्रत्युवाचह।
जाबालिरपि जानीते लोकस्यास्यगतागतिम्।।१
वियतनाम के त्रा-किउ नामक स्थल से प्राप्त एक शिला लेख यत्र-तत्र क्षतिग्रस्त है, किंतु इससे स्पष्ट होता है कि इसे चंपा के राजा प्रकाश धर्म (६५३-७९ई.) ने खुदवाया था इसमें आदिकवि वाल्मिकि का स्पष्ट उल्लेख है, ‘कवेराधस्य महर्षे वाल्मीकि’।२ इससे यह भी ज्ञात होता है कि प्राकाश धर्म ने उस मंदिर का पुनर्निमाण करवाया था, ‘पूजा स्थानं पुनस्तस्यकृत:’।३ तात्पर्य यह कि महर्षि वाल्मीकि का एक प्राचीन मंदिर था जिसका प्रकाश धर्म ने पुनर्निमाण करवाया।
कंपूचिया के बील कंतेल नामक स्थान से प्राप्त सम्राट भाव वर्मन का एक शिला लेख है जिसकी तिथि ५९८ई. है। इसमें अंकित विवरणों के अनुसार सोम शर्मा नामक एक ब्राह्मण को अर्क (सूर्य) सहित त्रिभुवनेश्वर की स्थापना करवाने के लिए भरपूर दक्षिणा मिली थी। इस पवित्र स्थल पर प्रतिदिन रामायण और महाभारत का पाठ होता है।
द्विजेन्दुराकृति: स्वामी सामवेदविदग्रणी:।
श्री सोम शर्मार्कयुतं स श्रीत्रिभुवनेश्वरम्।।
अतिष्ठापन्महापूजामतिपुष्कल दक्षिणाम्।
रामायण पुराणाभ्यमशेषं भारत ददात्।।
अकृवान्वमच्धेद्यां स च तद्वाचना स्थितिम्।४
कंबोज नरेश यशोवर्मन (८८९-९००ई.) के एक विस्तृत शिला लेख में एक स्थल पर कहा गया है कि जिस प्रकार आदिकवि वाल्मीकि से सुनकर राघव पुत्रों ने अपने
पिता का यश गान किया था, उसी प्रकार अन्य देशों की नारियों के मुख से सम्राट यशोवर्मन का गुणानुवाद सुना जाता है।
भूभृन्सुखोदितं यस्य यशो गायन्ति तस्रिय:
वाल्मीकिज मुखोद्गीणर्ं स्वपुत्रो राघवस्यतु।।५
हिंदचीन से हिंदेशिया की ओर अग्रसर होने पर सर्व प्रथम बोर्नियों के यूप अभिलेख पर ध्यान जाता है जिसमें मूल वर्मा की प्रशक्ति इस प्रकार उत्कीर्ण है, ‘जयति बल: श्रीमान् मूल वर्मा नृप:’। सी. शिवराम मूर्ति इस उक्ति की तुलना वाल्मीकि रामायण के निम्नलिखित श्लोक से करते है-
जयति बलो रामो लक्ष्मणश्च महाबल:
राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपलित:।६
तात्पर्य यह कि शिलालेख की उपर्युक्त पंक्ति आदिकवि की उक्ति से प्रभावित है। बोर्नियों का यह शिलालेख चौथी शताब्दी ई. का है। इसकी अंतिम पंक्ति बहुत क्षतिग्रस्त है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें मूल वर्मा की तुलना सगरकुल समुत्पन्न राजा भगीरथ से की गयी है।
सगरस्य यथा राज्ञ: समुत्पन्नो भगीरथ:।
… … … मूल वर्मा … … … … … ।।७
इन शिला लेखों की जुबानी ने तथ्य उद्घाटित होता है, उससे तो यही ज्ञात होता है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में तीसरी शताब्दी से बहुत पहले ही रामकथा का अध्ययन आरंभ हो गया था जिसके परिणाम राजरुप कालांतर में उस क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं में अनेकानेक राम कथाकाव्यों की रचना हुई। यथार्थ यह है कि यदि दक्षिण-पूर्व एशिया के शिल्प, कला और साहित्य से राम कथा को अलग कर दिया जाए, तो उस स्थिति से उत्पन्न शून्यता की भरपाई करना किसी प्रकार संभव नहीं है। फिर तो, इस खालीपन से उस क्षेत्र का आधा-अधूरा साहित्य ही बचेगा।
शिला चित्रों में रुपादित रामायण
जो कथा किसी भाषा के माध्यम से कही जाती है, उसे उस भाषा के जानने वाले ही समझ पाते हैं, किंतु जो कथा चित्रों में रुपायित होती है, उसे सब समझ सकते हैं। संभवत: इसी कारण दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक स्थलों पर शिलाचित्रों में रामकथा की अभिव्यक्ति हुई है। कई देशों में शिलाचित्र श्रृंखलाओं में रामचरित का वर्णन हुआ है। उनमें जवा के प्रम्बनान तथा पनातरान, कंपूचित्रा के अंकारेवाट और थाईलैंड के जेतुवन विहार के नाम उल्लेखनीय हैं।
जावा के हरे-भरे मनमोहक मैदान में अवस्थित प्रम्वनान का पुरावशेष चंडी सेवू के नाम से विख्यात है। इसे चंड़ी लाराजोंगरांग भी कहा जाता है। इस परिसर में २३५ मंदिर के मग्नावशेष हैं। इसके वर्गाकार आंगन के मध्य भाग में उत्तर से दक्षिण पंक्तिवद्ध तीन मंदिर हैं। बीच में शिव मंदिर है। शिव मंदिर के उत्तर ब्रह्मा तथा दक्षिण में विष्णु मंदिर हैं। शिव और ब्रह्मा मंदिर में राम कथा और विष्णु मंदिर में कृष्ण लीला के शिलाचित्र हैं। चंडी लाराजोंगरंग के मंदिरों का निर्माण दक्ष नामक राजकुमार ने नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में करवाया था।
प्रम्बनान के मंदिरों को १५४९ई. के आस-पास मेरापी ज्वालामुखी के विस्फोट में काफी क्षति पहुँची। वे सदियों तक ज्वालामुखी के लावा के नीचे दबे रहे। योग्यकार्टा के पुरातत्व विभाग द्वारा १८८५ई. में उसकी खुदाई शुरु हुई। फिर तो, उसके अवशेष को देख कर लोग अचंभित हो गये। तीन सौ वर्षों से मुसलमान बने लोग मंदिर में धूप-दीप लेकर पूजा अर्चना करने दौड़ पड़े। इस घटना का चश्मदीद गवाह फ्रांसीसी यात्री जूल ने हाजियों को भी हिंदू मंदिर में पूजा करते देखा था।१
इंडोनेशिया के पुरातत्व विभाग ने १९१९ई. में पूरे मनोयोग के साथ प्रम्बनान मंदिर परिसर स्थित विशाल शिवालय के पुनर्निमाण का कार्य पूर्ण वैज्ञानिक पद्धति से आरंभ किया। इस कार्य में अनेक यूरोपीय विद्वानों ने सक्रिय रुप से सहयोग किया। सन् १९५३ई. में यह दु:साध्य कार्य पूरा हुआ। इसे वास्तव में पुरातत्त्व अभियंत्रण का चमत्कार ही कहा जा सकता है। इसके अंदर रामायण शिलाचित्रों को यथास्थान स्थापित कर दिया गया है। जर्मन विद्वान विलेन स्टूरहाइम ने इन रामायण शिलाचित्रों का अध्ययन किया है।
प्रम्बनान के शिव मंदिर में रामकथा के ४२ और ब्रह्मा मंदिर में ३० शिला चित्र हैं। इस प्रकार ७२ शिलाचित्रों में यहाँ संपूर्ण राम कथा रुपायित हुई है।२ प्रम्बनान के शिलाचित्रों में उत्कीर्ण राम कथा में आदि कवि की रचना से अनेक स्थलों पर भिन्नता है। इनमें सीता हरण के समय रावण द्वार दानव की पीठ पर स्थापित यान से यात्रा करना, सीता द्वारा जटायु को अंगूठी देना, सेतु निर्माण के समय मछलियों द्वारा पत्थरों को निगलना, रावण के दरबार में अंगद का कान काटा जाना आदि प्रसंग वाल्मीकि रामायण में नहीं हैं। इस विशाल श्रृंखला में कुछ चित्र ऐसे भी हैं जहाँ व्याख्याकारों को उसी प्रकार अंटक जाना पड़ता है, जिस प्रकार महाभारत के लिपीकार को व्यास के दृष्टिकूटों को समझने के लिए कलम रोकनी पड़ती थी।
प्रम्बनान के शिलाचित्रों की स्थापना के चार सौ वर्ष बाद पूर्वी जावा में पनातरान के शिला शिल्प में पुन: राम कथा की अभिव्यक्ति हुई है। चंडी पनातरान ब्लीटार जिला में केतुल पर्वत के पास दक्षिण-पश्चिम की तलहटी में स्थित है। यहाँ चारों ओर से वृत्ताकार दीवार से घिरा एक शिव मंदिर है जिसका मुख्य द्वार पश्चिम की ओर है। इसका निर्माण कार्य मजपहित वंश के राजकुमार हयमबुरुक की माता जयविष्णुवर्धनी के राजत्व काल में १३४७ई. में पूरा हुआ था, किंतु इसका आरंभ किसी पूर्ववर्ती सम्राट ने ही किया था।
चंडी पनातरान में राम कथा के १०६ शिला चित्र है।३ इनमें मुख्य रुप से हनुमान के पराक्रम को प्रदर्शित किया गया है। इसका आरंभ हनुमान के लंका प्रवेश से हुआ है और कुंभकर्ण की मृत्यु के बाद यहाँ की कथा समाप्त हो जाती है। प्रम्बनान के शिलाचित्र हिंदू-जावानी शैली में उत्कीर्ण है, जबकि पनातरान का शिलाशिल्प पूरी तरह जावानी है। इनमें चित्रित वस्राभूषण तथा अस्र-शस्र के साथ पात्रों की आकृतियों पर भी जापानी शैली का प्रभाव है।
कंपूचिया स्थित अंकोरवाट मंदिर का निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय (१११२-५३ई.) के राजत्वकाल में हुआ था। इस मंदिर के गलियारे में तत्कालीन सम्राट के बल-वैमन का साथ स्वर्ग-नरक, समुद्र मंथन, देव-दानव युद्ध, महाभारत, हरिवंश तथा रामायण से संबद्ध अनेक शिलाचित्र हैं। यहाँ के शिलाचित्रों में रुपायित राम कथा बहुत संक्षिप्त है। इन शिलाचित्रों की श्रृंखला रावण वध हेतु देवताओं द्वारा की गयी आराधना से आरंभ होती है। उसके बाद सीता स्वयंवर का दृश्य है। बालकांड की इन दो प्रमुख घटनाओं की प्रस्तुति के बाद विराध एवं कबंध वध का
चित्रण हुआ है। अगले शिलाचित्र में राम धनुष-बाण लिए स्वर्ण मृग के पीछे दौड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं। इसके उपरांत सुग्रीव से राम की मैत्री का दृश्य है। फिर, वालि और सुग्रीव के द्वेंद्व युद्ध का चित्रण हुआ है। परवर्ती शिलाचित्रों में अशोक वाटिका में हनुमान की उपस्थिति, राम-रावण युद्ध, सीता की अग्नि परीक्षा और राम की अयोध्या वापसी के दृश्य हैं।४ अंकोरवाट के शिलाचित्रों में रुपायित राम कथा यद्यपि अत्यधिक विरल और संक्षिप्त है, तथापि यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसकी प्रस्तुति आदिकाव्य की कथा के अनुरुप हुई है।
राम कथा के शिलाचित्रों में थाईलैंड का भी महत्वपूर्ण स्थान है। थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक के राजभवन परिसर के दक्षिणी किनारे पर वाट-पो या जेतुवन विहार है। इसके दीक्षा कक्ष में संगमरमर के १५२ शिलापटों पर राम कथा के चित्र उत्तीर्ण हैं। जे.एम. कैडेट की पुस्तक ‘रामकियेन’ में उनके चित्र हैं और उनका अध्ययन भी किया गया है। इस ग्रंथ में उन शिलाचित्रों को नौ खंडों में विभाजित कर उनका विश्लेषण किया गया है- (१) सीता-हरण, (२) हनुमान की लंका यात्रा, (३) लंका दहन, (४) विभीषण निष्कासन, (५) छद्म सीता प्रकरण, (६) सेतु निर्माण, (७) लंका सर्वेक्षण, (९) कुंभकर्ण तथा इंद्रजीत वध और (९) अंतिम युद्ध।
दक्षिण-पूर्व एशिया के रामायण शिलाचित्रों के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत में वैष्णव और शैव विचारों का समन्वय की प्रवृत्ति मध्यकाल में विकसित होते है, जबकि इस क्षेत्र में इस परंपरा का आरंभ प्रम्बनान के शिवालय से ही हो जाता है जिसकी तिथि नौवीं शताब्दी है। इसके साथ ही यहाँ वैष्णव और शैव के साथ बौद्ध आस्था का भी समन्वय हुआ है।
मलाया स्थित लंग्या सुक अर्थात् लंका के राजकुमार ने चीन के सम्राट को ५१५ई. में दूत के माध्यम से एक पत्र भेजा था जिसमें यह लिखा गया था कि उसके देश में मूल्यवान संस्कृत की जानकारी है उसके भव्य नगर के महल और प्राचीर गंधमादन पर्वत की तरह ऊँचे है।२ मलाया के राजदरबार के पंडितों को संस्कृत का ज्ञान था, इसकी पुष्टि संस्कृत में उत्कीर्ण वहाँ के प्राचीन शिला लेखों से भी होती है। गंधमादन उस पर्वत का नाम था जिसे मेघनाद के वाण से आहत लक्ष्मण के उपचार हेतु हनुमान ने औषधि लाने के क्रम में उखाड़ कर लाया था। मलाया स्थित लंका की भौगोलिक स्थिति के संबंध में क्रोम नामक डच विद्वान का मत है कि यह राज्य सुमत्रा द्वीप में था, किंतु ह्मिवटले ने प्रमाणित किया है कि यह मलाया प्राय द्वीप में ही था।३
बर्मा का पोपा पर्वत ओषधियों के लिए विख्यात है। वहाँ के निवासियों को यह विश्वास है कि लक्ष्मण के उपचार हेतु पोपा पर्वत के ही एक भाग को हनुमान उखाड़कर ले गये थे। वे लोग उस पर्वत के मध्यवर्ती खाली स्थान को दिखाकर पर्यटकों को यह बताते हैं कि पर्वत के उसी भाग को हनुमान उखाड़ कर लंका ले गये थे। वापसी यात्रा में उनका संतुलन बिगड़ गया और वे पहाड़ के साथ जमीन पर गिर गये जिससे एक बहुत बड़ी झील बन गयी। इनवोंग नाम से विख्यात यह झील बर्मा के योमेथिन जिला में है।४ बर्मा के लोकाख्यान से इतना तो स्पष्ट होता ही है कि
वहाँ के लोग प्राचीन काल से ही रामायण से परिचित थे और उन लोगों ने उससे अपने को जोड़ने का भी प्रयत्न किया।
थाईलैंड का प्राचीन नाम स्याम था और द्वारावती (द्वारिका) उसका एक प्राचीन नगर था। थाई सम्राट रामातिबोदी ने १३५०ई. में अपनी राजधानी का नाम अयुध्या (अयोध्या) रखा जहाँ ३३ राजाओं ने राज किया। ७ अप्रैल १७६७ई. को बर्मा के आक्रमण से उसका पतन हो गया। अयोध्या का भग्नावशेष थाईलैंड का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर है। अयोध्या के पतन के बाद थाई नरेश दक्षिण के सेनापति चाओ-फ्रा-चक्री को नागरिकों ने १७८५ई. में अपना राजा घोषित किया। उसका अभिषेक राम प्रथम के नाम से हुआ। राम प्रथम ने बैंकॉक में अपनी राजधानी की स्थापना की। राम प्रथम के बाद चक्री वंश के सभी राजाओं द्वारा अभिषेक के समय राम की उपाधि धारण की जाती है। वर्तमान थाई सम्राट राम नवम हैं।
थाईलैंड में लौपबुरी (लवपुरी) नामक एक प्रांत है। इसके अंतर्गत वांग-प्र नामक स्थान के निकट फाली (वालि) नामक एक गुफा है। कहा जाता है कि वालि ने इसी गुफा में थोरफी नामक महिष का वध किया था।५ यहाँ यह उल्लेखनीय है कि थाई रामायण रामकियेन में दुंदुभि दानव की कथा में थोड़ा परिवर्तन हुआ है। इसमें दुंदुभि राक्षस के स्थान पर थोरफी नामक एक महाशक्तिशाली महिष है जिसका वालि द्वारा वध होता है। वालि नामक गुफा से प्रवाहित होने वाली जलधारा का नाम सुग्रीव है। थाईलैंड के ही नखोन-रचसीमा प्रांत के पाक-थांग-चाई के निकट थोरफी पर्वत है जहाँ से वालि ने थोरफी के मृत शरीर को उठाकर २००कि.मी. दूर लौपबुरी फेंक दिया था।६ सुखो थाई के निकट संपत नदी के पास फ्राराम गुफा है। उसके पास ही सीता नामक गुफा भी है।७
दक्षिणी थाईलैंड और मलयेशिया के रामलीला कलाकारों को ऐसा विश्वास है कि रामायण के पात्र मूलत: दक्षिण-पूर्व एशिया के निवासी थे और रामायण की सारी घटनाएँ इसी क्षेत्र में घटी थी। वे मलाया के उत्तर-पश्चिम स्थित एक छोटे द्वीप को लंका मानते हैं। इसी प्रकार उनका विश्वास है कि दक्षिणी थाईलैंड के सिंग्गोरा नामक स्थान पर सीता का स्वयंवर रचाया गया था जहाँ राम ने एक ही बाण से सात ताल वृक्षों को बेधा था। सिंग्गोरा में आज भी सात ताल वृक्ष हैं।८ जिस प्रकार भारत और नेपाल के लोग जनकपुर को निकट स्थित एक प्राचीन शिलाखंड को राम द्वारा तोड़े गये धनुष का टुकड़ा मानते हैं, उसी प्रकार थाईलैंड और मलेशिया के लोगों को भी
विश्वास है कि राम ने उन्हीं ताल वृक्षों को बेध कर सीता को प्राप्त किया था।
वियतनाम का प्राचीन नाम चंपा है। थाई वासियों की तरह वहाँ के लोग भी अपने देश को राम की लीलभूमि मानते है। उनकी मान्यता की पुष्टि सातवीं शताब्दी के एक शिलालेख से होती है जिसमें आदिकवि वाल्मीकि के मंदिर का उल्लेख हुआ है जिसका पुनर्निमाण प्रकाश धर्म नामक सम्राट ने करवाया था।९ प्रकाशधर्म (६५३-६७९ई.) का यह शिलालेख अनूठा है, क्योंकि आदिकवि की जन्मभूमि भारत में भी उनके किसी प्राचीन मंदिर का अवशेष उपलब्ध नहीं है।
भारतवासी जहाँ कही भी गये भौतिक साधनों के अतिरिक्त आस्था के संबल भी साथ ले गये। भौतिक संसाधनों का तो कालांतर में विनाश हो गया, किंतु उनके विश्वास का वृक्ष स्थानीय परिवेश में फलता-फूलता रहा। प्राकृतिक कारणों से उनकी आकृति और प्रकृति में संशोधन और परिवर्तन अवश्य हुआ, किंतु उन्होंने शिला खंडों पर खोद कर जो उनका इतिहास छोड़ा था, वह आज भी उनकी कहानी कर रही है।
भित्तियो पर उरेही गयी
रामचरित-चित्रावली
भाव संप्रेषण के क्षेत्र में चित्रकला की भूमिका चित्राकर्षक होती है। दक्षिण-पूर्व एशिया में रेखा और रंगों को माध्यम से रामकथा के अनेकवर्णी चित्रों को उरेहा गया है। इनका रुप निराला है। इन रामचरित-चित्रावलियों की विशिष्टता यह है कि इनका चित्रण अपने-अपने देश की रामायण के आधार पर हुआ है और विचित्रता यह है कि इन्हें बौद्ध धर्मावलंबी सम्राटों के राजभवनों और विहारों में संरक्षण मिला है। लाओस, कंपूचिया और थाईलैंड के राजभवनों तथा बौद्ध विहारों की भित्तियों पर उरेही गयी रामकथा चित्रावली उसी प्रकार संरक्षित हैं, जिस प्रकार माता की गोद में बच्चे निर्भय और निर्जिंश्चत होते हैं।
लाओस के लुआ प्रवा तथा विएनतियान के राजप्रसाद में थाई रामायण ‘रामकियेन’ और लाओ रामायण फ्रलक-फ्रलाम की कथाएँ अंकित हैं।१ इनके अतिरिक्त लाओस के कई बौद्ध विहारों में भी राम कथा के चित्र उरेहे गये हैं। लाओस का उपमु बौद्ध विहार राम कथा-चित्रों के लिए विख्यात है। विहार के लगभग बीस मीटर लंबी और सवा पाँच मीटर ऊँची दीवार पर वहाँ की रामायण ‘फ्रलक-फ्रलाम’ अर्थात् ‘प्रिय लक्ष्मण प्रियराम’ की कथा क्षेत्रीय पृष्ठभूमि में रुपायित है।२ ‘फ्रलक-फ्रलाम’ राम जातक के नाम से भी विख्यात है।
उपमुंग विहार की चित्रावली में राम कथा का आरंभ लाओ रामायण के अनुसार रावण के जन्म से हुआ है और लंका युद्ध के बाद राम की अयोध्या वापसी तक की कथा का संक्षेप में निर्वाह भी हुआ है, किंतु इसमें कुछ प्रसंग अन्यत्र से भी संकलित हैं। यह चित्रावली लाओस लोक कला का उत्कृष्ट नमूना है। इसकी पृष्ठभूमि में चित्रित प्रकृति और परिवेश मनमोहक हैं।
लाओस के वाट पऽकेऽ में भी राम कथा के चित्र हैं। लुआ प्रवा के निकट एक छोटी पहाड़ी के ऊपर यह विहार स्थित है। इसका निर्माण १८०३ई. में हुआ था और उसी समय एक चित्रकार के द्वारा उसकी भित्तियों पर राम कथा के चित्र उरेहे गये थे।३ इस चित्रावली में राम कथा का आरंभ सिउहान (विद्युज्जिह्मवा) प्रकरण से हुआ है। वह अपनी जिह्मवा से लंका को ठंक कर उसकी रक्षा कर रहा है।
वाट पऽकेऽ में रुपायित भित्ति चित्रों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम खंड में रावण के जन्म से बालि वध तक की कथा का चित्रण हुआ है। दूसरे खंड में दशरथ के स्वर्गवास के बाद भरत के अयोध्या आगमन से किष्किंधा की गुफा तक की कथा रुपायित हुई है। अंतिम खंड में दो चित्र हैं। प्रथम चित्र में दशरथ के स्वर्गारोहण के बाद भरत के अयोध्या लौटने का दृश्य है और दूसरे चित्र में राम, लक्ष्मण और सीता को नाव में बैठ कर गंगा पार करते हुए दिखाया गया है। इस चित्रावली में घटनाओं की क्रमवद्धता का अभाव है। इसमें कुछ घटनाओं की पुनरावृत्ति हुई है, तो कुछ अछूती ही रह गयी हैं।
थाईलैंड के राज भवन परिसर स्थित वाटफ्रकायों (सरकत बुद्ध मंदिर) की भित्तियों पर संपूर्ण थाई रामायण ‘रामकियेन’ को चित्रित किया गया है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि इन चित्रों का निर्माण ‘रामकियेन’ की रचना के बाद १७९८ई. में हुआ था। थाई सम्राट चूला लौंग तथा उनके साहित्यमंडल के मित्रों ने मिलकर इन भित्तिचित्रों में रुपादित रामकथा को काव्यबद्ध किया था। उन पद्यों को शिलापट पर उत्कीर्ण करवाकर उन्हें यथास्थान भित्तिचित्रों के सामने स्तंभों में जड़वा दिया गया।४ इससे स्पष्ट होता है कि थाईवासी अपनी इस सांस्कृतिक विरासत के प्रति कितने संवेदनशील है। मरकत (emrald
) बुद्ध मंदिर में रामकथा के १७८ चित्र हैं जिनमें सीता के जन्म से रामराज्याभिषेक तक की कथा के साथ जानकी के निर्वासन से उनकी अयोध्या वापसी तक के संपूर्ण वृत्तांत का चित्रण हुआ है।
कंपूचिया के राजभवन की भित्तियों, सिंहासन कक्ष की छत और राजकीय बौद्ध विहार में रामायण के दृश्यों के रंगीन चित्र हैं। किंतु, वहाँ की स्थिति यह है कि चित्रकारों के अभाव में थाई कलाकारों द्वारा उन चित्रों का उद्धार करवाया गया है। कंपूचिया के अतिरिक्त इंडोनेशिया के बाली द्वीप में रामकथा के चित्र मिलते हैं। वहाँ सीता की अग्नि परीक्षा का चित्र बहुत लोकप्रिय है। हिंदू बहुल बाली द्वीप दक्षिण-पूर्व एशिया का जीता-जागता भारत है।
रामलीला: कितने रंग, कितने रुप
दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में कुछ ऐसे प्रमाण मिलते है जिससे ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का प्रचलन था। जवा के सम्राट वलितुंग के एक शिलालेख में एक समारोह का विवरण है जिसके अनुसार सिजालुक ने उपर्युक्त अवसर पर नृत्य और गीत के साथ रामायण का मनोरंजक प्रदर्शन किया था।१ इस शिलालेख की तिथि ९०७ई. है। थाई नरेश बोरमत्रयी (ब्रह्मत्रयी) लोकनाथ की राजभवन नियमावली में रामलीला का उल्लेख है जिसकी तिथि १४५८ई. है।२ बर्मा के राजा ने १७६७ई. में स्याम (थाईलैड) पर आक्रमण किया था। युद्ध में स्याम पराजित हो गया। विजेता सम्राट अन्य बहुमूल्य सामग्रियों के साथ रामलीला कलाकारों को भी बर्मा ले गया।३ बर्मा कि राजभवन में थाई कलाकारों द्वारा रामलीला का प्रदर्शन होने लगा। माइकेल साइमंस ने बर्मा के राजभवन में राम नाटक १७९५ई. में देखा था।४
आग्नेय एशिया के विभिन्न देशों में रामलीला के अनेक नाम और रुप हैं। उन्हें प्रधानत: दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- मुखौटा रामलीला और छाया रामलीला। मुखोटा रामलीला के अंतर्गत इंडोनेशिया और मलेशिया के ‘लाखोन’, कंपूचिया के ‘ल्खोनखोल’ तथा बर्मा के ‘यामप्वे’ का प्रमुख स्थान है। इंडोनेशिया और मलयेशिया में ‘लाखोन’ के माध्यम से रामायण के अनेक प्रसंगो को मंचित किया जाता है।
कंपूचिया में रामलीला का अभिनय ल्खोनखोल के माध्यम के होता है। ‘ल्खोन’ इंडोनेशाई मूल का शब्द है जिसका अर्थ नाटक है। कंपूचिया की भाषा खमेर में खोल का अर्थ बंदर होता है। इसलिए ‘ल्खोनखोल’ को बंदरों का नाटक या हास्य नाटक कहा जा सकता है। ‘ल्खोनखोल’ वस्तुत: एक प्रकार का नृत्य नाटक है जिसमें कलाकार विभिन्न प्रकार के मुखौटे लगाकर अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। इसके अभिनय में मुख्य रुप से ग्राम्य परिवेश के लोगो की भागीदारी होता है। कंपूचिया के राजभवन में रामायण के प्रमुख प्रसंगों का अभिनय होता था।
मुखौटा नाटक के माध्यम से प्रदर्शित की जाने वाली रामलीला को थाईलैंड में ‘खौन’ कहा जाता है। इसमें संवाद के अतिरिक्त नृत्य, गीत एवं हाव-भाव प्रदर्शन की प्रधानता होती है। ‘खौन’ का नृत्य बहुत कठिन और समय साध्य है। इसमें गीत और संवाद का प्रसारण पर्दे के पीछे से होता है। केवल विदूषक अपना संवाद स्वयं बोलता है। मुखौटा केवल दानव और बंदर-भालू की भूमिका निभानेवाले अभिनेता ही लगाते हैं। देवता और मानव पात्र मुखौटे धारण नहीं करते।
बर्मा की मुखौटा रामलीला को यामप्वे कहा जाता है। बर्मा की रामलीला स्याम से आयी थी। इसलिए इसके गीत, वाद्य और नृत्य पर स्यामी प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता, किंतु वास्तविकता यह है कि बर्मा आने के बाद यह स्याम की रामलीला नहीं रह गयी, बल्कि यह पूरी तरह बर्मा के रंग डूब गयी। बर्मा के लोग हास्यरस के प्रेमी होते हैं। इसलिए यामप्वे में विदूषक की प्रधानता होती है। ऐसी स्थिति बहुत कम होती है, जब विदूषक रंगमंच पर उपस्थित न हो। रामलीला आरंभ होने के पूर्व एक-दो घंटे तक हास-परिहास और नृत्य-गीत का कार्यक्रम चलता रहता है।
विविधता और विचित्रता के कारण छाया नाटक के माध्यम से प्रदर्शित की जाने वाली रामलीला मुखौटा रामलीला से भी निराली है। इसमें जावा तथा मलेशिया के ‘वेयांग’ और थाईलैंड के ‘नंग’ का विशिष्ट स्थान है। जापानी भाषा में ‘वेयांग’ का अर्थ छाया है। इसलिए यह अंग्रेजी में ‘शैडोप्ले’ और हिंदी में ‘छाया नाटक’ के नाम से विख्यात है। इसके अंतर्गत सफ़ेद पर्दे को प्रकाशित किया जाता है और उसके सामने चमड़े की पुतलियों को इस प्रकार नचाया जाता है कि उसकी छाया पर्दे पर पड़े। छाया नाटक के माध्यम से रामलीला का प्रदर्शन पहले तिब्बत और मंगोलिया में भी होता था।
थाईलैंड में छाया-रामलीला को ‘नंग’ कहा जाता है। नंग के दो रुप है- ‘नंगयाई’ और ‘नंगतुलुंग’। नंग का अर्थ चर्म या चमड़ा और याई का अर्थ बड़ा है। ‘नंगयाई’ का तात्पर्य चमड़े की बड़ी पुतलियों से है। इसका आकार एक से दो मीटर लंबा होता है। इसमें दो डंडे लगे होते हैं। नट दोनों हाथों से डंडे को पकड़कर पुतलियों के ऊपर उठाकर नचाता है। इसका प्रचलन अब लगभग समाप्त हो गया है।
‘नंग तुलुंग’ दक्षिणि थाईलैंड में मनोरंजन का लोकप्रिय साधन है। इसकी चर्म पुतलियाँ नंगयाई की अपेक्षा बहुत छोटी होती हैं। नंग तुलुंग के माध्यम से मुख्य रुप से थाई रामायण रामकियेन का प्रदर्शन होता है। थाईलैंड के ‘नंग तुलुंग’ और जावा तथा मलेशिया के ‘वेयांग कुलित’ में बहुत समानता है। वेयांग कुलित को वेयंग पूर्वा अथवा वेयांग जाव भी कहा जाता है। यथार्थ यह है कि थाईलैंड, मलयेशिया और इंडोनेशिया में विभिन्न नामों से इसका प्रदर्शन होता है।
वेयांग प्रदर्शित करने वाले मुख्य कलाकार को ‘दालांग’ कहा जाता है। वह नाटक का केंद्र विंदु होता है। वह बाजे की ध्वनि पर पुतलियों को नचाता है। इसके अतिरिक्त वह गाता भी है। वह आवाज़ बदल-बदल कर बारी-बारी से विभिन्न पात्रों के संवादों को भी बोलता है, किंतु जब पुतलियाँ बोलती रहती हैं, बाजे बंद रहते हैं। वेयांग में दालांग के अतिरिक्त सामान्यत: बारह व्यक्ति होते हैं, किंतु व्यवहार में इनकी संख्या नौ या दस होती है।
‘वेयांग’ में सामान्यत: १४८ पुतलियाँ होती हैं जिनमें सेमार का स्थान सर्वोच्च है। सेमार ईश्वर का प्रतीक है और उसी की तरह अपरिभाषित और वर्णनातीत भी। उसकी गोल आकृति इस तथ्य का सूचक है कि उसका न आदि है और न अंत। उसके नारी की तरह स्तन और पुरुष की तरह मूँछ हैं।५ इस प्रकार वह अर्द्धनारीश्वर का प्रतीक है। जावा में सेमार को शिव का बड़ा भाई माना जाता है। वह कभी कायान्गन (स्वर्ग लोक) में निवास करता था, जहाँ उसका नाम ईसमय था।६ वेयांग का संबंध केवल मनोरंजन से ही नहीं, प्रत्युत आध्यात्मिक साधना से भी है।
रामकथा का विदेश भ्रमण
आदिकवि वाल्मीकि कृत रामायण के दिग्वर्णन में जिन स्थानों का उल्लेख हुआ है, कालांतर में वहाँ के साहित्य और संस्कृति पर रामकथा का वर्च स्थापित हो गया। रामकथा साहित्य के विदेश गमन की तिथि और दिशा निर्धारित करना अत्यधिक दु:साध्य कार्य है, फिर भी दिक्षिण-पूर्व एशिया के शिलालेखों से तिथि की समस्या का निराकरण बहुत हद तक हो जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में ही रामायण वहाँ पहुँच गयी थी। अन्य साक्ष्यों से यह भी ज्ञात होता है कि रामकथा की प्रारंभिक धारा सर्वप्रथम दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर प्रवाहित हुई।१
दक्षिण-पूर्व एशिया की सबसे प्राचीन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति प्राचीन जावानी भाषा में विरचित रामायण का काबीन है जिसकी तिथि नौवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। इसके रचनाकार महाकवि योगीश्वर हैं। पंद्रहवी शताब्दी में इंडोनेशिया के इस्लामीकरण बावजूद वहाँ जवानी भाषा में सेरतराम, सेरत कांड, राम केलिंग आदि अनेक रामकथा काव्यों की रचना हुई जिनके आधार पर अनेक विद्वानों द्वारा वहाँ के राम साहित्य का विस्तृत अध्ययन किया गया है।
इंडोनेशिया के बाद हिंद-चीन भारतीय संस्कृति का गढ़ माना जाता है। इस क्षेत्र में पहली से पंद्रहवीं शताब्दी तक भारतीय संस्कृति का वर्च रहा। यह सर्वथा आश्चर्य का विषय है कि कंपूचिया के अनेक शिलालेखों में रामकथा की चर्चा हुई है, किंतु वहाँ उस पर आधारित मात्र एक कृति रामकेर्ति उपलब्ध है, वह भी खंडित रुप में। उससे भी अधिक आश्चर्य का विषय यह हे कि चंपा (वर्तमान वियतनाम) के एक प्राचीन शिलालेख में वाल्मीकि के मंदिर का उल्लेख है, किंतु वहाँ रामकथा के नाम पर मात्र लोक कथाएँ ही उपलब्ध हैं।
लाओस के निवासी स्वयं को भारतवंशी मानते हैं। उनका कहना हे कि कलिंग युद्ध के बाद उनके पूर्वज इस क्षेत्र में आकर बस गये थे। लाओस की संस्कृति पर भारतीयता की गहरी छाप है। यहाँ रामकथा पर आधारित चार रचनाएँ उपलब्ध है- फ्रलक फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, ब्रह्मचक्र और लंका नोई। लाओस की रामकथा का अध्ययन कई विद्वानों ने किया है।
थाईलैंड का रामकथा साहित्य बहुत समृद्ध है। रामकथा पर आधारित निम्नांकित प्रमुख रचनाएँ वहाँ उपलब्ध हैं- (१) तासकिन रामायण, (२) सम्राट राम प्रथम की रामायण, (३) सम्राट राम द्वितीय की रामायण, (४) सम्राट राम चतुर्थ की रामायण (पद्यात्मक), (५) सम्राट रामचतुर्थ की रामायण (संवादात्मक), (६) सम्राट राम षष्ठ की रामायण (गीति-संवादात्मक)। आधुनिक खोजों के अनुसार बर्मा में रामकथा साहित्य की १६ रचनाओं का पता चला है जिनमें रामवत्थु प्राचीनतम कृति है।
मलयेशिया में रामकथा से संबद्ध चार रचनाएँ उपलब्ध है- (१) हिकायत सेरी राम, (२) सेरी राम, (३) पातानी रामकथा और (४) हिकायत महाराज रावण। फिलिपींस की रचना महालादिया लावन का स्वरुप रामकथा से बहुत मिलता-जुलता है, किंतु इसका कथ्य बिल्कुल विकृत है।
चीन में रामकथा बौद्ध जातकों के माध्यम से पहुँची थीं। वहाँ अनामक जातक और दशरथ कथानम का क्रमश: तीसरी और पाँचवीं शताब्दी में अनुवाद किया गया था। दोनों रचनाओं के चीनी अनुवाद तो उपलब्ध हैं, किंतु जिन रचनाओं का चीनी अनुवाद किया गया था, वे अनुपलब्ध हैं। तिब्बती रामायण की छह पांडुलिपियाँ तुन-हुआन नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त वहाँ राम कथा पर आधारित दमर-स्टोन तथा संघ श्री विरचित दो अन्य रचनाएँ भी हैं।
एशिया के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को खोतान कहा जाता है। इस क्षेत्र की भाषा खोतानी है। खोतानी रामायण की प्रति पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से प्राप्त हुई है। इस पर तिब्बत्ती रामायण का प्रभाव परिलक्षित होता है। चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया में राम कथा पर आधारित जीवक जातक नामक रचना है। इसके अतिरिक्त वहाँ तीन अन्य रचनाएँ भी हैं जिनमें रामचरित का विवरण मिलता है। जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह होबुत्सुशु में संक्षिप्त रामकथा संकलित है। इसके अतिरिक्त वहाँ अंधमुनिपुत्रवध की कथा भी है। श्री लंका में कुमार दास के द्वारा संस्कृत में जान की हरण की रचना हुई थी। वहाँ सिंहली भाषा में भी एक रचना है, मलयराजकथाव। नेपाल में रामकथा पर आधारित अनेकानेक रचनाएँ जिनमें भानुभक्तकृत रामायण सर्वाधिक लोकप्रिय है।
इंडोनेशिया की रामकथा: रामायण का कावीन
इंडोनेशिया के नब्बे प्रतिशत निवासी मुसलमान हैं, फिर भी उनकी संस्कृति पर रामायण की गहरी छाप है। फादर कामिल बुल्के १९८२ई. में लिखते हैं, ‘पैंतीस वर्ष पहले मेरे एक मित्र ने जावा के किसी गाँव में एक मुस्लिम शिक्षक को रामायण पढ़ते देखकर पूछा था कि आप रामायण क्यों पढ़ते है? उत्तर मिला, ‘मैं और अच्छा मनुष्य बनने के लिए रामायण पढ़ता हूँ।’१
रामकथा पर आधारित जावा की प्राचीनतम कृति ‘रामायण काकावीन’ है। यह नौवीं शताब्दी की रचना है। परंपरानुसार इसके रचनाकार योगीश्वर हैं। यहाँ की एक प्राचीन रचना ‘उत्तरकांड’ है जिसकी रचना गद्य में हुई है। चरित रामायण अथवा कवि जानकी में रामायण के प्रथम छह कांडों की कथा के साथ व्याकरण के उदाहरण भी दिये गये हैं।२ बाली द्वीप के संस्कृत साहित्य में अनुष्ठभ छंद में ५० श्लोकों की संक्षिप्त रामकथा है। रामकथा पर आधारित परवर्ती रचनाओं में ‘सेरतकांड’, ‘रामकेलिंग’ और ‘सेरी राम’ का नाम उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त ग्यारहवीं शताब्दी की रचना ‘सुमनसांतक’ में इंदुमती का जन्म, अज का विवाह और दशरथ की जन्मकथा का वर्णन हुआ है। चौदहवीं शताब्दी की रचना अर्जुन विजय की कथावस्तु का आधार अर्जुन सहस्त्रवाहु द्वारा रावण की पराजय है।
रामायण काकावीन की रचना कावी भाषा में हुई है। यह जावा की प्राचीन शास्रीय भाषा है। काकावीन का अर्थ महाकाव्य है। कावी भाषा में कई महाकाव्यों का सृजन हुआ है।उनमें रामायण काकावीन का स्थान सर्वोपरि है। रामायण का कावीन छब्बीस अध्यायों में विभक्त एक विशाल ग्रंथ है, जिसमें महाराज दशरथ को विश्वरंजन की संज्ञा से विभूषित किया गया है और उन्हें शैव मतावलंबी कहा गया है। इस रचना का आरंभ राम जन्म से होता है। विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण के प्रस्थान के समय अष्टनेम ॠषि उनकी मंगल कामना करते हैं और दशरथ के राज प्रसाद में हिंदेशिया का वाद्य यंत्र गामलान बजने लगता है।
द्वितीय अध्याय का आरंभ बसंत वर्णन से हुआ है। यहाँ भी इंडोनेशायाई परिवेश दर्शनीय है। तुंजुंग के फूल खिले हुए हैं। सूर्य की किरणें सरोवर के जल पर बिखरी हुई हैं। उसका सिंदूरी वर्ण लाल-लाल लक्षा की तरहा सुशोभित है। लगता है मानो सूर्य की किरणे पिघल-पिघल कर स्वच्छ सरोवर के जल में परिवर्तित हो गयी है।१
विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण के यात्रा-क्रम में हिंदेशिया की प्रकृति का भव्य चित्रण हुआ है।
विश्वामित्र आश्रम में दोनों राजकुमारों को अस्र-शस्र एवं ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाती है और ताड़का वध के बाद विष्णु का अवतार मान कर उनकी वंदना की जाती है।इस महाकाव्य में मिथिला गमन, धनुभर्ंग और विवाह का वर्णन अत्यंत संक्षिप्त है। तीनों प्रसंगों का वर्णन मात्र तेरह पदों में हुआ है। इसके अनुसार देवी सीता का जिस समय जन्म हुआ था, उस समय पहले से ही उनके हाथ में एक धनुष था। वह भगवान शिव का धनुष था और उसी से त्रिपुर राक्षस का संहार हुआ था।
रामायण काकावीन में परशुराम का आगमन विवाह के बाद अयोध्या लौटने के समय वन प्रदेश में होता है। उनका शरीर ताल वृक्ष के समान लंबा है। वे धनुभर्ंग की चर्चा किये बिना उन्हें अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए ललकारते हैं, किंतु राम के प्रभाव से वे परास्त होकर लौट जाते हैं। इस महाकाव्य में श्री राम के अतिरिक्त उनके अनेय किसी भाई के विवाह की चर्चा नहीं हुई है।
अयोध्याकांड की घटनाओं की गति इस रचना में बहुत तीव्र है। राम राज्यभिषेक की तैयारी, कैकेयी कोप, राम वनवास, राजा दशरथ की मृत्यु और भरत के अयोध्या आगमन की घटनाएँ यहाँ पलक झपकते ही समाप्त हो जाती हैं। अयोध्या लौटने पर जब भरत को जानकारी मिलती है कि उनकी माता कैकेयी के कारण भीषण परिस्थिति उत्पन्न हुई, तब वे उस पर कुपित होते है। फिर, वे नागरिकों और गुरुजनों को बुलाकर चंद्रोदय के पूर्व पिता का श्राद्ध करने के उपरांत सदल-बल श्री राम की खोज में वन-प्रस्थान करते हैं।
मार्ग में गंगा-यमुना के संगम पर भारद्वाज आश्रम में उनका भव्य स्वागत होता है। दूसरे दिन एक पवित्र सरोवर मिलता है जिनका नाम मंदाकिनी है। उसी स्थल पर उन्हें एक नग्न तपस्वी से भेंट होती है जिनसे उन्हें श्रीराम के निवास स्थान की पूरी जानकारी मिलती है। यात्रा के अंतिम चरण में उनकी भेंट राम, लक्ष्मण और सीता से होती है। अयोध्याकांड की घटनाओं के बीच मंथरा और निषाद राज की अनुपस्थिति निश्चय ही बहुत खटकती है।
अयोध्या लौटने के पूर्व श्रीराम भरत को अपनी चरण पादुका देते हैं और उन्हें
शासन संचालन और लोक कल्याण से संबद्ध विधि-निषेधपूर्ण लंबा उपदेश देते हैं। वह किसी भी देश अथवा कान के लिए प्रासंगिक है। श्रीराम के उपदेश का सारांश यह है कि राजा की योग्यता और शक्ति की गरिमा प्रजा के कष्टों का निवारण कर उनका प्रेमपूर्वक पालन करने में निहित है।
भरत की अयोध्या वापसी के बाद श्रीराम कुछ समय महर्षि अत्रि के सत्संग में बिता कर दंडक वन की ओर प्रस्थान करते हैं। मार्ग में विराध वध के बाद महर्षि सरभंग से उनकी भेंट होती है। वे योगबल से अपने शरीर को भ कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। उन्हीं के परामर्श से वे सुतीक्ष्ण के आश्रम के निकट पर्णकुटी बना कर रहने लगते हैं और तपस्वियों की रक्षा में संलग्न रहते हैं।
रामायण का कावीन में शूपंणखा प्रकरण से सीता हरण तक की घटनाओं का वर्णन वाल्मीकीय परंपरा के अनुसार हुआ है। ॠष्यसूक पर्वत की ओर जाने के क्रम में श्रीराम की भेंट तपस्विनी शबरी से होती है। उसने पेड़ की छाल से अपने शरीर को ढक रखा है। उसका रंग काला है। वह श्रीराम को मधु और फल खाने के लिए देती है। वह कहती है कि रुद्रदेव ने जब उसको शाप दिया था, उस समय वे लिंग रुप में थे। विष्णु उस समय मधुपायी की अवस्था में थे। उन्होंने बाराह रुप धारण किया हुआ था। उसके बाद उन्होंने देवी पृथ्वी से विवाह कर लिया। फिर वे बाराह रुप में प्रकट हुए और एक पर्वत पर जाकर मोतियों की माला खाने लगे। तदुपरांत उस बाराह की मृत्यु हो गयी। उसके मृत शरीर को हम लोगों ने खा लिया। इसी कारण हम सबका शरीर नीलवर्ण का हो गया।१ श्रीराम के स्पर्श से वह शाप मुक्त हो गयी। सीता की प्राप्ति हेतु वह उन्हें सुग्रीव से मित्रता करने की सलाह देकर लुप्त हो गयी।
सुग्रीव मिलन और बालिवध की घटनाओं का वर्णन वाल्मीकीय परंपरा के अनुसार हुआ है। सातवें अध्याय में वर्षा ॠतु का विषद वर्णन हुआ है जिसपर स्थानीय परिवेश का प्रभाव स्पष्ट रुप से परिलक्षित होता है। श्वेत वर्ण के कूनतूल पक्षी धान के खेतों में वापस लौट आये हैं। खद्योतों की चमक मशाल की तरह प्रकाश विखेरती नज़र आती है। चूचूर पक्षी का स्वर वेदना को जागृत करता है। यही स्थिति वेयो पक्षी की है। वर्षा वर्णन के उपरांत शरद ॠतु का चित्रण हुआ है।
सीतान्वेषण और राम-रावण युद्ध का इस महाकाव्य में बहुत विस्तृत वर्णन हुआ है। रावण वध और विभीषण के राज्याभिषेक के बाद श्रीराम ‘मेघदूत’ के यक्ष की तरह हनुमान से काले-काले बादलों को भेदकर आकाश मार्ग से अयोध्या जाने का आग्रह करते हैं। वे कहते हैं कि समुद्र पार करने पर उन्हें महेंद्र पर्वत के दर्शन होंगे। उत्तर दिशा की ओर जाते हुए वे मलयगिरि का अवलोकन करेंगे। उसका सौंदर्य मनोहारी एवं चित्ताकर्षक होगा उसके निकट ही उत्तर दिशा में विंध्याचल है। वहाँ किष्किंधा पर्वतमाला का सौंदर्य दर्शनीय है। मार्ग में सघन और भयानक दंडक वन मिलेगा जिसमें लक्ष्मण के साथ उन्होंने प्रवेश किया था। घने वृक्ष की शाखाओं में लक्ष्मण की गर्दन बार-बार उलझ जाती थी। इसी प्रकार चित्रकूट से अयोध्या तक के सारे घटना स्थलों तथा नदियों का विस्तृत वर्णन हुआ है। यक्ष की तरह वे माता कौशल्या और भरत से लंका विजय के साथ अपने आगमन का संदेश देने के लिए कहते हैं।
राम राज्योभिषेक के बाद महाकवि रामकथा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हैं। उनकी मान्यता है कि राम चरित्र जीवन की संपूर्णता का प्रतीक है। राम के महान आदर्श का अनुकरण जनजीवन में हो, इसी उद्देश्य से इस महाकाव्य की रचना की गयी है। राम के जनानुराग की चरण धूलि के रुप में यह कथा संसार की महानतम पवित्र कथाओं में एक है।१ इस रचना के अंत में महाकवि योगीश्वर अपनी विनम्रता का परिचय देते हुए उत्तम विचार वाले सभी विद्वानों से क्षमा याचना करते हैं।
कंपूचिया की राम कथा: रामकेर्ति
कंपूचिया की राजधानी फ्नाम-पेंह में एक बौद्ध संस्थान है जहाँ ख्मेर लिपि में दो हजार ताल पत्रों पर लिपिबद्ध पांडुलिपियाँ संकलित हैं। इस संकलन में कंपूचिया की रामायण की प्रति भी है। फ्नाम-पेंह बौद्ध संस्थान के तत्कालीन निदेशक एस. कार्पेल्स द्वारा रामकेर्ति के उपलब्ध सोलह सर्गों (१-१० तथा ७६-८०) का प्रकाशन अलग-अलग पुस्तिकाओं में हुआ था। इसकी प्रत्येक पुस्तिका पर रामायण के किसी न किसी आख्यान का चित्र है।१ कंपूचिया की रामायण को वहाँ के लोग ‘रिआमकेर’ के नाम से जानते हैं, किंतु साहित्य जगत में यह ‘रामकेर्ति’ के नाम से विख्यात है।
‘रामकेर्ति’ ख्मेर साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कृति है। ‘ख्मेर’ कंपूचिया की भाषा का नाम है। इसके प्रथम खंड की कथा विश्वामित्र यज्ञ से आरंभ होती है और इंद्रजित वध पर आकर अंटक जाती है, दूसरे खंड में सीता त्याग से उनके पृथ्वी प्रवेश तक की कथा है। ‘रामकेर्ति’ का रचनाकार कोई बौद्ध भिक्षुक ज्ञात होता है, क्योंकि वह राम को नारायण का अवतार मानते हुए उनको ‘बोधिसत्व’ की उपाधि प्रदान करता है। इसके बावजूद ‘रामकेर्ति’ और वाल्मीकि रामायण में अत्यधिक साम्य है।
रामकेर्ति का आरंभ विश्वामित्र यज्ञ से होता है। एक असुर विशालकाय काक का रुप धारण कर विश्वामित्र का यज्ञ-विध्वंस करने का प्रयत्न करता है। काकनासुर का वध करने के लिए विश्वामित्र राम तथा लक्ष्मण को बुलाकर लाते हैं और उन्हें धनुष-बाण भी देते हैं।
कंपूचियाई रामायण के अनुसार राजा जनक यमुनातीर पर यज्ञ करने के लिए हल चला रहे थे, उसी समय उन्होंने सीता को एक बेड़े पर देखा और उसे प्राप्त कर पुत्रीवत पालन-पोषण किया। युवती होने पर जनक ने सीता के अपूर्व सौंदर्य को देखकर मंत्र द्वारा एक दिव्य धनुष की सृष्टि की। उसी समय उन्होंने प्रण किया कि जो इस धनुष को उठाने में समर्थ होगा, उसी से सीता का पाणिग्रहण होगा। सीता स्वयंवर के समय तेंतीस देवता बारी-बारी से धनुष परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं। अंत में राम धनुष पर बाण चढ़ा कर उसे छोड़ते हैं। यहाँ धनुभर्ंग की चर्चा नहीं हुई है, किंतु जनक का दूत दशरथ से कहता है कि धनुष छोड़ने पर मेघ गर्जना से दस हज़ार गुना विकराल ध्वनि हुई थी।
कैकेयी राम और लक्ष्मण दोनों के लिए चौदह वर्ष वनवास का वर मांगती है। यह सुनकर लक्ष्मण उसकी हत्या कर देना चाहते हैं, किंतु राम उन्हें शांत कर देते हैं। वन गमन क्रम में निद्रा देवी के आने पर लक्ष्मण उसे चौदह वर्षों तक अपने पास आने से मना कर देते हैं। वे निद्र देवी से क्षुधा को भी अपने निकट आने से मना करने के लिए कहते हैं। निद्रा देवी उनके समक्ष ऐसा करने की प्रतिज्ञा करती है।
सीता हरण के समय सीता की अंगूठी छीन कर रावण जटायु पर प्रहार करता है और वह आहत होकर ज़मीन पर गिर जाता है। रामकेर्ति के अनुसार हनुमान जब राम के पास जाते है, तब वे उनके कुंडल को देखकर उनको पहचान लेते हैं। अंजना ने अपने पुत्र से कहा था कि जो कोई उसका कुंडल देखने में समर्थ होगा, वही उसका स्वामी होगा। सुग्रीव मिलन का यहाँ दक्षिण-पूर्व एशिया की परंपरा के अनुसार वर्णन हुआ है। प्यासे राम के लिए लक्ष्मण पानी लाने जाते हैं। वे सुग्रीव के आँसुओं की धारा से जल भर लाते हैं। राम जब उसे पीते है, तब उसका स्वाद नमकीन मालूम पड़ता है। दल का स्रोत तलाशने के क्रम में सुग्रीव से राम की भेंट होती है।
वालि आहत होने से पूर्व राम के बाण को हाथ से रोक लेता है। राम इस शर्त पर उसे जीवित छोड़ देना चाहते हैं कि उसके शरीर पर बाण के घाव का निशान आजीवन रहेगा। वालि पराजित होकर जीने की अपेक्षा विष्णु के बाण से मरना श्रेयस्कर समझता है। बाण को हाथ से छोड़ देने पर वह उसके शरीर में प्रवेश कर जाता है और उसका प्राणांत हो जाता है।
लंका पहुँचने पर हनुमान रावण के राजभवन में प्रवेश कर जाते हैं। वे रावण और मंदोदरी के बाल एक साथ बांध देते हैं और मंत्र पढ़कर यह लिख देते हैं कि जब तक मंदोदरी रावण के सिर पर थप्पड़ नहीं मारेगी, वह बंधन नहीं खुलेगा। सेतु निर्माण के समय मछलियों द्वारा बाधा पहुँचाने पर राम समुद्र पर बाण प्रहार करने के लिए उद्यत होते हैं, तब समुद्र द्वारा क्षमा मांगने पर वे शांत होते हैं। रावण के दरबार में अंगद को बैठने के लिए कोई आसन नहीं दिया जाता है, तब वह अपनी पूँछ के कुंडल का ही उच्चासन बना लेता है और उसी पर बैठ जाता है। रामकेर्ति के आठवें सर्ग में इस प्रसंग का उल्लेख हुआ है।
दक्षिण-पूर्व एशिया की रामकथाओं में सीता त्याग की घटना के साथ एक नया आयाम जुड़ गया है, सीता द्वारा रावण का चित्र बनाना। रामकेर्ति में रावण का निकट संबंधी अतुलय सीता की सखी बन जाती है। वह अनुनय-विनय कर सीता से रावण का चित्र बनवाती है और उसके अंदर स्वयं प्रवेश कर जाती है। सीता के बहुत प्रयत्न करने पर भी वह चित्र मिट नहीं पाता है। वह उसे पलंग के नीचे छिपा देती हैं। राम जैसे ही पलंग पर लेटते हैं, तीव्र ज्वर से पीड़ित हो जाते हैं। यथार्थ से अवगत होने पर वे लक्ष्मण से वन में ले जाकर सीता के वध करने का आदेश देते हैं और मृत सीता का कलेजा लाने के लिए कहते हैं। वन पहुँचकर लक्ष्मण जब सीता पर तलवार प्रहार करते हैं, तब वह पुष्पहार बन जाता है। सीता लक्ष्मण को वह पुष्पहार अर्पित करती है, तब वह फिर तलवार बन जाता है। उसी समय इंद्र मृग रुप धारण कर मर जाते हैं। लक्ष्मण उसी मृत मृग का कलेजा राम को दिखाने के लिए ले जाते हैं।
रामकेर्ति में सीता के पुत्रों के नाम राम लक्ष्मण और जप लक्ष्मण है। वाल्मीकि से धनुर्विद्या की शिक्षा ग्रहण करने के बाद वे अपने बाण से एक विशाल वृक्ष को नष्ट कर देते हैं जिससे अयोध्या में भूकंप होता है। ज्योतिष शास्र के ज्ञाताओं ने किसी महान राजा द्वारा बाण प्रहार को भूकंप का कारण बताया। उस राजा के तलाशने के लिए घोड़ा छोड़ा गया। भरत, शत्रुघ्न और हनुमान उसका अनुसरण कर रहे थे। सीता पुत्रों ने घोड़ा पकड़ लिया। उन्होंने हनुमान को युद्ध में पराजित कर दिया और उनके हाथ-पाँव बाँध कर उनके चेहरे पर लिख दिया कि उनका स्वामी ही उनके बंधन खोलने में समर्थ हो सकते हैं। भरत और लक्ष्मण के विफल होने पर स्वयं राम उनका बंधन खोलते हैं। बंधन खुलने पर हनुमान दोनों भाईयों को बंदी बनाकर अयोध्या ले जाते हैं। जब लक्ष्मण अपनी माता की अंगूठी की सहायता से अपने भाई को मुक्त करवाता है। फिर, सीता पुत्रों और राम के बीच युद्ध होता है। अंत में राम लक्ष्मण के बाण पुष्पहार बना गये और राम के बाण मिष्टान्न।
लक्ष्मण से सीता त्याग के यथार्थ को जानकर राम उनके पास गये। उन्होंने सीता से क्षमा याचना की, किंतु वे द्रवित नहीं हुईं। उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को राम के साथ जाने दिया और स्वयं पृथ्वी में प्रवेश कर गयी। हनुमान ने पाताल जाकर सीता से लौटने का अनुरोध किया। उन्होंने उस आग्रह को भी ठुकरा दिया। रामकेर्ति की खंडित प्रति की कथा यहीं पर आकर अंटक जाती है।
थाईलैंड की राम कथा: रामकियेन
एक स्वतंत्र राज्य के रुप में थाईलैंड के अस्तित्व में आने के पहले ही इस क्षेत्र में रामायणीय संस्कृति विकसित हो गई थी। अधिकतर थाईवासी परंपरागत रुप से राम कथा से सुपरिचित थे।१ १२३८ई. में स्वतंत्र थाई राष्ट्र की स्थापना हुई। उस समय उसका नाम स्याम था। ऐसा अनुमान किया जाता है कि तेरहवीं शताब्दी में राम वहाँ की जनता के नायक के रुप में प्रतिष्ठित हो गये थे,२ किंतु राम कथा पर आधारित सुविकसित साहित्य अठारहवीं शताब्दी में ही उपलब्ध होता है।
राजा बोरोमकोत (१७३२-५८ई.) के रजत्व काल की रचनाओं में राम कथा के पात्रों तथा घटनाओं का उल्लेख हुआ है। परवर्ती काल में जब तासकिन (१७६७-८२ई.) थोनबुरी के सम्राट बने, तब उन्होंने थाई भाषा में रामायण को छंदोबद्ध किया जिसके चार खंडों में २०१२ पद हैं। पुन: सम्राट राम प्रथम (१७८२-१८०९ई.) ने अनेक कवियों के सहयोग से जिस रामायण की रचना करवाई उसमें ५०१८८ पद हैं। यही थाई भाषा का पूर्ण रामायण है।३ यह विशाल रचना नाटक के लिए उपयुक्त नहीं थी। इसलिए राम द्वितीय (१८०९-२४ई.) ने एक संक्षिप्त रामायण की रचना की जिसमें १४३०० पद हैं। तदुपरांत राम चतुर्थ ने स्वयं पद्य में रामायण की रचना की जिसमें १६६४ पद हैं।४ इसके अतिरिक्त थाईलैंड में राम कथा पर आधारित अनेक कृतियाँ हैं।
रामकियेन का आरंभ राम और रावण तो वंश विवरण के साथ अयोध्या और लंका की स्थापना से होता है। तदुपरांत इसमें वालि, सुग्रीव, हनुमान, सीता आदि की जन्म कथा का उल्लेख हुआ है। विश्वामित्र के आगमन के साथ कथा की धारा सम्यक के रुप से प्रवाहित होने लगती है जिसमें राम विवाह से सीता त्याग और पुन: युगल जोड़ी के पुनर्मिलन तक की समस्त घटनाओं का समावेश हुआ है। रामकियेन वस्तुत: एक विशाल कृति है जिसमें अनेकानेक उपकथाएँ सम्मिलित हैं। इसकी तुलना हनुमान की पूँछ से की जाती है। रामकियेन की अनेक ऐसे भी प्रसंग हैं जो थाईलैंड को छोड़कर अन्यत्र अप्राप्य हैं। इसमें विभीषण पुत्री वेंजकाया द्वारा सीता का स्वांग रचाना, ब्रह्मा द्वारा राम और रावण के बीच मध्यस्थ की भूमिक निभाना आदि प्रसंग विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं।
नाराई (नारायण) ध्यानावस्था में थे। उसी समय क्षीर सागर से एक कमल पुष्प
की उत्पत्ति हुई। उस कमल पुष्प से एक बालक अवतरित हुआ। नाराई उसे लेकर शिव के पास गये। शिव ने उसका नाम अनोमतन रख दिया और उसे पृथ्वी का सम्राट बनाकर उसके लिए इंद्र को एक सुंदर नगर का निर्माण करने के लिए कहा।
इंद्र ऐरावत पर आरुढ़ होकर जंबू द्वीप में एक अत्यंत रमणीय स्थल पर पहुँचे जहाँ अजदह, युक्खर, ताहा और याका नामक ॠषि तपस्यारत थे। उन्होंने ॠषियों के समक्ष शिव के प्रस्ताव की चर्चा की। ॠषियों ने द्वारावती नामक स्थल को नगर निर्माण के लिए सर्वोत्तम स्थल बताया जहाँ पूर्व दिशा में राजकीय छत्र के समान एक विशाल वृक्ष था। नगर निर्माण के बाद इंद्र ने उन्हीं चार ॠषियों के नाम के आद्यक्षरों के आधार पर उस नगर का नाम अयु (अयोध्या) रख दिया। अनोमतन उस नगर के प्रथम सम्राट बने। इंद्र ने एक अन्य द्वीप पर जाकर मैनीगैसौर्न नामक एक अपूर्व सुंदरी की सृष्टि की। सम्राट अनोमतन का विवाह उसी महासुंदरी से हुआ। उसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम अच्छवन था। अपने पिता के बाद वह अयोध्या का सम्राट बना। उसका विवाह थेपबसौर्न नामक सुंदरी से हुआ। दशरथ उन्हीं के पुत्र थे।५
ब्रह्मा अपने चचेरे भाई सहमालिवान को रंका (लंका) द्वीप से पाताल की ओर भागते देखकर चिंतित हो गये। लंका द्वीप पर नीलकल नामक एक गगनचुंबी काला पहाड़ था। उसकी चोटी पर कौवों का एक विशाल घोसला था। ब्रह्मा ने उसे शुभलक्षण का संकेत मानकर वहाँ एक नगर निर्माण करने का निश्चय किया। उनके आदेश से विश्वकर्मा ने उस द्वीप पर दुहरे पाचीरवाले एक सुरम्य नगर का निर्माण किया। ब्रह्मा ने उस नगर का नाम विजयी लंका रखा और अपने चचेरे भाई तदप्रौम को उसका अधिपति बना दिया। उन्होंने उसे चतुर्मुख की उपाधि प्रदान की। चतुर्मुख रानी मल्लिका के अतिरिक्त सोलह हज़ार पटरानियों के साथ वहाँ रहने लग। कालांतर में मल्लिका के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम लसेतियन था।६
वह पिता के स्वर्गवास के बाद लंकाधिपति बना। उसे पाँच रानियाँ थीं। पाँचों रानियों से पाँच पुत्र उत्पन्न हुए जिनके नाम कुपेरन (कुबेर), तपरसुन, अक्रथद, मारन और तोत्सकान (दशकंठ) थे। कालांतर में रचदा के गर्भ से कुंपकान (कुंभकर्ण), पिपेक (विभीषण), तूत (दूषण), खौर्न (खर) और त्रिसियन (त्रिसिरा) नामक पाँच पुत्र और सम्मनखा (सूपंणखा) नामक एक पुत्री उत्पन्न हुई।७
नंतौक (नंदक) नामक हरित देहधारी दानव को शिव ने कैलाश पर्वत पर
देवताओं के पादप्रक्षालनार्थ नियुक्त किया था। देवगण अकारणही कौतुकवश उसके बाल नोच लिया करते थे जिसके परिणाम स्वरुप कालांतर में वह गंजा हो गया। नंदक ने शिव से अपनी व्यथा-कथा सुनाई, तो उन्होंने द्रवित होकर उसकी तर्जनी ऊँगली में ऐसी शक्ति दे दी कि उससे वह जिसकी ओर इंगित कर देता था, उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती थी। नंदक अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने लगा। देवगण व्यग्र होकर शिव को नंदक की करतूत के विषय में कहा। शिव ने नारायण को बुलाकर नंदक का वध करने के लिए अनुरोध किया।
नारायण नर्तकी का रुप धारण कर नंदक के पास पहुँचे। नंदक उनके रुप को देखकर मोहित हो गया। नर्तकी रुपधारी नारायण ने इतनी चतुराई से नृत्य किया कि नंदक ने अपनी ऊँगली से अपनी ओर ही इंगित कर लिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पूर्व उसने नर्तकी को नारायण रुप धारण करते हुए देख लिया। इसलिए प्रत्यक्ष युद्ध नहीं करने के लिए वह उनकी भत्र्सना करने लगा, तब नारायण ने कहा कि अगले जन्म में वह दस सिर और बीस भुजाओं वाले दानव के रुप में उत्पन्न होगा और वे मनुष्य रुप में अवतरित होकर उसका उद्धार करेंगे।८
अयोध्या के निकट साकेत नामक एक नगर था। उसके सम्राट कौदम (गौतम) थे। संतानहीन होने के कारण वे वन में तपस्या करने चले गये। हज़ारों वर्ष वाद उनकी लंबी और सफ़ेद दाढ़ी के अंदर गौरैया की एक जोड़ी ने घोसला बना लिया। एक दिन नर-पक्षी कमल पुष्प पर खाद्य सामग्री एकत्र करने के लिए बैठा था।उसी समय सूर्यास्त हो जाने के कारण कमल की पंखुड़ियाँ बंद हो गयीं। पक्षी को रातभर उसी के अंदर रहना पड़ा। प्रात:काल कमल खिलने पर वह अपनी पत्नी के पास पहुँचा, तो माद-पक्षी ने उस पर विश्वासघात का आरोप लगाया। नर-पक्षी ने कहा कि यदि उसका आरोप सही है, तो वह ॠषि के सारे पाप का भागी होगा। ॠषि उसकी बात सुनकर चकित हो गये। उन्होंने पक्षी से अपने पाप के विषय में पूछा। पक्षी ने कहा कि नि:संतान होना पाप है।
ॠषि को जब अपनी भूल की जानकारी हुई, तो उन्होंने गृहस्त आश्रम में प्रवेश करने का निर्णय लिया। उन्होंने तपोबल से एक सुंदरी का सृजन किया और उसे अपनी पत्नी बना लिया। उसका नाम अंजना था। अंजना ने स्वाहा नामक एक पुत्री को जन्म दिया। गौतम एक दिन भोज्य सामग्री की तलाश में गये। इसी बीच अंजना का इंद्र से संपर्क हो गया जिसके फलस्वरुप उसने हरित देहधारी एक पुत्र को जन्म
दिया। इस घटना के बाद एक बार सूर्य की दृष्टि अंजना पर पड़ी। सूर्य के संयोग से अंजना ने पुन: एक पुत्र को जन्म दिया जो आदित्य के समान ही देदीव्यमान था। गौतम दोनों को अपना पुत्र समझते थे।
गौतम एक दिन स्नान करने चले, तो उन्होंने एक पुत्र को पीठ पर और दूसरे को गोद में ले लिया। उनकी पुत्री उनके साथ पैदल जा रही थी। उसने गौतम से कहा कि वे दूसरों की संतान को देह पर लादे हुए हैं और उनकी अपनी संतान पैदल चल रही है। गौतम के पूछने पर उसने सारा भेद खोल दिया। गौतम ने क्रुद्ध होकर तीनों को यह कहकर जल में फ्ैंक दिया कि उनकी अपनी संतान उनके पास लौट आयेगी और दूसरों की संतति बंदर बन जायेंगे। स्वाहा लौट कर उनके पास आ गयी, किंतु उनके दोनों पुत्र बंदर बन गये। हरित बंदर पाली (वालि) और लाल बंदर सुक्रीप (सुग्रीव) के नाम से विख्यात हुआ।
संपूर्ण ‘रामकियेन’ इस प्रकार की विचित्र आख्यानों से परिपूर्ण है, किंतु इसके अंतर्गत रामकथा के मूल स्वरुप में कोई मौलिक अंतर नहीं दिखाई पड़ता। ‘रामकियेन’ के अंत में सीता के धरती-प्रवेश के बाद राम ने विभीषण को बुलाकर समस्या का समाधान के विषय में पूछा। उसने कहा कि ग्रह का कुचक्र है। उन्हें एक वर्ष तक वन में रहना पड़ेगा। उसके परामर्श के अनुसार राम तथा लक्ष्मण हनुमान के साथ एक वर्ष वन में रहे और उसके बाद अयोध्या लौट गये। अंत में इंद्र के अनुरोध पर शिव ने राम और सीता दोनों को अपने पास बुलाया। शिव ने कहा कि सीता निर्दोष हैं। उन्हें कोई स्पर्श नहीं कर सकता, क्योंकि उनको स्पर्श करने वाला भ हो जायेगा। अंतत: शिव की कृपा से सीता और राम का पुनर्मिलन हुआ।
लाओस की रामकथा: राम जातक
लाओस के निवासी और वहाँ की भाषा को ‘लाओ’ कहा जाता है जिसका अर्थ है ‘विशाल’ अथवा ‘भव्य’।१ लाओ जाति के लोग स्वयं को भारतवंशी मानते हैं। लाओ साहित्य के अनुसार अशोक (२७३-२३७ई.पू.) द्वारा कलिंग पर आक्रमण करने पर दक्षिण भारत के बहुत सारे लोग असम-मणिपुर मार्ग से हिंद चीन चले गये।२ लाओस के निवासी अपने को उन्हीं लोगों के वंशज मानते हैं। रमेश चंद्र मजुमदार के अनुसार थाईलैंड और लाओस में भारतीय संस्कृति का प्रवेश ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में हुआ था। उस समय चीन के दक्षिण भाग की उस घाटी का नाम ‘गांधार’ था।३
लाओस की संस्कति चाहे जितनी पुरानी हो, संसार के राजनीतिक मानचित्र पर वह मध्यकाल में ही अस्तित्व में आया। लाओ साहित्य के अनुसार राजकुमार फाल्गुन को लाओस का संस्थापक माना जाता है। एक क्षत्रिय सरदार ने किसी कारणवश अंकोर के राज दरबार में शरण ली थी। फाल्गुन उसी का पुत्र था। अंकोंर नरेश ने अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया। श्वसुर के सहयोग से वह एक सैनिक टुकड़ी का स्वामी बन गया। उसने १३४०-५०ई. के बीच अपने पूर्वजों की भूमि पर अधिकार कर लिया और १३५३ई. में उसने स्वयं को लाखों हाथियों के देशा का राजा घोषित कर दिया।४ इस प्रकार लाओस राज्य की स्थापना चौदहवीं शताब्दी के मध्य हुई।
लाओस में राम कथा पर आधारित कई रचनाएँ हैं जिनमें मुख्य रुप से फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, पोम्मचक (ब्रह्म चक्र) और लंका नाई के नाम उल्लेखनीय हैं। ‘राम जातक’ के नाम से विख्यात ‘फ्रलक फ्रलाम’ की लोकप्रियता का रहस्य उसके नाम के अर्थ ‘प्रिय लक्ष्मण प्रिय राम’ में समाहित है। ‘रामजातक’ लाओस के आचार-विचार, रीति-रिवाज, स्वभाव, विश्वास, वनस्पति, जीव-जंतु, इतिहास और भूगोल का विश्वकोश है।५ देहियर के अनुसार यह वास्तविक अर्थ में लाओ महात्म्य है।६ राम जातक दो भागों में विभक्त है। इसके प्रथम भाग में दशरथ पुत्री चंदा और दूसरे भाग में रावण तनया सीता के अपहरण और उद्धार की कथा है। जातक कथाओं की तरह इसके अंत में बुद्ध कहते हैं कि पूर्वजन्म में वे ही राम थे और देवदत्त रावण था।
राम जातक के आरंभ में भगवान बुद्ध अपने शिष्यों से कहते हैं कि बाराह कल्प में ब्रह्म युगल पृथ्वी पर आये। उन दोनों ने धरती की मधुर और सुगंधित माटी इतनी
अधिक मात्रा में खा ली कि उनका शरीर भारी हो गया और वे उड़कर पुन: स्वर्ग नहीं जा सके। वे दक्षिण समुद्र तट पर घर बनाकर रहने लगे। उन्होंने एक सौ एक संतानों को जन्म दिया। इसी क्रम में इंद्रप्रस्थ नगर अस्तित्व में आया।७
इंद्रप्रस्थ नगर के अधिपति ब्रह्मयुगल की संतान बड़े होने पर जंबू द्वीप चले गये। सबसे छोटे पुत्र तप परमेश्वर को उन्होंने अपनी भांजी से विवाह कर दिया। उसकी पत्नी धर्मसंका ने दत्तरथ (दशरथ) और विरुलह नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। परमेश्वर ने छोटे पुत्र विरुलह को इंद्रप्रस्थ का राजा बना दिया और उसका विवाह महालिका से कर दिया। दशरथ का विवाह उपराजा की पुत्री विशुद्धिसोता (विशुद्ध श्वेता) से हुआ।८
विवाहोपरांत दशरथ लंबी यात्रा पर निकल पढ़े वे मेकांग नदी के तट पर स्थित फान-फाओ नामक स्थान पर पहुँचे। उन्होंने नाग देवता के कहने पर मेकांग के दूसरे तट पर अपनी राजधानी बनाई और उसका नाम सात फनों वाले नाग के नाम पर श्री सत्तनाकपुरी रखा।९
इंद्रप्रस्थ में महाब्रह्म का जन्म सर्वप्रथम एक विकलांग शिशु के रुप में हुआ। उसका पिता एक किसान था। उसने उसका ना लुमलू रखा। इंद्र को जब इसकी जानकारी मिली, तब वे मनिकॉप नामक अश्व पर आरुढ़ होकर उसके पास गये। उस समय वह हल चला रहा था। उन्होंने कृषक से पूछा कि वह दिन भर में कितनी हल रेखाएँ बनाता है। वह उनके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका। इंद्र कई दिनों तक उसके पास आकर यही प्रश्न पूछते रहे। इस बात की जानकारी जब लुमलू को हुई, तब वह पिता के साथ खेत में पहुँचा। उस दिन भी इंद्र ने वही सवाल पूछा। लुमलू ने कहा कि यदि वे यह बता दें कि उनका घोड़ा दिन भर में कितने कदम चलता है, तो वह भी उनके प्रश्न का उत्तर बता देगा। इसके बाद लुमलू ने इंद्र के आठ सवालों का सही-सही जवाब दिया।
इंद्र लुमलू को किसान से मांग कर स्वर्ग ले गये। वहाँ उन्होंने उसे मरकत मणि के सांचे में ढ़ाल कर अपने जैसा सुंदर रुप दे दिया जिसके फलस्वरुप उसे अलौकिक शक्ति मिल गयी, किंतु उसे वरदान के साथ यह अभिशाप भी मिला कि यदि वह अपनी शक्ति का दुरुपयोग करेगा, तो उसकी मृत्यु हो जायेगी।
लुमलु विरुलह की पत्नी महालिका के गर्भ से पुन: पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ। जन्म के समय ही उसके हाथ में धनुष और तलवार थी। उसका नाम राफनासुअन (रावण) रखा गया। महालिका ने दो अन्य पुत्रों को भी जन्म दिया जिनके नाम इंदहजीत (इंद्रजीत) और बिक-बी (विभीषण) थे। बाल्यावस्था में ही रावण ने दशरथ पुत्री चंदा का अपहरण कर लिया।
चंदा के अपहरण के बाद दशरथ ने देवताओं से प्रार्थना की जिसके फलस्वरुप विशुद्धिश्वेता के गर्भ से फ्रलक और फ्रलाम का जन्म हुआ। बड़ा होने पर उन्हें अपनी बहन के अपहरण की जानकारी हुई। फिर वे दोनों इंद्रप्रस्थ गये और रावण को पराजित कर चंदा के साथ घर लौट गये। पराजित रावण ने फ्रलाम की सारी शताç को पूरा किया। उसके बाद रावण का विवाह चंदा से हो गया। राम जातक के प्रथम खंड में लाओस के भौगोलिक स्वरुप और सामाजिक परंपराओं का विस्तृत वर्णन है।
तप परमेश्वर के इंद्रप्रस्थ से प्रस्थान के बाद रावण ने भी उस नगर को परित्याग दिया। वह अपनी प्रजा के साथ समुद्र के बीच एक निर्जन द्वीप पर चला गया जिसका नाम लंका था। वहाँ चंदा के गर्भ से सीता का जन्म हुआ। ज्योतिषविदों द्वारा उस कन्या के अनिष्टकारी होने की बात सुनकर रावण ने उसे एक नाव पर सुलाकर समुद्र में छोड़ दिया। वह कन्या एक ॠषि को मिली। ॠषि ने पुत्रीवत उसका पालन किया। तदुपरांत धनुष यज्ञ और राम विवाह का वर्णन हुआ है।
राम जातक में सीता का अपहरण विवाह के बाद रास्ते में हो जाता है। अपहरण के संदर्भ में स्वर्ण मृग का प्रसंग है, किंतु शूपंणखा की चर्चा नहीं हुई है। कैकेयी, भरत, शत्रुघ्न आदि की अनुपस्थिति के कारण वनवास का भी उल्लेख नहीं हुआ है। राम जातक के द्वितीय खंड में सीता-हरण से उनके निर्वासन और पुनर्मिलन की सारी घटनाओं का वर्णन हुआ है, किंतु सब कुछ लाओस की शैली में हुआ है। अन्य जातक कथाओं की तरह इसके अंत में भी बुद्ध कहते हैं कि पूर्व जन्म में वे ही राम थे, यशोधरा सीता थी और देवदत्त रावण था।
बर्मा की राम कथा और रामवत्थु
बर्मावासियों के प्राचीन काल से ही रामायण की जानकारी थी। ऐतिहासिक राक्ष्यों से ज्ञात होता है कि ग्यारहवीं सदी के पहले से ही वह अनेक रुपों में वहाँ के जनजीवन को प्रभावित कर रही थी। ऐसी संभावना है कि लोकख्यानों और लोक गीतों के रुप में राम कथा की परंपरा वहाँ पहले से विद्यमान थी, किंतु बर्मा की भाषा में राम कथा साहित्य का उदय अठारहवीं शताब्दी में ही दृष्टिगत होता है। यू-टिन हट्वे ने बर्मा की भाषा में राम कथा साहित्य की सोलह रचनाओं का उल्लेख किया है-१ (१) रामवत्थु (१७७५ई. के पूर्व), (२) राम सा-ख्यान (१७७५ई.), (३) सीता रा-कान, (४) राम रा-कान (१७८४ई.), (५) राम प्रजात (१७८९ई.), (६) का-ले रामवत्थु (७) महारामवत्थु, (८) सीरीराम (१८४९ई.), (९) पुंटो राम प्रजात (१८३०ई.), (१०) रम्मासुङ्मुई (१९०४ई.), (११) पुंटो रालक्खन (१९३५ई.), (१२) टा राम-सा-ख्यान (१९०६ई.), (१३) राम रुई (१९०७ई.), (१४) रामवत्थु (१९३५ई.), (१५) राम सुम: मुइ (१९३ ई.) और (१६) रामवत्थु आ-ख्यान (१९५७ई.)।
राम कथा पर आधारित बर्मा की प्राचीनतम गद्यकृति ‘रामवत्थु’ है। इसकी तिथि अठारहवीं शताब्दी निर्धारित की गयी है। इसमें अयोध्या कांड तक की कथा का छह अध्यायों में वर्णन हुआ है और इसके बाद उत्तर कांड तक की कथा का समावेश चार अध्यायों में ही हो गया है। रामवत्थु में जटायु, संपाति, गरुड़, कबंध आदि प्रकरण का अभाव है।
रामवत्थु की कथा बौद्ध मान्यताओं पर आधारित है, किंतु इसके पात्रों का चरित्र चित्रण वाल्मीकीय आदर्शों के अनुरुप हुआ है। कथाकार ने इस कृति में बर्मा के सांस्कृतिक मूल्यों को इस प्रकार समाविष्ट कर दिया है कि वहाँ के समाज में यह अत्यधिक लोकप्रिय हो गया है। यह बर्मा की परवर्ती कृतियों का भी उपजीव्य बन गया है।
रामवत्थु का आरंभ दशगिरि (दशग्रीव) तथा उसके भाईयों की जन्म कथा से होता है। रावण की माता गोंवी ब्रह्मा को दस केलों का गुच्छा समर्पित करती है जिसके फलस्वरुप दशग्रीव का जन्म होता है। इसके बाद कुंबकन्न (कुंभकर्ण) और विभीषण उत्पन्न होते हैं। इसी संदर्भ में वालि की जन्म कथा भी सम्मिलित है।
लंका का राजा बन जाने के बाद देवगण दशग्रीव को फूलों और फलों का रस उपहार स्वरुप देते हैं। उसी के अति सेवन से वह दुराचारी बन जाता है और कैलाश पर्वत पर एक गंधर्व अप्सरा के साथ दुर्व्यवहार करता है। गंधर्वी उसे शाप देकर यज्ञाग्नि में प्रवेश कर जाती है।
शिकार खेलने के क्रम में दशरथ से अनजाने में ही एक युवा ॠषि का वध हो जाता है जिसके कारण उन्हें शापित होना पड़ता है, किंतु इसी क्रम में वरदान स्वरुप दो केले भी मिलते हैं। दशरथ अपनी रानियों को दोनों केले खिला देते हैं जिसके फलस्वरुप उनके पुत्रों का जन्म होता है।
दुराचारी दशग्रीव के विनाश हेतु देवतागण इंद्र के माध्यम से ब्रह्मा से अनुरोध करते हैं जिसके परिणाम स्वरुप बोधिसत्व तथा स्वर्ग के तीन देवता राम तथा उनके तीन भाईयों के रुप में अवतरित होते हैं। अन्य देवता किष्किंधा में बानर रुप में जन्म लेते हैं। इसी क्रम में गंधर्व अप्सरा रावण से बदला लेने के लिए पृथ्वी पर अवतरित होती है। दशग्रीव उसे लोहे के बक्सा में बंद कर समुद्र में डुबा देता है। वह बक्सा मिथिला पहुँच जाता है। मिथिला नरेश उसका पुत्रीवत पालन करते हैं और उसका नाम सीता रखते हैं।
रामवत्थु में धनुष यज्ञ से भरत के चित्रकूट गमन और वापसी यात्रा का वर्णन वाल्मीकीय परंपरा के अनुसार हुआ है। पवन पुत्र के संबंध में कहा गया है कि एक ॠषि के शाप से वे सामान्य बंदर बन जाते हैं, किंतु जामवान के अनुरोध पर ॠषि की भविष्यवाणी होती है कि लंका गमन के समय राम से मिलने पर वे पुन: अपनी शक्ति प्राप्त कर लेंगे। शूपंणखा का नाम यहाँ गांबी है। वह अपने पुत्र सरु (खर) और तुशीन (दूषण) के साथ रामाश्रम जाती है। राम उसके दोनों पुत्रों का वध कर देते हैं। गांबी दशग्रीव से अपनी करुण कथा सुनाती है। फिर, वह स्वयं माया मृग का रुप धारण करती है और दशग्रीव सीता का अपहरण करता है।
सीता को तलाशने के क्रम में ‘गियो’ वृक्ष के नीचे राम-लक्ष्मण को थुगइक (सुग्रीव) से भेट होती है। उसी समय राम द्वारा पीठ थपथपाने पर हनुमान शाप मुक्त होते हैं। सीतान्वेषण और लंका दहन की कथा वाल्मीकीय परंपरा के अनुसार है। लंका दहन के बाद हनुमान सीता के सात बोलों के लेकर राम के पास लौटते हैं।
सेतु निर्माण के समय ‘गंधम’ नामक एक विशाल केकड़ा हनुमान को पकड़ लेता है, किंतु वे उससे मुक्त हो जाते है।
लंका युद्ध, रावण वध और सीता की अग्नि परीक्षा का इस रचना में परंपरानुसार वर्णन हुआ है, किंतु सीता निर्वासन के कई कारण बताये गये हैं। सीता दशग्रीव का चित्र बनाती है। उन्हें वाल्मीकि आश्रम में भोजन करने की प्रबल इच्छा है। अंतत: एक रजक द्वारा सीता के दोषी ठहराने पर उन्हें निर्वासित किया जाता है। कथा की समाप्ति अपने दोनों पुत्रों के साथ सीता की अयोध्या वापसी से होती है।
मलयेशिया की राम कथा और हिकायत सेरी राम
मलयेशिया का इस्लामीकरण तेरहवीं शताब्दी के आस-पास हुआ। मलय रामायण की प्राचीनतम पांडुलिपि बोडलियन पुस्तकालय में १६३३ई. में जमा की गयी थी।१ इससे ज्ञात होता है कि मलयवासियों पर रामायण का इतना प्रभाव था कि इस्लामीकरण के बाद भी लोग उसके परित्याग नहीं कर सके। मलयेशिया में रामकथा पर आधरित एक विस्तृत रचना है ‘हिकायत सेरीराम’। इसका लेखक अज्ञात है। इसकी रचना तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के बीच हुई थी। इसके अतिरिक्त यहाँ के लोकाख्यानों में उपलब्ध रामकथाएँ भी प्रकाशित हुई हैं। इस संदर्भ में मैक्सवेल द्वारा संपादित ‘सेरीराम’, विंसटेड द्वारा प्रकाशित ‘पातानी रामकथा’ और ओवरवेक द्वारा प्रस्तुत हिकायत महाराज रावण के नाम उल्लेखनीय हैं।
हिकायत सेरीराम विचित्रताओं का अजायब घर है। इसका आरंभ रावण की जन्म कथा से हुआ है। किंद्रान (स्वर्गलोक) की सुंदरियों के साथ व्यभिचार करने वाले सिरानचक (हिरण्याक्ष) को पृथ्वी पर दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण के रुप में जन्म लेना पड़ा। वह चित्रवह का पुत्र और वोर्मराज (ब्रह्मराज) का पौत्र था। चित्रवह को रावण के अतिरिक्त कुंबकेर्न (कुंभकर्ण) और बिबुसनम (विभीषण) नामक दो पुत्र और सुरपंडकी (शूपंणखा) नामक एक पुत्री थी।२
दुराचरण के कारण रावण को उसके पिता ने जहाज से बुटिक सरेन द्वीप भेज दिया। वहाँ उसने अपने पैरों को पेड़ की डाल में बाँध कर तपस्या करने लगा। आदम उसकी तपस्या से प्रसन्न हो गये। उन्होंने अल्लाह से आग्रह किया और उसे पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल का राजा बनवा दिया। तीनों लोकों का राज्य मिलने पर रावण ने तीन विवाह किया। उसकी पहली पत्नी स्वर्ग की अप्सरा नील-उत्तम, दूसरी पृथ्वी देवी और तीसरी समुद्रों की रानी गंगा महादेवी थी। नीलोत्तमा ने तीन सिरों और छह भुजाओं वाले एंदेरजात (इंद्रजित), पृथ्वी देवी ने पाताल महारायन (महिरावण) और गंगा महादेवी ने गंगमहासुर नाम के पुत्रों को जन्म दिया।
चक्रवर्ती के पुत्र दशरथ इस्पबोगा के राजा थे। वे एक सुंदर नगर बसाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपने मंत्री पुष्पजय क्रम को नियुक्त किया। उसने एक पहाड़ की चोटी पर नया नगर बसाने की योजना बनाई। उस स्थान की सफाई होने लगी, तो बाँस की एक झाड़ी नहीं उखड़ सकी, तब राजा स्वयं कुल्हाड़ी लेकर हाथी से उतर गये। उन्होने झाड़ी में एक सुंदरी को देखा। वे उसे हाथी पर बैठा कर घर ले गये। शुभ मुहूर्त में राजा से मंडूदेवी का विवाह हुआ। विवाह के बाद राजा ने नई रानी के साथ सत्रह मंजिली पालकी पर सवार होकर अपने राज्य की सात परिक्रमा करने गये। सातवीं परिक्रमा में पालकी टूट गयी, किंतु राजा की पटरानी बलियादारी ने उसे अपने कंधे पर रोक लिया। राजा ने बलियादारी को वचन दिया कि उसके बाद उसकी संतान ही राज्य का स्वामी बनेगा।
नये नगर का निर्माण हो गया। उसका नाम मदुरापुर रखा गया, किंतु संतान नहीं होने के कारण राजा चिंतित रहा करते थे। एक ॠषि के कहने पर उन्होंने यज्ञ किया। यज्ञोदन को छह भागों में विभाजित किया गया। उसमें से तीन भाग मंडू देवी या मंदुदरी और तीन भाग बलियादारी को दिया गया। बलियादारी के हिस्से का एक भाग एक काक लेकर भाग गया। वह रावण का संबंधी था। ॠषि ने शाप दिया कि काक मंदुदरी के पुत्र द्वारा मारा जायेगा और जो कोई उस यज्ञोदन को खायेगा, उसे एक पुत्री होगी। उसका विवाह मदुदरी के पुत्र से होगा। काक यज्ञोदन लेकर लंका पुरी गया जहाँ रावण उसे खा गया। कालांतर में मंदुदरी को सेरी राम और लक्ष्मण नामक दे पुत्र हुए। बलियादारी ने बेरदन (भरत) और चित्रदन (शत्रुघ्न) को जन्म दिया।
रावण को मंदुदरी के अनुपम सौंदर्य का पता चला। वह ब्राह्मण वेश में मदुरापुर पहुँचा और राजभवन के सात तालों को मंत्र द्वारा खोलकर अंदर चला गया और वीणा बजाने लगा। वीणा की ध्वनि सुनकर दशरथ अंत:पुर से बाहर निकले, तो ब्राह्मण वेशधारी रावण ने उनसे मंदुदरी को देने का आग्रह किया। उन्होंने पहले तो उसके अनुरोध को ठुकरा दिया, किंतु बाद में अपनी स्वीकृति दे दी। मंदुदरी ने भी पहले उसके साथ जाने से इन्कार किया, किंतु बाद में उसने अपने समान एक सुंदरी का सृजन कर उसे दे दिया। रावण नकली मंदुदरी को लेकर चला गया। रास्ते में उसकी भेंट एक तपस्वी से हुई। उसने तपस्वी से पूछा कि वह आदमी है अथवा बंदर। वह तपस्वी विष्णु का भक्त था। उसने रावण को शाप दिया कि उसकी मृत्यु आदमी या बंदर के द्वारा होगी।
रावण ने धूमधाम से नकली मंदुदरी के साथ विवाह किया। कुछ दिनों बाद उसे एक पुत्री हुई जो सोने के समान सुंदर थी।रावण के भाई बिवुसनभ (विभीषण) ने उसकी कुंडली देखकर कहा कि इस कन्या का पति उसके पिता का वध करेगा। यह जानकर रावण उसे लोहे के बक्से में बंदकर समुद्र में फेंक दिया।३ लोहे का बक्सा बहकर द्वारावती चला गया। महर्षि कलि समुद्र स्नान कर रहे थे। उसी समय वह बक्सा उनके पैर से टकराया। वे बक्सा लेकर अपनी पत्नी मनुरमा देवी के पास गये। बक्सा खोलने पर पूरा घर प्रकाशमान हो गया। उसमें एक अत्यंत सुंदर कन्या थी। महर्षि कलि ने उसका नाम सीता देवी रखा। उन्होनें उसी समय चालीस ताल वृक्ष रखा। उन्होंने उसी समय चालीस तान वृक्ष इस उद्देश्य से लाग दिया कि जो कोई उन्हें एक ही बाण से खंडित कर देगा, उसी से सीता देवी का विवाह होगा।४
महर्षि कलि मंदुरापुर पहुँचे। उन्होने दशरथ के समक्ष राम और लक्ष्मण को अपने सात ले जाने की इच्छा प्रकट की। राजा ने उनके बदले भरत और शत्रुघ्न को अपने साथ ले जाने के लिए कहा। महर्षि उन दोनों की परीक्षा लेने लगे। उन्होंने कहा कि द्वारावती जाने के चार रास्ते हैं। वे किस मार्ग से वहाँ जाना चाहेंगे। पहला रास्ता सत्रह दिनों का है। वह मार्ग अत्यधिक भयानक है। उस रास्ते में जगिनी नामक राक्षसी रहती है जिसे रावण भी पराजित नहीं कर सका। दूसरा रास्ता बीस दिनों का है। इस पथ से जाने वाले को अंगई-गंगई नामक गैंड़ा को मारना पड़ेगा। तीसरा रास्ता पच्चीस दिनों का है। उस रास्त में सुरंगिनी नामक नागिन रहती है। चौथा रास्ता चालीस दिनों का है। उसमें कोई खतरा नहीं है। दोनों भाईयों ने चौथ रास्ते का चुनाव किया। महर्षि समझ गये कि दोनों में शौर्य और पराक्रम का अभाव है। उन्होंने पुन: राजा से राम और लक्ष्मण को अपने साथ जाने देने का आग्रह किया। राजा ने अपनी स्वीकृति दे दी। ॠषि ने राम से भी वही सवाल पूछा। उन्होंने पहले रास्ते का चुनाव किया।
आदि से अंत तक ‘हिकायत सेरी राम’ इसी प्रकार की विचित्रताओ से परिपूर्ण है। यद्यपि इसमें वाल्मीकीय परंपरा का बहुत हद तक निर्वाह हुआ है, तथापि इसमें सीता के निर्वासन और पुनर्मिलन की कथा में भी विचित्रता है। सेरी राम से विलग होने पर सीता देवी ने कहा कि यदि वह निर्दोष होंगी, तो सभी पशु-पक्षी मूक हो जायेंगे। उनके पुनर्मिलन के बाद पशु-पक्षी बोलने लगते हैं। इस रचना में अयोध्या नगर का निर्माण भी राम और सीता के पुनर्मिलन के बाद ही होता है।
फिलिपींस की राम कथा: महालादिया लावन
इंडोनेशिया और मलयेशिया की तरह फिलिपींस के इस्लामीकरण के बाद वहाँ की राम कथा को नये रुप रंग में प्रस्तुत किया गया। ऐसी भी संभावना है कि इसे बौद्ध और जैनियों की तरह जानबूझ कर विकृत किया गया। डॉ. जॉन आर. फ्रुैंसिस्को ने फिलिपींस की मारनव भाषा में संकलित इक विकृत रामकथा की खोज की है जिसका नाम मसलादिया लाबन है। इसकी कथावस्तु पर सीता के स्वयंवर, विवाह, अपहरण, अन्वेषण और उद्धार की छाप स्पष्ट रुप से दृष्टिगत होता है।
महरादिया लावन बंदियार मसिर के सुल्तान का पुत्र है। उसके कुचक्र से बहुत लोगों की जान चली गयी। इसलिए सुल्तान उसे निर्वासित कर पुलूनगर द्वीप पर भेज दिया। वहाँ उसने उस वृश्र में आग लगा दी जिससे पृथ्वी बंधी हुई थी। देवदूत गैब्रियस के कहने पर तुहेन (ईश्वर) ने उसे अपना बलिदान करने से रोका और उसे वर दिया कि उसकी मृत्यु केवल उसके राजभवन में रखे काष्ट पर तीक्ष्ण किये अस्र से होगी।
आगम नियोग के सुल्तान को मंगंदिरी और मंगवर्ग नामक दो पुत्र थे। दोनों भाईयों को पुलूनवंदै के सुल्तान की पुत्री मलैला के अनुपम सौंदर्य की जानकारी मिली। वे लोग उसकी तलाश में समुद्र यात्रा पर निकल पड़े। रास्ते में उनका जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया। संयोगवश दोनों भाई पुलूनवंदै के किनारे लग गये। एक बूढ़ी औरत उन्हें उठाकर अपने घर ले गयी। होश में आने पर उन्हें संगीत की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ी। बूढ़ी औरत का नाम कबैयन था। उससे उन्हें मलैला के स्वयंवर की जानकारी मिली।
राजकुमारी के स्वयंवर की शर्त के अनुसार जो कोई बेंत की बोंद को राजकुमीरी के कक्ष में फेकने में सफल होता, उसी से उसका विवाह होना था। दोनों भाईयों ने उस परीक्षा में भाग लिया, किंतु सफलता बड़े भाई को मिली। जब गेंद राजकुमारी के कक्ष में पहुँच गयी, तब उसने गेंद के साथ अपना रुमाल, सुपारी दान और अंगूठी नीचे गिरा दी। राजकुमार ने रुमाल, सुपारी दान और अंगूठी को अपने पास रख लिया और सुपारी को वहीं छितारा दिया।
दोनों राजकुमारों के चले जाने पर अन्य प्रत्याक्षी अपनी-अपनी जीत की घोषणा करने लगे, किंतु सुल्तान यह जानना चाहता था कि उसकी पुत्री की अंगूठी किसके पास गयी। वह कबैयन के घर गया जहाँ उसे मंगंदिरी के पास तीनों चीजे मिली। कुछ अन्य शताç को पूरा करने पर मंगंदिरी और मलैला का विवाह हो गया।
विवाहोपरांत दोनों भाई मलैला के साथ घर चल पड़े, किंतु रास्ते में ही एक रमणीक स्थल पर घर बनाकर रहने लगे। उसी ग्राम्य परिवेश में राजकुमारी ने एक दिन स्वर्ण श्रृंगों वाले हिरण को देखा। उसने अपने पति से उसे पकड़ने के लिए कहा। राजकुमारी की सुरक्षा का भार अपने अनुज को सौंपकर मंगंदिरी यह कहकर निकल पड़ा कि यदि वह स्वयं भी उसे सहायता के लिए पुकारे, तो भी वह वहाँ से नहीं हटे। उसके जाने के बाद राजकुमारी ने अपने पति की आवाज़ सुनी। उसने मंगवर्ण को अपने अग्रज की सहायता हेतु शीघ्र जाने को कहा। उसके मना करने पर वह बहुत उग्र हो गयी। मजबूर होकर मंगवर्ण को जाना पड़ा, किंतु जाते समय उसने मलैला को खिड़की बंद रखने के लिए कहा और खटखटाने पर भी उसे खोलने की मनाही की।
मंगवर्न के पहुँचते ही एक ही रंग के दो हिरण दिखाई पड़ने लगे। दोनों हिरण दो दिशाओं में भाग चले। दोनों भाई अलग-अलग दिशा में उनका पीछा करने लगे। निष्फल प्रयत्न के बाद छोटा भाई पहले अपने निवास पर पहुँचा। उसने देखा कि घर की दीवार टूटी हुई है और राजकुमारी गायब है। पड़ोसियों से पता चला कि महारादिया लावन ने मलैला का अपहरण कर लिया।
लावन के राजभवन पहुँचने पर दोनों भाईयों ने देखा कि लावन के निकट पहुँचते ही मलैला के चारों तरफ आग की लपटें सुरक्ष-वलय का रुप धारण कर लेती हैं।१ यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मलैला की खोज-यात्रा में उनकी भेंट लक्ष्मण नामक बंदर से हुई जो हनुमान की भूमिका निभाने लगा। युद्ध आरंभ होने पर लावन बारी-बारी से दोनों भाईयों से युद्ध करने लगा। वह युद्ध में किसी प्रकार घायल नहीं होता था, क्योंकि उसका वध उसके राजभवन में रखे लकड़ी के टुकड़े पर तीक्ष्ण किये गये अस्र से ही होना था। लक्ष्मण मंदंगिरी के अस्र को लेकर लावन के राजभवन में प्रवेश कर गया और उसने वहाँ लकड़ी पर रगड़कर उसे तीक्ष्ण कर दिया। मंदंगिरी ने उसी अस्र से लावन पर प्रहार किया जिससे उसकी मृत्यु हो गई।
युद्ध समाप्त होने पर लक्ष्मण के आदेश से एक घड़ियाल मलैला के साथ दोनों भाईयों को पीठ पर चढ़ा कर आगम नियोग चल पड़ा। लक्ष्मण उनके साथ गया। आगम नियोग पहुँचने पर एक भव्य समारोह हुआ। इस अवसर पर लक्ष्मण सुंदर राजकुमार के रुप में परिवर्तित हो गया।२ चारों ओर उल्लास छा गया।
तिब्बत की राम कथा
राम कथा की उत्तरवाहिनी धारा कब तिब्बत पहुँची, यह सुनिश्चित रुप से नहीं कहा जा सकता है, किंतु वहाँ के लोग प्राचीन काल से वाल्मीकि रामायण की मुख्य कथा से सुपरिचित थे। तिब्बती रामायण की छह प्रतियाँ तुन-हुआंग नामक स्थल से प्राप्त हुई है। उत्तर-पश्चिम चीन स्थित तुन-हुआंग पर ७८७ से ८४८ ई. तक तिब्बतियों का आधिपत्य था। ऐसा अनुमान किया जाता है कि उसी अवधि में इन गैर-बौद्ध परंपरावादी राम कथाओं का सृजन हुआ।१ तिब्ब्त की सबसे प्रामाणिक राम कथा किंरस-पुंस-पा की है जो ‘काव्यदर्श’ की श्लोक संख्या २९७ तथा २८९ के संदर्भ में व्याख्यायित हुई है।२
किंरस-पुंस-पा की राम कथा के आरंभ में कहा गया है कि शिव को प्रसन्न करने के लिए रावण द्वारा दसों सिर अर्पित करने के बाद उसकी दश गर्दनें शेष रह जाती हैं। इसी कारण उसे दशग्रीव कहा जाता है। महेश्वर स्वयं उसके पास जाते हैं और उसे तब तक के लिए अमरता का वरदान देते हैं, जब तक कि उसका अश्वमुख मंजित नहीं हो जाता।
दशरथ देवासुर संग्राम में घायल हो जाते हैं। अयोध्या लौटने पर केकेया (केकैयी) उनके घावों का उपचार करती है। स्वस्थ होने पर राजा उसकी कोई एक इच्छा पूरी करने का वरदान देते हैं। कालांतर में जब राजा दशरथ ज्येष्ठ पुत्र रामन को राजा बनाना चाहते हैं, तब केकेया अपने पुत्र को राज्य और रामन को बारह वर्ष वनवास का वर माँग लेती है। पिता के आदेशानुसार रामन सीता सहित वन चले जाते है।
रावण के घर एक रुपवती कन्या का जन्म होता है, किंतु ऐसा संकेत मिलता है कि लंका में उसके रहने से दानवों का विनाश हो सकता है। इसलिए उसे तांबे के बक्से में बंद कर जल में फेंक दिया जाता है। वह कन्या एक कृषक को मिलती है। वह उसका नाम रौल-रेंड-मा रख देता है। उसका विवाह राम से होता है, तब उसका नाम सीता रख दिया जाता है।
पति के साथ वन गमन के बाद दशग्रीव को उसके सौंदर्य का पता चलता है। दशग्रीव की बहन स्ला-वियड-मा (शूपंणखा) रामन को प्रलोभित कर सीता से अलग हटाने के लिए मगृ रुप धारण कर उसके पास जाती है। मृग का पीछा करने के पूर्व रामन सीता की सुरक्षा हेतु प्रकाश-भित्ति की घेराबंदी कर जाते हैं। राम के जाने के बाद दशग्रीव दानवी माया से उस भूखंड को ही उठाकर लंका ले जाता है।
मृग को पकड़ने में विफल होने के बाद रामन अपने निवास स्थान लौटते हैं, तब उन्हें पता चलता है कि सीता का अपहरण हो गया। सीतान्वेषण क्रम में उन्हें एक गर्म जलवाली नदी मिली जिसका स्रोत राज्य के लिए युद्धरत बब्ले (वालि) और सुग्रीव का स्वेद था। रामन ने सुग्रीव की सहायता की। उनके बाण से वालि की मृत्यु हो गयी। सुग्रीव रामन को शिव पुत्र हनुमान के पास ले गया। त्रिनेत्रधारी हनुमान सीता हरण की बात सुनकर एक ही छलांग में लंका पहुँच गये। वंदिनी सीता को उन्होंने अपना परिचय रामदूत के रुप में दिया और उन्हें रामन की अंगूठी दी। सीता का संदेश लेकर वे फिर एक ही छलांग में रामन के पास पहुँच गये।
वानरी सेना के साथ रामन समुद्र तट पहुँचे। सेतु निर्माण के बाद वे समुद्र पार कर दैत्यराज के राजभवन में प्रवेश कर गये। रामन ने उसका अश्व मस्तक काट कर उसका वध कर दिया। उन्होंने असंख्य दानवों का भी दलन किया। अपने इसी पाप के कारण वे कलियुग में बुद्ध के रुप में अवतरित हुए। हनुमान ने वाटिका के वृक्षों को उखाड़कर उलटा खड़ा कर दिया। यद्यपि वे आसानी से भाग सकते थे, किंतु अपनी अद्भुत शक्ति के प्रदर्शन हेतु बंधन में बंध गये। उनकी पूँछ में आग लगा दी गयी, तो उन्होंने उस आग से लौह प्राचीर सहित त्रिकूट स्थित नगर को भ कर दिया।
रावण का अनुज कुंभकर्ण तपस्यारत था। बंदरों ने उसके कान में पिघला हुआ कांसा डाल दिया। उसके श्वास से रामन और हनुमान को छोड़कर संपूर्ण सेना कंकाल बन गयी। हिमगिरि से औषधि लाने के क्रम में हनुमान पूरे पहाड़ को ही उठाकर ले आये। रामन ने स्वयं औषधि ढूंढकर सबका उपचार किया। हनुमान से पर्वत को पुन: यथा स्थान रख आने के लिए कहा गया, तो उन्होंने उसे वही से उठाकर अपनी जगह पर फ्ैंक दिया जिससे उसकी चोटी टेढ़ी हो गयी। उसी पर्वत का एक भाग टूट कर गिर गया जो तिसे (कैलास) के नाम से विख्यात हुआ। अंत में सीता सहित रामन पुष्पक विमान से अयोध्या लौट गये जहाँ भरत ने उनका भव्य स्वागत किया।
चीन की राम कथा
चीनी साहित्य में राम कथा पर आधारित कोई मौलिक रचना नहीं हैं। बौद्ध धर्म ग्रंथ त्रिपिटक के चीनी संस्करण में रामायण से संबद्ध दो रचनाएँ मिलती हैं। ‘अनामकं जातकम्’ और ‘दशरथ कथानम्’। फादर कामिल लुल्के के अनुसार तीसरी शताब्दी ईस्वी में ‘अनामकं जातकम्’ का कांग-सेंग-हुई द्वारा चीनी भाषा में अनुवाद हुआ था जिसका मूल भारतीय पाठ अप्राप्य है। चीनी अनुवाद लियेऊ-तुत्सी-किंग नामक पुस्तक में सुरक्षित है।१
‘अनामकं जातकम्’ में किसी पात्र का नामोल्लेख नहीं हुआ है, किंतु कथा के रचनात्मक स्वरुप से ज्ञात होता है कि यह रामायण पर आधारित है, क्योंकि इसमें राम वन गमन, सीता हरण, सुग्रीव मैत्री, सेतुबंधष लंका विजय आदि प्रमुख घटनाओं का स्पष्ट संकेत मिलता है। नायिका विहीन ‘अनामकं जातकम्’, जानकी हरण, वालि वध, लंका दहन, सेतुबंध, रावण वध आदि प्रमुख घटनाओं के अभाव के बावजूद वाल्मीकि रामायण के निकट जान पड़ता है। अहिंसा की प्रमुखता के कारण चीनी राम कथाओं पर बौद्ध धर्म का प्रभाव स्पष्ट रुप से परिलक्षित होता है।
‘दशरथ कथानम्’२ के अनुसार राजा दशरथ जंबू द्वीप के सम्राट थे। राजा की प्रधान रानी के पुत्र का नाम लोमो (राम)। दूसरी रानी के पुत्र का नाम लो-मन (लक्ष्मण) था। राजकुमार लोमो में ना-लो-येन (नारायण) का बल और पराक्रम था। उनमें ‘सेन’ और ‘रा’ नामक अलौकिक शक्ति थी तीसरी रानी के पुत्र का ना पो-लो-रो (भरत) और चौथी रानी के पुत्र का नाम शत्रुघ्न था।
राजा तीसरी रानी पर आसक्त थे। वे उसकी इच्छापूर्ति हेतु सर्व न्योछावर करने की बात करते थे। रानी ने उनके वचन को धरोहर के रुप में रख छोड़ा था। कालांतर में राजा बीमार हो गये। उन्होंने राजकुमार लोमो को राजा बना दिया। उनके बालों को रेशम की डोरी से बांधा गया और सिर पर दिव्य मुकुट पहना दिया गया। छोटी रानी को लोमो का राजा बनना रास नहीं आया। राजा के कुछ स्वस्थ होने पर उसने पूर्व में दिये गये वचन के अनुसार अपने पुत्र पो-लो-रो को राजा बनाने के लिए कहा। राजा को अपने ज्येष्ठ पुत्र पर पूरा भरोसा था। उन्होंने उसे अपदस्थ कर पो-लो-रो को राजा बना दिया।
लोमो के अनुज ने उनसे इसका विरोध करने के लिए कहा, क्योंकि उनके पास ‘सेन’ और ‘रा’ नामक अलौकिक शक्ति थी, किंतु उन्होंने उत्तर दिया कि आज्ञाकारी पुत्र को पिता की इच्छा के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए। छोटी माता को मेरे पूज्य पिता का स्नेह प्राप्त है। इसलिए वही सच्ची माता हैं। रामानुज चुप हो गये। पिता के आदेशानुसार वे दोनों बारह वर्षों के लिए वन चले गये।
राजा का स्वर्गवास हो गया। उस समय पो-लो-रो दूसरे देश में थे। उन्हें स्वदेश बुलाया गया और राजा बना दिया गया, किंतु परंपरा के प्रतिकूल आग्रज को अपदस्थ कर उन्हें राजा बनाया गया था। इसलिए उनके मन में अपनी माता के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी। वे सेना के साथ अपने अग्रज से मिलने पहाड़ परगये। लो-मन के मन में संदेह हुआ, किंतु लोमो के मन में किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न नहीं हुआ। उन्होंने पो-लो-रो से सेना के साथ आने का कारण पूछा,तो उसने बताया कि मार्ग में लुटेरों से बचने के लिए उसने ऐसा किया। उसने अपने अग्रज से स्वदेश लौटकर राज्य का शासन संभालने के लिए बार-बार अनुरोध किया, किंतु लोमो ने पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना उचित नहीं समझा। अंतत: पो-लो-रो अपने अग्रज की चरण पादुका लेकर घर लौट गये और उन्हें राज सिंहासन पर स्थापित कर दिया।
पो-लो-रो चरण पादुका की पूजा करते थे और उससे आदेश लेकर शासन संचालन करते थे। लोमो को मालूम हो गया था कि पो-लो-रो उनकी चरण पादुका को आग्रज की तरह सम्मान देते हैं। इसलिए समय पूरा होने पर वे घर लौट गये। राजा का पद ग्रहण करने से इन्कार करने पर पो-लो-रो ने उन्हें यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि परंपरानुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राज सिंहासन का उत्तराधिकारी होता है। परंपरा भंग करना उचित नहीं है। लोमो राजा बने। देश धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया। कोई किसी रोग से पीड़ित नहीं रहा। जंबू द्वीप के लोगों की सुख-समृद्धि पहले से दस गुनी हो गयी।
खोतानी राम कथा
एशिया के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को खोतान कहा जाता है जिसकी भाषा खोतानी है। एच.डब्लू. बेली ने पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से खोतानी रामायण को खोजकर प्रकाश में लाया। उनकी गणना के अनुसार इसकी तिथि नौवीं शताब्दी है।१ खोतानी रामायण अनेक स्थलों पर तिब्बीती रामायण के समान है, किंतु इसमें अनेक ऐसे वृत्तांत हैं जो तिब्बती रामायण में नहीं हैं।
खोतानी रामायण के अनुसार राजा दशरथ के प्रतापी पुत्र सहस्त्रवाहु वन में शिकार खेलने गये जहाँ उनकी भेंट एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण से हुई। उन्होंने अपनी तपस्या से चिंतामणिऔर कामधेनु प्राप्त किया था। कामधेनु की कृपा से ब्राह्मण ने राजा का भव्य स्वागत किया। प्रस्थान करते समय राजा की आज्ञा से उनके अनुचर ब्राह्मण की गाय लेकर चले गये। इसकी जानकारी ब्राह्मण पुत्र परशुराम को हुई। उसने सहस्त्रवाहु का वध कर दिया। परशुराम के भय से सहस्त्रवाहु की पत्नी ने अपने पुत्र राम और रैषमा (लक्ष्मण) को पृथ्वी के अंदर छिपा दिया। बारह वर्षों के बाद दोनों बाहर आये। राम अद्वितीय धनुर्धर थे। उन्होंने अपने अनुज रैषमा को राज्य संभालने के लिए कहा और स्वयं अपने पिता के हत्यारे परशुराम को ढूंढ़ कर वध कर दिया।
दानवराज दशग्रीव को एक पुत्री हुई। भविष्य वक्ताओं ने उसकी कुंडली देखकर कहा कि वह अपने पिता के साथ समस्त दानव कुल के नाशकर कारण बनेगी। इसलिए उसे बक्से में बंदकर नदी में बहा दिया गया। वह बक्सा एक ॠषि को मिला। उन्होंने उसका पालन पोषण किया। वह रक्षा वलय के बीच एक वाटिका में रहती थी। राम और रैषमा उसे देखकर मोहित हो गये। खोतानी रामायण में यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि राम और रैषमा का उसके साथ कैसा संबंध था।
खोतानी रामायण के अनुसार चमत्कारी मृग की सौ आंखे थी। राम और रैषमा ने उसकी पीछा किया। इसी अंतराल में दशग्रीव वहाँ पहुँचा, किंतु वह रक्षा वलय को पार नहीं कर सका। इसके बाद वह भिक्षुक वेश में सीता के पास गया और रक्षा वलय के बाहर आने पर उन्हें उठाकर भाग गया।
सीतन्वेषण क्रम में दोनों भाईयों की भेंट एक बूढ़े बंदर से हुई। उसी स्थल पर दो सहोदर बंदर पैत्रिक राज्य के लिए युद्धरत थे। उनमें से एक का नाम सुग्रीव और दूसरे का नंद था। राम की नंद से मैत्री हो गयी। उन्होंने सुग्रीव का वध कर दिया। नंद ने यह कह कर बंदरों को सीता की खोज करने के लिए भेजा कि यदि वे सात दिनों में सीता की खोज नहीं कर पाते, तो उनकी आँखें निकाल ली जायेगी। छह दिन बीत गये। सातवें दिन लफुस नामक एक बंदरी ने मादा काक और उसके बच्चों की बात को सुन लिया। मादा काक अपने बच्चों से कह रही थी कि दशग्रीव ने सीता का अपहरण कर लिया है। बंदर उन्हें खोज नहीं पायेंगे। इसलिए कल्ह उन्हें बंदरों की आँखे खाने का सुयोग है। बंदरी के माध्यम से यह समाचार बंदरों को मिला। फिर, यह संदेश राम और रैषमा को दिया गया।
राम और रैषमा वानरी सेना के साथ समुद्र तट पर गये। वहाँ पहुँचने पर नंद ने कहा ब्रह्मा के वरदान के कारण उसके द्वारा स्पर्श करने पर पत्थर जल में तैरने लगते हैं। फिर, नंद के सहयोग से सेतु का निर्माण हुआ और सेना सहित राम और रैषमा लंका पहुँचे।
बंदरों के कोलाहल से दशग्रीव उत्तेजित हो गया। वह उड़कर आकाश में चला गया और समुद्र से एक विषधर सांप को पकड़कर उसी से बानरी सेना पर प्रहार किया। नागास्र से राम आहत हो गये। नंद अमृत-संजीवनी लाने के क्रम में हिमवंत पर्वत को ही उखाड़कर ले आया। औषधि के प्रयोग से राम स्वस्थ हो गये।
रावण की जन्म कुंडली देखने पर पता चला कि उसकी जीवनी उसके अंगूठे में है। राम ने उसे अंगूठा दिखाने के लिए कहा। उसने जैसे ही अंगूठा दिखाया, राम ने उस पर बाण प्रहार कर उसे मुर्छित कर दिया। आत्मसमपंण करने के बाद उसे मुक्त कर दिया गया। बौद्ध प्रभाव के कारण उसका वध नहीं किया गया। राम और रैषमा ने सीता के साथ सौ वर्ष बिताया। इसी बीच लोकापवाद के कारण सीता धरती में प्रवेश कर गयी। अंत में शाक्य मुनि कहते हैं कि इस कथा का नायक राम स्वयं वे ही थे और मैत्रेय रैषमा था।
मंगोलिया की राम कथा
चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया के लोगों को राम कथा की विस्तृत जानकारी है। वहाँ के लामाओं के निवास स्थल से वानर-पूजा की अनेक पुस्तकें और प्रतिमाएँ मिली हैं। वानर पूजा का संबंध राम के प्रिय पात्र हनुमान से स्थापित किया गया है।१ मंगोलिया में राम कथा से संबद्ध काष्ठचित्र और पांडुलिपियाँ भी उपलबध हुई हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि बौद्ध साहित्य के साथ संस्कृत साहित्य की भी बहुत सारी रचनाएँ वहाँ पहुँची। इन्हीं रचनाओं के साथ रामकथा भी वहाँ पहुँच गयी। दम्दिन सुरेन ने मंगोलियाई भाषा में लिखित चार राम कथाओं की खोज की है।२ इनमें राजा जीवक की कथा विशेष रुप से उल्लेखनीय है जिसकी पांडुलिपि लेलिनगार्द में सुरक्षित है।
जीवक जातक की कथा का अठारहवीं शताब्दी में तिब्बती से मंगोलियाई भाषा में अनुवाद हुआ था जिसके मूल तिब्बती ग्रंथ की कोई जानकारी नहीं है। आठ अध्यायों में विभक्त जीवक जातक पर बौद्ध प्रभाव स्पष्ट रुप से दिखाई पड़ता है। इसमें सर्वप्रथम गुरु तथा बोधिसत्व मंजुश्री की प्रार्थना की गयी है। जीवक पूर्व जन्म में बौद्ध सम्राट थे। उन्होंने अपनी पत्नी तथा पुत्र का परित्याग कर दिया। इसी कारण उन्हें दोनों ने शाप दे दिया कि अगले जन्म में वे संतानहीन हो जायेंगे। जीवक की भेंट भगवान बुद्ध से हुई। उन्होंने श्रद्धा के साथ उनका प्रवचन सुना और उन्हें अपने निवास स्थान पर आमंत्रित किया। इस घटना के बाद जीवक की भेंट दस हज़ार मछुआरों से हुई। उन्होंने उन्हें अहिंसा का उपदेश दिया।
जीवक नामक राजा को तीन रानियाँ थीं। तीनों को कोई संतान नहीं थी। राजा वंशवृद्धि के लिए बहुत चिंतित थे। एक बार उन्होंने पुत्र का स्वप्न देखा। भविष्यवस्ताओं के कहने पर वे उंदुबरा नामक पुष्प की तलाश में समुद्र तट पर गये। वहाँ से पुष्प लाकर उन्होंने रानी को दिया। पुष्प भक्षण से रानी को एक पुत्र हुआ जिसका नाम राम रखा गया। कालांतर में राम राजा बने। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। उन्होंने अपने राज्य में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु कुकुचंद को आमंत्रित किया।
लंका के एक दानव ने मृग का रुप धारण कर लिया था। उसका अगला धड़ सोना और पिछला चांदी का था। वह राम के राज्य में निवास करने वाले ॠषियों की तपस्या में बाधा पहुँचाता था। ॠषियों ने राम को बुलवाया। राम ने पत्थर से मृग की एक आँख फोड़ दी। ॠषियों ने आशीर्वाद स्वरुप उन्हें अजेय शक्ति प्रदान की।
दानवों के देश में एक बूढ़ी औरत ने एक बच्ची को जन्म दिया। ज्योतिष शास्र के ज्ञाताओं ने कहा कि यदि वह लड़की जीवित रहती है, तो देश का नाश हो जायेगा। दानवों ने उसे एक बक्से में बंदकर समुद्र में फेंक दिया। वह बक्सा जंबू द्वीप चला गया जहाँ वह एक किसान को मिला। किसान ने उस बच्ची का पालन-पोषण किया। जब वह बड़ी हुई, तब उसने राम से उसका विवाह कर दिया।
दानवराज दशग्रीव को अपनी बहन द्वारा राम की पत्नी के सौंदर्य का पता चला। उसने अपने एक मंत्री को मनोहर मृग का रुप धारण कर राम के पास जाने के लिए कहा। वह मृग उन्हें लुभाकर दूर ले गया। राम जिस समय द्रुत गति से भागते हुए मृग का पीछा कर रहे थे, दानवराज उनकी पत्नी का अपहरण कर अपने देश ले गया।
राम अपनी पत्नी को तलाशते हुए बंदरों के राज्य में पहुँचे। वहाँ दो बंदर आपस में लड़ रहे थे। उनके नाम वालि और सुग्रीव थे। उन्होंने सुग्रीव के अनुरोध पर वालि का वध कर दिया। आभारवश सुग्रीव ने उन्हें बंदरों की विशाल सेना प्रदान की जिसके प्रधान हनुमान थे। राम वानरी सेना के साथ लंका पहुँचे। वे दानव राज को पराजित कर अपनी पत्नी के साथ देश लौट गये, जहाँ वे सुख से जीवन व्यतीत करने लगे।
जापान की राम कथा
जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह ‘होबुत्सुशू’ में संक्षिप्त राम कथा संकलित है। इसकी रचना तैरानो यसुयोरी ने बारहवीं शताब्दी में की थी।१ रचनाकार ने कथा के अंत में घोषणा की है कि इस कथा का स्रोत चीनी भाषा का ग्रंथ ‘छह परिमिता सूत्र’ है।२ यह कथा वस्तुत: चीनी भाषा के ‘अनामकंजातकम्’ पर आधारित है, किंतु इन दोनों में अनेक अंतर भी हैं।
अनाम नरेश कथा३ के अनुसार तथागत शाक्य मुनि एक विख्यात साम्राज्य के स्वामी थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। उसी समय पड़ोसी राज्य ‘किउसी’ में बहुत बड़ा अकाल पड़ा। लोग भूख से मरने लगे। ऐसी स्थिति में वहाँ के लोगों ने तथागत के राज्य पर आक्रमण कर अन्न प्राप्त करने की योजना बनाई। आक्रमण की जानकारी मिलने पर तथागत की प्रजा दृढ़तापूर्वक उसका सामना करने के लिए तैयार हो गयी।
तथागत को जब आक्रमण की योजना की जानकारी मिली, तब उन्होंने युद्ध में अनगिनत लोगों के मारे जाने की संभावना को देखते हुए अपने मंत्रियों को युद्ध करने से मना कर दिया और स्वयं अपनी रानी के साथ तपस्या करने पहाड़ पर चले गये। तथागत के अचानक चले जाने से वहाँ के योद्धा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। उन लोगों ने बिना युद्ध किये ही शत्रु के समक्ष आत्मसमपंण कर दिया।
राजा पहाड़ पर कंदमूल खाकर तपस्या करने लगे। एक दिन एक ब्राह्मण तपस्वी राजा के पास आया। राजा को उसे देखकर प्रसन्नता हुई। वह राजा के साथ रहकर उनकी सेवा करने लगा। राजा एक दिन पहाड़ पर फल लाने गये. उनकी अनुपस्थिति में ब्राह्मण ने रानी का अपहरण कर लिया। लौटने पर रानी को नहीं देखकर राजा विचलित हो गये। वे रानी की खोज में निकल पड़े। उसी क्रम में उनको एक विशाल मरणासन्न पक्षी से भेंट हुई। उसके दोनों पंख टूटे हुए थे। उसने उन्हें बतलाया का ब्राह्मण सेवक ने रानी का अपहरण किया है। प्रतिरोध कने पर उसने नागराज का रुप धारण कर लिया और उसकी यह दशा कर दी। इतना कहने के बाद पक्षी का प्राणांत हो गया। उसे देखकर राजा द्रवित हो गया। उन्होंने पहाड़ की चोटी पर उसका अंतिम संस्कार कर दिया।
पक्षी की बात पर विश्वास कर राजा दक्षिण की ओर चल पड़े। उन्होंने रास्ते में हज़ारों बंदरों को गर्जना करते देखा। राजा को देखकर वे प्रमुदित हो उठे। उन्होंने बताया कि जिस पहाड़ पर उनका बहुत दिनों से अधिकार था, उस पर पड़ोसी देश के राजा ने कब्जा कर लिया है। दूसरे दिन दोपहर को युद्ध होना निश्चित है। सारे बंदर राजा को अपना सेनापति बनाना चाहते थे, किंतु राजा युद्ध के नाम से विचलित हो गये। वानरों के अनुरोध पर अंत में उन्हें स्वीकृति देना पड़ी। बंदरों ने उन्हें धनुष-बाण लाकर दिया। निर्धारित समय पर युद्ध आरंभ हो गया। राजा ने पूरी शक्ति से धनुष को ताना। उनके रुप को देखकर ही शत्रु सेना भाग गई। वानर दल में उल्लास छा गया।
राजा ने बंदरों को अपनी पत्नी के अपहरण की बात बतायी। वानर दल उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गये। राजा वानर दल के साथ समुद्र तट पर पहुँचे। अहिंसा धर्म का पालन करने के कारण राजा की दुर्गति को देखकर ब्रह्मा द्रवित हो गये। वे भी छोटा बंदर का रुप धारण कर वहाँ पहुँच गये। लघु कपि ने समुद्र के मध्य स्थित नागराज के भवन तक पहुँचने के लिए बंदरों को लकड़ी और जड़ी-बूटी की सहायता से पुल बनाने के लिए कहा। उसकी सलाह के अनुसार पुल तैयार हो गया।
वानरी सेना सेतु मार्ग से नागराज के भवन के निकट पहुँच गयी। यह देखकर नागराज क्रुद्ध हो गया। बर्फीले तूफान से आहत वानर योद्धा बेहोश हो गये। लघु कपि ने हिमालय से महावटी की शाखा लाकर उनका उपचार किया। उस दिव्य औषधि के प्रभाव से सब में शक्ति का संचार हुआ। नागराज पुन: आग उगलता हुआ आगे बढ़ा, किंतु इस बार राजा के बाण से आहत होकर धाराशायी हो गया। वानरी सेना राजभवन में प्रवेश कर गयी। नाग भवन से रानी की मुक्ति के साथ सात रत्नों की प्राप्ति हुई। राजा रानी के साथ देश लौट गये। उसी समय ‘किउसी’ के राजा की मृत्यु हो गयी। वहाँ की प्रजा ने भी उन्हें अपना राजा मान लिया। इस प्रकार वे अपने देश के साथ ‘किउसी’ के भी सम्राट बन गये।
श्रीलंका की राम कथा
श्रीलंका के संस्कृत एवं पाली साहित्य का प्राचीन काल से ही भारत से घनिष्ट संबंध था। भारतीय महाकाव्यों की परंपरा पर आधारित ‘जानकी हरण’ के रचनाकार कुमार दास के संबंध में कहा जाता है कि वे महाकवि कालिदास के अनन्य मित्र थे। कुमार दास (५१२-२१ई.) लंका के राजा थे। इतिहासकारों ने उनकी पहचान कुमार धातुसेन के रुप मं की है।१ कालिदास के ‘रघुवंश’ की परंपरा में विरचित ‘जानकी हरण’ संस्कृत का एक उत्कृष्ट महाकाव्य है। इसकी महनीयता इस तथ्य से रेखांकित होती है कि इसके अनेक श्लोक काव्य शास्र के परवर्ती ग्रंथों में उद्धृत किये गये हैं। इसका कथ्य वाल्मीकि रामायण पर आधारित है।
सिंहली साहित्य में राम कथा पर आधारित कोई स्वतंत्र रचना नहीं है। श्री लंका के पर्वतीय क्षेत्र में कोहंवा देवता की पूजा होती है। इस अवसर पर मलेराज कथाव (पुष्पराज की कथा) कहने का प्रचलन है।२ इस अनुष्ठान का आरंभ श्रीलंका के सिंहली सम्राट पांडुवासव देव के समय ईसा के पाँच सौ वर्ष पूर्व हुआ था।३
मलेराज की कथा के अनुसार राम के रुप में अवतरित विष्णु एक बार शनि की साढ़े साती के प्रभाव क्षेत्र में आ गये। उन्होंने उसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए सीता से अलग हठकर हाथी का रुप धारण कर सात वर्ष व्यतीत किया। समय पूरा होने में जब एक सप्ताह बाकी था, तब दानवराज रावण ने सीता का अपहरण कर लिया। उसने देवी सीता को पथ भ्रष्ट करना चाहा। सीता ने कहा कि वे तीन महीने के व्रत पर हैं। व्रत की अवधि समाप्त हो जाने के बाद वे उसकी इच्छा की पूर्ति करने का प्रयत्न करेंगी।४
सात वर्ष पूरा होने पर राम घर लौटे। अपने निवास स्थानपर सीता को अनुपस्थित पाकर वे उनकी तलाश में निकल पड़े। वे जंगल में भटक रहे थे। उसी क्रम में अचानक उनकी भेंट विषादग्रस्त वालि से हुई। वारनराज ने वालि की पत्नी का अपहरण कर लिया था। उसने अपनी पत्नी की पुन: प्राप्ति हेतु राम से सहयोग की याचना की। उसके बदले वह रावण के छलकर सीता को वापस लाने का वचन दिया।
राम ने वानरराज का वध कर दिया। वालि को अपनी पत्नी मिल गयी। उसने राम को समुद्र पर चलने और अग्नि तथा बाण से निरापद रहने का वरदान दिया। वालि रावण के उद्यान में चला गया। वह पेड़ पर चढ़कर आम खाने लगा। राक्षसों ने उसे पकड़ने का प्रयत्न किया, किंतु विफल हो जाने पर उन लोगों ने इसकी सूचना दानव राज को दी। राजा के सैनिकों ने उसे घेर लिया। वे उसके कौतुक का आनंद लेने लगे। रावण के साथ सीता भी वहाँ उपस्थित थी। उन्होंने बंदर की पूँछ में कपड़ा लपेट कर आग लगा देने की सलाह दी। पूँछ में आग लग जाने पर वालि उछल कर महल की छत पर चढ़ गया। उसने संपूर्ण नगर को जला दिया। उसी अस्त-व्यस्तता में वह सीता को लेकर राम के पास चला गया।
लंका से लौटने के बाद सीता गर्भवती हो गयीं। उसी समय राम देवताओं की सभा में भाग लेने चले गये। लौटने पर रावण का चित्र बनाने के कारण उन्होंने लक्ष्मण से वन में ले जाकर सीता का वध कर देने के लिए कहा। लक्ष्मण ने उन्हें वन में छोड़ दिया और किसी वन्य प्राणी का वध कर रक्त रंजित तलवार लिए राम के पास लौटे।
सीता ने वाल्मीकि आश्रम में एक पुत्र को जन्म दिया। एक दिन वे उसे बिछावन पर सुलाकर वन में फल लाने गयीं। बच्चा बिछावन से नीचे गिर गया। वाल्मीकि ने बिछावन पर शिशु को नहीं देखकर उस पर एक कमल पुष्प फेंक दिया। वह शिशु बन गया। वन से लौटने पर उन्होंने दूसरे शिशु का रहस्य जानना चाहा। ॠषि ने सच्ची बात बता दी, किंतु सीता को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने ॠषि को फिर वैसा करने के लिए कहा, तो ॠषि ने कुश के पत्ते से एक अन्य शिशु की रचना कर दी। तीनों बच्चे जब सात वर्ष के हुए। तब वे मलय देश चले गये। वहाँ उन्होंने तीन राज भवनों का निर्माण करवाया। तीनों राजकुमार सदलिंदु, मल और कितसिरी के नाम से विख्यात हुए।
नेपाल की राम कथा: भानुभक्त कृत रामायण
नेपाल के राष्ट्रीय अभिलेखागार में वाल्मीकि रामायण की दो प्राचीन पांडुलिपियाँ सुरक्षित हैं। इनमें से एक पांडुलिपि के किष्किंधा कांड की पुष्पिका पर तत्कालीन नेपाल नरेश गांगेय देव और लिपिकार तीरमुक्ति निवासी कायस्थ पंडित गोपति का नाम अंकित है। इसकी तिथि सं. १०७६ तदनुसार १०१९ई. है। दूसरी पांडुलिपि की तिथि नेपाली संवत् ७९५ तदनुसार १६७४-७६ई. है।१
नेपाल में रामकथा का विकास मुख्य रुप से वाल्मिकि तथा अध्यात्म रामायण के आधार पर हुआ है। जिस प्रकार भारत की क्षेत्रीय भाषाओं क साथ राष्ट्रभाषा हिंदी में राम कथा पर आधारित अनेकानेक रचनाएँ है, किंतु उनमें गोस्वामी तुलसी दास विरचित रामचरित मानस का सर्वोच्च स्थान है, उसी प्रकार नेपाली काव्य और गद्य साहित्य में भी बहुत सारी रचनाएँ हैं। ‘रामकथा की विदेश-यात्रा’ के अंतर्गत उनका विस्तृत अध्ययन एवं विश्लेषण हुआ है।
नेपाली साहित्य में भानुभक्त कृत रामायण को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। नेपाल के लोग इसे ही अपना आदि रामायण मानते हैं। यद्यपि भनुभक्त के पूर्व भी नेपाली राम काव्य परंपरा में गुमनी पंत और रघुनाथ भ का नाम उल्लेखनीय है। रघुनाथ भ कृत रामायण सुंदर कांड की रचना उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुआ था। इसका प्रकाशन नेपाली साहित्य सम्मेलन, दार्जिलिंग द्वारा कविराज दीनानाथ सापकोरा की विस्तृत भूमिका के साथ १९३२ में हुआ।
नेपाली साहित्य के क्षेत्र में प्रथम महाकाव्य रामायण के रचनाकार भानुभक्त का उदय सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है। पूर्व से पश्चिम तक नेपाल का कोई ऐसा गाँव अथवा कस्वा नहीं है जहाँ उनकी रामायण की पहुँच नहीं हो। भानुभक्त कृत रामायण वस्तुत: नेपाल का ‘राम चरित मानस’ है। भानुभक्त का जन्म पश्चिमी नेपाल में चुँदी-व्याँसी क्षेत्र के रम्घा ग्राम में २९ आसढ़ संवत १८७१ तदनुसार १८१४ई. में हुआ था। संवत् १९१० तदनुसार १८५३ई. में उनकी रामायण पूरी हो गयी थी,२ किंतु एक अन्य स्रोत के अनुसार युद्धकांड और उत्तर कांड की रचना १८५५ई. में हुई थी।३
भानुभक्त कृत रामायण की कथा अध्यात्म रामायण पर आधारित है। इसमें उसी की तरह सात कांड हैं, बाल, अयोध्या, अरण्य, किष्किंधा, सुंदर, युद्ध और उत्तर।
बालकांड का आरंभ शिव-पार्वती संवाद से हुआ है। तदुपरांत ब्रह्मादि देवताओं द्वारा पृथ्वी का भारहरण के लिए विष्णु की प्रार्थना की गयी है। पुत्रेष्ठियज्ञ के बाद राम जन्म, बाल लीला, विश्वामित्र आगमन, ताड़का वध, अहिल्योद्धार, धनुष यज्ञ और विवाह के साथ परशुराम प्रसंग रुपायित हुआ है।
अयोध्या कांड में नारद आगमन, राज्याभिषेक की तैयारी, कैकेयी कोप, राम वनवास, गंगावतरण, राम का भारद्वाज और वाल्मीकि से मिलन, सुमंत की अयोध्या वापसी, दशरथ का स्वर्गवास, भरत आगमन, दशरथ की अंत्येष्ठि, भरत काचित्रकूट गमन, गुह और भारद्वाज से भरत की भेंट, राम-भरत मिलन, भरत की अयोध्या वापसी औ राम के अत्रि आश्रम गमन का वर्णन हुआ है।
अरण्यकांड में विराध वध, शरभंग, सुतीक्ष्ण और आगस्तमय से राम की भेंट, पंचवटी निवास, शूपंणखा-विरुपकरण, मारीच वध, सीता हरण और राम विलाप के साथ जटायु, कबंध और शबरी उद्धार की कथा है।
किष्किंधा कांड में सुग्रीव मिलन, वालि वध, तारा विलाप, सुग्रीव अभिषेक, क्रिया योग का उपदेश, राम वियोग, लक्ष्मण का किष्किंधा गमन, सीतानवेषण और स्वयंप्रभा आख्यान के उपरांत संपाति की आत्मकथा का उद्घाटन हुआ है।
सुंदर कांड में पवन पुत्र का लंका गमन, रावण-सीता संवाद, सीता से हनुमानकी भेंट, अशोक वाटिका विध्वंस, ब्रह्मपाश, हनुमान-रावण संवाद, लंका दहन, हनुमान से सीता का पुनर्मिलन और हनुमान की वापसी की चर्चा हुई है।
युद्ध कांड में वानरी सेना के साथ राम का लंका प्रयाण, विभीषण शरणागति, सेतुबंध, रावण-शुक संवाद, लक्ष्मण-मूर्च्छा, कालनेमिकपट, लक्ष्मणोद्धार, कुंभकर्ण एवं मेघनाद वध, रावण-यज्ञ विध्वंस, राम-रावण संग्राम, रावण वध, विभीषण का राज्याभिषेक, अग्नि परीक्षा, राम का अयोध्या प्रत्यागमन, भरत मिलन और राम राज्याभिषेक का चित्रण हुआ है।
उत्तरकांड में रावण, वालि एवं सुग्रीव का पूर्व चरित, राम-राज्य, सीता वनवास, राम गीता, लवण वध, अश्वमेघ यज्ञ, सीता का पृथ्वी प्रवेश और राम द्वारा लक्ष्मण के परित्याग के उपरांत उनके महाप्रस्थान के बाद कथा की समाप्ति हुई है।
कुछ समीक्षकों का कहना है कि भानुभक्त कृत रामायण अध्यात्म रामायण का अनुवाद है, किंतु यह यथार्थ नहीं है। तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि भानुभक्त कृत रामायण में कुल १३१७ पद हैं, जबकि अध्यात्म रामायण में ४२६८ श्लोक हैं। अध्यात्म रामायण के आरंभ में मंगल श्लोक के बाद उसके धार्मिक महत्व पर प्रकाश डाला गया है, किंतु भानुभक्त कृत रामायण सीधे शिव-पार्वती संवाद से शुरु हो जाती है। इस रचना में वे आदि से अंत तक अध्यात्म रामायण की कथा का अनुसरण करते प्रतीत होते हैं, किंतु उनके वर्णन में संक्षिप्तता है और यह उनकी अपनी भाषा-शैली में लिखी गयी है। यही उनकी सफलता और लोकप्रियता का आधार है।
भानुभक्त कृत रामायण में अध्यात्म रामायण के उत्तर कांड में वर्णित ‘राम गीता’ को सम्मिलित नहीं किया गया था। भानुभक्त के मित्र पं. धर्मदत्त ग्यावली को इसकी कमी खटक रही थी। विडंबना यह थी कि उस समय भानुभक्त मृत्यु शय्या पर पड़े थे। वे स्वयं लिख भी नहीं सकते थे। मित्र के अनुरोधपर महाकवि द्वार अभिव्यक्त ‘राम गीता’ को उनके पुत्र रामकंठ ने लिपिबद्ध किया।४ इस प्रकार नेपाली भाषा की यह महान रचना पूरी हुई जो कालांतर में संपूर्ण नेपाल वासियों का कंठहार बन गयी।
यात्रा की अनंतता
रामायण का आदि रचनाकार एक महान अभियंता की तरह अपने महाकाव्य का इतना भव्य और सुदृढ़ महल खड़ा करता है कि कालांतर में उस पर मंजिल पर मंजिल बनते जाते हैं, फिर भी न तो कभी उसकी नीव खिसकती है और न बड़ा से बड़ा भूकंप उसे हिला पाता है। देशी-विदेशी साहित्यकारों ने मूल कथा के इर्द-गिर्द उपकथाओं के इतने परकोटे खड़े कर दिये कि कोई भी आक्रमणकारी उसके अंदर प्रवेश कर उस अद्वितीय भवन को क्षतिग्रस्त नहीं कर सका।
रामायण का रचनात्मक स्वरुप इतना अनूठा, सशक्त और जीवंत है कि अन्य कोई कथा उसे पचा नहीं पायी, उल्टे उसके आख्यान इसके उपाख्यान बन कर रह गये। उसकी विशिष्टता वस्तुत: उसके स्वरुप के लचीलापन में समाहित है। देश-काल के परिवर्तन के साथ राम कथा के अंतर्गत भी बदलाव आता गया। देशी-विदेशी साहित्य सर्जकों ने इसे अपने-अपने ढंग से सजाया संवारा। रामकथा जहाँ कहीं भी गयी, वहाँ के हवा-पानी में घुल-मिल गयी, किंतु अनगिनत परिवर्तनों के बीच भी उसकी सर्वोच्चता ज्यों की त्यों बनी रही, अनेक शिखरों वाले धवल-उज्जवल हिमालय की तरह जिसका रंग सुबह से शाम तक बार-बार बदलता है, फिर भी उसके मूल स्वरुप में कोई बदलाव होता नहीं दीखती। संभवत: इसी कारण रामकथा पर आधारित जितनी मौलिक कृतियों का सृजन हुआ, संसार के किसी भी अन्य कथा को वह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका।
राम चरित अनेक देशों के प्राकृतिक परिवेश, सामाजिक संदर्भ और सांस्कृतिक आदर्शों के अनुरुप ढलता-सँवरता रहा। रामकथा पर आधारित विदशी कृतियाँ विविधता और विचित्रम से परिपूर्ण है। इनमें कोई बहुत संक्षिप्त है,तो कोई अत्यधिक विस्तृत। किसी को बौद्ध जातकों के सांचे में ढाला गया है, तो किसी का इस्लामीकरण हुआ है। उसका रचनात्मक स्वरुप ढीला-ढाला रेश्मी जामें जैसा है जिसे जो कोई पहन ले तो खूब फबता है और कोई यह भी नहीं कह सकता कि यह किसी दूसरे से उधार लिया गया है।
रामायण की महनीयता उस परम सौंदर्य को रुपायित करने में अंतर्निहित है जिससे परम मंगलमय सत्य उद्भाषित होता है। रामायण का महानायक राम मर्यादा पूरुषोत्तम हैं। उनकी पुरुषोत्मता यथार्थ में जीकर मानवीय मूल्यों की रक्षा करने में समाहित है,तो उनकी ईश्वरीयता उस चिरंतन सत्य से अवतरित होती है जो प्राणियों के लिए हितकर है, ‘सत्यं भूतहितं प्रोक्तम्’। निर्गुण निर्पेक्ष सत्य का यही सगुण-सापेक्ष रुप राम के चरित्र में उजागर हुआ है। रामायण का सत्य और सौंदर्य उसकी शिवता में समाहित है और उसका मंगलघर अपरिमित आनंद रस से परिपूर्ण है।
પુસ્તકોનું દાન.
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માણસ આંખ નું દાન કરે, ધન નું દાન કરે. આંખ નું દાન લઇ ભગવાન ના દર્શન કરવાને બદલે ગન્દી ફિલ્મો જુએ. ધન નું દાન લઇ ખરાબ કામ કરે. જો વિચારો ની ઉપલબ્ધી જ ના હોય તો આમ જ થવાનું. વિચારો ની ઉપલબ્ધી ના અલગ અલગ માર્ગ છે. તેમનું એક એટલે સારા પુસ્તકો.
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श्री राम स्तुति (मूल पाठ एवं हिन्दी अनुवाद सहित) – श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणम्।
श्री राम स्तुति (मूल पाठ एवं हिन्दी अनुवाद सहित)
http://kuchhpuraaniyaadein.blogspot.com/2009/01/blog-post_9765.html
नवकंज लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद-कंजारुणम्॥
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरम्॥
रघुनंद आनंदकंद कौशलचंद दशरथ-नंदनम्॥
आजानुभुज शर चाप धर, संग्रामजित खरदूषणम्॥
मम हृदय-कंज-निवास कुरु, कामादि खल दल गंजनम्॥
करुणा निधान सुजान सील सनेह जानत रावरो॥
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥
रिक्शे वाले अली ने लिखीं राम की कविताएं
आज के कबीर हैं यूपी के अली, रचीं राम की कविताएं
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
संत कबीर ने बहुत सही लिखा है। आज हर तरफ धर्म के नाम पर नफरत और झगड़े हो रहे हैं। हर कोई अपने अराध्य को श्रेष्ठ बता रहा है। ऐसे में उत्तर प्रदेश का एक मामूली सा रिक्शे वाला रहमाल अली राम की कविताएं लिखकर समाज के लिए न केवल एक मिसाल पेश की है, बल्कि ये भी बताया कि सत्य केवल ईश्वर है। धर्म तो लोगों को बनाया है, भगवान एक ही है। भगवान को चाहे कोई भी नाम दे दिया जाए, लेकिन आस्था एक समान ही रहनी चाहिए।
संत कबीर साहब राम की भक्ति पर अत्यधिक बल देते हैं और कहते हैं कि सब कुछ त्याग का राम का भजन करना चाहिए।
सरबु तिआगि भजु केवल राम
यानी राम या परमात्मा की भक्ति से ही माया का प्रभाव नष्ट हो सकता है तथा बिना हरि की भक्ति के कभी दुखों से मुक्ति नहीं हो सकती है। संत कबीर की तरह ही बस्ती के रहमान भी समाज में धार्मिक सद्भावना का संचार करना चाहते हैं। रहमान ने राम पर कविताएं लिखी हैं, रहमान की लिखी कविताएं आकर्षण का केंद्र बनी हुई हैं। उन्होंने कविताएं रचकर सिर्फ राम की महिमा गुणगान ही नहीं किया है, बल्कि एक दिन राम से पहरा हटने पर रामराज्य के लौटने का सपना भी देखा है।
बस्ती के भानपुर में बेहद गरीब परिवार में जन्मे 57 साल के रहमान अली रिक्शा चलाकर जिंदगी गुजर-बसर करते करते है। संत कबीर की तरह ही बेहद कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद रहमान की कविताएं पढ़कर लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं। रहमान के कविता की कुछ पंक्तियां हैं…
‘मचा है घर घर में कोहराम, न जाने कब आओगे राम।
दर्शन को अब पड़ गए लाले, कैद किए तुम्हें पहरा वाले।
क्यों इतने कमजोर पड़े हो, कुछ तो बोलो अभिराम।
अपनी कविताओं को सुनाते हुए रहमान अक्सर कहीं खो से जाते हैं। ऐसा लगता है मानो वह राम के ध्यान में कहीं ओर बह गए हैं। राम पर कविताएं लिखने पर रहमान का कहना है कि भगवान राम ने तो खुद कहा है कि ‘मम प्रिय सब मम उपजाए’ यानी सभी मनुष्य मेरी ही संतान हैं। इसलिए मुझे सभी समान रूप से प्रिय है।
रहमान का कहना है कि जब राम पहरे से मुक्त होंगे, तभी रामराज्य का सपना पूरा होगा। जिसमें सभी लोग आपस में प्रेम से रहकर परंपराओं के अनुसार अपने धर्म का पालन करेंगे। उनके मुताबिक, इसी भावना के कारण वह राम पर कविताएं लिखने के लिए प्रेरित हुए।
18 साल तक उन्होंने कानपुर में रिक्शा चलाया और आज भी वह बस्ती में रिक्शा चलाकर ही अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। रहमान ने बताया कि अब तक उनकी 6 किताबें प्रकाशित हो चुकी है, जिसमें ‘कुछ कविताएं’ और ‘भगवान राम का प्यारा हूं’ काफी भी लोकप्रिय रही हैं। हाल ही में रहमान का नया काव्य संग्रह ‘बोल उठा हिन्दुस्तान’ भी प्रकाशित हुआ है।
रहमान व्यंग्य और कविताओं के अलावा सवैया छंद, युगल गीत और मुक्तक भी लिखते हैं। उनकी काबिलियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2004 में राष्ट्रपति ने इनके पास शुभ कामना पत्र भी भेजा था। वहीं, 2007 में पूर्व केंद्रीय गृह राज्यमंत्री ने रहमान की कृतियों के लिए उन्हें सम्मानित किया था। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर अपनी कविताओं के लिए रहमान दर्जनों इनाम भी हासिल कर चुके हैं।
भगवान राम की बहिन
भगवान राम की बहिन
http://bhaandafodu.blogspot.com/2015/06/blog-post.html
1 – वाल्मीकि रामायण प्रामाणिक क्यों है
वाल्मीकि रामायण को प्रामाणिक . विश्वनीय और राम सम्बंधित ऐतिहासिक धार्मिक ग्रन्थ इसलिए माना जाता है , क्योंकि वाल्मीकि राम के समकालीन थे , और उन्हीं के आश्रम में ही राम के पुत्र लव और कुश का जन्म हुआ था ,और राम के बारे में जो भी जानकारी उनको मिलती थी यह रामायण में लिख लेते थे , रामायण इसलिए भी प्रामाणिक है की वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड के सर्ग 94 श्लोक 1 से 32 के अनुसार राम के दौनों पुत्र लव और कुश ने राम के दरबार में जाकर सबके सामने रामायण सुनाई थी , जिसे राम के सहित सभी ने सुना था
2-राम की बहिन होने का प्रमाण
जो लोग राम की बहिन होने पर शंका करते हैं , वह वाल्मीकि रामायण के बालकांड इन श्लोकों को ध्यान से पढ़ें , इनका हिंदी और अंगरेजी अर्थ दिया गया है
इक्ष्वाकूणाम् कुले जातो भविष्यति सुधार्मिकः |
नाम्ना दशरथो राजा श्रीमान् सत्य प्रतिश्रवः || काण्ड 1 सर्ग 11 श्लोक 2
अर्थ – ऋषि सनत कुमार कहते हैं कि इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न दशरथ नाम के धार्मिक और वचन के पक्के राजा थे ,
“A king named Dasharatha will be born into Ikshwaku dynasty who will be very virtuous, resplendent and truthful one to his vow.” [Said Sanat Kumara, the Sage.] [1-11-2]
अङ्ग राजेन सख्यम् च तस्य राज्ञो भविष्यति |
कन्या च अस्य महाभागा शांता नाम भविष्यति || काण्ड 1 सर्ग 11 श्लोक 3
अर्थ – उनकी शांता नामकी पुत्री पैदा हुई जिसे उन्होंने अपने मित्र अंग देश के राजा रोमपाद को गोद दे दिया , और अपने मंत्री सुमंत के कहने पर उसकी शादी श्रृंगी ऋषि से तय कर दी थी ,
Shanta is the daughter of Dasharatha and given to Romapada in adoption, and Rishyasringa marries her alone. This is what Sumantra says to Dasharatha at 1-9-19.
अनपत्योऽस्मि धर्मात्मन् शांता भर्ता मम क्रतुम् |
आहरेत त्वया आज्ञप्तः संतानार्थम् कुलस्य च || काण्ड 1 सर्ग 11 श्लोक 5
Then king Dasharatha says to king of Anga “oh, righteous one, I am childless and hence I intend to perform a Vedic ritual. Let the husband of your daughter Shanta, Sage Rishyasringa, preside over that Vedic ritual at you behest, for the sake of progeny in my dynasty. [1-11-5]
अर्थ -तब राजा ने अंग के राजा से कहा कि मैं पुत्रहीन हूँ , आप शांता और उसके पति श्रंगी ऋषि को बुलवाइए मैं उनसे पुत्र प्राप्ति के लिए वैदिक अनुष्ठान कराना चाहता हूँ ,
श्रुत्वा राज्ञोऽथ तत् वाक्यम् मनसा स विचिंत्य च |
प्रदास्यते पुत्रवन्तम् शांता भर्तारम् आत्मवान् || काण्ड 1 सर्ग 11 श्लोक 6
“On hearing those words of king Dasharatha that benevolent soul Romapada, the king of Anga, considers heartily and agrees to send the one who endows progeny by rituals, namely Sage Rishyasringa his son-in-law. [1-11-6]
अर्थ -दशरथ की यह बात सुन कर अंग के राजा रोमपाद ने हृदय से इसबात को स्वीकार किया ,और किसी दूत से श्रृंगीऋषि को पुत्रेष्टि यज्ञ करने के लिए बुलाया
आनाय्य च महीपाल ऋश्यशृङ्गं सुसत्कृतम्।
प्रयच्छ कन्यां शान्तां वै विधिना सुसमाहित: काण्ड 1सर्ग 9 श्लोक 12
अर्थ -श्रंगी ऋषि के आने पर राजा ने उनका यथायोग्य सत्कार किया और पुत्री शांता से कुशलक्षेम पूछ कर रीति के अनुसार सम्मान किया
अन्त:पुरं प्रविश्यास्मै कन्यां दत्त्वा यथाविधि।
शान्तां शान्तेन मनसा राजा हर्षमवाप स:।।काण्ड 1 सर्ग10 श्लोक 31
अर्थ -( यज्ञ समाप्ति के बाद ) राजा ने शांता को अंतः पर में बुलाया और और रीति के अनुसार उपहार दिए , जिस से शांता का मन हर्षित हो गया .
वाल्मीकि रामायण के यह प्रमाण उन लोगों की शंका मिटाने के लिए पर्याप्त हैं , जो लोग मान बैठे है ,कि राम की कोई भी बहिन नहीं है , वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त अन्य धार्मिक और ऐतिहासिक ग्रंथों में राम की बहिन शांता के बारे में जो भी लिखा है उसे एकत्र करके एक लेख के रूप में “Devlok, Sunday Midday, April 07, 2013 “ने प्रकाशित किया था , उसका सारांश यह है ,
3- कथा भगवान राम की बहन “शांता” की
श्रीराम के माता-पिता, भाइयों के बारे में तो प्रायः सभी जानते हैं लेकिन बहुत कम लोगों को यह मालूम है कि राम की एक बहन भी थीं जिनका नाम शांता था। वे आयु में चारों भाइयों से काफी बड़ी थीं। उनकी माता कौशल्या थीं। राजा दशरथ और कौशल्या की पुत्री थी शांता . एक बार अंगदेश के राजा रोमपद और उनकी रानी वर्षिणी अयोध्या आए। उनके कोई संतान नहीं थी। बातचीत के दौरान राजा दशरथ को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने कहा, मैं मेरी बेटी शांता आपको संतान के रूप में दूंगा।रोमपद और वर्षिणी बहुत खुश हुए। उन्हें शांता के रूप में संतान मिल गई। उन्होंने बहुत स्नेह से उसका पालन-पोषण किया और माता-पिता के सभी कर्तव्य निभाए।उनका विवाह कालांतर में शृंग ऋषि से हुआ था। कश्यप ऋषि पौत्र थे शृंग ऋषि .
4-शृंग ऋषि का आश्रम
बाद में ऋष्यशृंग ने ही दशरथ की पुत्र कामना के लिए पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया था। जिस स्थान पर उन्होंने यह यज्ञ करवाये थे वह अयोध्या से लगभग 39 कि.मी. पूर्व में था और वहाँ आज भी उनका आश्रम है और उनकी तथा उनकी पत्नी की समाधियाँ हैं।
हिमाचल प्रदेश में है शृंग ऋषि और देवी शांता का मंदिर ,हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में शृंग ऋषि का मंदिर भी है। कुल्लू शहर से इसकी दूरी करीब 50 किमी है। इस मंदिर में शृंग ऋषि के साथ देवी शांता की प्रतिमा विराजमान है। यहां दोनों की पूजा होती है और दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं।
शृंग ऋषि का मंदिर
श्रीभार्गवराघवीयम्
श्रीभार्गवराघवीयम्
(२००२), शब्दार्थ परशुराम और राम का, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००२ ई में रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसकी रचना ४० संस्कृत और प्राकृत छन्दों में रचित २१२१ श्लोकों में हुई है और यह २१ सर्गों (प्रत्येक १०१ श्लोक) में विभक्त है।[1]महाकाव्य में परब्रह्म भगवान श्रीराम के दो अवतारों परशुराम और राम की कथाएँ वर्णित हैं, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में उपलब्ध हैं। भार्गव शब्द परशुराम को संदर्भित करता है, क्योंकि वह भृगु ऋषि के वंश में अवतीर्ण हुए थे, जबकि राघव शब्द राम को संदर्भित करता है क्योंकि वह राजा रघु के राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। इस रचना के लिए, कवि को संस्कृत साहित्य अकादमी पुरस्कार (२००५) तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।[2]
महाकाव्य की एक प्रति, कवि की स्वयं की हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ३० अक्टूबर २००२ को किया गया था।
विकिपेडिया से साभार