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आरोग्य – सुभाषित – मुक्तावली


आरोग्य – सुभाषित – मुक्तावली

सुख – दु:ख का कर्ता व्यक्ति स्वयं ही होता है, ऐसा समझकर कल्याणकारी मार्ग का ही अवलंबन लेना चाहिए, फिर भयभीत होने की कोई बात नहीं । परीक्षक – विवेकीजन ठीक – ठाक परीक्षा करके हितकर मार्ग का सेवन करते हैं, परंतु रजोगुण और तमोगुण से आवृत बुद्धिवाले लौकिक मनुष्य (हिताहितका विचार न करके तत्काल) प्रिय (मालूम होने वाले आचार आदि) का सेवन करते हैं (इसलिए दु:खी होते हैं) ।

सम्पूर्ण प्राणियों की सभी चेष्टाएं सुख – प्राप्त करने के लिए ही होती हैं और वह सुख बिना धर्माचरण के प्राप्त हो नहीं सकता, अत: धर्म में परायण रहना चाहिए । जो आजीविकारहित हैं, रोगों से ग्रस्त हैं और शोक से पीड़ित हैं – ऐसे मनुष्यों की यथा शक्ति सेवा – सहायता करनी चाहिए । कीड़े – मकोड़े और चींटी आदि सभी प्राणियों को सदा अपने ही समान देखें अर्थात् सब में आत्मबुद्धि रखे ।

देवता, गौ, ब्राह्मण, वृद्ध (वयोवृद्ध, शीलवृद्ध, ज्ञानवृद्ध), वैद्य, राजा और अतिथि – इनका यथोयोग्य सम्मान करें । याचकों को विमुख न जाने दे । कठोर वचन कहकर उनका तिरस्कार न करें । अपकारपरायण शत्रु के साथ ही उपकार ही करें ।

प्रसंग आने पर हितकारी कानों को प्रिय और मीठे लगने वाले तथा वाद – विवाद रहित वचनों को बोलना चाहिए । अपने पास आने वालों के साथ प्रथम स्वयं ही बोलना चाहिए, उनके बोलने की अपेक्षा न करें । सदा हंसमुख रहें । शील – विनय से सम्पन्न, दयावान और कोमल चित्तवाला रहे ।

क्या तुम मृत्यु से डर रहे हो ? डरे हुए को क्या मृत्यु छोड़ देती है ? ऐसा समझ रहे हो तो यह तुम्हारी मूर्खता है । मृत्यु तो सबको काल का ग्रास बना देती है । वह तो जो जन्म ही नहीं लेता, उसी को नहीं पकड़ती है । इसलिए ऐसा प्रयत्न करे, जिससे पुन: जन्म ही न लेना पड़े ।

सारथी रथ की रक्षा में तत्पर रहता है, वैसे ही बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह शरीर की रक्षा के कार्यों में तत्पर रहे । अपनी जीविका को चलाने के लिए उन्हीं कर्मों को करे, जो धर्म के विरुद्ध न हों । जो मनुष्य शांत रहते हुए सद् ग्रंथों का अध्ययन और उनमें बताए गए सत्कर्मों को करता है, वह सुख प्राप्त करता है ।

इस लोक और परलोक हित चाहनेवाले लोगों को अप्रशस्त अर्थात् निंदित तथा जल्दबाजी के कार्यों को मन, वचन तथा कर्म से भी नहीं करना चाहिए । प्रत्येक कार्य धर्मानुकूल तथा सोच – विचार करना चाहिए । लोभ, शोक, भय, क्रोध, अहंकार, निर्लज्जता, ईर्ष्या, वासनामय, प्रेम, दूसरे के धन को हड़प ने की इच्छा आदि मानसिक वेगों को रोकना चाहिए । अत्यंत कठोर वचन, चुगली, झूठ और असमय पर बोलना – इन वचन के वेगों को रोकना चाहिए । किसी को पीड़ा पहुंचाने वाले कर्म, परस्त्री में रति, चोरी तथा हिंसा – इन शारीरिक वेगों को रोकना चाहिए ।

इस प्रकार (शारीरिक, मानसिक तथा वाचिक) इन तीनों वेगों के रोकने से मनुष्य मन, वचन और कर्म से होने वाले पापों से बचता है, पुण्य प्राप्त करता है और धर्म, अर्थ तथा काम के फलों का सुख से उपभोग करता है ।

प्रज्ञापराध (जानबूझकर की जानेवाली गलतियों) को त्यागना, इंद्रियों का संयम रखना, ठीक – ठाक ध्यान रखना, देश, काल और अपने – आपको समझना तथा सदाचार से चलना आदि – ये सब आगंतुक रोगों से बचने के मार्ग हैं । बुद्धिमान मनुष्य को रोगोत्पत्ति के पूर्व ही ऐसे कार्य करने चाहिए, जिनसे कि रोगों की उत्पत्ति ही न हो और अपना स्वास्थ्य बना रहे ।

जो पुरुष बुद्धि, विद्या, अवस्ता, शील, धैर्य, स्मरण शक्ति और ठीक – ठाक ध्यान रखने वाले, वृद्धों की सेवा में तत्पर रहने वाले, लोगों के स्वभाव को शीघ्र समझने वाले, मानसिक और शारीरिक कष्टों से मुक्त रहने वाले, सुंदर, सब जीवों पर दयादृष्टि रकने वाले, सत्परामर्श देने वाले हों तथा जिनकी गाथा सुनने से और जिनका दर्शन करने से पुण्य होते हो, महापुरुषों का साथ करनी चाहिए ।

उपधा (तृष्णा) ही समस्त रोगों या दु:खों का कारण है । अत: सब प्रकार की उपधाओं (तृष्णाओं) का त्याग करना ही सम्पूर्ण दु:खों का नाश करना है । जिस प्रकार से रेशम का कीड़ा अपनी मृत्यु के कारण स्वरूप रेशम के जाल का स्वयं निर्माण करता है और अंत में दु:ख को प्राप्त करता है, उसी तरह मूर्ख लोग स्वयं तृष्णा करते हैं और दु:ख भोगते हैं ।

हितकारी आहार और विहार का सेवन करने वाला, विचार पूर्वक काम करने वाला, काम – क्रोधादि विषयों में आसक्त न रहने वाला, सभी प्राणियों पर समयदृष्टि रखने वाला, सत्य बोलने में तत्पर रहने वाला, सहनशील और आप्तपुरुषों की सेवा करनेवाला मनुष्य अरोग (रोगरहित) रहता है । सुख देनेवाली मति, सुखकारक वचन और सुखकारक कर्म , अपने अधीन मन तथा शुद्ध पापरहित बुद्धि जिसके पास है और जो ज्ञान प्राप्त करने, तपस्या करने और योग सिद्ध करने में तत्पर रहता है, उसे शारीरिक और मानसिक कोई भी रोग नहीं होते (वह सदा स्वस्थ और दीर्घायु बना रहता है) ।

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Posted in भारतीय उत्सव - Bhartiya Utsav

होली क्यों मनाते हैं ?


होली क्यों मनाते हैं ?
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पौराणिक मान्यता
1-नृसिंह रूप में भगवान इसी दिन प्रकट हुए थे और हिरण्यकश्यप नामक असुर का वध कर भक्त प्रहलाद को दर्शन दिए थे।

2-हिन्दू मास के अनुसार होली के दिन से नए सम्वत की शुरुआत होती है।

3-चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के दिन धरती पर प्रथम मानव मनु का जन्म हुआ था।

4 -इसी दिन कामदेव का पुनर्जन्म हुआ था। इन सभी खुशियों को व्यक्त करने के लिए रंगोत्सव मनाया जाता है।

5 -त्रेतायुग में विष्णु के 8वें अवतार श्री कृष्ण और राधारानी की होली ने रंगोत्सव में प्रेम का रंग भी चढ़ाया। श्री कृष्ण होली के दिन राधारानी के गांव बरसाने जाकर राधा और गोपियों के साथ होली खेलते थे। कृष्ण की रंगलीला ने होली को और भी आनंदमय बना दिया और यह प्रेम एवं अपनत्व का पर्व बन गया

6-भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।

सामाजिक मान्यता
🔹होली बसंत का त्यौहार है और इसके आने पर सर्दी ख़त्म हो जीती है। कुछ हिस्सों में इस त्यौहार का संमंध बसंत की फसल पकने से भी है। किसान अच्छी फसल पैदा होने की खुसी में होली मानते है।होली को वसंत महोत्सव या काम महोत्सव भी कहते है।

🔹 इस दिन लोग आपसी कटुता और वैरभाव को भुलाकर एक-दूसरे को इस प्रकार रंग लगाते हैं कि लोग अपना चेहरा भी नहीं पहचान पाते हैं। रंग लगने के बाद मनुष्य शिव के गण के समान लगने लगते हैं जिसे देखकर भोलेशंकर भी प्रसन्न होते हैं।

🔹इस दिन शिव और शिवभक्तों के साथ होली के प्यारभरे रंगों का आनंद लेते हैं व प्रेम एवं भक्ति के आनंद में डूब जाते हैं।
भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध

🔹होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

अकबर की छाती पर चढकर वो बोली थी- औकात में रहो वरना यही बलि चढ़ा दूंगी ============================ अकबर महान की महानता का गुणगान तो कई इतिहासकारों ने किया है लेकिन अकबर की कुछ बाते ऐसे है जिसका वर्णन बहुत कम इतिहासकारों ने किया है। ऐसा ही एक किस्सा है दिल्ली का जब अकबर का मान […]

via अकबर की छाती पर चढकर वो बोली थी- औकात में रहो वरना यही बलि चढ़ा दूंगी — પ્રહલાદ પ્રજાપતિ