वाणी की चतुरता सीखें हनुमान से
आचार्य लल्लनप्रसाद व्यास
वाल्मीकि रामायण: सुंदरकांड: भाग-5
रामायण के विद्वान,कर्म की कुशलता ही व्यक्ति की उपलब्धियों की पहचान है और इस कुशलता का राज छिपा है पूर्ण चित्त और मनोयोग से अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में। हनुमान दूत की भूमिका में कुशल वाणी प्रयोग के सिद्धांतों पर प्रकाश डालते हैं। वे रावण के सामने अपराधी के रूप में प्रस्तुत हुए हैं, अशोक वाटिका के ध्वंस के लिए।
वे रावण से बात कर रहे हैं श्रीराम-सुग्रीव के दूत के रूप में। दूत सिर्फ संदेशवाहक नहीं होता, उसे अपने स्वामी के विचारों से दूसरे पक्ष को सहमत करवाना होता है। दूत-कला विचार, भाव और तात्पर्य के सही संप्रेषण की कला है। रावण ज्ञानी, तपस्वी, विद्वान लेकिन अहंकारी है। इस तथ्य से परिचित हनुमान अपने ज्ञान का प्रयोग अपनी बात की बेहतर सुनवाई के लिए करते हैं। वे रावण के इन सद्गुणों का आदर कर उसे अपने अनुरूप व्यवहार करने को प्रेरित करते हैं। वे रावण से कहते हैं-
तद् भवान् दृष्टधर्मार्थस्तप:कृतपरिग्रह:।
परदारान् महाप्राज्ञ नोपरोद्धुं त्वमर्हसि॥
नहि धर्मविरुद्धेषु बह्वपायेषु कर्मसु।
मूलघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधा:॥ – 5/51/17-18
अर्थात्- महा बुद्धिमान! तुम धर्म और अर्थ के तत्व को जानने वाले हो। तुमने बड़े भारी तप का संग्रह किया है। अत: दूसरे की स्त्री को अपने घर में रोक रखना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। धर्म विरुद्ध कार्यो में बहुत से अनर्थ रहते हैं। वे कर्ता का समूल नाश कर देते हैं। तुम जैसे बुद्धिमान पुरुष ऐसे कार्य में प्रवृत्त नहीं होते।
रावण श्रीराम के संदेश को उनकी कमजोरी का लक्षण न समझ ले, इसलिए हनुमान रावण को श्रीराम के बल-पौरुष का वर्णन भी करते हैं। अगर यहां हनुमान धर्म, नीति और भय का उपयोग करते हैं तो वे अधर्म के परिणति का भावचित्र भी खींचते हैं। सीता को कालरात्रि और काल का पाश कहकर वे कहते हैं-
सीतायास्तेजसा दग्धां रामकोपप्रदीपिताम्।
दह्यमानामिमां पश्य पुरीं साट्टप्रतोलिकाम्॥-5/51/36
अर्थात्- देखो! ऊंचे भवन और गलियों सहित यह लंकापुरी सीताजी के तेज और श्रीराम की क्रोधाग्नि से जलकर भस्म होने जा रही है। रावण के सिर पर काल डोल रहा होता है। उसे हनुमान जैसे नीतिज्ञ की सलाह सहन नहीं होती और वह हनुमान के वध करने के लिए प्रेरित होता है। विभीषण रावण को उसके धर्म, नीति और कर्तव्य की दुहाई देकर कहते हैं कि इसका वध नहीं किया जा सकता। ‘आप जैसा नीतिज्ञ पुरुष क्रोध के अधीन कैसे हो सकता है? क्योंकि शक्तिशाली पुरुष क्रोध नहीं करते हैं। विभीषण के समयानुकूल मधुर वचनों से रावण हनुमान के वध करने का विचार छोड़ देता है और हनुमान की पूंछ जलाने की सजा देते हैं।’
हनुमान और विभीषण की वाणी के प्रयोग जीवन के लिए प्रेरणास्पद संदेश देते हैं कि ज्येष्ठ लोगों को किस प्रकार सलाह दे, जिससे कि वह स्वीकार्य हो। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि वरिष्ठों को अपने से छोटे लोगों से सलाह लेने में हिचक होती है। सफलता की हर सीढ़ी अहंकार की एक बाधा निर्मित करती है। अपनी सलाह देते समय हनुमान और विभीषण स्वयं को छिपाकर धर्म और नीति के माध्यम से अपनी बात रखते हैं। जहां रावण का संदर्भ आता है, वे उसे प्रमुखता देते हैं। यही सही व्यवहार का ढंग है।
आज उम्र में, योग्यता में छोटे लोग भी अहंकार पालते हैं और खुलेपन के नाम पर सम्मान व भद्र आचरण छोड़ देते हैं। एक बनावटी मित्रता का वातावरण बनाना ही संस्कृति का पर्याय बन गया है। ये मित्रता उचित मान-सम्मान आधारित संबंधों का स्थान लेने में असमर्थ है और नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से सीख लेने लज्जा महसूस करती है।
हनुमान भारतीय संस्कृति के आधार और व्यवहार पक्ष के प्रतीक हैं। संस्कृति जो शत्रु के गुणों का भी आदर करती हैं। हनुमान लंका दहन कर जब महेंद्र पर्वत पहुंचकर जाम्बवान्, अंगद आदि वानरों को लंका यात्रा का पूर्ण विवरण सुनाते हैं। उनकी विनम्रता यहां दृष्टिगोचर मिलती हैं। श्रीराम की कृपा और आप लोगों के प्रभाव से मैंने सुग्रीव के कार्य की सिद्धि के लिए सबकुछ किया है। वे आगे कहते हैं-
तत्र यन्न कृतं शेषं तत् र्सव क्रियतामिति। – ५/५८/१६९
अर्थात् यहां जो कार्य मैंने नहीं किया है अथवा शेष रह गया है, वह सब आप लोग पूर्ण करें।