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नारी शक्ति


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भारतीय संस्कृति का प्रधान केन्द्रीय तत्व है-भाव-संवेदना । इस गुण की प्रचुरता जिसमें है, वह नारी शक्ति देव संस्कृति के विकासक्रम में एक धुरी की भूमिका निभाती आयी है । ऋषिगण आदि सत्ता महामाया, जिसके आधार पर सृष्टि की संरचना संभव हुई है, को विधाता भी कहते आये हैं व माता भी । प्राणियों का अस्तित्व ही यदि इस धरती पर है तो उसके मूल में मातृशक्ति की प्राणियों पर अनुकम्पा है । सृजन शक्ति के रूप में इस संसार में जो कुछ भी सशक्त सम्पन्न, विज्ञ और सुन्दर है, उसकी उत्पत्ति में नारी तत्व की ही अहम् भूमिका है । देवसंस्कृति में सरस्वती, लक्ष्मी और काली के रूप में विज्ञान प्रधान और गायत्री-सावित्री के रूप में ज्ञानप्रधान चेतना के बहुमुखीय पक्षों का विवेचन अनादि काल से होता आया है ।

मान्याताओं के अनुसार नारी बिना, शक्ति के बिना यह सम्पूर्ण विश्व सार-शून्य है । सृष्टि विस्तार की दृष्टि से भी निस्संदेह पुरुष की अपेक्षा नारी की महत्ता अधिक है । वह पुरुषों की जननी है । उसकी सब कामना करें व उसके द्वारा पालित हों, ऐसा र्निदेश वैदिक ऋषि देते आये हैं । ‘कन्या’ शब्द का अर्थ होता है सबके द्वारा वांछनीय सब उसकी कामना करें । ऐतरेयोपनिषद में स्पष्ट आता है- नारी हमारा पालन करती है, अतः उसकी पालन करना हमारा र्कत्तव्य है! अथर्ववेद में उसे सत्याचरण की अर्थात् धर्म की प्रतीक कहा गया है (सत्येनोत्रभित भूमिः) कोई भी धार्मिक कार्य उसके बिना अधूरा माना जाता रहा है । ऋग्वेद लिखता है-

”शुचिभ्राजा उषसो नवेद,
यशस्वतीरपस्युवो नसत्याः ।” – (ऋग् 1/79/1)

अर्थात्- श्रद्धा, प्रेम, भक्ति, सेवा, समानता का प्रतीक नारी पवित्र, निष्कलंक, आचार के प्रकाश से सुशोभित, प्रातःकाल के समान हृदय को पवित्र करने वाली, लौकिक कुटिलताओं से अनभिज्ञ, निष्पाप, उत्तमयश युक्त, नित्य उत्तम कर्म करने की इच्छा करने वाली, सकर्मण्य और सत्य व्यवहार करने वाली देवी है ।

एक भ्रान्तिपूर्ण मान्यता, कि कन्या का जन्म अमंगलकारी है, हमारी देश में मध्यकाल में पनपी व इसी कारण आधीजन शक्ति दोयमर्दजे की मानी जाने लगी । नारीशक्ति की अवमानना, तिरस्कार, होने लगा, जबकि संस्कृति के स्वर आदि काल से कुछ और ही कहते आए हैं ।

ऋग्वेद (6/75/5) में कहा गया है कि

”वह पुरुष धन्य है, जिसके कई पुत्रियाँ हों तथा पुत्र से पिता को आनंद मिलता है, वहीं पुत्री से माता को बल्कि उससे भी अधिक (3/31-1-2) ।

उपनिषदों में भी यही बात स्पष्टतः सामने आई है ।

बृहदारण्यकेपनिषद् में विदुषी और आयुष्मती पुत्री पाने के लिए घी और तेल में चावल पकाकर खाने की विधि कही गयी है (6/4.17) ।

मनुस्मृति (9/13)में कहा गया है कि पुत्री को पुत्र के समान समझना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार आत्मा पुत्र रूप से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार वह पुत्री के रूप में भी जन्म लेती है । महाभारत में सन्यास लेने की पात्रता उसी गृहस्थ को प्राप्त है, जिसने गृहस्थधर्म का पालन करते हुए सभी र्कत्तव्यों को पूरा कर लिया है । इन र्कत्तव्यों में अपनी पुत्रियों का विवाह कर देना प्रमुख है (महाभारत उद्योगपर्व 36-39) । मनुस्मृति में पिता के उत्तराधिकार को जो भाग पुत्री को देने का विधान है, उसका हेतु ध्यान देने योग्य है ।”

विवाह की चिन्ता और सार्मथ्य से बाहर दहेज के कारण लोकगीत मध्य काल में ऐसे रचे जाने लगे कि पुत्री जन्म ही अशुभ माना जाने लगा पंचतंत्र के कुछ आख्यानों में भी यह बात आयी । कालान्तर में मध्यकाल में यह यह धारणा खूब फली-फूली व स्त्रीधन की उपेक्षा शास्त्र वचनों की दुहाई देकर अधिक से अधिक की जाने लग । वस्तुतः यह कालक्रम के अनुसार पैदा हुई विकृति है । नहीं तो पिता के वात्सल्य का आदर्श तो हर युग की एक मान्य आस्था रही है ।

इसी आस्था के कारण रामायण में जनक कहते हें ।

”जिस सीता को मैं प्राणों से बढ़कर चाहता हूँ, उसे राम को सौंपकर मेरी वीर्यशुल्क की प्रतिज्ञा पूरी हो जाएगी” (वा.रा.बालकाण्ड 67/23) ।

यह भारतीय संस्कृति की ही चिर पुरातन मान्यता है कि जैसे पुत्र अपने पिता, पितामह इत्यादि पितरों को नरकों से तारता है, इसी प्रकार दौहित्र अपने नाना को । महाभारतकाल में एक चक्रनगर का निर्धन, विचारशील ब्राह्मण बकासुर की भेंट चढ़ाए जाने से अपनी कन्या को रोकता है व स्वयं जाने को तत्पर हो जाता है, तब भीम उसके स्थान पर जाते हैं । कुन्ती को पुत्री रूप में शूरसेन तथा किन्तुभोज ने पुत्र से अधिक प्यार देकर स्नेहपूर्वक पाला था । महर्षि कण्व शकुन्तला को दुष्यन्त के पास विदाई हेतु भेजते समय भावार्द्र हो उठते हैं वे कहते हैं, तो फिर कन्या बिछोह सामान्य गृहस्थों के लिए कितना असह्य होगा? (शाकुन्तल 2/6) इसेस समाज की सही अवस्था का परिचय मिलता है ।

वेदों में पुत्रियों की कामना की गयी हैं
समाज में आज कन्या भ्रूण हत्या का महापाप प्रचलित हो गया हैं जिसका मुख्य कारण नारी जाति का समाज में उचित सम्मान न होना, दहेज जैसे कुरीतियों का होना ,समाज में बलात्कार जैसी घटनाओं का बढ़ना ,चरित्र दोष आदि जिससे नारी जाति की रक्षा कर पाना कठिन हो जाना आदि मुख्य कारण हैं. कुछ का तर्क देना हैं की वेद नारी को हीन दृष्टी से देखता हैं और वेदों में सर्वत्र पुत्र ही मांगे गए हैं, पुत्रियों की कामना नहीं की गयी हैं. वेदों के प्रमाण जिनमे नारी की यश गाथा का वर्णन हैं.

ऋग्वेद १०.१५९.३ – मेरे पुत्र शत्रु हन्ता हों और पुत्री भी तेजस्वनी हो .

ऋग्वेद ८/३१/८ यज्ञ करने वाले पति-पत्नी और कुमारियोंवाले होते हैं.

ऋग्वेद ९/६७/१० प्रति प्रहर हमारी रक्षा करने वाला पूषा परमेश्वर हमें कन्यायों का भागी बनायें अर्थात कन्या प्रदान करे.

यजुर्वेद २२/२२ – हमारे राष्ट्र में विजयशील सभ्य वीर युवक पैदा हो , वहां साथ ही बुद्धिमती नारियों के उत्पन्न होने की भी प्रार्थना हैं.

अथर्ववेद १०/३/२०- जैसा यश कन्या में होता हैं वैसा यश मुझे प्राप्त हो.

वेदों में पत्नी को उषा के सामान प्रकाशवती, वीरांगना, वीर प्रसवा, विद्या अलंकृता, स्नेहमयी माँ, पतिव्रता, अन्नपूर्णा, सदगृहणी, सम्राज्ञी आदि से संबोधित किया गया हैं जो निश्चित रूप से नारी जाति को उचित सम्मान प्रदान करते हैं.

दहेज का सही अर्थ न समझकर आज धन के लोभ में हजारों नारियों को निर्दयता से आग में जला कर भस्म कर दिया जाता हैं. इसका मुख्य कारण दहेज शब्द के सही अर्थ को न जानना हैं. वेदों में दहेज शब्द का सही अर्थ हैं पिता ज्ञान, विद्या, उत्तम संस्कार आदि गुणों के साथ वधु को वर को भेंट करे.

आज समाज अगर नारी की महता जैसी वेदों में कही गयी हैं उसको समझे तो निश्चित रूप से सभी का कल्याण होगा.

नारी जाति को यज्ञ का अधिकार

वैदिक काल में नारी जाति को यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था जिसे मध्य काल में वर्जित कर दिया गया. नारी का स्थान यज्ञवेदी से बाहर हैं (शतपथ ब्रह्मण २७/४) अथवा कन्या और युवती अग्निहोत्र की होता नहीं बन सकती (मनु ११/३६)

वेद नारी जाति को यज्ञ में भाग लेने का पूर्ण अधिकार देते हैं .

ऋग्वेद ८/३१/५-८ में कहा गया हैं की जो पति-पत्नी समान मनवाले होकर यज्ञ करते हैं उन्हें अन्न, पुष्प, हिरण्य आदि की कमी नहीं रहती.

ऋग्वेद १०/८५/४७ – विवाह यज्ञ में वर वधु उच्चारण करते हुए एक दुसरे का ह्रदय-स्पर्श करते हैं.

ऋग्वेद १/७२/५ – विद्वान लोग पत्नी सहित यज्ञ में बैठते हैं और नमस्करणीय को नमस्कार करते हैं.

इस प्रकार यजुर्वेद में ३/४४, ३/४५,३/४७,३/६०,११/५,१५/५०, अथर्ववेद ३/२८/६ , ३/३०/६, १४/२/१८, १४/२/२३, १४/२/२४ में भी यज्ञ में नारी के भाग लेने के स्पष्ट प्रमाण हैं.

ऋग्वेद ८/३३/१९ में स्त्री हि ब्रह्मा बभूबिथ अर्थात स्त्री यज्ञ की ब्रह्मा बनें कहा गया हैं.

नारी जाति को शिक्षा का अधिकार

स्वामी दयानंद ने “स्त्रीशूद्रो नाधियातामिति श्रुते:” – स्त्री और शूद्र न पढे यह श्रुति हैं को नकारते हुए वैदिक काल की गार्गी, सुलभा, मैत्रयी, कात्यायनी आदि सुशिक्षित स्त्रियों का वर्णन किया जो ऋषि- मुनिओं की शंकाओं का समाधान करती थी.

ऋग्वेद ६/४४/१८ का भाष्य करते हुए स्वामी दयानंद लिखते हैं राजा ऐसा यत्न करे जिससे सब बालक और कन्यायें ब्रहमचर्य से विद्यायुक्त होकर समृधि को प्राप्त हो सत्य, न्याय और धर्म का निरंतर सेवन करे.

यजुर्वेद १०/७- राजा को प्रयत्नपूर्वक अपने राज्य में सब स्त्रियों को विदुषी बनाना चाहिए.

ऋग्वेद ३/१/२३- विद्वानों को यही योग्यता हैं की सब कुमार और कुमारियों को पुन्दित बनावे, जिससे सब विद्या के फल को प्राप्त होकर सुमति हों.

ऋग्वेद २/४१/१६- जितनी कुमारी हैं वे विदुषियों से विद्या अध्ययन करे और वे कुमारी ब्रह्मचारिणी उन विदुषियों से ऐसी प्रार्थना करें की आप हम सबको विद्या और सुशिक्षा से युक्त करें.

इस प्रकार यजुर्वेद ११/३६ , ६/१४ ,११/५९ एवं ऋग्वेद १/१५२/६ में भी नारी को शिक्षा का अधिकार दिया गया हैं.

वेदों में बहु-विवाह आदि विषयक भ्रान्ति का निवारण

वेदों के विषय में एक भ्रम यह भी फैलाया गया हैं की वेदों में बहुविवाह की अनुमति दी गयी हैं (vedic age pge 390).

ऋग्वेद १०/८५ को विवाह सूक्त के नाम से जाना चाहता हैं. इस सूक्त के मंत्र ४२ में कहा गया हैं तुम दोनों इस संसार व गृहस्थ आश्रम में सुख पूर्वक निवास करो. तुम्हारा कभी परस्पर वियोग न हो. सदा प्रसन्नतापूर्वक अपने घर में रहो.

ऋग्वेद १०/८५/४७ मंत्र में हम दोनों (वर-वधु) सब विद्वानों के सम्मुख घोषणा करते हैं की हम दोनों के ह्रदय जल के समान शांत और परस्पर मिले हुए रहेंगे.

अथर्ववेद ७/३५/४ में पति पत्नी के मुख से कहलाया गया हैं की तुम मुझे अपने ह्रदय में बैठा लो , हम दोनों का मन एक ही हो जाये.

अथर्ववेद ७/३८/४ पत्नी कहती हैं तुम केवल मेरे बनकर रहो. अन्य स्त्रियों का कभी कीर्तन व व्यर्थ प्रशंसा आदि भी न करो.

ऋग्वेद १०/१०१/११ में बहु विवाह की निंदा करते हुए वेद कहते हैं जिस प्रकार रथ का घोड़ा दोनों धुराओं के मध्य में दबा हुआ चलता हैं वैसे ही एक समय में दो स्त्रियाँ करनेवाला पति दबा हुआ होता हैं अर्थात परतंत्र हो जाता हैं.इसलिए एक समय दो व अधिक पत्नियाँ करना उचित नहीं हैं.

इस प्रकार वेदों में बहुविवाह के विरुद्ध स्पष्ट उपदेश हैं.

वेद बाल विवाह के विरूद्ध हैं

हमारे देश पर विशेषकर मुस्लिम आक्रमण के पश्चात बाल विवाह की कुरीति को समाज ने अपना लिया जिससे न केवल ब्रहमचर्य आश्रम लुप्त हो गया बल्कि शरीर की सही ढंग से विकास न होने के कारण एवं छोटी उम्र में माता पिता बन जाने से संतान भी कमजोर पैदा होती गयी जिससे हिन्दू समाज दुर्बल से दुर्बल होता गया.

अथर्ववेद के ब्रहमचर्य सूक्त ११.५ के १८ वें मंत्र में कहा गया हैं की ब्रहमचर्य (सादगी, संयम और तपस्या) का जीवन बिता कर कन्या युवा पति को प्राप्त करती हैं.

युवा पति से ही विवाह करने का प्रावधान बताया गया हैं जिससे बाल विवाह करने की मनाही स्पष्ट सिद्ध होती हैं.

ऋग्वेद १०/१८३ में वर वधु मिलकर संतान उत्पन्न करने की बात कह रहे हैं. वधु वर से मिलकर कह रही हैं की तो पुत्र काम हैं अर्थात तू पुत्र चाहता हैं वर वधु से कहता हैं की तू पुत्र कामा हैं अर्थात तू पुत्र चाहती हैं. अत: हम दोनों मिलकर उत्तम संतान उत्पन्न करे.पुत्र उत्पन्न करने की कामना युवा पुरुष और युवती नारी में ही उत्पन्न हो सकती हैं. छोटे छोटे बालक और बालिकाओं में नहीं.

इसी भांति अथर्ववेद २/३०/५ में भी परस्पर युवक और युवती एक दुसरे को प्राप्त करके कह रहे हैं की मैं पतिकामा अर्थात पति की कामना वाली और यह तू जनीकाम अर्थात पत्नी की कामना वाला दोनों मिल गए हैं.युवा अवस्था में ही पति-पत्नी की कामना की इच्छा हो सकती हैं छोटे छोटे बालक और बालिकाओं में नहीं.

वेदों में नारी की महिमा

संसार की किसी भी धर्म पुस्तक में नारी की महिमा का इतना सुंदर गुण गान नहीं मिलता जितना वेदों में मिलता हैं.कुछ उद्हारण देकर हम अपने कथन को सिद्ध करेगे.

१. उषा के समान प्रकाशवती-

ऋग्वेद ४/१४/३

हे राष्ट्र की पूजा योग्य नारी! तुम परिवार और राष्ट्र में सत्यम, शिवम्, सुंदरम की अरुण कान्तियों को छिटकती हुई आओ , अपने विस्मयकारी सद्गुणगणों के द्वारा अविद्या ग्रस्त जनों को प्रबोध प्रदान करो. जन-जन को सुख देने के लिए अपने जगमग करते हुए रथ पर बैठ कर आओ.

२. वीरांगना-

यजुर्वेद ५/१०

हे नारी! तू स्वयं को पहचान. तू शेरनी हैं, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करनेवाली हैं, देवजनों के हितार्थ अपने अन्दर सामर्थ्य उत्पन्न कर. हे नारी ! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की तरह टूटने वाली हैं, तू दिव्य गुणों के प्रचारार्थ स्वयं को शुद्ध कर! हे नारी ! तू दुष्कर्म एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान विश्वंस्त करनेवाली हैं, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर.

३. वीर प्रसवा

ऋग्वेद १०/४७/३

राष्ट्र को नारी कैसी संतान दे

हमारे राष्ट्र को ऐसी अद्भुत एवं वर्षक संतान प्राप्त हो, जो उत्कृष्ट कोटि के हथियारों को चलाने में कुशल हो, उत्तम प्रकार से अपनी तथा दूसरों की रक्षा करने में प्रवीण हो, सम्यक नेतृत्व करने वाली हो, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष रूप चार पुरुषार्थ- समुद्रों का अवगाहन करनेवाली हो, विविध संपदाओं की धारक हो, अतिशय क्रियाशील हो, प्रशंशनीय हो, बहुतों से वरणीय हो, आपदाओं की निवारक हो.

४. विद्या अलंकृता

यजुर्वेद २०/८४

विदुषी नारी अपने विद्या-बलों से हमारे जीवनों को पवित्र करती रहे. वह कर्मनिष्ठ बनकर अपने कर्मों से हमारे व्यवहारों को पवित्र करती रहे. अपने श्रेष्ठ ज्ञान एवं कर्मों के द्वारा संतानों एवं शिष्यों में सद्गुणों और सत्कर्मों को बसाने वाली वह देवी गृह आश्रम -यज्ञ एवं ज्ञान- यज्ञ को सुचारू रूप से संचालित करती रहे.

५. स्नेहमयी माँ

अथर्वेद ७/६८/२

हे प्रेमरसमयी माँ! तुम हमारे लिए मंगल कारिणी बनो, तुम हमारे लिए शांति बरसाने वाली बनो, तुम हमारे लिए उत्कृष्ट सुख देने वाली बनो. हम तुम्हारी कृपा- दृष्टि से कभी वंचित न हो.

६. अन्नपूर्ण

अथर्ववेद ३/२८/४

इस गृह आश्रम में पुष्टि प्राप्त हो, इस गृह आश्रम में रस प्राप्त हो. इस गिरः आश्रम में हे देवी! तू दूध-घी आदि सहस्त्रों पोषक पदार्थों का दान कर. हे यम- नियमों का पालन करने वाली गृहणी! जिन गाय आदि पशु से पोषक पदार्थ प्राप्त होते हैं उनका तू पोषण कर.

ऋग्वेद में 24 तथा अथर्ववेद में 5 वैदिक ऋषिकाओं का उल्लेख है। ये सभी मंत्रद्रष्टा रही हैं। मंत्र रचना-कर्म विशिष्ट कर्म था उसमें निष्णात महिलाओं ने सक्रिय सहयोग दिया तथा धर्म, कर्तव्य अधिकार तथा अध्यात्म के संबंध में अपनी विशेष विचारधारा का प्रसार किया। कुछ सूक्त तो अत्यंत श्रेष्ठ तथा महत्वपूर्ण हैं। ऐसे में याद आता है वाक्सूक्त जिसमें वाक्तत्व का शास्त्रीय विवेचन है। भाषा-विज्ञान के सूत्रों को कुशलता से प्रस्तुत किया है ऋषिका ने। सूर्या सावित्री नामक ऋषिका ने 47 मंत्रों में विवाह संबंधी कृत्य तथा स्त्री-पुरुष की समानता का खूबसूरत आधार तलाशा है। श्रद्धा कामायनी नामक ऋषिका ने मनोवैज्ञानिक तथ्यों के निष्कर्ष दिए हैं। वीरता की भावना से ओत-प्रोत इन्द्राणी सूक्त तो विलक्षण है। इन्द्राणी सूक्त में इन्द्राणी को सेनानी रूप में प्रस्तुत किया है-

इन्द्राण्येतु प्रथमाजीतामुषिता -अथर्ववेद 1.27.4

इन्द्राणी सदैव विजयिनी रहे, कोई उससे कुछ लूट न सके। इन्द्राणी का आत्मगौरव प्रशस्य है- अहं केतुरहं मूर्धाऽहमुग्रा विवाचनी ममेदनु क्रतुं पति: सेहानाया उपाचरेत्। -ऋग्वेद, 10.159.2

अर्थात् मैं ज्ञान में अग्रगण्य हूं, स्त्रियों में मूर्धन्य हूं, उच्चकोटि की वक्ता हूं। विजयिनी हूं और मेरी इच्छा के अनुसार पति भी चलते हैं। केवल पति की दृष्टि में ही नहीं पूरे पतिगृह पर शासन करने वाली वह रही है। ऋग्वेदकाल की विशेषता है कि वहां सास-ससुर, देवर-ननद सबकी सम्राज्ञी कहा है सुमंगली वधू को-

सम्राज्ञी श्वशुरे भव, सम्राज्ञी श्वश्रुवां भव। ननान्दरि सम्राज्ञी भव, सम्राज्ञी अधि देवृषु।। -ऋग्वेद 10.85.46

यशस्विनी, सत्यवती वैदिक नारी कहीं से भी दीन-हीन नहीं है। घर-परिवार व समाज में सर्वत्र उसे आत्मदीप्त रूप से देखा जा सकता है। माता के रूप में “वीरप्रसविनी” रूप के गीत गाए गए हैं। वह कमनीय, ज्योति:रूप, अदिति (अखण्डनीया) है तथा मही, सरस्वती है। यज्ञ में, युद्ध में, संघर्ष में, उत्सव में सर्वत्र वह पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती है।

वैदिक ऋषि स्वयं निवेदन करता है सब दिशाओं को अपने यश से भर दो-

अप्यथमाना पृथिव्याम् आशा दिश आ पृण। -यजुर्वेद 11.63

हे देवी! उठ खड़ी हो तथा जीवन में सदा स्थिरता के साथ खड़ी रहो-

उत्थाय वृहती भवोत्तिष्ठ, ध्रुवा त्वम्। -यजुर्वेद 11.64

जो वेद नारी के इतने गौरव तथा आत्मसम्मान को वरीयता देता है, उसे इतना अधिकार दिलवाता है, वही उसे कर्तव्यनिष्ठ बनने की प्रेरणा भी देता है। वैदिक युग की नारी सदैव सत्य मार्ग पर चलती है, पत्नी और वधू के कर्तव्य वहन करती है। इतने भव्य रूप वाली नारी को वेद में “ब्राहृ” की उच्चतम उपाधि से अलंकृत किया गया है।

स्त्री हि ब्राहृ बभूविथ -ऋग्वेद 8.33.19

और अंत मे-

आधुनिक युग का तकाजा है कि स्त्री अपने खोए हुए गरिमापूर्ण रूप को फिर से प्राप्त करे। स्पष्ट है कि इसके लिए उसे स्वयं भी, पुरुष वर्ग और समाज को भी सत्प्रयास करने होंगे। जिस देश या राष्ट्र में आधी आबादी अशिक्षित हो, शोषित हो, पीड़ित हो- उस देश या राष्ट्र का भविष्य क्या होगा? वैदिक परंपरा के अनुयायी मनु के बहुत उदात्त वचन हैं-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता: – जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवताओं का निवास होता है। जहां इनका सम्मान नहीं होता वहां सब धर्म-कर्म निष्फल हो जाते हैं।

Posted in यत्र ना्यरस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ॥


वेदों में नारी की महिमा

संसार की किसी भी धर्म पुस्तक में नारी की महिमा का इतना सुंदर गुण गान नहीं मिलता जितना वेदों में मिलता हैं.कुछ उद्हारण देकर हम अपने कथन को सिद्ध करेगे.

१. उषा के समान प्रकाशवती-

ऋग्वेद ४/१४/३

हे राष्ट्र की पूजा योग्य नारी! तुम परिवार और राष्ट्र में सत्यम, शिवम्, सुंदरम की अरुण कान्तियों को छिटकती हुई आओ , अपने विस्मयकारी सद्गुणगणों के द्वारा अविद्या ग्रस्त जनों को प्रबोध प्रदान करो. जन-जन को सुख देने के लिए अपने जगमग करते हुए रथ पर बैठ कर आओ.

२. वीरांगना-

यजुर्वेद ५/१०

हे नारी! तू स्वयं को पहचान. तू शेरनी हैं, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करनेवाली हैं, देवजनों के हितार्थ अपने अन्दर सामर्थ्य उत्पन्न कर. हे नारी ! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की तरह टूटने वाली हैं, तू दिव्य गुणों के प्रचारार्थ स्वयं को शुद्ध कर! हे नारी ! तू दुष्कर्म एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान विश्वंस्त करनेवाली हैं, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर.

३. वीर प्रसवा

ऋग्वेद १०/४७/३

राष्ट्र को नारी कैसी संतान दे

हमारे राष्ट्र को ऐसी अद्भुत एवं वर्षक संतान प्राप्त हो, जो उत्कृष्ट कोटि के हथियारों को चलाने में कुशल हो, उत्तम प्रकार से अपनी तथा दूसरों की रक्षा करने में प्रवीण हो, सम्यक नेतृत्व करने वाली हो, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष रूप चार पुरुषार्थ- समुद्रों का अवगाहन करनेवाली हो, विविध संपदाओं की धारक हो, अतिशय क्रियाशील हो, प्रशंशनीय हो, बहुतों से वरणीय हो, आपदाओं की निवारक हो.

४. विद्या अलंकृता

यजुर्वेद २०/८४

विदुषी नारी अपने विद्या-बलों से हमारे जीवनों को पवित्र करती रहे. वह कर्मनिष्ठ बनकर अपने कर्मों से हमारे व्यवहारों को पवित्र करती रहे. अपने श्रेष्ठ ज्ञान एवं कर्मों के द्वारा संतानों एवं शिष्यों में सद्गुणों और सत्कर्मों को बसाने वाली वह देवी गृह आश्रम -यज्ञ एवं ज्ञान- यज्ञ को सुचारू रूप से संचालित करती रहे.

५. स्नेहमयी माँ

अथर्वेद ७/६८/२

हे प्रेमरसमयी माँ! तुम हमारे लिए मंगल कारिणी बनो, तुम हमारे लिए शांति बरसाने वाली बनो, तुम हमारे लिए उत्कृष्ट सुख देने वाली बनो. हम तुम्हारी कृपा- दृष्टि से कभी वंचित न हो.

६. अन्नपूर्ण

अथर्ववेद ३/२८/४

इस गृह आश्रम में पुष्टि प्राप्त हो, इस गृह आश्रम में रस प्राप्त हो. इस गिरः आश्रम में हे देवी! तू दूध-घी आदि सहस्त्रों पोषक पदार्थों का दान कर. हे यम- नियमों का पालन करने वाली गृहणी! जिन गाय आदि पशु से पोषक पदार्थ प्राप्त होते हैं उनका तू पोषण कर.

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श्रीराम और रामायण की ऐतिहासिकता


ऐतिहासिक तथ्य
श्रीराम और रामायण की ऐतिहासिकता

अंग्रेजों द्वारा भारतवर्ष पर राज्य स्थापित करने से पूर्व भारत पर कुषाण, यूनानी, क्षत्रप, हूण और मुसलमानों ने आक्रमण भी किये और राज्य भी स्थापित किये। किन्तु भारत की प्राचीन संस्कृति, सभ्यता और लिखित ऐतिहासिक को नकारने अथवा इसे दूषित करने की कुचेष्टा किसी ने भी नहीं की। इनके समय में भी भारतीय जनता में अपने पूर्वजों तथा अपनी संस्कृति के प्रति पूर्ण आस्था बनी रही।
इस सत्यता को भारत के जनमानस से दूर करने के लिये अंग्रेजों ने कूटनीति का आश्रय लेकर भारतीय संस्कृति, सभ्यता और ऐतिहासिक तथ्यों को जंगली, अनपढ़ लोगों द्वारा कल्पित की गई बताना आरम्भ करके इसी प्रकार के ग्रन्थ लिखकर उन्हें पाठ्यक्रम में लगाकर कोमलमति छात्रों में उनकी अपनी ही संस्कृति, सभ्यता और इतिहास के प्रति घृणा का भाव भरने का सफल प्रयास किया।
इसी प्रयास का कुपरिणाम है कि महात्मा गान्धी, जवाहरलाल नेहरू जैसे व्यक्ति राम और रामायण की ऐतिहासिकता का निषेध करने में संकोच अनुभव नहीं करते। ब्रह्माकुमारियों के साप्ताहिक सत्संगों में भी श्रीराम के अस्तित्व को नकारकर रामायण को उपन्यास बताया जाता है। इसी भांति पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से पठित समुदाय भी रामायण और महाभारत को काल्पनिक मानता है। एक असत्य का प्रचार लम्बे समय तक योजनाबद्ध तरीके से जब किया जाता है तो भावी पीढ़ियॉं उसे ही सत्य मानने लग जाती हैं। दुर्भाग्य से प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के प्रति अंग्रेजों ने यही खेल खेला और वे अपने कार्य में पर्याप्त सफल भी हुए।
एक विचित्र बात देखिये प्राचीन! भारतीयों द्वारा लिखा इतिहास तो काल्पनिक कथा तथा अंग्रेजों द्वारा लिखा गया भारत विरोधी साहित्य सच्चा माना जाये। यह कितनी चालाकी और धूर्ततापूर्ण विडम्बना है! इनके ग्रन्थ काल्पनिक और झूठे नहीं माने जायें, इनकी बातों का क्या प्रमाण है? भारतीय इतिहास की सत्यता हेतु ये पुरातात्विक प्रमाण मांगते हैं तो इनकी बातों के पुरातात्त्विक प्रमाण कहॉं हैं कि रामायण- महाभारत नहीं हुए? क्या भूमि में दबे ऐसे प्रमाण मिले हैं जिन पर यह लिखा हो कि आर्य भारत में बाहर से आये, राम और कृष्ण नहीं हुए इत्यादि? यदि इनका लिखा झूठा साहित्य प्रमाण हो सकता है तो प्राचीन ऋषियों द्वारा लिखा गया सत्य साहित्य प्रमाण क्यों नहीं माना जाये? उसमें क्या आपत्ति है ?
ऐतिहासिक प्रमाण अनेक प्रकार के होते हैं, लिखित इतिहास, परम्परा, जनश्रुति, वंश परम्परा तथा पुरातत्त्वीय प्रमाण। लिखित इतिहास शब्द-प्रमाण के अन्तर्गत आते हैं। जनश्रुतियों से अनुमान-प्रमाण सिद्ध होता है तथा पुरातत्त्वीय-प्रमाण से इन्हें पुष्टि मिलती है। यह आवश्यक नहीं है कि सभी प्रमाण भूमि में दबे हुए ही हों। प्राकृतिक वस्तु की सीमा होती है, वह समय पाकर नष्ट होती रहती है, उसे कितने समय तक रखा जा सकता है? प्रकृति से बनी वस्तु की नश्वरता अवश्यम्भावी है। इसीलिए उसकी प्रामाणिकता को दीर्घकाल तक सुरक्षित करने के लिए लिखित रूप का सहारा लिया जाता है।
भारत के प्राचीन ऐतिहासिक खण्डहरों को यदि पूर्णरूप से खोदा जाये तो उनमें रामायण, महाभारत आदि की ऐतिहासिकता के पुरातात्त्विक प्रमाण भी मिल सकते हैं।
इस विषय में स्वामी ओमानन्द जी सरस्वती (आचार्य भगवानदेव गुरुकुल झज्जर) ने पर्याप्त अन्वेषण् किया और रामायण, महाभारत से सम्बन्धित अनेक मृन्मूर्तियॉं (टैराकोटा) प्राप्त कीं। सिरसा, हाठ, नचारखेड़ा (हिसार), जीन्द, सन्ध्याय (यमुनानगर), कौशाम्बी (इलाहाबाद), अहिच्छत्रा (बरेली), कटिंघरा (एटा) और भादरा (श्रीगंगानगर) से ऐसे अनेक पुरातत्वीय प्रमाण प्राप्त हुए हैं जिनसे सिद्ध होता है कि श्रीराम, सीता, सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवन्त, बाली और रामायण ऐतिहासिक हैं। इनका प्रमाण गुरुकुल झज्जर के पुरातत्व संग्रहालय में देखा जा सकता है। इन मृन्मूर्तियों पर गुप्तकाल से पूर्व की लिपि में वाल्मीकीय रामायण के श्लोक भी लिखे हुए हैं। ये श्लोक आज भी रामायण में मिलते हैं।
उपर्युक्त स्थानों से प्राप्त मृन्मूर्तियों में निम्नलिखित दृश्य अंकित हैं-
1. राम, सीता, लक्ष्मण का पंटवटी गमन, 2. त्रिशिरा राक्षस द्वारा खर-दूषण से विचार-विमर्श और राम द्वारा चौदह राक्षसों के वध का वर्णन, 4. रावण द्वारा सीता हरण, 5. सुग्रीव आदि द्वारा सीता को आभूषण फैंकती को देखना, 6. सुग्रीव द्वारा श्रीराम का स्वागत, 7. सुग्रीव बाली-युद्ध, 8. श्रीराम द्वारा बाली का वध, 9. हनुमान द्वारा अशोक-वाटिका (प्रमदावन) को नष्ट किया जाना, 10. त्रिशिरा राक्षस का वध, 11. रावण पुत्र इन्द्रजित का युद्ध में जाना आदि।
इस प्रकार के 42 दृश्य संगृहित हैं।
जो व्यक्ति राम के अस्तित्व का निषेध करते हैं, उन्हें विचारना चाहिए कि श्रीराम, सीता, हनुमान आदि से सम्बंधित सैंकड़ों ग्रन्थों की रचना हुई है। इनमें संस्कृत साहित्य, बौद्ध साहित्य, जैन साहित्य, हिन्दी साहित्य, गुजराती, तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलुगु, असमिया, बंगला, उर्दू, अरबी, फारसी आदि में रामकथा और रामायण की रचनायें हुई हैं।
यूनान के कवि होमर का प्राचीन इलियड काव्य और रामायण एक ही है। बाली, सुमात्रा, इण्डोनेशिया के पुराने मन्दिरों में रामायण कथा के दृश्य अंकित हैं।
अकबर ने अपनी एक स्वर्णमुद्रा पर राम-सीता को चित्रित किया था। धार और रतलाम राज्य की मुद्राओं पर हनुमान अंकित हैं। कुषाण सम्राट कनिष्क ने अपनी मुद्रा पर वादु=वायु देवता हनुमान को स्थान दिया था। सन्तों द्वारा प्रचलित पीपल की मुद्रा पर राम आदि चारों भाई, सीता और हनुमान चित्रित हैं।
श्रीरामचन्द्र का काल- भारतीय प्राचीन परम्परा के अनुसार श्रीराम चौबीसवें त्रेता और द्वापर की सन्धिकाल में हुए हैं-
त्रेतायुगे चतुर्विशे रावणः तपसः क्षयात्‌।
राम दाशरथिं प्राप्य सगणः क्षयमेयिवान्‌।।
(वायुपुराण 70.48)
महाभारत में भी लिखा है….
सन्धौ तु समनुप्राप्ते त्रेतायां द्वापरस्य च।
रामो दाशरथि…. (शान्तिपर्व 343.16)
यदि राम को इस 28वें त्रेता युग की समाप्ति पर भी मानें तो इस कलियुग से पूर्व 864000 वर्ष का द्वापर युग बीत गया और इस कलियुग के 5110 वर्ष बीत चुके हैं। इस प्रकार श्रीराम आज से 869110 वर्ष पूर्व विद्यमान थे। यदि चौबीसवें त्रेतायुग की समाप्ति पर राम की स्थिति मानें तो अब अट्‌ठाईसवें कलियुग तक 18149110 वर्ष राम को व्यतीत हो गये।
432000 वर्ष का कलियुग
864000 वर्ष का द्वापरयुग
1296000 वर्ष का त्रेतायुग
1728000 वर्ष का सतयुग
इस प्रकार 4320000 वर्ष (तेतालीस लाख बीस हजार वर्ष) 1 चतुर्युगी में होते हैं।
वैवस्वत मनु की चौबीसवीं चतुर्युगी के अन्त में राम हुए। चौबीसवीं चतुर्युगी का द्वापरयुग, कलियुग, 25वीं, 26वीं, 27वीं चतुर्युगी पूरी, वर्तमान अट्‌ठाईसवीं चतुर्युगी के सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और इस कलियुग के आज तक बीते हुए 5110 वर्ष इन सबका जोड़ 18149110 (एक करोड़ इक्यासी लाख एक सौ दस वर्ष) होता है। दूसरे पक्ष में इतने वर्ष पूर्व राम की विद्यमानता थी।
इतने सुदीर्घ काल में प्रकृति से बने भवन तथा मुद्रा आदि का अस्तित्व नहीं रह सकता। इसलिए यह दुराग्रह करना कि श्रीराम और अयोध्या से सम्बन्धित कोई वस्तु नहीं मिली, इसलिए राम नहीं हुए यह कहना हास्यापद हैा। आज से 5000 वर्ष बाद जनता को कोई यह कहे कि महात्मा गान्धी और जवाहरलाल नेहरू नहीं हुए, ये सब काल्पनिक हैं, तो आपके पास क्या उत्तर होगा? इसलिए किसी वस्तु की सिद्धि हेतु पुरातत्व के साथ लिखित साहित्य का भी महत्व कम नहीं अपितु अधिक ही होता है।
अतः हमें विदेशी शिक्षा से प्रभावित होकर अपने पूर्वजों को अस्तित्व को नकारकर कृतघ्नता का पात्र नहीं बनना चाहिये। विदेशी जंगली लोगों को प्राचीन भारत का गौरव सहन नहीं हुआ। इसीलिए वे इसे काल्पनिक कहें तो क्या आश्चर्य है?
भारत में एक वर्ग ऐसा भी है जो रावण के अस्तित्व को स्वीकार करके उसकी पूजा करता है। यही वर्ग राम और राम द्वारा निर्मित सेतु का निषेध करता है। उनसे पूछना चाहिये कि जब रावण हुआ है और राम नहीं तो रावण ने तथा उसके भाई, पुत्र और अन्य राक्षसों ने युद्ध किससे किया और उनकी मृत्यु किसके द्वारा हुई?
भारतीय इतिहास में राम द्वारा निर्मित सेतु का उल्लेख मिलता है। अब इसे उपग्रह द्वारा भी सिद्ध कर दिया तो इस ऐतिहासिक तथ्य को न मानकर उसे तोड़ने का प्रयत्न करना इतिहास को नष्ट करने जैसा कुकृत्य है। जिस पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का यह उत्तरदायित्व है कि प्राचीन स्मारकों और ऐतिहासिक स्थलों की सुरक्षा की जाये। जब वही राम, रामसेतु और रामायण की ऐतिहासिकता का निषेध करे तो इस सेतु की सुरक्षा के लिए वे यत्न करेंगे ऐसा सोचना स्वयं को भुलावे में रखना है। ऐसे अनाधिकारी व्यक्ति को पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का निदेशक बनाना भारत के लिए अपमान की बात है।
इसलिये भारतीय जनता को ऐसे लोगों के वक्तव्यों से सावधान रहना चाहिये जो भारतीय इतिहास और संस्कृति को नकारकर हमें हीनभावना से ग्रस्त देखना चाहते हैं।
1. मुद्रांकित पञ्जिका में लिखा…..
(त्रेतायुगे) तत्र राजानः सूर्यवंशीयबाहुक-सागर-अंशुमत्‌-असमंजस-दिलीप-भागीरथ-अज-दशरथ-रामचन्द्र-कुशी-लवा ऐते चक्रवर्तिनः। ये 11 राजा चक्रवर्ति हुए हैं। (शब्दकल्पद्रुम काण्ड 2, प्रकाशक कालिकाता राजधानी, शकसंवत्‌ 1809)
2. साधुसम्प्रदाय द्वारा चलाई गई धार्मिक मुद्रा पर लेख….
रामलछमनजानकजवल हनमनक
आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व की यह मुद्रा है।
मुद्रा के मुखभाग पर राम-सीता राजछत्र के नीचे सिंहासनासीन तथा पृष्ठभाग पर राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता और हनुमान के चित्र हैं।
3. जब रघुगण राजा थे, तब रावण भी यहॉं के आधीन था। जब रामचन्द्र के समय में विरुद्ध हो गया, तो उसको रामचन्द्र ने दण्ड देकर राज्य से नष्ट कर उसके भाई विभीषण को राज्य दिया।
4. आकाश मार्ग से विमान में बैठकर अयोध्या जाते हुए राम ने कहा… हे सीते! और यह देख! यह सेतु हमने बांधकर लंका में आके उस रावण को मार तुझ को ले आये। (सत्यार्थप्रकाश, 11वां समुल्लास)
5. …….रघु पीछे राजा राम हुए। इनका रावण से युद्ध हुआ। इनका इतिहास रामायण में वर्णन किया है। (उपदेशमंजरी पूना-प्रवचन, पूना में 1975 में स्वामी दयानन्द द्वारा दिया उपदेश)
6. भूगर्भीय आन्तरिक उथल-पुथल, जलस्तर के ऊपर आ जाने और लाखों वर्ष पुराने अवशेषों का प्राकृतिक रूप से शनैः शनैः क्षरण होने से पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं मिल पाते। उनके अभाव में साहित्य ही एकमात्र प्रमाण रह जाता है। आप्त ऋषियों द्वारा कथित शब्द प्रमाण और ऐतिह्य प्रमाण इसीलिये मान्य होता है कि वे कपोलकल्पित बातें नहीं कहते, किन्तु ऐतिहासिक सत्यता का ही लेखन करते हैं।
7. रामायण-महाभारत से अतिरिक्त महाकवि कालिदास, भास, भट्टि, प्रवरसेन, क्षेमेन्द्र, भवभूति, राजशेखर, कुमारदास, विश्वनाथ, सोमदेव, विमलसूरि, हेमचन्द्र, हरिषेण, नारद, लोमश, माधवदेव, तुलसीदास, सूरदास, चन्दवरदाई, मैथिलीशरण गुप्त, केशवदास, गुरु गोविन्दसिंह, समर्थ रामदास आदि चार सौ से अधिक कवियों ने संस्कृत, पाली, हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में राम और रामायण के पात्रों से सम्बद्ध काव्यों की रचना की है।
8. विदेशों में रामायण…..
तिब्बती रामायण, पूर्वी तुर्किस्तान की खोतानी रामायण, इण्डोनेशिया की ककबिन रामायण, बाली द्वीप का रामायण सम्बन्धी वायांग वोंग नाटक, जावा का सेरतराम, सेरी राम, रामकेलिंग, हिकायत सेरी राम, पातानी रामकथा, इण्डोचाइना की रामकीर्ति, ख्मेर रामायण, श्यामदेश की रामकियेन (रामकीर्ति), वर्मा के यूं तो की रामयागन। प्राचीन रोम के नोनस की कृति डायोनीशिया और वाल्मीकि रामायण के कथानक में अद्‌भुत समानता है।
9. कम्बोडिया के अंगकोवाट मन्दिर की भित्तिकाओं पर रामायण और महाभारत के दृश्य अंकित हैं। भारत में होने वाली रामलीला भांति इण्डोनेशिया के मुस्लिम कलाकार अत्यन्त भावपूर्ण ढंग से रामलीला का मञ्चन करते हैं।
10. मध्य जावा के नवमशती में निर्मित परमबनन (परमब्रह्म) नामक विशाल शिवमन्दिर की भित्तिकाओं पर चारों ओर प्रस्तरशिलाओं पर रामायण की चित्रावली अंकित है।
इतने विस्तृत प्रमाणों की विद्यमानता में भी लोग यह कहें कि राम का ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, वह केवल आस्था का विषय है तो इससे बढ़कर अज्ञानता और क्या हो सकती है?

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नारी विषयक अवधारणा : वैदिक काल से आज तक – Nootan Puraatan


नारी विषयक अवधारणा : वैदिक काल से आज तक

भारतीय नारी हमेशा कुलदेवी समझी जाती है। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति सभी प्रकार से अच्छी थी। उनको एक ऊँचा स्थान प्राप्त था। लड़कियाँ ब्रह्मचर्य का पालन करती थीं। आश्रम में शिक्षा प्राप्त करती थीं। सह शिक्षा का प्रचलन था।
चारों वेदों में नारी विषयक सैकड़ों मंत्र दिये गये हैं, जिनसे स्पष्ट है कि वैदिक काल में समाज में नारी को एक ऊँचा स्थान प्राप्त था। ऋग्वेद में 24 और यजुर्वेद में 5 विदुषियों का उल्लेख है।
ऋग्वेद में नारी विषयक 422 मंत्र हैं। वेदों में कहा गया है कि गृहिणी गृहदेवी है। सुशील पत्नी गृहलक्ष्मी है। नारी कुलपालक है। नारी कुटुम्ब का चिराग है। स्त्री अबला नहीं, सबला है। स्त्री सरस्वती तुल्य प्रतिष्ठित है। शतपथ ब्राह्मण में नारी का गौरव-गाथा गाया गया है। ब्राह्मण ग्रंथों में भी नारी को सावित्री कहा गया है। पत्नी के बिना जीवन अधूरा रहता है। पत्नी साक्षत् श्री है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्र नार्यस्तु न पूज्यन्ते सर्वास्त जा फल क्रिया।
जो अपने परिवार का कल्याण चाहते हैं, वे स्त्रियों का आदर-सम्मान करें। अथर्ववेद में पत्नी को ‘रथ की धुरी’ कहकर गृहस्थ का आधार माना गया है।
दक्षस्मृति में पत्नी को घर का मूल माना गया है। यदि भार्या वश में हो तो गृहस्थाश्रम के तुल्य और कुछ नहीं।
पत्नी के द्वारा ही धर्म, अर्थ, काम आदि त्रिवर्ग का फल प्राप्त होता है। गृह का निवास, सुख के लिए होता है और घर के सुख का मूल पत्नी ही है। स्त्री के अर्धांकिनी रूप की स्वीकृति उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों में उल्लेखित है। यजुर्वेद के अनुसार वैदिक काल में कन्या का उपनयन संस्कार होता था। उसे सन्ध्यावन्दन करने का अधिकार था।
पी.एन. प्रभु ने लिखा है कि जहाँ तक शिक्षा का सम्बन्ध था, स्त्री-पुरुष की स्थिति सामान्यतः समान थी। स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करती थीं। इस काल में अनेक विदुषी स्त्रियाँ होती थीं। स्त्रियाँ चाहतीं तो अपना जीवन बिना विवाह किये व्यतीत कर सकती थीं। लड़कियाँ अपना जीवन-साथी चुनने के लिए स्वतंत्र थीं।
महाभारत के अनुसार, ‘वह घर, घर नहीं जिसमें में पत्नी नहीं।’ गृहिणीहीन घर ‘जंगल’ है।
स्त्रियाँ सामाजिक संबंध स्थापित करने के लिए स्वतन्त्र थीं। पर्दा-प्रथा नहीं थी। पुरुषों द्वारा स्त्रियों की रक्षा करना परम कर्त्तव्य माना जाता था। विधवा स्त्री पुनर्विवाह कर सकती थी। स्त्री-पुरुष समान रूप से धार्मिक कृत्यों को करते थे। किसी भी यज्ञ आदि में पति-पत्नी दोनों का होना आवश्यक था।
अतः इससे यह स्पष्ट होता है कि वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समान अच्छी थी।
उत्तर वैदिक काल
ईसा से पूर्व 600 वर्ष से लेकर ईसा के 300 वर्ष बाद तक का काल उत्तर वैदिक काल कहलाता है। वैदिक काल में तो स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी। परन्तु बाद में उनकी स्थिति में परिवर्तन होने लगा।
उत्तर वैदिक काल के प्रारंभिक वर्षों में स्त्रियों की स्थिति ठीक थी। वे इस काल में भी वेदों का अध्ययन कर सकती थीं। वे अपने वर को स्वयं चुन सकती थीं। उनके धार्मिक और सामाजिक अधिकार यथावत् थे। परन्तु इस काल में जैन और बौद्ध धर्म का प्रचार व्यापक रूप से हो रहा था। अनेक स्त्रियों ने इन धर्मों के प्रचार का कार्य किया।
बौद्ध धर्म और जैन धर्म ने भी स्त्री का समर्थन किया है। स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है कि वे ही देश उन्नति कर सकते हैं, जहाँ स्त्रियों को उचित स्थान प्राप्त होता है। पुराने ज़माने में स्त्री के बिना कोई भी मंगल कार्य नहीं किया जाता था। उदाहरण में सीता की अनुपस्थिति में श्रीराम ने सीता की स्वर्ण प्रतिमा को वाम भाग में बिठाकर ही यज्ञ किया था। बाद में जब इन धर्मों का पतन हुआ तो उसके साथ ही स्त्रियों की स्थिति में भी परिवर्तन आने लगा।
पुरुष वर्ग की सुविधा के अनुसार नारियों की स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिये गये। यज्ञ करना तथा वेदों का अध्ययन प्रतिबन्धित हो गये। विधवा पुनर्विवाह पर रोक लगा दी गयी। शिक्षा प्राप्त करना कठिन हो गया।
स्मृति युग में स्त्रियों के समस्त अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। स्मृतिकारों ने स्त्री को प्रत्येक अवस्था में परतंत्र बना दिया। उसे बचपन में पिता के संरक्षण में, युवास्था में पति के और वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहने के आदेश दिये गये।
पिता रक्षति कौमारे
भर्ता रक्षति यौवने
पुत्रो रक्षति वार्द्धक्ये
न स्त्री स्वतंत्रग्यमर्हति
स्त्री के लिए एक मात्र कर्त्तव्य पति की सेवा करना रह गया। विधवा – पुनर्विवाह बन्द कर दिये गये तथा सति का प्रावधान निश्चित कर दिया गया। इस प्रकार स्त्रियों की स्थिति दयनीय और शोचनीय हो गयी।

धर्मशास्त्र काल
यह काल ईसा के पश्चात् तीसरी शताब्दी से लेकर 11वीं शताब्दी तक का है। जो कुछ मनुस्मृति में स्त्रियों के प्रतिबन्धों के बारे में लिखा गया था उसे धर्मशास्त्र काल में व्यावहारिक रूप दिया गया। सभी ग्रंथों की रचना मनुस्मृति के आधार पर होने लगी। पराशर विष्णु और याज्ञवल्क्य संहिताओं की रचना इसका साक्षी है। समाज और स्त्रियों पर अधिक प्रतिबन्ध लगाये गये। स्त्री-शिक्षा पर पाबन्दी लग गयी। कन्याओं के विवाह की आयु घटकर 10-12 वर्ष रह गयी।
बाल-विवाह का प्रचलन बढ़ गया। वर के चुनाव में कन्या का अधिकार समाप्त हो गया। कुलीन विवाह तथा अनमेल विवाह तथा बाल विवाह का महत्व बढ़ने से बहुपत्नी सम्प्रदाय होने लगे। रखैल रखने की रिवाज़ प्रारंभ हो गयी। विधुर चाहें तो 8 या 10 वर्ष की कन्या से विवाह कर सकता था। लेकिन 8 या 10 वर्ष की कन्या का पति मर जाए तो वह आजीवन विधवा बनकर रहने के लिए मज़बूर हो जाती थी। तो विधवाओं की संख्या बढ़ने लगी। स्त्रियाँ माता से सेविका और गृहलक्ष्मी से याचिका बन गयीं। स्त्रियों के लिए विवाह ही एकमात्र धार्मिक संस्कार रह गया।
इस काल ने नारी को उपभोग की वस्तु मात्र बना दिया। इस काल में स्त्रियों का स्थान सभी क्षेत्रों में पुरुष से निम्न हो गया। स्त्रियों के पतन का सबसे अधिक ज़िम्मेदार धर्मशास्त्र काल रहा है।
मध्यकाल
11वीं शताब्दी से लेकर 18वीं तक का समय मध्यकाल कहलाता है। मध्यकाल के आते-आते स्त्री की दशा दयनीय होने लगी। समाज में उसका स्थान गौण हो गया। उसके सारे अधिकार छील लिये गये। एक ओर उसके पैरों में पराधीना की बेड़ी पहनायी गयी तो दूसरी ओर पुरुष उसपर मनमाना अत्याचार करता रहा।
11वीं शताब्दी के प्रारंभ में मुसलमान भारत में आकर अपने पैर ज़माने लगे। उनका प्रभाव भारत पर बढ़ने लगा। हिन्दू धर्म और संस्कृति को मुस्लिम धर्म और संस्कृति से सुरक्षित रखने के लिए अनेक प्रयत्न किये गये। परन्तु उसके विपरीत फल होने लगा। स्त्रियों की स्थिति और बिगड़ने लगी। स्त्रियों के सतीत्व तथा रक्त की शुद्धता के लिए अब 5 या 6 वर्ष की आयु में ही कन्याओं का विवाह होने लगा। स्त्रियों को चारदीवारी में रखा जाने लगा। पर्दे की प्रथा प्रचलित हुई। स्त्री-शिक्षा पर रोक लगा दी गयी। विधवा-पुनर्विवाह पर रोक लगा दी गयी। सम्पत्ति में स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं था। आर्थिक दृष्टिकोण से स्त्रियाँ परतंत्र हो गयीं।
अतः ये ही तथ्य हमारे सामने आते हैं कि मध्यकाल में धर्म के नाम पर तथा मुसलमानों से हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा की आड़ में नारी पर अनेक प्रतिबन्ध लगाकर उसका घोर शोषण किया गया।
ब्रिटिश काल
18वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों से लेकर 1947 तक के समय को ब्रिटिश काल मानते हैं। ब्रिटिश शासन काल में हिन्दू स्त्रियों के सुधार के लिए भी अंग्रेज़ी सरकार ने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया।
परिवार का मुखिया पुरुष होता था। स्त्री तो केवल सन्तानें पैदा करने का तथा घर-गृहस्थी के कार्य करने का उपकरण बन गयी। पति कैसा भी हो, स्त्री को विवाह-विच्छेद करने का अधिकार नहीं था। विधवा होने पर उसकी स्थिति बड़ी करुणामयी हो जाती थी। मनोरंजन के कोई साधन नहीं थे। बाल-विवाह तथा पर्दा प्रथा के कारण घर के बाहर जाकर उसे औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। समाज में उसका कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं था। सम्पन्न परिवारों में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी।
स्त्रियों का कार्यक्षेत्र मात्र घर की चारदीवारी था। सन् 1937 से पहले तक स्त्री को आर्थिक क्षेत्र में कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं थे। उसके बाद स्त्रियों को केवल स्त्री-धन संबंधी अधिकार प्राप्त थे। स्त्रियाँ घर के बाहर जाकर कोई आर्थिक कार्य नहीं कर सकती थीं। संयुक्त परिवार में उन्हें कोई भी सम्पत्ति संबंधी अधिकार प्राप्त नहीं थे।
राजनैतिक क्षेत्र में सन् 1919 तक स्त्रियों को मताधिकार देने का अधिकार पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं था। महात्मा गाँधी ने स्त्रियों को घर के बाहर लाने का प्रयास किया, जिसके फलस्वरूप स्त्रियों ने स्वतंत्रता-आन्दोलन आदि में भाग लेना प्रारंभ किया।
आधुनिक काल
पुरुषों ने नारी जाति के सारे स्वप्नों का अपहरण किया। भारतीय समाज ने एक मत में स्वीकार किया कि स्त्री स्वतंत्रता की अधिकारी नहीं है।
पुरुषों ने उसे घर की चहारदिवारी के अन्दर बंद कर दिया। शिक्षा से भी वह वंचित रह गयी और उसे आर्थिक स्वतंत्रता भी प्राप्त नहीं थी। भारतीय हिन्दू समाज में सति की प्रथा आरंभ हो गयी। यद्यपि आज इसपर कानूनी रोक लगा दी गयी है तो भी उत्तर भारत के कुछ प्रदेशों में आज भी पुलिस की आँख बचाकर यह लुके-छिपे चल रही है। आज नारी की स्थिति यही है कि अपने घरों में अपनों के हाथों से पिटने, जलीन होने और मर्दानी ताकत के आगे घुटने टेक पुरुष के सभी अत्याचारों को अपना नसीब मानकर सहते रहने की रिवाज़ लम्बे अरसों से चली आ रही है।
आज गर्भ से लेकर समाज तक के सफ़र में वह हर कहीं असुरक्षित है। आज के शिक्षित समाज में भी कितनी बेटी-भ्रूण हत्याएँ दिनोंदिन होती रहती हैं। आज समाचार-पत्र खोलते ही स्त्री उत्पीडन की बातें ही दिखाई देती हैं।
अब हम दहेज को ही लें। आज दहेज भारतीय समाज के माथे पर एक बहुत बड़ा कलंक बन चुका है। आज लड़की बाज़ार बिकनेवाली वस्तु की तरह बन गयी है। लड़का जितना पढ़ा-लिखा और जितने संपन्न परिवार का होगा, उसकी उतनी ही ज़्यादा कीमत बाज़ार में आंकी जाती है।
सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से आज के शिक्षित समाज में भी स्त्री, पुरुष के अधीन है। भारतीय साहित्य में स्त्री की स्तुति की गयी है तो भी व्यावहारिक तौर पर बात कुछ उल्टी है। पुरुष मानसिकता प्रायः सभी जाति – समुदायों में एक जैसी ही है। मुस्लिम समुदायों में माँ को ‘पाँवों तले जन्नत’ कहा है। लेकिन जहाँ बात नारी की है वहाँ पुरुष समाज अधिकांश तौर पर स्त्री को भाग्य की दृष्टि से ही देखते हैं।
महिलाओं के सामने आज भी चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। आज भी औरत का दर्जा एक उपेक्षित स्तर तक सीमित है। प्राथमिक विद्यालयों में प्रवेश करनेवाली 100 लड़कियों में सिर्फ़ 30% ही पढ़ाई पूरी करके बाहर आती हैं। शिक्षा एवं मानव सभ्यता के क्रमिक विकास के प्रयासों से शहरी समाज की उच्च एवं मध्यवर्गीय महिलाओँ की स्थिति में अवश्य परिवर्तन आया है। पर मुट्ठीभर की महिलाओं की स्थिति बदलने से समाज की तस्वीर बदलनेवाली नहीं है। महिलाएँ किसी भी देश की आबादी का आधा भाग है। उनको अनदेखी करके वास्तविक विकास को मूर्त रूप नहीं दिया जा सकता।
लड़की की शारीरिक रचना को लेकर बनाये गये सामाजिक सांस्कृतिक नियम तथा परंपराएँ उसे लड़के के पीछे चलने को मज़बूर कर देती हैं। उसके मन में हमेशा पुरुष से बचकर रहने की चिन्ता रहती है, जिससे उसे अपना समूचा जीवन रक्षात्मक होकर जीना पड़ता है।
प्रेमविवाह, सेक्स इत्यादि में बराबर की ज़िम्मेदारी होने पर भी कलंक या अपमान की छींटें लड़की के हिस्से में ही आती हैं। बलात्कार अधिकतर स्त्री की अनिच्छा और पुरुष की ज़बरदस्ती से ही होता है। लेकिन स्त्री को ही समाज दोषी बताता है। समाज की दृष्टि में वेश्या को समाज का कोढ मानकर अपमान के गढ्डे में ढकेल दिया जाता है। उदाहरण में ‘सेवासदन’ की सुमन की बात लें – सुमन का प्रेमी सदन भी उसे अंत में देश्या कहकर उसकी निन्दा करता है। समाज की दृष्टि में सदन निष्कलंक है। सुमन को गाँव से बाहर निकालते हैं। सुमन का पति गजाधर आत्महत्या करने के श्रम से उसे बचाकर सेवासदन में प्रवेश दिलाकर एक नवजीवन उसे प्रदान कर देता है। लेकिन पत्नी के रूप में उसे स्वीकार करने के लिए वह तैयार नहीं होता।
आज आधुनिक नारी को पग-पग पर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कहीं अपने माँ-बाप से है तो कहीं अपने पति से, कहीं समाज से है तो कहीं अन्य लोगों से। आज सृष्टि की दात्री का भाग्य इतना दयनीय क्यों?
उपसंहार
बदलाव प्रकृति का नियम है, समय की परिभाषा है। आज नारी के जीवन में हर मोड़ में बदलाव परिलक्षित है। उसके व्यक्तित्व में ठहराव नहीं, गतिशीलता है। वह एक स्रोत है, जो कभी नहीं सूखता। निरन्तर प्रवाहमान है। यह प्रवाहधारा जो है, वह अविरत गति से बहती रहती है। लेकिन मंद नहीं पड़ती। वही मानवता का हेतु है और वही है मानवता का सेतु भी। नारी को खुली किताब की संज्ञा दें तो उसमें अतिशयोक्ति नहीं, उस ममता का आंचल सबको आश्रय देता है, सभी रिश्ते उससे जुड़कर सार्थक होते हैं।

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भारतीय धर्म नारी के प्रति अनुदार नहीं ?


भारतीय धर्म नारी के प्रति अनुदार नहीं

अखण्ड ज्योति Jun 1975

http://aj.awgp.in/akhandjyoti/edition/1975/Jun/24

भारतीय धर्म नारी के प्रति निष्ठुर नहीं वरन् परम उदार है। मध्य-कालीन सामन्त वादी आतंक में नारी को बाधित करने की परम्परा चल पड़ी थी। उसकी छाया धर्म पुस्तकों में भी कहीं-कहीं झलकती है और लगती है कि भारतीय-धर्म, पुरुष को अधिक सुविधाएँ देता है नारी को अनुचित रीति से प्रतिबंधित करता है। ऐसे पक्षपात पूर्ण प्रसंगों को निन्दनीय और हेय ठहराया जाना उचित ही है। पर उन थोड़े से प्रक्षिप्त प्रसंग या प्रमाणों से ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि भारतीय धर्म नारी के प्रति अनुदार है।

भारतीय परम्परा नर से नारी को श्रेष्ठ मानने की है। उसको अधिक सम्मान दिया गया है और अधिक सद्व्यवहार करने के लिए निर्देश किया गया है। जहाँ भूलों का, बंधनों का प्रश्न है वहाँ नारी के साथ उदारता ही बरती गई है। नारी की गरिमा निस्संदेह पुरुष से अधिक है। नर को उसका अनुदान महान है। ऐसी स्थिति में उसे अधिक कृतज्ञता पूर्ण भाव भरा सम्मान और सद्व्यवहार मिलना ही चाहिए। आवश्यकतानुसार आपत्ति काल में उसके साथ सामाजिक नियमों से भी उदार सुविधाएँ भी मिलनी चाहिए। शास्त्रों में ऐसा ही उल्लेख है-

यो धर्म एकपत्नीमा काक्षन्ती तमनुत्तमम्। 12। मन 2/12

पुरुषों के लिए एक पत्नी व्रत ही उत्तम है।

स्त्रीषु प्रीतिविशेषण स्त्रीष्वपत्यं प्रतिष्ठितम्। धर्माथौं स्त्रीयु लक्ष्मीश्च स्त्रीयु लोकाः प्रतिष्ठिताः॥ चरक चि.स्थान भ्रं 2

जिज्ञासु ने ज्ञानी से पूछा-शरीर में सर्वोत्तम दो अंग कौन से हैं? ज्ञानी ने उत्तर दिया-जीभ और हृदय।

उसने पूछा- और देह में सब से निकृष्ट दो अंग कौन से हैं। विद्वान ने फिर वही शब्द दुहराये-जीभ और हृदय।

जिज्ञासु ने चकित होकर पूछा-भला यह अंग भले भी और बुरे भी दोनों कैसे हो सकते हैं?

ज्ञानी ने समाधान करते हुए कहा- मधुर भाषी जीभ और सद्भाव सम्पन्न हृदय को मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि कहा गया है पर यदि वे कटुवचन एवं दुर्भाव से भरे हों तो उनकी निकृष्टता भी असंदिग्ध है।

स्त्रियों में स्नेह की मात्रा विशेष रूप से अधिक रहती है, धर्म की मात्रा उनमें अधिक रहती है। इसलिए उन्हें धर्मपत्नी का पद दिया जाता है। उनमें अर्थ तत्व भी है इसलिए उन्हें गृहलक्ष्मी कहते हैं। काम रूप होने से संतान को जन्म देती है। शक्ति रूप से लोक में प्रतिष्ठित होकर मोक्ष देती है।

तारः पतिः श्रुतिर्नारी क्षमा सा स स्वयं तपः। फलम्पतिः सत्क्रिया सा धन्यौ तो दम्पती शिवे। शिव पुराण

यदि पति ओंकार है तो स्त्री वेदश्रुति है। यदि स्त्री क्षमारूपिणी है तो पुरुष तपोरूप है। यदि पति फल है तो स्त्री सत्क्रिया है। हे पार्वती! जो ऐसे हैं वे दोनों ही स्त्री पुरुष महा धन्य हैं।

पोषितामनवमानेन प्रकृतेश्च पराभवः। देवी भगवन

नारी का अपमान उस पराशक्ति का अपमान है। इससे मनुष्य का पतन पराभव होता है।

जननी जन्य काले च स्नेह काले च कन्यका। भार्या भोगाय सम्पृक्ता अन्तकाले च कालिका। एकैव कालिका देवी विहरन्ती जगत्त्रये॥ महाभारत

वही महाशक्ति जननी के रूप में जन्म देती है, पुत्री के रूप में स्नेह पात्र बनती है। पत्नी के रूप में भाग प्रदान करती है। अन्त में कालिका चिता के रूप में अपनी गोदी में चिरनिद्रा में सुला देती है। वही तीनों लोकों में संव्याप्त है।

या काविद्गना लोके सा मातृ कुलसम्भवा। कुप्यन्ति कुलयोगिन्यों बनिताना ध्यतिक्रमात॥

स्त्रियं शतापराधञ्वेत पुष्पेणापि न ताडयेत्। दोषान्त गणयेत् स्त्रीणा गुणानैव प्रकाशयेत्॥ स्कंद पुराण

संसार की समस्त नारियाँ माता तुल्य हैं। उनका तिरस्कार होने से कुल देवी रुष्ट हो जाती है। स्त्रियों में सौ अपराध होने पर भी भूल से भी ताड़ना न करे। उनके दोषों पर ध्यान न दें। गुणों का ही बखान करें।

मोहादनादिगहनादनन्तगहनादपि। पतितं व्यवसायिन्यस्तारयन्ति कुलस्त्रिमः॥

शास्त्रार्थगुरुमत्रादि तथा नोत्तरणक्षमम्। यथैताः स्नेहशालिन्यो भतृणाँ कुलयोषितः॥

सखा भ्राता सुहद् भृत्यों गुरुमित्रं धनं सुखम। शास्त्रामायतनं दासः सर्व भर्तुः कुलाँगना॥

समग्रानन्दवृन्दानामेंतदेवोपरि स्थितम्। यत्समानमनोवृतित्तसंगमास्बादने सुखम्॥ -योगवशिष्ठ

सुशील स्त्रियाँ मनुष्य को मोह अन्धकार से पार कर देती है। शास्त्र, गुरु और मंत्र से भी वे संसार सागर से पार होने में अधिक सहायक सिद्ध होती है। स्नेह भरी स्त्रियाँ अपने पति के लिए सखा, बन्धु, सुहृद, सेवक, गुरु, मित्र, धन, सुख, शास्त्र, मंदिर आदि सभी कुछ होती हैं।

संसार के सब सुखों से बड़ा सुख समान गुण स्वभाव के पति-पत्नी को एक-दूसरे के साथ रहने में प्राप्त होता है।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत् कुलम्। न शोचन्ति तु यत्रैता बर्द्धते तद्धि सर्वदा॥ -मनु.

जिस घर में नारी का सम्मान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ नारी का तिरस्कार होता है वहाँ पग-पग पर असफलता मिलती है। जहाँ स्त्रियों को दुख रहता है, उत्पीड़न सहती है, वह कुल नष्ट हो जाता है। उन्नति वहाँ होती है जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न रहती है।

समझा जाता है कि पुरुष को कितने ही विवाह कर लेने, व्यभिचार करने आदि की छूट है और सारे बंधन नारी के मत्थे ही मढ़े गये हैं। बात ऐसी नहीं हैं। दोनों को ही सदाचारी होना चाहिए पर आपत्ति काल प्रस्तुत होने पर नारी को भी वैसी ही छूट प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है। जैसी कि पुरुष प्राप्त करते चले आ रहे हैं। अचार-संहिता, नीति, धर्म, में किसी के साथ पक्षपात नहीं किया गया है। आपत्ति-कालीन सुविधाएँ स्त्रियों को भी प्राप्त हैं।

न स्त्री दुव्यति जारेण न विप्रो वेदकर्मणा। बलात्कारापभुक्ता चेद्वैरिहस्तगताअपि वा॥ -अग्नि पुराण

यदि अज्ञान वश स्त्री से व्यभिचार बन पड़ा हो, किसी ने अपहरण कर लिया हो या बलात्कार किया हो तो उस स्त्री को अशुद्ध नहीं समझना चाहिए।

असवर्णेस्तु यों गर्भः स्त्रीणाँ योनी निषिच्यते। अशुद्धा सा भवेन्नारी यावर्द्गभ न मुञ्चति॥

विमुक्ते तु ततः शल्ये रजश्रापि प्रदृश्यते। तदा सा शुद्धयते नारी विमलं काञ्चनं यथा॥

स्वयं विप्रतिपन्ना या यदि वा विप्रतारिता॥ बलान्नारी प्रभुक्ता वा चौरभुक्ता तथाअपि वा। न त्याज्या दूषिता नारी न कामोअस्या विधीयते॥ -अत्रि स्मृति

कदाचित कोई स्त्री अन्य व्यक्ति से गर्भ धारण करले तो उसे तभी तक अशुद्ध मानना चाहिए जब तक कि उदर में गर्भ है। प्रसव के पश्चात् प्रथम मासिक धर्म होने पर वह पूर्ववत् पुनः शुद्ध हो जाती है।

यदि किसी ने स्त्री को बहका लिया हो, छल से बल से उसका सतीत्व भंग किया हो। तो भी स्त्री का त्यागना उचित नहीं। क्योंकि वह उसने इच्छा तथा विवेक से नहीं किया है।

सोमः शौचं तासाँ गन्धर्वाश्च शुभाँ गिरम्। पावकः सर्वभक्षयत्वं नेध्या वै यौषितो ह्यतः॥ -याज्ञवल्क्य स्मृति 15

विवाह से पूर्व व्यभिचार आदि अपराध यदि स्त्री से बन पड़े हों तो फिर उन पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए। सोम, गंधर्व और अग्नि का स्त्रियों में जो निवास रहता है, उससे वे सर्वदा शुद्ध ही रहती है।

व्यभिचारादृतौ शुद्धिर्गर्भे त्यागो विधीयते। गर्भभतृवधादौ च तथा महति पातके॥ -याज्ञवल्क्य स्मृति

अप्रकाशित व्यभिचार के पाप की शुद्धि स्त्रियों को रजोदर्शन के साथ स्वतः हो जाती है।

पूर्व स्त्रियः सुरैर्मुक्ताः सोमगर्न्धववन्हिभि। भुञ्जते मानुषा पश्चान्नैता दुष्यन्ति केनचित्॥

असर्वेणेन यो गर्भः स्त्रीणा योनौ निपिच्यते। अशुद्धा तु भवेन्नारी यावच्छल्य न मुञ्चति॥ निः सृते तु ततः शल्ये रजसा शुध्यते ततः। -अग्नि पुराण

स्त्रियाँ सोम, गंधर्व और अग्नि इन तीन देवताओं द्वारा सेविता हैं। सो मनुष्य द्वारा उपभोग कर लेने पर भी वे अशुद्ध नहीं होतीं।

यदि उनके पेट में अवाँछनीय गर्भ आ जाता है तो वे गर्भ रहने तक ही अशुद्ध रहती है। प्रसव के उपरान्त उनकी पवित्रता फिर पूर्ववत् हो जाती है। मासिक धर्म स्त्रियों को हर महीने शुद्ध करता रहता है।

अदुष्टापतिताँ भायर्या यौवने यः परित्यजेत्। स्रपजन्म भवेत् स्त्रीत्व वैधव्यञ्च पुनः पुनः॥ -पाराशर स्मृति

जो निर्दोष पत्नी को युवावस्था में त्याग देता है। वह उस पाप से सात जन्मों तक स्त्री जन्म लेकर बार बार विधवा होता है।

नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते पतौ। पञ्चस्वापत्सु नारीणा पतिरन्यौ न विद्यते॥ -पाराशर स्मृति

पति के मर जाने पर, नष्ट हो जाने पर, संन्यास ले लेने पर, नपुंसक होने पर स्त्री अन्य पति वरण कर सकती है।

अपुत्राँ गुर्वनुज्ञातो देवरः पुत्रकाम्यया। सपिण्डो वा सगोत्रो वा घृताभ्यक्त ऋतावियात़॥ -याज्ञवल्क्य स्मृति

जिसे पुत्र की कामना है। पर वह अपने पति से नहीं होती हो, तो वह गुरुजनों की आज्ञा प्राप्त कर देवर अथवा सपिण्ड व्यक्ति से गर्भोत्पत्ति करे।

मातृवत् परदारंश्च परद्रव्यणि लोष्ट्रवत़। आत्मवत़ सर्वभूतानि यः यश्यति स पश्यति॥ -आयस्तम्ब स्मृति

जो पराई स्त्रियों को माता के समान, पराया धन धूलि समान और सब प्राणियों को अपने समान मानता है। वही सच्चा आँखों वाला है।

अनुकूलकलत्रोय स्तस्य स्वर्ग इहैव हि। प्रतिकूलकत्रस्य नरको नात्र संशयः॥ स्वर्गेअपि दुर्लभं ह्योतदनुरागः परस्परम्। -दक्ष स्मृति

जहाँ पति-पत्नी प्रेम पूर्वक रहते हों, वहाँ स्वर्ग ही है। जहाँ प्रतिकूलता रहती हो वहाँ प्रत्यक्ष नरक ही है। सच्चा प्यार तो स्वर्ग में भी दुर्लभ है।

Posted in संस्कृत साहित्य

ખેડૂત પરીવાર..


મિત્રો,
એક વાર વાચજોહો..
બહું સાચી વાત છે.

મોંઘવારીની ખોટી બૂમાબૂમ….
અને ખેડૂતોને બરબાદ કરવાનું કાવતરૂ…

કોઇને મૂળ વસ્તુ ખાવી નથી અને બજારમાં મળતી પ્રોસેસ કરેલી કંપનીની ભેળસેળવાળી અને અનહાયજેનિક વાનગી ખાવાની ટેવ પડી ગઇ છે
જેમકે…

ટામેટા ખાવા નથી પણ ટમેટાનો કેચઅપ જેના કિલોના 100 થી 200 રૂપિયા હોય
તોય મોજથી ખાયછે…

લીંબું પીવા નથી પણ,
લેમન સોડા મોજથી પીવાય છે…

બોટલ કે સાબુના પેકિગ ઉપર લીંબુંનું ચિત્ર હોય તોય સાબુ ની કિમત રૂપિયા 45 કે 60 માં ખરીદતા મોઘવારી લાગતી નથી…

માથામાં નાખવાનું તેલ કે શેમ્પુની બોટલ પર ફકત બદામયૂકત
લખેલ હોય કે લીંબું ચિતરેલ હોય…
રામ જાણે..
કેટલાં લીંબુ કે બદામ નાખ્યા
હોય પરંતું તે 150 થી 200 રૂપિયામાં ફકત 50 કે 100 મિ.લિ.એટલે કે,
એક લિટર રૂપિયા1500 થી 2500 થયા
જેમાં કોઇને મોઘવારી નડતી નથી…

જયારે શીગતેલ ફકત
રૂપિયા 150 એક કિલો એટલે રૂપીયા15નું 100 મિ.લિ.
છતાં મોંઘું પડવાની બૂમો પાડીએ…

દૂધ કોઇને ખાવું નથી પણ, ચોકલેટની જાહેરાતમાં દુધ મલાઇ ચોકલેટ બતાવેને મોઢામાં પાણી આવે રૂપિયા 5 થી10 ની એક ચોકલેટ ફકત 5 કે 10 ગ્રામની હોય એટલે કે, એક કિલોના રૂપિયા 500 થી માંડીને 700 થયા. જયારે દુધના ફકત
રૂપિયા 45/60 એક લિટરના છે છતાં મોંઘવારીની બૂમ…

નારિયેળ પાણી પીવું નથી પણ, પેપ્સી રૂપિયા 60ની લિટર
હોંશે-હોંશે પીવે અને નારિયેળ રૂપિયા 20 માં મોંઘું પડે…

શીંગ કોઇને ખાવી પોસાતી નથી પણ શીંગભજીયા કે તેની ચિકી રૂપિયા 20 માં 25 ગ્રામ
એટલે કે, રૂપિયા 800 એક કિલોના થાય…
જયારે, મગફળીના એક કિલોના રૂપિયા 45 છતાં મોંઘવારીની બૂમો…

ચિકુ, સફરજન, કેળા,
દાડમ કે અન્ય ફળો કોઇને
ખાવા નથી. પણ, તેમાથી
બનતા જ્યુસ કે પીણાં સૌ
40-50 રૂપિયામાં 200 મિ.લિ. પીએ છે.
પરંતુ, મૂળ વસ્તુના કિલોના
એટલા દેવા મોંઘા પડે છે…

ફરસાણના લારીએ રોજ ઉભા ઉભા રૂપિયા વીસના સો ગ્રામ
લેખે કિલોના 200 રૂપિયા વાપરે છે.
પરંતુ,
ચણાના કિલોના રૂપિયા 70 થાય તો તરત મોંઘવારીની બૂમો પડવા લાગે…

વેફર કે મગ દાળ 10 કે 20 ગ્રામ રૂપિયા 10 માં મળે
જેના કિલોના રૂપિયા 500 થયા જે કયારેય કોઇને મોંઘા પડયા નથી !
તે જેમાંથી બને તેના ભાવ ફકત રૂપિયા 90/કિલોના થાય તરત મોઘવારીની બૂમાબૂમ થાય…

હોટલમાં એક સબ્જી (250ગ્રામ) ડીશના 200ની આસપાસ હોય છે તેનો વાંધો નહિ.
પણ, જયારે શાકભાજીના ભાવ અછતના લીધે કયારેક જ રૂપિયા 50 કે 70 કિલો થાય તો વળી પાછી મોંઘવારીની બૂમો…

આનાથી ઉંધું…
જ્યારે ભાવો ઘટે ત્યારે ખેડૂતોની વહારે કોઇ મીડિયાવાળા કે રાજકારણી આવતા નથીં…

તો આવો આપણે સૌ ખેડૂત બચાવો’ દેશ બચાવોનો સંકલ્પ કરીએ અને ઉપર બતાવેલ સત્ય હકીકતને ધ્યાને લઇ મૂળ વસ્તુ- ખેત ઉત્પાદન છે તેનો ખાવામાં ઉપયોગ કરીએ. ખોટી બજારમાં મોંઘવારી પેદા કરે એવી પ્રોસેસ કરેલી વસ્તુઓ ન ખાવી…
અસલ વસ્તુઓ ખાવી…
ખેડૂતોને પૂરતા ભાવ આપશો તોયે…
સરવાળે,
ચારગણી સસ્તી મળશે !!!

ખેતી કરતો ખંતથી,

જગતાત અમારૂ નામ;

પરસેવાની છે કમાણી,
પાકના આપો પૂરાં દામ!

ખેડૂત પરીવાર..

✊🏻ખેડૂત બચાવો અભિયાન

Posted in यत्र ना्यरस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

Women’s day


Women’s day
धन्य है वह समाज जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है
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“ओम् नमो भगवते वासुदेवायः”

प्रिय भक्तों यह एक विडम्बना ही है कि जिस सनातन धर्म में स्त्रियों को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती आदि के रूप में पूजा की जाता है उसी समाज में स्त्रियों के ऊपर आए दिन अत्याचार होते हैं| पग पग पर उनको नियंत्रित किया जाता है| स्त्री क्या कपडे पहनती है? कहाँ जाती है? किसके साथ जाती है? कब जाती है इसका हिसाब लिया जाता है| हर एक चौराहे, गली नुक्कड़ और बाज़ारों में उनके साथ छेड़छाड़ की जाती है|

जिस समाज स्त्रियों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया जाता है वह समाज कभी सुखी और समृद्ध नहीं हो सकता |

(मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५६-६०)
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।56।।
[यत्र तु नार्यः पूज्यन्ते तत्र देवताः रमन्ते, यत्र तु एताः न पूज्यन्ते तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः (भवन्ति) ।]

जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं| जहाँ स्त्रियों का सम्मान नहीं होता वहाँ सब काम निष्फल होते हैं ।

(अर्थात जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है वहाँ देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है और सभी सुख और समृधि प्राप्त होती है, और जहाँ नारियों का अपमान होता है वहाँ सभी कार्य विफल होते हैं और सुख-समृधि का अभाव होता है)

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।।।57।।
[यत्र जामयः शोचन्ति तत् कुलम् आशु विनश्यति, यत्र तु एताः न शोचन्ति तत् हि सर्वदा वर्धते ।]

जिस कुल में पारिवारिक स्त्रियां [दुर्व्यवहार के कारण] शोक-संतप्त रहती हैं उस कुल का शीघ्र पतन हो जाता है, उसकी अवनति होने लगती है । इसके विपरीत जहां ऐसा नहीं होता है और स्त्रियां प्रसन्नचित्त रहती हैं, वह कुल प्रगति करता है । (परिवार की पुत्रियों, बधुओं, नवविवाहिताओं आदि जैसे निकट संबंधिनियों को ‘जामि’ कहा गया है ।)

जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः ।
तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः ।।58।।

[अप्रतिपूजिताः जामयः यानि गेहानि शपन्ति, तानि कृत्या आहतानि इव समन्ततः विनश्यन्ति ।]

जिन घरों में पारिवारिक स्त्रियां निरादर-तिरस्कार के कारण असंतुष्ट रहते हुए शाप देती हैं, यानी परिवार की अवनति के भाव उनके मन में उपजते हैं, वे घर कृत्याओं के द्वारा सभी प्रकार से बरबाद किये गये-से हो जाते हैं । (कृत्या उस अदृश्य शक्ति की द्योतक है जो जादू-टोने जैसी क्रियाओं के किये जाने पर लक्षित व्यक्ति या परिवार को हानि पहुंचाती है ।)

तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः ।
भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च ।।59।।

[तस्मात् भूतिकामैः नरैः एताः (जामयः) नित्यं सत्कारेषु उत्सवेषु च भूषणात्
आच्छादन-अशनैः सदा पूज्याः ।]

अतः ऐश्वर्य एवं उन्नति चाहने वाले व्यक्तियों को चाहिए कि वे पारिवारिक संस्कार-कार्यों एवं विभिन्न उत्सवों के अवसरों पर पारिवार की स्त्रियों को आभूषण, वस्त्र तथा सुस्वादु भोजन आदि प्रदान करके आदर-सम्मान व्यक्त करें ।

सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ।।60।।
[यस्मिन् एव कुले नित्यं भार्यया भर्ता सन्तुष्टः, तथा एव च भर्त्रा भार्या, तत्र वै कल्याणं ध्रुवम् ।]

जिस कुल में प्रतिदिन ही पत्नी द्वारा पति संतुष्ट रखा जाता है और उसी प्रकार पति भी पत्नी को संतुष्ट रखता है, उस कुल का भला सुनिश्चित है । ऐसे परिवार की प्रगति अवश्यंभावी है ।
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स्त्री तो माँ दुर्गा, माँ लक्ष्मी, माँ सरस्वती, माता यशोदा, माता कौशल्या, देवी सीता, सती अनसूया है |

स्त्री का अपमान धर्म का अपमान है| स्त्रियों का जहाँ सम्मान होता है वह समाज सुख और समृधि से पूर्ण होता है|

“श्री हरि ओम् तत् सत्”

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Posted in यत्र ना्यरस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

पुरातन भारतीय समाज में नारी – Ravishankar Rajgor


पुरातन भारतीय समाज में नारी
http://rkrajgor.blogspot.com/2016/03/blog-post_8.html
आजकल सम्पूर्ण देश में यह बहस चल रही है की महिलाओं पे हो रहे अत्याचार का मूल कारण आदि काल से ही इनका तिरस्कृत होना,सम्मानहीन होना और पुरुषों द्वारा बलात् दबा के रखना है।
आप सभी को वास्तविकता से अवगत करवाती पोस्ट…

🔹पुरातन भारतीय समाज में नारी समाज में पूजित थी, आज भी पत्नी के विना हिंदुओं का कोई धार्मिक संस्कार पूर्ण नहीं होता।

🔸 वैदिक युग में स्त्रियाँ कुलदेवी मानी जाती थी।

🔹स्त्रियाँ केवल घर तक ही सिमित नहीं थी अपितु रण-क्षेत्र और अध्ययन-अध्यापन में भी उनका बराबर योगदान था।

🔸गार्गी,मैत्रेयी,कैकयी,लोपमुद्रा,घोषा,रानी लक्ष्मीबाई आदि अनगिनत उदहारण उपलब्ध है।

🔹विवाह में वर व कन्या की मर्जी को पूर्ण समर्थन प्राप्त था- स्वयम्वर प्रथा इसका उदहारण है।

🔸पुत्र के अभाव में पिता की संपत्ति का अधिकार पुत्री को प्राप्त था।

🔹 आपस्तम्ब-धर्मसूत्र(2/29/3) में कहा गया है- पति तथा पत्नी, दोनों समान रूप से धन के स्वामी है।

🔸 नारियों के प्रति अन्याय न हो, वे शोक ना करे, न वो उदास होवे ऐसे उपदेश मनुस्मृति में प्राप्त है, यथा-

✅ शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा।।

जिस कुल में नारियाँ शोक-मग्न रहती है, उस कुल का शीघ्र विनाश हो जाता है। जिस कुल में नारियाँ प्रसन्न रहती है, वह कुल सदा उन्नति को प्राप्त करता है।

✅ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।

जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते है। जहाँ नारियों की पूजा नहीं होती वहाँ समस्त कर्म व्यर्थ है।

🔸 अन्यत्र कहा गया है-
नरं नारी प्रोद्धरति मज्जन्तम् भववारिधौ।
संसार-समुद्र में डूबते हुए नर का उद्धार नारी करती है।

🔹यः सदारः स विश्वास्य: तस्माद् दारा परा गतिः।
जो सपत्नीक है वह विश्वसनीय है। अतएव, पत्नी नर की परा गति होती है।

🔸 भारत में नारी को गौरी तथा भवानी की तरह देवी समझा जाता था।

🔹हर्षचरित में बाणभट्ट ने मातृगर्भ में आई राज्यश्री का वर्णन करते हुए लिखा है- ” देवी यशोमती ने देवी राज्यश्री को उसी प्रकार गर्भ में धारण किया जिस प्रकार नारायणमूर्ति ने माँ वसुधा को।”

🔸पुरातन भारतीय समाज में पुनर्विवाह और तलाक तक की व्यवस्था थी।

🔹पत्नी का परित्याग कुछ विशेष परिस्थितियों में ही किया जा सकता था, तथा परित्याग से पूर्व उसकी अनुमति आवश्यक थी।

🔸परित्यक्ता स्त्री के भरण-पोषण की जिम्मेदारी उसके पति की थी, चाहे वो पति के घर रहे अथवा अपने रिश्तेदारों के।

🔹 विधवा अगर पुत्रहीन हो तो वो अपने पति की संपत्ति की अधिकारी मानी जाती थी।

🔸पुरातन काल में स्त्रियों को राज्यसंचालन करने का अधिकार भी प्राप्त था। जैसे-

1⃣ कश्मीर नरेश अनन्त की रानी सूर्यमति।

2⃣ कल्याणी के चालुक्य वंशी राजाओं ने अपनी राजकुमारियों को प्रदेशों की प्रशासिका नियुक्त किया।

3⃣ काकतीय रानी रुद्रम्मा ने रुद्रदेव महाराज के नाम से 40 वर्षों तक शासन किया, जिसकी प्रशंसा मार्कोपोलो ने अपने वृत्तांत में की है।

4⃣ बंगाल के सेन  राजाओं ने अपनी रानियों को अनुदान स्वरुप गाँव,जागीरे व जमीने दी।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है की प्राचीन भारतीय समाज में नारी सम्मानित,सुरक्षित तथा स्वतन्त्र थी।

नारियों की वर्तमान दशा के लिए पुरातन भारतीय संस्कृति व परम्परा को जिम्मेवार मानने वालों को सोचना चाहिए।

नारी जितनी सम्मानित,सुरक्षित और स्वतंत्र भारतीय सनातन परम्परा में है उतनी पाश्चात्य में ना कभी थी ना कभी होगी।

✳भारत में नारी भोग्या नहीं अपितु पूज्या है।

✳ हमारी भाषा का बैभव देखिये — स्त्री में पुरुष शब्द का अब्शेष भी नहीं है स्त्री स्वतन्त्र शब्द है परन्तु आंग्ल भाषा में वुमेन्स , वुमेन्स में मेन्स है वु– मेन्स ।

✳ जिन देशोंमें नारीकी इज्जत न होती हो….जिन देशोंमें नारीको काले कपडोंसे ढाँक देते हो…या जिन देशोंमें नारीको कम कपडे दिए जाते हो. .witch कहकर मारा जाता हो…या जिन देशोंमें नारीयों पुरुषोंजैसे बाल बनाने व पुरुषोंजैसे कपडे पहनने पडते हो …ऐसे देशोंमें “महिला दिवस” मनाना जादा जरुरी।

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पुरातन भारतीय समाज में नारी का स्थान – Makardhwaj Tiwari


पुरातन भारतीय समाज में नारी का स्थान

http://girvanbhasha.blogspot.com/2015/08/blog-post_81.html

🔆 पुरातन भारतीय समाज में नारी

आजकल सम्पूर्ण देश में यह बहस चल रही है की महिलाओं पे हो रहे अत्याचार का मूल कारण आदि काल से ही इनका तिरस्कृत होना,सम्मानहीन होना और पुरुषों द्वारा बलात् दबा के रखना है।
आप सभी को वास्तविकता से अवगत करवाती पोस्ट…

🔹पुरातन भारतीय समाज में नारी समाज में पूजित थी, आज भी पत्नी के विना हिंदुओं का कोई धार्मिक संस्कार पूर्ण नहीं होता।

🔸 वैदिक युग में स्त्रियाँ कुलदेवी मानी जाती थी।

🔹स्त्रियाँ केवल घर तक ही सिमित नहीं थी अपितु रण-क्षेत्र और अध्ययन-अध्यापन में भी उनका बराबर योगदान था।

🔸गार्गी,मैत्रेयी,कैकयी,लोपमुद्रा,घोषा,रानी लक्ष्मीबाई आदि अनगिनत उदहारण उपलब्ध है।

🔹विवाह में वर व कन्या की मर्जी को पूर्ण समर्थन प्राप्त था- स्वयम्वर प्रथा इसका उदहारण है।

🔸पुत्र के अभाव में पिता की संपत्ति का अधिकार पुत्री को प्राप्त था।

🔹 आपस्तम्ब-धर्मसूत्र(2/29/3) में कहा गया है- पति तथा पत्नी, दोनों समान रूप से धन के स्वामी है।

🔸 नारियों के प्रति अन्याय न हो, वे शोक ना करे, न वो उदास होवे ऐसे उपदेश मनुस्मृति में प्राप्त है, यथा-

✅ शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा।।

जिस कुल में नारियाँ शोक-मग्न रहती है, उस कुल का शीघ्र विनाश हो जाता है। जिस कुल में नारियाँ प्रसन्न रहती है, वह कुल सदा उन्नति को प्राप्त करता है।

✅ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।

जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते है। जहाँ नारियों की पूजा नहीं होती वहाँ समस्त कर्म व्यर्थ है।

🔸 अन्यत्र कहा गया है-
नरं नारी प्रोद्धरति मज्जन्तम् भववारिधौ।
संसार-समुद्र में डूबते हुए नर का उद्धार नारी करती है।

🔹यः सदारः स विश्वास्य: तस्माद् दारा परा गतिः।
जो सपत्नीक है वह विश्वसनीय है। अतएव, पत्नी नर की परा गति होती है।

🔸 भारत में नारी को गौरी तथा भवानी की तरह देवी समझा जाता था।

🔹हर्षचरित में बाणभट्ट ने मातृगर्भ में आई राज्यश्री का वर्णन करते हुए लिखा है- ” देवी यशोमती ने देवी राज्यश्री को उसी प्रकार गर्भ में धारण किया जिस प्रकार नारायणमूर्ति ने माँ वसुधा को।”

🔸पुरातन भारतीय समाज में पुनर्विवाह और तलाक तक की व्यवस्था थी।

🔹पत्नी का परित्याग कुछ विशेष परिस्थितियों में ही किया जा सकता था, तथा परित्याग से पूर्व उसकी अनुमति आवश्यक थी।

🔸परित्यक्ता स्त्री के भरण-पोषण की जिम्मेदारी उसके पति की थी, चाहे वो पति के घर रहे अथवा अपने रिश्तेदारों के।

🔹 विधवा अगर पुत्रहीन हो तो वो अपने पति की संपत्ति की अधिकारी मानी जाती थी।

🔸पुरातन काल में स्त्रियों को राज्यसंचालन करने का अधिकार भी प्राप्त था। जैसे-

1⃣ कश्मीर नरेश अनन्त की रानी सूर्यमति।

2⃣ कल्याणी के चालुक्य वंशी राजाओं ने अपनी राजकुमारियों को प्रदेशों की प्रशासिका नियुक्त किया।

3⃣ काकतीय रानी रुद्रम्मा ने रुद्रदेव महाराज के नाम से 40 वर्षों तक शासन किया, जिसकी प्रशंसा मार्कोपोलो ने अपने वृत्तांत में की है।

4⃣ बंगाल के सेन  राजाओं ने अपनी रानियों को अनुदान स्वरुप गाँव,जागीरे व जमीने दी।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है की प्राचीन भारतीय समाज में नारी सम्मानित,सुरक्षित तथा स्वतन्त्र थी।

नारियों की वर्तमान दशा के लिए पुरातन भारतीय संस्कृति व परम्परा को जिम्मेवार मानने वालों को सोचना चाहिए।

नारी जितनी सम्मानित,सुरक्षित और स्वतंत्र भारतीय सनातन परम्परा में है उतनी पाश्चात्य में ना कभी थी ना कभी होगी।

✳भारत में नारी भोग्या नहीं अपितु पूज्या है।

Posted in यत्र ना्यरस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

महिलायें अपनी रक्षा करने के लिए स्वयं जागरूक हों


महिलायें अपनी रक्षा करने के लिए स्वयं जागरूक हों

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।

भावार्थ- जहां स्त्रीजाति का आदर-सम्मान होता है, उनकी सुरक्षा की जाती है और उनकी आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की पूर्ति होती है, उस स्थान, समाज, तथा परिवार पर देवतागण प्रसन्न रहते हैं. जहां ऐसा नहीं होता और उनके प्रति तिरस्कारमय व्यवहार किया जाता है, वहां देवकृपा नहीं रहती है और वहां संपन्न किये गये कार्य सफल नहीं होते हैं.

हिन्दू धर्मग्रंथों में कहा गया है कि आकाश में देवताओं के विभिन्न लोक हैं, जहाँ वो बसतें हैं. अंतरिक्ष में देवता सदैव भ्रमण करते हैं और पृथ्वीलोक में तो मनुष्य के भीतर और बाहर दोनों जगह रमण करते हैं. देवताओं को सर्वव्यापी निराकार ब्रह्म का लौकिक यानि सगुण रूप माना जाता है. बृहदारण्य उपनिषद में कहा गया है कि देवी देवता व्यापक रूप में 33 करोड हैं. संक्षिप्त रूप में 33 प्रकार के हैं और अंत में केवल एक ब्रह्म है, जिसके ये सब विभिन्न लौकिक और कार्यकारी रूप हैं.
परमात्मा ने यदि ३३ करोड़ देवी-देवता इस संसार के हित के लिए नियुक्त कर रखें हैं तो वो सब कहाँ हैं? उनके पृथ्वी पर रमने से मनुष्य को क्या फायदा हो रहा है?

इस समय धरती पर असुरों का साम्राज्य कायम होता जा रहा है. मनुष्य दिन प्रतिदिन अपना देवत्व खोकर असुर होता जा रहा है. देवी-देवता क्या कर रहे हैं? क्या वो धरती पर जारी पाप का तमाशा भर देखने के लिए हैं? यदि हाँ तो ऐसे देवी-देवताओं को पूजने और याद करने की बजाय उन्हें भूल जाने में ही मनुष्य की भलाई है. धरती पर इस समय इंसान इतना खूंखार, वहशी और दरिंदा हो गया है कि नारी को पूजने की बात तो दूर रही, वो तो उसे भोग की वस्तु समझ कहीं से भी उठाकर न केवल भोग रहा है, बल्कि उसकी नृशंस हत्या भी कर दे रहा है. चाहे वो नौकरी के लिए जाती महिला हो, वाहन में सवार महिला हो, शौच के लिए जाती महिला हो या फिर पूर्णत:सुरक्षित समझे जाने वाले घरो में रहने वाली महिला ही क्यों न हो, आज वो कहीं भी सुरक्षित नहीं है.
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कुछ समय पहले अख़बार में छपी एक खबर ने मेरे समूचे मानवीय बजूद को ही झकझोर कर रख दिया था. एक दरिंदा सगी बेटी के साथ सात साल से दुष्कर्म करता रहा. उसके इस कुकृत्य के कारण उसकी दो बीवियों ने आत्महत्या कर ली, तीसरी ने तलाक दे दिया और चौथी इस समय प्रसूता है मगर उस इंसान की हवस की भूख नहीं मिटी. उसने फिर से अपनी शादीशुदा बेटी की अस्मत लूटनी चाही लेकिन इस बार बेटी ने हिम्मत दिखाते हुए पुलिस से शिकायत की, जिसके बाद से वो दुराचारी पिता जेल में है.
अब विचार इस बात पर करना है कि महिलाओं पर जो अत्याचार हो रहा है, उसका समाधान क्या है ?

महिलायें अपने को कमजोर समझकर संकट के समय देवी देवताओं को पुकारना छोड़ें. आज से पांच हजार वर्ष पूर्व बलात्कार का शिकार होती द्रौपदी ने उन सभी देवी-देवताओं को पुकारा था, जिनकी उसने सिद्धि की थी और जिनकी रोज पूजा करती थी, परन्तु कोई भी देवी देवता उसकी इज्जत बचाने नहीं आया. अंत में उसने भगवान श्री कृष्ण को याद किया, जिन्होंने उसकी लाज बचाई. परन्तु ये गुजरे हुए इतिहास की सदियों पुरानी बात है. किसी संकटग्रस्त महिला की मदद करने के लिए आज भगवान श्री कृष्ण शरीर रूप से हम सबके बीच नहीं हैं. आज का वो श्री कृष्ण रूप हमारी आदलते हैं, वो अपना न्याय रूपी सुदर्शन चक्र चलायें और बलात्कारी व हत्यारे असुरों को कठोरतम दंड दें.

ज्यादा अच्छा तो यही है कि ऐसे हैवानों को सार्वजनिक रूप से फांसी की सजा दी जाए, जिससे महिलाओं की आजादी के सबसे बड़े दुश्मन बलात्कारियों को समुचित सबक मिल सके और महिलाओं के प्रति बुरी नियत रखने वालों में कानून का ख़ौफ़ पैदा हो. आज के आपराधिक समय में महिलाऐं अपनी रक्षा करने के लिए स्वयं को जागरूक करें. संकट के समय अपनी रक्षा करने के लिए महिलाएं जुडो-कराटे और मार्शल आर्ट सींखें. वो भयभीत होकर देवी-देवताओं को पुकारने की बजाय अपने भीतर और बाहर व्याप्त परमात्मा को याद कर तुरंत शिव या दुर्गा का रौद्र रूप धारण कर लें और पूरी हिम्मत से अपराधियों का मुकाबला करें.

छोटे बच्चियों की रक्षा माता-पिता स्वयं करें, जो हैवानों से अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं. अपने पडोसी, ट्यूशन पढ़ाने वाले और अपने रिश्तेदारों पर कभी भी आँख मूंद के विश्वास न करें. सबसे बड़ी बात ये कि बच्चे यदि यौन-उत्पीडन की शिकायत माता-पिता से करें तो उसे उपेक्षित न कर बहुत गम्भीरता से लें. बच्चे की पूरी बात सुनें और सत्य की पड़ताल जरूर करें. अंत में रक्षाबन्धन की बधाई देते हुए यही कहूंगा कि भाई तो आजीवन अपना कर्तव्य निभाएगा ही, किन्तु महिलाऐं खुद भी साहसी बनें. अपनी रक्षा करने के लिए वो स्वयम जागरूक हों और जरुरत पड़ने पर पुलिस और कानून का सहारा भी जरूर लें. !! वन्देमातरम !!
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आलेख और प्रस्तुति- सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी, प्रकृति पुरुष सिद्धपीठ आश्रम, ग्राम- घमहापुर, पोस्ट-कंदवा, जिला- वाराणसी. पिन- 221106