मान्याताओं के अनुसार नारी बिना, शक्ति के बिना यह सम्पूर्ण विश्व सार-शून्य है । सृष्टि विस्तार की दृष्टि से भी निस्संदेह पुरुष की अपेक्षा नारी की महत्ता अधिक है । वह पुरुषों की जननी है । उसकी सब कामना करें व उसके द्वारा पालित हों, ऐसा र्निदेश वैदिक ऋषि देते आये हैं । ‘कन्या’ शब्द का अर्थ होता है सबके द्वारा वांछनीय सब उसकी कामना करें । ऐतरेयोपनिषद में स्पष्ट आता है- नारी हमारा पालन करती है, अतः उसकी पालन करना हमारा र्कत्तव्य है! अथर्ववेद में उसे सत्याचरण की अर्थात् धर्म की प्रतीक कहा गया है (सत्येनोत्रभित भूमिः) कोई भी धार्मिक कार्य उसके बिना अधूरा माना जाता रहा है । ऋग्वेद लिखता है-
”शुचिभ्राजा उषसो नवेद,
यशस्वतीरपस्युवो नसत्याः ।” – (ऋग् 1/79/1)
अर्थात्- श्रद्धा, प्रेम, भक्ति, सेवा, समानता का प्रतीक नारी पवित्र, निष्कलंक, आचार के प्रकाश से सुशोभित, प्रातःकाल के समान हृदय को पवित्र करने वाली, लौकिक कुटिलताओं से अनभिज्ञ, निष्पाप, उत्तमयश युक्त, नित्य उत्तम कर्म करने की इच्छा करने वाली, सकर्मण्य और सत्य व्यवहार करने वाली देवी है ।
एक भ्रान्तिपूर्ण मान्यता, कि कन्या का जन्म अमंगलकारी है, हमारी देश में मध्यकाल में पनपी व इसी कारण आधीजन शक्ति दोयमर्दजे की मानी जाने लगी । नारीशक्ति की अवमानना, तिरस्कार, होने लगा, जबकि संस्कृति के स्वर आदि काल से कुछ और ही कहते आए हैं ।
ऋग्वेद (6/75/5) में कहा गया है कि
”वह पुरुष धन्य है, जिसके कई पुत्रियाँ हों तथा पुत्र से पिता को आनंद मिलता है, वहीं पुत्री से माता को बल्कि उससे भी अधिक (3/31-1-2) ।
उपनिषदों में भी यही बात स्पष्टतः सामने आई है ।
बृहदारण्यकेपनिषद् में विदुषी और आयुष्मती पुत्री पाने के लिए घी और तेल में चावल पकाकर खाने की विधि कही गयी है (6/4.17) ।
मनुस्मृति (9/13)में कहा गया है कि पुत्री को पुत्र के समान समझना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार आत्मा पुत्र रूप से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार वह पुत्री के रूप में भी जन्म लेती है । महाभारत में सन्यास लेने की पात्रता उसी गृहस्थ को प्राप्त है, जिसने गृहस्थधर्म का पालन करते हुए सभी र्कत्तव्यों को पूरा कर लिया है । इन र्कत्तव्यों में अपनी पुत्रियों का विवाह कर देना प्रमुख है (महाभारत उद्योगपर्व 36-39) । मनुस्मृति में पिता के उत्तराधिकार को जो भाग पुत्री को देने का विधान है, उसका हेतु ध्यान देने योग्य है ।”
विवाह की चिन्ता और सार्मथ्य से बाहर दहेज के कारण लोकगीत मध्य काल में ऐसे रचे जाने लगे कि पुत्री जन्म ही अशुभ माना जाने लगा पंचतंत्र के कुछ आख्यानों में भी यह बात आयी । कालान्तर में मध्यकाल में यह यह धारणा खूब फली-फूली व स्त्रीधन की उपेक्षा शास्त्र वचनों की दुहाई देकर अधिक से अधिक की जाने लग । वस्तुतः यह कालक्रम के अनुसार पैदा हुई विकृति है । नहीं तो पिता के वात्सल्य का आदर्श तो हर युग की एक मान्य आस्था रही है ।
इसी आस्था के कारण रामायण में जनक कहते हें ।
”जिस सीता को मैं प्राणों से बढ़कर चाहता हूँ, उसे राम को सौंपकर मेरी वीर्यशुल्क की प्रतिज्ञा पूरी हो जाएगी” (वा.रा.बालकाण्ड 67/23) ।
यह भारतीय संस्कृति की ही चिर पुरातन मान्यता है कि जैसे पुत्र अपने पिता, पितामह इत्यादि पितरों को नरकों से तारता है, इसी प्रकार दौहित्र अपने नाना को । महाभारतकाल में एक चक्रनगर का निर्धन, विचारशील ब्राह्मण बकासुर की भेंट चढ़ाए जाने से अपनी कन्या को रोकता है व स्वयं जाने को तत्पर हो जाता है, तब भीम उसके स्थान पर जाते हैं । कुन्ती को पुत्री रूप में शूरसेन तथा किन्तुभोज ने पुत्र से अधिक प्यार देकर स्नेहपूर्वक पाला था । महर्षि कण्व शकुन्तला को दुष्यन्त के पास विदाई हेतु भेजते समय भावार्द्र हो उठते हैं वे कहते हैं, तो फिर कन्या बिछोह सामान्य गृहस्थों के लिए कितना असह्य होगा? (शाकुन्तल 2/6) इसेस समाज की सही अवस्था का परिचय मिलता है ।
वेदों में पुत्रियों की कामना की गयी हैं
समाज में आज कन्या भ्रूण हत्या का महापाप प्रचलित हो गया हैं जिसका मुख्य कारण नारी जाति का समाज में उचित सम्मान न होना, दहेज जैसे कुरीतियों का होना ,समाज में बलात्कार जैसी घटनाओं का बढ़ना ,चरित्र दोष आदि जिससे नारी जाति की रक्षा कर पाना कठिन हो जाना आदि मुख्य कारण हैं. कुछ का तर्क देना हैं की वेद नारी को हीन दृष्टी से देखता हैं और वेदों में सर्वत्र पुत्र ही मांगे गए हैं, पुत्रियों की कामना नहीं की गयी हैं. वेदों के प्रमाण जिनमे नारी की यश गाथा का वर्णन हैं.
ऋग्वेद १०.१५९.३ – मेरे पुत्र शत्रु हन्ता हों और पुत्री भी तेजस्वनी हो .
ऋग्वेद ८/३१/८ यज्ञ करने वाले पति-पत्नी और कुमारियोंवाले होते हैं.
ऋग्वेद ९/६७/१० प्रति प्रहर हमारी रक्षा करने वाला पूषा परमेश्वर हमें कन्यायों का भागी बनायें अर्थात कन्या प्रदान करे.
यजुर्वेद २२/२२ – हमारे राष्ट्र में विजयशील सभ्य वीर युवक पैदा हो , वहां साथ ही बुद्धिमती नारियों के उत्पन्न होने की भी प्रार्थना हैं.
अथर्ववेद १०/३/२०- जैसा यश कन्या में होता हैं वैसा यश मुझे प्राप्त हो.
वेदों में पत्नी को उषा के सामान प्रकाशवती, वीरांगना, वीर प्रसवा, विद्या अलंकृता, स्नेहमयी माँ, पतिव्रता, अन्नपूर्णा, सदगृहणी, सम्राज्ञी आदि से संबोधित किया गया हैं जो निश्चित रूप से नारी जाति को उचित सम्मान प्रदान करते हैं.
दहेज का सही अर्थ न समझकर आज धन के लोभ में हजारों नारियों को निर्दयता से आग में जला कर भस्म कर दिया जाता हैं. इसका मुख्य कारण दहेज शब्द के सही अर्थ को न जानना हैं. वेदों में दहेज शब्द का सही अर्थ हैं पिता ज्ञान, विद्या, उत्तम संस्कार आदि गुणों के साथ वधु को वर को भेंट करे.
आज समाज अगर नारी की महता जैसी वेदों में कही गयी हैं उसको समझे तो निश्चित रूप से सभी का कल्याण होगा.
नारी जाति को यज्ञ का अधिकार
वैदिक काल में नारी जाति को यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था जिसे मध्य काल में वर्जित कर दिया गया. नारी का स्थान यज्ञवेदी से बाहर हैं (शतपथ ब्रह्मण २७/४) अथवा कन्या और युवती अग्निहोत्र की होता नहीं बन सकती (मनु ११/३६)
वेद नारी जाति को यज्ञ में भाग लेने का पूर्ण अधिकार देते हैं .
ऋग्वेद ८/३१/५-८ में कहा गया हैं की जो पति-पत्नी समान मनवाले होकर यज्ञ करते हैं उन्हें अन्न, पुष्प, हिरण्य आदि की कमी नहीं रहती.
ऋग्वेद १०/८५/४७ – विवाह यज्ञ में वर वधु उच्चारण करते हुए एक दुसरे का ह्रदय-स्पर्श करते हैं.
ऋग्वेद १/७२/५ – विद्वान लोग पत्नी सहित यज्ञ में बैठते हैं और नमस्करणीय को नमस्कार करते हैं.
इस प्रकार यजुर्वेद में ३/४४, ३/४५,३/४७,३/६०,११/५,१५/५०, अथर्ववेद ३/२८/६ , ३/३०/६, १४/२/१८, १४/२/२३, १४/२/२४ में भी यज्ञ में नारी के भाग लेने के स्पष्ट प्रमाण हैं.
ऋग्वेद ८/३३/१९ में स्त्री हि ब्रह्मा बभूबिथ अर्थात स्त्री यज्ञ की ब्रह्मा बनें कहा गया हैं.
नारी जाति को शिक्षा का अधिकार
स्वामी दयानंद ने “स्त्रीशूद्रो नाधियातामिति श्रुते:” – स्त्री और शूद्र न पढे यह श्रुति हैं को नकारते हुए वैदिक काल की गार्गी, सुलभा, मैत्रयी, कात्यायनी आदि सुशिक्षित स्त्रियों का वर्णन किया जो ऋषि- मुनिओं की शंकाओं का समाधान करती थी.
ऋग्वेद ६/४४/१८ का भाष्य करते हुए स्वामी दयानंद लिखते हैं राजा ऐसा यत्न करे जिससे सब बालक और कन्यायें ब्रहमचर्य से विद्यायुक्त होकर समृधि को प्राप्त हो सत्य, न्याय और धर्म का निरंतर सेवन करे.
यजुर्वेद १०/७- राजा को प्रयत्नपूर्वक अपने राज्य में सब स्त्रियों को विदुषी बनाना चाहिए.
ऋग्वेद ३/१/२३- विद्वानों को यही योग्यता हैं की सब कुमार और कुमारियों को पुन्दित बनावे, जिससे सब विद्या के फल को प्राप्त होकर सुमति हों.
ऋग्वेद २/४१/१६- जितनी कुमारी हैं वे विदुषियों से विद्या अध्ययन करे और वे कुमारी ब्रह्मचारिणी उन विदुषियों से ऐसी प्रार्थना करें की आप हम सबको विद्या और सुशिक्षा से युक्त करें.
इस प्रकार यजुर्वेद ११/३६ , ६/१४ ,११/५९ एवं ऋग्वेद १/१५२/६ में भी नारी को शिक्षा का अधिकार दिया गया हैं.
वेदों में बहु-विवाह आदि विषयक भ्रान्ति का निवारण
वेदों के विषय में एक भ्रम यह भी फैलाया गया हैं की वेदों में बहुविवाह की अनुमति दी गयी हैं (vedic age pge 390).
ऋग्वेद १०/८५ को विवाह सूक्त के नाम से जाना चाहता हैं. इस सूक्त के मंत्र ४२ में कहा गया हैं तुम दोनों इस संसार व गृहस्थ आश्रम में सुख पूर्वक निवास करो. तुम्हारा कभी परस्पर वियोग न हो. सदा प्रसन्नतापूर्वक अपने घर में रहो.
ऋग्वेद १०/८५/४७ मंत्र में हम दोनों (वर-वधु) सब विद्वानों के सम्मुख घोषणा करते हैं की हम दोनों के ह्रदय जल के समान शांत और परस्पर मिले हुए रहेंगे.
अथर्ववेद ७/३५/४ में पति पत्नी के मुख से कहलाया गया हैं की तुम मुझे अपने ह्रदय में बैठा लो , हम दोनों का मन एक ही हो जाये.
अथर्ववेद ७/३८/४ पत्नी कहती हैं तुम केवल मेरे बनकर रहो. अन्य स्त्रियों का कभी कीर्तन व व्यर्थ प्रशंसा आदि भी न करो.
ऋग्वेद १०/१०१/११ में बहु विवाह की निंदा करते हुए वेद कहते हैं जिस प्रकार रथ का घोड़ा दोनों धुराओं के मध्य में दबा हुआ चलता हैं वैसे ही एक समय में दो स्त्रियाँ करनेवाला पति दबा हुआ होता हैं अर्थात परतंत्र हो जाता हैं.इसलिए एक समय दो व अधिक पत्नियाँ करना उचित नहीं हैं.
इस प्रकार वेदों में बहुविवाह के विरुद्ध स्पष्ट उपदेश हैं.
वेद बाल विवाह के विरूद्ध हैं
हमारे देश पर विशेषकर मुस्लिम आक्रमण के पश्चात बाल विवाह की कुरीति को समाज ने अपना लिया जिससे न केवल ब्रहमचर्य आश्रम लुप्त हो गया बल्कि शरीर की सही ढंग से विकास न होने के कारण एवं छोटी उम्र में माता पिता बन जाने से संतान भी कमजोर पैदा होती गयी जिससे हिन्दू समाज दुर्बल से दुर्बल होता गया.
अथर्ववेद के ब्रहमचर्य सूक्त ११.५ के १८ वें मंत्र में कहा गया हैं की ब्रहमचर्य (सादगी, संयम और तपस्या) का जीवन बिता कर कन्या युवा पति को प्राप्त करती हैं.
युवा पति से ही विवाह करने का प्रावधान बताया गया हैं जिससे बाल विवाह करने की मनाही स्पष्ट सिद्ध होती हैं.
ऋग्वेद १०/१८३ में वर वधु मिलकर संतान उत्पन्न करने की बात कह रहे हैं. वधु वर से मिलकर कह रही हैं की तो पुत्र काम हैं अर्थात तू पुत्र चाहता हैं वर वधु से कहता हैं की तू पुत्र कामा हैं अर्थात तू पुत्र चाहती हैं. अत: हम दोनों मिलकर उत्तम संतान उत्पन्न करे.पुत्र उत्पन्न करने की कामना युवा पुरुष और युवती नारी में ही उत्पन्न हो सकती हैं. छोटे छोटे बालक और बालिकाओं में नहीं.
इसी भांति अथर्ववेद २/३०/५ में भी परस्पर युवक और युवती एक दुसरे को प्राप्त करके कह रहे हैं की मैं पतिकामा अर्थात पति की कामना वाली और यह तू जनीकाम अर्थात पत्नी की कामना वाला दोनों मिल गए हैं.युवा अवस्था में ही पति-पत्नी की कामना की इच्छा हो सकती हैं छोटे छोटे बालक और बालिकाओं में नहीं.
वेदों में नारी की महिमा
संसार की किसी भी धर्म पुस्तक में नारी की महिमा का इतना सुंदर गुण गान नहीं मिलता जितना वेदों में मिलता हैं.कुछ उद्हारण देकर हम अपने कथन को सिद्ध करेगे.
१. उषा के समान प्रकाशवती-
ऋग्वेद ४/१४/३
हे राष्ट्र की पूजा योग्य नारी! तुम परिवार और राष्ट्र में सत्यम, शिवम्, सुंदरम की अरुण कान्तियों को छिटकती हुई आओ , अपने विस्मयकारी सद्गुणगणों के द्वारा अविद्या ग्रस्त जनों को प्रबोध प्रदान करो. जन-जन को सुख देने के लिए अपने जगमग करते हुए रथ पर बैठ कर आओ.
२. वीरांगना-
यजुर्वेद ५/१०
हे नारी! तू स्वयं को पहचान. तू शेरनी हैं, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करनेवाली हैं, देवजनों के हितार्थ अपने अन्दर सामर्थ्य उत्पन्न कर. हे नारी ! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की तरह टूटने वाली हैं, तू दिव्य गुणों के प्रचारार्थ स्वयं को शुद्ध कर! हे नारी ! तू दुष्कर्म एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान विश्वंस्त करनेवाली हैं, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर.
३. वीर प्रसवा
ऋग्वेद १०/४७/३
राष्ट्र को नारी कैसी संतान दे
हमारे राष्ट्र को ऐसी अद्भुत एवं वर्षक संतान प्राप्त हो, जो उत्कृष्ट कोटि के हथियारों को चलाने में कुशल हो, उत्तम प्रकार से अपनी तथा दूसरों की रक्षा करने में प्रवीण हो, सम्यक नेतृत्व करने वाली हो, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष रूप चार पुरुषार्थ- समुद्रों का अवगाहन करनेवाली हो, विविध संपदाओं की धारक हो, अतिशय क्रियाशील हो, प्रशंशनीय हो, बहुतों से वरणीय हो, आपदाओं की निवारक हो.
४. विद्या अलंकृता
यजुर्वेद २०/८४
विदुषी नारी अपने विद्या-बलों से हमारे जीवनों को पवित्र करती रहे. वह कर्मनिष्ठ बनकर अपने कर्मों से हमारे व्यवहारों को पवित्र करती रहे. अपने श्रेष्ठ ज्ञान एवं कर्मों के द्वारा संतानों एवं शिष्यों में सद्गुणों और सत्कर्मों को बसाने वाली वह देवी गृह आश्रम -यज्ञ एवं ज्ञान- यज्ञ को सुचारू रूप से संचालित करती रहे.
५. स्नेहमयी माँ
अथर्वेद ७/६८/२
हे प्रेमरसमयी माँ! तुम हमारे लिए मंगल कारिणी बनो, तुम हमारे लिए शांति बरसाने वाली बनो, तुम हमारे लिए उत्कृष्ट सुख देने वाली बनो. हम तुम्हारी कृपा- दृष्टि से कभी वंचित न हो.
६. अन्नपूर्ण
अथर्ववेद ३/२८/४
इस गृह आश्रम में पुष्टि प्राप्त हो, इस गृह आश्रम में रस प्राप्त हो. इस गिरः आश्रम में हे देवी! तू दूध-घी आदि सहस्त्रों पोषक पदार्थों का दान कर. हे यम- नियमों का पालन करने वाली गृहणी! जिन गाय आदि पशु से पोषक पदार्थ प्राप्त होते हैं उनका तू पोषण कर.
ऋग्वेद में 24 तथा अथर्ववेद में 5 वैदिक ऋषिकाओं का उल्लेख है। ये सभी मंत्रद्रष्टा रही हैं। मंत्र रचना-कर्म विशिष्ट कर्म था उसमें निष्णात महिलाओं ने सक्रिय सहयोग दिया तथा धर्म, कर्तव्य अधिकार तथा अध्यात्म के संबंध में अपनी विशेष विचारधारा का प्रसार किया। कुछ सूक्त तो अत्यंत श्रेष्ठ तथा महत्वपूर्ण हैं। ऐसे में याद आता है वाक्सूक्त जिसमें वाक्तत्व का शास्त्रीय विवेचन है। भाषा-विज्ञान के सूत्रों को कुशलता से प्रस्तुत किया है ऋषिका ने। सूर्या सावित्री नामक ऋषिका ने 47 मंत्रों में विवाह संबंधी कृत्य तथा स्त्री-पुरुष की समानता का खूबसूरत आधार तलाशा है। श्रद्धा कामायनी नामक ऋषिका ने मनोवैज्ञानिक तथ्यों के निष्कर्ष दिए हैं। वीरता की भावना से ओत-प्रोत इन्द्राणी सूक्त तो विलक्षण है। इन्द्राणी सूक्त में इन्द्राणी को सेनानी रूप में प्रस्तुत किया है-
इन्द्राण्येतु प्रथमाजीतामुषिता -अथर्ववेद 1.27.4
इन्द्राणी सदैव विजयिनी रहे, कोई उससे कुछ लूट न सके। इन्द्राणी का आत्मगौरव प्रशस्य है- अहं केतुरहं मूर्धाऽहमुग्रा विवाचनी ममेदनु क्रतुं पति: सेहानाया उपाचरेत्। -ऋग्वेद, 10.159.2
अर्थात् मैं ज्ञान में अग्रगण्य हूं, स्त्रियों में मूर्धन्य हूं, उच्चकोटि की वक्ता हूं। विजयिनी हूं और मेरी इच्छा के अनुसार पति भी चलते हैं। केवल पति की दृष्टि में ही नहीं पूरे पतिगृह पर शासन करने वाली वह रही है। ऋग्वेदकाल की विशेषता है कि वहां सास-ससुर, देवर-ननद सबकी सम्राज्ञी कहा है सुमंगली वधू को-
सम्राज्ञी श्वशुरे भव, सम्राज्ञी श्वश्रुवां भव। ननान्दरि सम्राज्ञी भव, सम्राज्ञी अधि देवृषु।। -ऋग्वेद 10.85.46
यशस्विनी, सत्यवती वैदिक नारी कहीं से भी दीन-हीन नहीं है। घर-परिवार व समाज में सर्वत्र उसे आत्मदीप्त रूप से देखा जा सकता है। माता के रूप में “वीरप्रसविनी” रूप के गीत गाए गए हैं। वह कमनीय, ज्योति:रूप, अदिति (अखण्डनीया) है तथा मही, सरस्वती है। यज्ञ में, युद्ध में, संघर्ष में, उत्सव में सर्वत्र वह पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती है।
वैदिक ऋषि स्वयं निवेदन करता है सब दिशाओं को अपने यश से भर दो-
अप्यथमाना पृथिव्याम् आशा दिश आ पृण। -यजुर्वेद 11.63
हे देवी! उठ खड़ी हो तथा जीवन में सदा स्थिरता के साथ खड़ी रहो-
उत्थाय वृहती भवोत्तिष्ठ, ध्रुवा त्वम्। -यजुर्वेद 11.64
जो वेद नारी के इतने गौरव तथा आत्मसम्मान को वरीयता देता है, उसे इतना अधिकार दिलवाता है, वही उसे कर्तव्यनिष्ठ बनने की प्रेरणा भी देता है। वैदिक युग की नारी सदैव सत्य मार्ग पर चलती है, पत्नी और वधू के कर्तव्य वहन करती है। इतने भव्य रूप वाली नारी को वेद में “ब्राहृ” की उच्चतम उपाधि से अलंकृत किया गया है।
स्त्री हि ब्राहृ बभूविथ -ऋग्वेद 8.33.19
और अंत मे-
आधुनिक युग का तकाजा है कि स्त्री अपने खोए हुए गरिमापूर्ण रूप को फिर से प्राप्त करे। स्पष्ट है कि इसके लिए उसे स्वयं भी, पुरुष वर्ग और समाज को भी सत्प्रयास करने होंगे। जिस देश या राष्ट्र में आधी आबादी अशिक्षित हो, शोषित हो, पीड़ित हो- उस देश या राष्ट्र का भविष्य क्या होगा? वैदिक परंपरा के अनुयायी मनु के बहुत उदात्त वचन हैं-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता: – जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवताओं का निवास होता है। जहां इनका सम्मान नहीं होता वहां सब धर्म-कर्म निष्फल हो जाते हैं।