Roots of cow slaughter in India:1954 Expert Committee

<poem> १. अग्रं वृक्षस्य राजानो
२. अनभ्यासेन वेदाना-
३. अनूचानो मुनिः श्रेयान्
४. अब्रह्मण्यं हतं क्षात्रम् । – वशिष्ठस्मृतिः, १/१२
५. अविद्वांश्चैव विद्वांश्च
६. असत्पथेन विप्रस्य गमनं हि विरुध्यते । – वृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृतिः, १२/४३
७. आतुरो दुःखितो वापि
८. एतद्देशप्रसूतस्य
९. कलिधर्म परो न स्याद्
१०. कर्तव्यं यत्नतः शौचं
११. कैवल्यं ब्राह्मणस्यैव
१२. गावो भूमिः कलत्रं च
१३. ग्रामस्थानं यथा शून्यं
१४. जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः
१५. तेषां वाक्योदकेनैव
१६. त्रिपदा चैव गायत्री
१७. दहत्यग्निस्तेजसा च
१८. धर्मशास्त्ररथारूढा
१९. नन्दन्त्योषधयः सर्वा
२०. नवमान्या द्विजाः प्राज्ञै-
२१. न विद्यया केवलया
२२. न शारीरो ब्राह्मणस्य
२३. नाब्रह्म क्षत्रमृध्नोति
२४. नास्ति विप्रात् परं तीर्थं
२५. नित्यं योगरतो विद्वान्
२६. निवृत्तः पापकर्मभ्यः
२७. पन्था देयो ब्राह्मणाय
२८. परद्रव्य परक्षेत्र
२९. ब्रह्म चैव धनं येषां
३०. ब्राह्मणानां धनं वेदाः
३१. ब्राह्मणान्न परीक्षेत
३२. ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा
३३. ब्राह्मणस्वं न हर्तव्यं
३४. भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः
३५. मन्त्रार्थो ब्राह्मणमुखाद्
३६. यथाऽन्नं मधुसर्पिभ्यां
३७. यथा काष्ठमयो हस्ती
३८. यथा सर्वास्ववस्थासु
३९. यद् धनं यज्ञशीलानां
४०. यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा
४१. युगे युगे तु ये धर्मा-
४२. येषामध्ययनं नास्ति
४३. योऽनधीत्य द्विजो वेद-
४४. श्रोत्रियेभ्यः परं नास्ति
४५. लक्षणानि तु विप्रस्य
४६. विद्या तपश्च योगश्च
४७. विद्या विनय सम्पन्नः
४८. विप्राणां ज्ञानतो ज्येष्ठ्यम् – मनुस्मृतिः, २/१३०
४९. वेदः कृत्स्नोऽधिगन्तव्यः
५०. वेदाभ्यासो हि विप्रस्य
५१. शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं
५२. शौचमूलो द्विजः स्मृतः । – दक्षस्मृतिः, ५/२
५३. श्रोत्रिया न पराधीनाः । – व्यासस्मृतिः, तृतीयखण्डः,पृ. १७४
५४. सन्ध्यां नोपासते यस्तु
५५. सन्ध्यां नोपासते विप्राः
५६. सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्य-
५७. सर्वं वै ब्राह्मणोऽर्हति । – मनुस्मृतिः , १/१००
५८. सर्वेषामेव वै मान्यो
५९. स्वयमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते
६०. हिताय हि प्रवर्तन्ते
६१. चक्रात् तीक्ष्णतरो मन्युः । – शंखलिखितस्मृतिः, श्लोकः ३१
६२. दुर्लभो ब्राह्मणोत्तमः । – मार्कण्डेयस्मृतिः,पृ.१४४
६३. न विप्राः शस्त्रपाणयः । – वृद्धगौतमस्मृतिः, ३/६९
६४. नास्ति विप्रात् परा गतिः । – वृद्धगौतमस्मृतिः ३/७८
६५. प्राणसंकटे ब्राह्मणोऽपि शस्त्रमाददीत । – गौतमस्मृतिः, सप्तमोऽध्यायः
६६. मनो दाम्यं सदा द्विजैः । – बृहत्पराशरस्मृतिः, ६/२५३
६७. राजा सर्वस्येष्टे ब्राह्मणवर्जम् । – गौतमस्मृतिः, अध्यायः ११
६८. वयसा लघवोऽपि स्युर्वृद्धा धर्मविदो जनाः । – वृहत्पराशरस्मृतिः, ८/ ७१
६९. विप्रत्वमतिदुर्लभम् । – मार्कण्डेयस्मृतिः
शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते ।
द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते । । Manu-Smriti ८.३४८ । ।
Right now,weapons are in the hands of mleccha(s) (Barbaric – terrorists, fanatics, mafias, mercenary pawns). They don’t think twice firing a gunshot. And we see the results across the world. To protect self and family, one must get self equipped with weapons.
If you preach timidness and weakness as fake form अहिंसा, you are inviting self-destruction.
गुरुं वा बाल-वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् ।
आततायिनम् आयान्तं हन्याद् एवाविचारयन् ।। मनु. 8 – 350
अर्थात् – गुरु हो, बालक हो, वृद्ध हो या बहुश्रुत ब्राह्मण हो – लेकिन वह शस्त्र लेकर वध करने को यदि आ रहा हो तो, ऐसे आततायी को तो बिना कोई विचार किये मार ही डालना चाहिये ।।
Who is आततायी ?
शुक्राचार्य ने धर्मशास्त्र की ऐसी आज्ञा को देख कर, षड्-विध आततायियों की गिनती भी की हैः- 1. अग्नि में जला देनेवाला, 2.विष देनेवाला, 3. शस्त्र उठा कर आनेवाला, 4. धन की चोरी करनेवाला, 5. खेत की जमीन ले लेनेवाला, और 6. पत्नी का अपहरण करनेवाला – ये सब आततायिन् है ।
अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रोन्मत्तो धनापहः ।
क्षेत्रदारहरश्चैतान् षड् विद्याद् आततायिनः ।। – शुक्रनीतिः
So if you keep quiet for your false non-violence notion, you are not on dharma path but on tamasik adharma path.
All this is possible to restrict. The root is in education. Our society is breeding आततायी(s) for sheer root in education.
We as a society, are failure. We failed to reform education in true sense. We failed to provide culture in education.
अतीत्य बन्धून् अवलङ्घ्य मित्राण्याचार्यम् आगच्छति शिष्यदोषः ।
बालं ह्यपत्यं गुरवे प्रदातुर्नैवापराधोSस्ति पितुर्न मातुः ।।
( पञ्चरात्रम् 1 –19, पृ.377 )
“ बाल्यावस्था में हीं गुरु के आश्रम में भेजा गया कोई छात्र यदि दुषित चरित्रवाला निकलता है तो उसमें गुरु का ही दोष गिना जायेगा, उसमें दोस्तों का, या माता का, या पिता का कोई अपराध नहीं माना जायेगा ।। ” –अर्थात् शिक्षण-जगत् में गुरु की भूमिका भी लोकसंग्रह के कर्तव्य से संयुक्त ही है ।
All wars are avoidable if the right dharma-centered education is imparted.
अम्बेडकर का छल: अम्बेडकर द्वारा मनु स्मृति के श्लोको के अर्थ का अनर्थ कर गलत या विरोधी निष्कर्ष निकालना।
डा. अम्बेडकर ने अपने ब्राह्मण वाद से घ्रणा के चलते मनुस्मृति को निशाना बनाया और इतना ही नही अपनी कटुता के कारण मनुस्मृति के श्लोको का गलत अर्थ भी किया। अब चाहे अंग्रेजी भाषा के कारण ऐसा हुआ हो या अनजाने में लेकिन अम्बेडकर जी का वैदिक धर्म के प्रति नफरत का भाव अवश्य नज़र आता है कि उन्होंने अपने ही दिए तथ्यों की जांच करने की जिम्मेदारी न समझी|
यहाँ आप स्वयंम देखे अम्बेडकर ने किस तरह गलत अर्थ प्रस्तुत कर गलत निष्कर्ष निकाले –
(१) अशुद्ध अर्थ करके मनु के काल में भ्रान्ति पैदा करना और मनु को बोद्ध विरोधी सिद्ध करना –
(क) पाखण्डिनो विकर्मस्थान वैडालव्रतिकान् शठान् |
हैतुकान् वकवृत्तीश्र्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ||(४.३०)
डा . अम्बेडकर का अर्थ – ” वह (गृहस्थ) वचन से भी विधर्मी, तार्किक (जो वेद के विरुद्ध तर्क करे ) को सम्मान न दे|”
” मनुस्मृति में बोधो और बुद्ध धम्म के विरुद्ध में स्पष्ट व्यवस्था दी गयी है |”
(अम्बेडकर वा. ,ब्राह्मणवाद की विजय पृष्ठ. १५३)
शुद्ध अर्थ – पाखंडियो, विरुद्ध कर्म करने वालो अर्थात अपराधियों ,बिल्ली के सामान छली कपटी जानो ,धूर्ति ,कुतर्कियो,बगुलाभक्तो को अपने घर आने पर वाणी से भी सत्कार न करे |
समीक्षा- इस श्लोक में आचारहीन लोगो की गणना है उनका वाणी से भी अतिथि सत्कार न करने का निर्देश है |
यहा विकर्मी अर्थात विरुद्ध कर्म करने वालो का बलात विधर्मी अर्थ कल्पित करके फिर उसका अर्थ बोद्ध कर लिया |विकर्मी का विधर्मी अर्थ किसी भी प्रकार नही बनता है | ऐसा करके डा . अम्बेडकर मनु को बुद्ध विरोधी कल्पना खडी करना चाहते है जो की बिलकुल ही गलत है |
(ख) या वेदबाह्या: स्मृतय: याश्च काश्च कुदृष्टय: |
सर्वास्ता निष्फला: प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ता: स्मृता:|| (१२.९५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – जो वेद पर आधारित नही है, मृत्यु के बाद कोई फल नही देती, क्यूंकि उनके बारे में यह घोषित है कि वे अन्धकार पर आधारित है| ” मनु के शब्द में विधर्मी बोद्ध धर्मावलम्बी है| ” (वही ,पृष्ठ१५८)
शुद्ध अर्थ – ‘ वेदोक्त’ सिद्धांत के विरुद्ध जो ग्रन्थ है ,और जो कुसिधान्त है, वे सब श्रेष्ट फल से रहित है| वे परलोक और इस लोक में अज्ञानान्ध्कार एवं दुःख में फसाने वाले है |
समीक्षा- इस श्लोक में किसी भी शब्द से यह भासित नही होता है कि ये बुद्ध के विरोध में है| मनु के समय अनार्य ,वेद विरोधी असुर आदि लोग थे ,जिनकी विचारधारा वेदों से विपरीत थी| उनको छोड़ इसे बुद्ध से जोड़ना लेखक की मुर्खता ओर पूर्वाग्रह दर्शाता है |
(ग) कितवान् कुशीलवान् क्रूरान् पाखण्डस्थांश्च मानवान|
विकर्मस्थान् शौण्डिकाँश्च क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात् || (९.२२५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” जो मनुष्य विधर्म का पालन करते है …….राजा को चाहिय कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दे | “(वही ,खंड ७, ब्राह्मणवाद की विजय, पृष्ठ. १५२ )
शुद्ध अर्थ – ‘ जुआरियो, अश्लील नाच गाने करने वालो, अत्याचारियों, पाखंडियो, विरुद्ध या बुरे कर्म करने वालो ,शराब बेचने वालो को राजा तुरंत राज्य से निकाल दे |
समीक्षा – संस्कृत पढने वाला छोटा बच्चा भी जानता है कि कर्म, सुकर्म ,विकर्म ,दुष्कर्म इन शब्दों में कर्म ‘क्रिया ‘ या आचरण का अर्थ देते है | यहा विकर्म का अर्थ ऊपर बताया गया है | लेकिन बलात विधर्मी और बुद्ध विरोधी अर्थ करना केवल मुर्खता प्राय है |
(२) अशुद्ध अर्थ कर मनु को ब्राह्मणवादी कह कर बदनाम करना –
(क) सेनापत्यम् च राज्यं च दंडेंनतृत्वमेव च|
सर्वलोकाघिपत्यम च वेदशास्त्रविदर्हति||(१२.१००)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – राज्य में सेना पति का पद, शासन के अध्यक्ष का पद, प्रत्येक के ऊपर शासन करने का अधिकार ब्राह्मण के योग्य है|’ (वही पृष्ठ १४८)
शुद्ध अर्थ- ‘ सेनापति का कार्य , राज्यप्रशासन का कार्य, दंड और न्याय करने का कार्य ,चक्रवती सम्राट होने, इन कार्यो को करने की योग्यता वेदों का विद्वान् रखता है अर्थात वाही इसके योग्य है |’
समीक्षा – पाठक यहाँ देखे कि मनु ने कही भी ब्राह्मण पद का प्रयोग नही किया है| वेद शास्त्र के विद्वान क्षत्रिय ओर वेश्य भी होते है| मनु स्वयम राज्य ऋषि थे और वेद ज्ञानी भी (मनु.१.४ ) यहा ब्राह्मण शब्द जबरदस्ती प्रयोग कर मनु को ब्राह्मणवादी कह कर बदनाम करने का प्रयास किया है |
(ख) कार्षापण भवेद्दण्ड्यो यत्रान्य: प्राकृतो जन:|
तत्र राजा भवेद्दण्ड्य: सहस्त्रमिति धारणा || (८.३३६ )
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” जहा निम्न जाति का कोई व्यक्ति एक पण से दंडनीय है , उसी अपराध के लिए राजा एक सहस्त्र पण से दंडनीय है और वह यह जुर्माना ब्राह्मणों को दे या नदी में फैक दे ,यह शास्त्र का नियम है |(वही, हिन्दू समाज के आचार विचार पृष्ठ२५० )
शुद्ध अर्थ – जिस अपराध में साधारण मनुष्य को एक कार्षापण का दंड है उसी अपराध में राजा के लिए हज़ार गुना अधिक दंड है | यह दंड का मान्य सिद्धांत है |
समीक्षा :- इस श्लोक में अम्बेडकर द्वारा किये अर्थ में ब्राह्मण को दे या नदी में फेक दे यह लाइन मूल श्लोक में कही भी नही है ऐसा कल्पित अर्थ मनु को ब्राह्मणवादी और अंधविश्वासी सिद्ध करने के लिए किया है |
(ग) शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते |
द्विजातिनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते|| (८.३४८)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – जब ब्राह्मणों के धर्माचरण में बलात विघ्न होता हो, तब तब द्विज शस्त्र अस्त्र ग्रहण कर सकते है , तब भी जब द्विज वर्ग पर भयंकर विपति आ जाए |” (वही, हिन्दू समाज के आचार विचार, पृष्ठ २५० )
शुद्ध अर्थ:- ‘ जब द्विजातियो (ब्राह्मण,क्षत्रिय ,वैश्य ) धर्म पालन में बाँधा उत्पन्न की जा रही हो और किसी समय या परिस्थति के कारण उनमे विद्रोह उत्पन्न हो गया हो, तो उस समय द्विजो को शस्त्र धारण कर लेना चाहिए|’
समीक्षा – यहाँ भी पूर्वाग्रह से ब्राह्मण शब्द जोड़ दिया है जो श्लोक में कही भी नही है |
(३) अशुद्ध अर्थ द्वारा शुद्र के वर्ण परिवर्तन सिद्धांत को झूटलाना |
(क) शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः मृदुवागानहंकृत: |
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्रुते|| (९.३३५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” प्रत्येक शुद्र जो शुचि पूर्ण है, जो अपनों से उत्कृष्ट का सेवक है, मृदु भाषी है, अंहकार रहित हैसदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है (अगले जन्म में ) उच्चतर जाति प्राप्त करता है |”(वही ,खंड ९, अराजकता कैसे जायज है ,पृष्ठ ११७)
शुद्ध अर्थ – ‘ जो शुद्र तन ,मन से शुद्ध पवित्र है ,अपने से उत्क्रष्ट की संगती में रहता है, मधुरभाषी है , अहंकार रहित है , और जो ब्राह्मणाआदि तीनो वर्णों की सेवा कार्य में लगा रहता है ,वह उच्च वर्ण को प्राप्त कर लेता है|
समीक्षा – इसमें मनु का अभिप्राय कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का है ,जिसमे शुद्र उच्च वर्ण प्राप्त करने का उलेख है , लेकिन अम्बेडकर ने यहाँ दो अनर्थ किये – ” श्लोक में इसी जन्म में उच्च वर्ण प्राप्ति का उलेख है अगले जन्म का उलेख नही है| दूसरा श्लोक में ब्राह्मण के साथ अन्य तीन वर्ण भी लिखे है लेकिन उन्होंने केवल ब्राह्मण लेकर इसे भी ब्राह्मणवाद में घसीटने का गलत प्रयास किया है |इतना उत्तम सिधांत उन्हें सुहाया नही ये महान आश्चर्य है |
(४) अशुद्ध अर्थ करके जातिव्यवस्था का भ्रम पैदा करना
(क) ब्राह्मण: क्षत्रीयो वैश्य: त्रयो वर्णों द्विजातय:|
चतुर्थ एक जातिस्तु शुद्र: नास्ति तु पंचम:||
डा. अम्बेडकर का अर्थ- ” इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि मनु चातुर्यवर्ण का विस्तार नही चाहता था और इन समुदाय को मिला कर पंचम वर्ण व्यवस्था के पक्ष में नही था| जो चारो वर्णों से बाहर थे|” (वही खंड ९, ‘ हिन्दू और जातिप्रथा में उसका अटूट विश्वास,’ पृष्ठ१५७-१५८)
शुद्ध अर्थ – विद्या रूपी दूसरा जन्म होने से ब्राह्मण ,वैश्य ,क्षत्रिय ये तीनो द्विज है, विद्यारुपी दूसरा जन्म ना होने के कारण एक मात्र जन्म वाला चौथा वर्ण शुद्र है| पांचवा कोई वर्ण नही है|
समीक्षा – कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था ,शुद्र को आर्य सिद्ध करने वाला यह सिद्धांत भी अम्बेडकर को पसंद नही आया | दुराग्रह और कुतर्क द्वारा उन्होंने इसके अर्थ के अनर्थ का पूरा प्रयास किया |
(५) अशुद्ध अर्थ करके मनु को स्त्री विरोधी कहना |
(क) न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविध्यो न बालिश:|
होता स्यादग्निहोतरस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा||( ११.३६ )
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” स्त्री वेदविहित अग्निहोत्र नही करेगी|” (वही, नारी और प्रतिक्रान्ति, पृष्ठ ३३३)
शुद्ध अर्थ – ‘ कन्या ,युवती, अल्पशिक्षित, मुर्ख, रोगी, और संस्कार में हीन व्यक्ति , ये किसी अग्निहोत्र में होता नामक ऋत्विक बनने के अधिकारी नही है|
समीक्षा – डा अम्बेडकर ने इस श्लोक का इतना अनर्थ किया की उनके द्वारा किया अर्थ मूल श्लोक में कही भव ही नही है | यहा केवल होता बनाने का निषद्ध है न कि अग्निहोत्र करने का |
(ख) सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया |
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तह्स्त्या|| (५.१५०)
डा. अम्बेकर का अर्थ – ” उसे सर्वदा प्रसन्न ,गृह कार्य में चतुर , घर में बर्तनों को स्वच्छ रखने में सावधान तथा खर्च करने में मितव्ययी होना चाहिय |”(वही ,पृष्ठ २०५)
शुद्ध अर्थ -‘ पत्नी को सदा प्रसन्न रहना चाहिय ,गृहकार्यो में चतुर ,घर तथा घरेलू सामान को स्वच्छ सुंदर रखने वाली और मित्यव्यी होना चाहिय |
समीक्षा – ” सुसंस्कृत – उपस्करया ” का बर्तनों को स्वच्छ रखने वाली” अर्थ अशुद्ध है | ‘उपस्कर’ का अर्थ केवल बर्तन नही बल्कि सम्पूर्ण घर और घरेलू सामान जो पत्नीं के निरीक्षण में हुआ करता है |
(६) अशुद्ध अर्थो से विवाह -विधियों को विकृत करना
(क) (ख) (ग) आच्छद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्|
आहूय दान कन्यायाः ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तित:||(३.२७)
यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते|
अलकृत्य सुतादान दैव धर्म प्रचक्षते||(३.२८)
एकम गोमिथुंनं द्वे वा वराददाय धर्मत:|
कन्याप्रदानं विधिविदार्षो धर्म: स उच्यते||(३.२९)
डा अम्बेडकर का अर्थ – बाह्म विवाह के अनुसार किसी वेदज्ञाता को वस्त्रालंकृत पुत्री उपहार में दी जाती थी| देव विवाह था जब कोई पिता अपने घर यज्ञ करने वाले पुरोहित को दक्षिणास्वरूप अपनी पुत्री दान कर देता था | आर्ष विवाह के अनुसार वर, वधु के पिता को उसका मूल्य चूका कर प्राप्त करता था|”( वही, खंड ८, उन्नीसवी पहेली पृष्ठ २३१)
शुद्ध अर्थ – ‘वेदज्ञाता और सदाचारी विद्वान् कन्या द्वारा स्वयम पसंद करने के बाद उसको घर बुलाकर वस्त्र और अलंकृत कन्या को विवाहविधिपूर्वक देना ‘ बाह्य विवाह’ कहलाता है ||’
‘ आयोजित विस्तृत यज्ञ में ऋत्विज कर्म करने वाले विद्वान को अलंकृत पुत्री का विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना’ दैव विवाह ‘ कहाता है ||”
‘ एक या दो जोड़ा गाय धर्मानुसार वर पक्ष से लेकर विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना ‘आर्ष विवाह ‘ है |’ आगे ३.५३ में गाय का जोड़ा लेना वर्जित है मनु के अनुसार
समीक्षा – विवाह वैदिक व्यवस्था में एक संस्कार है | मनु ने ५.१५२ में विवाह में यज्ञीयविधि का विधान किया है | संस्कार की पूर्णविधि करके कन्या को पत्नी रूप में ससम्मान प्रदान किया जाता है | इन श्लोको में इन्ही विवाह पद्धतियों का निर्देश है | अम्बेडकर ने इन सब विधियों को निकाल कर कन्या को उपहार , दक्षिणा , मूल्य में देने का अशुद्ध अर्थ करके सम्मानित नारी से एक वस्तु मात्र बना दिया | श्लोको में यह अर्थ किसी भी दृष्टिकोण से नही बनता है | वर वधु का मूल्य एक जोड़ा गाय बता कर अम्बेडकर ने दुर्भावना बताई है जबकि मूल अर्थ में गाय का जोड़ा प्रेम पूर्वक देने का उलेख है क्यूंकि वैदिक संस्कृति में गाय का जोड़ा श्रद्धा पूर्वक देने का प्रतीक है |
वर्णन के आधार पर स्पष्ट है कि अम्बेडकर ने मनु स्मृति के कई श्लोको के गलत अर्थ प्रस्तुत कर मन मानी कल्पनाय और आरोप गढ़े है | ऐसे में अम्बेडकर निष्पक्ष लेखक न हो कर कुंठित व्यक्ति ही माने जायेंगे जिन्होंने खुद भी ये माना है की उनमे कुंठित भावना थी|
बेवक़ूफ़ : एक गृहणी
वो रोज़ाना की तरह आज फिर इश्वर का नाम लेकर उठी थी ।
किचन में आई और चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ाया।
फिर बच्चों को नींद से जगाया ताकि वे स्कूल के लिए तैयार हो सकें ।
कुछ ही पलों मे वो अपने सास ससुर को चाय देकर आयी फिर बच्चों का नाश्ता तैयार किया और इस बीच उसने बच्चों को ड्रेस भी पहनाई।
फिर बच्चों को नाश्ता कराया। पति के लिए दोपहर का टिफीन बनाना भी जरूरी था।
इस बीच स्कूल का रिक्शा आ गया और वो बच्चों को रिक्शा तक छोड़ने चली गई ।
वापस आकर पति का टिफीन बनाया और फिर मेज़ से जूठे बर्तन इकठ्ठा किये ।
इस बीच पतिदेव की आवाज़ आई की मेरे कपङे निकाल दो ।vउनको ऑफिस जाने लिए कपङे निकाल कर दिए।
अभी पति के लिए उनकी पसंद का नाश्ता तैयार करके टेबिल पर लगाया ही था की छोटी ननद आई और ये कहकर ये कहकर गई की भाभी आज मुझे भी कॉलेज जल्दी जाना, मेरा भी नाश्ता लगा देना। तभी देवर की भी आवाज़ आई की भाभी नाश्ता तैयार हो गया क्या?
अभी लीजिये नाश्ता तैयार है। पति और देवर ने नाश्ता किया और अखबार पढ़कर अपने अपने ऑफिस के लिए निकल चले ।
उसने मेज़ से खाली बर्तन समेटे और सास ससुर के लिए उनका परहेज़ का नाश्ता तैयार करने लगी ।
दोनों को नाश्ता कराने के बाद फिर बर्तन इकट्ठे किये और उनको भी किचिन में लाकर धोने लगी ।
इस बीच सफाई वाली भी आ गयी ।
उसने बर्तन का काम सफाई वाली को सौंप कर खुद बेड की चादरें वगेरा इकट्ठा करने पहुँच गयी और फिर सफाई वाली के साथ मिलकर सफाई में जुट गयी ।
अब तक 11 बज चुके थे, अभी वो पूरी तरह काम समेट भी ना पायी थी की काल बेल बजी । दरवाज़ा खोला तो सामने बड़ी ननद और उसके पति व बच्चे सामने खड़े थे । उसने ख़ुशी ख़ुशी सभी को आदर के साथ घर में बुलाया और उनसे बाते करते करते उनके आने से हुई ख़ुशी का इज़हार करती रही ।
ननद की फ़रमाईश के मुताबिक़ नाश्ता तैयार करने के बाद अभी वो नन्द के पास बेठी ही थी की सास की आवाज़ आई की बहु खाने का क्या प्रोग्राम हे । उसने घडी पर नज़र डाली तो 12 बज रहे थे । उसकी फ़िक्र बढ़ गयी वो जल्दी से फ्रिज की तरफ लपकी और सब्ज़ी निकाली और फिर से दोपहर के खाने की तैयारी में जुट गयी ।
खाना बनाते बनाते अब दोपहर का दो बज चुके थे । बच्चे स्कूल से आने वाले थे, लो बच्चे आ गये ।
उसने जल्दी जल्दी बच्चों की ड्रेस उतारी और उनका मुंह हाथ धुलवाकर उनको खाना खिलाया ।
इस बीच छोटी नन्द भी कॉलेज से आगयी और देवर भी आ चुके थे ।
उसने सभी के लिए मेज़ पर खाना लगाया और खुद रोटी बनाने में लग गयी ।
खाना खाकर सब लोग फ्री हुवे तो उसने मेज़ से फिर बर्तन जमा करने शुरू करदिये ।
इस वक़्त तीन बज रहे थे । अब उसको खुदको भी भूख का एहसास होने लगा था ।
उसने हॉट पॉट देखा तो उसमे कोई रोटी नहीं बची थी ।
उसने फिर से किचिन की और रुख किया तभी पतिदेव घर में दाखिल होते हुये बोले की आज देर होगयी भूख बहुत लगी हे जल्दी से खाना लगादो ।
उसने जल्दी जल्दी पति के लिए खाना बनाया और मेज़ पर खाना लगा कर पति को किचिन से गर्म रोटी बनाकर ला ला कर देने लगी ।
अब तक चार बज चुके थे ।
अभी वो खाना खिला ही रही थी की पतिदेव ने कहा की आजाओ तुमभी खालो ।
उसने हैरत से पति की तरफ देखा तो उसे ख्याल आया की आज मैंने सुबह से कुछ खाया ही नहीं ।
इस ख्याल के आते ही वो पति के साथ खाना खाने बैठ गयी ।
अभी पहला निवाला उसने मुंह में डाला ही था की आँख से आंसू निकल आये
पति देव ने उसके आंसू देखे तो फ़ौरन पूछा की तुम क्यों रो रही हो ।
वो खामोश रही और सोचने लगी की इन्हें कैसे बताऊँ की ससुराल में कितनी मेहनत के बाद ये रोटी का निवाला नसीब होता हे और लोग इसे मुफ़्त की रोटी कहते हैं ।
पति के बार बार पूछने पर उसने सिर्फ इतना कहा की कुछ नहीं बस ऐसे ही आंसू आगये ।
पति मुस्कुराये और बोले कि तुम औरते भी बड़ी “बेवक़ूफ़” होती हो, बिना वजह रोना शुरू करदेती हो।
आप इसे शेयर नहीं करेंगे क्योकि शायद आपको भी लगता है की गृहणी मुफ़्त की रोटिया तोड़ती है ।
जमाई के साथ (ससुराल में)
2000 से पहले और उसके बाद किये जाने वाले व्यवहार के बारे में :-
1. पहले के जमाई के जब आने का पता चलता तो ससुर जी दाढ़ी बनाकर और नए कपङे पहनकर स्वागत के लिए कम्पलीट रहते थे ।
2. जमाई आ जाते तो बहुत मान मनवार मिलती और छोरी दौड़कर रसोई में घुस जाती थी ।सासुजी पानी पिलातीं और धीरे से कहती :-“आग्या कांई ?”
3. आने का समाचार मिलते ही गली मोहल्ले के लोग चाय के लिए बुलाते थे,
और काकी सासुजी या भाभियां तो आटे का हलवा भी बनाती थी ।
4. जमाई खुद को ऐसा महसूस करता था कि वो पूरे गांव का जमाई है ।
5. जमाई के घर में आने के बाद घर के सब लोग डिसिप्लिन में आ जाते थे ।
6. जमाई बाथरूम से निकलते तो उनके हाथ सन्तूर साबुन से धुलवाते, भले खुद उजाला साबुन से नहाते थे ।
7. जमाई अगर रात में रुक जाते तो सुबह उनका साला पेस्ट और ब्रश हाथ में लेकर आस पास घूमता रहता था ।
8. जब जमाई का अपनी बीवी को लेकर जाने का समय हो जाता तो वो स्कूटर को पहले गैर में डालकर भन्ना भोट निकालते थे, जिससे उनका ससुराल में प्रभाव बना रहता था ।
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अब आज के जमाई की दुर्दशा :-
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1. आज के जमाई से कोई भी लुगाई लाज नहीं करती है, खुद की बीवी भी सलवार कुर्ते में आस पास घूमती रहती है ।
काकी सासुजी और भाभी कोई दूसरी रिश्तेदारी निकाल कर बोलती हैं :- ” अपने तो जमाई वाला रिश्ता है ही नहीं ।”
2. साला अगर कुंवारा है और अगर उसकी सगाई नहीं हो पा रही है तो इसका ताना जमाई को सुनाया जाएगा :- “तुम्हारा हो गया इसका भी तो कुछ सेट करो ।”
3. पानी पीना हो तो खुद रसोई में जाना पड़ेगा, कोई लाकर देने वाला नहीं है ।
4. ससुराल पक्ष की किसी शादी में जमाई को इसीलिए ज्यादा मनवार करके बुलाया जाता है ताकि जमाई बच्चों को संभाल सके, बीवी और सासुजी आराम से महिला संगीत में डांस कर सके ।
5. जरा सा अगर बीवी को ससुराल में कुछ कह दिया तो सासुजी की तरफ से तुरंत जवाब आता हैं ” एक से एक रिश्ते आऐ थे, पर ये ही मिला था छोरी को दुखी करने के लिए, इसके पापा को …नाशपिटा ।”
एक स्त्री एक दिन एक स्त्रीरोग विशेषज्ञ के पास के गई
और बोली, ” डाक्टर मैँ एक गंभीर समस्या मेँ हुँ और मै
आपकी मदद चाहती हुँ । मैं गर्भवती हूँ, आप
किसी को बताइयेगा नही मैने एक जान – पहचान के
सोनोग्राफी लैब से यह जान लिया है कि मेरे गर्भ में एक
बच्ची है। मै पहले से एक बेटी की माँ हूँ और मैं किसी भी दशा मे
दो बेटियाँ नहीं चाहती ।
” डाक्टर ने कहा ,”ठीक है, तो मै आपकी क्या सहायता कर
सकता हुँ ?” तो वो स्त्री बोली,” मैँ यह चाहती हू
कि इस गर्भ को गिराने मेँ मेरी मदद करें ।” डाक्टर अनुभवी और
समझदार था। थोडा सोचा और फिर बोला,”मुझे लगता है कि मेरे
पास एक और सरल रास्ता है
जो आपकी मुश्किल को हल कर देगा।” वो स्त्री बहुत खुश हुई..
डाक्टर आगे बोला, ” हम एक काम करते है आप
दो बेटियां नही चाहती ना ?? ?
तो पहली बेटी को मार देते है जिससे आप इस
अजन्मी बच्ची को जन्म दे सके और आपकी समस्या का हल
भी हो जाएगा. वैसे भी हमको एक बच्ची को मारना है
तो पहले वाली को ही मार देते है ना.?”
तो वो स्त्री तुरंत बोली”ना ना डाक्टर.”.!!!
हत्या करना गुनाह है पाप है और वैसे भी मैं अपनी बेटी को बहुत
चाहती हूँ । उसको खरोंच भी आती है तो दर्द का अहसास मुझे
होता है डाक्टर तुरंत बोला,”पहले
कि हत्या करो या अभी की जो जन्मा नही
उसकी हत्या करो
दोनो ही पाप हैं।” यह बात उस स्त्री को समझ आ गई ।
वह स्वयं की सोच पर लज्जित हुई और पश्चाताप करते हुए घर
चली गई।
जापान में एक फकीर था बोकोजू। वह लोगों को वृक्षों पर चढ़ने की कला सिखाता था। और वह यह कहता था कि वृक्षों पर चढ़ने की कला के साथ ही मैं जागने की कला भी सिखाता हूं।
अब फकीर को वृक्षों पर चढ़ने की कला सिखाने से कोई प्रयोजन भी नहीं है। लेकिन उस फकीर ने बड़ी समझ की बात खोजी थी कि जागना और वृक्ष पर चढ़ना एक साथ सिखाना आसान था।
जापान का एक राजकुमार उस फकीर के पास वृक्ष पर चढ़ना सीखने गया। कोई डेढ़ सौ फीट ऊंचे सीधे वृक्ष पर उस फकीर ने कहा कि तुम चढ़ो। और वह फकीर नीचे बैठ गया।
राजकुमार जैसे-जैसे ऊपर जाने लगा, उसने नीचे लौट कर देखा, वैसे-वैसे फकीर ने आंख बंद कर ली। राजकुमार डेढ़ सौ फीट ऊपर चढ़ गया, जहां से जरा भी चूक जाए तो प्राणों का खतरा है। तेज हवाएं हैं, वृक्ष कंपता है, आखिरी शिखर तक जाकर उसे वापस लौटना है। श्वास लेने तक में डर लगता है। और वह फकीर कुछ भी नहीं बोलता, चुपचाप नीचे बैठा है, न बताता है कैसे चढ़ो, न कहता है कि क्या करो। फिर वह वापस लौटना शुरू हुआ। जब कोई पंद्रह फीट ऊपर रह गया, तब वह फकीर छलांग लगा कर खड़ा हो गया और उसने कहा, सावधानी से उतरना! होश से उतरना!
राजकुमार बहुत हैरान हुआ कि कैसा पागल है! जब मैं डेढ़ सौ फीट ऊपर था, तब चुपचाप बैठा रहा। और अब जब मैं पंद्रह फीट कुल ऊंचाई पर रह गया हूं, जहां से गिर भी जाऊं तो अब बहुत खतरा नहीं है, वहां इन सज्जन को होश आया है, चिल्ला रहे हैं कि सावधान! होशियारी से उतरना! बोधपूर्वक उतरना! गिर मत जाना!
नीचे उतरा, और उसने कहा, मैं बहुत हैरान हूं! जब मैं डेढ़ सौ फीट ऊपर था, तब तुमने सावधानी के लिए नहीं कहा। और जब पंद्रह फीट, नीचे से केवल पंद्रह फीट रह गया, तब तुम चिल्लाने लगे।
उस फकीर ने कहा, जब तुम डेढ़ सौ फीट ऊपर थे, तब तुम खुद ही सावधान थे। मुझे कुछ कहने की जरूरत न थी। खतरा इतना ज्यादा था कि तुम खुद ही जागे हुए रहे होगे। लेकिन जैसे-जैसे तुम जमीन के करीब आने लगे, मैंने देखा कि नींद ने पकड़ना तुम्हें शुरू कर दिया है, तुम्हारा होश खो रहा है। उस फकीर ने कहा, जिंदगी भर का मेरा अनुभव है, लोग जमीन के पास आकर गिर जाते हैं, ऊपर से कभी कोई नहीं गिरता। ऊपर इतना खतरा होता है कि आदमी जागा होता है। और उस राजकुमार से उसने कहा कि तुम सोचो: जब तुम डेढ़ सौ फीट ऊपर थे, हवाएं जोर की थीं और वृक्ष कंपता था, तब तुम्हारे मन में कितने विचार चलते थे?
उसने कहा, विचार? एक विचार नहीं चलता था! बस एकमात्र होश था कि जरा चूक न जाऊं! मैं उस वक्त पूरी तरह जागा हुआ था।
तो उस फकीर ने पूछा, उस जागरण में तुम्हें कोई विचार नहीं थे! मन अशांत था, दुखी था, परेशान था, स्मृतियां आती थीं, भविष्य की कल्पना आती थी?
उसने कहा, कुछ भी नहीं आता था! बस मैं था, डेढ़ सौ फीट की ऊंचाई थी, प्राण खतरे में थे! वहां कुछ भी न अतीत था, न भविष्य था। बस वर्तमान था! वही क्षण था और कंपती हुई हवाएं थीं, और प्राण का खतरा था, और मैं था, और मैं पूरी तरह जागा हुआ था!
उस फकीर ने कहा, तो तुम समझ लो, अगर इस तरह तुम चौबीस घंटे जागे रहने लगो, तो तुम उसे जान लोगे जो आत्मा है। इसके अतिरिक्त तुम नहीं जान सकते हो।
यह जान कर हैरानी होगी कि बहुत बार खतरों में आदमी को आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है। और यह भी जान कर हैरानी होगी कि खतरे का जो हमारे भीतर आकर्षण है, वह आत्मा को पाने का ही आकर्षण है। खतरे का भी एक आकर्षण है, डेंजर का भी एक आकर्षण है हर एक के भीतर। और जब तक आदमी में थोड़ा बल होता है, खतरे का एक मोह होता है, खतरे को स्वीकार करने की एक इच्छा होती है।
ओशो ❤, तृषा गई एक बूंद से, प्रवचन-07
झील का चांद
एक व्यक्ति एक प्रसिद्ध संत के पास गया और बोला, ‘गुरुवर, मुझे जीवन के सत्य का पूर्ण ज्ञान है। मैंने शास्त्रों का अध्ययन भी किया है। फिर भी मेरा मन किसी काम में नहीं लगता। जब भी कोई काम करने बैठता हूं तो मन भटकने लगता है और मैं उस काम को छोड़ देता हूं। इस अस्थिरता का कारण क्या है? कृपया मेरी इस समस्या का समाधान कीजिए।’ संत ने उसे रात का इंतजार करने को कहा।
रात होने पर वह उसे एक झील के पास ले गए और झील के अंदर चांद के चमचमाते प्रतिबिंब को दिखाकर बोले, ‘एक चांद आकाश में है और एक झील में। तुम्हारा मन इस झील की तरह है। तम्हारे पास ज्ञान तो है लेकिन तुम उसका प्रयोग करने के बजाय सिर्फ उसे अपने मन में लेकर बैठे हो, ठीक उसी तरह जैसे झील असली चांद का प्रतिबिंब लेकर बैठी है। तुम्हारा ज्ञान तभी सार्थक हो सकता है जब तुम उसे व्यवहार में एकाग्रता व संयम के साथ अपनाने की कोशिश करो। झील का चांद तो मात्र एक भ्रम है। भला यह चांद मुक्त आकाश के चंद्रमा की बराबरी कहां कर सकता है? उसी तरह तुम्हें काम में मन लगाने के लिए स्वयं को आकाश के चंद्रमा की तरह बनाना है। झील का चंद्रमा पानी में कंकड़-पत्थर गिरने पर हिलने लगता है। तुम्हारा मन भी जरा-जरा सी बात में डोलने लग जाता है। तुम्हें अपने ज्ञान व विवेक को जीवन में नियमपूर्वक प्रयोग में लाना होगा, तभी तुम अपना लक्ष्य हासिल कर सकोगे। तुम्हें शुरू में थोड़ी परेशानी आएगी किंतु कुछ समय बाद तुम अभ्यस्त हो जाओगे।’ व्यक्ति संत का आशय समझ गया।