श्री वल्लभाचार्य भगवान श्रीकृष्ण के अंशावतार थे।
श्री वल्लभाचार्य युगदृष्टा के रूप में भी जाने जाते हैं। उन्होंने यमुना के तट पर उन्हें प्रणाम कर उनसे कुछ चाहा तत्समय में उनकी तपस्या से प्रभावित होकर यमुना स्वयं जल का घड़ा लेकर उपस्थित हुई थी। यमुना ने उनके आराध्य के रूप में भगवान श्रीकृष्ण की छवि को देखकर यमुना गदगद हो गई थी। वल्लभाचार्य की दृष्टि काले नाग पर भी गिरी वह उनको कृष्ण मानकर कमल के पुष्प अर्पित करने के लिए सम्मुख उपस्थित हो गया। काले नाग ने अपना वास्तविक रूप बदल लिया था और दयालु स्वभाव धारण किए हुए उपस्थित हुआ। उसकायह परिवर्तन वल्लभाचार्य की युगदृष्टि से प्रभावित था।
श्री वल्लभाचार्य भगवान जो श्रीकृष्ण के अंशावतार कहलाते थे उनकी जयन्ती वरूथिनी एकादशी को आ रही है। इस दिन भगवान वराह की सुन्दर मूर्ति मथुरा में असंख्य वर्षों से स्थापित है। यहां पर नष्ट अंग पुनः प्राप्त होते हैं। ओमकारेश्वर के राजा मान्धाता को जंगली भालू ने पैर चबाकर नष्ट कर दिया था। तब राजा मान्धाता ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की भक्त वत्सल भगवान प्रकट हुए तथा उस भालू को सुदर्शन चक्र से मार डाला तथा कहा वत्स मथुरा में जाकर तुम मेरी वराह प्रतिमा की पूजा वरूथिनी एकादशी का व्रत रखकर करो उसके प्रभाव से पुनः सर्वांग हो जाओगे जिस भालू ने तुम्हे काटा है वह तुम्हारा पूर्वजन्म का अपराध था। राजा मान्धाता ने इस व्रत को अपार श्रद्धा से किया तथा पनुः सुन्दर अंगों वाला हो गया।
ऐसे पुनीत पर्व पर इस बार हमारे आराध्यदेव श्री चौतन्य महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म दिवस आ रहा है। यह जानकार हमें अपार हर्ष होना चाहिए कि गोलोक धाम से प्रभु जी से इस भारत भूमि में पधार रहे हैं। ‘‘महाप्रभु’’ भगवान श्री कृष्ण के अंशावतार थे। उन्होंने अपनी माता को स्वप्न में दर्शन दिया। कहा माता में शमी वृक्ष की कोटर में बैठा हूँ। मुझे यहां से ले जाओ। उनके माता-पिता दौडे़-दौड़े वृक्ष के पास पहुंचे उनके पिता लक्ष्मण तथा माता इल्लमा को अपार खुशी हुई। देखों लाल हमारों अग्निकुण्ड में खेल रहा है। श्री महाप्रभु वल्लाभाचार्य जी ने पांच वर्ष में सब वेदशास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया और सारी पृथ्वी की परिक्रमा नंगे पैरों से कर डाली। भगवान कृष्ण के मन्दिर में उन्होनें अपने पास रखा सारा स्वर्ण दान कर दिया। मथुरा के चौबे पर कृपा करी विश्रान्ति घाट पर चौरासी वैष्णवों को अपनी शरणागति प्रदान की। विक्रम संवत् 1545 सन् 1488 में पिता श्री लक्ष्मण भट्ट के बैकुण्ठ गमन होने पर श्री वल्लभ दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए श्री जगन्नाथपुरी पधारे थे। वहां उस समय धर्मसभा जुटी हुई थी। विभिन्न सम्प्रदायों के विद्वान वहां पर उपस्थित हुए थे। उन्होंने चार प्रश्न विद्वानों के विचार के लिए रखे थे –
1.मुख्य शास्त्र कौन सा है?
2.मुख्य देव कौन है?
3.मुख्य मंत्र कौन सा है?
4.सर्वश्रेष्ठ कर्म कौन सा है?
सभी विद्वानों ने भिन्न-भिन्न उत्तर दिये किन्तु श्री वल्लाभाचार्य ने चारों के उत्तर लिखकर दिये।
1.देवकी पुत्र श्रीकृष्ण द्वारा कही गई ‘‘श्रीमद् भगवद्गीता’’ मुख्य शास्त्र है।
2.तथा देवकी नन्दन ‘‘श्री कृष्ण’’ ही मुख्य देव है।
3.उन भगवान ‘‘श्री कृष्ण का नाम’’ ही मुख्य मंत्र है।
4.तथा परमेश्वर ‘‘श्री कृष्ण की सेवा’’ ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है।
इस विषय को भगवान जगन्नाथ जी पर छोड़ दिया गया। कागज कलम रख दी गई पट बंद कर दिये गये। कुछ समय बाद जब जगन्नाथ जी के पट खोले गये तो श्री वल्लभ के मतों के समर्थन में जगन्नाथ जी का यह श्लोक लिखा हुआ प्राप्त हुआ।
एकं शास्त्रं देवकी पुत्र गीतम्।
एको देव देवकी पुत्र एव च ।।
मंत्रोडपि एकं तस्य नामानि यानि।
कर्मोडपि एकं तस्य देवस्य सेवाः।।
श्री वल्लभ एक बार सांदीपनी मुनि के आश्रम पर उज्जैन अवन्तिकापुरी पधारे। वहां पर किसी बडे़ पेड़ के न दिखने पर उन्होंने एक पीपल के पत्ते को भूमि में रोप दिया जो मात्र एक रात्रि में विशाल वृ़क्ष बन गया। प्रातः वहां उपस्थित लोगों ने इसे महान आश्चर्य माना देखा पीपल वृक्ष पर अनेक पक्षी फल खा रहे हैं। कलरव कर रहे हैं।
श्री वल्लभाचार्य जी को भगवान श्री कृष्ण का मुखावतार माना जाता है। जिस दिन महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी का आविर्भाव हुआ था। उसी दिन से बृज में श्री गोवर्धननाथ के मुखार बिन्द का प्राकट्य हुआ। महाप्रभु जी गोवर्धननाथ के दर्शन के लिए बृज पधारे तब स्वयं गोवर्धनधरण, इन्द्रदमन श्री नाथ जी ने आगे बढ़कर उनको हृदय से लगा लिया। गोविन्द घाट पर श्रीनाथ जी स्वयं उनके समक्ष प्रकट हुए और ब्रम्ह संबंध की दीक्षा का विधान बताया। श्री वल्लभाचार्य ने 52 वर्ष की अवस्था में ही सन्यास ग्रहण कर लिया था। किन्तु उनकी पीढ़ी में विट्ठलनाथ नामक श्रेष्ठ पुत्र ने पुष्टि मार्ग की ध्वजा फहराई जिसका वन्दन अभिनन्दन सर्वत्र हो रहा है और बहुत ही गरिमामयी पुष्टि ध्वाजा लहरा रही है। श्री विट्ठल के गीतों को संग्रहित करने के लिए किसी संत ने विट्ठलायन नामक पुस्तक की रचना की जिसे पुष्टि मार्ग की अनुपम कृति कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वल्लभाचार्य के हाथ का स्पर्श पाकर कई लोगों का उद्धार हो गया। वस्तुतः वे भगवान श्रीकृष्ण के अंशावतार थे। अस्तु।