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Once a fisherman


Once a fisherman was sitting near seashore, under the shadow of a tree smoking his beedi. Suddenly a rich businessman passing by approached him and enquired as to why he was sitting under a tree smoking and not working. To this the poor fisherman replied that he had caught enough fishes for the day.

Hearing this the rich man got angry and said: Why don’t you catch more fishes instead of sitting in shadow wasting your time?

Fisherman asked: What would I do by catching more fishes?

Businessman: You could catch more fishes, sell them and earn more money, and buy a bigger boat.

Fisherman: What would I do then?

Businessman: You could go fishing in deep waters and catch even more fishes and earn even more money.

Fisherman: What would I do then?

Businessman: You could buy many boats and employ many people to work for you and earn even more money.

Fisherman: What would I do then?

Businessman: You could become a rich businessman like me.

Fisherman: What would I do then?

Businessman: You could then enjoy your life peacefully.

Fisherman: Isn’t that what I am doing now?

Moral – You don’t need to wait for tomorrow to be happy and enjoy your life. You don’t even need to be more rich, more powerful to enjoy life. LIFE is at this moment, enjoy it fully.

As some great men have said “My riches consist not in extent of my possessions but in the fewness of my wants”.

Author Unknown

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સત્ય ઘટના


🙏🏻આજ ની એક સત્ય ઘટના “સંબંધ”🙏🏻

યોગેશ પારેખ

 

💞💞💞💞
સવારના નવ

વાગ્યાની આસપાસનો સમયહતો…….!!

પોતાના હાથના અંગૂઠા પર લીધેલા ટાંકા કઢાવવા માટે એક દાદા વેઇટિંગ રૂમમાં બેઠા હતા……..!!

ડ્યુટી પરની નર્સ

પોતાના કામમાં થોડી વ્યસ્ત હ્તી…….!!

પોતે ઉતાવળમાં છે એવું દાદાએ નર્સને એકાદ વખત કહ્યું એટલે નર્સે એમનો કેસ હાથમાં લીધો………!!

દાદાના અંગૂઠા પરનો ઘા જોયો, બધી વિગત જોઇ. એ પછી એ નર્સે અંદર

જઇ ડૉકતરને જાણ કરી……..!!

ડૉક્ટરે દાદાના ટાંકા કાઢી નાખવાની નર્સને

સૂચના આપી.નર્સે દાદાને ટેબલ પર સૂવડાવ્યા……!! પછી પૂછ્યું,’દાદા તમારી ઉતાવળનું કારણ હું પૂછી શકું? કોઇ બીજા ડૉક્ટરને બતાવવા માટે જવાનું

છે……..???

’‘ના બહેન! પરંતુ ફલાણા નર્સિંગહોમમાં મારી પત્નીને દાખલ કરેલી છે એની સાથે નાસ્તો કરવાનો સમય થઇ ગયો છે……….!!

છેલ્લાં પાંચ વરસથી સવારે સાડા નવ વાગ્યે એની જોડે જ નાસ્તો કરવાનો મારો અતૂટ ક્રમ રહ્યો છે……..!!

છેલ્લાં પાંચ વરસથી નર્સિંગ હોમમાં મારી પત્ની દાખલ થયેલી છે……..!!

પાંચ વરસથી..?? શું થયું છે એમને? નર્સે પૂછ્યું……!!

સ્મૃતિભ્રંશ—અલ્ઝાઇમર્સનોરોગ થયેલો છે. દાદાએ જવાબ આપ્યો……!!

મોં પર સહાનુભૂતિના ભાવ સાથે નર્સે ટાંકા કાઢવાની શરૂઆત કરી….!!

એકાદ ટાંકાનો દોરો ખેંચતી વખતે દાદાથી સહેજ સિસકારો થઇ

ગયો એટલે એમનું ધ્યાન બીજે દોરવા નર્સે ફરીથી વાત શરૂ કરી……..!!

‘દાદા’ તમે મોડા પડશો તો તમારી પત્ની ચિંતા કરશે

કે તમારા પર ખિજાશે ખરાં…….???

દાદા બે ક્ષણ નર્સ સામે જોઇ રહ્યા.પછી બોલ્યા,’ના ! જરા પણ નહીં,….!! કારણકે છેલ્લાં પાંચવરસથી એની યાદશક્તિ સંપૂર્ણપણે

ચાલી ગઇ છે……..!!

એ કોઇને ઓળખતી જ નથી…….!!

હું કોણ છું એ પણ એને ખબર નથી …….!!!’

નર્સને અત્યંત નવાઇ લાગી. એનાથી પુછાઇ

ગયું,……!!

‘દાદા ! જે વ્યક્તિ તમને ઓળખતી પણ નથી એના માટે તમે છેલ્લાં પાંચ વરસથી નિયમિત નર્સિંગ હોમમાં જાઓ છો…..???

તમે આટલી બધી કાળજી લો છો…….!!

પરંતુ એને તો ખબર જ નથી કે તમે કોણ છો…..???

’દાદાએ નર્સનો હાથ

પોતાના હાથમાં લઇ

હળવેથી કહ્યું,’બેટા ! એને ખબર નથી કે હું કોણ છું, પરંતુ મને તો ખબર છેને કે એ કોણ છે…….???’

સાચો પ્રેમ એટલે… સામી વ્યક્તિ જેમ છે તેમ તેનો સંપૂર્ણ સ્વીકાર…….!!

એના સમગ્રઅસ્તિત્વનો સ્વીકાર……..!!

જે હેતુ તેનો સ્વીકાર…..!!

જે છે તેનો સ્વીકાર……!!

ભવિષ્યમાં જે હશે તેનો સ્વીકાર,,,,,!!

અને

જે કાંઇ નહીં હોય તેનો પણ સ્વીકાર……..!!
💞💞💞💞

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જૂની કહેવતો – નવી કહેવતો


બહેરો બે વાર હસે – ચાઈના ની ફિલામેન્ટ બે વાર ઝબુકે.
ગાય ને દોહી કુતરી ને પાવું – આર.ઓ. નું પાણી એક્વાગાર્ડ માં નાખવું.
વાંદરા ને નિસરણી મળવી – ફેસબુક પર ગર્લ ફ્રેન્ડ મળવી.
પેટ પર પાટુ મારવું – ધંધા ની વાટ લગાડવી.
ધીરજ ના ફળ મીઠા – ૨ મિનીટ માં મેગી ના થાય..(ભલે એડવર્ટાઈઝમેન્ટ માં બતાવે.)
જીવ માં જીવ આવવો – પ્રેગ્નન્ટ હોવું.
દાઝ્યા પર ડામ – પાઈલ્સ ને ઉપર થી બાઈક ની સીટ ગરમ
કાગ નું બેસવું ને ડાળ નું પડવું – પહેલીવાર લીફ્ટ આપી ને પેટ્રોલ નું ખૂટવું.
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चार आश्रम


संभवत: प्राचीन काल में चार आश्रम की व्यवस्था का मनोवाज्ञानिक आधार रहा होगा |

http://vinay-mereblog.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html

प्राचीन काल में, मानव जीवन की व्यवस्था को चार भागो में, विभक्त किया था , व्रह्म्चार्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और सन्यास,  जब शिशु जन्म लेता है, कुछ वर्ष तक तो उसका प्रयास अपने शरीर को संभालना होता है, और उसके बाद उसमें अपने आसपास की वस्तुओं को जानने कि जिज्ञासा होती है, और १३,१४ वर्ष की अवस्था तक पहुँचते, पहुंचते वोह अपने आस पास की जानकारी ले चुका होता है और  शरीर में शक्ति का संचार हो चुका होता है, और यह अवस्था ऐसी होती है, वोह अपने आस पास के वातावरण से तो परिचित हो ही जाता है,और वोह अपनी सोच के अनुसार प्रयोग करना चाहता है, यही वोह अवस्था होती हैं, जिसमें उसके शरीर और मस्तिष्क में परिवर्तन होने लगता हैं, इस अवस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तन होने के साथ, उसके मस्तिष्क में भी हार्मोनल परिवर्तन होने लगते है, aderdinal gland से निकलने वाले हारमोन,और शारीरिक परिवर्तन के कारण उसके मस्तिस्क में ऐसे प्रश्न उठने लगते हैं, जो वोह संकोच वश अपने माँ,बाप से पूछ नहीं सकता और अगर माँ बाप से पूछ भी लिया तो माँ बाप उसको संकोचवश ठीक से उत्तर दे नहीं पाते, यह अवस्था १३ वर्ष से लेकर १९ वर्ष की अवस्था तक रहती है,और इसको टीनएज और मुश्किल एज कहा जाता है, इस एज में लड़के,लड़की के कदम बहकने की बहुत सम्भावना रहती है, लड़के और लड़की में आकर्षण होने लगता है, जिसको यह लोग प्यार की संज्ञा दे देते हैं |
संभवत: इसी लिए किशोरों के लिए व्रह्म्चार्य आश्रम की व्यवस्था की गयी थी, १३,१४ वर्ष की आयु में,इन किशोरों को गुरु के पास भेजा जाता था,शक्ति तो इन लोगों में भरपूर होती थी, मस्तिष्क भी उन बातों को जानने का इछुक होता था, जिसका इन किशोरों और इनके माँ वाप के बीच में ठीक से संवाद नहीं हो सकता था, उस समय के गुरु हर प्रकार की विद्या से सपन्न होते थे,और यह गुरुजन किशोरों की शारीरिक और मानसिक शक्ति को सही दिशा देते थे |
उस समय की किशोरियों के लिए इस प्रकार कि व्यवस्था क्यों नहीं थी यह समझ नहीं आता ,और इन किशोरियों के लिए गुरु क्यों नहीं थे, प्राचीन ग्रंथो में पुरुष गुरु और किशोर शिष्य का वर्णन तो मिलता है, परन्तु किशोरियों के लिए नहीं,संभवत: पुरुष प्रधान देश होने के कारण |
किशोर गुरुओं से २५ वर्ष की अवस्था तक रहते थे, अनेकों प्रकार कि विद्याओं में और अपने मस्तिष्क में उठने वाले पर्श्नों के उत्तर अपने गुरुओं से प्राप्त कर चुके होते थे , और इन विद्याओं में पारंगत, और अपने मस्तिष्क में उठने वाले पर्श्नों का उत्तर प्राप्त कर के पूर्ण रूप से गृहस्त आश्रम में प्रवेश के लिए उपयुक्त हो जाते थे ,और उस समय की स्वयंबर प्रथा के लिए तय्यारहो जाते थे , और अपने बल  और बुद्धि कौशल पर वधु के गले में वरमाला डाल पाते थे , उसके बाद प्रारंभ हो जाता था गृहस्थ आश्रम में प्रवेश, इस गृहस्थ आश्रम को तब से आज तक  से सब से बड़ी तपस्या कहा जाता है , संतानुत्पत्ति करना,संतान को सही दिशा देना, उनका लालन पालन करना, माँ को रातों की नींद का त्याग करना, स्वयं का गीले बिस्तर पर सोना और संतान को सूखे बिस्तर पर सुलाना,पिता के लिए अपनी पत्नी और संतान के लिए जीविका कमाना, कभी संतान वीमार हुई तो जीविका कमाना तो है ही और संतान के उपचार का प्रबंध करना ना जाने माँ बाप को कितने पापड़ बेलने पड़ते थे,आज का परिवेश बादल गया है, आज के समय में तो स्त्री पुरुष एक  दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिला  कर आजीविका कमा रहें हैं, यह गृहस्थ आश्रम २५ से ५० वर्ष की आयु तक रहता था, फिर आता था वानप्रस्थ आश्रम, संतान अब तक गृहस्थ  आश्रम में प्रवेश कर  चुकी होती थी |
अब इस गृहस्थ आश्रम में प्रवेश की हुई संतान को केवल कभी,कभी परामर्श की आवयश्कता पड़ती थी, हस्तकशेप करना उस समय भी नहीं पसंद होता होगा,जैसे आज भी नहीं पसंद है, आज तो एक पीडी के अंतर को genration gap कहा जाता है, और यह वानप्रस्थ ऐसा होता था, वानप्रस्थ में प्रवेश करने वाले लोग अपनी गृहस्थ में प्रवेश करने वाली संतान से अलग रहते थे,बस सम्बन्ध बनाये रहते थे |
५० से ७५ वर्ष की आयु तक तो वानप्रस्थ आश्रम रहता था,और इसके बाद प्रारंभ हो जाता था सन्यास जो कि ७५ वर्ष की आयु से १०० वर्ष की आयु तक बताया जाता है, हो सकता उस समय कि सम आयु १०० वर्ष तक होती होगी, यह समय वोह होता था,जब सुब कुछ त्याग कर प्रभु भक्ति में लगने का परामर्श दिया जाता है, उतरोतर आयु में शक्ति तो रहती नहीं,और कब देहावसान हो जाये इसके बारे में कुछ ज्ञात नहीं होता, संभवत: इसीलिए सन्यास आश्रम के लिए उपरोक्त समय बताया होगा |
यह सब हुए मनोवाज्ञानिक कारण, अगले लेख में लिखूंगा मनोचिक्त्सक और मानसिक चिकत्सक में अंतर |
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जानिए श्री ​हनुमान चालीसा में चालीस दोहे ही क्यों हैं?


जानिए श्री हनुमान चालीसा में चालीस दोहे ही क्यों हैं?

श्रीरामजी के परम भक्त हनुमानजी हमेशा से ही सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले देवताओं में से एक हैं। शास्त्रों के अनुसार माता सीताजी के वरदान के प्रभाव से बजरंग बलीजी को अमर बताया गया है। ऐसा माना जाता है आज भी जहां रामचरित मानस या रामायण या सुंदरकांड का पाठ पूरी श्रद्धा एवं भक्ति से किया जाता है वहां हनुमानजी अवश्य प्रकट होते हैं। इन्हें प्रसन्न करने के लिए बड़ी संख्या श्रद्धालु हनुमान चालीसा का पाठ भी करते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि हनुमान चालिसा में चालीस ही दोहे क्यों हैं?

केवल हनुमान चालीसा ही नहीं सभी देवी-देवताओं की प्रमुख स्तुतियों में चालिस ही दोहे होते हैं? विद्वानों के अनुसार चालीसा यानि चालीस, संख्या चालीस, हमारे देवी-देवीताओं की स्तुतियों में चालीस स्तुतियां ही सम्मिलित की जाती है। जैसे श्री हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा, शिव चालीसा आदि। इन स्तुतियों में चालीस दोहे ही क्यों होती है? इसका धार्मिक दृष्टिकोण है। इन चालीस स्तुतियों में संबंधित देवता के चरित्र, शक्ति, कार्य एवं महिमा का वर्णन होता है। चालीस चौपाइयां हमारे जीवन की संपूर्णता का प्रतीक हैं, इनकी संख्या चालीस इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि मनुष्य जीवन 24 तत्वों से निर्मित है और संपूर्ण जीवनकाल में इसके लिए कुल 16 संस्कार निर्धारित किए गए हैं। इन दोनों का योग 40 होता है। इन 24 तत्वों में 5 ज्ञानेंद्रिय, 5 कर्मेंद्रिय, 5 महाभूत, 5 तन्मात्रा, 4 अन्त:करण शामिल है।

सोलह संस्कार इस प्रकार है:-

1. गर्भाधान संस्कार

2. पुंसवन संस्कार

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार

4. जातकर्म संस्कार

5. नामकरण संस्कार

6. निष्क्रमण संस्कार

7. अन्नप्राशन संस्कार

8. चूड़ाकर्म संस्कार

9. विद्यारम्भ संस्कार

10. कर्णवेध संस्कार

11. यज्ञोपवीत संस्कार

12. वेदारम्भ संस्कार

13. केशान्त संस्कार

14. समावर्तन संस्कार

15. पाणिग्रहण संस्कार

16. अन्त्येष्टि संस्कार

*भगवान की इन स्तुतियों में हम उनसे इन तत्वों और संस्कारों का बखान तो करते ही हैं, साथ ही चालीसा स्तुति से जीवन में हुए दोषों की क्षमायाचना भी करते हैं। इन चालीस चौपाइयों में सोलह संस्कार एवं 24 तत्वों का भी समावेश होता है। जिसकी वजह से जीवन की उत्पत्ति है।*

तो मित्रों आज बहुत ही पावन दिवस श्री हनुमान दिवस यानि “मंगलवार” है और आज के दिन श्री हनुमानजी की उपासना बहुत ही फलदायी होती है।

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वर्णाश्रम


वर्णाश्रम क्या हैं—

Aryabhushan Arya
तत्रा वर्णविषयो मन्त्रो ‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्’ इत्युक्तस्तदर्थश्च । तस्यायं शेष:—
वर्णो वृणोते: ।।१।। निरू ॰२ । खं३ ।।
ब्रह्म हि ब्राह्मण: । क्षत्रं हीन्ं: क्षत्रं राजन्य: ।।२।। श कां ५ । अ १ । ब्रा १ ।।
बाहू वै मित्रावरुणौ पुरुषो गर्त: वीर्य वा एतद्राजन्यस्य यद्धाहू
वीर्य वा एतदपाद्य रस: ।। शत कां ५ । अ ४ । ब्रा ३ ।।
इषवो वै दिद्यव: ।।ल।। शत॰ कां ५। अ ४। ब्रा ४।।
भाषार्थ—अब वर्णाश्रमविषय लिखा जाता है । इस में यह विशेष जानना चाहिए कि प्रथम
मनुष्य जाति सब की एक है, सो भी वेदों से सिद्ध है, इस विषय का प्रमाण सृष्टिविषय में लिख
दिया है। तथा ‘ब्राह्मणोण्स्य मुखमासीत्’ यह मन्त्र सृष्टिविषय में लिख चुके हैं, वर्णों के प्रतिपादन
करने वाले वेदमन्त्रों की जो व्याख्या ब्राह्मण और निरुक्तादि ग्रन्थों में लिखी है, वह कुछ यहां भी
लिखते हैं—
मनुष्य जाति के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये वर्ण कहाते हैं । वेदरीति से इन के दो भेद
हैं—एक आर्य और दूसरा दस्यु । इस विषय में यह प्रमाण है कि ‘विजानीह्य्यन्ये च दस्यवो॰’
अर्थात् इस मन्त्र से परमेश्वर उपदेश करता है, कि हे जीव ! तू आर्य अर्थात् श्रेष्ठ दस्यु अर्थात्
दुष्टस्वभावयुक्त डाकू आदि नामों से प्रसिद्ध मनुष्यों के ये दो भेद जान ले । तथा ‘उत शूद्रे उत आर्ये’
इस मन्त्र से भी आर्य ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और अनार्य अर्थात् अनाड़ी जो कि शूद्र कहाते हैं, ये दो
भेद जाने गये हैं । तथा ‘असुर्या नाम ते लोका॰’ इस मन्त्र से भी देव और असुर अर्थात् विद्वान् और
मूर्ख ये दो ही भेद जाने जाते हैं । और इन्हीं दोनों के विरोध् को देवासुर संग्राम कहते हैं । ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार भेद गुण कर्मो से किये गये हैं ।
(वर्णो॰) इन का नाम वर्ण इसलिए है कि जैसे जिस के गुण कर्म हों, वैसा ही उस को
अधिकार देना चाहिए । (ब्रह्म हि ब्रा॰) ब्रह्म अर्थात् उत्तम कर्म करने से उत्तम विद्वान् ब्राह्मण वर्ण होता
है । (क्षत्रं हि॰) परम ऐश्वर्य (बाहू॰) बल वीर्य के होने से मनुष्य क्षत्रिय वर्ण होता है, जैसा कि
राजधर्म में लिख आये हैं ।।१-३।।
अत्रा ब्रह्मचर्याश्रमे प्रमाणम्—
आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भ मन्त: ।
तं रात्रीस्तिवत्त उदरे विभर्त्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देव: ।।१।।
इयं समित्पृथिवी द्यौर्व्दीतीयोतान्तरिक्षं समिध पृणाति ।
ब्रह्मचारी समिधा मेखालया श्रमेण लोकांस्तपसा पिपर्त्ति ।।२।।
पूर्वों जातो ब्रह्मणो ब्रह्मचारी धंर्म वसानस्तपस दतिष्ठत ।
तस्माज्जा्ते ब्रह्मणं ब्रह्म ज्येष्ठं देवश्च सर्वे अमृतेन साकम ।।३।।
अथर्व॰ का॰ ११ ।अनु॰ ३ । व॰५ । मं॰ ३ । ४ । ५ ।
भाषार्थ—अब आगे चार आश्रमों का वर्णन किया जाता है । ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और
संन्यास ये चार आश्रम कहाते हैं । इन में से पांच वा आठ वर्ष की उमर से अड़तालीस वर्ष पर्यन्त
प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम का समय है । इसके विभाग पितृयज्ञ में कहेंगे । वह सुशिक्षा और सत्यविद्यादि
गुण ग्रहण करने के लिये होता है ।
दूसरा गृहाश्रम जो कि उत्तम गुणों के प्रचार और श्रेष्ठ पदार्थों
की उन्नति से सन्तानों की उत्पत्ति और उन को सुशिक्षित करने के लिए किया जाता है ।
तीसरा वानप्रस्थ जिस से ब्रह्मविद्यादि साक्षात् साधन करने के लिए एकान्त में परमेश्वर का सेवन किया जाता
है ।
चौथा संन्यास जो कि परमेश्वर अर्थात् मोक्षसुख की प्राप्ति और सत्योपदेश से सब संसार के
उपकार के अर्थ किया जाता है ।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थो की प्राप्ति के लिए इन चार आश्रमों का सेवन करना
सब मनुष्यों को उचित है । इनमें से प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम जो कि सब आश्रमों का मूल है, उस के
ठीक-ठीक सुधरने से सब आश्रम सुगम और बिगड़ने से नष्ट हो जाते हैं । इस आश्रम के विषय में
वेदों के अनेक प्रमाण हैं, उन में से कुछ यहां भी लिखते हैं—
(आचार्य उ॰) अर्थात् जो गर्भ में बस के माता और पिता के सम्बन्ध् से मनुष्य का जन्म होता
है, वह प्रथम जन्म कहाता है । और दूसरा यह है कि जिस में आचार्य पिता और विद्या माता होती
है, इस दूसरे जन्म के न होने से मनुष्य को मनुष्यपन नहीं प्राप्त होता । इसलिये उस को प्राप्त होना
मनुष्यों को अवश्य चाहिए । जब आठवें वर्ष पाठशाला में जाकर आचार्य अर्थात् विद्या पढ़ानेवाले
के समीप रहते हैं, तभी से उन का नाम ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी हो जाता है । क्योंकि वे ब्रह्म वेद
और परमेश्वर के विचार में तत्पर होते हैं । उन को आचार्य तीन रात्रिपर्यन्त गर्भ में रखता है । अर्थात्
र्इश्वर की उपासना, धर्म, परस्पर विद्या के पढ़ने और विचारने की युक्ति आदि जो मुख्य-मुख्य बातें
हैं, वे सब तीन दिन में उन को सिखार्इ जाती हैं । तीन दिन के उपरान्त उन को देखने के लिये
अध्यापक अर्थात् विद्वान् लोग आते हैं ।।१।।
(इयं समित्॰) फिर उस दिन होम करके उन को प्रतिज्ञा कराते हैं, कि जो ब्रह्मचारी पृथिवी,
सूर्य और अन्तरिक्ष इन तीनों प्रकार की विद्याओं को पालन और पूर्ण करने की इच्छा करता है, सो
इन समिधओं से पुरुषार्थ करके सब लोकों को धर्मानुष्ठान से पूर्ण आनन्दित कर देता है ।।२।।
(पूर्वो जातो ब्र॰) जो ब्रह्मचारी पूर्व पढ़ के ब्राह्मण होता है, वह धर्मानुष्ठान से अत्यन्त पुरुषार्थी होकर
सब मनुष्यों का कल्याण करता है (ब्रह्म ज्येष्ठं॰) फिर उस पूर्ण विद्वान् ब्राह्मण को, जो कि अमृत अर्थात्
परमेश्वर की पूर्ण भक्ति और धर्मानुष्ठान से युक्त होता है, देखने के लिए सब विद्वान् आते हैं ।।३।।

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‘वैदिक आश्रम व्यवस्था श्रेष्ठतम सामाजिक व्यवस्था’ -मनमोहन कुमार आर्य


ईश्वर का स्वभाव जीवों के सुख वा फलोभोग के लिए सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय करना है। सृष्टि की रचना आदि का यह क्रम प्रवाह से अनादि है अर्थात् न तो कभी इसका आरम्भ हुआ और न कभी अन्त होगा, अर्थात् यह हमेशा चलता रहेगा। अपने इस स्वभाव के अनुसार ही ईश्वर ने वर्तमान समग्र सृष्टि को रच कर मनुष्यों सहित सभी प्राणियों को भी रचा और माता-पिता व आचार्य की भांति उनको अपना जीवन सुख पूर्वक व्यतीत करने और जीवन के चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करने के लिए चार वेदों का ज्ञान भी दिया। इन बातों को समझने के लिए हमें ईश्वर के  सत्य व यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा यह प्रक्रिया समझ में नहीं आ सकती। ईश्वर की सत्ता सत्य है और यह सत्ता चेतन है। चेतन सत्ता, ज्ञान व गुणों से युक्त किसी क्रियाशील सत्ता को, जो सोच समझ कर व उचित-अनुचित का ध्यान रखकर कर्म वा क्रिया को करती है, कहते हैं। ईश्वर का प्रत्येक कार्य भी सत्य व न्याय पर आधारित होता है। ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव को जानना और उसके अनुसार ही अपना जीवन बनाना अर्थात् ईश्वर के गुणों के अनुरुप ही कर्म, व्यवहार व आचरण करने को धर्म, मानव धर्म व वैदिक धर्म कहते हैं। इसके अलावा जितने भी मत, सम्प्रदाय, पन्थ, सेक्ट, रिलीजन आदि हैं वह पूर्ण व शुद्ध धर्म नहीं हैं यद्यपि उनमें किसी में कम व किसी में कुछ अधिक धर्म का भाग होता है परन्तु उनमें धर्म की पूर्णता नहीं है। ईश्वर सत्य व चेतन स्वरूप होने के साथ आनन्दस्वरूप भी है। वह अनादि काल से अब तक सदा-सर्वदा आनन्द की ही स्थिति में रहा है और भविष्य में अनन्त काल तक आनन्दपूर्वक ही रहेगा। इसका कारण उसका निष्काम कर्मों को करना है जिससे वह फल के बन्धन, सुख व दुःख, में नहीं आता। मनुष्य को निद्रा, सुषुप्ति, ध्यान व समाधि की अवस्थाओं में जो आनन्द प्राप्त होता है, वह ईश्वर के सान्निध्य के कारण ही होता है। जिस मात्रा में हमारी आत्मा का, मल, विक्षेप व आवरण की स्थिति के अनुसार, ईश्वर से सान्निध्य व सम्पर्क बनता है, उतनी ही मात्रा में हमें आनन्द की अनुभूति होती है। समाधि में यह सम्पर्क सर्वाधिक होने से सर्वाधिक आनन्द की उपलब्धि होती है। ईश्वर के अन्य गुण, कर्म व स्वभावों में उसका सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वांधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता, जीवों को जन्म देना, कर्मों के सुख–दुःखरुपी फल देना, आयु निर्धारित करना, सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय करना आदि भी कर्म वा कार्य हैं। ईश्वर के इन गुणों पर चिन्तन-मनन करने सहित वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर ईश्वर से अधिकाधिक परिचित हुआ जा सकता है।   ईश्वर सर्वगुणसम्पन्न होने के कारण सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक एक आदर्श माता-पिता व आचार्य का कर्तव्य पूरा करता है और सभी प्राणियों की रक्षा के साथ मनुष्यों की बुद्धि की क्षमता के अनुसार अपना जीवन सुचारु व सुव्यवस्थित रुप से चलाने के लिए ज्ञान जिसे वेद कहते हैं, देता है। महर्षि दयानन्द ने सम्पूर्ण वैदिक व अवैदिक साहित्य का अध्ययन करने के बाद सन् 1875 में घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ गुणों से युक्त एवं जन्म, जाति, मत व धर्म के पूर्वाग्रहों से रहित सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य वा धर्म है। अतः वेदों में मनुष्येां के लिए श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिए आदर्श सामाजिक, राजनैतिक, शिक्षा व्यवस्था आदि का विस्तृत व पूर्ण ज्ञान है जिसको वैदिक व्याकरण एवं ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों के जानकार मनुष्य समाधि अवस्था को प्राप्त होकर न केवल उसे पूर्णतया समझते हैं अपितु अन्य लोगों के हितार्थ वेदों के भिन्न-भिन्न विषयों की सरल भाषा व शब्दों में व्याख्या कर उसे प्रचारित करते हैं। यतः वेदों में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों का भी ज्ञान सम्मिलित है जिसका विस्तार ब्राह्मण एवं मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में किया गया है। शतपथ ब्राह्मण काण्ड 14 में ‘ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रर्वजेत्।।’ में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थ बने, गृहस्थी के बाद वानप्रस्थी और वानप्रस्थी के बाद संन्यासी होवें अर्थात् अनुक्रम से चार आश्रमों का विधान है। आज भारत व विश्व के प्रायः सभी देशों में इस सामाजिक व्यवस्था का कुछ विकृत रूप देखा जाता है। आईये, वैदिक आश्रम व्यवस्था के अनुसार चारों आश्रमों पर एक दृष्टि डाल लें।   ब्रह्मचर्याश्रम-आयु का प्रथम व सबसे बड़ा भाग ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य काल शिक्षा, शरीरोन्नति और दीक्षा–प्राप्ति के लिए नियत है। शिक्षा जिसको अन्य भाषाओं में ‘‘तालीम” और “Education” कहते हैं, आत्मिक शक्तियों के विकास करने को कहते हैं। दीक्षा (तरबियत) = (Ins-truction) बाहर से ज्ञान प्राप्त करके भीतर एकत्र करने का नाम है। मनुष्य का शरीर तीन प्रकार के परमाणुओं से बना है (1) सत्य, (2) रजस् और (3) तमस्। इनमें से तम अन्धकार (Ignorance) को कहते हैं। मनुष्य श्रारीर में जब तमस् परमाणु बढ़ जाते हैं, तब अन्तःकरण पर अन्धकार का आवरण आ जाता है, जिससे मानसिक शक्तियों का विकास नहीं होता, किन्तु उसी अन्धकार के आवरण (परदे) से अन्धकार की ही किरणें निकलकर उसे मूर्ख बनाया करती हैं। ‘‘रजस्” अनियमित कर्तव्य (indisciplined activity) कहते हैं। नियमित कर्तव्य को धर्म और अनियमित कर्तव्य को अधर्म कहते हैं। जब ‘‘रज” के परमाणु मनुष्य में बढ़ जाते हैं तब यह भी आचरण रूप होकर आत्मिक शक्तियों के विकास में बाधक होते हैं। और बाहर विषय-भोग की कामना में प्रकट हुआ करतें हैं। “सत्व” प्रकाश को कहते हैं। जब सत्व के परमाणु मनुष्य में बढ़ते हैं तब अन्तःकरण में प्रकाश की मात्रा बढ़ती है, जिससे सुगमता से आत्मिक शक्तियों का विकास होता है। इसलिए शिक्षा–प्राप्ति के लिए मनुष्य का यह कर्तव्य हुआ कि तम को दूर, रज को नियमित और सत्य की वृद्धि करे। इस कर्तव्य की पूर्ति के लिए शक्ति (Energy) अपेक्षित होती है, यह शक्ति ब्रह्मचर्य से प्राप्त होती है। इसलिए शिक्षा के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य से शक्ति किस प्रकार प्राप्त होती है? इसका उत्तर यह है कि मनुष्य शरीर में जब भोजन कई कार्यों, क्रियाओं वा परिवर्तनों के बाद रेत (Albumen) में परिणत होता है और सुरक्षित रहता है तब उसमें क्रमशः अग्नि, विद्युत् व ओज गुण आते हैं। अन्त में वह वीर्य के रूप में हो जाता है। यही वीर्य मनुष्य के शरीर की शक्ति का केन्द्र है। इससे सम्पूर्ण शारीरिक और आत्मिक शक्ति उत्पन्न हुआ करती है। इसी वीर्योत्पत्ति और उसके सुरक्षित रखने की कार्यप्रणाली का नाम ब्रह्चर्य है। इस प्रकार मनुष्य को अपने जीवन के पहले भाग में जिसकी न्यून से न्यून अवधि 25 वर्ष है, ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा और दीक्षा प्राप्त करनी चाहिए, सभी विद्याओं, ज्ञान व विज्ञान व इनके क्रियान्वित ज्ञान का अनुभव प्राप्त करना चाहिये, यही ब्रह्मचर्य का कर्तव्य विधान है।    गृहस्थाश्रम-सांसारिक और पारलौकिक सुख-प्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामर्थ्य के अनुसार परोपकार करना और नियत काल में विधि के अनुसार ईश्वर-उपासना एवं गृह के कर्तव्यों को करके सत्य धर्म में ही अपना तन-मन-धन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पत्ति, उनका पालन करना व उन्हें योग्यतम बनाना, इन मुख्य कार्यों को करने को ही गृहाश्रम कहा जाता है। यही गृहस्थाश्रम है तथा यही इसके उद्देश्य व कर्तव्य हैं। इस आश्रम में रहते हुए स्त्री व पुरुषों को नियमपूर्वक सन्तानोत्पत्ति सहित जीविका भी उपलब्ध करनी चाहिए और सन्तान को अपने से अच्छा बनाने का यत्न करना चाहिए। गृहस्थाश्रम में रहते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तपस्वी शूद्र अपने अपने कर्मों को करते हुए परिवार, समाज व देश को उन्नत व सशक्त बनाते हैं। गृहस्थाश्रम की अवधि सन्तानों का विवाह होने व उनकी सन्तान भी हो जाने तक है। इसके बाद जीवनोन्नति के लिए अगले आश्रम वानप्रस्थ में प्रवेश करना होता है।   वानप्रस्थाश्रम-गृहस्थाश्रम में रहने से जो विकार मनुष्य में उत्पन्न हो जाते हैं उनको दूर करके अपने को ब्रह्मचर्याश्रम वालों की भांति स्वच्छ बना लेना, इस आश्रम का मुख्योद्देश्य है। यही आश्रम संन्यासाश्रम में जाने की तैयारी का काम किया करता है। वानप्रस्थ आश्रम नाम से यह विदित होता है कि इस आश्रम में प्रवेश व निवास के लिए स्वगृह व परिवार से दूर वन में जाना है। आजकल वन में जाना व रहना कठिन व सम्भव कोटि में नहीं है। महर्षि दयानन्द ने तो युवावस्था से सीधे ही संन्यास ले लिया था और वह सारा जीवन देश का भ्रमण करते रहे। इसका कारण यह था कि उन्हें ज्ञान की पिपासा थी और इसकी पूर्ति वन आदि किसी एक स्थान पर रहकर पूरी नहीं की जा सकती थी। अतः वानप्रस्थ आश्रम ऐसे स्थान पर करना है जहां इस आश्रम के अन्य लोग हों और उन्हें ईश्वर के ध्यान व समाधि का क्रियात्मक प्रशिक्षण वेद के मर्मज्ञ विद्वानों व अपने सहाध्यायियों से भली प्रकार से मिल सके। वानप्रस्थ आश्रम में वेदों के मर्मज्ञ विद्वान व प्रातः सायं यज्ञ की व्यवस्था भी होनी चाहिये जिनकी संगति व अनुष्ठान करके वानप्रस्थी संन्यास के सर्वथा योग्य बन सकें। इसी क्रम में हरिद्वार-ज्वालापुर में स्थित ‘‘आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम” की चर्चा कर लेना भी उचित होगा। यह आश्रम सम्प्रति नगर के बीच में स्थित है। यहां सैकड़ों वानप्रस्थी व संन्यासी रहते हैं और अच्छे साधकों से भी यह स्थान परिपूर्ण है। यदि यहां रहकर वानप्रस्थ किया जाये, तो हमारी दृष्टि में वह भी उद्देश्य को पूरा करने में सहायक व फलितार्थ हो सकता है।   संन्यासाश्रम–मनुष्य को वानप्रस्थ से अन्तिम संन्यासाश्रम में आकर मुक्ति के साधनों को काम में लाते हुए जगत् के सुधार का भी यत्न करना पड़ता है। महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि संन्यास आश्रम में प्रविष्ट मनुष्य मोहादि आवरण व पक्षपात छोड़ कर तथा विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरण करे। यहां विचरण करने से तात्पर्य अविद्यान्धकार, अज्ञान व मिथ्या मान्यताओं का प्रतिकार व प्रतिवाद कर वेद व आर्ष-ज्ञान का प्रचार करे तथा असत्य मत व मान्यताओं का खण्डन भी करें जिससे समाज व देश के सभी मनुष्य असत्य व अज्ञान से पृथक होकर सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों को धारण कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर चलते हुए लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। महर्षि दयानन्द वैदिक मान्यताओं के अनुरुप आदर्श संन्यासी थे। उन्होंने अपने संन्यासी जीवन में ईश्वरोपासना करते हुए ज्ञान का अर्जन किया और समाज के कल्यार्थ वा सुधारार्थ असत्य व अज्ञान का खण्डन करते हुए सत्य पर आधारित वैदिक मान्यताओं का मण्डन व प्रचार किया। इसका अनुकरण करना ही संन्यास का सच्चा स्वरुप व उदाहरण माना जा सकता है।   वैदिक धर्म में चार आश्रमों व चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र का विधान मनुष्य की पूर्ण व अधिकतम शारीरिक, सामाजिक, बौद्धिक व आत्मिक उन्नति को ध्यान में रखकर किया गया है। वैदिक विधानों से पूर्ण यह आश्रम व्यवस्था ही संसार की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है जिसमें सभी मनुष्यों की सांसारिक व पारलौकिक दोनों ही उन्नति होती है। यह लक्ष्य अन्य किसी जीवन पद्धति से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः इस व्यवस्था व इसके अनुरुप जीवन व्यतीत करने से मनुष्य अपने उद्देश्य व लक्ष्य प्राप्ति के निकट पहुंच कर उसे प्राप्त करने में समर्थ होता है। आईये ! वैदिक वर्ण-आश्रम व्यवस्था को स्वयं अपनायें व उसका प्रचार कर इसे सर्वत्र स्थापित करने का प्रयास करें।    –मनमोहन कुमार आर्य पताः 196 चुक्खूवाला-2 देहरादून-248001 फोनः09412985121

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चार आश्रम


गृहस्थ के बिना संन्यास नहीं होता और संन्यास न हो, तो गृहस्थ का महत्व नहीं रहता उसमें शुद्घि और पवित्रता नहीं रहती। गृह-वास एवं गृह-त्याग, दोनों का अपना-अपना महत्व है। ब्राह्मण परम्परा में चार प्रकार के आश्रम माने गए हैं। इन चार आश्रमों में ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम आते हैं। इस प्रकार जीवन को चार भागों में बांट दिया गया है। पच्चीस वर्ष तक मनुष्य को विद्यार्थी जीवन, आगामी पच्चीस वर्ष तक गृहस्थ जीवन, तत्पश्र्चात पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ जीवन और अंत में पच्चीस वर्ष तक ही संन्यास जीवन ग्रहण कर लेना चाहिए। यही ब्राह्मण परम्परा की मान्यता रही है।

इन चार आश्रमों में सबसे बड़ा है गृहस्थ जीवन। महाभारत में इसका बहुत समर्थन किया गया है। प्रश्न प्रस्तुत हुआ- गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा कैसे? इस प्रश्न के संदर्भ में कहा गया कि ब्रह्मचर्य आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, संन्यास आश्रम- इन तीनों को धारण कौन करता है? इनका भरण-पोषण कौन करता है? ज्ञान और अन्न, दोनों दृष्टियों से ये तीनों आश्रम गृहस्थाश्रम पर अवलम्बित हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम के व्यक्तियों को गृहस्थ पंडित पढ़ाते हैं, अध्यापक पढ़ाते है। उनके अन्न की व्यवस्था भी गृहस्थ ही करते हैं। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की व्यवस्था का उत्तरदायित्व भी गृहस्थ वहन करता है। मनुस्मृति का प्रसिद्घ श्लोक है-

यस्मात् त्रयोप्याश्रमिणो, ज्ञानेनान्नेन चान्वहम्।

गृहस्थेनैव धार्यन्ते, तस्माज्ज्येष्ठा श्रमो गृही।।

ज्ञान और अन्न के द्वारा तीनों आश्रमों को गृहस्थ ही धारण करता है, इसलिए वह ज्येष्ठाश्रम है, सबसे बड़ा आश्रम है। गृहस्थ ही तीनों आश्रमों की व्यवस्था वहन करता है, इसीलिए यह ब्राह्मण परंपरा के अनुरूप बनाए गए चारों आश्रमों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है।

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चार आश्रम


चार आश्रम

http://hindi.awgp.org/?gayatri/sanskritik_dharohar/bhartiya_sanskriti_aadharbhut_tatwa/sanskriti_samajik_paksha/char_asharm/

भारतीय संस्कृति ने जीवन के हर क्षेत्र में गम्भीरता से विचार किया जाये ।। सम्पूर्ण जीवन को सौ वर्षों का मान कर २५- २५ वर्षों के चार भाग बना दिये हैं ।। प्रथम पच्चीस वर्ष शरीर, मन, बुद्धि के विकास के लिए रखे गये हैं ।। इस आश्रम का नाम ब्रह्मचर्य है ।। इन वर्षों में युवक या युवती को संयमित जीवन बिताकर आने वाले सांसारिक जीवन के उपयुक्त शक्ति- संचय करना पड़ता था । वह मूलतः एक विद्यार्थी ही होता था, जिसका कार्य प्रधान रूप से शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्तियाँ प्राप्त करना था ।। यह ठीक भी है, जब तक हर प्रकार की शक्तियाँ एकत्रित कर मनुष्य सुसंगठित न बने, जब तक उसकी बुद्धि और मन शरीर इत्यादि की शक्तियों का पूरा- पूरा विकास न हो, वह पूरी तरह चरित्रवान्, संयमी दृढ़ निश्चयी न बने, तब तक उसे सांसारिक जीवन में प्रविष्ठ नहीं होना चाहिए ।।

दूसरा आश्रम गृहस्थ है २५ से ५० वर्ष की आयु गृहस्थ आश्रम के लिए है ।। पति- पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए पूरी जिम्मेदारी से अपने नागरिक कर्तव्यों को पालन करते थे ।। परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी को पूरा करते थे ।। अपने व्यवसाय में दिलचस्पी लेकर आनंदमय जीवन व्यतीत करते थे ।। धर्माचरण द्वारा गृहस्थ जीवन के सुख प्राप्त करते थे धर्म, अर्थ, काम मोक्ष, आदि चारों का सुख भोग करने का विधान है ।।

उम्र ढलने पर सांसारिक कार्यों से हटना चाहिए ।। लेकिन इस पृथकता से समय लगता है ।। धीरे- धीरे भौतिक जीवन की आवश्यकताएँ कमी करनी होती है ।। अतः ५० से ७५ वर्ष तक की आयु से गृहस्थ भार से मुक्त होकर जन- सेवा का विधान है ।। इसे वानप्रस्थ कहा गया है ।। गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों से मुक्ति पाना मनुष्य का मानसिक स्थिति के लिए परम उपयोगी है ।। पारमार्थिक जीवन के लिए पर्याप्त समय निकल आता है ।। वानप्रस्थ का अर्थ यह भी है कि घर पर रहते हुए ही मनुष्य ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे, संयम का अभ्यास करे, बच्चों को विद्या पढ़ायें, फिर धीरे- धीरे अपनी जिम्मेदारी अपने बच्चों पर डालकर बाहर निकल जाये ।। पूर्ण परिपक्व व्यक्ति ही घर से बाहर संन्यासी के रूप में निकल कर जनता के हित के लिए सार्वजनिक कार्य कर सकता था ।। चिकित्सा, धर्म- प्रचार और पथ- प्रदर्शन का कार्य इन योग्यतम संन्यासियों के हाथ में ही रहता था ।। समाज उन्नति की दिशा में आगे बढ़ता था ।। आज जैसे कम उम्र के अनुभव विहीन दिखावटी धर्म प्रचारक उन दिनों नहीं थे ।। वे पैसा- कौड़ी भी न लेते थे और काम पूरे मन से करते थे ।। आज इतना व्यय करने पर भी वह लाभ नहीं होता ।। संन्यास की पहिचान भी ज्ञान ही है ।।

यह आश्रम- व्यवस्था भारतीय मनोवैज्ञानिकों की तीव्र बुद्धि कौशल की सूचक है ।। व्यवसायिक दक्षता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य पूरे परिश्रम और लगन से २५ वर्ष तक तप जाने से मनुष्य आगे आने वाले जीवन के लिए मजबूत बन जाता था ।। जिम्मेदारियों, अच्छाइयों, बुराइयों को समझ जाता था ।। आश्रम- परिवर्तन तात्पर्य उसके मन में धीरे- धीरे आने वाला मानसिक परिवर्तन भी था ।। धीरे- धीरे मानसिक परिपक्वता आती थी और अगला आश्रम आसान बनता जाता था ।। चुनाव और सोचने के लिए भी पर्याप्त अवकाश प्राप्त हो जाता हाथ ऐसा भी था कि सीधे ब्रह्मचर्य से कुछ उपकारी व्यक्ति वानप्रस्थ हो जाते थे ।। और संन्यास ले लेते थे ।। तात्पर्य यह कि एक आदर्श मार्ग-दर्शन का रूप हमारे इन वर्णाश्रमों में रखा गया था ।। आज इस व्यवस्था में गड़बड़ी आ गई है ।। इस कारण तपे हुए अनुभवी वृद्ध कार्यकर्त्ता समाज को नहीं मिल रहे हैं ।। उपदेशकों और प्रचारकों में अर्थ मोह या प्रसिद्धि का मोह बना हुआ है ।।

यह आश्रमों की परम्परा जब तक हमारे देश में जीवित रही तब तक यश, श्री और सौभाग्य में यह राष्ट्र सर्व शिरोमणि बना रहा ।। श्रेय और प्रेय का इतना सुन्दर सामंजस्य किसी अन्य जाति या धर्म में मिलना कठिन है ।। हमारी कल्पना है कि मनुष्य आनंद में जन्म लेता है ।। आनंद से जीवित रहता और अन्त में आनंद में ही विलीन हो जाता है ।। मनुष्य का लक्ष्य भी यही है ।। इन आवश्यकता की पूर्ति आश्रम व्यवस्था में ही सन्निहित है ।। समाज की सुदृढ़ रचना और मनुष्य के जीवन ध्येय की पूर्ति के लिये आश्रम- व्यवस्था का पुनर्जागरण आवश्यक है ।।

(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं.४.२८- २९)

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आश्रम


आश्रम

 http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%86%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE

आश्रम (मानव अवस्थाएँ)जिन संस्थाओं के ऊपर हिन्दू समाज का संगठन हुआ है, वे हैं – वर्ण और आश्रम। वर्ण का आधार मनुष्य की प्रकृति अथवा उसकी मूल प्रवृत्तियाँ हैं, जिसके अनुसार वह जीवन में अपने प्रयत्नों और कर्तव्यों का चुनाव करता है। आश्रम का आधार संस्कृति अथवा व्यक्तिजत जीवन का संस्कार करना है। मनुष्य जन्मना अनगढ़ और असंस्कृत होता है; क्रमश: संस्कार से वह प्रबुद्ध और सुसंस्कृत बन जाता है।

सम्पूर्ण मानवजीवन मोटे तौर पर चार विकासक्रमों में बाँटा जा सकता है-

  1. बाल्य और किशोरावस्था
  2. यौवन
  3. प्रौढ़ावस्था और
  4. वृद्धावस्था

चार आश्रम

मानव के चार विकासक्रमों के अनुरूप ही चार आश्रमों की कल्पना की गई थी, जो निम्न प्रकार हैं-

  1. ब्रह्मचर्य- इसका पालनकर्ता ब्रह्मचारी अपने गुरु, शिक्षक के प्रति समर्पित और आज्ञाकारी होता है।
  2. गार्हस्थ्य- इसका पालनकर्ता गृहस्थ अपने परिवार का पालन करता है और ईश्वर तथा पितरों के प्रति कर्तव्यों का पालन करते हुए पुरोहितों को अवलंब प्रदान करता है।
  3. वानप्रस्थ- इसका पालनकर्ता भौतिक वस्तुओं का मोह त्यागकर तप और योगमय वानप्रस्थ जीवन जीता है।
  4. सन्न्यास- इसका पालनकर्ता सन्न्यासी सभी वस्तुओं का त्याग करके देशाटन और भिक्षा ग्रहण करता है तथा केवल शाश्वत का मनन करता है।

शास्त्रीय पद्धति में मोक्ष (सांसारिक लगावों से स्व की मुक्ति) की गहन खोज जीवन के अन्तिम दो चरणों से गुज़र रहे व्यक्तियों के लिए सुरक्षित है। लेकिन वस्तुत: कई सन्न्यासी कभी विवाह नहीं करते तथा बहुत कम गृहस्थ ही अन्तिम दो आश्रमों में प्रवेश करते हैं।

नाम और क्रम में अन्तर

आश्रमों के नाम और क्रम में कहीं-कहीं अन्तर पाया जाता है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[1] के अनुसार गार्हस्थ्य, आचार्यकुल (ब्रह्मचर्य), मौन और वानप्रस्थ चार आश्रम थे। गौतम धर्मसूत्र[2] में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, भिक्षु और वैखानस चार आश्रमों के नाम हैं। वसिष्ठधर्मसूत्र [3] ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और परिव्राजक का उल्लेख करता है।

आश्रम सम्बन्ध

आश्रमों का सम्बन्ध विकास कर्म के साथ-साथ जीवन के मौलिक उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भी था-ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध मुख्यत: धर्म अर्थात् संयम-नियम से, गार्हस्थ्य का सम्बन्ध अर्थ-काम से, वानप्रस्थ का सम्बन्ध उपराम और मोक्ष की तैयारी से और सन्न्यास का सम्बन्ध मोक्ष से था। इस प्रकार उद्देश्यों अथवा पुरुषार्थों के साथ आश्रम का अभिन्न सम्बन्ध है।

आश्रम शब्द का चुनाव

जीवन की इस प्रक्रिया के लिए आश्रम शब्द का चुनाव बहुत ही उपयुक्त था। यह शब्द श्रम् धातु से बना है, जिसका अर्थ है श्रम करना अथवा पौरुष दिखलाना (अमरकोष, भानुजी दीक्षित)। सामान्यत: इसके तीन अर्थ प्रचलित हैं-

  1. वह स्थिति अथवा स्थान जिसमें श्रम किया जाता है
  2. स्वयं श्रम अथवा तपस्या और
  3. विश्रामस्थान

आश्रम (संस्था)

वास्तव में आश्रम जीवन की वे अवस्थाएँ हैं, जिनमें मनुष्य श्रम, साधना और तपस्या करता है और एक अवस्था की उपलब्धियों को प्राप्त कर लेता है तथा इनसे विश्राम लेकर जीवन के आगामी पड़ाव की ओर प्रस्थान करता है।

आश्रम का अर्थ

आश्रम व्यवस्था ने ईसा के बाद पहली शताब्दी में एक धर्मशास्त्रीय ढाँचे की रचना की। यह ऊँची जाति के पुरुषों के लिए आदर्श थी, जिसे वस्तुत: व्यक्तिगत या सामाजिक रूप से कभी-कभी ही प्राप्त किया जा सकता था। दूसरे अर्थ में आश्रम शब्द का तात्पर्य शरणस्थल है, विशेषकर शहरी जीवन से दूर, जहाँ आध्यात्मिक व योग साधना की जाती है। अक्सर ये आश्रम एक केन्द्रीय शिक्षक या गुरु की उपस्थिति से सम्बद्ध होते हैं, जो आश्रम के अन्य निवासियों की आराधना या श्रद्धा का केन्द्र होता है। गुरु औपचारिक रूप से संगठित क्रम या आध्यात्मिक समुदाय से सम्बन्धित हो भी सकता है और नहीं भी।

विभिन्न मत

मनु के अनुसार मनुष्य का जीवन सौ वर्ष का होना चाहिए (शतायुर्वे पुरुष:) अतएव चार आश्रमों का विभाजन 25-25 वर्ष का होना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में चार अवस्थाएँ स्वाभाविक रूप से होती हैं और मनुष्य को चारों आश्रमों के कर्तव्यों का यथावत् पालन करना चाहिए। परन्तु कुछ ऐसे सम्प्रदाय प्राचीन काल में थे और आज भी हैं, जो नियमत: इनका पालन करना आवश्यक नहीं समझते। इनके मत को बाध कहा गया है। कुछ सम्प्रदाय आश्रमों के पालन में विकल्प मानते हैं अर्थात् उनके अनुसार आश्रम के क्रम अथवा संख्या में हेरफेर हो सकता है। परन्तु संतुलित विचारधारा आश्रमों के समुच्चय में करती आई हैं। इसके अनुसार चारों आश्रमों का पालन क्रम से होना चाहिए। जीवन के प्रथम चतुर्थांश में ब्रह्मचर्य, द्वितीय चतुर्थांश में गार्हस्थ्य, तृतीय चतुर्थांश में वानप्रस्थ और अन्तिम चतुर्थांश में सन्न्यास का पालन करना चाहिए। इसके अभाव में सामाजिक जीवन का संतुलन भंग होकर मिथ्याचार अथवा भ्रष्टाचार की वृद्धि होती है।

आश्रम कर्तव्य

विभिन्न आश्रमों के कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन आश्रमधर्म के रूप से स्मृतियों में पाया जाता है। संक्षेप में मनुस्मृति से आश्रमों के कर्तव्य नीचे दिए जा रहे हैं-

  1. ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरुकुल में निवास करते हुए विद्यार्जन और व्रत का पालन करना चाहिए [4]
  2. दूसरे आश्रम गार्हस्थ्य में विवाह करके घर बसाना चाहिए; सन्तान उत्पत्ति द्वारा पितृऋण, यज्ञ द्वारा देवऋण और नित्य स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण चुकाना चाहिए [5]
  3. वानप्रस्थ आश्रम में सांसारिक कार्यों से उदासीन होकर तप, स्वाध्याय, यज्ञ, दान आदि के द्वारा वन में जीवन बिताना चाहिए [6]
  4. वानप्रस्थ समाप्त करके सन्न्यास आश्रम में प्रवेश करना होता है। इसमें सांसारिक सम्बन्धों का पूर्णत: त्याग और परिव्रजन (अनागारिक होकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहना) विहित है [7]

बोध प्रदाता

वर्ण और आश्रम मनुष्य के सम्पूर्ण कर्तव्यों का समाहार करते हैं। परन्तु जहाँ वर्ण मनुष्य के सामाजिक कर्तव्यों का विधान करता है, वहाँ आश्रम व्यक्तिगत कर्तव्यों का। आश्रम व्यक्तिगत जीवन की विभिन्न विकास सरणियों का निदेशन करता है और मनुष्य को इस बात का बोध कराता है कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है। उसको प्राप्त करने के लिए उसको जीवन का किस प्रकार संघठन करना चाहिए। वास्तव में जीवन की यह अनुपम और उच्चतम कल्पना और योजना है। अन्य देशों के इतिहास में इस प्रकार की जीवन-योजना नहीं पाई जाती है। प्रसिद्ध विद्वान डॉयसन ने इसके सम्बन्ध में लिखा है-

हम यह नहीं कह सकते कि मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों में वर्णित जीवन की यह योजना कहाँ तक व्यावहारिक जीवन में कार्यान्वित हुई थी। परन्तु हम यह स्वीकार करने में स्वतंत्र हैं कि हमारे मत में मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में ऐसी कोई विचारधारा नहीं है, जो इस विचार की महत्ता की समता कर सके।