वैदिक ऋषियों की ब्रह्माण्ड परिकल्पना और उसकी वैज्ञानिकता ।
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सृष्टि की उत्पति का कारण क्या है ? विभिन्न सृष्टियां किस उपादान के कारणों से प्रकट हुई?
देवगण भी इन सृष्टियों के पश्चात उत्पन्न हुए हैं, तब कौन जान सकता है कि यह सृष्टि कहां से उत्पन्न हुई?
सृष्टि रचना से पूर्व सब कुछ अज्ञात था । सब ओर जल ही जल था और वायु से शून्य । और आत्मा के अवलम्ब के श्वांस वाले ब्रह्मा ही थें । इन सृष्टियों के जो स्वामी हैं वह दिव्य धाम में निवास करते हैं । (ऋग्वेद सूक्त १२९)
इन सूक्तों के ऋषियों की जो परिकल्पनाएं हैं वह शुद्ध रुप से वैज्ञानिक चिन्तन है । इन ऋषियों ने सृष्टि रचना में जो अपनी जिज्ञासा प्रकट की है वह अन्वेषनीय है । ऋषियों का सृष्टि मूलक प्रश्न में उसका उत्तर भी साथ साथ ही है ।
चूकिं ऋषि यह स्वीकारतें हैं कि “उस समय जल था और उस जल में वायु से शून्य और आत्मा के अवलम्ब के श्वास वाले ब्रह्म ही थे ।”
ऋषि एक कदम और आगे बढकर कहते हैं कि “सृष्टि के रचयिता दिव्यधाम में निवास करते हैं।” लेकिन इसमें यह प्रश्न उठाना भी वैज्ञानिक पद्धति से सही है कि उस समय जल था तो उसका निर्माण कहाँ और कैसे हुआ ? वह ब्रह्म कौन था ? उसका क्या रुप था ? तथा सृष्टि के रचियता किस दिव्य धाम में रहते थें या रहते हैं ?
ऋग्वेद म० १० अ० १० सू १२१ में इस रहस्य को खोल दिया गया है कि ” सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुए । आकाश और पृथ्वी सहित हिमांच्छादित पर्वत समुद्र से युक्त उत्पन्न हुए जल से अग्नि और आकाश की उत्पति हुई । ” ये खगोलशास्त्रियों के लिए अन्वेषनीय है ।
वहीं ब्रह्मपुराण में ब्रह्मा का वचन है कि ” पृथ्वी , जल , आकाश , अग्नि -ज्योति हमारे जन्म के पूर्व विद्यमान था ।”
ऋग्वेद भी स्वीकारता है कि “इस कल्प (श्वेत वाराह कल्प) में सूर्य , चन्द्र, पृथ्वी, अंतरिक्ष और रात्रि -दिन उसी प्रकार बनाये , जिस प्रकार पूर्व कल्पों में बनाये थें । ” इस बात की पुष्टि योगवशिष्ठ निर्वाण प्रकरण से भी होता है । जिसमें उल्लेख है कि ” पृथ्वी पांच बार अन्तर्धान हुई । पांचवे कल्प में (एक कल्प में ४ अरब ३ करोड वर्ष ) समुद्र से कूर्मावतार में पृथ्वी अवतरित हुई ।
महाभारत शांतिपर्व में उल्लेख है कि “सातवीं बार ब्रह्माजी कमल से पद्यकल्प में अवतरित हुए । ” वैज्ञानिक दृष्टि से इस कल्प का उम्र २ अरब आंका गया है । यानी वर्तमान सृष्टि रचना २ अरब वर्ष पूर्व से आ रही है ।
ब्रह्माण्ड उत्पति की खोज में वैदिक सूक्तों पौराणिक आख्यानों में जो हमें संकेत मिलते हैं , उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हिरण्यगर्भ अर्थात स्वर्णगर्भ युक्त हेम अंड सृष्टि के आदि में स्वंय प्रकट होने वाला वृहताकार अण्डाकार मूल तत्व है जिससे कि ब्रह्माण्ड की रचना होती है ।
कूर्मपुराण में कहा गया है कि ” जल के मध्य भाग से बुलबुला के रुप में एक वृहत अण्ड उत्पन्न हुआ । इसी वृहत अण्ड में परम पुरुष कहलाने वाले मूल ब्रह्मा सर्वप्रथम उत्पन्न हुए । इसी ब्रह्मा को हंसा हिरण्यगर्भ कहा जाता है । इसी मूल ब्रह्मा को वेद भी हिरण्यगर्भ , सहस्त्रशिर से संबोधित किया गया ।”
अब यह अन्वेषनीय है कि वह सृष्टि के आदि में उत्पन्न होनेवाला हिरण्यमय अण्ड कहाँ और कब उत्पन्न हुआ ?
इस रहस्य को “पद्मपुराण सृष्टिकरण प्रकरण ” में खोला गया है कि ” सृष्टि का सर्जन करने के लिए सर्वप्रथम रत्नमय महान पर्वत का सृजन ब्रह्मा जी ने किया । जो इसी पृथ्वी मंडल के मध्यभाग में स्थित है और वह मन्दार उदयाचल त्रिकूट पर्वत ही है जो विश्व की सृष्टि के आदि में उत्पन्न हुआ । ”
“नरसिंहपुराण ” भूगोल खगोल वर्णन में भी यह कहा गया है कि ” भूमण्डल के मध्यभाग में पर्वतों का राजा मेरु है जो “हिरण्यमय “है ।
अत: यह स्पष्ट हो गया है कि वेद जिसे हिरण्यमय हेमअंड कहकर पुकारा है वह सृष्टि का आदि पर्वत अंगदेशान्तर्गत बिहार के बांका जिले में पडनेवाला “मंदार” और देवघर में पडनेवाला “त्रिकूट पर्वत ” ही है । साथ ही साथ उस परम पुरुष परमात्मा का दिव्यधाम भी इसी मंदार मेरु , सुमेरु, त्रिकूट को बताया गया है ।
” मन्दरमं चरमं चैव त्रिकूट मुदयाचलम् । अन्यांश्च पर्वातांश चैवन्विधानपि ।”
मत्स्यपुराण में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ” यह स्वर्णमय पर्वत पूर्व दिशा में फैला है उसका दूसरा नाम उदयगिरि है । ” और विष्णुपुराण “पूर्वेणमन्दारो नाम:” कहकर समर्थन करता है । मत्स्यपुराण , विष्णुपुराण , अग्निपुराण, सहित ऋग्वेद भी स्वीकारता है कि “मन्दार ही स्वर्ग है , स्वर्गलोक व सूर्य का जन्म स्थान है ।” ऋषि नाभौनैदिष्ठ देवता विश्वदेव का कहना है कि ” मैं भी स्वर्गलोक में रहता हूं , मेरा जन्मस्थान यहीं है । ”
(क) ” मन्दार ……….प्रजापतिमुपादाय प्रजाभ्यो विद्यते स्वयम ” ।
(ख) “मेरोरुपरि विख्याता देवदेवस्य वेद्युस”
(ग) ” ऊं यत्र देवा महेनाद्राद्या संस्थिता मेरु मूर्धिन ” ।
जिस ब्रह्मा , विष्णु, शिव , दुर्गा सहित सरस्वती , आदित्य , सूर्य , वसु , मरुदगण , अग्निदेव और अश्विनी कुमार सदृश अदृश्य शक्तियों का गुणगान ऋग्वेद में भरा पडा है उन महाशक्तियों का निवास स्थान स्वर्गधाम दिव्यलोक “मंदार ” को ही बताया गया है ।
महाभारत खिलभाग हरिवंश पुराण के अनुसार भी मूल सरस्वती की उत्पति स्वर्गलोक मंदार से ही बताया गया है । इसमें कहा गया है कि ” सरस्वती मेरु पृष्ठ से मन्द गति से चलती हुई गिरिराज मंदराचल पर जा पहुंची । सरस्वती के साथ तेजस्वी आदित्य, वसु, रुद्र , रुद्रगण और अश्विनी कुमार के साथ साथ गन्धर्व , किन्नर , नाग और वरुण भी थे । ”
इसी तरह का वर्णन अनेक पुराण , उप पुराण , उपनिषद आदि वैदिक ग्रंथों में है ।
” ऋग्वेद ” में जल के बीच अमृत का वास बताया गया है , जल के बीच में ही सभी तरह के औषधियुक्त गुणयुक्त जल का वर्णन है । वहीं मत्स्यपुराण यह स्पष्ट कर देता है कि ” मेरु का नाम मंदार इसलिए है कि जो मंद धातु है वह जल रुप अर्थ को प्रकट करनेवाली है , जल का विदारण करके निकलने के कारण इस पर्वत को मंदार कहा गया है । ” महाभारत खिलभाग हरिवंशपुराण में नारायण का नाभिकमल मेरु मंदार को माना गया है ।
अत: ब्रह्माण्ड की नाभि यही मेरु मंदार है जो अंगदेश में अभी भी उपेक्षित पडा हुआ है । यही वह क्षेत्र है जहां से ब्रह्माण्ड की रचना होती है ।
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