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🌷नमस्ते बनाम नमस्कार
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कुछ समय से नमस्ते के स्थान पर नमस्कार का प्रयोग प्रारम्भ हुआ है और अब धीरे-धीरे यह पर्याप्त विस्तृत हो चुका है, विस्तार भी हो रहा है। पढ़े-लिखे तथा शिक्षित कहलाने वाले लोगों में। अब तो नमस्कार भी नमश्कार बनने लगा है। किन्तु यह कोई नहीं सोचता कि हम कह क्या रहे हैं। यदि अभिवादन का अर्थ आपस में मिलते समय एक दूसरे को बिना विचारे चाहे जो कुछ कह देना है
तो कोई भी शब्द-चाहे सार्थक से सार्थक हो या निरर्थक से निरर्थक-निश्चित करने की क्या आवश्यकता है? जिस के जो मन में आया कह दिया।
बिना पढ़े-लिखे लोगों से कुछ शिकायत नहीं। वह तो अर्थ विचार की योग्यता से रहित हैं, किन्तु खेद तो इस बात का है कि जिन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त कहा जाता है, यह गड़बड़ उन्हीं से प्रारम्भ हुई और उन्हीं में बढ़ती जा रही है।
यदि शिक्षा का इतना लाभ भी नहीं कि उससे विचार की योग्यता भी आ सके तो इस प्रकार की पढ़ाई का क्या लाभ? इतने पर भी गर्व यह कि हम इतने शिक्षित हैं और शिक्षा दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। किन्तु वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा विचार शक्ति नहीं बढ़ा सकती, वह तो निरर्थक ही है।
बात हम कह रहे थे नमस्ते की। नमस्ते का अर्थ है *”मैं आपका मान करता हूँ।”* यह शब्द अत्यन्त सार्थक तथा सारगर्भित है। एक दूसरे से मिलने पर इसी भाव की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। नमस्कार में इस भाव की अभिव्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं।
नमस्कार का अर्थ है *नमः + कार* और *”नमः”* का अर्थ है मान करना―
*”कार”* शब्द तो शब्द की पूर्ति के लिए लगाया जाता है, उससे यहाँ और क्या अर्थ लिया जा सकता है? *”ते”* का अर्थ आपके लिए अथवा आप को है। *”कार”* से *”ते”* का अर्थ प्रगट नहीं होता। *”कार”* शब्द तो शब्द अर्थात् पद-पूर्ति के लिए प्रयुक्त होता है जैसे ओ३म् का ओंकार―अर्थ केवल ओ३म्। *”अ”* का *”अकार”* अर्थ केवल―
*”अ”* वर्ण। *”क”* का *”ककार”* अर्थ केवल *”क”* वर्ण। ठीक इसी प्रकार से नमस्कार का अर्थ है *”नमः”*―
*”कार”* शब्द अलग से कोई अर्थ प्रगट नहीं करता। इस प्रकार अकेले *नमः* से ―जिससे मिलने पर उसके प्रति मान की भावना प्रगट करनी होती है―वह नहीं हो पाती। *”ते”* शब्द को *”नमः”* के साथ लगाने से वह स्पष्ट हो जाती है―यही कारण है कि प्राचीन इतिहास और अन्य समस्त वैदिक तथा भारतीय वाङ्मय में नमस्ते का प्रयोग मिलता है।
यदि नमस्कार से किसी भाव की अभिव्यक्ति हो सकती है तो केवल यह कि *”नमस्ते किया करो”* अथवा *”नमस्ते करना चाहिए।”* किसी को अभिवादन करते सभय उसके प्रति मान प्रगट न करके उसे यह आदेश देना कि *”नमस्ते किया करो”* अथवा यह कहना कि *”नमस्ते करना चाहिए”* कहाँ की बुद्धिमानी है? इससे तो शिक्षित व्यक्ति अशिक्षित ही नहीं अपितु अनपढ़ सिद्ध हो जाता है। विज्ञ पाठकों से यह आशा की जा सकती है कि वह इस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करके सुधार कर लेंगे।
*(साभार―स्वामी वेदमुनि परिव्राजक)*