अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥
जो पुरुष अन्तकाल में – मरणकाल में मुझ परमेश्वर का ही स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ कर जाता है, वह मेरे भाव को अर्थात मेरे परम तत्त्व को प्राप्त होता है। इस विषय में प्राप्त होता है या नहीं, ऐसा कोई संशय नहीं है।
(श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय – ८, श्लोक – ५)
केवल मेरे विषय में ही यह नियम नहीं है, किन्तु –
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
हे कुन्तीपुत्र ! प्राण वियोग के समय (यह जीव) जिस-जिस भी भाव का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है, उस भाव से भावित हुआ वह पुरुष सदा उस स्मरण किये हुए भाव को ही प्राप्त होता है, अन्य को नहीं। उपास्य देव विषयक भावना का नाम ‘तद्भाव’ है, वह जिसने भावित यानी बारंबार चिन्तन करने के द्वारा अभ्यस्त किया हो, उसका नाम ‘तद्भावभावित’ है। ऐसा होता हुआ उसी को प्राप्त होता है।
(श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय – ८, श्लोक – ६)
क्योंकि इस प्रकार अन्तकाल की भावना ही अन्य शरीर की प्राप्ति का कारण है –
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
इसलिए तू हर समय मेरा स्मरण कर और शास्त्रानुसार स्वधर्म युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझ वासुदेव में जिसके मन-बुद्धि अर्पित हैं, ऐसा तू मुझमें अर्पित किए हुए मन-बुद्धि वाला होकर मुझको ही अर्थात मेरे यथाचिन्तित स्वरुप को ही प्राप्त हो जाएगा, इसमें संशय नहीं है।
(श्रीमद्भगवद्गीता ; अध्याय – ८, श्लोक – ७)
अन्तकाल के विषय में बताते हुए भगवान् पहले श्लोक में “स्मरण”, दूसरे श्लोक में “भाव” और तीसरे श्लोक में “मन और बुद्धि” को “भगवान् में” अर्पित करने को कह रहे हैं। भगवान् यह “बिलकुल नहीं” और “कहीं नहीं” कह रहे हैं कि अन्तकाल में केवल मेरा नाम लेने से ही तू मेरे भाव को अर्थात् मेरे परम तत्व अर्थात् मेरे यथाचिन्तित स्वरुप को प्राप्त हो जाएगा।
“अपने पुत्र का नाम कृष्ण रखो, मृत्यु के समय पुत्र को कृष्ण पुकारोगे और तुम्हें मोक्ष प्राप्त होगा”. ऐसा हम सब ने सुना है। स्वयं को भगवान् कृष्ण का सबसे बड़ा भक्त बताने वाला सम्प्रदाय तो इस बात के प्रचार और प्रसार में लगा हुआ है कि मृत्युकाल में बस कृष्ण का नाम ले लो तुम्हें मोक्ष अवश्य प्राप्त होगा। “मैं तो जीवन भर विकर्म (शास्त्र के विरुद्ध कर्म) करूँगा और मृत्युकाल में भगवान् का नाम ले लूँगा और मोक्ष प्राप्त करूँगा”, यानी fraud with God! यह धूर्तता है।
मृत्युकाल में पुत्र को कृष्ण नाम से सम्बोधित करने वाले व्यक्ति की स्मृति में भगवान् श्री कृष्ण होते हैं या पुत्र कृष्ण ?! वह कृष्ण का नाम तो लेता है, किन्तु, उसकी स्मृति में १८ उपकरणों (५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ, ३ अंतःकरण और ५ प्राण) से युक्त मोहग्रस्त पुत्र का ही विचार होता है। भगवान् श्री कृष्ण से सम्बंधित कोई भावना नहीं होती है। उस बहिर्मुखी व्यक्ति (संसार में लिप्त) ने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण संसार को भोगने, धन संचय, सांसारिक साधनों की उपलब्धि और मोहयुक्त संबंधों को बनाए रखने में लगा दिया। भगवान् नाम तत्त्व का कभी चिंतन नहीं किया। उसने हर क्षण संसार का ही चिंतन किया यानी संसार का ही अभ्यस्त हो गया। अतः वह चाहे “कृष्ण” पुकारे या “हे राम” पुकारे उसे मोक्ष कदापि प्राप्त नहीं होने वाला है।
अन्तिम श्लोक में भगवान् कहते हैं, तू हर समय मेरा स्मरण कर, मुझमें मन-बुद्धि वाला होकर स्वधर्म युद्ध भी कर। ध्यान देने योग्य बात यह है कि भगवान् ने कहीं भी बाह्य करणों (ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों) का नाम नहीं लिया है। यानी केवल मन (से मनन – भक्ति) और बुद्धी (से अनुसंधान – ज्ञान) को ही भगवान् से जोड़ देना है। यानी आँख, कान, नाक, हाँथ, पैर, इत्यादि की क्रियाओं का मोक्ष से कोई लेना-देना नहीं है।
“हर समय मेरा स्मरण कर और स्वधर्म युद्ध भी कर”. यह कैसे संभव है? जिस प्रकार ‘पति की सेवा’ रूप धर्म निभाते हुए भी पत्नी को प्रेमी का नित्य स्मरण रहता है उसी प्रकार हमें भी शास्त्रानुसार कर्म करते हुए भगवान् का नित्य स्मरण करना है।
जय श्री कृष्ण !!