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MERA GANDHI MAHAN


MERA GANDHI MAHAN 😡😡👎👎👎👎😡😡

Mahanta No.1

😥….शहीदे आजम भगत सिंह को फाँसी दिए जाने पर अहिंसा के महान पुजारी गांधी ने कहा था….

😞‘‘हमें ब्रिटेन के विनाश के बदले अपनी आजादी नहीं चाहिए।’’ और आगे कहा… ‘‘भगत सिंह की पूजा से देश को बहुत हानि हुई और हो रही है….वहीं इस फाँसी परिणाम गुंडागर्दी का पतन है…

😒यह फाँसी शीघ्र दे दी जाए ताकि 30 मार्च से करांची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में कोई बाधा न आवे ।”
🔥अर्थात् गांधी की परिभाषा में किसी को फांसी देना हिंसा नहीं थी ।😕

Mahanta No.2 ….

😐 इसी प्रकार एक और महान् क्रान्तिकारी जतिनदास को जब आगरा में अंग्रेजों ने शहीद किया तो गांधी आगरा में ही थे और…..जब गांधी को उनके पार्थिक शरीर पर माला चढ़ाने को कहा गया तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया….

😓अर्थात् उस नौजवान द्वारा खुद को देश के लिए कुर्बान करने पर भी गांधी के दिल में किसी प्रकार की दया और सहानुभूति नहीं उपजी… ऐसे थे हमारे अहिंसावादी गांधी…😕

Mahanta No.3 …

😜जब सन् 1937 में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए नेताजी सुभाष और गांधी द्वारा मनोनीत प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैया के मध्य मुकाबला हुआतो गांधी ने कहा…
😙यदि रमैया चुनाव हार गया तो वे राजनीति छोड़ देंगे लेकिन उन्होंने अपने मरने तक राजनीति नहीं छोड़ी जबकि रमैया चुनाव हार गए थे…..😕

Mahanta No.4 ….

🤔इसी प्रकार गांधी ने कहा था, “पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा” लेकिन पाकिस्तान उनके समर्थन से ही बना….ऐसे थे हमारे सत्यवादी गांधी….😕

Mahanta No.5 …

😝इससे भी बढ़कर गांधी और कांग्रेस ने दूसरे विश्व युद्ध में अंग्रेजों का समर्थन किया तो फिर क्या लड़ाई में हिंसा थी या लड्डू बँट रहे थे ? पाठक स्वयं बतलाएँ ?😕
Mahanta No.6 …

😣गांधी ने अपने जीवन में तीन आन्दोलन (सत्याग्रह) चलाए और तीनों को ही बीच मेंवापिस ले लिया गया फिर भी लोग कहते हैं कि आजादी गांधी ने दिलवाई…😕

Mahanta No.7 ….

😛इससे भी बढ़कर जब देश के महान सपूत उधमसिंह ने इंग्लैण्ड में जलियाँवाला गोलीकांड के दोषी माईकल डायर को मारा तो……गांधी ने उन्हें पागल कहा….😓

🤑इसलिए नीरद चौधरी नेगांधी को दुनिया का सबसे बड़ा सफल पाखण्डी लिखा है😕

Mahanta No.8 ….

🤓इस आजादी के बारे में इतिहासकार CR मजूमदार लिखते हैं….“भारत की आजादी का सेहरा गांधी के सिर बाँधना सच्चाई से मजाक होगा….

😃यह कहना कि सत्याग्रह व चरखे से आजादी दिलाई बहुत बड़ी मूर्खता होगी। इसलिए गांधी को आजादी का ‘हीरो’ कहना उन क्रान्तिकारियों का अपमान है….जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना खून बहाया ।”

😜यदि चरखों से आजादी की रक्षा सम्भव होती है तो बार्डर पर टैंकों की जगह चरखे क्यों नहीं रखवा दिए जाते ………..??

🙏अगर आप सहमत है तो इसकी सच्चाई “शेयर ” कर देश के सामने उजागर करें…जय हिन्द

🙏शहीदे आज़म भगत सिंह को फाँसी कि सजा सुनाई जा चुकी थी , इसके कारण हुतात्मा चंद्रशेखर आज़ाद काफी परेशान और चिंतित हो गए।

💂भगत सिंह की फाँसी को रोकने के लिए आज़ाद ने ब्रिटिश सरकार पर दवाब बनाने का फैसला लिया इसके लिए आज़ाद ने गांधी से मिलने का वक्त माँगा लेकिन….गांधी ने कहा कि वो किसी भी उग्रवादी से नहीं मिल सकते।

😢गांधी जानते थे कि अगर भगतसिंह और आज़ाद जैसे क्रन्तिकारी और ज्यादा दिन जीवित रह गए तो वो युवाओं के हीरो बन जायेंगे। ऐसी स्थिति में गांधी को पूछने वाला कोई ना रहता…
🙏हमने आपको कई बार बताया है कि किस तरह गांधी ने भगत सिंह को मरवाने के लिए एक दिन पहले फांसी दिलवाई….

😡गांधी से वक्त ना मिल पाने के बाद आज़ाद ने नेहरू से मिलने का फैसला लिया , 27 फरवरी 1931 के दिन आज़ाद ने नेहरू से मुलाकात की….

😳ठीक इसी दिन आज़ाद ने नेहरू के सामने भगत सिंह की फांसी को रोकने कि विनती की….

😢बैठक में आज़ाद ने पूरी तैयारी के साथ भगत सिंह को बचाने का सफल प्लान रख दिया। जिसे देखकर नेहरू हक्का -बक्का रह गया क्यूंकि इस प्लान के तहत भगत सिंह को आसानी से बचाया जा सकता था….

👉नेहरू ने आज़ाद को मदद देने से साफ़ मना कर दिया इस पर आज़ाद नाराज हो गए और नेहरू से जोरदार बहस हो गई फिर आज़ाद नाराज होकर अपनी साइकिल पर सवार होकर अल्फ्रेड पार्क कि होकर निकल गए…

😢पार्क में कुछ देर बैठने के बाद ही आज़ाद को पोलिस ने चारों तरफ से घेर लिया। पोलिस पूरी तैयारी के साथ आई थी जेसे उसे मालूम हो कि आज़ाद पार्क में ही मौजूद है…..

😛आखरी साँस और आखरी गोली तक वो जाबांज अंग्रेजों के हाथ नहीं लगा ,आज़ाद की पिस्तौल में जब तक गोलियाँ बाकि थी तब तक कोई अंग्रेज उनके करीब नहीं आ सका।

🇮🇳आखिरकार आज़ाद जीवन भर आज़ाद ही रहा और उस ने आज़ादी में ही वीर गति को प्राप्त किया…

💨अब अक्ल का अँधा भी समझ सकता है कि नेहरु के घर से बहस करके निकल कर पार्क में १५ मिनट अंदर भारी पोलिस बल आज़ाद को पकड़ने के लिए बिना नेहरू की गद्दारी के नहीं पहुँचा जा सकता था….

😳नेहरू ने पोलिस को खबर दी कि आज़ाद इस वक्त पार्क में है और कुछ देर वहीं रुकने वाला है। साथ ही कहा कि आज़ाद को जिन्दा पकड़ने कि भूल ना करें नहीं तो भगतसिंह कि तरफ मामला बढ़ सकता है…

😰लेकिन फिर भी कांग्रेस कि सरकार ने नेहरू को किताबों में बच्चों का क्रन्तिकारी चाचा नेहरू बना दिया और आज भी किताबो में आज़ाद को “उग्रवादी” लिखा जाता है…

😡लेकिन आज सच को सामने लाकर उस जाँबाज को आखरी सलाम देना चाहते हो तो इस पोस्ट को शेयर करके सच्चाई को सभी के सामने लाने में मदद करें…

🙏आज के दिन यही शेयर करना उस निडर जांबाज और भारतमाता के शेर के लिए सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है……!!

⛳भारत माता की जय हो

विकास खुराना's photo.
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१८ पुराण के नाम और उनका महत्त्व


१८ पुराण के नाम और उनका महत्त्व

(१) ब्रह्मपुराणः—इसे “आदिपुराण” भी का जाता है। प्राचीन माने गए सभी पुराणों में इसका उल्लेख है। इसमें श्लोकों की संख्या अलग- २ प्रमाणों से भिन्न-भिन्न है। १०,०००…१२.००० और १३,७८७ ये विभिन्न संख्याएँ मिलती है। इसका प्रवचन नैमिषारण्य में लोमहर्षण ऋषि ने किया था। इसमें सृष्टि, मनु की उत्पत्ति, उनके वंश का वर्णन, देवों और प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन है। इस पुराण में विभिन्न तीर्थों का विस्तार से वर्णन है। इसमें कुल २४५ अध्याय हैं। इसका एक परिशिष्ट सौर उपपुराण भी है, जिसमें उडिसा के कोणार्क मन्दिर का वर्णन है।

(२) पद्मपुराणः—-इसमें कुल ६४१ अध्याय और ४८,००० श्लोक हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार इसमें ५५,००० और ब्रह्मपुराण के अनुसार इसमें ५९,००० श्लोक थे। इसमें कुल खण़्ड हैं—(क) सृष्टिखण्डः—५ पर्व, (ख) भूमिखण्ड, (ग) स्वर्गखण्ड, (घ) पातालखण्ड और (ङ) उत्तरखण्ड।
इसका प्रवचन नैमिषारण्य में सूत उग्रश्रवा ने किया था। ये लोमहर्षण के पुत्र थे। इस पुराण में अनेक विषयों के साथ विष्णुभक्ति के अनेक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। इसका विकास ५ वीं शताब्दी माना जाता है।

(३) विष्णुपुराणः—-पुराण के पाँचों लक्षण इसमें घटते हैं। इसमें विष्णु को परम देवता के रूप में निरूपित किया गया है। इसमें कुल छः खण्ड हैं, १२६ अध्याय, श्लोक २३,००० या २४,००० या ६,००० हैं। इस पुराण के प्रवक्ता पराशर ऋषि और श्रोता मैत्रेय हैं।

(४) वायुपुराणः—इसमें विशेषकर शिव का वर्णन किया गया है, अतः इस कारण इसे “शिवपुराण” भी कहा जाता है। एक शिवपुराण पृथक् भी है। इसमें ११२ अध्याय, ११,००० श्लोक हैं। इस पुराण का प्रचलन मगध-क्षेत्र में बहुत था। इसमें गया-माहात्म्य है। इसमें कुल चार भाग हैः—(क) प्रक्रियापादः– (अध्याय—१-६), (ख) उपोद्घातः— (अध्याय-७ –६४ ), (ग) अनुषङ्गपादः–(अध्याय—६५–९९), (घ) उपसंहारपादः–(अध्याय—१००-११२)। इसमें सृष्टिक्रम, भूगो, खगोल, युगों, ऋषियों तथा तीर्थों का वर्णन एवं राजवंशों, ऋषिवंशों,, वेद की शाखाओं, संगीतशास्त्र और शिवभक्ति का विस्तृत निरूपण है। इसमें भी पुराण के पञ्चलक्षण मिलते हैं।

(५) भागवतपुराणः—यह सर्वाधिक प्रचलित पुराण है। इस पुराण का सप्ताह-वाचन-पारायण भी होता है। इसे सभी दर्शनों का सार “निगमकल्पतरोर्गलितम्” और विद्वानों का परीक्षास्थल “विद्यावतां भागवते परीक्षा” माना जाता है। इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति के बारे में बताया गया है।
इसमें कुल १२ स्कन्ध, ३३५ अध्याय और १८,००० श्लोक हैं। कुछ विद्वान् इसे “देवीभागवतपुराण” भी कहते हैं, क्योंकि इसमें देवी (शक्ति) का विस्तृत वर्णन हैं। इसका रचनाकाल ६ वी शताब्दी माना जाता है।

(६) नारद (बृहन्नारदीय) पुराणः—इसे महापुराण भी कहा जाता है। इसमें पुराण के ५ लक्षण घटित नहीं होते हैं। इसमें वैष्णवों के उत्सवों और व्रतों का वर्णन है। इसमें २ खण्ड हैः—(क) पूर्व खणअ्ड में १२५ अध्याय और (ख) उत्तर-खण्ड में ८२ अध्याय हैं। इसमें १८,००० श्लोक हैं। इसके विषय मोक्ष, धर्म, नक्षत्र, एवं कल्प का निरूपण, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, गृहविचार, मन्त्रसिद्धि,, वर्णाश्रम-धर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है।

(७) मार्कण्डयपुराणः—इसे प्राचीनतम पुराण माना जाता है। इसमें इन्द्र, अग्नि, सूर्य आदि वैदिक देवताओं का वर्णन किया गया है। इसके प्रवक्ता मार्कण्डय ऋषि और श्रोता क्रौष्टुकि शिष्य हैं। इसमें १३८ अध्याय और ७,००० श्लोक हैं। इसमें गृहस्थ-धर्म, श्राद्ध, दिनचर्या, नित्यकर्म, व्रत, उत्सव, अनुसूया की पतिव्रता-कथा, योग, दुर्गा-माहात्म्य आदि विषयों का वर्णन है।

(८) अग्निपुराणः—इसके प्रवक्ता अग्नि और श्रोता वसिष्ठ हैं। इसी कारण इसे अग्निपुराण कहा जाता है। इसे भारतीय संस्कृति और विद्याओं का महाकोश माना जाता है। इसमें इस समय ३८३ अध्याय, ११,५०० श्लोक हैं। इसमें विष्णु के अवतारों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त शिवलिंग, दुर्गा, गणेश, सूर्य, प्राणप्रतिष्ठा आदि के अतिरिक्त भूगोल, गणित, फलित-ज्योतिष, विवाह, मृत्यु, शकुनविद्या, वास्तुविद्या, दिनचर्या, नीतिशास्त्र, युद्धविद्या, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोशनिर्माण आदि नाना विषयों का वर्णन है।

(९) भविष्यपुराणः—इसमें भविष्य की घटनाओं का वर्णन है। इसमें दो खण्ड हैः–(क) पूर्वार्धः–(अध्याय—४१) तथा (ख) उत्तरार्धः–(अध्याय़—१७१) । इसमें कुल १५,००० श्लोक हैं । इसमें कुल ५ पर्व हैः–(क) ब्राह्मपर्व, (ख) विष्णुपर्व, (ग) शिवपर्व, (घ) सूर्यपर्व तथा (ङ) प्रतिसर्गपर्व। इसमें मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म, आचार, वर्णाश्रम-धर्म आदि विषयों का वर्णन है। इसका रचनाकाल ५०० ई. से १२०० ई. माना जाता है।

(१०) ब्रह्मवैवर्तपुराणः—यह वैष्णव पुराण है। इसमें श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है। इसमें कुल १८,००० श्लोक है और चार खण्ड हैः—(क) ब्रह्म, (ख) प्रकृति, (ग) गणेश तथा (घ) श्रीकृष्ण-जन्म।

(११) लिङ्गपुराणः—-इसमें शिव की उपासना का वर्णन है। इसमें शिव के २८ अवतारों की कथाएँ दी गईं हैं। इसमें ११,००० श्लोक और १६३ अध्याय हैं। इसे पूर्व और उत्तर नाम से दो भागों में विभाजित किया गया है। इसका रचनाकाल आठवीं-नवीं शताब्दी माना जाता है। यह पुराण भी पुराण के लक्षणों पर खरा नहीं उतरता है।

(१२) वराहपुराणः—इसमें विष्णु के वराह-अवतार का वर्णन है। पाताललोक से पृथिवी का उद्धार करके वराह ने इस पुराण का प्रवचन किया था। इसमें २४,००० श्लोक सम्प्रति केवल ११,००० और २१७ अध्याय हैं।

(१३) स्कन्दपुराणः—यह पुराण शिव के पुत्र स्कन्द (कार्तिकेय, सुब्रह्मण्य) के नाम पर है। यह सबसे बडा पुराण है। इसमें कुल ८१,००० श्लोक हैं। इसमें दो खण्ड हैं। इसमें छः संहिताएँ हैं—सनत्कुमार, सूत, शंकर, वैष्णव, ब्राह्म तथा सौर। सूतसंहिता पर माधवाचार्य ने “तात्पर्य-दीपिका” नामक विस्तृत टीका लिखी है। इस संहिता के अन्त में दो गीताएँ भी हैं—-ब्रह्मगीता (अध्याय—१२) और सूतगीताः–(अध्याय ८)।
इस पुराण में सात खण्ड हैं—(क) माहेश्वर, (ख) वैष्णव, (ग) ब्रह्म, (घ) काशी, (ङ) अवन्ती, (रेवा), (च) नागर (ताप्ती) तथा (छ) प्रभास-खण्ड। काशीखण्ड में “गंगासहस्रनाम” स्तोत्र भी है। इसका रचनाकाल ७ वीं शताब्दी है। इसमें भी पुराण के ५ लक्षण का निर्देश नहीं मिलता है।

(१४) वामनपुराणः—इसमें विष्णु के वामन-अवतार का वर्णन है। इसमें ९५ अध्याय और १०,००० श्लोक हैं। इसमें चार संहिताएँ हैं—-(क) माहेश्वरी, (ख) भागवती, (ग) सौरी तथा (घ) गाणेश्वरी । इसका रचनाकाल ९ वीं से १० वीं शताब्दी माना जाता है।

(१५) कूर्मपुराणः—इसमें विष्णु के कूर्म-अवतार का वर्णन किया गया है। इसमें चार संहिताएँ हैं—(क) ब्राह्मी, (ख) भागवती, (ग) सौरा तथा (घ) वैष्णवी । सम्प्रति केवल ब्राह्मी-संहिता ही मिलती है। इसमें ६,००० श्लोक हैं। इसके दो भाग हैं, जिसमें ५१ और ४४ अध्याय हैं। इसमें पुराण के पाँचों लक्षण मिलते हैं। इस पुराण में ईश्वरगीता और व्यासगीता भी है। इसका रचनाकाल छठी शताब्दी माना गया है।

(१६) मत्स्यपुराणः—इसमें पुराण के पाँचों लक्षण घटित होते हैं। इसमें २९१ अध्याय और १४,००० श्लोक हैं। प्राचीन संस्करणों में १९,००० श्लोक मिलते हैं। इसमें जलप्रलय का वर्णन हैं। इसमें कलियुग के राजाओं की सूची दी गई है। इसका रचनाकाल तीसरी शताब्दी माना जाता है।

(१७) गरुडपुराणः—यह वैष्णवपुराण है। इसके प्रवक्ता विष्णु और श्रोता गरुड हैं, गरुड ने कश्यप को सुनाया था। इसमें विष्णुपूजा का वर्णन है। इसके दो खण्ड हैं, जिसमें पूर्वखण्ड में २२९ और उत्तरखण्ड में ३५ अध्याय और १८,००० श्लोक हैं। इसका पूर्वखण्ड विश्वकोशात्मक माना जाता है।

(१८) ब्रह्माण्डपुराणः—इसमें १०९ अध्याय तथा १२,००० श्लोक है। इसमें चार पाद हैं—(क) प्रक्रिया, (ख) अनुषङ्ग, (ग) उपोद्घात तथा (घ) उपसंहार । इसकी रचना ४०० ई.- ६०० ई. मानी जाती है।

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सन 2050 मेँ यही होगा……


Atul Tiwari

सन 2050 मेँ यही होगा……

एक मुल्लाअपने बच्चे के साथ चिड़िया घर देखने गया.

बच्चे को पता नहीं था किस जानवर का क्या नाम है तो अपने बाप से पूछ लेता था सबसे पहले बच्चे ने हाथी को देखा उसके बाप ने बच्चे को हाथी की जानकारी बता दी उसके बाद बच्चे ने एक भालू देखा तो बाप ने भालू की जानकारी भी बता दी.

उसके बाद बच्चे ने एक पिंजरे मे दो हाथ दो पैर और इन्सानो की तरह दिखने वाला एक जानवर देखा तो बच्चे ने बाप से पूछा अब्बू ये कौन है ?

तो उसके बाप ने कहा बेटा ये हिन्दू है इसे हिन्दू होने का बहुत गर्व था क्यूंकि ये संसार की सबसे समृद्ध संस्कृति
का हिस्सा था। पर ये कभी आपस मे मिलकर नहीं रहते थे,

इनके अपने भाई- भाई मे कभी नहीं बनती थी हमेशा एक दूसरे पर
कीचड़ उछालते रहते थे ।

कोई कहता था मै जाट हुँ तो कोई कहता मै बामन हुँ
कोई कहता मै बनिया हुँ
तो कोइ कहता मै राजपूत हुँ पर
कोई ये नहीं कहता था
कि हम सब हिन्दू हैं
ये अपने आप को शेर कहते थे
पर इनके किसी पड़ोसी को कोई मारने आता था तो अपने घर के दरवाजे पहले बंद कर लेते थे और सोचते थे कि पड़ोस वाले को मार रहे हैं मुझे क्या ।

ये हिन्दू यही सोचते थे कि अपने आगे 100 खड़े हे अपने पीछे
100 खड़े हैं तो मुझे कौन मार सकता है और हमने
इसी का फायदा उठाया ।

ये बेवकूफ ये नहीं सोचते
थे
कि
जब आगे पीछे के 100-100
को हम मार देंगे तो एक दिन उसका भी नंबर आएगा हम हिन्दुओ को मारते रहे सब खत्म हो गए अब कुछ हिन्दू बचे है इनको हमने पिंजरे में कैद कर दिया है ताकि
तुम बच्चो को बता सके
कि कभी इस धरती पर
हिन्दू का राज था और
अब हमारा है।

जागो हिन्दूओं जागो अकेला मोदी क्या – क्या करेगा 100 करोड़ हिन्दुओं के लिए अकेला मोदी खड़ा है ,अगर अब साथ न दिया तो कभी न दे पाओगे।।।

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न्यूटन के खोजने से 8 हज़ार साल पहले महर्षि कणाद ने लिख दिए थे गति के नियम



✍डॉ. अशोक तिवारी

Head of Training, Course Director, Dy. GENERAL MANAGER (Training and Development) and ERP Domain Expert at M P East DISCOM Jabalpur
Studied Ph.D. in Energy Management at APSU

 

वैशेषिक दर्शन (Vaisheshika Sutra) के रचनाकार महर्षि कणाद लगभग 6000 BC (ईसा पूर्व) के पहले, प्रभास क्षेत्र द्वारका के निकट गुजरात में जन्मे.

दुनिया को परमाणु का पहला ज्ञान देने वाले भी ऋषि कणाद ही हैं. इन्हीं के नाम पर परमाणु का एक नाम कण पड़ा.

वैशेषिक दर्शन में इन्होने गति के लिए कर्म शब्द प्रयुक्त किया है. इसके पांच प्रकार हैं, यथा :

उत्क्षेपण (upward motion)

अवक्षेपण (downward motion)

आकुञ्चन (Motion due to the release of tensile stress)

प्रसारण (Shearing motion)

गमन (General Type of motion)

विभिन्न कर्म या motion को उसके कारण के आधार पर जानने का विश्लेषण वैशेषिक में किया है.

(1)  नोदन के कारण – लगातार दबाव

(2) प्रयत्न के कारण –  जैसे हाथ हिलाना

(3) गुरुत्व के कारण – कोई वस्तु नीचे गिरती है

(4) द्रवत्व के कारण – सूक्ष्म कणों के प्रवाह से

Dr. N.G. Dongre अपनी पुस्तक Physics in Ancient India में वैशेषिक सूत्रों के ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखे गएप्रशस्तपाद भाष्य में उल्लिखित वेग संस्कार और न्यूटन द्वारा 1675 में खोजे गए गति के नियमों की तुलना की है.

महर्षि प्रशस्तपाद लिखते हैं-

‘वेगो पञ्चसु द्रव्येषु निमित्त-विशेषापेक्षात्‌कर्मणो जायते नियतदिक्‌क्रिया प्रबंध हेतु: स्पर्शवद्‌द्रव्यसंयोग विशेष विरोधी क्वचित्‌कारण गुण पूर्ण क्रमेणोत्पद्यते।‘

अर्थात्‌ वेग या मोशन पांचों द्रव्यों (ठोस, तरल, गैसीय) पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है.

उपर्युक्त प्रशस्तिपाद के भाष्य को तीन भागों में विभाजित करें तो न्यूटन के गति सम्बंधी नियमों से इसकी समानता ध्यान आती है.

(1) वेग: निमित्तविशेषात्‌कर्मणो जायते
The change of motion is due to impressed force

(2) वेग निमित्तापेक्षात्‌कर्मणो जायते नियत्दिक्‌क्रिया प्रबंध हेतु
The change of motion is proportional‌ to the motive force impressed and is made in the direction of the right line in which‌ the force is impressed

(3) वेग: संयोगविशेषाविरोधी
To every ‌action there is always an equal‌ and opposite reaction

द्रव्य क्या है? इसकी महर्षि कणाद की व्याख्या बहुत व्यापक एवं आश्चर्यजनक है। वे कहते हैं-

पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालोदिगात्मा मन इति द्रव्याणि
वैशेषिक दर्शन १/५

अर्थात्‌ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा जीवात्मा तथा मन- ये द्रव्य हैं. यहां पृथ्वी, जल आदि से कोई हमारी पृथ्वी, जल आदि का अर्थ लेते हैं. पर ध्यान रखें इस सम्पूर्ण व्रह्माण्ड में ये नौ द्रव्य कहे गए, अत: स्थूल पृथ्वी से यहां अर्थ नहीं है.

वे कहते हैं, पृथ्वी यानी द्रव्य का ठोस (solid) रूप, जल यानी द्रव्य (liquid) रूप तथा वायु (gas) रूप, यह तो सामान्यत: दुनिया में पहले से ज्ञात था, पर महर्षि कणाद कहते हैं कि तेज भी द्रव्य है. जबकि पदार्थ व ऊर्जा एक है यह ज्ञान 20वीं सदी में आया है.

इसके अतिरिक्त वे कहते हैं- आकाश भी द्रव्य है तथा आकाश परमाणु रहित है और सारी गति आकाश के सहारे ही होती है, क्योंकि परमाणु के भ्रमण में हरेक के बीच अवकाश या प्रभाव क्षेत्र रहता है. अत: हमारे यहां घटाकाश, महाकाश, हृदयाकाश आदि शब्दों का प्रयोग होता है.

महर्षि कणाद कहते हैं- दिक्‌ (space) तथा काल (time) यह भी द्रव्य है, जबकि पश्चिम से इसकी अवधारणा आइंस्टीन के सापेक्षतावाद के प्रतिपादन के बाद आई.

महर्षि कणाद के मत में मन तथा आत्मा भी द्रव्य हैं. इस अवधारणा को मानने की मानसिकता आज के विज्ञान में भी नहीं है. प्रत्येक द्रव्य की स्थित आणविक है. वे गतिशील हैं तथा परिमण्डलाकार उनकी स्थिति है. अत: उनका सूत्र है-

‘नित्यं परिमण्डलम्‌‘
वैशेषिक दर्शन ७/२०

महर्षि कणाद ने प्रथम परमाणु विस्फोट किया जिनसे आगे चल कर दिव्यास्त्र बनाये गए. इसकी विस्तृत चर्चा फिर कभी.

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किस्सा-ख्वानी बाज़ार नरसंहार : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महत्वपूर्ण लेकिन इतिहास से गायब घटना



✍डॉ. अशोक तिवारी

Ph.D. in Energy Management

Ashokktiwari@gmail.com

पेशावर (वर्तमान पाकिस्तान) में एक स्थान है जिसे किस्सा-ख्वानी बाज़ार कहा जाता है. यह घटना 23 अप्रैल 1930 की है. इस दिन गाँधीवादी नेता खान अब्दुल गफ्फार खान को अंग्रेज सरकार की आलोचना करने वाले भाषण देने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी पार्टी खुदाई खिदमतगार के अहिंसावादी सदस्य अपने नेता की गैरकानूनी गिरफ़्तारी  के विरुद्ध पेशावर में शांतिपूर्वक जलूस निकाल रहे थे.

इस जलूस में पश्तून, पठान, सिक्ख और हिन्दू थे. यह जुलूस पेशावर की विभिन्न गलियों से गुजरता हुआ किस्सा-ख्वानी बाज़ार के चौराहे पर पहुंचा. चौराहे पर ब्रिटिश कर्नल दो प्लाटून सेना लिए खड़ा था. जुलूस को देखते ही उसने फायरिंग का आदेश दे दिया.

नोबल पुरस्कार विजेता इतिहासविज्ञ जीन शार्प के अनुसार 6 घंटे तक लगातार फायरिंग हुई.

अंग्रेजो के रिकॉर्ड के अनुसार केवल 20 भारतीय मारे गए, जबकि भारतीयों के अनुसार 400 से 2000 लोग मार दिए गए. यह घटना जालियावाला बाग़ हत्याकांड के सामान है.

अंग्रेजों ने इस हत्याकांड की लीपा पोती करने की भरपूर कोशिश की. यह बताया जाने लगा कि जुलूस ने सेना पर पत्थरबाज़ी की फिर हमला किया. लेकिन सीमान्त गाँधी ने यह मुद्दा ब्रिटिश सम्राट तक उठा दिया.

सम्राट जॉर्ज-6 ने इस घटना के न्यायिक जांच के आदेश दिए और लखनऊ के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस नैमतउल्लाह चौधरी को जांच अधिकारी नियुक्त किया. किस्सा-ख्वानी बाज़ार हत्याकांड की जांच के दौरान ब्रिटिश सम्राट ने अंग्रेजो के पक्ष में फैसला देने हेतु जस्टिस नैमतउल्लाह चौधरी को ‘सर’, ‘नाइट’, ‘लार्ड’ आदि की उपाधियों और सुविधाओं से विभूषित करना चाहा.

जस्टिस नैमतउल्लाह चौधरी ने ब्रिटिश सम्राट द्वारा दी गयी सारी उपाधिया लौटा दी.  उनकी रिपोर्ट आई जिसमें पेशावर की जनता को निर्दोष और ब्रिटिश सेना को हत्याकांड का दोषी करार दिया गया. सत्य की जीत हुई.

किस्सा-ख्वानी बाज़ार हत्याकांड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महत्वपूर्ण घटना है, जिसे हमारी इतिहास की किताबों में जगह नहीं मिली.

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सिन्धु घाटी की लिपि : क्यों अंग्रेज़ और कम्युनिस्ट इतिहासकार नहीं चाहते थे इसे पढ़ा जाए!



डॉ. अशोक तिवारी

Ph.D. in Energy Management

Ashokktiwari@gmail.com

हान इतिहासकार अर्नाल्ड जे टायनबी ने कहा था – विश्व के इतिहास में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़ छाड़ की गयी है, तो वह भारत का इतिहास ही है.

भारतीय इतिहास का प्रारंभ सिन्धु घाटी की सभ्यता से होता है, इसे हड़प्पा कालीन सभ्यता या सारस्वत सभ्यता भी कहा जाता है. बताया जाता है कि वर्तमान सिन्धु नदी के तटों पर 3500 BC (ईसा पूर्व) में एक विशाल नगरीय सभ्यता विद्यमान थी. मोहनजोदारो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल आदि इस सभ्यता के नगर थे.

पहले इस सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, राजस्थान और गुजरात आदि बताया जाता था, किन्तु अब इसका विस्तार समूचा भारत, तमिलनाडु से वैशाली बिहार तक, पूरा पाकिस्तान व अफगानिस्तान तथा ईरान का हिस्सा तक पाया जाता है. अब इसका समय 7000 BC  से भी प्राचीन पाया गया है.

इस प्राचीन सभ्यता की सीलों, टेबलेट्स और बर्तनों पर जो लिखावट पाई जाती है उसे सिन्धु घाटी की लिपि कहा जाता है. इतिहासकारों का दावा है कि यह लिपि अभी तक अज्ञात है और पढ़ी नहीं जा सकी. जबकि सिन्धु घाटी की लिपि से समकक्ष और तथाकथित प्राचीन सभी लिपियां जैसे – इजिप्ट, चीनी, फोनेशियाई, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई आदि सब पढ़ ली गयी हैं.

आजकल कम्प्यूटरों की सहायता से अक्षरों की आवृत्ति का विश्लेषण कर मार्कोव विधि से प्राचीन भाषा को पढना सरल हो गया है.

सिन्धु घाटी की लिपि को जानबूझ कर नहीं पढ़ा गया और न ही इसको पढने के सार्थक प्रयास किये गए. भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Historical Research) जिस पर पहले अंग्रेजो और फिर कम्युनिस्टों का कब्ज़ा रहा, ने सिन्धु घाटी की लिपि को पढने की कोई भी विशेष योजना नहीं चलायी.

आखिर ऐसा क्या था सिन्धु घाटी की लिपि में?  अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकार क्यों नहीं चाहते थे कि सिन्धु घाटी की लिपि को पढ़ा जाए?

अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों की नज़रों में सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्नलिखित खतरे थे –

1. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने के बाद उसकी प्राचीनता और अधिक पुरानी सिद्ध हो जायेगी. इजिप्ट, चीनी, रोमन, ग्रीक, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई से भी पुरानी. जिससे पता चलेगा कि यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है. भारत का महत्व बढेगा जो अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों को बर्दाश्त नहीं होगा.

2. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने से अगर वह वैदिक सभ्यता साबित हो गयी तो अंग्रेजो और कम्युनिस्टों द्वारा फैलाये गए आर्य- द्रविड़ युद्ध वाले प्रोपगंडा के ध्वस्त हो जाने का डर है.

3. अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों द्वारा दुष्प्रचारित ‘आर्य बाहर से आई हुई आक्रमणकारी जाति है और इसने यहाँ के मूल निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी  के लोगों को मार डाला व भगा दिया और उनकी महान सभ्यता नष्ट कर दी, वे लोग ही जंगलों में छुप गए, दक्षिण भारतीय (द्रविड़) बन गए, शूद्र व आदिवासी बन गए’, आदि आदि गलत साबित हो जायेगा.

कुछ फर्जी इतिहासकार सिन्धु घाटी की लिपि को सुमेरियन भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे तो कुछ इजिप्शियन भाषा से, कुछ चीनी भाषा से, कुछ इनको मुंडा आदिवासियों की भाषा, और तो और, कुछ इनको ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे. ये सारे प्रयास असफल साबित हुए.

सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्लिखित समस्याए बताई जाती है – सभी लिपियों में अक्षर कम होते है, जैसे अंग्रेजी में 26, देवनागरी में 52 आदि, मगर सिन्धु घाटी की लिपि में लगभग 400 अक्षर चिन्ह हैं.

सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में यह कठिनाई आती है कि इसका काल 7000 BC से 1500 BC तक का है, जिसमे लिपि में अनेक परिवर्तन हुए साथ ही लिपि में स्टाइलिश वेरिएशन बहुत पाया जाता है.  लेखक ने लोथल और कालीबंगा में सिन्धु घाटी व हड़प्पा कालीन अनेक पुरातात्विक साक्षों का अवलोकन किया.

भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक लिपि है जिसे ब्राह्मी लिपि कहा जाता है. इस लिपि से ही भारत की अन्य  भाषाओँ की लिपियां बनी. यह लिपि वैदिक काल से गुप्त काल तक उत्तर पश्चिमी भारत में उपयोग की जाती थी. संस्कृत, पाली, प्राकृत के अनेक ग्रन्थ ब्राह्मी लिपि में प्राप्त होते है.

सम्राट अशोक ने अपने धम्म का प्रचार प्रसार करने के लिए ब्राह्मी लिपि को अपनाया.  सम्राट अशोक के स्तम्भ और शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए और सम्पूर्ण भारत में लगाये गए.

सिन्धु घाटी की लिपि और ब्राह्मी लिपि में अनेक आश्चर्यजनक समानताएं है. साथ ही ब्राह्मी और तमिल लिपि का भी पारस्परिक सम्बन्ध है.  इस आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि को पढने का सार्थक प्रयास सुभाष काक और इरावाथम महादेवन ने किया.

सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 400 अक्षर के बारे में यह माना जाता है कि इनमे कुछ वर्णमाला (स्वर व्यंजन मात्रा संख्या), कुछ यौगिक अक्षर और शेष चित्रलिपि हैं. अर्थात यह भाषा अक्षर और चित्रलिपि का संकलन समूह है. विश्व में कोई भी भाषा इतनी सशक्त और समृद्ध नहीं जितनी सिन्धु घाटी की भाषा.

जिस प्रकार सिन्धु घाटी की लिपि पशु के मुख की ओर से अथवा दाएं सेबाएं लिखी जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मी लिपि भी दाएं से बाएं लिखी जाती है. सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 3000 टेक्स्ट प्राप्त हैं.

इनमे वैसे तो 400 अक्षर चिन्ह हैं, लेकिन 39 अक्षरों का प्रयोग 80 प्रतिशत बार हुआ है. और ब्राह्मी लिपि में 45 अक्षर है. अब हम इन 39  अक्षरों को ब्राह्मी लिपि के 45  अक्षरों के साथ समानता के आधार पर मैपिंग कर सकते हैं और उनकी ध्वनि का पता लगा सकते हैं.

ब्राह्मी लिपि के आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि पढने पर सभी संस्कृत के शब्द आते है जैसे – श्री, अगस्त्य, मृग, हस्ती, वरुण, क्षमा, कामदेव, महादेव, कामधेनु, मूषिका, पग, पंच मशक, पितृ, अग्नि, सिन्धु, पुरम, गृह, यज्ञ, इंद्र, मित्र आदि.

निष्कर्ष यह है कि –

1. सिन्धु घाटी की लिपि ब्राह्मी लिपि की पूर्वज लिपि है.

2. सिन्धु घाटी की लिपि को ब्राह्मी के आधार पर पढ़ा जा सकता है.

3. उस काल में संस्कृत भाषा थी जिसे सिन्धु घाटी की लिपि में लिखा गया था.

4. सिन्धु घाटी के लोग वैदिक धर्म और संस्कृति मानते थे.

5. वैदिक धर्म अत्यंत प्राचीन है, 7000 BC से भी अधिक पुराना.

हिन्दू सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन व मूल सभ्यता है, हिन्दुओं का मूल निवास सप्त सैन्धव प्रदेश ( सिन्धु सरस्वती क्षेत्र ) था जिसका विस्तार ईरान से सम्पूर्ण भारत देश था.

वैदिक धर्म को मानने वाले कहीं बाहर से नहीं आये थे और न ही वे आक्रमणकारी थे. आर्य-द्रविड़ जैसी कोई भी दो पृथक जातियाँ नहीं थीं जिनमे परस्पर युद्ध हुआ हो.

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कौन है मनु? क्या है स्मृति?



✍डॉ. अशोक तिवारी

 

 

 

खबर है की JNU में ABVP ने मनुस्मृति नामक पुस्तक जला दी. बाबासाहब अम्बेडकर ने भी 25 दिसंबर 1927 को मुंबई में मनुस्मृति जलायी थी. इसके बाद अनेक बार बहुजनों, वामपंथियों, दलित हितचिंतकों, समाजवादियों, प्रगतिवादियों द्वारा मनुस्मृति जलाई जाती रही है.

बाबासाहब द्वारा मनुस्मृति जलाये जाने के पीछे एक महान उद्देश्य था – छुआछूत की समाप्ति की घोषणा करना. उन्होंने “मनुस्मृति दहन” मीडिया कवरेज या वोट बटोरने के लिए नहीं किया था. उन्होंने आधे वर्गफुट और 6 इंच गहरी वेदी बनवा के चन्दन की लकड़ियों से उसे भरा और सात दलित साधुओं द्वारा मनुस्मृति दहन कराते हुए “अस्पृश्यता नष्ट हो” मन्त्र का उद्घोष किया. उनकी नक़ल कर आज के  बहुजन , AVBP , या वामपंथी नेता अपने आप को बाबा साहब की बराबरी का समझने लगें हैं.

इन नेताओं से यदि आप सिर्फ दो प्रश्न पूछ लें तो ये बगले झाँकने लगेंगे – स्मृति क्या हैं ? मनु कौन था ?
इस लेख में मैं इन दोनो प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करूंगा.

स्मृति अर्थात “याद रखना”. प्राचीन काल में लेखक अपनी याददाश्त से पुराने नियमों का संकलन कर देते थे, उसे ही स्मृति कहा जाता था. हिन्दू धर्म में ऐसी लगभग 40 स्मृतियाँ हैं, जिनमें से एक मनुस्मृति भी है. स्मृतियों का सिर्फ  ऐतिहासिक महत्व है.

मनुस्मृति  के पूर्व  पराशर, अत्रि, हरिस, उशनस, अंगिरस, यम, उमव्रत, कात्यान, व्यास, दक्ष, शरतातय, गार्गेय वगैरह की स्मृतियाँ भी प्राचीन भारत की सामाजिक और धार्मिक अवस्थाओं के बारे में बतलाती हैं. मनुस्मृति के अतिरिक्त  विष्णु, याज्ञवल्क्य नारद, बृहस्पति, पराशर आदि की स्मृतियाँ प्रसिद्ध हैं.

मनुस्मृति से,  जिसकी रचना संभवतः दूसरी शताब्दी में की गयी है, उस काल की धार्मिक तथा सामाजिक अवस्थाओं का पता चलता है. नारद तथा बृहस्पति स्मृतियों से , जिनकी रचना करीब छठी सदी ई. के आस-पास हुई थी, राजा और प्रजा के बीच होने वाले उचित संबंधों और विधियों के विषय में जाना जा सकता है. इन सभी स्मृतियों में समाज की धर्ममर्यादा, वर्णधर्म, आश्रम-धर्म, राज-धर्म, साधारण धर्म, दैनिक कृत्य, स्त्री-पुरूष का कर्तव्य आदि का निरूपण किया गया है.

मनुस्मृति ही क्यों जलायी जाती है, क्योकि इसमें शूद्रों और स्त्रियों के बारे में असम्मानजनक और अन्यायपूर्ण बाते लिखीं हैं.
क्या मनुस्मृति का कोई महत्त्व है? यह असत्य प्रचार किया जाता है कि आज भी मनुस्मृति से देश की कानून व्यवस्था चलती है. मनुस्मृति जलाने  वालों के अनुसार आज भी पुलिस थानों, कोर्ट कचेहरीयों में मनुस्मृति चलती है. सभी ब्राह्मण दिन रात मनुस्मृति पढ़ते हैं और उसी के अनुसार चलते हैं. आज यदि कोई दलित छात्र परीक्षा में फेल हो जाए या रोहित वेमुला आत्महत्या कर ले तो उसके लिए मनुस्मृति ही जिम्मेवार है. सभी क्षत्रिय , वैश्य , जैन , सिख, कायस्थ  आदि मनुस्मृति ही मानते हैं. इस प्रकार झूठा प्रचार कर मनुस्मृति का हउआ खड़ा किया जाता है.

जबकि वास्तविकता यह है कि मनुस्मृति किसी स्कूल कालेज में नहीं पढाई जाती. यहाँ तक की संस्कृत विश्वद्यालयों महाविद्यालयों गुरुकुलों में भी नहीं. शास्त्री और आचार्य पाठ्यक्रम में भी मनुस्मृति नहीं है. क्योकि श्रुति प्रमाणिक है , स्मृति नहीं. श्रुति अंतर्गत वेद पुराण उपनिषद दर्शन आदि आते हैं. आप्स्तंभ सूत्र के अनुसार श्रुति ईश्वरीय है, स्मृति मानुषीय है.  99 प्रतिशत ब्राह्मण भी मनुस्मृति न कभी देखें हैं और न कभी पढ़ें हैं.

मनुस्मृति जलाने  वालों से यह भी पूछ लो – मनुस्मृति तो जला दी आपने, अच्छा किया. बाकी 40 स्मृतियों को  क्यों  नहीं जलाते, क्या उनमें शूद्रों के लिए अच्छी  बाते हैं? इस पर वे चुप लगा जायेंगे क्योकि 40 अन्य स्मृतियाँ तो छोड़िये, इन्होंने कभी मनुस्मृति भी नहीं पढ़ी.

अब ये मनु कौन थे ? हिन्दू धर्म के अनुसार 14 मनु हुए हैं –

1.स्वायंभुव मनु ,2.स्वारोचिष  मनु ,3.औत्तमि मनु ,4.तामस मनु,5.रैवत मनु ,6.चाक्षुष  मनु,7.वैवस्वत मनु,8.सावर्णि मनु,9.दक्ष सावर्णि मनु,10.ब्रह्म सावर्णि मनु,11.धर्म सावर्णि मनु,12.रुद्रसावर्णि मनु,13.रौच्य दैव सावर्णि मनु, और 14.इन्द्र सावर्णि मनु

एक एक मनु का लाखों वर्षों का समय होता है अर्थात् कुछ लाख वर्ष  खंड के स्वामी एक मनु होते हैं फिर दूसरा उसके बाद तीसरे आदि मनु उस समय के अधिपति होते हैं.

इसी क्रम में इस समय के मालिक सातवें अर्थात् वैवस्वत मनु हैं. इस लिए यह सातवां मन्वंतर हुआ जिसमें हम लोग रह रहे हैं इसे वैवस्वत मन्वंतर भी कहते हैं.

इसीप्रकार यथाक्रम मनु आगे भी होते रहेंगे. सबसे पहले मनु को स्वायंभुव मनु कहा गया है इन्हें ही दूसरा स्रष्टा अर्थात सृजन करने वाला माना गया है. इन्हीं से दस प्रजापतियों का जन्म हुआ है उनसे आगे सृष्टि संचालन हुआ है.

इस प्रकार उस समय सभी लोग इन्हीं की संतानों के रूप में जाने या माने जाते थे. अब कोई मनुस्मृति जलाने  वालों से यह भी पूछ ले कि इनमें से किस मनु ने मनुस्मृति लिखी? यदि वर्तमान मानव प्रजाति के मूलपुरुष वैवस्वत मनु ने मनुस्मृति की रचना की होती तो वह एकमात्र स्मृति होती, और फिर अन्य ऋषि अपनी अपनी स्मृति लिखे का दुस्साहस न करते. यदि वैवस्वत मनु ने मनुस्मृति की रचना की होती तो वे अपनी संतानों में भेदभाव क्यों करते?

वैदिक साहित्य से लेकर प्राचीन ग्रंथों तक मनु आदिमानव के रूप में जाने जाते हैं. मान्यता है कि जल प्रलय के बाद मनु ही धरती पर शेष बचे थे और उन्हीं से सारी सृष्टी विशेषकर मानव जाति का विकास हुआ.

इसलिए हम मनु की संताने यानी मनु से जन्मे कहे जाते हैं. मुस्लिम और ईसाइयों में मनु का नाम आदम है, जिससे आदमी शब्द बना है. अंग्रेजी का MAN शब्द मनु से ही आया है. वैदिक साहित्य और शतपथ ब्राह्मण में मनु को सूर्य का पुत्र और मानव जाति का पथ प्रदर्शक बताया गया है.

भगवत गीता में भी मनुओं का उल्लेख है. जहां यह व्यक्ति के स्थान पर उपाधि के रूप में उपयोग किया गया है. मनु शब्द का मूल मन धातु से पैदा हुआ है. आधुनिक साहित्य में मनु और उनकी पत्नी कामायनी के बारे में मनोवैज्ञानिक विवेचना के साथ प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद का महाकाव्य कामायनी विशेष चर्चित रहा है. लेकिन इन आदिमानव मनु ने कोई पुस्तक लिखी हो ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता.

उपलब्ध मनुस्मृति में शूद्र विरोधी और शूद्र समर्थक दोनों तरह के श्लोक कैसे हैं? स्त्री  विरोधी और स्त्री समर्थक दोनों तरह के श्लोक कैसे हैं?

डा. सुरेन्द्र कुमार ने मनुस्मृति का विस्तृत और गहन अध्ययन किया है. जिसमें प्रत्येक श्लोक का भिन्न- भिन्न रीतियों से परीक्षण और पृथक्करण किया है ताकि प्रक्षिप्त श्लोकों को अलग से जांचा जा सके. उन्होंने मनुस्मृति के 2685 में से 1471 श्लोक प्रक्षिप्त (मिलावटी) पाए हैं. स्वयं बाबासाहब भी मनुस्मृति को प्रक्षिप्त मानते थे. बहुत से पाश्चात्य विद्वान जैसे मैकडोनल, कीथ, बुलहर इत्यादि भी मनुस्मृति में मिलावट मानते हैं.

सभी इतिहासकार यह मानते है कि मनुस्मृति की रचना दूसरी शताब्दी में हुई, तब तो आदि पुरुष वैवस्वत मनु ने इसे लिखा नहीं. दूसरी शताब्दी में शुंग कालीन राज में मनु नाम का कोई व्यक्ति हुआ जिसने इसे लिखा या फिर किसी ब्राह्मण ने मनु के नाम से इसकी रचना कर दी. बाबासाहब अम्बेडकर के अनुसार – “मनुस्मृति 185 ई.पू. के बाद अस्तितव में आई और ये भी कि तब तक अस्पृश्यता नहीं थी.“ (अम्बेडकर -अछूत कौन थे? अध्याय १६)

क्या मनुस्मृति के आधार पर कभी देश में कानून –व्यवस्था चली? अंग्रेजो के ज़माने में ब्रिटिश कानून चलता था, मुगलों और अन्य सुल्तानों के समय शरिया अर्थात मुस्लिम कानून चलता था. अर्थात पिछले 1000 सालों से मनुस्मृति वाले कानून तो देश में चले नहीं. फ़ाहियान और ह्वेनसांग ने भी मनुस्मृति का जिक्र नहीं किया और न ही अस्पृश्यता के बारे में लिखा. अम्बेडकर भी मानते हैं कि सातवीं शताब्दी तक अस्पृश्यता नहीं थी. (अम्बेडकर -अछूत कौन थे? अध्याय १६)

क्या हिन्दू राजाओं के समय मनुस्मृति वाले कानून चलते थे? हिन्दू राजाओं के समय 40 स्मृतियाँ थी, वे किसी भी स्मृति को मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र थे. चूंकि स्मृति एक टेम्पररी समयाचारी ग्रन्थ होता है अतः उसकी मान्यता लम्बे समय तक नहीं चल सकती. कई राजाओं का न्याय दूर दूर तक प्रसिद्द था – जैसे विक्रमादित्य , भोज आदि. वे अपनी बुद्धिमत्ता से न्याय करते थे न कि मनुस्मृति से. यदि राजा मनुस्मृति से न्याय करते तो उनकी प्रसिद्धि न हो पाती.

महाभारत में एक प्रसंग आता हैं – एक बार राजा युद्धिष्ठिर के पास एक किसान का मामला आया. उसके खेत में चोरी करते हुए चार लोग पकड़े गये थे. उनमें से एक ब्राह्मण था, दूसरा क्षत्रिय, तीसरा व्यापारी और चौथा शूद्र. किसान ने युद्धिष्ठिर से उन्हें समुचित दंड देने को कहा.

युद्धिष्ठिर ने शूद्र को एक महीने, व्यापारी को एक साल, क्षत्रिय को पांच साल और ब्राह्मण को दस साल सश्रम कारावास का दंड दिया. जब लोगों ने एक ही अपराध के लिए चारों को अलग-अलग दंड का रहस्य पूछा, तो युद्धिष्ठिर बहुत न्यायपूर्ण उत्तर दिया. उन्होंने कहा कि शूद्र स्वयं निर्धन है, हो सकता है उसके घर में खाने को अन्न न हो. ऐसे में यदि उसने चोरी कर ली, तो इसे बहुत गंभीर अपराध नहीं माना जा सकता. इसलिए उसे एक महीने का कारावास पर्याप्त है.

व्यापारी का अपराध कुछ अधिक है. उसे किसान की फसल को उचित मूल्य पर खरीदने और बेचने का अधिकार तो है; पर चोरी का नहीं. इसलिए उसे एक साल का दंड दिया गया है.

क्षत्रिय राज्य की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था का आधार है. यदि वह खुद ही चोरी करेगा, तो फिर चोरों को पकड़ेगा कौन; यदि जनता का देश की सुरक्षा व्यवस्था से विश्वास उठ गया, तो इस अराजकता से निबटना राज्य के लिए भी संभव नहीं है. इसलिए उसे पांच साल की सजा दी गयी है.

जहां तक ब्राह्मण की बात है, उसका कृत्य केवल अपराध ही नहीं, पाप भी है. उसका काम देश की नयी पीढ़ी को सुसंस्कारित करना है. यदि उसका आचरण गलत होगा, तो फिर वह नयी पीढ़ी को क्या सिखाएगा? इसलिए उसका अपराध सबसे बड़ा है और उसे दस साल की सजा दी गयी है.

ऐसे ही कई उदाहरण पृथ्वीराज रासो, राजतरंगिणी, दीर्घ निकाय, विनयपिटक, जैन ग्रन्थ (भगवती सूत्र) , दिव्यादान आदि में हैं , जिनमें ब्राह्मणों द्वारा अपराध करने पर मृत्युदंड तथा शूद्रों के प्रति क्षमा और मानवीय व्यव्हार का उल्लेख है.  इससे पता चलता है कि महाभारत काल से राजपूत युग तक कभी भी मनुस्मृति के अनुसार राज व्यवस्था नहीं चली.

फिर भी तथाकथित बुद्धिमानो !!! मनुस्मृति जलाना आपका हक है, जलाईये, मगर कागज को जलाने से दलितों की स्थिति में परिवर्तन नहीं होगा. दलितों की स्थिति सुधरेगी –  उन्हें  कौशल देने से, उनको रोजगार देने से, उनकी अर्थ व्यवस्था मजबूत करने से. क्या मनुस्मृति जलाने वाले लोग दलितों के लिए ऐसा कभी करते हैं?

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बसंत उत्सव



प्राकट्येन सरस्वत्या वसंत पंचमी तिथौ
विद्या जयंती सा तेन लोके सर्वत्र कथ्यते॥

वसंत पंचमी तिथि में भगवती सरस्वती का प्रादुर्भाव होने के कारण संसार में सर्वत्र इसे विद्या जयंती कहा जाता है.

सरस्वती विद्या और बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं. भगवती सरस्वती के जन्म दिन पर अनेक अनुग्रहों के लिए कृतज्ञता भरा अभिनंदन करें. उनकी कृपा का वरदान प्राप्त होने की पुण्य तिथि हर्षोल्लास से मनाएं. माँ सरस्वती के हाथ में पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है. यह व्यक्ति की आध्यात्मिक एवं भौतिक प्रगति के लिए स्वाध्याय की अनिवार्यता की प्रेरणा देता है.

विद्या मनुष्य के व्यक्तित्व के निखार एवं गौरवपूर्ण विकास के लिए है. पुस्तक के पूजन के साथ-साथ ज्ञान वृद्धि की प्रेरणा ग्रहण करने और उसे इस दिशा में कुछ कदम उठाने का साहस करना चाहिए. स्वाध्याय हमारे दैनिक जीवन का अंग बन जाए, ज्ञान की गरिमा समझने लग जाएं और उसके लिए मन में तीव्र उत्कण्ठा जाग पड़े तो समझना चाहिए कि पूजन की प्रतिक्रिया ने अंत:करण तक प्रवेश पा लिया.
कर कमलों में वीणा धारण करने वाली भगवती वाद्य से प्रेरणा प्रदान करती हैं कि हमारी हृदय रूपी वीणा सदैव झंकृत रहनी चाहिए. हाथ में वीणा का अर्थ संगीत, गायन जैसी भावोत्तेजक प्रक्रिया को अपनी प्रसुप्त सरसता सजग करने के लिए प्रयुक्त करना चाहिए. हम कला प्रेमी बनें, कला पारखी बनें, कला के पुजारी और संरक्षक भी.

माता की तरह उसका सात्विक पोषण पयपान करें. कुछ भावनाओं के जागरण में उसे संजोये. जो अनाचारी कला के साथ व्यभिचार करने के लिए तुले हैं, पशु प्रवृत्ति भड़काने और अश्लीलता पैदा करने के लिए लगे हैं उनका न केवल असहयोग करें बल्कि विरोध, भर्त्सना  के अतिरिक्त उन्हें असफल बनाने के लिए भी कोई कसर बाकी न रखें.

मयूर अर्थात मधुरभाषी. हमें सरस्वती का अनुग्रह पाने के लिए उनका वाहन मयूर बनना ही चाहिए. मीठा, नम्र, विनीत, सज्जनता, शिष्टता और आत्मीयता युक्त संभाषण हर किसी से करना चाहिए. प्रकृति ने मोर को कलात्मक, सुसज्जित बनाया है. हमें भी अपनी अभिरुचि परिष्कृत बनानी चाहिए. हम प्रेमी बनें, सौन्दर्य, सुसज्जता, स्वच्छता का शालीनतायुक्त आकर्षण अपने प्रत्येक उपकरण एवं क्रियाकलाप में बनाए रखें. तभी भगवती सरस्वती हमें अपना पार्षद, वाहन, प्रियपात्र मानेंगी.
माँ सरस्वती की प्रतीक प्रतिमा मूर्ति अथवा तस्वीर के आगे पूजा-अर्चना का सीधा तात्पर्य यह है कि शिक्षा की महत्ता को स्वीकार शिरोधार्य किया जाए. उनको मस्तक झुकाया जाए, अर्थात मस्तक में उनके लिए स्थान दिया जाए. सरस्वती की कृपा के बिना विश्व का कोई महत्वपूर्ण कार्य सफल नहीं हो सकता.

प्राचीनकाल में जब हमारे देशवासी सच्चे हृदय से सरस्वती की उपासना और पूजा करते थे, तो इस देश को जगद्गुरु की पदवी प्राप्त थी. दूर-दूर से लोग यहां सत्य ज्ञान की खोज में आते थे और भारतीय गुरुओं के चरणों में बैठकर विद्या सीखते थे, पर उसके बाद जब यहां के लोगों ने सरस्वती की उपासना छोड़ दी और वे वसंत पर्व को सरस्वती पूजा के बजाय कामदेव की पूजा का त्योहार समझने लगे और उस दिन मदन महोत्सव मानने लगे, तब से विद्या बुद्धि का ह्रास होने लगा और अंत में ऐसा समय भी आया जब यहां के विद्यार्थियों को ही अन्य देशों में जाकर अपने ज्ञान की पूर्ति करनी पड़ी.

ज्ञान की देवी भगवती के इस जन्मदिन पर यह अत्यंत आवश्यक है कि हम पर्व से जुड़ी हुई प्रेरणाओं से जन-जन को जोड़ें. विद्या के इस आदि त्योहार पर हम ज्ञान की ओर बढऩे के लिए नियमित स्वाध्याय के साथ-साथ दूसरों तक शिक्षा का प्रकाश पहुंचाने के लिए संकल्पित हों. विद्या की अधिकाधिक सब जगह अभिवृद्धि देखकर भगवती सरस्वती प्रसन्न होती हैं.

वसंत का त्योहार हमारे के लिए फूलों की माला लेकर खड़ा है. यह उन्हीं के गले में पहनाई जाएगी जो लोग उसी दिन से पशुता से मनुष्यता, अज्ञान से ज्ञान, अविवेक से विवेक की ओर बढऩे का दृढ़ संकल्प करते हैं और जिन्होंने तप, त्याग और अध्यवसाय से इन्हें प्राप्त किया है उनका सम्मान करते हैं. संसार में ज्ञान गंगा को बहाने के लिए भागीरथ जैसी तप-साधना करने की प्रतिज्ञा करते हैं. श्रेष्ठता का सम्मान करने वाला भी श्रेष्ठ होता है. इसीलिए आइए हम इस शुभ अवसर पर उत्तम मार्ग का अनुसरण करें.

– डॉ अशोक कुमार तिवारी

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होमी जहांगीर भाभा : कितनों की मौत के रहस्य दबे पड़े हैं इन फाइलों में!



होमी जहांगीर भाभा वह नाम है, जिसने हिंदुस्तान के परमाणु कार्यक्रम को बुलंदियों पर ले जाने का सपना देखा था. उन्होंने देश के परमाणु कार्यक्रम के भविष्य की ऐसी मजबूत नींव रखी, जिसके चलते भारत आज विश्व के प्रमुख परमाणु संपन्न देशों की कतार में पूरी शान से खड़ा है.

मुंबई में 30 अक्टूबर 1909 को जहांगीर होरमुसजी भाभा और महरबाई के घर में विज्ञान जगत की इस महान विभूति का जन्म हुआ था. महज 25 साल की उम्र में ही कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से परमाणु भौतिकी में पीएचडी की डिग्री प्राप्त की. वे चाहते तो यूरोप या अमेरिका में उच्च वैज्ञानिक पद प्राप्त कर सकते थे लेकिन वे भारत में भौतिकी विज्ञान को नई ऊंचाईयां देने में लग गए.

वह बंगलुरू के इंडियन स्कूल ऑफ साइंस से जुड़ गए. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित सीवी रमन इस संस्थान के प्रमुख थे. यहीं से भाभा के नए सफर की शुरुआत हुई. होमी जहांगीर भाभा का शुरू से मानना था कि परमाणु ऊर्जा देश के लिए काफी फायदेमंद साबित हो सकती है. भाभा मानते थे कि अगर भारत परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आगे बढ़ा तो बिजली की सारी समस्याएं समाप्त हो सकती हैं.

उन्होंने टाटा ट्रस्ट के प्रमुख सर दोराब टाटा से कहा भी था कि हम एक ऐसा संस्थान बनाते हैं, जहां से परमाणु वैज्ञानिक तैयार किए जा सकें. अगर ऐसा संस्थान बना तो आज से दशकों बाद भारत में परमाणु बिजली संयत्र लगाए जाएंगे तब देश को बाहर से लोग नहीं लाने पड़ेंगे. देश में ही काफी वैज्ञानिक तैयार होंगे.

भाभा के नेतृत्व में इंडियन स्कूल ऑफ साइंस में कॉस्मिक किरणों पर रिसर्च की गई. उस दौरान देश में कॉस्मिक किरणों पर रिसर्च के लिए अच्छी सुविधाएं नहीं थीं. भाभा ने इसी सेंटर में कॉस्मिक किरण रिसर्च यूनिट की स्थापना की. इसके बाद भौतिक विज्ञान की दिशा में भाभा नए-नए आयाम छूते गए. उन्होंने बंबई में जेआरडी टाटा के सहयोग से टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना की.

1948 में उन्होंने भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की और अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व किया. भाभा ने अपना पूरा जीवन भारत में विज्ञान को आगे बढ़ाने में लगा दिया.

भाभा एक महान स्वप्नदृष्टा थे. उन्होंने परमाणु वैज्ञानिक राजा रामन्ना से कहा था, “हमें परमाणु क्षमता रखनी चाहिए. पहले हमें खुद को साबित करना चाहिए, उसके बाद अहिंसा और परमाणु हथियारों से मुक्त विश्व के बारे में बात करनी चाहिए.” परमाणु क्षेत्र में उनके अतुलनीय योगदान को देखते हुए अगर उन्हें ‘परमाणु पुरुष’ कहा जाए, तो गलत नहीं होगा.1953 में जेनेवा में आयोजित विश्व परमाणुविक वैज्ञानिकों के महासम्मेलन में उन्होंन सभापतित्व भी किया था.

डॉ भाभा ने 4 जनवरी 1966 को भारत सरकार को गोपनीय प्रस्ताव भेजा था जिसमें कहा गया था कि भारत सरकार की अनुमति मिलने पर परमाणु वैज्ञानिक दो साल के भीतर परमाणु बम बना सकते हैं. इस प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री सहमत थे , किन्तु सम्भवतः दुर्भाग्यवश PMO के किसी अधिकारी ने यह पत्राचार लीक कर दिया.

दो वर्ष के भीतर भारत के एटम बम बनाने की क्षमता हासिल करने की बात कहने के कुछ ही समय बाद ताशकंत में 11 जनवरी 1966 को रहस्यमय परिस्थितियों में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु होना और 24 जनवरी 1966 को विमान दुर्घटना में भारतीय एटमी कार्यक्रम के जनक होमी जहाँगीर भाभा का मारा जाना अब भी रहस्य बना हुआ है.

डॉ भाभा की मौत को लेकर कहा जाता है कि वे विदेशी ताकतों ( सी आई ऐ , के जी बी ) के साजिश के शिकार हो गये. विदेशी ताकतों को लगता था कि डॉ भाभा के रहते भारत बहुत जल्द ही परमाणु ताकत बन जायेगा. 24 जनवरी 1966 का दिन भारत के इतिहास में एक दुखद दिन के रूप में सामने आया. फ्रांस के मोंट ब्लांक में एक विमान दुर्घटना में उनकी मौत हो गई.

दुर्घटना के वक्त इसमें भाभा समेत 106 यात्री और 11 कर्मी दल के सदस्य सवार थे. दुर्घटना में कुल मिलाकर 117 लोगों की मौत हुई थी. बरसो बाद आल्पस पर्वतारोहियों को विमान का मलबा मिला जिसे उन्होंने फ़्रांस सरकार को सौपा. एक सूटकेस टुकड़े की फोरेंसिक जांच से पता चला था कि उसमे टाइम बम प्लांट किया गया था और एक यात्री जिसका नाम जॉन गिल्बर्ट था उसने बोर्डिंग पास और लगेज पास लिया था लेकिन विमान में नहीं बैठा.

इस तरह भारत के महान सपूत भाभा ने अपना बलिदान दिया. भारत रत्न के हकदार है ड़ॉ होमी जहांगीर भाभा………..

– DrAshok Kumar Tiwari

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कोलाचेल युद्ध में डचों को हराने वाले राजा मार्तण्ड वर्मा : NCERT की इतिहास की पुस्तकों से गायब



डॉ. अशोक तिवारी

Ph.D. in Energy Management

Ashokktiwari@gmail.com

च वर्तमान नीदरलैंड (यूरोप) के निवासी हैं. भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से इन लोगों ने 1605 में डच ईस्ट इंडिया कंपनी बनायीं और ये लोग केरल के मालाबार तट पर आ गए. ये लोग मसाले, काली मिर्च, शक्कर आदि का व्यापार करते थे.

धीरे धीरे इन लोगों ने श्रीलंका, केरल, कोरमंडल, बंगाल, बर्मा और सूरत में अपना व्यवसाय फैला लिया. इनकी साम्राज्यवादी लालसा के कारण इन लोगों ने अनेक स्थानों पर किले बना लिए और सेना बनायीं. श्रीलंका और ट्रावनकोर इनका मुख्य गढ़ था. स्थानीय कमजोर राजाओं को हरा कर डच लोगों ने कोचीन और क्विलोन (quilon) पर कब्ज़ा कर लिया.

उन दिनों केरल छोटी छोटी रियासतों में बंटा हुआ था. मार्तण्ड वर्मा एक छोटी सी रियासत वेनाद का राजा था.  दूरदर्शी मार्तण्ड वर्मा ने सोचा कि यदि मालाबार (केरल) को विदेशी शक्ति से बचाना है तो सबसे पहले केरल का एकीकरण करना होगा. उसने अत्तिंगल, क्विलोन (quilon) और कायामकुलम रियासतों को जीत कर अपने राज्य की सीमा बढाई.

अब उसकी नज़र ट्रावनकोर पर थी जिसके मित्र डच थे. श्रीलंका में स्थित डच गवर्नर इम्होफ्फ़ (Gustaaf Willem van Imhoff) ने मार्तण्ड वर्मा को पत्र लिख कर कायामकुलम पर राज करने पर अप्रसन्नता दर्शायी. इस पर मार्तण्ड वर्मा ने जबाब दिया कि ‘राजाओं के काम में दखल देना तुम्हारा काम नहीं, तुम लोग सिर्फ व्यापारी हो और व्यापार करने तक ही सीमित रहो’.

कुछ समय बाद मार्तण्ड वर्मा ने ट्रावनकोर पर भी कब्ज़ा कर लिया. इस पर डच गवर्नर इम्होफ्फ़ ने कहा कि मार्तण्ड वर्मा ट्रावनकोर खाली कर दे वर्ना डचों से युद्ध करना पड़ेगा. मार्तण्ड वर्मा ने उत्तर दिया कि ‘अगर डच सेना मेरे  राज्य में आई तो उसे पराजित किया जाएगा और मै यूरोप पर भी आक्रमण का विचार कर रहा हूँ’.  [‘I would overcome any Dutch forces that were sent to my  kingdom, going on to say that I am considering an invasion of Europe’- Koshy, M. O. (1989). The Dutch Power in Kerala, 1729-1758) ]

डच गवर्नर इम्होफ्फ़ ने पराजित ट्रावनकोर राजा की पुत्री स्वरूपम को ट्रावनकोर का शासक घोषित कर दिया. इस पर मार्तण्ड वर्मा ने मालाबार में स्थित डचों के सारे किलों पर कब्ज़ा कर लिया.

अब डच गवर्नर इम्होफ्फ़ की आज्ञा से मार्तण्ड वर्मा पर आक्रमण करने श्रीलंका में स्थित और बंगाल, कोरमंडल, बर्मा से बुलाई गयी 50000 की विशाल डच जलसेना लेकर कमांडर दी-लेननोय कोलंबो से ट्रावनकोर की राजधानी पद्मनाभपुर के लिए चला. मार्तण्ड वर्मा ने अपनी वीर नायर जलसेना का नेतृत्व स्वयं किया और डच सेना को कन्याकुमारी के पास कोलाचेल के समुद्र में घेर लिया.

कई दिनों के भीषण समुद्री संग्राम के बाद 31 जुलाई 1741 को मार्तण्ड वर्मा की जीत हुई. इस युद्ध में लगभग 11000 डच सैनिक बंदी बनाये गए, शेष डच सैनिक युद्ध में हताहत हो गए.

डच कमांडर दी-लेननोय, उप कमांडर डोनादी तथा 24 डच जलसेना टुकड़ियों के कप्तानो को हिन्दुस्तानी सेना ने बंदी बना लिया और राजा मार्तण्ड वर्मा के सामने पेश किया. राजा ने जरा भी नरमी न दिखाते हुए उनको आजीवन कन्याकुमारी के पास उदयगिरी किले में कैदी बना कर रखा.

अपनी जान बचाने के लिए इनका गवर्नर इम्होफ्फ़ श्रीलंका से भाग गया. पकडे गए 11000 डच सैनिकों को नीदरलैंड जाने और कभी हिंदुस्तान न आने की शर्त पर वापस भेजा गया, जिसे नायर जलसेना की निगरानी में अदन तक भेजा गया, वहां से डच सैनिक यूरोप चले गए.

कुछ वर्षों बाद कमांडर दी-लेननोय और उप कमांडर डोनादी को राजा ने इस शर्त पर क्षमा किया कि वे आजीवन राजा के नौकर बने रहेंगे तथा उदयगिरी के किले में राजा के सैनिकों को प्रशिक्षण देंगे. इस तरह नायर सेना यूरोपियन युद्ध कला में निपुण हुई. उदयगिरी के किले में कमांडर दी-लेननोय की मृत्यु हुई, वहां आज भी उसकी कब्र है.

केरल और तमिलनाडु के बचे खुचे डचों को पकड़ कर राजा मार्तण्ड सिंह ने 1753 में उनको एक और संधि करने पर विवश किया जिसे मवेलिक्कारा की संधि कहा जाता है. इस संधि के अनुसार डचों को इंडोनेशिया से शक्कर लाने और काली मिर्च का व्यवसाय करने की इजाजत दी जायेगी और बदले में डच लोग राजा को यूरोप से उन्नत किस्म के हथियार और गोला बारूद ला कर देंगे.

राजा  ने कोलाचेल में विजय स्तम्भ लगवाया और बाद में भारत सरकार ने वहां शिला पट्ट लगवाया.

मार्तण्ड वर्मा की इस विजय से डचों का भारी नुकसान हुआ और डच सैन्य शक्ति पूरी तरह से समाप्त हो गयी. श्रीलंका, कोरमंडल, बंगाल, बर्मा एवं सूरत में डचो की ताकत क्षीण हो गयी.

राजा मार्तण्ड वर्मा ने छत्रपति शिवाजी से प्रेरणा लेकर अपनी सशक्त जल सेना बनायीं थी.

तिरुवनन्तपुरम का प्रसिद्द पद्मनाभस्वामी मंदिर राजा मार्तण्ड वर्मा ने बनवाया और अपनी सारी संपत्ति मंदिर को दान कर के स्वयं भगवान विष्णु के दास बन गए. इस मंदिर के 5 तहखाने खोले गए जिनमे बेशुमार संपत्ति मिली. छठा तहखाना खोले जाने पर अभी रोक लगी हुई है.

यह दुख की बात है कि महान राजा मार्तण्ड वर्मा और कोलाचेल के युद्ध को NCERT की इतिहास की पुस्तकों में कोई जगह न मिल सकी.

1757 में अपनी मृत्यु से पूर्व दूरदर्शी राजा मार्तण्ड वर्मा ने अपने पुत्र राजकुमार राम वर्मा को लिखा था – ‘जो मैंने डचों के साथ किया वही बंगाल के नवाब को अंग्रेजों के साथ करना चाहिए. उनको बंगाल की खाड़ी में युद्ध कर के पराजित करें, वर्ना एक दिन बंगाल और फिर पूरे हिंदुस्तान पर अंग्रेजो का कब्ज़ा हो जाएगा’.