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नेताजी सुभाषचंद्र बोस


नेताजी सुभाषचंद्र बोस भारत के महान नेता थे। उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए आजाद हिंद फौज(भारत की आर्मी) की स्थापना की थी, जिसके भय से ब्रिटिश हुकुमत भारत को छोड़ने के अपने दिन गिनने लगी थी। नेताजी प्रखर वक्ता भी थे, उनके भाषण उस समय भी युवाओं का जोश भरते थे और आज भी हमारे लिए प्रेरणा का महान स्रोत हैं। जानिए कौन सा भाषण था नेताजी का जो ऐतिहासक माना जाता है।।

सन् 1941 में कोलकाता से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अपनी नजरबंदी से भागकर ठोस स्थल मार्ग से जर्मनी पहुंचे, जहां उन्होंने भारत सेना का गठन किया। जर्मनी में कुछ कठिनाइयां सामने आने पर जुलाई 1943 में वे पनडुब्बी के जरिए सिंगापुर पहुंचे। सिंगापुर में उन्होंने आजाद हिंद सरकार (जिसे नौ धुरी राष्ट्रों ने मान्यता प्रदान की) और इंडियन नेशनल आर्मी का गठन किया। मार्च एवं जून 1944 के बीच इस सेना ने जापानी सेना के साथ भारत-भूमि पर ब्रिटिश सेनाओं का मुकाबला किया। यह अभियान अंत में विफल रहा, परंतु बोस ने आशा का दामन नहीं छोड़ा। जैसा कि यह भाषण उद्घाटित करता है, उनका विश्वास था कि ब्रिटिश युद्ध में पीछे हट रहे थे और भारतीयों के लिए आजादी हासिल करने का यही एक सुनहरा अवसर था। यह शायद बोस का सबसे प्रसिद्ध भाषण है। इंडियन नेशनल आर्मी के सैनिकों को प्रेरित करने के लिए आयोजित सभा में यह भाषण दिया गया, जो अपने अंतिम शक्तिशाली कथन “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा” के लिए प्रसिद्ध है।

दोस्तों! बारह महीने पहले पूर्वी एशिया में भारतीयों के सामने ‘संपूर्ण सैन्य संगठन’ या ‘अधिकतम बलिदान’ का कार्यक्रम पेश किया गया था। आज मैं आपको पिछले साल की हमारी उपलब्धियों का ब्योरा दूंगा तथा आने वाले साल की हमारी मांगें आपके सामने रखूंगा। परंतु ऐसा करने से पहले मैं आपको एक बार फिर यह एहसास कराना चाहता हूं कि हमारे पास आजादी हासिल करने का कितना सुनहरा अवसर है। अंग्रेज एक विश्वव्यापी संघर्ष में उलझे हुए हैं और इस संघर्ष के दौरान उन्होंने कई मोर्चो पर मात खाई है। इस तरह शत्रु के काफी कमजोर हो जाने से आजादी के लिए हमारी लड़ाई उससे बहुत आसान हो गई है, जितनी वह पांच वर्ष पहले थी। इस तरह का अनूठा और ईश्वर-प्रदत्त अवसर सौ वर्षो में एक बार आता है। इसीलिए अपनी मातृभूमि को ब्रिटिश दासता से छुड़ाने के लिए हमने इस अवसर का पूरा लाभ उठाने की कसम खाई है।

हमारे संघर्ष की सफलता के लिए मैं इतना अधिक आशावान हूं, क्योंकि मैं केवल पूर्व एशिया के 30 लाख भारतीयों के प्रयासों पर निर्भर नहीं हूं। भारत के अंदर एक विराट आंदोलन चल रहा है तथा हमारे लाखों देशवासी आजादी हासिल करने के लिए अधिकतम दु:ख सहने और बलिदान देने के लिए तैयार हैं। दुर्भाग्यवश, सन् 1857 के महान् संघर्ष के बाद से हमारे देशवासी निहत्थे हैं, जबकि दुश्मन हथियारों से लदा हुआ है। आज के इस आधुनिक युग में निहत्थे लोगों के लिए हथियारों और एक आधुनिक सेना के बिना आजादी हासिल करना नामुमकिन है। ईश्वर की कृपा और उदार नियम की सहायता से पूर्वी एशिया के भारतीयों के लिए यह संभव हो गया है कि एक आधुनिक सेना के निर्माण के लिए हथियार हासिल कर सकें।

इसके अतिरिक्त, आजादी हासिल करने के प्रयासों में पूर्वी एशिया के भारतीय एकसूत्र में बंधे हुए हैं तथा धार्मिक और अन्य भिन्नताओं का, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत के अंदर हवा देने की कोशिश की, यहां पूर्वी एशिया में नामोनिशान नहीं है। इसी के परिणामस्वरूप आज परिस्थितियों का ऐसा आदर्श संयोजन हमारे पास है, जो हमारे संघर्ष की सफलता के पक्ष में है – अब जरूरत सिर्फ इस बात की है कि अपनी आजादी की कीमत चुकाने के लिए भारती स्वयं आगे आएं। ‘संपूर्ण सैन्य संगठन’ के कार्यक्रम के अनुसार मैंने आपसे जवानों, धन और सामग्री की मांग की थी। जहां तक जवानों का संबंध है, मुझे आपको बताने में खुशी हो रही है कि हमें पर्याप्त संख्या में रंगरूट मिल गए हैं। हमारे पास पूर्वी एशिया के हर कोने से रंगरूट आए हैं – चीन, जापान, इंडोचीन, फिलीपींस, जावा, बोर्नियो, सेलेबस, सुमात्रा, मलाया, थाईलैंड और बर्मा से।

आपको और अधिक उत्साह एवं ऊर्जा के साथ जवानों, धन तथा सामग्री की व्यवस्था करते रहना चाहिए, विशेष रूप से आपूर्ति और परिवहन की समस्याओं का संतोषजनक समाधान होना चाहिए। हमें मुक्त किए गए क्षेत्रों के प्रशासन और पुनर्निर्माण के लिए सभी श्रेणियों के पुरुषों और महिलाओं की जरूरत होगी। हमें उस स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए, जिसमें शत्रु किसी विशेष क्षेत्र से पीछे हटने से पहले निर्दयता से ‘घर-फूंक नीति’ अपनाएगा तथा नागरिक आबादी को अपने शहर या गांव खाली करने के लिए मजबूर करेगा, जैसा उन्होंने बर्मा में किया था। सबसे बड़ी समस्या युद्धभूमि में जवानों और सामग्री की कुमुक पहुंचाने की है। यदि हम ऐसा नहीं करते तो हम मोर्चो पर अपनी कामयाबी को जारी रखने की आशा नहीं कर सकते, न ही हम भारत के आंतरिक भागों तक पहुंचने में कामयाब हो सकते हैं।
आपमें से उन लोगों को, जिन्हें आजादी के बाद देश के लिए काम जारी रखना है, यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि पूर्वी एशिया – विशेष रूप से बर्मा – हमारे स्वातंय संघर्ष का आधार है। यदि यह आधार मजबूत नहीं है तो हमारी लड़ाकू सेनाएं कभी विजयी नहीं होंगी। याद रखिए कि यह एक ‘संपूर्ण युद्ध है – केवल दो सेनाओं के बीच युद्ध नहीं है। इसलिए, पिछले पूरे एक वर्ष से मैंने पूर्व में ‘संपूर्ण सैन्य संगठन’ पर इतना जोर दिया है। मेरे यह कहने के पीछे कि आप घरेलू मोर्चे पर और अधिक ध्यान दें, एक और भी कारण है। आने वाले महीनों में मैं और मंत्रिमंडल की युद्ध समिति के मेरे सहयोगी युद्ध के मोरचे पर-और भारत के अंदर क्रांति लाने के लिए भी – अपना सारा ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं।

इसीलिए हम इस बात को पूरी तरह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि आधार पर हमारा कार्य हमारी अनुपस्थिति में भी सुचारु रूप से और निर्बाध चलता रहे। साथियों एक वर्ष पहले, जब मैंने आपके सामने कुछ मांगें रखी थीं, तब मैंने कहा था कि यदि आप मुझे ‘संपूर्ण सैन्य संगठन’ दें तो मैं आपको एक ‘एक दूसरा मोरचा’ दूंगा। मैंने अपना वह वचन निभाया है। हमारे अभियान का पहला चरण पूरा हो गया है। हमारी विजयी सेनाओं ने निप्योनीज सेनाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर शत्रु को पीछे धकेल दिया है और अब वे हमारी प्रिय मातृभूमि की पवित्र धरती पर बहादुरी से लड़ रही हैं।

अब जो काम हमारे सामने हैं, उन्हें पूरा करने के लिए कमर कस लें। मैंने आपसे जवानों, धन और सामग्री की व्यवस्था करने के लिए कहा था। मुझे वे सब भरपूर मात्रा में मिल गए हैं। अब मैं आपसे कुछ और चाहता हूं। जवान, धन और सामग्री अपने आप विजय या स्वतंत्रता नहीं दिला सकते। हमारे पास ऐसी प्रेरक शक्ति होनी चाहिए, जो हमें बहादुर व नायकोचित कार्यो के लिए प्रेरित करें। सिर्फ इस कारण कि अब विजय हमारी पहुंच में दिखाई देती है, आपका यह सोचना कि आप जीते-जी भारत को स्वतंत्र देख ही पाएंगे, आपके लिए एक घातक गलती होगी।

यहां मौजूद लोगों में से किसी के मन में स्वतंत्रता के मीठे फलों का आनंद लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए। एक लंबी लड़ाई अब भी हमारे सामने है। आज हमारी केवल एक ही इच्छा होनी चाहिए – मरने की इच्छा, ताकि भारत जी सके; एक शहीद की मौत करने की इच्छा, जिससे स्वतंत्रता की राह शहीदों के खून बनाई जा सके। साथियों, स्वतंत्रता के युद्ध में मेरे साथियो! आज मैं आपसे एक ही चीज मांगता हूं, सबसे ऊपर मैं आपसे अपना खून मांगता हूं। यह खून ही उस खून का बदला लेगा, जो शत्रु ने बहाया है। खून से ही आजादी की कीमत चुकाई जा सकती है। तुम मुझे खून दो और मैं तुम से आजादी का वादा करता हूं।

“तुम मुझे खून दो और मैं तुम्हें आजादी दूँगा।”

संजय कुमार's photo.
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क्या आप जानते हैं राज्यसभा में सबसे पहला सवाल स्वामी ने किससे और क्या पूछा था?


करीब दो दशक बाद डा सुब्रहमनियन स्वामी संसद में एक सांसद के रूप पहुंचें। पहली बार 1974 में जनसंघ ने डा स्वामी को राज्यसभा भेजा था।

क्या आप जानते हैं राज्यसभा में सबसे पहला सवाल स्वामी ने किससे और क्या पूछा था?
डा स्वामी ने पहला सवाल प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से पूछा था और वो प्रश्न उनकी बहु सोनिया गांधी से जुड़ा था। डा स्वामी ने पूछा था कि आपकी बहु के पास इटालियन (विदेशी) नागरिकता है, फिर आपने उन्हें जनरल इंश्योरेंस कंपनी की एजेंसी कैसे दे दी? जबकि यह केवल भारतीय नागरिकों को ही मिल सकता है! यह साफ तौर पर फेरा का उल्लंघन है! स्वामी ने संसद के अंदर वो सारे दस्तावेज पेश किए, जिससे साबित होता था कि सोनिया के पास उस समय तक इटली की नागरिकता थी!

स्वामी जी के इस सवाल पर इंदिरा गांधी संसद के अंदर बौखला उठी। कांग्रेसी सांसदों ने हंगामा मचा दिया! संसद को ठप कर दिया!

इंदिरा ने इसे खुद पर व्यक्तिगत हमला बताया। लेकिन अगले दिन इंदिरा ने सच को स्वीकार किया और कहा कि मुझसे गलती हो गई। डा स्वामी द्वारा इस बारे में बताए जाने पर, सोनिया गांधी के इंश्योरेंस की एजेंसी निरस्त कर दी गई है! उस दिन पहली बार संसद के अंदर इंदिरा की स्वीकृति के कारण सोनिया गांधी बेनकाब हुई!

सोचिए, इस बार तो डा स्वामी के निशाने पर सीधे सोनिया-राहुल हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम, रामसेतु, नेशनल हेराल्ड मामले में संसद के बाहर रह कर स्वामी ने सोनिया गांधी सहित पूरे कांग्रेस के अहंकार को मसला है। अब तो वह संसद के अंदर हैं! सांसद के रूप में अपने पहले सवाल से सोनिया का बिजनस छीनने वाले डा स्वामी, इस बार क्या छीनते हैं , जस्ट वेट एंड वाच।

Sanjay Dwivedy's photo.
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India’s Economy During the British Rule


Pankaj Bagaria's photo.
Pankaj Bagaria to INDIAN HISTORY ~ REAL TRUTH

India’s Economy During the British Rule (2)

A. The Bengal Famine of 1770

“… British control of India started with a famine in Bengal in 1770 and ended in a famine – again in Bengal – in 1943. Working in the midst of the terrible 1877 famine that he estimated had cost another 10 million lives, Cornelius Walford calculated that in the 120 years of British rule there had been 34 famines in India, compared with only 17 recorded famines in the entire previous two millennia. One of factors that explained this divergence was the Company’s abandonment of the Mughal system of public regulation and investment. Not only did the Mughals use tax revenues to finance water conservation, thus boosting food production, but when famine struck they imposed ‘embargos on food exports, anti-speculative price regulation, tax relief and distribution of free food’. More brutally, if merchants were found to have short-changed peasants during famines, an equivalent weight in human flesh would be taken from them in exchange.

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अकबर एक चरित्रहीन आक्रांता के सिवाय कुछ भी नही था


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विकास खुराना to हिन्दू देवी देवता ,प्राचीन कथाएँ व सुविचार

बीकानेर के संग्रहालय में लगी यह तस्वीर देश के सभी शहरों के चौराहों पर लगवाई जानी चाहिए, ताकि अकबर को महान घोषित करने वाले और समझने वालों की आँखें खुल सकें,
अकबर एक चरित्रहीन आक्रांता के सिवाय कुछ भी नही था और इस सत्यकथा में यह स्पष्ट है…
राजस्थान वीरों ओर योद्धाओं की धरती है। यहां के रेतीले धोरों का वीरता और शौर्य से बहुत पुराना रिश्ता रहा है। इतिहास आज भी ऐसे वीरों और वीरांगनाओं की कहानी कहता है जिनके त्याग और बलिदान ने इस धरा की शान बढ़ाई।
ऐसी ही कहानियों में एक वीरांगना किरण देवी का जिक्र आता है। कहते हैं कि उसने शहंशाह अकबर को झुकने के लिए मजबूर कर दिया था। अकबर ने किरण देवी से प्राणों की भीख मांगी थी।
इस घटना का संबंध नौरोज मेले से है। यह मेला अकबर आयोजित करता था। ऐसी मान्यता है कि अकबर इस मेले में वेश बदलकर आता और यहां सुंदर महिलाओं की तलाश करता था। एक दिन उसकी नजर मेले में घूम रही किरण देवी पर पड़ी।
वह किसी भी कीमत पर उसे हासिल करना चाहता था। उसने अपने गुप्तचरों से उसका पता मालूम करने को कहा। गुप्तचरों ने बताया कि वह मेवाड़ के महाराणा प्रताप सिंह के छोटे भाई शक्ति सिंह की बेटी है। उसका विवाह बीकानेर के पृथ्वीराज राठौड़ से हुआ है।
अकबर ने पृथ्वीराज को किसी युद्ध के बहाने बाहर भेज दिया और किरण देवी को एक सेविका के जरिए संदेश भेजा कि बादशाह ने आपको बुलाया है। किरण देवी ने बादशाह के हुक्म का पालन किया और वह महल में गई।
वहां जाकर उसे अकबर के इरादों का पता चला। यह देखकर किरण देवी को क्रोध आ गया। जिस कालीन पर अकबर खड़ा था, उसने वह खींचा और बादशाह धराशायी हो गया।
किरण देवी हथियार चलाने और आत्मरक्षा में भी पारंगत थी। वह अकबर की छाती पर बैठ गई और कटारी निकालकर उसकी गर्दन पर रखते हुए बोली- बोलो बादशाह, तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है?
बाजी इतनी जल्दी पलट जाएगी, इसका अंदाजा अकबर को भी नहीं था। वह किरण से माफी मांगने लगा, बोला- किरण, तुम यकीनन दुर्गा हो। मुझे माफ करो। अगर मैं मर गया तो देश में कई समस्याएं हो जाएंगी। मैं कसम खाकर कहता हूं कि अब कभी नौरोज मेला नहीं लगाऊंगा और न कभी किसी महिला के बारे में ऐसी सोच रखूंगा।
अकबर को काफी खरी-खोटी सुनाने के बाद किरण ने उसे माफ कर दिया और चेतावनी देकर वापस अपने महल में आ गई। कहा जाता है कि अकबर ने फिर कभी नौरोज मेला नहीं लगाया। इस घटना का चित्रण राजस्थान के कई कवियों ने किया है।

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महाराज बख्तावर सिंह जी राठोड़ अमझेरा


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विष्णु अरोङा

——-महाराज बख्तावर सिंह जी राठोड़ अमझेरा——–
——–वीर योद्धा 1857 की क्रांति———-

महाराज बख्तावर सिंह मध्य प्रदेश के धार जिले के अन्तर्गत अमझेरा के शासके थे। वे न केवल वीर थे अपितु वीरों का आदर भी करते थे। उनके पूर्वज मूल रूप से जोधपुर (राजस्थान) के राठौड़ वंशीय राजा थे। मुगल सम्राट जहाँगीर ने प्रसन्न होकर उनके वंशजों को अमझेरा का शासक बनाया था। पहले अमझेरा राज्य बहुत बड़ा था, जिसमें भोपावर तथा दत्तीगाँव भी सम्मिलित थे। कालान्तर में अमझेरा, भोपावर और दत्तीगाँव पृथक-पृथक राज्य हो गए। सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के समय अमझेरा के शासक थे महाराणा बख्तावरसिंह। इनके पिता का नाम राव अजीतसिंह और माता का नाम रानी इन्द्रकुँवर था। महाराणा को शिक्षा-दीक्षा एवं अस्त्रों के संचालन का अच्छा प्रशिक्षण दिया गया था। उनके धार तथा इन्दौर के शासकों के साथ अच्छे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। इनकी गतिविधियों पर नियन्त्रण रखने हेतु ही ब्रितानीयों ने यहाँ फौजी छावनी स्थापित की थी और पॉलिटिकल एजेन्ट भी नियुक्त किए थे।

इन्दौर के ए. जी. जी. लेफ्टिनेन्ट एच. एम. डूरंड ने भोपावर एवं सरदारपुर में सैनिक छावनी स्थापित की थी, ताकि अमझेरा राज्य की गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सके।

महाराज बख्तावरसिंह तथा इन्दौर के महाराजा तुकोजीराव होलकर द्वितीय के पास प्रथम स्वतन्त्रता के प्रारम्भ होने की सूचना थी। शीघ्र ही मंगल पाण्डे ने इस विद्रोह को प्रारम्भ कर दिया और इसकी आग मेरठ से दिल्ली तक जा पहुँची। देखते ही देखते इस विद्रोह की आग की लपटें देश में चारों ओर उठने लगीं।

इसी समय इन्दौर के महाराज तुकोजीराव होलकर ने रेजीडेन्सी पर आक्रमण कर दिया। अतः वहाँ का लेफ्टिनेन्ट डूंरड भागकर होशंगाबाद की ब्रिटिश छावनी में चला गया। इस अवसर का लाभ उठाकर महाराणा बख्तावरसिंह की सेना ने भी भोपावर के पॉलिटिकल एजेन्ट पर आक्रमण कर दिया, तांकि उनके जाजूसी के अड्डे को समाप्त किया जा सके। महाराणा ने अपनी सेना संदला के भवानी सिंह एवं अपने दीवान गुलाब राव के नेतृत्व में भेजी थी।

महाराज की सेना के आक्रमण करते ही भोपावर की ब्रिटिश सेना के मालव भील महाराज की सेना में आकर मिल गए। भोपावर की जनता ने भी क्रान्तिकारी सेना का साथ दिया। एजेन्सी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया। अतः वहाँ के ब्रिटिश अधिकारियों एवं सैनिकों को झाबुआ की ओर भागने के लिए विवश होना पड़ा।

महाराज ने अंग्रेज एजेन्सी पर आक्रमण करके अपने राज्य में क्रान्ति का बिगुल बजा दिया था। एक नागरिक मोहनलाल ने ब्रिटिश झण्डा उतारकर अपनी रियासत का झण्डा लगा दिया। महाराज ने अमझेरा राज्य में कम्पनी के शासन को समाप्त कर दिया।

भोपावर के पॉलिटिकल एजेन्ट कैम्पनट एचिसन झाबुआ से भी भागकर इन्दौर पहुँच गए और वहाँ पर अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। जब इन्दौर में क्रान्तिकारियों को कुचल दिया गया, तो होशंगाबाद से लेप्टिनेन्ट डूरंड पुनः इन्दौर आ गए और यह निश्चित् हुआ कि कैप्टन एचिसन को फिर से भोपावर पर अधिकार करने हेतु भेजा जाए।

24 जुलाई, 1857 ई. को एक विशाल सेना के साथ कैप्टन एचिसन ने भोपावर पर आक्रमण कर पुनः अधिकार कर लिया और दीवान गुलाबराव, कामदार भवानीसिंह एवं चिमनलाल को बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया गया। अतः महाराज बख्तावर सिंह ने पुनः भोपावर पर आक्रमण कर दिया। कैप्टन एचिसन के कुछ सैनिक महाराज की सेना में आकर मिल गए और कुछ भाग गए। भोपावर पर फिर क्रान्तिकारी सेना का अधिकार हो गया।

क्रान्तिकारी सेना ने भोपावर के बाद सरदारपुर पर आक्रमण कर दिया, जहाँ ब्रिटिश सेना ने क्रान्तिकारियों पर तोपों से गोले बरसाने शुरू कर दिए, परन्तु महाराज ने सेना की एक टुकड़ी तो वहीं रखी और दूसरी टुकड़ी ने धार व राजगढ़ के क्रान्तिकारियों के सहयोग से नदी की और से सरदारपुर पर भयंकर आक्रमण कर दिया। दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। अन्त में क्रान्तिकारियों की विजय हुई और उन्होंने सरदारपुर पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् क्रान्तिकारी सेना ने धार की ओर प्रस्थान किया, जहाँ के शासक भीमराव भौंसले ने उनका शानदार स्वागत किया।

अब महाराज बख्तावर सिंह के नेतृत्व में क्रान्तिकारी सेना ने महु, मानपुर एवं मंडलेश्वर पर आक्रमण करने का निश्चय किया। इस पर लेफ्टिनेन्ट डूरंड ने महाराज को कहलवाया कि हम अमझेर को स्वतन्त्र राज्य मान लेंगे और अब वहाँ पर कोई पॉलिटिकल एजेन्टच नियुक्त नहीं करेंगे। उसने यह भी कहलवाया कि आप महू आकर सन्धि की विस्तृत शर्तें निश्चत् कर लें।

महाराज ब्रितानीयों की चालाकी नहीं समझ पाए और वे उनके जाल में फँस गए। वे अपने दस योद्धाओं के साथ सन्धि वार्ता के लिए महू जा पहुँचे, जहाँ डूरंड ने उनका शानदार स्वागत किया।

एक दिन महाराज अपने साथियों के साथ नदी में स्नान करने के लिए गए। उन्होंने हथियार नदी के किनारे रख दिए और स्नान के लिए नदीं में उतर गए। तब छिपे हुए ब्रिटिश सैनिकों ने उनके हथियारों पर कब्जा कर लिया और महाराज को उनके साथियों सहित बन्दी बना लिया गया।

तत्पश्चात् उन पर मुकदमा चलाकर 21 दिसम्बर, 1857 ई. को मृत्यु दण्ड की सजा सुनाई गई।
10 फरवरी, 1858 ई. को इन्दौर के सियागंज स्थित छावनी के मैदान मे महाराज बख्तावर सिंह तथा उनके कुछ साथियों को फाँसी पर लटका दिया गया। स्वाधीनता के ये पुजारी हँसते-हँसते अपनी मातृभूमि के लिए जीवन का बलिदान कर गए।

शत् शत् वीरो को जिन्होने देश निर्माण के लिये सर्वस्व न्योछावर कर दिया