सूर्य एक रूप अनेक !!
हिन्दू धर्म के प्रमुख पांच देवताओं में एक भगवान सूर्य
की शक्ति व स्वरूप की महिमा बताने वाले भविष्य
पुराण में सूर्यदेव को ही परब्रह्म यानी जगत की सृष्टि,
पालन और संहार शक्तियों का स्वामी माना गया है।
पौराणिक मान्यता के मुताबिक ये तीन कार्य
सूर्यदेव 12 स्वरूपों द्वारा पूर्ण करते हैं,जो सूर्य
की 12 मूर्तियों के रूप में पूजनीय है।
ये जगत में अलग-अलग रूपों में स्थित हैं।
इसलिए सूर्य उपासना में सूर्य के साथ इन 12
मूर्तियों का स्मरण सभी सांसारिक सुख और
अत्यंत सफलता देने वाला माना गया है।
सूर्य की इन 12 मूर्तियों के नाम, स्थिति व कार्य –
इन्द्र – यह देवराज होकर सभी दैत्य व दानव
रूपी दुष्ट शक्तियों का नाश करती है।
धाता – यह प्रजापति होकर सृष्टि निर्माण
करती है।
पर्जन्य – यह किरणों में बसकर वर्षा करती है।
पूषा – यह मंत्रों में स्थित होकर जगत का पोषण
व कल्याण करती है।
त्वष्टा – यह पेड-पौधों, जड़ी-बूटियों में बसती है।
अर्यमा – पूरे जगत में बसती है व जगत रक्षक है।
भग – यह धरती और पर्वतों में स्थित है।
विवस्वान् – अग्रि में स्थित हो जीवों के खाए
अन्न का पाचन करती है।
अंशु – चन्द्रमा में बसकर पूरे जगत को
शीतलता प्रदान करती है।
विष्णु – यह अर्धम का नाश करने के लिए
अवतार लेती है।
वरुण – यह समुद्र में बसकर जल द्वारा जगत
को जीवन देती है।
यही कारण है समुद्र का एक नाम वरुणालय भी है।
मित्र – यह चन्द्रभागा नदी के तट पर मित्रवन
नामक स्थान पर स्थित है।
मान्यता है कि सूर्यदेव ने यहां मात्र वायु ग्रहण कर
तपस्या की।
यह मूर्ति जगत के जीवों को मनचाहे वर प्रदान
करती है।
धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक सूर्यदेव उपासना द्वारा
इन 12 मूर्तियों का स्मरण और भक्ति न केवल सभी पापों
से मुक्त करती है,बल्कि पद,प्रतिष्ठा,समृद्धि और वैभव प्रदान
करती है।
जिसके लिये रविवार,संक्रांति तथा छठ पूजा का विशेष महत्व है।
वेदों,स्मृतियों,अनेक पुराणों,रामायण,महाभारत आदि ग्रन्थों में
भगवान भास्कर की महिमा तथा उपासना का विस्तृत वर्णन
मिलता है।
तदनुसार सूर्य भगवान परब्रह्म हैं।
विश्व की आत्मा हैं।
जगत् की उत्पत्ति,पालन एवं प्रलय के कारण होने से
ब्रह्मा-विष्णु-महेश स्वरूप त्रिदेव भी हैं।
सूर्य ही त्रिगुणात्मक ब्रह्म हैं क्योंकि उदयकाल में ब्रह्मस्वरूप
सूर्य ही उपास्य हैं।
कालचक्र (भूत, वर्तमान और भविष्य) के नियामक हैं।
समस्त ऊर्जाओं के केन्द्र हैं।
परोक्ष और प्रत्यक्ष देव भी यही है।
सर्व रोग-दोष-संघ एवं आपदाओं के अपहर्ता हैं,,
‘‘अरोग्यं भास्करादिच्छेत्”।
त्रिलोक (द्यु. अन्तरिक्ष एवं भू) की सकल आकर्षण और
विकर्षण-शक्तियों के कारक हैं-
‘सर्वदेवमयो रवि:’ (सूर्यतापनीयोपनिषद्)।
‘आदित्यहृदय’ में कहा गया है कि –
सर्वदेवात्मको ह्येषे: – श्लोक ७
वैदिक काल में प्रकृति के एक प्रमुख अंग के
रूप में सूर्य की उपासना होती थी।
पुराणों के अनुसार अदिति को धाता,मित्र,अर्यमा, शक्र,वरुण,अंश,भग,विवस्वान्,पूषा,सविता,त्वष्टा
और विष्णु नामक बारह पुत्रों को द्वादशादित्य
अथवा द्वादशात्मन् कहते हैं।
इन सबमें अति गुणशाली होने के कारण विष्णु
सर्वश्रेष्ठ कहलाए।
गीता भी कहती है- ‘आदित्यानामहं विष्णु:।’
नारायणतत्व की मुख्यता होने के कारण सूर्य की
‘सूर्यनारायण’ भी संज्ञा है।
आदित्यहृदय में सूर्य का नारायणरूप ही ध्येय है-
‘ध्येय: सदा सवितृमण्डलमध्यवत्र्ती
नारायण: सरसिजासनसंनिविष्ट :’
इन गुणों से विशिष्ट सूर्य के मानवीय रूप की
कल्पना एवं शिल्पांकन ई. पूर्व तृतीय शताब्दी
से प्रारम्भ हो गया था।
देश और कालभेद से सूर्य के आसन,मुद्रा,परिकर,
अलंकरण,रथ,रथाश्व आदि को लेकर पुराणों में
चित्रण एवं शिल्पांकन की दृष्टि से सूर्य के अनेक
रूप सामने आते हैं।
पुरातत्वों के आधार पर कहा जा सकता है कि
सूर्य की अधिसंख्य मूर्तियां लाल एवं कृष्ण पाषाण
को तराशकर उकेरी गई हैं किन्तु अवान्तर काल में
सूर्य की अनेक कांस्य मूर्तियां भी मिली हैं।
वेदों में सूर्य स्वर्णिम पंखों से युक्त सुन्दर पक्षी
और शुभ्र अश्व के रूप में चित्रित हैं।
पुराणों में सूर्य का रूप अति सुन्दर एवं तेजोमय
वर्णित है किन्तु कुछ पुराणों में उनका वर्ण सिन्दूर
के समान एकदम लाल भी बतलाया गया है।
सूर्य स्थानक (खड़ी) तथा आसनस्थ- दोनों
ही मुद्राओं में वर्णित हैं किन्तु भारत में विविध
स्थानों से सूर्य की जो मूर्तियां मिली हैं,उनमें
स्थानक सूर्य की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है।
किसी-किसी पुराण में सूर्य के विष्णु एवं शिव से
संयुक्त रूप का भी उल्लेख मिलता है।
जिसे ‘रुद्र भास्कर’ कहा गया है।‘
आदित्य हृदय स्तोत्र’ में भी उक्त हुआ है-
‘रौद्राय वपुषे नम:’ – श्लोक 19
सूर्यतापनीयोपषिद् में कहा भी है-
‘एष ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्र एष हि भास्कर:।
त्रिमूत्र्यात्मा त्रिदेवात्मा सर्वदेवमयो रवि:।।’
‘आदित्यहृदय स्तोत्र’ भी कहता है-
‘एष ब्रह्मा च विष्णुश्च: शिव: स्कन्द: प्रजापति:।
– श्लोक 8
सूर्य द्विभुज हैं,कहीं-कहीं चतुर्भुज सूर्य की भी
चर्चा है।
सूर्य विविध अलंकरणों से सुसज्जित हैं।
उनके प्रभामण्डल-युक्त मस्तक के ऊपर छत्र
एवं किरीट मुकुट,कानों में मकरायत कुण्डल,
कण्ठ में हार,स्कन्ध पर उपवीत और उदर में
बन्द तथा भुजाओं में भुजबन्ध सुशोभित हैं।
उनके दोनों हाथों में सनाल विकसित पद्य
(…पद्यहस्तद्वयं वन्दे…।) हैं और चतुर्भुजता
की स्थिति में निचले दोनों हाथ वरद एवं अभय
मुद्रा में हैं।
किन्तु बिना विकल्प के दो हाथों में सनाल पद्य
अवश्य हैं।
पद्य से बढ़कर सूर्य का कोई प्रतीक हो ही नहीं
सकता क्योंकि सूर्य के उदय और अस्त के साथ
ही कमल का विकास एवं संकुचन होता है।
कहीं-कहीं सूर्य की दोनों भुजाओं में घुटने
के नीचे तक लटकता उत्तरीय का भी वर्णन
मिलता है।
किसी-किसी पुराण में सूर्य के सफेद दाढ़ी एवं
कवच धारण करने का भी उल्लेख मिलता है।
सूर्य के परिकरों में पाश्र्वस्थ निक्षुभा या संज्ञा,
सुर्वचला या राज्ञी,उषा,प्रत्यूषा तथा छाया
नामक पांच पत्नियों का उल्लेख है।
विष्णुपुराण के अनुसार विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा
के साथ सूर्य का विवाह हुआ किन्तु संज्ञा सूर्य का
प्रचण्ड तेज सहन न कर सकी तथा अपने स्थान
पर अपनी छाया का छोड़कर हिमालय में तपस्या
करने चली गई।
सूर्य के इसी पत्नी से सप्तमी तिथि को देवताओं
के वैद्य अश्विनिकुमारों का जन्म हुआ।
सूर्य की अन्य सन्तानों में यम,मनु,यमुना,ताप्ती, श्रुत,श्रावस,रेवन्त,विश्वत,कर्मण,प्रभात,इलापति,
पिंगलपति का भी उल्लेख प्राप्त होता है।
गहराई से देखने पर ये सभी सन्तानें सूर्य के
विविध कर्मों के प्रतीक भी प्रतीत होते हैं।
पत्नी उषा और प्रत्यूषा का धनुष पर प्रत्यंचा
खींचती हुई अन्धकार रूपी राक्षस के मर्दन-कर्म
में संलग्न रूप का चित्रण है,जो सूर्य की गतिशीलता
को अभिव्यंजित करता है।
पांच पत्नियों के अतिरिक्त सूर्य के परिकरों से परिचारक
दण्ड एवं पिंगल,गन्धर्व,अर्चक तथा शार्दूल का उल्लेख
मिलता है।
सूर्य के दक्षिण भाग में लेखनी और पत्र लिए
पिंगल तथा वाम भाग में दण्ड,चर्म और शूल
लिए दण्डक नामक अनुचर रहता है।
सूर्य के सभी परिकर-वृन्द भी विविध अलंकारों
से सज्जित हैं।
प्रमुख बात यह है कि सूर्य सप्ताश्वों से खींचे
जाते हुए एक चक्रवाले रथ पर आसीन हैं
(रथस्यैकं चक्रं भुजगयमिता: सप्ततुरगा:)
तथा इस रथ को सूर्य का सारथी अरुण
हांकता है।
यह भी एक प्रतीक ही है।
यह सर्वविदित है कि पूर्व दिशा में आकाशीय अरुणिमा
की अगुवाई में ही सूर्य का उदय होता है।
सप्ततुरंग सप्त दिवस अथवा सप्तवर्ण का संकेत करते हैं।
विज्ञान भी बतलाता है कि रवि-रश्मि में सप्त वर्ण
सम्मिलित हैं,
वर्षाकाल में इन्द्रधनुष के वर्णों में इसकी प्रत्यक्षता
मिलती है।
सूर्य रथ के तुरंगों का वर्ण हरित बताया गया है-
हरिदश्व: (आदित्यहृदय-11)
पुराणों में इसका भी उल्लेख है कि रथसप्तमी
(माघशुक्ल सप्तमी) के दिन ही सूर्य का रथ
चक्र चला था।
औदीच्य वेश में कुषाण-सम्राटों के समान
सूर्य को टोपी,चोगा और लम्बे जूते पहने भी
शिल्पांकित किया गया है।
ऐसी प्रतिमा पर विदेशी प्रभाव है।
यह प्रभाव अवान्तर काल में शनै:-शनै: कम
होता गया है।
सूर्य के मानवीय स्वरूप के विशिष्ट अध्ययन के
लिए मत्सय पुराण,अग्नि पुराण,श्रीमद्भागवत,
पुराण,विष्णुधर्मोंत्तर पुराण,साम्ब पुराण,
भविष्य पुराण,वृहत् संहिता,सूर्य पुराण,
आदित्य हृदयस्तोत्र आदि ग्रन्थ देखे जा सकते हैं।
सूर्यदेव इन 12 रूपों में देते हैं अद्भुत शक्ति और ऊर्जा
सूर्य की महिमा बताने वाले हिन्दू धर्मग्रंथ भविष्यपुराण
के मुताबिक सूर्यदेव ही सर्वशक्तिमान ईश्वर है।
सूर्य से ही सृष्टि रचना हुई।
आदित्य को ही पूरे जगत का आधार और सर्वव्यापक
माना गया है।
सूर्यदेव को आदित्य भी पुकारा जाता है।
माना गया है कि आदित्य के कारण ही सारे देवता और
जगत की शक्ति व ऊर्जा संभव है।
ब्रह्मा,विष्णु,महेश भी सूर्यदेव को पूजते हैं।
अग्रि में किया गया होम भी सूर्य को प्राप्त होता है।
सूर्यदेव के कारण ही मिली बारिश और अन्न जगत
में प्राण फूंकते हैं।
सारी कालगणना का आधार भी सूर्य हैं।
सूर्य की अद्भुत शक्तियों और गुणों के बिना संसार
के सारी क्रिया और व्यवहार का नाश हो जाता है।
धार्मिक महत्व की दृष्टि से सूर्यनारायण अपनी
ऐसी शक्तियों द्वारा 12 रूपों में जगत का
कल्याण करते हैं।
ये द्वादश यानी बारह आदित्य के रूप में भी
जाने जाते हैं।
हिन्दू पंचांग के बारह माहों में सूर्य के ये अलग-
अलग 12 रूप अपनी ऊर्जा और शक्ति से जगत
का पालन-पोषण करते हैं।
जानते हैं सूर्य के कल्याणकारी बारह नाम और
बारह आदित्य के माहवार नाम –
सूर्य के बारह नाम हैं – आदित्य,सविता,सूर्य,मिहिर,
अर्क,प्रतापन,मार्तण्ड,भास्कर,भानु,चित्रभानु,दिवाकर
और रवि।
इसी तरह सूर्य के ये बारह रूप अलग-अलग
माहों में उदय होते हैं।
चैत्र माह – विष्णु
वैशाख – अर्यमा
ज्येष्ठ – विवस्वान
आषाढ़ – अंशुमान
श्रावण – पर्जन्य
भाद्रपद – वरुण
आश्विन – इन्द्र
कार्तिक – धाता
मार्गशीर्ष – मित्र
पौष – पूषा
माघ – भग
फाल्गुन – त्वष्टा
सूर्य की प्रतिमा के चरणों के दर्शन न करें।
देवी-देवताओं के दर्शन मात्र से ही हमारे कई
जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और अक्ष्य पुण्य
प्राप्त होता है।
भगवान की प्रतीक प्रतिमाओं के दर्शन से हमारे
सभी दुख-दर्द और क्लेश स्वत: ही समाप्त
हो जाते हैं।
सभी देवी-देवताओं की पूजा के संबंध में अलग-
अलग नियम बनाए गए हैं।
सभी पंचदेवों में प्रमुख देव हैं सूर्य।
सूर्य की पूजा सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने
वाली होती है।
सूर्य देव की पूजा के संबंध में एक महत्वपूर्ण
नियम है बताया गया है कि भगवान सूर्य के
पैरों के दर्शन नहीं करना चाहिए।
इस संबंध में शास्त्रों में एक कथा बताई गई है।
कथा के अनुसार सूर्य देव का विवाह प्रजापति
दक्ष की पुत्री संज्ञा से हुआ।
सूर्य का रूप परम तेजस्वी था,जिसे देख पाना
सामान्य आंखों के लिए संभव नहीं था।
इसी वजह से संज्ञा उनके तेज का सामना नहीं
कर पाती थी।
कुछ समय बाद देवी संज्ञा के गर्भ से तीन संतानों
का जन्म हुआ।
यह तीन संतान मनु,यम और यमुना के नाम से
प्रसिद्ध हैं।
देवी संज्ञा के लिए सूर्य देव का तेज सहन कर
पाना मुश्किल होता जा रहा था।
इसी वजह से संज्ञा ने अपनी छाया को पति सूर्य
की सेवा में लगा दिया और खुद वहां से चली गई।
कुछ समय बाद जब सूर्य को आभास हुआ कि
उनके साथ संज्ञा की छाया रह रही है तब उन्होंने
संज्ञा को तुरंत ही बुलवा लिया।
इस तरह छोड़कर जाने का कारण पूछने पर संज्ञा
ने सूर्य के तेज से हो रही परेशानी बता दी।
देवी संज्ञा की बात को समझते हुए उन्होंने देवताओं
के शिल्पकार विश्वकर्मा से निवेदन किया कि वे उनके
तेज को किसी भी प्रकार से सामान्य कर दे।
विश्वकर्मा ने अपनी शिल्प विद्या से एक चाक
बनाया और सूर्य को उस पर चढ़ा दिया।
उस चाक के प्रभाव से सूर्य का तेज सामान्य
हो गया।
विश्वकर्मा ने सूर्य के संपूर्ण शरीर का तेज तो कम
दिया परंतु उनके पैरों का तेज कम नहीं कर सके
और पैरों का तेज अब भी असहनीय बना हुआ है।
इसी वजह सूर्य के चरणों का दर्शन वर्जित कर
दिया गया।
ऐसा माना जाता है कि सूर्य के चरणों के दर्शन से
दरिद्रता प्राप्त होती है और पाप की वृद्धि होती है,
पुण्य कम होते हैं।
—-#साभार_संकलित;
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ऊं घृणिं सूर्य्य: आदित्य:
ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय सहस्रकिरणराय
मनोवांछित फलम् देहि देहि स्वाहा।।
ॐ ऐहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजो राशे जगत्पते,
अनुकंपयेमां भक्त्या,गृहाणार्घय दिवाकर:।
ॐ ह्रीं घृणिः सूर्य आदित्यः क्लीं ॐ ।
ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय नमः ।
समस्त चराचर प्राणियों एवं सकल विश्व का
कल्याण करो भगवान भाष्कर !!
जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,,
जयति पुण्य भूमि भारत,,,
सदा सर्वदा सुमंगल,,,
ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय नमः
जय भवानी,,
जय श्री राम