Historical Research on the use of word
“Rajput”for Kshatriyas .क्षत्रियों के लिए
राजपूत शब्द के प्रयोग का ऐतिहासिक शोध ।
राजपूत शब्द का उच्चारण करते ही “राजपुताना
“स्म्रति पटल पर तुरंत ही आ जाता है ।
राजपुताना राजपूत जाति का मुख्य केंद्र था ।
भारतवर्ष के इतिहास में राजपूत जाति और
राजपुताना का एक विशेष स्थान है ।इस समय
भी राजपूत हिन्दुस्तान की वीर जातियों में
माने जाते है ।ईसा की शताब्दी से पूर्व
राजपूतों को “क्षत्रिय “नाम से पुकारते थे और
हिन्दुओं में साहसी व् पराक्रमी जाति भी यही
थी जिसके हाथ में हिंदुस्तान भर की सत्ता थी
और जिससे अरब ,अफगान ,और तुर्क आदि विदेशी
जातियों को उत्तर -पश्चिम भाग से आकर टक्कर
लेनी पडी थी ।
7वीं शताब्दी से लगाकर 18 वीं शताबदी तक
हिंदुस्तान में बड़ा संघर्ष का समय था ।अरब के
आक्रमणकारी मुसलमान योद्धाओं ने प्रथम तो
सिंध में राजूतों से लोहा लिया बाद में महमूद
गजनी ,गौरी ,ख़िलजी वंशों आदि से इनको
दवाने की चेष्टा की ,फिर तुर्क व् मुगलों ने भी ।
उस आपत्ति काल में भी राजपूत अपने देश व्
मातृभूमि की रक्षा के लिए ,आन और स्त्रियों
के मान के लिए ,जीवन न्योछावर करते रहे और
अपना सुवतंत्र जीवन किसी न किसी रूप में
कायम रखा ।दुःख से कहना पड़ता है कि जिस
प्रकार से ब्रिटिशकालमें वीर राजपूतों का
पराभव व् पतन हुआ है वैसा कभी भी नहीं हुआ ।
राजपूतों का आदर्श सिर्फ यही रहा है कि
जीवन संग्राम में विजय पाकर ख्याति के साथ
मारना हमारा धर्म है न कि घर में खटिया पर
जराजीर्ण होकर प्राण छोड़ना ।
मुगलों के अंतिम काल तक हमने राजस्थान की
हवा में उच्चकोटि का वीरत्व देखा था पर वह
यकायक आंगल कला से ऐसा छूमंतर हो गया कि
लिखते दुःख होता है ,इसका मुख्य कारण है
प्राचीन रीति रिवाजों ,आचार विचारों
को छोड़ना।अपनी राज्य पद्धति तथा शिक्षा
की कमी ने भी इसका साथ दिया ।आपस में
जाति भेद आरम्भ होने के कारण एकता का अभाव
हो गया और पारस्परिक युद्ध होने लगे ।इसी
कारण वह कभी विदेशी शक्तिओं से पूर्णतया
लोहा न लेसके और अपनी सुवतंत्रता धीरे धीरे
खो बैठे ।बहु विवाह तथा मद्यपान का रिवाज
इनका पूर्णतया संहार कर बैठा ।इसी कारण बड़े –
बड़े राज्य नस्ट हो गये और होते भी जारहे है ।
प्राचीन ग्रंथों में न तो राजपूत जाति का ही
उल्लेख है और न राजपूताने का ।
रामायण और महाभारत के समय से लेकर चीनी
यात्री हुएनसांग के भारत -भ्रंमन (ई0सन्
629-645 ) तक राजपूत शब्द जाति के अर्थ में
प्रयुक्त नहीं होता था ।प्राचीन इतिहास और
पुराण ग्रंथों में इस जाति के लिए “क्षत्रिय
“शब्द का प्रयुक्त मिलता है तथा वेद और
उपनिषद् काल में “राजन्य”शब्द का प्रयोग देखने
में आता है। सूत्रकाल में कहीं -कहीं क्षत्रियों के
लिए “उग्र”शब्द लिखा गया है ।जैन -ग्रंथों व्
मध्यकालीन (ई0स0600 से 1200 तक )ग्रंथों में भी
राजपूत शब्द नहीं पाया जाता है।
पृथ्वीराजरासो ग्रन्थ में भी -जो विक्रम की
सोलहवीं शताब्दी के आस पास रचा माना
जाता है ,उसमें भी “राजपूत “शब्द जाति वाचक
नहीं ,किन्तु योद्धा के अर्थ में आया है।जैसे
“रजपूत टूट पचासरन जीत समर सेना धनिय ”
“लग्यो सूजाय रजपूत सीस ” “बुड गई सारी
रजपूती “।उस समय राजपूत जाति कोई विशेष
जाति नहीं गिनी जाती थी ।मुसलमानों के
आक्रमणों तक यहां के राजा “क्षत्रिय “ही
कहलाते थे ।जिस प्रकार राजस्थान या
राजपुताना प्रदेश ब्रिटिशकाल की रचना है
(विलियम फ्रेंकलिन ,मिलिट्री मेमआर्स आफ
मिस्टर जार्ज टामस पृष्ठ 347 सन् 1805 ई0 लन्दन
संस्करण ।इसी प्रकार राजपूत का राजपुत्र शब्द
मुगलकालीन शासनकाल के पूर्व के इतिहास
ग्रंथों में नही मिलता है ।हाँ!इनके स्थान पर
क्षत्रिय जाति का उल्लेख पाया जाता है ।
हमारे प्राचीन इतिहास और साहित्य में
क्षत्रिय जाति का वही स्थान है जो इस समय
राजपूत जाति का माना जाता है ।जब
हिंदुस्तान में मुगलों का आक्रमण हुआ और उनकी
अरबी सभ्यता और उनके मत का नया तूफ़ान
आया ,तब उस वक्त के क्षत्रिय राजाओं नेबड़े
साहस और पराक्रम से अपने प्राणों की बाजी
लगाकर मुकाबला करने का भरसक प्रयत्न किया
,परंतु आपसी फुट के कारण इस तूफान को रोकने में
असमर्थ रहे ।परिणाम यह हुआ कि मुगलों का
सिक्का भारत पर बैठ गया जिन्होंने इस देश के
पूर्व राजाओं का नाम “सामंत या राजपुत्र
“रक्खा।
राजपुत्र शब्द का अर्थ “राजकीय वंश में पैदा हुआ
“है ।इसी का अपभ्रंश “राजपूत “शब्द है जो बाद
में धीरे धीरे मुग़ल बादशाहों के अहद से या कुछ
पहले 14 वीं शताब्दी से ,बोल चाल में क्षत्रिय
शब्द के स्थान पर व्यवहार में आने लगा ।इससे पहले
राजपूत शब्द का प्रयोग जाति के अर्थ में कहीं
नही पाया जाता है ।अतः राजपूत कोई
जाति नही थी ।मुसलामानों के समय में धीरे
धीरे यह शब्द जाति वाचक बन गया ।
राजपुताना प्रान्त इन क्षत्रिय वीरों का
प्रधान राज्य गिना जाने लगा ।इसके बाद
जितनी शासन करने वाली शाखाएं फैलीं
,उनका सम्बन्ध राजस्थान की मूलशाखा से
किसी न किसी रूप में अवश्य है ।
“राजपूत “या रजपूत”शब्द संस्कृत के “राजपुत्र”का
अपभ्रंश अर्थात लौकिक रूप है। ।प्राचीनकाल में
“राजपुत्र”शब्द जाति वाचक नहीं ,किन्तु
क्षत्रिय राजकुमारों या राजवंशियों का सूचक
था ,क्यों क़ि बहुत प्राचीन काल से प्रायः
सारा भारतवर्ष क्षत्रिय वर्ण के अधीन था ।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र ,कालिदास के काव्य
और नाटकों ,अश्वघोष के ग्रंथों ,बाणभट्ट के
हर्षचरित तथा कादंबरी आदि पुस्तकों एवं
प्राचीन शिलालेखों तथा दानपात्रों में
राजकुमारों और राजवंशियों के लिए “राजपुत्र
“शब्द का प्रयोग होना पाया जाता है ।देश
का शासन क्षत्रिय जाति के ही हाथों में
रहता था ।अतः इसी जाति के लोगों का
नाम मुगलकाल में जाकर लगभग 14 वीं शताब्दी में
“राजपूत”हो गया ।पुराणों में केवल राजपुत्र शब्द
आता है।
क्षत्रिय वर्ण वैदिक काल से इस देश पर शासन
करता रहा और आर्यों की वर्णव्यवस्था के
अनुसार प्रजा का रक्षण करना ,दान देना ,यज्ञ
करना ,वेदादि शास्त्रों का अध्ययन करना और
विषयासक्ति में न पड़ना आदि क्षत्रियों के
धर्म या कर्म माने जाते थे।मुगलों के समय से वही
क्षत्रिय जाति “राजपूत “कहलाने लगी
lप्राचीन ग्रंथों में राजपूतों के लिए राजपुत्र
,राजन्य ,बाहुज आदि शब्द मिलते है। यजुर्वेद जो
स्वयं ईश्वरकृत है ,में भी राजपूतों की खूब चर्चा हुई
है।
ब्रध्यतां राजपुत्राश्च बाहू राजन्य कृत :।
बध्यतां राजपुत्राणां क्रन्दता मित्तेरम्।।
इसके बाद पुराणों में सूर्य और चन्द्रवंश जो
राजपूतों के वंश है की उत्तपति भी क्षत्रियों से
मानी गयी है ।
चंद्रादित्य मनुनांच् प्रवराः क्षत्रियाः
स्मतः ।
बाण के हर्षचरित में भी राजपुत्र शब्द का प्रयोग
हुआ है।बाण लिखता है —
अभिजात राजपुत्र प्रेष्यमान कुप्यमुक्ता कुल
कुलीन
कुलपुत्र वाहने ।
अर्थात सेना के साथ अभिजात राजपूतों
द्वारा भेजे गए पीतल के पत्रों से मढे वाहनों में
कुलीन राजपुत्रों की स्त्रियां जा रहीं है ।
अतः राजपूत प्राचीन आर्य क्षत्रियों की
संतान है ।यदि प्राचीन इतिहास के पन्नें पलटे
जायं तो स्थान -स्थान पर यह वर्णन मिलेगा
कि राजपूतों ने शकों ,हूणों से अनेक बार युद्ध
किये और उनसे देश ,धर्म तथा संस्कृति की रक्षा
की ,किन्तु आधुनिक इतिहासकारों ने अपनी
कल्पना और अनुमान के आधार पर उन्हें उन्हीं की
संतान बना दिया ।
सोलह संस्कारों को धारण करना राजपूतों के
लिए अनिवार्य था ।राजपूत अपने गुणों ,वीरता
,साहस ,त्याग ,अतिथि सेवा तथा शरणागत
वत्सलता ,प्रजावत्सलता ,अनुशासनप्रियता
,युद्धप्रियता आदि गुणों के साथ -साथ
ब्राह्मणों के क्षमा ,दया ,उदारता
,सहनशीलता ,विद्वता आदि गुणों को भी
धारण करना होता था ।इसी से भ्रांत होकर
कई इतिहासकारों ने राजपूतों को ब्राह्मणों
की संतान मान लिया है ,किन्तु जैसा कि
इस्पस्ट हो चूका है कि ये ऋषी बाह्मण नही थे
,बल्कि वैदिक ऋषी थे और क्षत्रिय तथा
ब्राह्मणों दोनों के पूर्वज थे ,क्यों कि वर्ण –
व्यवस्था तो उस युग के बहुत बाद वैवस्वत मनु ने
आरम्भ की थी ।
यूरोपियन विद्धवान जैसे नेसफील्ड ,इबटसन
राजपूतों को प्राचीन आर्यों की संतान मानते
हुए कहते है ,”राजपूत लोग आर्य है और वे उन
क्षत्रियों की संतान है जो वैदिक काल से भारत
में शासन कर रहे है ।” मि0 टेलवीय हीव्लर ,
‘भारत के इतिहास ‘में लिखते है “राजपूत जाति
भारतवर्ष में सबसे कुलीनब और स्वाभिमानी है
“।कई इतिहासकारों ने ये सिद्ध किया है कि
राजपूत विशुद्ध आर्यों की संतान है और उनकी
शारीरिक बनावट ,गुण ,और स्वभाव प्राचीन
क्षत्रियों के समान है ।कालिदास रघुवंश में
लिखते है :
क्षत्रतिक ल त्रायत इत्युद्ग्र क्षत्रस्य शब्दों
भुवणेषु रूढ़:।
राज्मेंन किं कादिवप्रीत वरतेः प्राणैरुप
कोशमलीन सर्वा :।।
अर्थात विश्व को आंतरिक और बाह्य
अत्याचारों जैसे शोषण ,भूख ,अज्ञान ,अनाचार
,तथा शत्रु द्वारा पहुंचाई गयी जन -धन की
हानि से बचाने बाला क्षत्रिय है ।इसके
विपरीत कार्य करने वाला न तो क्षत्रिय
कहलाने का अधिकारी है और न ही वह शासन
करने का अधिकारी हो सकता है ।क्षत्रियों के
गुण -कर्म तथा स्वभावों का मनुसमृति में वर्णन
करते हुए स्वयं मनु जी कहते है :
प्रजानों रक्षा दान मिज्याध्ययन मेथ च ।
विषयेतवन सकितश्च क्षत्रियस्य समास्त :।।
अर्थात न्याय से प्रजा की रक्षा करना ,सबसे
प्रजा का पालन करना ,विद्या ,धर्म की
प्रवर्ति और सुपात्रों की सेवा में धन का व्यय
करना ,अग्निहोत्री यज्ञ करना व् कराना
,शास्त्रों का पठन ,और पढ़ाना ,जितेन्द्रिय
रहकर शरीर और आत्मा को बलवान बनाना ,ये
क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म है ।
श्रीमद् भगवदगीता में क्षत्रियों के गुणों और
कर्मों का वर्णन करते हुये श्री कृष्ण अर्जुन को
कहते है :
शौर्य तेजो धृति दक्षिर्य युद्धे चाप्याप्लायनम
।
दानमीश्वर भावस्य क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।।
अर्थात शौर्य ,तेज ,धैर्य ,दक्षता ,और युद्ध में न
भागने का स्वभाव और दान तथा ईश्वर का भाव
ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण तथा कर्म है ।
देश -धर्म तथा संस्कृति की रक्षा में सर्वस्व
त्याग की भावना ही राजपूतों का सबसे बड़ा
गुण एवं कर्म रहा है ।इसी लिए इस जाति ने
मध्यकाल में सैकड़ों साके और जौहर किये ।
विश्वामित्र जैसे महामुनि .राजा हरिश्चंद्र
जैसे सत्यवादी ,राजा रघु जैसे पराक्रमी ,राजा
जनक जैसे राजषि ,श्री राम जैसे पितृभक्त ,श्री
कृष्ण जैसे कर्मयोगी ,कर्ण जैसे दानी ,मोरध्वज
जैसे त्यागी ,अशोक जैसे प्रजा -वत्सल
,विक्रमादित्य जैसे न्यायकारी ,राजा भोज
जैसे विद्धान ,जयमल जैसे वीर ,प्रताप जैसे देशभक्त
,पृथ्वीराज जैसा साहसी योद्धा ,दुर्गादास
जैसे स्वामीभक्त अनेक वीर इसी जाति की देंन है
।यहाँ तो पालने में जन्मघुटी के साथ ही देश
भक्ति तथा त्याग का पाठ शुरू हो जाता था
।
अपने इन गुण -कर्मों ,स्वभावों तथा पवित्र
परम्पराओं के कारण ही राजपूत सफल मानव ,सच्चे
सेनानी ,तथा कुशल शासक बनते थे ।ये राजपूत
राजा कमल के समान निर्लेप ,सूर्य जैसे तेजस्वी
,चंद्र जैसे शीतल ,तथा पृथ्वी जैसे सहनशील होते
थे ,क्यों कि उनका शासन आत्मत्याग और जौहर
जैसी पावन परम्पराओं पर आधारित होता था
।वे हँसते -हँसते मृत्यु का आलिंगन करना श्रेयस्कर
समझते थे और युद्ध में पीठ दिखाकर भाग जाना
मृत्यु से भी बदतर समझते थे । इस जाति ने समय
समय पर देश ,धर्म और आर्य सभ्यता की रक्षा की
है तथा अपनी मर्यादा व् आन -वान् के लिए
सदा हथेली पर जान भी रखी है ।।इतिहास
बतलाता है कि इस पराक्रमी क्षत्रिय जाति ने
अपने बच्चों सहित शत्रु के साथ लड़कर। अमर यश
प्राप्त किया है ।अल्लाउदीन ख़िलजी के हमले
और चित्तोड़ और रणथंभोर के शाके आज भी
बच्चों की जवान पर है ।इस जाति के प्रत्येक वंश ने
न जाने कितने वीरोचित काम किये है जिनका
वर्णन सुन कर देशी ही नही किन्तु विदेशी
विद्दान भी मुग्ध है जिन्होंने अपने विचार कुछ
इस प्रकार व्यक्त किये ।
राजपूतों की ख्याति का बखान करते हुए
इतिहासवेत्ता कर्नल टॉड नही अघाते ।
“राजस्थान (राजपुताना)में कोई छोटा से
छोटा राज्य भी ऐसा नही है जिसमें
थर्मोपॉलि (ग्रीस स्थित )जैसी रणभूमि न हो
और शायद ही कोई ऐसा नगर मिले जहाँ
लियोनिदास सा वीर पुरुष उत्पन्न न हुआ हो ।”
टॉड अपने राजस्थान के इतिहास की भूमिका में
लिखते है —-
“एक वीर जाति का लगातार कई पीढ़ियों तक
स्वाधीनता के लिए युद्ध आदि करते रहना ,अपने
पूर्वजों के धर्म की रक्षा के लिए अपनी प्रिय
वस्तु की भी हानि सहना और सर्वस्व देकर भी
शौर्य पूर्वक अपने स्वतत्वों और जातीय
स्वतंत्रता को किसी भी प्रकार के लोभ
,लालच में न आकर बचाना ,यह सब मिल कर एक
ऐसा चित्र बनाते है कि जिसका ध्यान करने से
हमारा शरीर रोमांचित हो जाता है ।”
आगेचल कर टॉड राजपूत जाति का चरित्र –
चित्रण इस प्रकार करते है —-
“महान शूरता ,देश भक्ति ,स्वाभिमान
,प्रतिष्ठा ,अथिति सत्कार और सरलता यह गुण
सर्वांश में राजपूतों में पाये जाते है ।”
मुग़ल सम्राट अकबर का मंत्री अबुलफजल (यह
जोधपुर राज्य के नागौर शहर में एक शेख कुल में
जन्मा था ) राजपूतों की वीरता की प्रशंसा
इन शब्दों में करता है —-
“विपत्तिकाल में राजपूतों का असली चरित्र
जाज्वल्यमान होता है ।राजपूत -सैनिक रणक्षेत्र
से भागना जानते ही नहीं है बल्कि जब लड़ाई
का रुख संदेहजनक हो जाता है तो वे लोग
अपनेघोड़ों से उत्तर जाते है और वीरता के साथ
अपने प्राण न्योछावर कर देते है ।”
बर्नियर अपनी भारत यात्रा की पुस्तक में
लिखता है कि —–
“राजपूत लोग जब युद्ध क्षेत्र में जाते है ,तब आपस
में इस प्रकार गले मिलते है जैसे कि उन्होंने मरने का
पूरा निश्चय कर लिया हो ।ऐसी वीरता के
उदाहरण संसार की अन्य जातियों में कहाँ पाये
जाते है ?किस देश और किस जाति में इस प्रकार
की सभ्यता और साहस है और किसने अपने पूर्वजों
के रिवाजों को इतनी शताब्दीयों तक अनेक
संकट सहते हुए भी कायम रखा है ?
मिस्टर टेलबोय व्हीलर ने अपने “भारत के
इतिहास “में राजपूत जाति के विषय में यह
लिखा है —-
“राजपूत जाति भारतवर्ष में सबसे कुलीन और
स्वाभिमानी है ।यहूदी जाति को छोड़ कर
संसार में शायद ही अन्य कोई जाति हो
जिसकी उत्पति इतनी पुरानी और शुद्ध हो ।वे
क्षत्रिय जाति के उच्च वंशज और जागीरदार है ।
ये वीर और दींन अनाथों के रक्षक होते है और
अपमान को कभी सहन नहीं करते है और अपनी
स्त्रियों के सम्मान का पूर्ण ध्यान रखने बाले
होते है ।”
कर्नल वाल्टर (भूतपूर्व एजेंट गवर्नर जनरल
,राजपुताना )बहुत समय तक राजपूताने में रहे थे ।
वह भी इस प्रकार लिखते है कि ——
“राजपूतों को अपने महत्वशाली पूर्वजों के
इतिहास का गर्व हो सकता है क्यों कि संसार
के किसी भी देश के इतिहास में ऐसी वीरता
और अभिमान के योग्य चरित्र नहीं मिलते जैसे इन
वीरों के कार्यों में पाये जाते है जो कि उन्होंने
अपने देश ,प्रतिष्ठा और धार्मिक स्वतंत्रता के
लिए किये ।”
डॉ शिफार्ड जो कई वर्षों तक राजपूतों के
संसर्ग में रहे थे इस प्रकार लिखते है कि —-
“ऐसे इतिहासों के पढ़ने से जिनमें राजपूतों के
उत्तम स्वाभाविक गुण और चरित्र यथावत रूप से
दर्शाये गए है ,सम्भव नहीं कि इतिहास के प्रेमी
नवयुवक पर उत्तम और उत्तेजक प्रभाव उत्पन्न न हो
।”
यद्धपि इस वीर राजपूत जाति के अनेक साहसी
वीर योद्धाओं जिनमे अंतिम हिन्दू सम्राट
पृथ्वीराज चौहान ,विश्व प्रसिद्ध योद्धा
राणा सांगा ,प्रातः स्मरणीय वीर
शिरोमणि महाराणा प्रताप ,महान
बलिदानी राजा रामशाह तोमर ,वीरवर
छात्र साल बुंदेला ,स्वाभिमानी वीर
दुर्गादास राठौड़ ,वीरवर अमर सिंह राठौड़
,जयमल राठौड़ ,रावत पत्ता ,शरणागत रक्षक
रणथम्भोर के राजा हमीर देव चौहान ,गोरा –
बादल ,वीर योद्धा मेदिनिराय खंगार ,प्रमुख
थे ने मुगलों से जम कर युद्ध किया और अपनी जन्म
भूमि की स्वतंत्रता के लिए प्राणों की बाजी
लगा दी ।इसी कालमें क्षत्राणियो ने भी युद्ध
तक किये और देश की रक्षा में जौहर तक किये
जिनमे रानी दुर्गावती ,रानी कर्मवती ,रानी
पद्यमिनी तथा हाडी रानी प्रमुख
वीरांगनाएं रही ।यही ही नही सन् 1857में
ब्रिटिशकाल में भी अनेक राजपूत वीर और
वीरांगनाओं ने अपने देश की स्वतंत्रता के लिए
प्राण न्योछावर कर दिया।जिनमें झांसी की
रानी लक्ष्मीबाई के अलावा और वीरों को
इतिहास में वो स्थान हमारे इतिहासकारों ने
नही दिया जो दिया जाना चाहिए था ।
जिनमें प्रथम स्वतंत्रता संग्रामसेनानी हिमाचल
प्रदेश के नूरपुर एस्टेट के वजीर राम सिंह
पठानिया ,1857 की क्रान्ति के नायक विहार
की शान बाबू बीर कुंवर सिंह पंवार ,गोण्डा के
राजा देवीबक्ष सिंह बिसेन ,अवध का शेर राणा
बेणी माधोसिंह बैस , राजपूत जाति को पहला
परमवीर चक्र दिलाने वाले पश्चिमी उत्तरप्रदेश के
गौरव परमवीर यदुनाथ सिंह राठौड़ ,पीरु सिंह
शेखावत ,शैतान सिंह भाटी एवं उस समय की एक
और वीरांगना उत्तरप्रदेश की तुलसीपुर एस्टेट की
चौहान रानी ईष्वरी कुमारी देवी थी
जिन्होंने अपनी वीरता और शौर्यता ,आन
,वान् एवं स्वाभिमान ,त्याग एवंबलिदान पूर्ण
कार्यों से इतिहास के पन्नें रंग कर चले गये ।परन्तु
अब उनकी ये ख्याति केवल इतिहास के पन्नों में
ही रह गई है और दिन प्रतिदिन राजपूत लोग अपने
गौरव को भूलते जारहे है ,क्यों न भूले जब कि
पश्चिमी सभ्यता और शिक्षा का प्रभाव
चारों तरफ पड़ रहा है और समय भी बदल चुका है ।
लार्ड मैकाले का यह कथन भी उल्लेख करने योग्य
है कि —–
“जो जाति अपने पूर्वजों के श्रेष्ठ कार्यों का
अभिमान नहीं करती वह कोई ऐसी बात ग्रहण न
करेगी जो कि बहुत पीढ़ी पीछे उनकी संतानों
से सगर्व स्मरण करने योग्य हो ।”
वर्तमान पीढ़ी एवं इसके बाद आने वाली पीढ़ी
भी चली जायगी किन्तु राजपूत जाति जिन्दा
रहेगी ,राजपूत संस्कृति जिन्दा रहेगी ,किन्तु
जिस तेजी से हम संभी क्षेत्रों में पीछे खिसक रहे
है यदि यही रफ़्तार जारी रही तो आगामी
कुछ वर्षों बाद राजपूत कहाँ होगा यह सोचकर
ही दिल में एक हड़कंप पैदा होता है ।
यदि अब भी राजपूत जाति अपने पूर्व गौरव व्
इतिहास की ओर ध्यान देवे तो यह जाति
संसार में अदिवतीय चमत्कार दिखला सकती है ।
लेकिन आज के समय में एकता और शिक्षा के क्षेत्र
में अदिवतीय होना होगा तभी ये संभव है ।
क्या ये शब्द हमारे बहरे कानों में पड़ेंगे ?
जय हिन्द ।जय राजपूताना ।
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन ,गांव –
लढोता ,सासनी ,जिला -हाथरस ,उत्तरप्रदेश