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भगवान नारायण और भोले नाथ


भगवान नारायण और भोले नाथ ….

भगवान नारायण और भोले नाथ ….
एक बार भगवान नारायण वैकुण्ठलोक में सोये हुए थे। उन्होंने स्वप्न में देखा कि करोड़ों चन्द्रमाओं की कांतिवाले, त्रिशूल-डमरू-धारी, स्वर्णाभरण-भूषित, सुरेन्द्र-वन्दित, सिद्धिसेवित त्रिलोचन भगवान शिव प्रेम और आनन्दातिरेक से उन्मत्त होकर उनके सामने नृत्य कर रहे हैं। उन्हें देखकर भगवान विष्णु हर्ष से गद्गद् हो उठे और अचानक उठकर बैठ गये, कुछ देर तक ध्यानस्थ बैठे रहे। उन्हें इस प्रकार बैठे देखकर श्रीलक्ष्मी जी पूछने लगीं, “भगवन! आपके इस प्रकार अचानक निद्रा से उठकर बैठने का क्या कारण है?” भगवान ने कुछ देर तक उनके इस प्रशन का कोई उत्तर नहीं दिया और आनंद में निमग्न हुए चुपचाप बैठे रहे, कुछ देर बाद हर्षित होते हुए बोले, “देवि, मैंने अभी स्वप्न में भगवान श्रीमहेश्वर का दर्शन किया है। उनकी छवि ऐसी अपूर्व आनंदमय एवं मनोहर थी कि देखते ही बनती थी। मालूम होता है, शंकर ने मुझे स्मरण किया है। अहोभाग्य, चलो, कैलाश में चलकर हम लोग महादेव के दर्शन करें।”
ऐसा विचार कर दोनों कैलाश की ओर चल दिये। भगवान शिव के दर्शन के लिए कैलाश मार्ग पर आधी दूर गये होंगे कि देखते हैं भगवान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी ओर चले आ रहे हैं। अब भगवान के आनंद का तो ठिकाना ही नहीं रहा। मानों घर बैठे निधि मिल गयी। पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले। ऐसा लगा, मानों प्रेम और आनंद का समुद्र उमड़ पड़ा। एक-दूसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आनन्दाश्रु बहने लगे और शरीर पुलकायमान हो गया। दोनों ही एक-दूसरे से लिपटे हुए कुछ देर मूकवत् खड़े रहे। प्रशनोत्तर होने पर मालूम हुआ कि शंकर जी को भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न हुआ कि मानों विष्णु भगवान को वे उसी रूप में देख रहे हैं, जिस रूप में अब उनके सामने खड़े थे।
दोनों के स्वप्न के वृत्तान्त से अवगत होने के बाद दोनों एक-दूसरे को अपने निवास ले जाने का आग्रह करने लगे। नारायण ने कहा कि वैकुण्ठ चलो और भोलेनाथ कहने लगे कि कैलाश की ओर प्रस्थान किया जाये। दोनों के आग्रह में इतना अलौकिक प्रेम था कि यह निर्णय करना कठिन हो गया कि कहां चला जाय? इतने में ही क्या देखते हैं कि वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारद जी कहीं से आ निकले। बस, फिर क्या था? लगे दोनों उनसे निर्णय कराने कि कहां चला जाय? बेचारे नारदजी तो स्वयं परेशान थे, उस अलौकिक-मिलन को देखकर। वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गये और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान करने। अब निर्णय कौन करे? अंत में यह तय हुआ कि भगवती उमा जो कह दें, वही ठीक है। भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रहीं। अंत में वे दोनों की ओर मुख करते हुए बोलीं, “हे नाथ, हे नारायण, आप लोगों के निश्चल, अनन्य एवं अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता है कि आपके निवास अलग-अलग नहीं हैं, जो कैलाश है, वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है, वही कैलाश है, केवल नाम में ही भेद है। यहीं नहीं, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में दो हैं। और तो और, मुझे तो स्पष्ट लग रहा है कि आपकी भार्याएँ भी एक ही हैं। जो मैं हूं, वही लक्ष्मी हैं और जो लक्ष्मी हैं, वही मैं हूँ। केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ़ धारणा हो गयी है कि आप लोगों में से एक के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानों दूसरे के प्रति ही करता है। एक की जो पूजा करता है, वह मानों दूसरे की भी पूजा करता है। मैं तो तय समझती हूं कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकाल तक घोर पतन होता है। मैं देखती हूं कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्रवंचना कर रहे हैं, मुझे असमंजस में डाल रहे हैं, मुझे भुला रहे हैं। अब मेरी यह प्रार्थना है कि आप लोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिये। श्रीविष्णु यह समझें कि हम शिव रूप में वैकुण्ठ जा रहे हैं और महेश्वर यह मानें कि हम विष्णु रूप में कैलाश-गमन कर रहे हैं।
इस उत्तर को सुनकर दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा की प्रशंसा करते हुए, दोनों ने एक-दूसरे को प्रणाम किया और अत्यंत हर्षित होकर अपने-अपने लोक को प्रस्थान किया। लौटकर जब श्रीविष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्रीलक्ष्मी जी ने उनसे प्रशन किया, “हे प्रभु, आपको सबसे अधिक प्रिय कौन है?” भगवन बोले, “प्रिये, मेरे प्रियतम केवल श्रीशंकर हैं। देहधारियों को अपने देह की भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय हैं। एक बार मैं और श्रीशंकर दोनों पृथ्वी पर घूमने निकले। मैं अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम की खोज में देश-देशान्तर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा। थोड़ी देर के बाद मेरी श्री शंकर जी से भेंट हो गयी। वास्तव में मैं ही जनार्दन हूं और मैं ही महादेव हूं। अलग-अलग दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति मुझमें और उनमें कोई अंतर नहीं है। शंकरजी के अतिरिक्त शिव की चर्चा करने वाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है। इसके विपरीत जो शिव की पूजा नहीं करते, वे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते।”
इस तरह जो शिव की पूजा करता है वह वैकुंठवासी विष्णु को भी स्वीकार है और जो श्री विष्णु की वंदना करता है, वह त्रिपुरारी को भी मना लेता है।

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जर्मनी देश की विमान सेवा का नाम लुप्तहन्सा है


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मित्रो जर्मनी देश की विमान सेवा का नाम लुप्तहन्सा है जिसका अर्थ होता है
जो हंस लुप्त हो गए हैं यहाँ लुप्त और हंस दोनों ही संस्कृत के शब्द हैं !

वही भारत की विमान सेवा मे AIR और INDIA दोनों शब्द अँग्रेजी के हैं कितने शर्म की
बात सभी भाषाओ की जननी संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा मे से हमारी सरकार
को दो शब्द नहीं मिले !
.
मित्रो बात दो विमान सेवाओ के नाम की नहीं है बात सरकार की मानसिकता की है , आजादी के बाद जो लोग सत्ता की तरह लपलपाती जीभ लेकर खड़े हुए थे उन लोगो के अंग्रेजी के प्रति लगाव को पुरे देश पर थोपा जा रहा है और कहा जा रहा है की अंग्रेजी ही आपका उधार कर सकती है !!

आज जर्मनी मे विश्वविद्यालयो की शिक्षा मे संस्कृत की पढ़ाई पर और संस्कृत के शास्त्रो की पढ़ाई पर सबसे अधिक पैसा खर्च हो रहा है !

जर्मनी भारत के बाहर का पहला देश है जिसने अपनी एक यूनिवर्सिटी संस्कृत साहित्य के लिए समर्पित किया हुआ है !

हमारे देश मे आयुर्वेद के जो जनक माने जाते है उनका नाम है महाऋषि चरक ! जर्मनी ने इनके नाम पर ही एक विभाग बनाया है उसका नाम ही है चरकोलजी !!

अंत मित्रो बात यही है जो व्यवस्था आजादी के 67 साल बाद भी भारत को विदेशी भाषा की गुलामी से मुक्त नहीं करवा पाई उस व्यवस्था के लिए भारतवासियो को गरीबी ,अन्याय ,शोषण से मुक्त करवाना असंभव है !
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तुलजा भवानी की कथा


तुलजा भवानी की कथा

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कृतयुग में करदम नामक एक ब्राह्मण
साधु थे,जिनकी अनुभूति नामक अत्यंत
सुंदर व सुशील पत्नी थी। जब करदम
की मृत्यु हुई तब अनुभूति ने सती होने
का प्रण किया, पर गर्भवती होने के
कारण उन्हें यह विचार
त्यागना पड़ा तथा मंदाकिनी नदी के
किनारे तपस्या प्रारंभ कर दी। इस दौरान
कूकर
नामक राजा अनुभूति को ध्यान मग्न
देखकर
उनकी सुंदरता पर आसक्त
हो गया तथा अनुभूति के साथ दुष्कर्म
करने का प्रयास किया। इस दौरान
अनुभूति ने माता से याचना की और
माँ अवतरित हुईं। माँ के साथ युद्ध के
दौरान कूकर एक महिष
रूपी राक्षस में परिवर्तित हो गया और
महिषासुर कहलाया। माँ ने महिषासुर
का वध किया और यह पर्व ‘विजयादशमी’
कहलाया। इसलिए माँ को ‘त्वरिता’
नाम से भी जाना जाता है, जिसे
मराठी में
तुलजा भी कहते हैं।
ऐसी मान्यता है
कि असुरों का संहार करते समय
भगवती जगदंबा के मुख से 32
देवी शक्ति स्वरूप निकलीं।
इसमें
12वीं देवी तुलजा भवानी हैं। वे
सतयुग की देवी हैं।
महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में
स्थित है तुलजापुर।
एक ऐसा स्थान
जहाँ छत्रपति शिवाजी की कुलदेवी माँ
तुलजा भवानी स्थापित हैं, जो आज
भी महाराष्ट्र व
अन्य राज्यों के कई
निवासियों की कुलदेवी के रूप में
प्रचलित हैं।
तुलजा भवानी महाराष्ट्र के प्रमुख
साढ़े तीन
शक्तिपीठों में से एक है तथा भारत के
प्रमुख
इक्यावन शक्तिपीठ में से भी एक
मानी जाती है।
मान्यता है कि शिवाजी को खुद
देवी माँ ने तलवार
प्रदान की थी। अभी यह तलवार लंदन के
संग्रहालय
में रखी हुई है।
मंदिर की स्थिति
यह मंदिर महाराष्ट्र के प्राचीन
दंडकारण्य वनक्षेत्र
में स्थित यमुनांचल पर्वत पर स्थित है।
ऐसी जनश्रुति है कि इसमें स्थित
तुलजा भवानी माता की मूर्ति स्वयंभू
है। इस
मूर्ति की एक और खास बात यह है कि यह
मंदिर में
स्थायी रूप से स्थापित न होकर
‘चलायमान’ है। साल
में तीन बार इस प्रतिमा के साथ प्रभु
महादेव,
श्रीयंत्र तथा खंडरदेव
की भी प्रदक्षिणापथ पर
परिक्रमा करवाई जाती है।
तुलजा भवानी का मंदिर
स्थापत्य
इस मंदिर का स्थापत्य मूल रूप से
हेमदपंथी शैली से
प्रभावित है। इसमें प्रवेश करते
ही दो विशालकाय
महाद्वार नजर आते हैं। इनके बाद सबसे
पहले
कल्लोल तीर्थ स्थित है, जिसमें 108
तीर्थों के
पवित्र जल का सम्मिश्रण है। इसमें
उतरने के पश्चात
थोड़ी ही दूरी पर गोमुख तीर्थ स्थित
है, जहाँ जल
तीव्र प्रवाह के साथ बहता है।
तत्पश्चात
सिद्धिविनायक भगवान का मंदिर
स्थापित है।
मान्यता के अनुसार तीर्थों में स्नान
के पश्चात
सर्वप्रथम सिद्धिविनायक का दर्शन
करना चाहिए|
तत्पश्चात एक सुसज्जित द्वार में
प्रवेश करने के
पश्चात मुख्य कक्ष (गर्भ गृह) में
माता की स्वयंभू
प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह के पास
ही एक
चाँदी का पलंग स्थित है,
जो माता की निद्रा के लिए
है। इस पलंग के उलटी तरफ शिवलिंग
स्थापित है,
जिसे दूर से देखने पर ऐसा प्रतीत
होता है
कि माँ भवानी व शिव शंकर आमने-सामने
बैठे हैं।
यहाँ पर स्थित चाँदी के छल्ले वाले
स्तंभों के विषय में
माना जाता है कि यदि आपके शरीर के
किसी भी भाग
में दर्द है, तो सात दिन लगातार इस
छल्ले को छूने से
वह दर्द समाप्त हो जाता है।
मान्यता
इस मंदिर से जुड़ी एक जनश्रुति यह
भी है कि यहाँ पर
एक ऐसा चमत्कारिक (चिंतामणि नामक)
पत्थर
विद्यमान है, जिसके विषय में यह
माना जाता है
कि यह आपके सभी प्रश्नों का उत्तर
सांकेतिक रूप में
‘हाँ’ या ‘नहीं’ में देता है। यदि आपके
प्रश्न
का उत्तर ‘हाँ’ है तो यह आपके
दाहिनी ओर मुड़
जाता है और अगर ‘नहीं’ है तो यह
बायीं दिशा में मुड़
जाता है। माना जाता है
कि छत्रपति शिवाजी
किसी भी युद्ध से पहले चिंतामणि के
पास अपने
प्रश्नों के समाधान करने आते थे।
माता की मूर्ति
शालीग्राम पत्थर से निर्मित यह
मूर्ति वस्तुतः स्वयंभू
मूर्ति मानी जाती है। इस
मूर्ति के आठ हाथ हैं, जिनमें से एक
हाथ से उन्होंने
दैत्य के बाल पकड़े हैं तथा दूसरे
हाथों से वे दैत्य पर
त्रिशूल से वार कर रही हैं। ऐसा प्रतीत
होता है
कि माता महिषासुर राक्षस का वध कर
रही हैं।
माता की दाहिनी ओर उनका वाहन सिंह
स्थापित है।
इस प्रतिमा के समीप ऋषि मार्कंडेय
की प्रतिमा स्थापित है, जो पुराण
पढ़ने की मुद्रा में है।
माता के आठों हाथों में चक्र, गदा,
त्रिशूल, अंकुश,
धनुष व पाश आदि शस्त्र सुसज्जित हैं।
प्रतिमा का इतिहास
इतिहास में इस प्रतिमा का वर्णन
मार्कंडेय पुराण के
‘दुर्गा सप्तशती’ नामक अध्याय में
उल्लिखित है।
इस ग्रंथ की रचना स्वयं संत मार्कंडेय
ने की थी।
इस अध्याय में कर्म, भक्ति व ध्यान के
संदर्भ में
ज्ञान है। इस
प्रतिमा की ऐतिहासिकता का दूसरा
स्रोत भगवद् गीता भी है।
तुलजा भवानी की पूजा
इस मंदिर की ख्याति मराठा राज्य में
फैली और यह
प्रतिदिन भोसले
प्रशासकों की कुलदेवी के रूप में
पूजी जाने लगीं। छत्रपति शिवाजी अपने
प्रत्येक युद्ध
के पहले माता से आशीर्वाद प्राप्त
करने के लिए यहाँ आते थे।
देवास माता टेकरी : चामुंडा और
तुलजा भवानी
बड़ी माता और छोटी माता का मंदिर
देवास टेकरी पर स्थित माँ भवानी का यह
मंदिर काफी प्रसिद्ध है। लोक
मान्यता है कि यहाँ देवी माँ के
दो स्वरूप अपनी जागृत
अवस्था में हैं। इन
दोनों स्वरूपों को छोटी माँ और
बड़ी माँ के नाम से जाना जाता है।
बड़ी माँ को तुलजा भवानी और
छोटी माँ को चामुण्डा देवी का स्वरूप
माना गया है।
यहाँ के पुजारी बताते हैं
कि बड़ी माँ और छोटी माँ के मध्य बहन
का रिश्ता था। एक बार दोनों में
किसी बात पर विवाद हो गया। विवाद से
क्षुब्द दोनों ही माताएँ अपना स्थान
छोड़कर जाने लगीं। बड़ी माँ पाताल
में समाने लगीं और छोटी माँ अपने
स्थान से उठ खड़ी हो गईं और
टेकरी छोड़कर जाने लगीं। माताओं
को कुपित देख माताओं के
साथी (माना जाता है
कि बजरंगबली माता का ध्वज लेकर आगे
और भेरूबाबा माँ का कवच बन
दोनों माताओं के पीछे चलते हैं)
हनुमानजी और भेरूबाबा ने उनसे क्रोध
शांत कर रुकने की विनती की। इस समय तक
बड़ी माँ का आधा धड़ पाताल में
समा चुका था। वे वैसी ही स्थिति में
टेकरी में रुक गईं।
वहीं छोटी माता टेकरी से नीचे उतर
रही थीं। वे मार्ग अवरुद्ध होने से और
भी कुपित हो गईं और जिस अवस्था में
नीचे उतर रही थीं, उसी अवस्था में
टेकरी पररुक गईं।
इस तरह आज भी माताएँ अपने
इन्हीं स्वरूपों में विराजमान हैं।
यहाँ के लोगों का मानना है
कि माताओं की ये मूर्तियाँ स्वयंभू
हैं और जागृत स्वरूप में हैं। सच्चे मन
से यहाँ जो भी मन्नत माँगी जाती है,
हमेशा पूरी होती है। इसके साथ
ही देवास के संबंध में एक और लोक
मान्यता यह है कि यह पहला ऐसा शहर है,
जहाँ दो वंश राज करते थे- पहला होलकर
राजवंश और दूसरा पँवार
राजवंश।
बड़ी माँ तुलजा भवानी देवी होलकर वंश
की कुलदेवी हैं और
छोटी माँ चामुण्डा देवी पँवार
वंशकी कुलदेवी।
टेकरी में दर्शन करने वाले श्रद्धालु
बड़ी और छोटी माँ के साथ-साथ
भेरूबाबा के दर्शन अनिवार्य मानते हैं।
नवरात्र के दिन यहाँ दिन-रात
लोगों का ताँता लगा रहता है। इन
दिनों यहाँ माता की विशेष पूजा-
अर्चना की जाती है।
तुलजा माता मंदिर
रणु, पादरा, बरोदा,गुजरात

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संत नामदेव।


तेरहवीं सदी में महाराष्ट्र में एक प्रसिद्द संत हुए संत नामदेव। कहा जाता है कि जब वे बहुत छोटे थे तभी से भगवान की भक्ति में डूबे रहते थे। बाल -काल में ही एक बार उनकी माता ने उन्हें भगवान विठोबा को प्रसाद चढाने के लिए दिया तो वे उसे लेकर मंदिर पहुंचे और उनके हठ के आगे भगवान को स्वयं प्रसाद ग्रहण करने आना पड़ा।  आज हम उसी महान संत से सम्बंधित एक प्रेरक प्रसंग आपसे साझा कर रहे हैं।
Sant Namdev In Hindiएक बार संत नामदेव अपने शिष्यों को ज्ञान -भक्ति का प्रवचन दे रहे थे। तभी श्रोताओं में बैठे किसी शिष्य ने एक प्रश्न किया , ” गुरुवर , हमें बताया जाता है कि ईश्वर हर जगह मौजूद है , पर यदि ऐसा है तो वो हमें कभी दिखाई क्यों नहीं देता , हम कैसे मान लें कि वो सचमुच है , और यदि वो है तो हम उसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?”
 नामदेव मुस्कुराये और एक शिष्य को एक लोटा पानी और थोड़ा सा नमक लाने का आदेश दिया।
शिष्य तुरंत दोनों चीजें लेकर आ गया।
वहां बैठे शिष्य सोच रहे थे कि भला इन चीजों का प्रश्न से क्या सम्बन्ध , तभी संत नामदेव ने पुनः उस शिष्य से कहा , ” पुत्र , तुम नमक को लोटे में डाल कर मिला दो। “
शिष्य ने ठीक वैसा ही किया।
संत बोले , ” बताइये , क्या इस पानी में किसी को नमक दिखाई दे रहा है ?”
सबने  ‘नहीं ‘ में सिर हिला दिए।
“ठीक है !, अब कोई ज़रा इसे चख कर देखे , क्या चखने पर नमक का स्वाद आ रहा है ?”, संत ने पुछा।
“जी ” , एक शिष्य पानी चखते हुए बोला।
“अच्छा , अब जरा इस पानी को कुछ देर उबालो।”, संत ने निर्देश दिया।
कुछ देर तक पानी उबलता रहा और जब सारा पानी भाप बन कर उड़ गया , तो संत ने पुनः शिष्यों को लोटे में देखने को कहा और पुछा , ” क्या अब आपको इसमें कुछ दिखाई दे रहा है ?”
“जी , हमें नमक के कण दिख रहे हैं।”, एक शिष्य बोला।
संत मुस्कुराये और समझाते हुए बोले ,” जिस प्रकार तुम पानी में नमक का स्वाद तो अनुभव कर पाये पर उसे देख नहीं पाये उसी प्रकार इस जग में तुम्हे ईश्वर हर जगह दिखाई नहीं देता पर तुम उसे अनुभव कर सकते हो। और जिस तरह अग्नि के ताप से पानी भाप बन कर उड़ गया और नमक दिखाई देने लगा उसी प्रकार तुम भक्ति ,ध्यान और सत्कर्म द्वारा अपने विकारों का अंत कर भगवान को प्राप्त कर सकते हो।
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मेरे पूर्वजों की फितरत ही लुटाने की रही


मेरे पूर्वजों की फितरत ही लुटाने की रही

मुझे राजपूत होने का गुमान नहीं,
पर क्या करें,
लहुँ की मेरे बस पहचान यह ही.
हर बार चाहता हूँ,
अपना ईमान बेंच दूँ.
पर एक आवाज आती है,
ये मेरा काम नहीं.
लोग कहते हैं की मैं अकड़ता बहुत हूँ,
मगर दोस्तों मैं पिघलता भी बहुत हूँ.
एक बार भी किसी ने चुम्मा है मेरा माथा,
हर बार रखा है,
फिर सर को उसके चरणों में वहीं।
आते हैं मुझे लूटने के सौ तरीके,
मगर क्या करें,
मेरे पूर्वजों की फितरत ही लुटाने की रही.
और जब तक महाराणा की साँसे हैं,
मेरे खडग को मेवाड़ में,
मुगलों का साया भी बर्दास्त नहीं.
मुझे राजपूत होने का गुमान नहीं,
पर क्या करें,
लहुँ की मेरे बस पहचान यह ही.

परमीत सिंह धुरंधर

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एक आदमी के तीन मित्र थे।।


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👉एक
आदमी के तीन मित्र थे।।
पहला मित्र
उस आदमी से रोज़ मिलता।
दूसरा मित्र
उस आदमी से 15 दिन बाद मिलता।
तीसरा मित्र
छः महीने में एक बार मिलता था।

👉एक दिन उस आदमी पर कोई मुसीबत आ गई।
उसे कचहरी में अपने किसी दोस्त की गवाही चाहिए थी।
उस आदमी ने अपने पहले दोस्त से बात की
जो कि उसे रोज़ मिलता था।पहले मित्र ने मना कर दिया कि वह साथ नही जा सकता और गवाही नही दे सकता।
उस आदमी ने अपने दूसरे दोस्त से साथ चल कर गवाही देने को कहा पर उस दोस्त ने बोला कि मैं तुम्हारे साथ कचहरी तक तो चल सकता हूँ पर गवाही नही दे सकता।
आदमी को बहुत निराशा हुई।
अंत में उसने अपने तीसरे मित्र से पूछा साथ चलने के लिए जो कि छः महीने में एक बार मिलता थ।
वह मित्र सहर्ष गवाही के लिए तैयार हो गया।।
👉साथियो ये तीन मित्र हैं,

हमारा शरीर,
हमारे भाई बंधु,
हमारे अच्छे कर्म।।

जब हम भगवान के घर जाते हैं
सबसे पहले हमारा शरीर हमारा साथ छोड़ देता है।उसके बाद हमारे भाई बंधु हमें श्मशान तक छोड़ कर आते हैं।
तीसरा मित्र है हमारे अच्छे कर्म
जो भगवान के सामने हमारे अच्छे कामों की गवाही देते हैं।

हरि बोल🙏🙏🙏
👉नफरत निंदा छोड़ दो।।
प्यार करो नाम जपो।।
यही सच्ची कमाई है।।

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