Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

ये तो होना ही था……….


ये तो होना ही था……….

एक बार एक किसान परमात्मा से बड़ा नाराज हो गया !
कभी बाढ़ आ जाये, कभी सूखा पड़ जाए, कभी धूप बहुत तेज हो जाए तो कभी ओले पड़ जाये! हर बार कुछ ना कुछ कारण से उसकी फसल थोड़ी ख़राब हो जाये!

एक दिन बड़ा तंग आ कर उसने परमात्मा से कहा, देखिये प्रभु,
आप परमात्मा हैं, लेकिन लगता है आपको खेती बाड़ी की ज्यादा जानकारी नहीं है,

एक प्रार्थना है कि एक साल मुझे मौका दीजिये, जैसा मै
चाहू वैसा मौसम हो, फिर आप देखना मै कैसे अन्न के भण्डार भर दूंगा! परमात्मा मुस्कुराये और कहा ठीक है, जैसा तुम
कहोगे वैसा ही मौसम दूंगा, मै दखल नहीं करूँगा!

किसान ने गेहूं की फ़सल बोई, जब धूप चाही, तब धूप मिली, जब पानी तब पानी ! तेज धूप, ओले, बाढ़, आंधी तो उसने आने
ही नहीं दी, समय के साथ फसल बढ़ी और किसान की
ख़ुशी भी, क्योंकि ऐसी फसल तो आज तक नहीं हुई थी !

किसान ने मन ही मन सोचा अब पता चलेगा परमात्मा को,
कि फ़सल कैसे उगाई जाती हैं, बेकार ही इतने बरस हम किसानो को परेशान करते रहे. फ़सल काटने का समय भी आया , किसान बड़े गर्व से फ़सल काटने गया,

लेकिन जैसे ही फसल काटने लगा , एकदम से
छाती पर हाथ रख कर बैठ गया! गेहूं की एक भी बाली के
अन्दर गेहूं नहीं था, सारी बालियाँ अन्दर से खाली थी,

बड़ा दुखी होकर उसने परमात्मा से कहा, प्रभु ये क्या
हुआ ? तब परमात्मा बोले,” ये तो होगना ही था, तुमने पौधों को
संघर्ष का ज़रा सा भी मौका नहीं दिया . ना तेज धूप में उनको तपने दिया , ना आंधी ओलों से जूझने दिया ,

उनको किसी प्रकार की चुनौती का अहसास जरा भी नहीं होने दिया , इसीलिए सब पौधे खोखले रह गए, जब आंधी आती है, तेज बारिश होती है ओले गिरते हैं तब पोधा अपने बल से
ही खड़ा रहता है,

वो अपना अस्तित्व बचाने का संघर्ष करता है और इस संघर्ष से
जो बल पैदा होता है वोही उसे शक्ति देता है ,उर्जा देता है, उसकी जीवटता को उभारता है.

सोने को भी कुंदन बनने के लिए आग में तपने , हथौड़ी से पिटने,गलने जैसी चुनोतियो से गुजरना पड़ता है तभी उसकी स्वर्णिम आभा उभरती है उसे अनमोल बनाती है !”

उसी तरह जिंदगी में भी अगर संघर्ष ना हो, चुनौती ना हो तो आदमी खोखला ही रह जाता है, उसके अन्दर कोई गुण
नहीं आ पाता ! ये चुनोतियाँ ही हैं जो आदमी रूपी तलवार को धार देती हैं, उसे सशक्त और प्रखर बनाती हैं, अगर प्रतिभाशाली बनना है तो चुनोतियाँ तो स्वीकार करनी ही पड़ेंगी, अन्यथा हम खोखले ही रह जायेंगे अगर जिंदगी में प्रखर बनना है, प्रतिभा
शाली बनना है, तो संघर्ष और चुनोतियो का सामना तो
करना ही पड़ेगा !

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50 लाख लीटर पानी से भी नहीं भरा शीतला माता के मंदिर में स्तिथ ये छोटा सा घडा़


50 लाख लीटर पानी से भी नहीं भरा शीतला माता के मंदिर में स्तिथ ये छोटा सा घडा़, वैज्ञानिक भी हैरान

राजस्थान के पाली जिले में हर साल, सैकड़ों साल पुराना इतिहास और चमत्कार दोहराया जाता है। शीतला माता के मंदिर में स्तिथ आधा फीट गहरा और इतना ही चौड़ा घड़ा श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ के लिए खोला जाता है।करीब 800 साल से लगातार साल में केवल दो बार ये घड़ा सामने लाया जाता है। अब तक इसमें 50 लाख लीटर से ज्यादा पानी भरा जा चुका है। इसको लेकर मान्यता है कि इसमें कितना भी पानी डाला जाए, ये कभी भरता नहीं है। ऐसी भी मान्यता है कि इसका पानी राक्षस पीता है, जिसके चलते ये पानी से कभी नहीं भर पाता है। दिलचस्प है कि वैज्ञानिक भी अब तक इसका कारण नहीं पता कर पाए हैं।
मंदिर के अंदर स्थापित घड़े में पानी भरते लोग

साल में दो बार हटता है पत्थर
ग्रामीणों के अनुसार करीब 800 साल से गांव में यह परंपरा चल रही है। घड़े से पत्थर साल में दो बार हटाया जाता है। पहला शीतला सप्तमी पर और दूसरा ज्येष्ठ माह की पूनम पर। दोनों मौकों पर गांव की महिलाएं इसमें कलश भर-भरकर हज़ारो लीटर पानी डालती हैं, लेकिन घड़ा नहीं भरता है। फिर अंत में पुजारी प्रचलित मान्यता के तहत माता के चरणों से लगाकर दूध का भोग चढ़ाता है तो घड़ा पूरा भर जाता है। दूध का भोग लगाकर इसे बंद कर दिया जाता है। इन दोनों दिन गांव में मेला भी लगता है।

मंदिर के अंदर स्थापित घड़े में पानी भरते लोग

वैज्ञानिकों को भी नही पता कहां जाता है पानी

दिलचस्प है कि इस घड़े को लेकर वैज्ञानिक स्तर पर कई शोध हो चुके हैं, मगर भरने वाला पानी कहां जाता है, यह कोई पता नहीं लगा पाया है।

घड़े में पानी डालने के लिए अपनी बारी का इंतजार करती लाइन में खड़ी महिलाएं

मान्यता के अनुसार राक्षस पीता है इस घड़े का पानी

ऐसी मान्यता है कि आज से आठ सौ साल पूर्व बाबरा नाम का राक्षस था। इस राक्षस के आतंक से ग्रामीण परेशान थे। यह राक्षस ब्राह्मणों के घर में जब भी किसी की शादी होती तो दूल्हे को मार देता। तब ब्राह्मणों ने शीतला माता की तपस्या की। इसके बाद शीतला माता गांव के एक ब्राह्मण के सपने में आई। उसने बताया कि जब उसकी बेटी की शादी होगी तब वह राक्षस को मार देगी। शादी के समय शीतला माता एक छोटी कन्या के रूप में मौजूद थी। वहां माता ने अपने घुटनों से राक्षस को दबोचकर उसका प्राणांत किया। इस दौरान राक्षस ने शीतला माता से वरदान मांगा कि गर्मी में उसे प्यास ज्यादा लगती है। इसलिए साल में दो बार उसे पानी पिलाना होगा। शीतला माता ने उसे यह वरदान दे दिया। तभी से यह मेला भरता है।
source:http://www.ajabgjab.com/

अंधविश्वास की कैद रिटर्न पेज की पोल खोल's photo.
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Posted in जीवन चरित्र

भारत भक्त विदेशी महिला डा. एनी बेसेंट !


विजय कृष्ण पांडेय's photo.
विजय कृष्ण पांडेय

भारत भक्त विदेशी महिला डा. एनी बेसेंट !!
वे स्वयं को पूर्व जन्म का हिन्दू एवं भारतीय
मानती थीं !!

वे गांधीवाद का उग्र विरोध करते हुए कहती थीं
कि इससे भारत में अराजकता फ़ैल जायेगी।

डा. एनी वुड बेसेंट का जन्म एक अक्तूबर,1847
को लंदन में हुआ था।
इनके पिता अंग्रेज तथा माता आयरिश थीं।

जब ये पांच वर्ष की थीं,तब इनके पिता का
देहांत हो गया।
अतः इनकी मां ने इन्हें मिस मेरियट के संरक्षण
में हैरो भेज दिया।
उनके साथ वे जर्मनी और फ्रांस गयीं और वहां
की भाषाएं सीखीं।
17 वर्ष की अवस्था में वे फिर से मां के पास
आ गयीं।
1867 में इनका विवाह एक पादरी रेवरेण्ड
फ्रेंक से हुआ।
वह संकुचित विचारों का था।

अतः दो संतानों के बाद ही तलाक हो गया।
ब्रिटिश कानून के अनुसार दोनों बच्चे पिता पर
ही आश्रित रहे।

इससे इनके दिल को ठेस लगी।
उन्होंने मां से बच्चों को अलग करने वाले कानून
की निन्दा करते हुए अपना शेष जीवन निर्धन और अनाथों की सेवा में लगाने का निश्चय किया।

इस घटना से इनका विश्वास ईश्वर,बाइबिल और
ईसाई मजहब से भी उठ गया।

श्रीमती एनी बेसेंट इसके बाद लेखन और प्रकाशन
से जुड़ गयीं।

उन्होंने झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले मजदूरों
की समस्याओं को सुलझाने के लिए अथक
प्रयत्न किये।

आंदोलन करने वाले मजदूरों के उत्पीड़न को
देखकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार के इन काले
कानूनों का विरोध किया।

वे कई वर्ष तक इंग्लैंड के सबसे शक्तिशाली
महिला मजदूर यूनियन की सचिव भी रहीं।

वे 1883 में समाजवादी और 1889 में
ब्रह्मविद्यावादी (थियोसोफी) विचारों के
सम्पर्क में आयीं।

वे एक कुशल वक्ता थीं और सारे विश्व में इन
विचारों को फैलाना चाहती थीं।
वे पाश्चात्य विचारधारा की विरोधी और प्राचीन भारतीय व्यवस्था की समर्थक थीं।

1893 में उन्होंने वाराणसी को अपना केन्द्र
बनाया।
यहां उनकी सभी मानसिक और आध्यात्मिक
समस्याओं का समाधान हुआ।
अतः वे वाराणसी को ही अपना वास्तविक
घर मानने लगीं।
1907 में वे ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ की
अध्यक्ष बनीं।

उन्होंने धर्म,शिक्षा,राजनीति और सामाजिक क्षेत्र
में पुनर्जागरण के लिए1916 में ‘होम रूल लीग’
की स्थापना की।
उन्होंने वाराणसी में ‘सेंट्रल हिन्दू कॉलेज’खोला
तथा 1917 में इसे महामना मदनमोहन मालवीय
जी को समर्पित कर दिया।

वाराणसी में उन्होंने 1904 में ‘हिन्दू गर्ल्स स्कूल’
भी खोला।
इसी प्रकार‘इन्द्रप्रस्थ बालिका विद्यालय,दिल्ली’
तथा निर्धन एवं असहाय लोगों के लिए 1908 में‘थियोसोफिकल ऑर्डर ऑफ सर्विस’ की
स्थापना की।

उन्होंने धार्मिक एवं राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार,महिला
जागरण,स्काउट एवं मजदूर आंदोलन आदि में
सक्रिय भूमिका निभाई।
सामाजिक बुराइयां मिटाने के लिए उन्होंने‘ब्रदर्स ऑफ सर्विस’ संस्था बनाई।

इसके सदस्यों को एक प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर
करने पड़ते थे।
कांग्रेस और स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय होने
के कारण उन्हें जेल में भी रहना पड़ा।

1917 के कोलकाता अधिवेशन में उन्हें कांग्रेस
का अध्यक्ष बनाया गया।

यद्यपि फिर लोकमान्य तिलक और गांधी जी
से उनके भारी मतभेद हो गये।
इससे वे अकेली पड़ गयीं।
वे गांधीवाद का उग्र विरोध करते हुए। कहती थीं
कि इससे भारत में अराजकता फैल जाएगी।

डा. एनी बेसेंट एक विदुषी महिला थीं।
उन्होंने सैकड़ों पुस्तक और लेख लिखे।

वे स्वयं को पूर्व जन्म का हिन्दू एवं भारतीय
मानती थीं।
20 सितम्बर,1933 को चेन्नई में उनका
देहांत हुआ।
उनकी इच्छानुसार उनकी अस्थियों को
वाराणसी में सम्मान सहित गंगा में विसर्जित
कर दिया गया।
(संदर्भ : केन्द्र भारती अक्तूबर 2006/
विकीपीडिया)
‪#‎समाधानblogspot‬;;

भारतीय संस्कृति को समर्पित विदुषी महिला
को शत् शत् नमन,,,

कोटि कोटि वंदन,,,
वंदेमातरम्,,,
जय भवानी,,
जय श्रीram

Posted in गौ माता - Gau maata

अब गाय के पेट में से प्लास्टिक पौलिथिन निकलने के लिए पेट फाड़ने की जरूरत नहीं..


माधव मुरारी हिन्दू योगीराज's photo.
माधव मुरारी हिन्दू योगीराज with Rahul Kumar

अब गाय के पेट में से प्लास्टिक पौलिथिन निकलने के लिए पेट फाड़ने की जरूरत नहीं..

गाय के पेट से प्लास्टिक पौलिथिन को समाप्त करने का सफल उपचार➖
जयपुर के डॉ कैलाश मोड़े, पशुपालन अधिकारी, जयपुर नगर निगम मो०-09414041752
के हवाले से उपचार इस प्रकार है

सामग्रीः
100 ग्राम सरसों का तेल,
100 ग्राम तिल का तेल,
100 ग्राम नीम का तेल
और
100 ग्राम अरण्डी का तेल..

विधिः
इन सबको खूब मिलाकर
500 ग्राम गाय के दूध की बनी छांछ में डालें
तथा
50 ग्राम फिटकरी,
50 ग्राम सौंधा नमक पीस कर डालें।
ऊपर से 25 ग्राम साबुत राई डाले।
➖यह घोल तीन दिन तक पिलायें और साथ में हरा चारा भी दें।
ऐसा करने से गाय जुगाली करते समय मुहं से पौलिथिन निकालती है। कुछ ही दिनों में सारी पौलिथिन बाहर होगा।
यह उपचार सफल सिद्ध हो रहा है
आज भी हजारों गौमाता पोलिथिन खाने से मर जाती है और आपके एक शेयर से हम हजारों गौमाता की जान बचा सकते हैं

➖आगे भी शेयर करे गौ माता के लिये
और
इसका प्रयोग करे👏

Posted in संस्कृत साहित्य

अग्निदेव !!


विजय कृष्ण पांडेय's photo.
विजय कृष्ण पांडेय

4 hrs ·

अग्निदेव !!

ॐ रं वह्निचैतन्याय नमः

आप सभी का दिवस बरस मङ्गलमय हो,,,
समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हों,,,,

अग्निदेवता यज्ञ के प्रधान अंग हैं।
ये सर्वत्र प्रकाश करने वाले एवं सभी पुरुषार्थों
को प्रदान करने वाले हैं।
सभी रत्न अग्नि से उत्पन्न होते हैं और सभी
रत्नों को यही धारण करते हैं।

वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का नाम आता है और
उसमें प्रथम शब्द अग्नि ही प्राप्त होता है।
अत: यह कहा जा सकता है कि विश्व-साहित्य
का प्रथम शब्द अग्नि ही है।

ऐतरेय ब्राह्मण आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में यह
बार-बार कहा गया है कि देवताओं में प्रथम
स्थान अग्नि का है।

आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के
प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह
बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी
हैं और सबसे आगे-आगे चलते हैं।

युद्ध में सेनापति का काम करते हैं इन्हीं को
आगे कर युद्ध करके देवताओं ने असुरों को
परास्त किया था।

पुराणों के अनुसार इनकी पत्नी स्वाहा हैं।
ये सब देवताओं के मुख हैं और इनमें जो
आहुति दी जाती है,वह इन्हीं के द्वारा देवताओं
तक पहुँचती है।

केवल ऋग्वेद में अग्नि के दो सौ सूक्त प्राप्त होते हैं।
इसी प्रकार यजुर्वेद,सामवेद और अथर्ववेद में भी इनकी स्तुतियाँ प्राप्त होती हैं।

ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में अग्नि की प्रार्थना करते
हुए विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम अग्निदेवता की स्तुति करता हूँ,जो
सभी यज्ञों के पुरोहित कहे गये हैं।

पुरोहित राजा का सर्वप्रथम आचार्य होता है
और वह उसके समस्त अभीष्ट को सिद्ध करता है।

उसी प्रकार अग्निदेव भी यजमान की समस्त
कामनाओं को पूर्ण करते हैं।
अग्निदेव की सात जिह्वाएँ बतायी गयी हैं।

उन जिह्वाओं के नाम
काली,
कराली,
मनोजवा,
सुलोहिता,
धूम्रवर्णी,
स्फुलिंगी तथा
विश्वरूचि हैं।

पुराणों के अनुसार अग्निदेव की पत्नी स्वाहा
के पावक,पवमान और शुचि नामक तीन पुत्र हुए।

इनके पुत्र-पौत्रों की संख्या उनंचास है।
भगवान कार्तिकेय को अग्निदेवता का भी पुत्र
माना गया है।

स्वारोचिष नामक द्वितीय स्थान पर परिगणित हैं।
ये आग्नेय कोण के अधिपति हैं।
अग्नि नामक प्रसिद्ध पुराण के ये ही वक्ता हैं।

प्रभास क्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर इनका
मुख्य तीर्थ है।
इन्हीं के समीप भगवान कार्तिकेय,श्राद्धदेव
तथा गौओं के भी तीर्थ हैं।
अग्निदेव की कृपा के पुराणों में अनेक दृष्टान्त
प्राप्त होते हैं।

उनमें से कुछ इस प्रकार हैं।
महर्षि वेद के शिष्य उत्तंक ने अपनी शिक्षा पूर्ण
होने पर आचार्य दम्पति से गुरु दक्षिणा माँगने
का निवेदन किया।
गुरु पत्नी ने उनसे महाराज पौष्य की पत्नी का कुण्डल माँगा।
उत्तंक ने महाराज के पास पहुँचकर उनकी आज्ञा
से महारानी से कुण्डल प्राप्त किया।

रानी ने कुण्डल देकर उन्हें सतर्क किया कि आप
इन कुण्डलों को सावधानी से ले जाइयेगा,नहीं तो
तक्षक नाग कुण्डल आप से छीन लेगा।

मार्ग में जब उत्तंक एक जलाशय के किनारे कुण्डलों
को रखकर सन्ध्या करने लगे तो तक्षक कुण्डलों को
लेकर पाताल में चला गया।

अग्निदेव की कृपा से ही उत्तंक दुबारा कुण्डल प्राप्त
करके गुरु पत्नी को प्रदान कर पाये थे।

अग्निदेव ने ही अपनी ब्रह्मचारी भक्त उपकोशल को
ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया था।
अग्नि की प्रार्थना उपासना से यजमान धन,धान्य,
पशु आदि समृद्धि प्राप्त करता है।
उसकी शक्ति, प्रतिष्ठा एवं परिवार आदि की वृद्धि
होती है।

अग्निदेव का बीजमन्त्र “रं” तथा मुख्य मन्त्र
“रं वह्निचैतन्याय नम:” है।

ऋग्वेद के अनुसार अग्निदेव अपने यजमान पर
वैसे ही कृपा करते हैं,जैसे राजा सर्वगुणसम्पन्न
वीर पुरुष का सम्मान करता है।

एक बार अग्नि अपने हाथों में अन्न धारण करके गुफा में बैठ गए।
अत: सब देवता बहुत भयभीत हुए।
अमर देवताओं ने अग्नि का महत्व ठीक से नहीं
पहचाना था।
वे थके पैरों से चलते हुए ध्यान में लगे हुए अग्नि
के पास पहुँचे।

मरुतों ने तीन वर्षों तक अग्नि की स्तुति की।
अंगिरा ने मंत्रों द्वारा अग्नि की स्तुति तथा पणि
नामक असुर को नाद से ही नष्ट कर डाला।

देवताओं ने जांघ के बल बैठकर अग्निदेव की
पूजा की।
अंगिरा ने यज्ञाग्नि धारण करके अग्नि को ही
साधना का लक्ष्य बनाया।
तदनन्तर आकाश में ज्योतिस्वरूप सूर्य और ध्वजस्वरूप किरणों की प्राप्ति हुई।

देवताओं ने अग्नि में अवस्थित इक्कीस गूढ़ पद
प्राप्त कर अपनी रक्षा की।
अग्नि और सोम ने युद्ध में बृसय की सन्तान नष्ट
कर डाली तथा पणि की गौएं हर लीं।
अग्नि के अश्वों का नाम रोहित तथा रथ का नाम
धूमकेतु है।

महाभारत के अनुसार
देवताओं को जब पार्वती से शाप मिला था
कि वे सब सन्तानहीन रहेंगे,तब अग्निदेव
वहाँ पर नहीं थे।

कालान्तर में विद्रोहियों को मारने के लिए किसी
देवपुत्र की आवश्यकता हुई।
अत: देवताओं ने अग्नि की खोज आरम्भ की।
अग्निदेव जल में छिपे हुए थे।

मेढ़क ने उनका निवास स्थान देवताओं को
बताया।

अत: अग्निदेव ने रुष्ट होकर उसे जिह्वा न होने
का शाप दिया।

देवताओं ने कहा कि वह फिर भी बोल पायेगा।
अग्निदेव किसी दूसरी जगह पर जाकर छिप गए।
हाथी ने देवताओं से कहा-अश्वत्थ (सूर्य का एक नाम)
अग्नि रूप है।

अग्नि ने उसे भी उल्टी जिह्वा वाला कर दिया।

इसी प्रकार तोते ने शमी में छिपे अग्नि का पता
बताया तो वह भी शापवश उल्टी जिह्वा वाला
हो गया।

शमी में देवताओं ने अग्नि के दर्शन करके तारक
के वध के निमित्त पुत्र उत्पन्न करने को कहा।

अग्नि देव शिव के वीर्य का गंगा में आधान करके
कार्तिकेय के जन्म के निमित्त बने।

भृगु पत्नी पुलोमा का पहले राक्षस पुलोमन से
विवाह हुआ था।

जब भृगु अनुपस्थित थे,वह पुलोमा को लेने आया
तो उसने यज्ञाग्नि से कहा कि वह उसकी है या भृगु
की भार्या।

उसने उत्तर दिया कि यह सत्य है कि उसका प्रथम वरण उसने (राक्षस) ही किया था,लेकिन अब वह
भृगु की पत्नी है।

जब पुलोमन उसे बलपूर्वक ले जा रहा था,उसके
गर्भ से ‘च्यवन’ गिर गए और पुलोमन भस्म हो गया।

उसके अश्रुओं से ब्रह्मा ने ‘वसुधारा नदी’ का
निर्माण किया।

भृगु ने अग्नि को शाप दिया कि तू हर पदार्थ का
भक्षण करेगी।

शाप से पीड़ित अग्नि ने यज्ञ आहुतियों से अपने
को विलग कर लिया,जिससे प्राणियों में हताशा
व्याप्त हो गई।
ब्रह्मा ने उसे आश्वासन दिया कि वह पूर्ववत् पवित्र
मानी जाएगी।

सिर्फ़ मांसाहारी जीवों की उदरस्थ पाचक अग्नि
को छोड़कर उसकी लपटें सर्व भक्षण में समर्थ
होंगी।

अंगिरस ने अग्नि से अनुनय किया था कि वह
उसे अपना प्रथम पुत्र घोषित करें,क्योंकि ब्रह्मा
द्वारा नई अग्नि स्रजित करने का भ्रम फैल गया था।

अंगिरस से लेकर बृहस्पति के माध्यम से अन्य ऋषिगण अग्नि से संबद्ध रहे हैं।

हरिवंश पुराण के अनुसार
असुरों के द्वारा देवताओं की पराजय को देखकर
अग्नि ने असुरों को मार डालने का निश्चय किया।
वे स्वर्गलोक तक फैली हुई ज्वाला से दानवों की
दग्ध करने लगे।

मय तथा शंबरासुर ने माया द्वारा वर्षा करके अग्नि
को मंद करने का प्रयास किया,किन्तु बृहस्पति ने
उनकी आराधना करके उन्हें तेजस्वी रहने की
प्रेरणा दी।

फलत: असुरों की माया नष्ट हो गई।

ब्रह्म पुराण के अनुसार
जातवेदस् नामक अग्नि का एक भाई था।
वह हव्यवाहक (यज्ञ-सामग्री लाने वाला) था।
दिति-पुत्र (मधु) ने देवताओं के देखते-देखते ही
उसे मार डाला।

अग्नि गंगाजल में आ छिपा।
देवता जड़वत् हो गए।
अग्नि के बिना जीना कठिन लगा तो वे सब उसे
खोजते हुए गंगाजल में पहुँचे।
अग्नि ने कहा,भाई की रक्षा नहीं हुई,मेरी होगी,
यह कैसे सम्भव है?
देवताओं ने उसे यज्ञ में भाग देना आरम्भ किया।
अग्नि ने पूर्ववत् स्वर्गलोक तथा भूलोक में निवास
आरम्भ कर दिया।

देवताओं ने जहाँ अग्नि प्रतिष्ठा की,वह स्थान
अग्नितीर्थ कहलाया।

दक्ष की कन्या (स्वाहा) का विवाह अग्नि
(हव्यवाहक) से हुआ।
बहुत समय तक वह नि:सन्तान रही।

उन्हीं दिनों तारक से त्रस्त देवताओं ने अग्नि को
सन्देशवाहक बनाकर शिव के पास भेजा।
शिव से देवता ऐसा वीर पुत्र चाहते थे,जो कि तारक
का वध कर सके।
पत्नी के पास जाने में संकोच करने वाले अग्नि ने तोते का रूप धारण किया और एकान्तविलासी
शिव-पार्वती की खिड़की पर जा बैठा।

शिव ने उसे देखते ही पहचान लिया तथा उसके
बिना बताये ही देवताओं की इच्छा जानकर शिव
ने उसके मुँह में सारा वीर्य उड़ेल दिया।

शुक (अग्नि) इतने वीर्य को नहीं सम्भाल पाए।

उसने वह गंगा के किनारे कृत्तिकाओं में डाल दिया,
जिनसे कार्तिकेय का जन्म हुआ।

थोड़ा-सा बचा हुआ वीर्य वह पत्नी के पास ले गया।
उसे दो भागों में बाँटकर स्वाहा को प्रदान किया,
अत: उसने (स्वाहा ने) दो शिशुओं को जन्म दिया।
पुत्र का नाम सुवर्ण तथा कन्या का नाम सुवर्णा
रखा गया।

मिश्र वीर्य सन्तान होने के कारण वे दोनों
व्यभिचार दोष से दूषित हो गए।

सुवर्णा असुरों की प्रियाओं का रूप बनाकर असुरों
के साथ घूमती थी तथा सुवर्ण देवताओं का रूप धारण करके उनकी पत्नियों को ठगता था।

सुर तथा असुरों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने दोनों
को सर्वगामी होने का शाप दिया।
ब्रह्मा के आदेश पर अग्नि ने गोमती नदी के तट
पर,शिवाराधना से शिव को प्रसन्न कर दोनों को
शापमुक्त करवाया।
वह स्थान तपोवन कहलाया।
‪#‎साभारसंकलित‬
==============
समस्त चराचर प्राणियों एवं सकल विश्व का
कल्याण करो प्रभु !

जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,,
जयति पुण्य भूमि भारत,,,

सदा सुमंगल,,,
रं वह्निचैतन्याय नमः
हर हर महादेव
जय भवानी
जय श्री राम

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ATULYA BHARAT LESSER KNOWN TEMPLE KEDARESHWARA [HOYSHALAS] TEMPLE NAGALPURA TURUVEKRE KARNATAKA


"ART OF HOYSHALA KEDARESHWARA TURUVEKRE KARNATAKA"
"ONTHERE SIDE OF TEMPLE 
ART OF HOYSHALA KEDARESHWARA TURUVEKRE KARNATAKA"
"LORD BRAMHAS SCULPTURE KEDARESHWARA TURUVEKRE KARNATAKA"
"SHIVA N PARVATI .KEDARESHWAR TURUVEKRE KARNATAKA"
"SHIVA SCULPTURE KEDARESHWARA TURUVEKRE KARNATAKA"
+2
Jigna Shah to INDIAN HISTORY ~ REAL TRUTH

ATULYA BHARAT LESSER KNOWN TEMPLE KEDARESHWARA [HOYSHALAS] TEMPLE NAGALPURA TURUVEKRE KARNATAKA

‘Nagalapura’ is a village located in Turuvekere taluk , Tumkur district. This place is almost unknown but has two significantly beautiful and ornate Hoysala temples, which probably would have been grand like any other Hoysala temple, but today is nothing but ruins.
Nagalapura was a prosperous town under the Hoysala rule, whose grandeur can be felt when we look at these temple . Like most of the Hoysala towns, this too has a temple dedicated to Lord Shiva (Kedareshwara) and another temple dedicated to Lord Vishnu (Chennakeshava). The Kedareshwara temple is situated at the entrance of the village. This is bigger than the Chennakeshava temple though both have the same plan of construction.

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ANCIENT BUCHESHWARA TEMPLE[ NAGESHWARA ] MOSALE HASSAN


"BUCHESHWARA MOSALE HASSAN"
"BUCHESHWARA MOSALE HASSAN"
"BUCHESHWARA MOSALE HASSAN"
Jigna Shah to INDIAN HISTORY ~ REAL TRUTH

ANCIENT BUCHESHWARA TEMPLE[ NAGESHWARA ] MOSALE HASSAN

Mosala or Mosale Hosahalli, a small hamlet lies amidst the fascinating natural scenery of Hassan taluk, holds two unique temples noted for its rich architectural value.

Mosale is situated at about 12 kms from Hassan town on the Hassan-Holenarasipura Road. Old stories say that in ancient days sage Jamadagni had a hermitage in this place and the village was earlier called as Musala, which means a pestle. The two temples are good examples of Hoysala Art. The antiquities of these temples are not yet known. However, from their architectural character and style, they may belong to 13th century AD.

Constructed on the lines of Hoysala architecture, the twin temples (Trikootachala type) dedicated to Nageshwara and Chenna Kesava respectively stand side-by-side, a few feet apart, is identical in design and workmanship.

The temples made of soapstone consist of a sanctum, a sukanasi, a navaranga and a porch (mukhamantapa) with a jagathi on either side. The sanctum of Chenna Kesava temple holds six-feted Chenna Kesava idol beautifully sculpted.

The prabhavali placed behind Chenna Kesava has the images of Matsya, Koorma, and Varaha etc representing incarnations of Lord Vishnu.

Sridevi and Bhudevi placed on either side of Chenna Kesava are attractive. The doorway of sanctum has a Gajalakshmi. Rangamantapa has a lotus-shaped, artistically designed ceiling carved with the figures of Indra, Agni, Varuna, and Vaayu – the Astadikpalakas sitting on their vehicle.

The Nageshwara temple has a sanctum, a sukanasi, navaranga and a mantapa. One can see a beautifully sculpted Nandi idol here. The Nageshwara and Chenna Kesava temples have an elaborately carved with intricate geometrical patters and marvel designed ceilings.