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1966 का वह गो-हत्‍या बंदी आंदोलन


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Aditi Gupta

1966 का वह गो-हत्‍या बंदी आंदोलन, जिसमें हजारों साधुओं को इंदिरा सरकार ने गोलियों से भुनवा दिया था! आंखों देखा वर्णन!

देश के त्याग, बलिदान और राष्ट्रीय ध्वज में मौजूद ‘भगवा’ रंग से पता नहीं कांग्रेस को क्‍या एलर्जी है कि वह आजाद भारत में संतों के हर आंदोलन को कुचलती रही है। आजाद भारत में कांग्रेस पार्टी की सरकार भगवा वस्त्रधारी संतों पर गोलियां तक चलवा चुकी है! गो-रक्षा के लिए कानून बनाने की मांग लेकर जुटे हजारों साधु-संत इस गांलीकांड में मारे गए थे। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुए उस खूनी इतिहास को कांग्रेस ने ठीक उसी तरह दबा दिया, जिस कारण आज की युवा पीढ़ी उस दिन के खूनी कृत्‍य से आज भी अनजान है!

गोरक्षा महाभियान समिति के तत्कालीन मंत्रियों में से एक मंत्री और पूरी घटना के गवाह, प्रसिद्ध इतिहासकार एवं लेखक आचार्य सोहनलाल रामरंग के अनुसार, ”7 नवंबर 1966 की सुबह आठ बजे से ही संसद के बाहर लोग जुटने शुरू हो गए थे। उस दिन कार्तिक मास, शुक्‍ल पक्ष की अष्‍टमी तिथि थी, जिसे हम-आप गोपाष्‍ठमी नाम से जानते हैं। गोरक्षा महाभियान समिति के संचालक व सनातनी करपात्री जी महाराज ने चांदनी चैक स्थित आर्य समाज मंदिर से अपना सत्याग्रह आरंभ किया। करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में जगन्नाथपुरी, ज्योतिष पीठ व द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय के सातों पीठ के पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, मध्व संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिख समाज के प्रतिनिधि, सिखों के निहंग व हजारों की संख्या में मौजूद नागा साधुओं को पंडित लक्ष्मीनारायण जी ने चंदन तिलक लगाकर विदा कर रहे थे। लालकिला मैदान से आरंभ होकर नई सड़क व चावड़ी बाजार से होते हुए पटेल चैक के पास से संसद भवन पहुंचने के लिए इस विशाल जुलूस ने पैदल चलना आरंभ किया। रास्ते में अपने घरों से लोग फूलों की वर्षा कर रहे थे। हर गली फूलों का बिछौना बन गया था।”

आचार्य सोहनलाल रामरंग के अनुसार, ” यह हिंदू समाज के लिए सबसे बड़ा ऐतिहासिक दिन था। इतने विवाद और अहं की लड़ाई होते हुए भी सभी शंकराचार्य और पीठाधिपतियों ने अपने छत्र, सिंहासन आदि का त्याग किया और पैदल चलते हुए संसद भवन के पास मंच पर समान कतार में बैठे। उसके बाद से आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ। नई दिल्ली का पूरा इलाका लोगों की भीड़ से भरा था। संसद गेट से लेकर चांदनी चैक तक सिर ही सिर दिखाई दे रहा था। कम से कम 10 लाख लोगों की भीड़ जुटी थी, जिसमें 10 से 20 हजार तो केवल महिलाएं ही शामिल थीं। जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल तक के लोग गो हत्या बंद कराने के लिए कानून बनाने की मांग लेकर संसद के समक्ष जुटे थे। उस वक्त इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी और गुलजारी लाल नंदा गृहमंत्री। गो हत्या रोकने के लिए इंदिरा सरकार केवल आश्वासन ही दे रही थी, ठोस कदम कुछ भी नहीं उठा रही थी। सरकार के झूठे वादे से उकता कर संत समाज ने संसद के बाहर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया था।”

रामरंग जी के अनुसार, ”दोपहर एक बजे जुलूस संसद भवन पर पहुंच गया और संत समाज के संबोधन का सिलसिला शुरू हुआ। करीब तीन बजे का समय होगा, जब आर्य समाज के स्वामी रामेश्वरानंद भाषण देने के लिए खड़े हुए। स्वामी रामेश्वरानंद ने कहा, ‘यह सरकार बहरी है। यह गो हत्या को रोकने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाएगी। इसे झकझोरना होगा। मैं यहां उपस्थित सभी लोगों से आह्वान करता हूं कि सभी संसद के अंदर घुस जाओ और सारे सांसदों को खींच-खींच कर बाहर ले आओ, तभी गो हत्या बंदी कानून बन सकेगा।’ ”

”इतना सुनना था कि नौजवान संसद भवन की दीवार फांद-फांद कर अंदर घुसने लगे। लोगों ने संसद भवन को घेर लिया और दरवाजा तोड़ने के लिए आगे बढ़े। पुलिसकर्मी पहले से ही लाठी-बंदूक के साथ तैनात थे। पुलिस ने लाठी और अश्रुगैस चलाना शुरू कर दिया। भीड़ और आक्रामक हो गई। इतने में अंदर से गोली चलाने का आदेश हुआ और पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। संसद के सामने की पूरी सड़क खून से लाल हो गई। लोग मर रहे थे, एक-दूसरे के शरीर पर गिर रहे थे और पुलिस की गोलीबारी जारी थी। नहीं भी तो कम से कम, पांच हजार लोग उस गोलीबारी में मारे गए थे।”

”बड़ी त्रासदी हो गई थी और सरकार के लिए इसे दबाना जरूरी था। ट्रक बुलाकर मृत, घायल, जिंदा-सभी को उसमें ठूंसा जाने लगा। जिन घायलों के बचने की संभावना थी, उनकी भी ट्रक में लाशों के नीचे दबकर मौत हो गई। हमें आखिरी समय तक पता ही नहीं चला कि सरकार ने उन लाशों को कहां ले जाकर फूंक डाला या जमीन में दबा डाला। पूरे शहर में कफ्र्यू लागू कर दिया गया और संतों को तिहाड़ जेल में ठूंस दिया गया। केवल शंकराचार्य को छोड़ कर अन्य सभी संतों को तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। करपात्री जी महाराज ने जेल से ही सत्याग्रह शुरू कर दिया। जेल उनके ओजस्वी भाषणों से गूंजने लगा। उस समय जेल में करीब 50 हजार लोगों को ठूंसा गया था।”

रामरंग जी के अनुसार, ”शहर की टेलिफोन लाइन काट दी गई। 8 नवंबर की रात मुझे भी घर से उठा कर तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया। नागा साधु छत के नीचे नहीं रहते, इसलिए उन्होंने तिहाड़ जेल के अदंर रहने की जगह आंगन में ही रहने की जिद की, लेकिन ठंड बहुत थी। नागा साधुओं ने जेल का गेट, फर्निचर आदि को तोड़ कर जलाना शुरू किया। उधर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गुलजारीलाल नंदा पर इस पूरे गोलीकांड की जिम्मेवारी डालते हुए उनका इस्तीफा ले लिया। जबकि सच यह था कि गुलजारीलाल नंदा गो हत्या कानून के पक्ष में थे और वह किसी भी सूरत में संतों पर गोली चलाने के पक्षधर नहीं थे, लेकिन इंदिरा गांधी को तो बलि का बकरा चाहिए था! गुलजारीलाल नंदा को इसकी सजा मिली और उसके बाद कभी भी इंदिरा ने उन्हें अपने किसी मंत्रीमंडल में मंत्री नहीं बनाया। तत्काल महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री व चीन से हार के बाद देश के रक्षा मंत्री बने यशवंत राव बलवतंराव चैहान को गृहमंत्री बना दिया गया। तिहाड़ जेल में नागा साधुओं के उत्पाद की खबर सुनकर गृहमंत्री यशवंत राव बलवतंराव चैहान खुद जेल आए और उन्होंने नागा साधुओं को आश्वासन दिया कि उनके अलाव के लिए लकड़ी का इंतजाम किया जा रहा है। लकड़ी से भरे ट्रक जेल के अंदर पहुंचने और अलाव की व्यवस्था होने पर ही नागा साधु शांत हुए।”

रामरंग जी के मुताबिक, ”करीब एक महीने बाद लोगों को जेल से छोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ। करपात्री जी महाराज को भी एक महीने बाद छोड़ा गया। जेल से निकल कर भी उनका सत्याग्रह जारी था। पुरी के शंकराचार्य और प्रभुदत्‍त ब्रहमचारी जी का आमरण अनशन महीनों चला। बाद में इंदिरा सरकार ने इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए धोखे का सहारा लिया। यशवंत राव बलवतंराव चैहान ने करपात्री जी महाराज से भेंट कर यह आश्वासन दिया कि अगले संसद सत्र में गो हत्या बंदी कानून बनाने के लिए अध्यादेश लाया जाएगा और इसे कानून बना दिया जाएगा, लेकिन आज तक यह कानून का रूप नहीं ले सका।”

रामरंग जी कहते हैं, ”कांग्रेस शुरु से ही भारत के सनातन धर्मी संतों से नफरत प्रदर्शित करती रही है। 7 नवंबर 1966 को उसका चरम रूप देखने को मिला। बाद में सरकार ने इस पूरे घटनाक्रम को एक तरह से दबा दिया, जिसकी वजह से गो रक्षा के लिए किए गए उस बड़े आंदोलन और सरकार के खूनी कृत्य से आज की युवा पीढ़ी अनजान है।”

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डा. मार्क


डा. मार्क एक प्रसिद्ध कैंसर स्पैश्लिस्ट हैं, एक बार किसी सम्मेलन में भाग लेने लिए किसी दूर के शहर जा रहे थे। वहां उनको उनकी नई मैडिकल रिसर्च के महान कार्य के लिए पुरुस्कृत किया जाना था। वे बड़े उत्साहित थे व जल्दी से जल्दी वहां पहुंचना चाहते थे। उन्होंने इस शोध के लिए बहुत मेहनत की थी। बड़ा उतावलापन था, उनका उस पुरुस्कार को पाने के लिए।

उड़ने के लगभग दो घण्टे बाद उनके जहाज़ में तकनीकी खराबी आ गई, जिसके कारण उनके हवाई जहाज को आपातकालीन लैंडिंग करनी पड़ी। डा. मार्क को लगा कि वे अपने सम्मेलन में सही समय पर नहीं पहुंच पाएंगे, इसलिए उन्होंने स्थानीय कर्मचारियों से रास्ता पता किया और एक टैक्सी कर ली, सम्मेलन वाले शहर जाने के लिए। उनको पता था की अगली प्लाईट 10 घण्टे बाद है। टैक्सी तो मिली लेकिन ड्राइवर के बिना इसलिए उन्होंने खुद ही टैक्सी चलाने का निर्णय लिया।

जैसे ही उन्होंने यात्रा शुरु की कुछ देर बाद बहुत तेज, आंधी-तूफान शुरु हो गया। रास्ता लगभग दिखना बंद सा हो गया। इस आपा-धापी में वे गलत रास्ते की ओर मुड़ गए। लगभग दो घंटे भटकने के बाद उनको समझ आ गया कि वे रास्ता भटक गए हैं। थक तो वे गए ही थे, भूख भी उन्हें बहुत ज़ोर से लग गई थी। उस सुनसान सड़क पर भोजन की तलाश में वे गाड़ी इधर-उधर चलाने लगे। कुछ दूरी पर उनको एक झोंपड़ी दिखी।

झोंपड़ी के बिल्कुल नजदीक उन्होंने अपनी गाड़ी रोकी। परेशान से होकर गाड़ी से उतरे और उस छोटे से घर का दरवाज़ा खटखटाया। एक स्त्री ने दरवाज़ा खोला। डा. मार्क ने उन्हें अपनी स्थिति बताई और एक फोन करने की इजाजत मांगी। उस स्त्री ने बताया कि उसके यहां फोन नहीं है। फिर भी उसने उनसे कहा कि आप अंदर आइए और चाय पीजिए। मौसम थोड़ा ठीक हो जाने पर, आगे चले जाना।

भूखे, भीगे और थके हुए डाक्टर ने तुरंत हामी भर दी। उस औरत ने उन्हें बिठाया, बड़े सम्मान के साथ चाय दी व कुछ खाने को दिया। साथ ही उसने कहा, “आइए, खाने से पहले भगवान से प्रार्थना करें और उनका धन्यवाद कर दें।”

डाक्टर उस स्त्री की बात सुन कर मुस्कुरा दिेए और बोले,”मैं इन बातों पर विश्वास नहीं करता। मैं मेहनत पर विश्वास करता हूं। आप अपनी प्रार्थना कर लें।”

टेबल से चाय की चुस्कियां लेते हुए डाक्टर उस स्त्री को देखने लगे जो अपने छोटे से बच्चे के साथ प्रार्थना कर रही थी। उसने कई प्रकार की प्रार्थनाएं की। डाक्टर मार्क को लगा कि हो न हो, इस स्त्री को कुछ समस्या है। जैसे ही वह औरत अपने पूजा के स्थान से उठी, तो डाक्टर ने पूछा,”आपको भगवान से क्या चाहिेए? क्या आपको लगता है कि भगवान आपकी प्रार्थनाएं सुनेंगे?”

उस औरत ने धीमे से उदासी भरी मुस्कुराहट बिखेरते हुए कहा,”ये मेरा लड़का है और इसको एक रोग है जिसका इलाज डाक्टर मार्क नामक व्यक्ति के पास है परंतु मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैंं उन तक, उनके शहर जा सकूं क्योंकि वे दूर किसी शहर में रहते हैं। यह सच है की कि भगवान ने अभी तक मेरी किसी प्रार्थना का जवाब नहीं दिया किंतु मुझे विश्वास है कि भगवान एक न एक दिन कोई रास्ता बना ही देंगे। वे मेरा विश्वास टूटने नहीं देंगे। वे अवश्य ही मेरे बच्चे का इलाज डा. मार्क से करवा कर इसे स्वस्थ कर देंगे।”

डाक्टर मार्क तो सन्न रह गए। वे कुछ पल बोल ही नहीं पाए। आंखों में आंसू लिए धीरे से बोले,”भगवान बहुत महान हैं।”

(उन्हें सारा घटनाक्रम याद आने लगा। कैसे उन्हें सम्मेलन में जाना था। कैसे उनके जहाज को इस अंजान शहर में आपातकालीन लैंडिंग करनी पड़ी। कैसे टैक्सी के लिए ड्राइवर नहीं मिला और वे तूफान की वजह से रास्ता भटक गए और यहां आ गए।)

वे समझ गए कि यह सब इसलिए नहीं हुआ कि भगवान को केवल इस औरत की प्रार्थना का उत्तर देना था बल्कि भगवान उन्हें भी एक मौका देना चाहते थे कि वे भौतिक जीवन में धन कमाने, प्रतिष्ठा कमाने, इत्यादि से ऊपर उठें और असहाय लोगों की सहायता करें। वे समझ गए की भगवान चाहते हैं कि मैं उन लोगों का इलाज करूं जिनके पास धन तो नहीं है किंतु जिन्हें भगवान पर विश्वास है।
मित्रों,
हर इंसान को ये ग़लतफहमी होती है की जो हो रहा है वो उस पर उसका कण्ट्रोल है और वह इन्सान ही सब कुछ कर रहा है ।।
पर अचानक ही कोई अनजानी ताकत सबकुछ बदल देती है कुछ ही सेकण्ड्स लगते हैं सबकुछ बदल जाने में फिर हम याद करते हैं भगवन को।
जय श्री कृष्णा🙏🙏

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स्वामी विवेकानंद


स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद जी बचपन से ही निडर थे , जब वह लगभग 8 साल के थे तभी से अपने एक मित्र के यहाँ खेलने जाया करते थे , उस मित्र के घर में एक चम्पक पेड़ लगा हुआ था . वह स्वामी जी का पसंदीदा पेड़ था और उन्हें उसपर लटक कर खेलना बहुत प्रिय था .

रोज की तरह एक दिन वह उसी पेड़ को पकड़ कर झूल रहे थे की तभी मित्र के दादा जी उनके पास पहुंचे , उन्हें डर था कि कहीं स्वामी जी उसपर से गिर न जाए या कहीं पेड़ की डाल ही ना टूट जाए , इसलिए उन्होंने स्वामी जी को समझाते हुआ कहा , “ नरेन्द्र ( स्वामी जी का नाम ) , तुम इस पेड़ से दूर रहो , अब दुबारा इसपर मत चढना ”

“क्यों ?” , नरेन्द्र ने पूछा .

“ क्योंकि इस पेड़ पर एक ब्रह्म्दैत्य रहता है , वो रात में सफ़ेद कपडे पहने घूमता है , और देखने में बड़ा ही भयानक है .” उत्तर आया .

नरेन्द्र को ये सब सुनकर थोडा अचरज हुआ , उसने दादा जी से दैत्य के बारे में और भी कुछ बताने का आग्रह किया .

दादा जी बोले ,” वह पेड़ पर चढ़ने वाले लोगों की गर्दन तोड़ देता है .”

नरेन्द्र ने ये सब ध्यान से सुना और बिना कुछ कहे आगे बढ़ गया . दादा जी भी मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गए , उन्हें लगा कि बच्चा डर गया है . पर जैसे ही वे कुछ आगे बढे नरेन्द्र पुनः पेड़ पर चढ़ गया और डाल पर झूलने लगा .

यह देख मित्र जोर से चीखा , “ अरे तुमने दादा जी की बात नहीं सुनी , वो दैत्य तुम्हारी गर्दन तोड़ देगा .”

बालक नरेन्द्र जोर से हंसा और बोला , “मित्र डरो मत ! तुम भी कितने भोले हो ! सिर्फ इसलिए कि किसी ने तुमसे कुछ कहा है उसपर यकीन मत करो ; खुद ही सोचो अगर दादा जी की बात सच होती तो मेरी गर्दन कब की टूट चुकी होती .”

सचमुच स्वामी विवेकानंद जी बचपन से ही निडर और तीक्ष्ण बुद्धि के थे।

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छत्रपति शिवाजी महाराज की गुरुभक्ति


छत्रपति शिवाजी महाराज की गुरुभक्ति !

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छत्रपति शिवाजी महाराज अपने गुरुदेव समर्थ रामदास स्वामीके एकनिष्ठ भक्त थे । इसलिए समर्थ भी अन्य शिष्योंकी अपेक्षा उनसे अधिक प्रेम करते थे । यह देख अन्य शिष्योंको लगा, ‘‘शिवाजीके राजा होनेसे ही समर्थ उनसे अधिक प्रेम करते हैं !’’ समर्थ रामदासस्वामीने यह भ्रम त्वरित दूर करनेकासंकल्प लिया ।

वे अपने शिष्यगणोंके साथ वनोंमें गए । वहां वे रास्ता खो बैठे । इसके साथ समर्थ एक गुफामें पेटकी पीडाका नाटक कर कराहते हुए सो गए । आनेपर शिष्योंने देखा कि गुरुदेव पीडासे कराह रहे हैं । शिष्योंने इसपर उपाय पुछा । समर्थद्वारा उपाय बतानेपर सभी शिष्य एकदूसरेके मुंह देखने लगे । जिसप्रकार दुर्बल मानसिकता एवं ढोंगी भक्तोंकी अवस्था होती है, बिल्कुल ऐसा ही गंभीर वातावरण बन गया ।

छ. शिवाजी महाराज समर्थ रामदासस्वामीके दर्शन लेने निकल पडे । उन्हें जानकारी मिली कि समर्थ इसी वनमें कहीं होंगे । ढूंढते-ढूंढते वे एक गुफाकी ओर आए । गुफामें पीडासे कराहनेकी ध्वनि सुनाईदी । भीतर जाकर देखनेपर ज्ञात हुआ कि साक्षात गुरुदेव ही व्याकुल होकर सोए हैं । राजा शिवाजीने हाथ जोडकर उनसे उनकी वेदनाका कारण पूछा ।

समर्थ : शिवा, पेटमें असहनीय पीडा हो रही है ।

शिवाजी महाराज : गुरुदेव, इसपर कुछ दवा ?

समर्थ : शिवा, इसपर कोई दवा नहीं ! यह असाध्य रोग है । केवल एक ही दवा काम कर सकेगी; परंतु जाने दो ।

शिवाजी महाराज : गुरुदेव, निःसंकोच बताएं । अपने गुरुदेवको आश्वस्त (सुखी) किए बिना हम शांत बैठ नहीं पाएंगे ।

समर्थ : मादा बाघका दूध और वो भी ताजा ! परंतु शिवा, उसका मिलना संभव नहीं !

शिवाजी महाराजने उनके समीपका एक कमंडलू उठाया एवं समर्थको वंदन कर वे तुरंत बाघिनको ढूंढनेके लिए निकल पडे । कुछ दूर जानेपर एक स्थानपर बाघके दो बच्चे दिखाई दिए ।

राजा शिवाजीने सोचा, ‘‘इनकी मां भी निश्चित रूपसे यहीं कहीं निश्चित होगी ।’’ संयोगसे (दैवयोगसे) उनकी मां वहां आई । अपने बच्चोंके पास अपरिचित व्यक्तिको देख वह उनपर गुर्रानेलगी ।

राजा शिवाजी स्वयं उस बाघिनसे लडनेमें सक्षम थे; परंतु इस स्थितिमें वे लडना नहीं चाहते थे अपितु केवल बाघिनका दूध चाहते थे । उन्होंने धैर्यके साथ हाथ जोडकर बाघिनसे विनती की, ‘‘माता, हम यहां आपको मारने अथवा आपके बच्चोंको कष्ट पहुंचाने नहीं आए । हमारे गुरुदेवका स्वास्थ्य सुधारनेके लिए हमें आपका दूध चाहिए, वह हमें दे दो, उसे हम अपने गुरुदेवको देकर आते हैं । तदुपरांत तुम भले ही मुझे खा जाओ ।’’ ऐसा कहकर राजा शिवाजीने उसकी पीठपर प्रेमसे हाथ फिराया ।

अबोल प्राणी भी प्रेमपूर्ण व्यवहारसे वशमें होते हैं । बाघिनका क्रोध शांत हुआ एवं वह उन्हें बिल्लीसमान चाटने लगी । अवसर देख राजाने उसके स्तनोंसे कमंडलूमें दूध भर लिया । उसे प्रणाम कर अत्यंत आनंदसे उन्होंने वहांसे प्रस्थान किया । गुफामें पहुंचनेपर गुरुदेवके समक्ष दूधसे भरा कमंडलू रख राजाने गुरुदेव समर्थको प्रणाम किया । ‘‘अंततः तुम बाघिनका दूध लानेमें सफल हुए ! तुम धन्य हो शिवा ! तुम्हारे जैसे एकनिष्ठ शिष्य रहनेपर गुरु की पीडी कैसे टिकी रहेगी ?’’ गुरुदेव समर्थने राजा शिवाजी के शीश पर अपना हाथ रखकर अन्य उपस्थित शिष्यों की ओर देखा ।

अतएव शिष्य समझ गए कि बह्मवेत्ता गुरु जब किसी शिष्यसे प्रेम करते हैं, तो उसकी विशेष योग्यता होती है । वह उनकी विशेष कृपाका अधिकारी होता है । ईर्षारखनेसे हमारी दुर्गुणएवंदुर्बलताबढती हैं । इसलिए ऐसी विशेष कृपाका अधिकारी होनेवाले अपने गुरुबंधुके प्रति ईर्षा रखनेकी अपेक्षा हमें हमारी दुर्बलता एवं दुर्गुण नष्ट करनेके लिए तत्पर रहना चाहिए ।

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પૈસાની તંગીનું કારણ બને છે ઘરની આ પાંચ વસ્તુઓ, કરી લેજો આ ઉપાય !


પૈસાની તંગીનું કારણ બને છે ઘરની આ પાંચ વસ્તુઓ, કરી લેજો આ ઉપાય !

ઘણાં લોકો ભલે ગમે તેટલી કોશિશ કરી લે, પરંતુ તેઓ પોતાના ધનને સંભાળીને નથી રાખી શકતાં. આવા વ્યક્તિઓને સતત પૈસાનું નુકસાન થતું જ રહે છે. એવામાં તેનું કારણ સમજી શકવું ઘણું મુશ્કેલ થઇ જાય છે. ઘણીવાર સતત પૈસાના નુકસાનને કારણે વાસ્તુ સંબંધી દોષ પણ થઇ શકે છે. વાસ્તુના આ 5 કારણોને ધ્યાનમાં રાખીને પૈસાના નુકસાનથી બચી શકાય છે.

  1. ધન રાખવાની દિશાઃ-

ધનમાં વૃદ્ધિ અને બચત માટે તિજોરી અથવા કબાટ જેમાં ધન રાખવામાં આવે, તેને દક્ષિણ દિશામાં એવી રીતે રાખો કે તેનું મુખ ઉત્તર દિશા તરફ રહે. ધનમાં વૃદ્ધિ માટે તિજોરીનું મુખ ઉત્તર દિશાની તરફ હોવું સૌથી સારું માનવામાં આવે છે.

  1. નળથી પાણી ટપકવું-

ઘરના નળમાંથી પાણીનું ટપકવું ખૂબ જ સામાન્ય વાત માનવામાં આવે છે. આ માટે તેને ઘણાં લોકો અદેખું કરે છે, પરંતુ નળથી પાણીનું ટપકતાં રહેવું પણ વાસ્તુશાસ્ત્રમાં આર્થિક નુકસાનનું મોટું કારણ માનવામાં આવે છે. વાસ્તુના નિયમ મુજબ, નળથી પાણીનું ટપકતાં રહેવું ધીરે-ધીરે ધનના ખર્ચનો સંકેત માનવામાં આવે છે. આ માટે નળમાં ખરાબી આવી જાય તો તેને તરત જ બદલી દેવો જોઇએ.

  1. બેડરૂમમાં રહેલી ધાતુની વસ્તુઓઃ-

બેડરૂમમાં ગેટની સામેવાળી દીવાલની ડાબા ખૂણા પર ધાતુની કોઇ વસ્તુ લટકાવી જોઇએ. વાસ્તુશાસ્ત્ર મુજબ આ સ્થાન ભાગ્ય અને સંપત્તિનું ક્ષેત્ર હોય છે. આ દિશાની દીવાલમાં તિરાડ ન હોવી જોઇએ. આ દિશાનું કપાયેલું હોવું આર્થિક નુકસાનનું કારણ હોય છે.

  1. ઘરમાં ન રાખવો કબાટઃ-

ઘરમાં તૂટેલાં-ફૂટેલાં વાસણ તથા કબાટને એંકઠા કરીને રાખવાથી ઘરમાં નેગેટિવ ઉર્જા ફેલાય છે. તૂટેલો પલંગ, કબાટ અથવા લાકડાનો સામાન પણ ઘરમાં ન રાખવો જોઇએ, આવું કરવાથી આર્થિક લાભમાં કમી આવે છે અને ખર્ચ વધે છે. અગાસી ઉપર અથવા દાદરાની નીચે કબાટ રાખવાથી પણ તે આર્થિક નુકસાનનું કારણ બને છે.

  1. પાણીના નિકાશનું રાખવું ધ્યાનઃ-

વાસ્તુશાસ્ત્ર મુજબ, જળનો નિકાશ ઘણી વસ્તુઓને પ્રભાવિત કરે છે. જેના ઘરમાં જળનો નિકાશ દક્ષિણ અથવા પશ્ચિમ દિશામાં હોય છે તેમણે આર્થિક સમસ્યાઓની સાથે અન્ય ઘણાં પ્રકારની પરેશાનીઓનો સામનો કરવો પડે છે. ઉત્તર દિશા તથા પૂર્ણ દિશામાં જળનો નિકાશ આર્થિક દ્રષ્ટિએ શુભ માનવામાં આવે છે.